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“हिन्दी दिवस”: हिंदी हैं हम वतन है हिन्दोस्तां हमारा

कीबोर्ड के पत्रकार

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भाषाओं की दुनिया- दुनिया भर में लगभग 7,111 भाषाएं बोली जाती हैं (Ethnologue, Directory of languages)। जिसमें से 6,700 भाषाओं के गायब होने का खतरा है (United Nations’ International Year of Indigenous Languages)।  सबसे ज्यादा 2303 भाषाएं एशिया में बोली जाती हैं। उसके बाद 2140 अफ्रीका, 1058 अमेरिका, 288 यूरोप बाकि 1322 दुनिया के अलग-अलग हिस्सों में बोली जाती हैं। इनमें बहुत सी भाषाएं पारिवारिक रूप में परस्पर सम्बद्ध हैं। ध्वनि, व्याकरण तथा शब्द समूह के तुलनात्मक अध्ययन-विश्लेषण के आधार पर एवं भौगोलिक निकटता के आधार पर भाषाओं के पारिवारिक संबन्धों का निर्णय किया गया है।

इस समय संसार में मुख्यतः कुल बारह परिवार हैं–

  1. द्रविड़,
  2. चिनी-तिब्बती,
  3. जापानी-कोरियाई,
  4. सामी (सैमेंटिक),
  5. हामी (हेमेटिक),
  6. यूरील-अल्ताई,
  7. मलय पॉलीनेशी,
  8. कंकोशी,
  9. आस्ट्रिक,
  10. बांतू,
  11. अमरीकी,
  12. भारोपीय परिवार।

यह हुई भाषा परिवार की बात। किन्तु संसार में अनेकों भाषाएं और बोलियां बोली जाती हैं। एक लोकोक्ति के अनुसार चार कोस पर पानी बदले, आठ कोस परबानी, मतलब…

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गणेश चतुर्थी विशेष- भारतीय संस्कृति और भगवान गणेश

कीबोर्ड के पत्रकार

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वक्रतुंड महाकाय कोटिसूर्यसमप्रभ।

निर्विघ्नं कुरु मे देव सर्वकार्येषु सर्वदा॥

ऊँ गं गणपतये नमो नमः           ऊँ गं गणपतये नमो नमः             ऊँ गं गणपतये नमो नमः

अर्थात्- आपका एक दांत टूटा हुआ है तथा आप की काया विशाल है और आपकी आभा करोड़ सूर्यों के समान है। मेरे कार्यों में आने वाली बाधाओं को सर्वदा दूर करें।

भारतीय संस्कृति एवं सनातन धर्म के प्रतीक देवों में भगवान गणेश का प्रमुख स्थान हैं। एकदंत, गजानन, लंबोदर, गणपति, विनायक ऐसे सहस्र नामों से भगवान गणेश को पुकारा गया है। हिंदू धर्म में श्रीगणेश की महिमा को अन्य देवताओं की तुलना में अलग से स्वीकारा गया हैं। वेदों और पुराणों में गणेश को यश, कीर्ति, पराक्रम, वैभव, ऐश्वर्य, सौभाग्य, सफलता, धन, धान्य, बुद्धि, विवेक और ज्ञान के देवता बताया गया है। अनेक शास्त्रों में उनके अलग-अलग रुपों की चर्चा हुई है। भगवान गणेश का…

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भारत-चीन संबंध: प्राचीन काल से लेकर वर्तमान संदर्भ तक…

डॉ. संदीप कोहली… कीबोर्ड के पत्रकारIMP

भारत और चीन की गणना विश्व की पांच महानतम सभ्यताओं (सिन्धु घाटी, मेसोपोटामिया, मिस्र, माया और चीनी सभ्यता) में की जाती हैं। दोनों पड़ोसी राष्ट्र हैं। अपने-अपने लंबे इतिहास में दोनों राष्ट्रों की जनता के बीच दुर्गम रास्तों के उपरान्त भी यात्रा का क्रम चलता रहा। दोनों ही राष्ट्रों के लोग एक-दूसरे से अनेक बातें सीखते आए हैं। इस पारस्परिक सम्बन्ध ने दोनों राष्ट्रों के बीच संस्कृति के विकास में महान योगदान ही नहीं दिया बल्कि विश्व संस्कृति के संवर्धन में भी अत्यंत महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। प्राचीन काल से लेकर आज तक भारत और चीन की जनता पारस्परिक आदान-प्रदान के अटूट सूत्र में बंधी रही है। महाभारत काल से स्थापित यह सम्बन्ध बौद्ध धर्म के प्रचार-प्रसार के बाद खूब फला-फूला। लेकिन अचानक ऐसा क्या हुआ जिसने भारत-चीन संबंधों को अत्यंत कटुतापूर्ण बना दिया। आइए जानते हैं-

भारतीय वाङ्मय (साहित्य) में चीन

भारत और चीन में प्राचीन काल से ही सांस्कृतिक तथा आर्थिक सम्बन्ध रहे हैं। भारत से बौद्ध धर्म का प्रचार चीन की भूमि पर हुआ है। चीन के लोगों ने प्राचीन काल से ही बौद्ध धर्म की शिक्षा ग्रहण करने के लिए भारत के विश्वविद्यालयों अर्थात् नालन्दा विश्वविद्यालय एवं तक्षशिला विश्वविद्यालय को चुना था भारत की प्राचीन पुस्तकों में भी चीन का उल्लेख मिलता है-

भारत और चीन के सम्बन्ध प्राचीन काल से हैं। यद्यपि चीन शब्द का प्रथम अभिलिखित उल्लेख 1555 ई. से किया जाता है, किन्तु ऐसा माना जाता है कि चीन शब्द की उत्पत्ति प्राचीनतम भारतीय भाषा संस्कृत के शब्द ‘सिना’ (cina) से हुई है।

  • Sanskrit word meaning China, was transcribed into various forms including 支那 (Zhīnà), 芝那 (Zhīnà), 脂那 (Zhīnà) and 至那 (Zhìnà). Thus, the term Shina was initially created as a transliteration of Cina, and this term was in turn brought to Japan with the spread of Chinese Buddhism. Traditional etymology holds that the Sanskrit name, like Middle Persian Čīn and Latin Sina, derives from the Qin state or dynasty which ruled China in 221–206 BC, and so Shina is a return of Qin to Chinese in a different form.

भारत के महाकाव्य ‘महाभारत’ में इस शब्द का प्रयोग- युधिष्ठिर द्वारा राजसूय यज्ञ करने के दौरान- अर्जुन का युद्ध प्राग्ज्योतिष पुर (वर्तमान असम) के नरेश राजा भगदत्त से हुआ। भगदत्त का साथ किरात, ‘सिना’ (cina) तथा समुद्र के टापुओं में रहने वाले योद्धाओं ने दिया था। इस कथन के अनुसार चीनियों ने राजा भगदत्त की सहायता की थी। युधिष्ठिर के राजसूय यज्ञ सम्पन्न के दौरान चीनी लोग भी उन्हें भेंट देने आए थे। भीष्मपर्व में भी लिखा है कि भगदत्त की सेना किरात और “पीले रंग के” Cinas से युक्त है- महाभारत: सभा पर्व: षड्विंश अध्याय: श्लोक 1-16 का हिन्दी अनुवाद

  • The existence of the word Cīna in ancient Hindu texts was noted by the German Sanskrit scholar Hermann Jacobi who pointed out its use in the Book-2 of Arthashastra with reference to silk and woven cloth produced by the country of Cīna, although textual analysis suggests that Book-2 may not have been written long before 150 AD. The word is also found in other Sanskrit texts such as the Mahābhārata and the Laws of Manu.

कई प्राचीन धर्मग्रंथों जैसे रामायण, महाभारत, मनुस्मृति आदि में चीन का जिक्र ‘सिना’ के रूप में आता है।

मनुस्मृति के अनुसार उपनयन आदि क्रियाओं के लोप हो जाने के कारण पौंड्रक, औद्र, द्रविड़, कंबोज, यवन, शक, पारद, पह्नव चीन, किरात, आदि क्षत्रिय जातियां संसार में वृषलत्व को प्राप्त हो गईं। जो क्षत्रिय लोग वैदिक क्रियाओं से उदासीन हो जाते थे , उन्हें धार्मिक दृष्टि से वृषलत्व प्राप्त होता था। (मनुस्मृति 43-44)

श्रीमद्भागवत् पुराण के अनुसार पृथ्वी के सात द्वीपों का उल्लेख मिलता है। उन सातों द्वीपों में से एक है जम्बू द्वीप। पुराणों के अनुसार जम्बू द्वीप के नौ देश इस प्रकार बताए जाते हैं: इलावृत्त (पामीर), रम्यक (तुर्किस्तान), कुरु (रूस), हरिवर्ष (अफगानिस्तान), किंपुरुष (तिब्बत), भारतवर्ष, भद्राश्व (चीन) तथा केतुमाल (यूरोप)।

श्रीमद्भागवत् पुराण के पांचवें स्कन्ध के अनुसार मेरू पर्वत पर गिरने के पश्चात आकाशगंगा की सीता धारा भद्राश्व वर्ष (चीन) की गंगा कही गई है। इसके संबंध में लिखा गया है:

”सीता तु ब्रह्मसदनात् केशवाचलादि गिराशिखरेम्योडधोडध: प्रसवन्ती

गन्धमादनमूर्द्धसु पतित्वाडन्तरेण भ्रदाश्वं वर्ष प्राच्यां दिशि क्षारसमुद्र अभिप्रविशति।

महाभारत में चीनांशुक (रेशमी वस्त्र) शब्द का उल्लेख है। महाभारत, सभापर्व में कीटज तथा पट्टज कपड़े का चीन के संबंध में उल्लेख है। इस प्रकार का वस्त्र पश्चिमोत्तर प्रदेशों के अनेक निवासी (शक, तुषार, कंक, रोमश आदि) युधिष्ठिर के राजसूय यज्ञ में भेंट स्वरूप लाए थे-

‘प्रमाणरागस्पर्शाढ्यं वाल्ही चीनसमुद्भवम् ओर्ण च रांकवंचैव कीटजं पट्टजं तथा।’

महाभारत, सभापर्व में चीनियों का शकों के साथ उल्लेख है। ये युधिष्ठिर की राज्य सभा में भेंट लेकर उपस्थित हुए थे-

‘चीनाछकांस्तथा चौड्रान् बर्वरान् वनवासिन:, वार्ष्णेयान् हारहूणांश्च कृष्णान् हैमवतांस्तथा।’

भीष्मपर्व में विजातीयों की नामसूची में चीन के निवासियों का भी उल्लेख है-

‘उत्तराश्चापरम्लेच्छा: क्रूरा भरतसत्तम यवनश्चीनकाम्बोजा दारुणाम्लेच्छजातय:।

सकृद्ग्रहा कुलत्थाश्चहूणा: पारसिकै: सह, तथैव रमणाश्चीनास्तथैवदशमाल।।

चिनांशुक का उल्लेख कालिदास के साहित्य में भी मिलता है। कालिदास की काव्य-कामिनियाँ ‘चीनांशुक’, बढ़िया रेशमी वस्त्रों का परिधान पहनकर तितलियों-सी बनी रहती थीं। कालिदास ने ‘अभिज्ञानशाकुंतलम’ में ‘चीनांशुक’ का वर्णन बड़े काव्यात्मक प्रसंग में किया है-

‘गच्छति पुर: शरीरं धावति पश्चादसंस्थितश्चेत: चीनांशुकमिवकेतो: प्रतिवातं नीयमानस्य।’

कौटिल्य ने अपने अर्थशास्त्र में चीन से आने वाले कपड़ों को चीन पट्ट (चिनांशुक) कहा है।

‘हर्षचरित’ के प्रथमोच्छवास में बाणभट्ट ने शोण के पवित्र और तरंगित बालुकामय तट को चीन के बने रेशमी कपड़े के समान कोमल बताया है।

तीसरी सदी ईसापूर्व के बाद भारत-चीन सम्बन्ध

बौद्ध साहित्य के विभिन्न ग्रन्थों का अन्वेषण करने वाले विद्वानों में डॉ. बागची, श्री पणिक्कर और डॉ. मजूमदार आदि विद्वानों के मतानुसार, चीन और भारत का सम्बन्ध बड़ा पुराना है। चीनी अनुश्रुतियों से प्रकट होता है कि चीन में बौद्ध धर्म के प्रचार का प्रयत्न ई. पू. छठी शताब्दी में किया गया था, परन्तु उसे सफलता न मिली। चीन में बौद्ध धर्म सरकारी तौर पर द्वितीय शताब्दी ईसा पूर्व में प्रारम्भ हुआ था।

चीनी विद्वान लेखकों के अनुसार चीन और भारत के बीच द्वितीय शताब्दी ईसा पूर्व से ही चीन और दक्षिणी भारत के सम्बन्ध स्थापित हो चुके थे। चीनी लेखक पानकाऊ के अनुसार कांची नरेशों ने हानवंश की राजसभा में अपने राजदूत भेजे थे। चीनी सम्राट वाँगकिंग ने तो प्रथम शताब्दी में कांचीनरेश के लिए बहुमूल्य उपहार भी भेजे थे ।

भारत और चीन का अतीतकालीन तुलनात्मक अध्ययन करते समय एक प्रमुख नाम उभरता है- वह है ‘कुमारजीव’। कुमारजीव भारतीय बौद्ध भिक्षु थे, जिसका जन्म शिनच्याङ के खूछा नाम के एक स्थान पर हुआ था। वह उत्तरकालीन छिन राज्य काल (364-417 ई) में छाङआन (वर्तमान चीन के शेनशी प्रांत के शीआन के उत्तर-पश्चिम में) आया था। जहां उसने अपनी प्रवास अवधि में लगभग 300 बौद्ध ग्रन्थों का अनुवाद किया था । भारत तथा चीन के बीच सांस्कृतिक आदान प्रदान के विकास में कुमारजीव का योगदान उल्लेखनीय है। यह इतिहास का वह काल था जब भारतीय कला, चिकित्सा, स्वरविज्ञान का चीन में प्रवेश प्रारम्भ हुआ।

चीन जाने वाले भारतीय विद्यार्थियों और विद्वानों में कश्यप मातंग और धर्मरत्न के नामों का उल्लेख किया है। ये विद्यार्थी और विद्वान 65 ईसवी में चीन गए थे। चौथी शताब्दी में कुमारजीव की चीन- यात्रा का उल्लेख मिलता है। 670 ईसवी में एक अन्य चीनी तीर्थयात्री, इत्सिंग नालन्दा आए और उन्होंने केवल 3000 भिक्षुओं के रहने का उल्लेख किया।

मात्वानलिन (Ma-twan-lin) चीनी इतिहासकार के अनुसार छठी शताब्दी में चीन और भारतवर्ष के मध्य व्यापारिक आदान-प्रदान हुआ करता था जिसके अन्तर्गत भारतवर्ष हर साल प्रचुर मात्रा में मोती, शंख तथा हाथी दाँत की वस्तुएँ चीन को भेजा करता था। आठवीं शताब्दी से लेकर बारहवी शताब्दी तक चोलवंश के शासकों ने भी चीन के साथ अपने सम्बन्ध बनाये रखे थे।

सम्राट हर्षवर्धन ने अपना एक राजदूत तांग राजवंश के समय चीन भेजा था। इसके बदले में तांग राजवंश के सम्राट तांग ताइजॉन्ग ने 648 ईसवीं में एक चीनी राजदूत वाँग-ह्यान-त्से (Wang-hiuen-tse) को भारत भेजा। लेकिन 647 ईसवीं में सम्राट हर्षवर्धन की मृत्यु हो गई।

649 ईसवीं- चीन ने पहली बार भारत पर आक्रमण- हर्षवर्धन की मृत्यु के बाद अवसर पाकर हर्ष के मंत्री अर्जुन (अरुणाश्व) ने कन्नौज के सिंहासन पर अधिकार जमा लिया। वाँग-ह्यान-त्से अपने प्रतिनिधि मंडल के साथ कन्नौज आए तो अर्जुन ने उनका विरोध किया और वाँग के साथ आए रक्षकों की या तो हत्या कर दी या उन्हें बंदी बना लिया गया। दूत-मंडल की की सम्पत्ति और भारतीय राजाओं द्वारा उसे दिए गए उपहार को लूट लिया गया। लेकिन वाँग किसी तरह अपनी जान बचा कर नेपाल भाग गया। तिब्बत में उस समय स्त्राँग-त्सान गैम्पो का राज्य था। उसका विवाह एक चीनी राजकुमारी से हुआ था। उसने वाँग-ह्यान-त्से को 1,200 चुने हुए सैनिक दिए और उनके अतिरिक्त वाँग-ह्यान-त्से नेपाल से 7,000 अश्वारोही प्राप्त करने में भी सफल हो गया।  कामरूप के राजा भास्करवर्मा ने भी उसकी सहायता की और उसने तिरहुत के मुख्य नगर पर आक्रमण कर दिया। वहाँ की सेना के 3,000 सैनिकों की हत्या कर दी गई और 10,000 व्यक्ति नदी में डूब गये। अर्जुन परास्त हुआ और बंदी बना लिया गया। वाँग-ह्यान-त्से ने 1,000 बंदियों का वध कर दिया और संपूर्ण राजवंश को बंदी बना लिया। उसने 12,000 व्यक्ति बंदी बनाए और 13,000 से अधिक घोङे, गाएँ और बैल आदि भी प्राप्त किये। इस युद्ध में 580 प्राचीर-नगरों ने समर्पण कर दिया। वाँग-ह्यान-त्से अर्जुन को बंदी बना कर अपने साथ चीन ले गया।

पल्लव सम्राट नरेश नरसिंह वर्मन ने भी एक दूत 720 ईसवी में चीन भेजा था। इसके बदले चीनी दूत पल्लव राजसभा में आया था। भारत और चीन के मध्य इस प्रकार के राजनीतिक और व्यापारिक सम्बन्ध 14वीं शताब्दी तक चलते रहे। ये सम्बन्ध तब समाप्त हो गए जब श्रीविजय आदि भारतीय उपनिवेशों पर मुसलमानों का आधिपत्य हो गया।

जहां एक ओर फाह्यान (Fa-hien), ह्वेनसांग (Hiuen-Tsang) तथा इत्सिंग (I-Tsing) की भारत यात्राओं से दोनों के सांस्कृतिक संबन्धों को एक ठोस आधार मिला, वहीं 65 ई0 से भारतीय बौद्ध भिक्षुओं द्वारा प्रारम्भ सतत् धर्म यात्राओं से दोनों राष्ट्रों के मध्य धार्मिक,सामाजिक व राजनैतिक संबन्धों का आधार और मधुर व सुदृढ़ हुआ।’

हिमालय के पार स्थित तिब्बत की सुदृढ़, अर्थव्यवस्था हेतु जहांभारत-तिब्बत व्यापारिक संबन्धों की निरंतरता अपरिहार्य थी वहीं तिब्बत स्थित कैलाश पर्वत व मानसरोवर जैसे पवित्र तीर्थ स्थल हिंदुओं के लिए श्रद्धास्थल के रूप में भारत व तिब्बत को मैत्रीसूत्र में बांधे रखने में प्रमुख थे। इसी प्रकार भारत स्थित सारनाथ, गया व साची जैसे प्रमुख बौद्ध स्थल तिब्बती तीर्थ यात्रियों को आकर्षित करते रहे हैं।

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चीनी राजवंश और भारत चीन संबंध

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 चिन राजवंश (Qin dynasty) (ई.पू. 214-206)

चीन का प्रथम सम्राट चिन-शि-हुआंग (Qin Shi Huang) ने सबसे पहले चीन के लोगों एकीकृत करने का काम किया। चिन वंश शान्शी प्रांत से उभर कर निकला और इसका नाम भी उसी प्रांत का परिवर्तित रूप है। यह प्रान्त चीन के केन्द्रीय भाग में स्थित है। यह पीली नदी (ह्वांग हो) के मध्य भाग में आने वाले लोएस पठार और चिनलिंग पहाड़ों तक फैला हुआ है। कुछ विद्वानों का मानना है कि चीन शब्द छिन राजवंश के ‘छिन’ शब्द का ध्वन्यानुवाद है। इस तरह चीन और भारत के संबन्धों के इतिहास का आरंभ कम-से-कम छिन वंश और हान वंश (ईसा पूर्व पहली-दूसरी शताब्दी) के पहले हुआ था। दोनों राष्ट्र की मैत्री का इतिहास दो हजार से अधिक पुराना है। हालांकि कुछ विद्वान इस तथ्य से सहमत नहीं हैं।

हान राजवंश (Han dynasty, 206BC–220AD)

हान वंश के समय चीन और भारत के मध्य बड़े पैमाने पर प्रमाणित रूप से आर्थिक और सांस्कृतिक आदान-प्रदान की शुरूआत हुई- During the Regime of Emperor Wu of Han of the Han dynasty (ruling from 141–87 BC)- Zhang Qian, who served as an imperial envoy to the world outside of China in the late 2nd century BC during the Han dynasty. He was one of the first official diplomats to bring back valuable information about Central Asia, including the Greco-Bactrian remains of the Macedonian Empire as well as the Parthian Empire, to the Han dynasty imperial court, then ruled by Emperor Wu of Han.

Zhang Qian also reports about the existence of India south-east of Bactria. The name Shendu (身毒) comes from the Sanskrit word “Sindhu”, meaning the Indus river of Pakistan. Sindh was one of the richest regions of India at the time, ruled by Indo-Greek Kingdoms, which explains the reported cultural similarity between Bactria and India:

  • “Southeast of Daxia is the kingdom of Shendu (Sindh)… Shendu, they told me, lies several thousand li south-east of Daxia (Bactria). The people cultivate the land and live much like the people of Daxia. The region is said to be hot and damp. The inhabitants ride elephants when they go in battle. The kingdom is situated on a great river (Indus)” (Shiji, 123, Zhang Qian quote, trans. Burton Watson).

भारत-चीन का प्रथम सांस्कृतिक संपर्क 67 A.D में आरंभ (Han dynasty के समय) हुआ, जब चीन में बौद्धमत का प्रवेश हुआ। कुछ अन्य ऐतिहासिक सूत्रों के अनुसार चीन में बौद्धमत का प्रवेश, ईसा से दो शताब्दियाँ पूर्व से भी पहले हुआ था। ‘Before the “official” introduction of Buddhism into China in A.D. 67, Buddhism had been known there. According to the Wei shuv (“History of the Wei Period”)

साहित्य के क्षेत्र में आदान-प्रदान- उत्तरी हान राजवंश काल में बौद्ध सूत्रों का चीनी भाषा में अनुवाद हुआ- चिन राजवंश के बाद अनूदित साहित्य और भी समृद्ध हुआ। बौद्ध धर्म में भूत-प्रेत से संबन्धित नीति कथाओं का बाहुल्य है। चीन में मूलतः परियों और देवी-देवताओं की कहानियां प्रचलित थीं। छह राजवंशों के काल में भारत से आयातित बौद्ध साहित्य की भूत-प्रेत की कथाओं काजब चीनी जनता में प्रचार हुआ।

चिकित्सा क्षेत्र में आदान-प्रदान- चीन में बौद्ध धर्म के प्रवेश के बाद भारतीय चिकित्सा शास्त्र के जानकार कई बौद्ध भिक्षु बौद्ध धर्म के प्रचार-प्रसार के उद्देश्य से चीन आए- इस तरह क्रमिक रूप से भारतीय चिकित्सा के सिद्धांत उपचार की पद्धति, औषधि आदि से चीनी जनता परिचित हुई। पूर्वी हान राजवंश के अंतिम वर्षों में ‘शरीर के 404 रोगों का ग्रंथ’ नामक भारतीय पुस्तक का चीनी भाषा में अनुवाद किया। इसके बाद भारतीय चिकित्सा शास्त्र एवं उपचारविधि से संबद्ध पुस्तकों का अनवरत रूप से चीनी भाषा में अनुवाद हुआ और उनका चीनी जनता में प्रचलन हुआ।2

History of Chinese Medicine By Zhi Dao

उदाहरणार्थ, चीन के Sui राजवंश के काल में तथाकथित चीनी भाषा में उनूदित विदेशी नुस्खों को चीन में बहुत लोकप्रियता मिली। Sui राजवंश के ऐतिहासिक अभिलेखों में ‘नागार्जुन की उपचार विधि’, ‘पश्चिमी क्षेत्र के विभिन्न ऋषियों की उपचार विधि, ‘पश्चिमी क्षेत्र के ब्राह्मण ऋषियों की उपचार विधि’ आदि ग्रंथों का वर्णन मिलता हैं। बौद्ध ग्रंथों में भारतीय चिकित्सा शास्त्र का उल्लेख मात्र न होकर चिकित्सा शास्त्र के विभिन्न क्षेत्रों यथा शिशु रोग, नेत्र रोग, बवासीर, गुदा रोग आदि की चिकित्सा के बारे में विस्तृत विवरण है।

व्यापारिक रिश्ते- चौथी-पॉचवी सदी में गुप्त राजवंश के काल में भारत का विदेश व्यापार अत्यंत विकसित था। भारत का विदेशों के साथ विस्तृत पैमाने पर व्यापारिक संबन्ध था। यह संबन्धचीन के साथ भी था। उस समय भारत में ‘चीनांकुश’ नाम से विख्यात चीनी रेशम भारत केअनेक नगरों में बहुत बिकता था। कालिदास के ग्रंथ ‘कुमारसंभव’ में इसका उल्लेख है।

सांस्कृतिक आदान-प्रदान- थाङ वंश सामंती युग का एक समृद्ध और शक्तिशाली राजवंश था। इसके काल में आर्थिक उन्नत थी सांस्कृतिक विकसित थी और चीन का भू–भाग एकीकृत था। थाङ राजवंशमें चीन और भारत के बीच सांस्कृतिक आदान-प्रदान की गतिविधियाँ अनेक क्षेत्रों में विकासकी चरम सीमा पर पहुंच चुकी थीं। दानों राष्ट्रों के मध्य नियमित रूप से आवागमन हुआ,दोनों राष्ट्रों ने अपने-अपने दूतों को एक-दूसरे के राष्ट्र में भेजा। इस प्रकार सांस्कृतिक एवंराजनयिक संबन्धों में बहुत विस्तार आया। राजनीति, अर्थ, धर्म, कला, तकनीक, विद्या, व्यापारआदि क्षेत्रों में भी दोनों राष्ट्रों ने पारस्परिक सहयोग के संबन्ध स्थापित किए। इस युग कोचीन और भारत के सौहार्दपूर्ण संबन्धों का स्वर्णयुग कहा जा सकता है।

सुई राजवंश (Sui dynasty, 581–619 AD)

सुई राजवंश के शासनकाल में बौद्ध धर्म को राजकीय संरक्षण प्रदान किया गया। बौद्ध धर्म को भी सरकारी प्रोत्साहन मिला और उसके ज़रिये चीन की भिन्न जातियों और संस्कृतियों को एक-दुसरे के समीप लाया गया। Buddhism was popular during the Sixteen Kingdoms and Northern and Southern dynasties period that preceded the Sui dynasty,spreading from India through Kushan Afghanistan into China during the Late Han period. Buddhism gained prominence during the period when central political control was limited. Buddhism created a unifying cultural force that uplifted the people out of war and into the Sui dynasty. In many ways, Buddhism was responsible for the rebirth of culture in China under the Sui dynasty.

While early Buddhist teachings were acquired from Sanskrit sutras from India, it was during the late Six dynasties and Sui dynasty that local Chinese schools of Buddhist thoughts started to flourish. Most notably, Zhiyi founded the Tiantai school and completed the Great treatise on Concentration and Insight, within which he taught the principle of “Three Thousand Realms in a Single moment of Life” as the essence of Buddhist teaching outlined in the Lotus Sutra. In the year 601 AD, Emperor Wen had relics of the Buddha distributed to temples throughout China, with edicts that expressed his goals.

तांग राजवंश (Tang dynasty, 618 -907 AD)

सुई राजवंश के समय में बौद्ध धर्म का प्रचार-प्रसार बढ़ा तथा चीन में बौद्ध भिक्षुओं और बिहारों की संख्या अधिकहो गयी। तत्पश्चात् सुई एवं तांग राजवंश का शासन काल आया। इस समय भी बौद्ध धर्म को राजकीय संरक्षण प्रदान किया गया। इन सभी प्रयासों के बाद बौद्ध धर्म चीन का लोकप्रिय धर्म बन गया।

चीन में बौद्ध धर्म की लोकप्रियता का प्रधान कारण धर्म-प्रचारकों का उत्साह था। ये प्रचारक भिन्न-भिन्न स्थानों से वहाँ गये थे। मध्य एशिया केबौद्ध प्रचारकों में धर्मरक्ष तथा कुमारजीव के नाम प्रमुख हैं। भारत के प्रारम्भिक प्रचारकों में धर्मक्षेम, गुणभद्र, बुद्धभद्र, धर्मगुप्त, उपशून्य, परमार्थआदि उल्लेखनीय हैं। तांग काल में प्रभाकर मिश्र, दिवाकर, बोधिरूचि, अमोघवज, बज्र मिश्र जैसे बौद्ध प्रचारक चीन पहुंचे। कश्मीर में बौद्धों का प्रसिद्ध मठ था, जहाँ से संगभूति, धर्मयशस, बुद्धयशस, विमलाक्ष, बुद्धजीव, धर्ममित्र आदि बौद्ध विद्वान चीन गये। इन सभी के प्रयासों के परिणामस्वरूपबौद्ध धर्म चीन का अत्यन्त लोकप्रिय धर्म बन गया। तांग वंश के तियेन-शाऊ ( ई० 690 – 92 ) के शासन काल में भारत से चीन सम्राट के पास दूत भेजे गये थे।

Chinese envoys have been sailing through the Indian Ocean to India since perhaps the 2nd century BC, yet it was during the Tang dynasty that a strong Chinese maritime presence could be found in the Persian Gulf and Red Sea, into Persia, Mesopotamia (sailing up the Euphrates River in modern-day Iraq), Arabia, Egypt in the Middle East and Aksum (Ethiopia), and Somalia in the Horn of Africa. The Tang dynasty Chinese diplomat Wang Xuance traveled to Magadha (modern northeastern India) during the 7th century. Afterwards he wrote the book Zhang Tianzhu Guotu (Illustrated Accounts of Central India), which included a wealth of geographical information.

सुङ राजवंश (Song dynasty, 960-1279)

सुङ राजवंश काल में भारत का चीन के साथ न केवल आर्थिक व सांस्कृतिक क्षेत्रों मेंघनिष्ट संबन्ध था, बल्कि दोनों राष्ट्रों के मध्य मैत्रीपूर्ण आदान-प्रदान भी बहुत रहा था। सन् 974 में पूर्वी भारत के राजकुमार ने चीन का भ्रमण किया, सन् 1015 में दक्षिण भारत के चोलराजवंश ने पच्चीस लोगों को आपसी मित्रता के प्रतीक के रूप में सुङ राजवंश के दरबार में भेजा, उसके बाद सन् 1020,1033 और 1077 में तीन बार चोल के सद्भाव दलों ने चीन कीयात्रा की। उस समय चीन और भारत के बौद्ध भिक्षुओं तथा व्यापारियों ने अनवरत एक दूसरे के राष्ट्रों का भ्रमण किया। सन् 966 में भिक्षु शिङ छिन तथा अन्य एक सौ सत्तावन लोगों ने बौद्ध धर्म का ज्ञान प्राप्त करने के लिए स्थल मार्ग से भारत की यात्रा की। उसके बाद बौद्ध भिक्षुओं ने जलमार्ग से भारत का भ्रमण किया और ताड़पत्र पर लिखे बौद्ध ग्रन्थों एवं अन्यसामग्री को साथ लेकर वे स्वदेश लौटे। अनेक भारतीय भिक्षुओं ने भी चीन की यात्रा की औरइसी प्रकार की सामग्री का भी आदान-प्रदान हुआ। सुङ राजवंश के इतिहास में इससे संबन्धित अनेक उल्लेख मिलते है। सुङ राजवंश काल में भारत जाने वाले चीनी भिक्षुओं ने गया में चीनी भाषा में एक प्रस्तरलेख का निर्माण किया। भारत के दक्षिणी पूर्वी क्षेत्र केनीकापाटन में सुङ राजवंश काल के बौद्ध भिक्षुओं ने ऊचे चतुर्भुजीय स्तूप का निर्माण किया। उन्नीसवीं सदी तक ये ऐतिहासिक अवशेष अक्षुण्ण रहे। इन अवशेषों से यह प्रमाणित होता हैकि सुङ राजवंश काल में चीन भारत के मध्य मैत्रीपूर्ण संबन्ध थे

य्वान राजवंश (Yuan dynasty, 1271-1368 AD)

य्वान राजवंश कालीन चीन विश्व का सर्वाधिक शक्तिशाली राष्ट्र था। य्वान राजवंशकालमें राज्य सीमा का अभूतपूर्व विकास हुआ और उसका प्रभाव एशिया, अफ्रीका तथा यूरोप केसुदूर राष्ट्रों तक फैला। इस काल में विश्व के हर राष्ट्र से राजदूतों के दल, व्यापारी, पर्यटक, धर्म प्रचारक, चिकित्सक आदि चीन आए। विदेशों के साथ चीन का आदान प्रदान चरम सीमापर पहुँच चुका था। आर्थिक और सांस्कृतिक संबन्ध भी बहुत घनिष्ट थे। इस छोटी सी अवधिमें भारत के साथ चीन का राजनयिक और व्यापारिक संबन्ध विकास की अभूतपूर्व सीमा छूचुका था। संस्कृति के क्षेत्र में भी दोनों राष्ट्रों के मध्य पर्याप्त आदान प्रदान हुआ। य्वानराजवंश ने भारत के साथ शांति और सद्भाव के संबन्ध स्थापित करने की दृष्टि से भारत केअनेक राज्यों में दूत भेजे। ‘वान शि’ (य्वान राजवंश का इतिहास) के विदेश वर्णन खण्ड के अनुसार सन् 1279 से सन् 1286 के बीच चीन और भारतीय राज्य मालाबार एवं कुईलोन केराजनयिकों ने एक दूसरें राष्ट्रों की सद्भावपूर्ण यात्रा की और दोनों राष्ट्रों के बीच मैत्रीपूर्णसंबन्ध स्थापित किए।’ तत्कालीन मोरक्को के निवासी इब्नबतूता के यात्रा वृतान्त में लिखा हैकि चीन के राजदूतों ने दिल्ली का भी भ्रमण किया। उस समय चीन और भारत के बीच काव्यापारिक संबन्ध अत्यन्त विकसित था। चीनी जलपोत प्रायः रेशम, चीनी मिट्टी के बर्तन औरविभिन्न धातुओं से बनें सामान आदि से लदे हुए भारत के बन्दरगाह तक आते थे। जैसा किसर्वविदित है, चीन में स्वान राजवंश का ओपेरा (गीतिनाट्य) अत्यंत प्रसिद्ध है। इन गीतिनाट्योंमें से कई की कथावस्तुए भारत से प्रभावित है या भारतीय विषयों पर आधारित हैं

मिङ राजवंश (Ming dynasty 1368–1644 AD)

मिङ राजवंश काल में भारत और चीन के बीच आदान-प्रदान मुख्यतः जलमार्ग से होता था। मिङ काल में व्यापारिक मार्ग की सुरक्षा हेतु 10 लाख सेना के साथ एक सशक्त जलसेना भी थी। चीन के Zheng He (was a Chinese mariner, explorer, diplomat, fleet admiral, and court eunuch during China’s early Ming dynasty) नामक व्यक्ति ने सात बार दक्षिण एशिया और भारतीय महासागर क्षेत्र के राष्ट्रों का भ्रमण किया, यह बात समस्त विश्व में विख्यात है। Zheng He ने सम्राट के आदेश से सात बार भारत की राजकीय यात्रा की, जिसमें उसे अट्ठाइस वर्षों कासमय लगा। उसने भारत के अनेक स्थानों का भ्रमण किया, जिनमें प्रमुख हैं- कालीकट, कच्छऔर बंगाल। उसने भारतीय उपमहाद्वीप के समुद्रवर्ती क्षेत्रों का भी भ्रमण किया। Zheng He आदि राजदूतों की एशिया-अफ्रीका के राष्ट्रों की अनेक बार यात्रा से न केवल एक दूसरे के राष्ट्रों के बीच बहुमूल्य उपहारों का आदान-प्रदान हुआ, बल्कि उनके साथ बहुत से जलपोत भीगए। इससे बड़े पैमाने पर अंतरराष्ट्रीय व्यापार संभव हुआ और दोनों राष्ट्रों के बीच के आर्थिक और सांस्कृतिक संबन्धों में पर्याप्त प्रगति हुई।

Zheng He आदि राजदूतों की भारत यात्रा से यह प्रमाणित होता है कि उस समयजलमार्ग विकसित था और चीन व भारत के मध्य संबन्ध घनिष्ट थे। दोनों राष्ट्रों की जनता केमन में एक दूसरे के प्रति मैत्रीपूर्ण भाव थे। Zheng He के साथ Ma Huan और Fei Xin जैसे अनुवादक भी थे। जिन्होंने कई भारत यात्रा के बारे में अपनी पुस्तकों में वर्णन किया।

Ma Huan ने अपनी पुस्तक Yingya Shenglan (The Overall Survey of the Ocean’s Shores) में  भारतीय जीवन रहन सहन और रीति रिवाज आदि का जीवन्त चित्र प्रस्तुत किया। चीन में उस समय भारतीय संस्कृति को समझने के लिए यह पुस्तकें महत्वपूर्ण एतिहासिक स्त्रोत थीं। उस समय चीन से भारत आने वाली सामग्रियों में कपड़े, रेशम,मरकरी, कस्तूरी, चटाई आदि साम्मिलित हैं।

मिङ राजवंश के बाद चीन और भारत की जनता के बीच आवागमन की श्रृंखला हालांकि पूरी तरह नहीं टूटी, फिर भी सांस्कृतिक क्षेत्र में आपसी प्रभाव का वातावरण पूर्ववत्जीवंत नहीं रहा। उस समय यूरोप में पूंजीवाद एक नई मंजिल पर पहुंच रहा था और उपनिवेशवादी ताकतें यथा शक्ति विदेशी उपनिवेशों की ताक में थीं। समुद्री लुटेरों ने आधुनिक हथियारों का सहारा लेकर लूटमार की और एशिया के राष्ट्रों पर क्रूरता से आक्रमण किया। सन् 1510 में पुर्तगालियों ने भारत के गोवा पर कब्जा किया और दूसरे वर्ष मलक्का पर अधिकार जमाया। सन् 1557 में पुर्तगाल ने चीन के मकाओं को भी हथिया लिया। चीन और भारत की आर्थिक स्थिति कमजोर थी जिससे उन्हें उपनिवेशवादी ताकतों के प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष शासन को झेलना पड़ा। इससे भारत और चीन के बीच सीधे आवागमन को गहरा धक्का लगा।

उन्नीसवीं शताब्दी के अंत और बीसवीं शताब्दी के शुरू

उन्नीसवीं शताब्दी के अंत और बीसवीं शताब्दी के शुरू में पूंजीवादी राष्ट्रों ने अपने उपनिवेशों एवं आश्रित राष्ट्रों में भारी शोषण और दमन शुरू किया। इसके परिणाम स्वरूप भारत और चीन साम्राज्यवादी आक्रमण के शिकार हुए, इसलिए चीन और दक्षिण एशियाई राष्ट्रों का समान लक्ष्य उपनिवेशवाद के विरुद्ध संघर्ष करना था। यह प्रधान कारण था जिसकी वजह से चीन और दक्षिण एशियाई राष्ट्रों में समीपता स्थापित हुई थी। चीन के दूरदर्शी विचारको ने उस काल में इसे अनुभव किया था।

चीन के विचारक और साहित्यकार Sun Yat-sen और Lu Xun

  • चीन के विचारक व लेखक Sun Yat-sen और Lu Xun ने इसमें उल्लेखनीय योगदान किया था। ये सभी लोग इस मत के थे कि चीन और भारत को साथ लेकर साम्राज्यवाद के विरुद्ध लड़ाई लड़ी जानी चाहिए। चीन को लोकतांत्रिक क्रांति के अग्रदूत Sun Yat-sen भारत में लोकतांत्रिक आंदोलन की प्रगति पर दृष्टि रखे हुए थे। प्रथम विश्वयुद्ध के बाद वे अपने भाषणों व रचनाओं में भारत का बार-बार उल्लेख करते थे तथा भारतीय जनता के प्रति गहरी सहानुभूति रखते थे। वे अपनी पुस्तक ‘राष्ट्रवाद’ में लिखते है कि ‘उपनिवेशवादी ब्रिटेन ने आज के भारत में भयानक स्थिति पैदा कर दी है, यह वैसी ही स्थिति है जैसी उसने हांगकांग में पैदा कर रखी है, एक इंच भूमि भी ऐसी नहीं है, जिसे ब्रिटेन ने प्रभुत्ववाद के जरिए न पैदा किया हो।’
  • चीन के विचारक और साहित्यकार Lu Xun भी भारत के राष्ट्रीय लोकतांत्रिक आंदोलन की प्रगति पर हमेशाध्यान देते रहे। और स्वतंत्रता आंदोलन की उपलब्धियों का हृदय से स्वागत करते थे। एक जगह भारतीय राष्ट्रीय लोकतांत्रिक आंदोलन पर अपनी समीक्षा व्यक्त करते हुए Lu Xun कहते हैं कि “भारत अतीत काल से ही हमारे राष्ट्र के संपर्क में रहा है और इसने चीन को बेहद मूल्यवान् उपहार दिए हैं। ये उपहार विचारधारा, विश्वास, नैतिकता, कला, साहित्य आदि हर क्षेत्र में हैं। भाई भी इतनी विशाल हृदयता का परिचय नहीं दे सकता जैसा कि भारत ने दिया है। वे लिखते हैं कि “यदि कोई चीज ऐसी है जो दोनों राष्ट्रों को नुकसान पहुंचा सकती है, तो हमें उससे संघर्ष करना चाहिए। यदि दोनों राष्ट्रों का उससे पतन होता है तो मैं उसके विरुद्ध आवाज उठाऊंगा। यदि दोनों राष्ट्रों को किसी तरह की विपत्ति का सामना नहीं करना पड़ता है तो मैं ईश्वर से यह प्रार्थना करूँगा कि भारत हमारे राष्ट्र चीन के साथ अनंत काल तक मित्रवत् रहे।”

भारत के महान् साहित्यकार और विश्व कवि रवींद्रनाथ टैगोर

  • रवींद्रनाथ टैगोर ने भी अपनी लेखनी के माध्यम से आजीवन चीनी जनता का ध्यान रखा था। जब वे बीस साल के थे तो उन्होंने अपने एक निबंध ‘मौत के सौदागर'(1889) में ब्रिटिश उपनिवेशवादियों को चीनी जनता पर अत्याचार करने से मना किया था। जब वे 1824 में चीन आए तो उन्होंने कई स्थानों पर भारत-चीन मैत्री एवं चीनी संस्कृति के महत्व पर अनेक भाषण दिए थे। उन्होने जापानी फासिस्टों द्वारा चीन के नगरों पर बम बरसाए जाने का तीव्र विरोध किया था।

चीन-जापान युद्ध- भारत की चीन के प्रति सहानुभूति- 1931 में जब जापान द्वारा मंचूरिया पर आक्रमण किया गया तो चीन के प्रति सहानुभूति प्रदर्शन करने के लिए ‘चीन दिवस’ (China day) मनाया गया और भारत में जापानी वस्तुओं के बहिष्कार का आन्दोलन चलाया गया। फिर सन् 1937 में जब चीन-जापान युद्ध शुरू हुआ तो भारत ने पुनः चीन के प्रति अपनी सहानुभूति व्यक्त की। इस पृष्ठभूमि में यह स्वाभाविक था कि स्वतन्त्रता प्राप्त करने के बाद स्वाधीन भारत अपने इस पड़ोसी राष्ट्र के साथ अच्छे संबन्ध बनाये रखने का प्रयास करे।

चीनी गृह युद्ध और चीन में साम्यवादी सरकार- चीन गणराज्य की नेतृत्व कर रही Kuomintang सरकार और चीनी साम्यवादी दल के बीच 1945 से 1949 तक संघर्ष चला। Kuomintang सरकार के पतन के पश्चात् 1 अक्टूबर 1949 को चीन में साम्यवादी सरकार की स्थापना हुई।

भारत-चीन संबंधों की पुनर्स्थापना

संबंधों का प्रमोद काल (1949 से 1957 तक)

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भारत द्वारा नई सरकार का स्वागत और मैत्रीपूर्ण सम्बंधों की स्थापना- चीन में 1949 की साम्यवादी क्रांति और 1947 में भारत की आज़ादी के बाद दोस्ती का दौर भी चला। भारत ने नव-स्थापित सरकार का हृदय से स्वागत किया तथा उसको तुरंत मान्यता प्रदान करके अपने मैत्रीपूर्ण व्यवहार का परिचय दिया। कोमिन्तांग सरकार के समय चीन में भारतीय राजदूत के पद पर सरदार के.एम. पणिक्कर काम कर रहे थे। अतः 1949 में उन्हीं को दुबारा भारतीय राजदूत बना कर चीन भेजा गया। पणिक्कर के प्रयत्नों से भारत और चीनके बीच उत्तम मैत्री संबन्धों की शुरुआत हुई। पणिक्कर ने जहां चीन की जनता को भारतीय दृष्टिकोण से परिचित कराया वही भारतीय जनता को भी चीनी क्रांति के आधारभूत तत्वों सेजानकारी करवाई। उन्होंने बताया कि चीनी क्रांति एशिया के नवजागरण का प्रतीक है और चीन के नव-स्थापित सरकार वहां के लगभग सौ वर्ष पुराने विकास का अनिवार्य परिणाम है। सदियों से गुलामी के बाद स्वाधीनता प्राप्त करने वाला भारत इस क्रांति में आरम्भ से ही सहानुभूतिपूर्ण दृष्टिकोण बनाये रहा और इसलिए पणिक्कर के प्रयत्नों ने इस सहानुभुति में और भी वृद्धि की। दोनों राष्ट्रों के मध्य प्रारम्भ से अत्यन्त मुधर और मैत्रीपूर्ण संबन्ध स्थापित हुआ। भारत ने हर मौके पर चीन का साथ दिया और उसकी सहायता करने की कोशिश की।

भारत ने चीन का उतना समर्थन किया था जितना चीन को भाई और भारत को दोस्त कहने वाले रुस सोवियत संघ ने भी नहीं किया था- गैर कम्युनिस्ट राष्ट्रो में भारत एक ऐसा राष्ट्र था जिसने कम्युनिस्ट चीन को शीघ्र मान्यता प्रदान की और चीन के नये गणराज्य को संयुक्त राष्ट्र संघ में उनका उचित स्थान दिलाने केलिए प्रयत्नशील रहा। इसके कारण भारत को कई राष्ट्रों के साथ विशेषकर संयुक्त राज्य अमेरिका के साथ मनमुटाव भी पैदा हुआ। लेकिन वह जमाना ‘हिन्दी–चीनी भाई-भाई’ का था। भारत ने अमेरिका की नाराजगी की अवेहलना करते हुए चीन का समर्थन किया। कोरियाई युद्ध के समय भारत ने चीन का जितना समर्थन किया उतना शायद सोवियत संघ ने भी नहीं किया था।

चीन से दोस्ती के लिए अमेरिका की नाराजगी झेली- अमेरिका की नाराजगी की कीमत पर भी भारत ने कोरियाई युद्ध में चीन का समर्थन किया। यू.एन.ओ में भारत ने उस प्रस्ताव का विरोध किया जिसमें चीन को आक्रान्ता घोषित किया गया था। सितम्बर, 1950 में सेनफ्रांसिस्को में 49 राष्ट्रों के साथ होने वाली जापानी सन्धि में भारत इसलिए शामिल नहीं हुआ क्योंकि चीन को उसमें शामिल नहीं किया गया था। संयुक्त राष्ट्र संघ में चीन को मान्यता दिलाने का भारत ने भरसक प्रयत्न किया। भारत ने उस समय भी चीन को मान्यता दिलाने का प्रयास किया जब चीन का भारत के प्रति दृष्टिकोण शत्रुतापूर्ण था। भारत ने अमरीका की उन नीतियों की सर्वदा आलोचना की जो चीन को अन्तर्राष्ट्रीय सम्मेलनों या संस्थाओं में ‘उचित स्थान’ दिलाने में बाधा प्रस्तुत करती थीं।

सन् 1954-57 का काल भारत-चीन सम्बन्धों में प्रमोद काल कहलाता है- 1954 के बाद से भारत की विदेशनीति को ‘पंचशील’ के सिद्धांतों ने एक नई दिशा दी। ‘पंचशील’ से तात्पर्य है-आचरण के पाँच सिद्वान्त। जिस प्रकार बौद्ध धर्म में ये व्रत एक व्यक्ति केलिए होता है उसी प्रकार आधुनिक पंचशील के सिद्धांतों के द्वारा राष्ट्रों के लिएएक दूसरे के साथ आचरंण के सम्बन्ध में निश्चित किये गए। इन सिद्वान्तों केनाम निम्न प्रकार दिये गये है-अनाक्रमण की नीति, एक-दूसरे की प्रादेशिकअखण्डता और सर्वोच्च सत्ता के लिए पारंपरिक सम्मान की भावना, समानता एवंपारस्परिक लाभ, एक दूसरे के आन्तरिक मामलों में अहस्तक्षेप और शांतिपूर्णसह–अस्तित्व । यदि विश्व स्तर पर देखा जाए तो पंचशील के इन सिद्वान्तों कोसर्वप्रथम 29 अप्रैल 1954 को तिब्बत के सम्बन्ध में भारत और चीन के बीच हुएएक समझौते में प्रतिपादित किया गया था। 28 जून 1954 को चीन के प्रधानमंत्रीचाऊ-एन-लाई तथा भारत के प्रधानमंत्री नेहरू ने ‘पंचशील’ द्वारा अपने विश्वासकी पुनरावृत्ति की। एशिया के प्रायः सभी देशों ने ‘पंचशील’ के सिद्धांतों कोअपनाया।

पंचशील समझौता

हिंदी चीनी भाई भाई के नारों के बीच  29 अप्रैल 1954 को भारत और चीन के बीच पंचशील समझौता हो गया। चीन के क्षेत्र तिब्बत और भारत के बीच व्यापार और आपसी संबंधों को लेकर ये समझौता हुआ था.“Agreement on Trade and Intercourse between the Tibet region of China and India”

पंचशील शब्द ऐतिहासिक बौद्ध अभिलेखों से लिया गया है जो कि बौद्ध भिक्षुओं का व्यवहार निर्धारित करने वाले पांच निषेध होते हैं. तत्कालीन भारतीय प्रधानमंत्री पंडित जवाहर लाल नेहरू ने वहीं से ये शब्द लिया था.

इस समझौते की प्रस्तावना में 5 सिद्धांत थे जो 1962 से पहले तक भारत की विदेश नीति की रीढ़ रहे.

  • – एक दूसरे की अखंडता और संप्रभुता का सम्मान
  • – परस्पर अनाक्रमण
  • – एक दूसरे के आंतरिक मामलों में हस्तक्षेप नहीं करना
  • – समान और परस्पर लाभकारी संबंध
  • – शांतिपूर्ण सह-अस्तित्व

इस समझौते के तहत भारत ने तिब्बत को चीन का एक क्षेत्र स्वीकार कर लिया… इस तरह उस समय इस संधि ने भारत और चीन के संबंधों के तनाव को काफ़ी हद तक दूर कर दिया था.

भारत को 1904 की ऐंग्लो तिबतन संधि के तहत तिब्बत के संबंध में जो अधिकार मिले थे भारत ने वे सारे इस संधि के बाद छोड़ दिए, हालाँकि बाद में ये भी सवाल उठे कि इसके एवज में भारत ने सीमा संबंधी सारे विवाद निपटा क्यों नहीं लिए.

मगर इसके पीछे भी भारत की मित्रता की भावना मानी जाती है कि उसने चीन के शांति और मित्रता के वायदे को मान लिया और निश्चिंत हो गया. पंडित नेहरू ने अप्रैल 1954 में संसद में इस संधि का बचाव करते हुए कहा था, “ये वहाँ के मौजूदा हालात को सिर्फ़ एक पहचान देने जैसा है. ऐतिहासिक और व्यावहारिक कारणों से ये क़दम उठाया गया.” उन्होंने क्षेत्र में शांति को सबसे ज़्यादा अहमियत दी और चीन में एक विश्वसनीय दोस्त देखा.

चीन के प्रधानमंत्री चाऊ-एन-लाई की पहली भारत यात्रा (25-28 जून 1954)

चीन का प्रधानमंत्री चाउ-इन-लाई 25 जून, 1954 को राजकीय यात्रा पर दिल्ली आया। 28 जून को पं.जवाहरलाल नेहरू तथा चीन के प्रधानमंत्री ने पंचशील की संयुक्त घोषणा की।

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डेढ़ महीने बाद ही चीन ने आंख दिखाना किया शुरु- 28 जून का संयुक्त घोषणा के लगभग डेढ़ महीने पश्चात् 17 जुलाई, 1954 को चीन ने सीधे भारत के साथ छेड़छाड़ प्रारम्भ कर दी। भारत-चीन संबंधों की जानकारी यहीं से पहले श्वेत पत्र द्वारा मिलती है। 17 जुलाई को चीन ने भारत के कन्सुलेट से शिकायत कि भारत के 30 सैनिक चीन के अंतर्गत तिब्बत क्षेत्र के अली क्षेत्र में बूजे (wu-je) में घुस आए हैं।

भारतीय सीमा पर ‘चीनी अतिक्रमण’

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चीनी अतिक्रमण की घटना के बाद पं. नेहरू ने चीन की यात्रा- अक्टूबर 1954 में पं. जवाहर लाल नेहरू ने चीन की यात्रा की। वहां उनका अभूतपूर्व स्वागत किया गया। पं. नेहरू अपने इस मान-सम्मान से अत्यधिक प्रभावित हुए।

When Nehru and Mao met- October 19, 1954 in Beijing, Mao gets straight down to business, talking about how the people of the East had been “bullied” by Western imperialist powers. “In spite of differences in our ideologies and social systems, we have an overriding common point, that is, all of us have to cope with imperialism,” he says. Both show themselves to be keen analysts of the international situation — exchanging notes on foreign affairs and the likely fallout of a possible third World War on their two countries, the region and the world.

  • Focus on imperialism- A common enemy, imperialism, with a special focus on the United States, is a visible thread through all the three meetings, on October 19, October 23 and October 26. When Nehru suggests that India and China, which had a population of one billion between them, should play “more important” roles in Asia, an issue being discussed to this day, Mao responds: “But the United States does not recognise our two countries as great powers.”
  • Nehru, in turn, says: “The ruler [scale] that the United States uses to measure other countries will no longer be useful in future.” When Nehru talks about the U.S. being both powerful and afraid, Mao remarks, “It is inconceivable that any country would march its troops into the United States.”
  • Nehru doesn’t take a fully blanket view and points out to Mao that some Americans were against British and French colonialism, but adds that since the U.S. had “vested interests”, it was nervous and afraid. In response, Mao reveals that U.S. defence lines extending to South Korea, Taiwan and Indochina had made China’s sleep “unsound”.

1955 से चीन ने भारतीय सीमाओं पर अपनी सैन्य उपस्थिति बढ़ानी शुरु कर दी-

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चीन के प्रधानमंत्री चाऊ-एन-लाई की नवम्बर 1956 तथा जनवरी 1957 में भारत यात्रा- नवम्बर 1956 तथा जनवरी 1957 में चीनी प्रधानमन्त्री चाऊ-एन-लाई भारत आये तो हमारे प्रधानमन्त्री जवाहरलाल नेहरू ने उनसे चीनी सैनिक टुकड़ियों द्वारा भारतीय सीमा के उल्लंघन के बारे में बातचीत की। चीनी प्रधानमन्त्री चाऊ-एन-लाई ने जवाहर लाल नेहरू को कहा कि चीन ने वर्मा से लगी परम्परागत सीमा मैकमोहन रेखा को मान्यता दे दी है और चीन की सरकार इस बारे में परम्परागत सीमा को भी मान्यता देने की सोच रही है और इस बारे में वह तिब्बत की सरकार से विचार विमर्श करेगी। इससे जवाहर लाल सन्तुष्ट हो गये। चाऊ-एन-लाई के आश्वासन के बाद एकचीनी सैनिक टुकड़ी ने अक्टुबर 1957 में उत्तर पूर्वी सीमा एजेन्सी के लोहित सम्भाग के वालोंग क्षेत्र का अतिक्रमण किया। 1957 ई. में चीनियों ने तिब्बत को सिक्यांग से मिलाने वाली सड़क का निर्माण किया जो भारत के लद्दाखप्रदेश के एक भाग अक्साई चिन से होकर गुजरती थी।

चीन ने छापा विवादास्पद नक्शा- जुलाई, 1958 में चीन की एक सरकारी पत्रिका ‘चाइना पिक्टोरिअल’ में कुछ विवादास्पद नक़्शे छापे गए. इन नक्शों में नेफा (नॉर्थ ईस्ट फ्रंटियर एजेंसी यानी आज का अरुणाचल प्रदेश) और लद्दाख के बड़े इलाके को चीन का हिस्सा दिखाया गया था। इस नशे में प्रदर्शित निम्न क्षेत्रों पर भारत को आपत्ति थी

  1. इसमें भारत के उत्तर पूर्वी सीमान्त एजेन्सी नेफा केपांच में से चार डिवीजन सम्मिलित हैं।
  2. इसमें उत्तर प्रदेश के कुछ उत्तरी भाग प्रदर्शित किए गये हैं।
  3. जम्मू-कश्मीर राज्य के पूर्वी लद्दाख के बड़े भू-भाग को प्रदर्शितकिया गया है।

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भारत सरकार का विरोध- 10 दिसम्बर, 1958 को प्रधानमन्त्री जवाहरलाल नेहरू ने भारत-चीन सीमा समस्या के बारे में चीन के प्रधानमन्त्रीचाऊ-एन-लाई को एक विस्तृत पत्र लिखा। इस पत्र में श्री जवाहर लाल नेहरूने चाऊ-एन-लाई को लिखा: “जब आप नवम्बर 1956 में भारत आये थे तोउस समय आपके साथ मैकमोहन रेखा के बारे में विस्तृत वार्ता हुई थी । उससमय आप ने ही कहा था कि ब्रिटिश साम्राज्यवादियों द्वारा निर्धारित कीगयी यह सीमा रेखा ठीक नहीं है, फिर भी क्योंकि यह सिद्ध तथ्य बन गयाहै और चीन, भारत तथा बर्मा में मैत्रीपूर्ण पूर्ण सम्बन्ध है अतः चीन सरकार की सम्मति है कि मैकमोहन रेखा को उसे स्वीकृति दे देनी चाहिए परन्तु इसविषय में अभी तक तिब्बती अधिकारियों से परामर्श नहीं किया है। उनका ऐसा करने का विचार है।

इस पत्र में जवाहर लाल नेहरू ने आगे लिखा है कि कुछ महीने बाद जब हमारा ध्यान चीनी सरकारी पत्रिका ‘चाइना पिक्टोरिअल’ की ओर आकर्षित हुआ जिसमें नेफा का काफी भाग तथा भारत के दूसरे भागों को चीन में दिखाया गया है। वर्तमान चीनी सरकार की स्थापना को जब नौ वर्ष हो गये हैं और इन नक्शों में भारत के कुछ भाग को चीन का भागदिखाया जाना हमारे लिए बड़ी परेशानी का कारण है। चीनी नक्शों में दिखाये गये ये भाग निश्चित रूप से भारत के अंग हैं।

चीनी प्रधानमन्त्री चाऊ-एन-लाई का जवाब- जवाहर लाल नेहरू के इस पत्र का उत्तर चीनी प्रधानमन्त्री चाऊ-एन-लाई ने 23 जनवरी 1959 को दिया। 1954 की सन्धि काउदाहरण पेश करते हुए चाऊ-एन-लाई ने ध्यान आकृष्ट किया कि, “उस समय भारत चीन सीमा का प्रश्न का अध्ययन करने के लिए समय नहीं था। चीनी प्रधानमन्त्री ने आगे कहा कि चीन और भारत की सीमा का कभी अंकन नहीं हुआ था। चीनी नक्शों के बारे में चाऊ-एन-लाई ने कहा- हमारे देश में आजकल प्रकाशित होने वाले मानचित्रों में चीनी सीमाएं कई शताब्दियों से चीनी नक्शों में अंकित की जाने वाली सीमाओं के अनुसार छापी गयी हैं। हमारा यह मत नहीं है कि सीमान्त रेखा का प्रत्येक भाग पर्याप्त प्रमाणों केआधार पर खींचा गया है। परन्तु सम्बद्ध देशों से परामर्श किये बिना इसमें परिवर्तन करना अनुचित होगा। इसके अतिरिक्त इससे जनता में भ्रम पैदा होगाजिससे हमारी जनता का विश्वास सरकार से उठ जायेगा।

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22 मार्च 1959 को दोबारा जवाहर लाल नेहरू ने भारत चीन सीमा विवाद के बारे में एक पत्र लिखा– इसमें जवाहर लाल ने चाऊ-एन-लाईके इस कथन की खण्डन किया कि भारत और चीन के बीच में सीमांकन कभी नहीं हुआ या चीन पर बन्धनकारी अन्तर्राष्ट्रीय सन्धियों द्वारा इसकी स्वीकृति नहीं हुई। अपने इस पत्र में जवाहर लाल नेहरू ने परम्परागत भारतीय सीमा के बारे में अकाट्य तर्क प्रस्तुत किये।

चाऊ-एन-लाई की नेपाल को भड़काने की कोशिश- जनवरी 1957 में चीन के प्रधानमंत्री चाऊ-एन-लाई नेपाल आए। अपनीयात्रा में चाऊ ने कहा नेपाल को भारत से खतरा है। उन्होंने नेपालियों की एक सभा मेंयह घोषणा की थी कि नेपालियों और चीनियों में एक ही रक्त प्रवाहित हो रहा है। इसरक्त सिद्धांत का नेपाली जनता पर कुछ प्रभाव अवश्य पड़ा। यह वास्तव में एक कूटनीतिक कथन था। इसका अर्थ यह था, कि चीनियों और नेपालियों दोनों के पूर्वज मंगोल वंश के थे, अतः इस हिसाब से चीन, तिब्बत, नेपाल, भूटान और सिक्किम कोएक सूत्र में बँध जाना चाहिए।

तिब्बत में चीन के खिलाफ बगावत- 10 मार्च 1959 को चीन के कब्जे के खिलाफ विद्रोह शुरू हुआ। चीनी सेना ने तिब्बतियों पर यातनाएं शुरु कर दी। माना जाता है कि इस लड़ाई में लगभग 87,000 तिब्बती मारे गए। चीनी सेना ने दलाई लामा को गिरफ्तार करने का आदेश दिया। 17 मार्च 1959 की रात को उन्हें तिब्बत छोड़कर निकलना पड़ा। 31 मार्च को भारत के तवांग इलाके में प्रवेश कर गए। पंडित नेहरू ने मसरी जाकर 28 अप्रैल को उनसे मुलाकात की। यह बात चीन को पसंद नहीं आयी। इधर देश में और संसद में नेहरू की चीन नीति पर सवाल उठने लगे। उनकी आलोचना होने लगी।

सन् 1950 में चीनियों के आने से पहले तक पूरे तिब्बत में 6,000 मठ और मंदिर थे, जहां 6 लाख से ज्यादा बौद्ध भिक्षु रहते थे. चीनी हमले और दमन ने धर्म व राज्य दोनों को कुचला. सन् 1979 में हुए एक सर्वे के अनुसार उस समय तक तिब्बत में सिर्फ 60 मठ बचे थे, वे भी जर्जर और नष्ट होने के कगार पर थे. इन मठों में रहनेवाले भिक्षु अधिकांश मार दिए गए या लापता थे. मठों को डायनामाइट से उड़ाया गया था, ताकि धर्म के साथ ही धार्मिक चिह्न और अवशेष भी समाप्त हों. तिब्बत को दुनिया की छत कहा जाता था. वह अपनी जड़ी-बूटियां और हर्बल वनक्षेत्र के लिए प्रख्यात था. ऐसे बेशकीमती और परंपरागत जंगल के 70 फीसदी हिस्से को सुरक्षा के नाम पर चीनियों ने काट डाला।

Genocide in Tibet: 1966-76

Starting in 1949, Tibet was invaded by 35,000 Chinese troops who systematically raped, tortured and murdered an estimated 1.2 million Tibetans, one-fifth of the country’s population. Since then over 6000 monasteries have been destroyed, and thousands of Tibetans have been imprisoned. According to different sources, it is estimated that up to 260,000 people died in prisons and labor camps between 1950 and 1984.

Records show that between 1949 and 1979 the following deaths occurred:

  • 173,221 Tibetans died after being tortured in prison.
  • 156,758 Tibetans were executed by the Chinese.
  • 432,705 Tibetans were killed while fighting Chinese occupation.
  • 342,970 Tibetans have starved to death.
  • 92,731 Tibetans were publicly tortured to death.
  • 9,002 Tibetans committed suicide. Source: thetibetpost.com

चीनी प्रधानमंत्री चाऊ-एन-लाई की चौथी भारत यात्रा (19-25 अप्रैल 1960)

भारत व चीन के मध्य सीमा पर झड़पों और आरोप-प्रत्यारोप के बीच चीनी प्रधानमंत्री चाऊ-एन-लाई ने 1960 में भारत की यात्रा की। परन्तु उनकी यह यात्रा भीसीमा विवाद का कोई सर्वमान्य हल न निकाल सकी। अब तक व्यापक आधारपर सैनिक टकराव की जमीन तैयार हो चुकी थी।

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1962 भारत-चीन युद्ध की अधिक जानकारी नीचे दी गई है…

क्या नेहरू चीन पर चूक गए थे?

17A Time magazine cover from 1962 featuring Mao and Nehru. Image: Time

चाऊ-एन-लाई की चालाकी और पं. नेहरू का आर्दशवादी रुख- जवाहर लाल नेहरू ने नये चीनी शासकों को मान्यता देते हुए तिब्बत पर उनकी सार्वभौम सत्ता को स्वीकार कर चीन को अपनी सीमा भारतीय सीमा से सटाने का मौका दिया। पहले तिब्बत भारत-चीन का बफर राज्य था। उसका “आटोनामस” स्वरूप चीन के शासक निगल गये । भारतने अपनी आँखें बन्द रखी। यही नहीं, भारत और तिब्बत के विशेष सम्बन्ध को भी नजर अन्दाज कर दिया गया। भारतीय विदेश मन्त्रालय ने इतनी भी परवाह नहीं की कि चीनी शासकों से सीमा सम्बन्धित प्रश्न, विशेषकर भारत-तिब्बत सीमा निर्धारित करने वाली मैकमोहन रेखा की चीन से स्वीकृति करा लें। उधर तिब्बत लूट गया और इधर चीन भारत की सीमा पर आ धमका। आगे खिसकता आया, खिसकता ही रहा है ।

चाऊ-एन-लाई जवाहर लाल से बात करते थे। नेहरू का ख्याल थाकि तिब्बत भारत-सीमा रेखा और मैकमोहन रेखा का कड़ा रूख अपनाना शायद सीमाओं का मामला तय करने में और चीन से सामान्य दोस्ती कायम करने में बाधा बनेगा। नेहरू की यह समझ चीन को बहुत पसन्द थी। 1949 में चीन में राज बदल होने के बाद से ही साम्यवादी स्वरूप धीरे-धीरे चीन का परंपरावादी राष्ट्रीय अहंकार और प्रसारवादी व्यक्तित्व प्रभावी होने लगा। साम्यवादी स्कूप को दबाते-दबाते आज तो चीनी शासक दुनिया की चोटी की पंजीवादी-साम्राज्यवादी ताकतों के साथ जुड़ते जा रहे हैं। यथार्थवादी चीन ने लद्दाख क्षेत्र में अक्साई चीन सड़क बना ली है। पहले भेड़ चराने के नाम पर मध्य क्षेत्र कब्जा कर लिया। अब मैकमोहन रेखा को पार कर पांचल में हेलीपैड बनवाकर शांति के लिए काम करने का अनोखा उदाहरण पेश कर रहा है। चीन के शासकों ने शुरू से ही एक ही रास्ता पकड़ा, “बात करो, सीमा गरम रखो और धीरे-धीरे जमीन पर अपने अधिकार को फौजी बल पर बढ़ाते जाओ। ‘इस आधार पर उन्होंने सीमा पर अपना वर्चस्व कायम कर लिया है।

तिब्बत को स्वयत्त इकाई का दर्जा दिया– स्वतन्त्रता के पश्चात् भारत ने भी तिब्बत को चीनी अधिराज्य के रूप में स्वीकार किया और तिब्बत को स्वयत्त इकाई का दर्जा दिया। परन्तु नई दिल्ली उस समय आश्चर्यचकित हो गयी जब चीन की इस नवगठित साम्यवादी सरकार ने भारत से मान्यता मिलने के तीसरे दिन की 1 जनवरी 1950 (नव वर्ष का दिन) को “न्यू चाइना न्यूज एजेन्सी के प्रसारण द्वारा यह घोषणा किया कि- “The tasks for the peoples’ Liberation Army (PLA) for 1950 are to liberate Taiwan, Hainas and Tibet………… Tibet is an integrat part of china. Tibet has fallen under the influence of the imperialits.” (Source: South Asian Defence and Strategic Year Book (New Delhi, 2007), page- 42)

चीन का तिब्बत पर कब्जा- 7 अक्टूबर 1950 को बिना किसी पूर्व सूचना के चीनी सेना ने तिब्बत की सीमाओं का अतिक्रमण करके विभिन्न दिशाओं से ल्हासा की ओर बढ़ना प्रारम्भ कर दिया। 10 अक्टूबर को ल्हासा से 300 मील पूर्व स्थित चामड़ो तथा 23 अक्टूबर तक चीनी सेना ने ल्हासा के पूर्व क्षेत्र पर नियंत्रण स्थापित कर लिया। इसके पश्चात् चीन ने 25 अक्टूबर, 1950 कोन्यू चाइना न्यूज ऐजेन्सी द्वारा यह प्रसारित किया कि- “चीन की सेना कोतिब्बतियों को स्वतन्त्र कराने के लिए, चीन के एकीकरण को पूर्ण करने के लिए,पितृ-भूमि के एक-एक इंच को साम्राज्यवादी आक्रमणकारियों से बचाने के लिए तथा देशके सीमान्त प्रदेशों की सुरक्षा के लिए तिब्बत में आगे बढ़ने का आदेश दिया गया है।”

ल्हासा: एक प्रतिबन्धित शहर- चीन ने तिब्बत पर कब्जा किया तो उसे बाहरी दुनिया से बिल्कुल काट दिया. तिब्बत में चीनी सेना तैनात कर दी गई, राजनीतिक शासन में दख़ल किया गया जिसकी वजह से तिब्बत के नेता दलाई लामा को भाग कर भारत में शरण लेनी पड़ी. फिर तिब्बत का चीनीकरण शुरू हुआ और तिब्बत की भाषा, संस्कृति, धर्म और परम्परा सबको निशाना बनाया गया। किसी बाहरी व्यक्ति को तिब्बत और उसकी राजधानी ल्हासा जाने की अनुमति नहीं थी, इसीलिये उसे प्रतिबन्धित शहर कहा जाता है. विदेशी लोगों के तिब्बत आने पर ये पाबंदी 1963 में लगाई गई थी. हालांकि 1971 में तिब्बत के दरवाज़े विदेशी लोगों के लिए खोल दिए गए थे.

भारतीय प्रतिक्रिया- चीन द्वारा तिब्बत में की गयी सैन्य कार्यवाहियों की भारतीय संसद में व इससेबाहर भी तीव्र प्रतिक्रिया हुई। जैसा उस समय विदेश मंत्रालय के महासचिव जी०एस०वाजपेयी ने अनुभव किया कि- “India would now have on it northern frontiers a “Militaristic and aggressive nation”

Brigadier John Dalvi ने 1968 में अपनी पुस्तक “Himalayan Blunder” में इन प्रतिक्रियाओं का उल्लेख करते हुए लिखा है कि- …….

भारतीय स्वतंत्रता सेनानी और सांसद प्रो० एनजी रंगा का विचार थाकि ‘प्रधानमंत्री हमारी सीमा की सुरक्षा पर भय के बादल इकट्ठा कर रहे है।

श्यामा प्रसाद मुखर्जी ने उसी समय यह भविष्यवाणी की थी कि वह दिन दूर नहीं जब कि चीन भारत पर आक्रमण करेगा।

लौह-पुरूष सरदार बल्लभभाई पटेल चीन के साथ बल परीक्षा के पक्ष में थे लेकिन दुर्भाग्यवश अपने विचारों को कार्य रूप में परिणत करने के पहले ही उनकी मृत्यु हो गयी……. (Source: Brig. J.P. Dalvi; “Himalayan Blunder” (New Delhi, 1969), page-21)

चीन के तिब्बत पर आक्रमण के बाद प्रतिकिया देते हुए डा० राममनोहर लोहिया ने तिब्बत पर चीनी हमले को उन्होंने ‘शिशु हत्या’ करार देते हुए तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू से कहा था कि वे तिब्बत पर चीनी कब्जे को मान्यता न दें।

चीन पर नेहरू से सहमत नहीं थे सरदार पटेल- उल्लेखनीय है कि तिब्बत में चीनी सेना के अभियान के संदर्भ में तत्कालीन गृहमंत्री बल्लभ भाई पटेल ने 7 नवम्बर 1950 को जो पत्र नेहरू को लिखा वह निश्चित ही भारतीय सीमान्तों पर चीनी खतरे को स्पष्ट रूप से परिलक्षित करता है।

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उन्होंने नेहरू को सम्बोधित करते हुए लिखा था कि-

प्रिय जवाहरलाल,……… विदेश मंत्रालय तथा पेकिंग में हमारे राजदूत और उसके जरिये चीन सरकार के बीच जोपत्र-व्यवहार हुआ है उसका मैंने सूक्ष्मता से अध्ययन किया है इस पत्र-व्यवहार का अध्ययन करते हुए, जहांतक सम्भव हुआ है, मैने हमारे राजदूत तथा तथा चीन की सरकार के बारे में अच्छा सोचने का प्रयत्न किया है,लेकिन मुझे यह कहते हुए दुःख हो रहा है कि इन पन्नों को पढ़ाने के बाद दोनों में से किसी के बारे में अच्छीराय कायम नहीं कर सका हूँ शांतिपूर्ण इरादो का स्वांग करके चीन की सरकार ने बराबर हमें छलने का प्रयत्नकिया है। मेरी अपनी धारणा है कि एक मार्के के समय उन्होंने हमारे राजदूत में यह भ्रामक विश्वास पैदा करदिया है कि तिब्बत के प्रश्न को शांतिपूर्ण ढंग से सुलझाने की उनकी इच्छा वास्तविक है। इस बात में कोईसंदेह नहीं हो सकता है कि जिस काल में इन पत्रों का आदान-प्रदान हो रहा था, उसी समय चीन तिब्बत पर आक्रमण करने की तैयारी कर रहा था। मेरी राय में चीन के इस कार्य को विश्वासघात कहा जा सकता है….

Sardar Patel’s Letter to Prime Minister Jawaharlal Nehru

New Delhi

7 November 1950

My Dear Jawaharlal,

Ever since my return from Ahmedabad and after the cabinet meeting the same day which I had to attend at practically 15 minutes’ notice and for which I regret I was not able to read all the papers, I have been anxiously thinking over the problem of Tibet and I thought I should share with you what is passing through my mind.

I have carefully gone through the correspondence between the External Affairs Ministry and our Ambassador in Peking and through him the Chinese Government. I have tried to peruse this correspondence as favourably to our Ambassador and the Chinese Government as possible, but I regret to say that neither of them comes out well as a result of this study. The Chinese Government has tried to delude us by professions of peaceful intention. My own feeling is that at a crucial period they manage to instil into our Ambassador a false sense of confidence in their so-called desire to settle the Tibetan problem by peaceful means. There can be no doubt that during the period covered by this correspondence the Chinese must have been concentrating for an onslaught on Tibet. The final action of the Chinese, in my judgment, is little short of perfidy. The tragedy of it is that the Tibetans put faith in us; they choose to be guided by us, and we have been unable to get them out of the meshes of Chinese diplomacy or Chinese malevolence. From the latest position, it appears that we shall not be able to rescue the Dalai Lama. Our Ambassador has been at great pains to find an explanation or justification for Chinese policy and actions. As the External Affairs Ministry remarked in one of their telegrams, there was a lack of firmness and unnecessary apology in one or two representations that he made to the Chinese Government on our behalf. It is impossible to imagine any sensible person believing in the so-called threat to China from Anglo-American machinations in Tibet. Therefore, if the Chinese put faith in this, they must have distrusted us so completely as to have taken us as tools or stooges of Anglo-American diplomacy or strategy. This feeling, if genuinely entertained by the Chinese in spite of your direct approaches to them, indicates that even though we regard ourselves as friends of China, the Chinese do not regard us as their friends. With the Communist mentality of “whoever is not with them being against them,” this is a significant pointer, of which we have to take due note. During the last several months, outside the Russian camp, we have practically been alone in championing the cause of Chinese entry into UN and in securing from the Americans assurances on the question of Formosa. We have done everything we could to assuage Chinese feelings, to allay its apprehensions and to defend its legitimate claims in our discussions and correspondence with America and Britain and in the UN. In spite of this, China is not convinced about our disinterestedness; it continues to regard us with suspicion and the whole psychology is one, at least outwardly, of scepticism perhaps mixed with a little hostility. I doubt if we can go any further that we have done already to convince China of our good intentions, friendliness and goodwill. In Peking, we have an Ambassador who is eminently suitable for putting across the friendly point of view. Even he seems to have failed to convert the Chinese. Their last telegrame to us is an act of gross discourtesy not only in the summary way it disposes of our protest against the entry of Chinese forces into Tibet but also in the wild insinuation that our attitude is determined by foreign influences. It looks as though it is not a friend speaking in that language but a potential enemy.

In the background of this, we have to consider what new situation now faces us as a result of the disappearance of Tibet, as we knew it, and the expansion of China almost up to our gates. Throughout history we have seldom been worried about our north-east frontier. The Himalayas have been regarded as an impenetrable barrier against any threat from the north. We had friendly Tibet which gave us no trouble. The Chinese were divided. They had their own domestic problems and never bothered us about frontiers. In 1914, we entered into a convention with Tibet which was not endorsed by the Chinese. We seem to have regarded Tibetan autonomy as extending to independent treaty relationship. Presumably, all that we required was Chinese counter-signature. The Chinese interpretation of suzerainty seems to be different. We can, therefore, safely assume that very soon they will disown all the stipulations which Tibet has entered into with us in the past. That throws into the melting pot all frontier and commercial settlements with Tibet on which we have been functioning and acting during the last half a century. China is no longer divided. It is united and strong. All along the Himalayas in the north and north-east, we have on our side of the frontier a population ethnologically and culturally not different from Tibetans and Mongoloids. The undefined state of the frontier and the existence on our side of a population with its affinities to the Tibetans or Chinese have all the elements of the potential trouble between China and ourselves. Recent and bitter history also tells us that communism is no shield against imperialism and that the communist are as good or as bad imperialist as any other. Chinese ambitions in this respect not only covered the Himalayan slopes on our side but also include the important part of Assam. They have their ambitions in Burma also. Burma has the added difficulty that it has no McMohan line round which to build up even the semblance of an agreement. Chinese irredentism and communist imperialism are different from the expansionism or imperialism of the western powers. The former has a cloak of ideology which makes it ten times more dangerous. In the guise of ideological expansion lie concealed racial, national or historical claims. The danger from the north and north-east, therefore, becomes both communist and imperialist. While our western and non-western threat to security is still as prominent as before, a new threat has developed from the north and north-east. Thus, for the first time, after centuries, India’s defence has to concentrate itself on two fronts simultaneously. Our defence measures have so far been based on the calculations of superiority over Pakistan. In our calculations we shall now have to reckon with communist China in the north and in the north-east, a communist China which has definite ambitions and aims and which does not, in any way, seem friendly disposed towards us.

Let us also consider the political conditions on this potentially troublesome frontier. Our northern and north-eastern approaches consist of Nepal, Bhutan, Sikkim, the Darjeeling (area) and tribal areas in Assam. From the point of view of communication, there are weak spots. Continuous defensive lines do not exist. There is almost an unlimited scope for infiltration. Police protection is limited to a very small number of passes. There, too, our outposts do not seem to be fully manned. The contact of these areas with us is by no means close and intimate. The people inhabiting these portions have no established loyalty or devotion to India even the Darjeeling and Kalimpong areas are not free from pro-Mongoloid prejudices. During the last three years we have not been able to make any appreciable approaches to the Nagas and other hill tribes in Assam. European missionaries and other visitors had been in touch with them, but their influence was in no way friendly to India/Indians. In Sikkim, there was political ferment some time ago. It is quite possible that discontent is smouldering there. Bhutan is comparatively quiet, but its affinity with Tibetans would be a handicap. Nepal has a weak oligarchic regime based almost entirely on force; it is in conflict with a turbulent element of the population as well as with enlightened ideas of modern age. In these circumstances, to make people alive to the new danger or to make them defensively strong is a very difficult task indeed and that difficulty can be got over only by enlightened firmness, strength and a clear line of policy. I am sure the Chinese and their source of inspiration, Soviet Union would not miss any opportunity of exploiting these weak spots, partly in support of their ideology and partly in support of their ambitions. In my judgment, the situation is one which we cannot afford either to be complacent or to be vacillating. We must have a clear idea of what we wish to achieve and also of the methods by which we should achieve it. Any faltering or lack of decisiveness in formulating our objectives or in pursuing our policies to attain those objectives is bound to weaken us and increase the threats which are so evident.

Side by side with these external dangers, we shall now have to face serious internal problems as well. I have already asked (HVR) Iyengar to send to the EA Ministry a copy of the Intelligence Bureau’s appreciation of these matters. Hitherto, the Communist party of India has found some difficulty in contacting communists abroad, or in getting supplies of arms, literature, etc., from them. They had to contend with the difficult Burmese and Pakistan frontiers on the east with the long seaboard. They shall now have a comparatively easy means of access to Chinese communists and through them to other foreign communists. Infiltration of spies, fifth columnists and communists would now be easier. Instead of having to deal with isolated communist pockets and Telengana and Warangal we may have to deal with communist threats to our security along our northern and north-eastern frontiers, where, for supplies of arms and ammunition, they can safely depend on communist arsenals in China. The whole situation thus raises a number of problems on which we must come to early decision so that we can, as I said earlier, formulate the objectives of our policy and decide the method by which those objectives are to be attained. It is also clear that the action will have to be fairly comprehensive, involving not only our defence strategy and state of preparations but also problem of internal security to deal with which we have not a moment to lose. We shall also have to deal with administrative and political problems in the weak spots along the frontier to which I have already referred.

It is of course, impossible to be exhaustive in setting out all these problems. I am, however, giving below some of the problems which in my opinion, require early solution and round which we have to build our administrative or military policies and measures to implement them.

(a) A military and intelligence appreciation of the Chinese threat to 61 India both on the frontier and internal security.

(b) An examination of military position and such redisposition of our forces as might be necessary, particularly with the idea of guarding important routes or areas which are likely to be the subject of dispute.

(c) An appraisement of strength of our forces and, if necessary, reconsideration of our retrenchment plans to the Army in the light of the new threat. A long-term consideration of our defence needs. My own feeling is that, unless we assure our supplies of arms, ammunition and armour, we should be making a defence position perpetually weak and we would not be able to stand up to the double threat of difficulties both from the west and north and north-east.

(d) The question of Chinese entry into UN. In view of rebuff which China has given us and the method which it has followed in dealing with Tibet, I am doubtful whether we can advocate its claims any longer. There would probably be a threat in the UN virtually to outlaw China in view of its active participation in the Korean War. We must determine our attitude on this question also.

(e) The political and administrative steps which we should take to strengthen our northern and north-eastern frontier. This would include whole of border, i.e., Nepal, Bhutan, Sikkim, Darjeeling and tribal territory of Assam.

(f) Measures of internal security in the border areas as well as the states flanking those areas such as U.P., Bihar, Bengal and Assam.

(g) Improvement of our communication, road, rail, air and wireless, in these areas and with the frontier outposts.

(h) The future of our mission at Lhasa and the trading post of Gyangtse and Yatung and the forces which we have in operation in Tibet to guard the trade routes.

(i) The policies in regards to McMohan line.

These are some of the questions which occur to my mind. It is possible that a consideration of these matters may lead us into wider question of our relationship with China, Russia, America, Britain and Burma. This, however would be of a general nature, though some might be basically very important, i.e., we might have to consider whether we should not enter into closer association with Burma in order to strengthen the latter in its dealings with China. I do not rule out the possibility that, before applying pressure on us, China might apply pressure on Burma. With Burma, the frontier is entirely undefined and the Chinese territorial claims are more substantial. In its present position, Burma might offer an easier problem to China, and, therefore, might claim its first attention.

I suggest that we meet early to have a general discussion on these problems and decide on such steps as we might think to be immediately necessary and direct, quick examination of other problems with a view to taking early measure to deal with them.

Yours,

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Vallabhbhai Patel

सरदार पटेल द्वारा लिखे पत्र से यह स्पष्ट है कि उन्हें आने वाली परिस्थितियों का पूर्वाभास हो गया था और वे चाहते थे कि भारत को कोई कारगर कदम उठानाचाहिए जिससे उत्तरी सीमा पर पैदा हुई परिस्थितियों से तुरन्त निपटा जा सके। उन्होंने एवं यथार्थवादी के रूप में उभरती हुई परिस्थितियों को समझने का प्रयास किया।

6 दिसम्बर 1950 को लोक सभा में दिया नेहरू का वक्तव्य- परन्तु पं० नेहरू का आदर्शवादी व्यक्तित्व इन वास्तविकताओं को अनदेखा कर गया। पं० नेहरू एशियाई शक्तियों में भातृत्व की बात ही सोचते रहे। इस बात की पुष्टि तिब्बत पर चीनी सेना के अभियान के लगभग दो मास बाद 6 दिसम्बर 1950 को भारतीय लोक सभा में परराष्ट्र नीति पर बहस प्रारम्भ करते हुए नेहरू ने तिब्बत के सम्बन्ध में जो वक्तव्य दिया-

“तिब्बत में चीनी सेना के अभियान के सम्बन्ध में इससे पूर्व प्रात: कुछ प्रश्न किये गये थे……. जहां तक हमारा सम्बन्ध है, तिब्बत का मामला बहुत साधारण है। जब चीनी लोक गणतन्त्र की सरकार ने,’तिब्बत की मुक्ति के सम्बन्ध में अपने विचार प्रकट करना प्रारम्भ किया तभी भारत की ओर से चीन-स्थित उसके राजदूत ने चीन सरकार को भारत के मत से अवगत करा दिया था। हमने अपनी यह हार्दिक आशा प्रकट की कि चीन और तिब्बत शांति पूर्वक समस्या हल कर लेंगे… “हमें यह विश्वास हो गया था कि समस्या शांतिपूर्ण ढंग से आपसी वार्ता के द्वारा हल कर ली जायेगी जब हमें चीनी सेना के अभियान का समाचार मिला, हमारे दिल पर धक्का लगा….. कहा जाता है कि अन्य देश तिब्बत में षडयन्त्र रच सकते है। मैं इसके संबन्ध में कुछ भी नहीं कह सकता, क्योंकि मै कुछ जानता ही नहीं हूँ। फिर भी यह निश्चित है कि तत्काल कोई संकट न था…… यही कारण है कि चीनी कार्यवाही से हमे आश्चर्य हुआ।”(Source: Jawahar Lal Nehru’s Speeches – 1949-1953, page- 187-188)

तिब्बत के प्रश्न पर नेहरू द्वारा व्यक्त किये गये विचारों से यह स्पष्ट हो जाता हैकि वे तिब्बत पर चीनी अधिपत्य को स्वीकार कर चुके थे। वास्तव में उत्तर में परिस्थितियां इतनी तेजी से बदल जाएंगी पं० नेहरू ने ऐसा शायद नहीं सोचा था।

आखिरकार पं नेहरू ने भी इस वास्तविकता से सहमति प्रकट की और सरदार पटेल को लिखे पत्र में अपने विचार प्रकट करते हुए स्पष्ट किया कि भारत-तिब्बत कीरक्षा के लिए क्यों कदम नहीं उठा सका? उन्होंने कहा …….

“हम चाहते हुए भी तिब्बतको नहीं बचा सकते, तथा हमें डर है कि हमारी इस ओर कोशिश कहीं उन्हें और अधिकखतरे में न डाल दे। हमारे लिए यह सही नहीं होगा कि हम तिब्बत को इस संकट मेंडाले। विशेषकर उस समय जबकि हम उनकी मदद करने में सक्षम नहीं है। यह अवश्यसम्भव हो सकता है कि तिब्बत की प्रभुसत्ता किसी तरह कायम रह सके, इसके लिए हम उनकी मदद करे। यही तिब्बत के लिए व भारत के लिए हितकर होगा। जहां तक मेरा विचार है, इस सब के लिए भारत व चीन के बीच जो मतभेद है उन्हें अधिक गहरे होनेसे रोका जाए।”

तिब्बत पर पूरी तरह से चीन का कब्जा

स्पष्ट है कि इस समय भारतीय दृष्टिकोण ऐन केन प्राकेण चीन को प्रसन्न रखने का था शायद यही कारण है कि जब तिब्बत सरकार द्वारा संयुक्त राष्ट्र संघ में मदद की अपील (11 नवम्बर 1950) की गयी और इस संबन्ध में जब तिब्बत की समस्या को लेक रलैटिन अमेरिका के एक छोटे से राष्ट्र एल. सेल्वाडोर के प्रतिनिधि ने संयुक्त राष्ट्र संघ में मानवाधिकार के हनन का प्रश्न उठाया तो श्रीकृष्ण मेनन ने उसके उत्तर में यह दलील पेश की, कि चूंकि पेकिंग की सरकार संयुक्त राष्ट्र संघ का सदस्य नहीं है इसलिए तिब्बत में मानवीय अधिकारों को कुचलने के लिए संयुक्त राष्ट्र उसे दोषी नहीं ठहरा सकता। इस समय भारत सरकार का यह रूख था कि चीन या तिब्बत के आंतरिक मामलों में दखल देने की उनकी कोई इच्छा नहीं है क्योंकि इससे केवल शीत युद्ध की स्थिति पैदा हो सकती है।

परिणामस्वरूप 24 नवम्बर को संयुक्त राष्ट्र महासभा की संचालन समिति ने तिब्बत की अपील पर चर्चा स्थगित कर दी। संचालन समिति ने यहपाया कि भारतीय प्रतिनिधि इस मामले क शांतिपूर्ण हल चलाते हैं। भारत ने यह पक्ष तब अख्तियार किया जब अक्टूबर 1950 में चीन के आक्रमण से पूर्व इंटरनेशनल कमीशन ऑफ ज्यूरिस्ट तिब्बत को स्वतन्त्र क्षेत्र का दर्जा प्रदान कर चुका था।

अतः भारत सरकार द्वारा तिब्बत के प्रति इस ढीले रवैये के कारण तिब्बत को असहाय की स्थिति में 23 मई 1951 को चीन द्वारा प्रस्तावित 17 सूत्री मसौदे के समझौते पर हस्ताक्षर करना पड़ा। इस समझौते में तिब्बत की सीमित स्वायत्तता स्वीकार करते हुए यह प्रावधान किया गया कि चीन तिब्बत के विदेश संबन्धों का संचालन करेगा, तिब्बत की पूर्ण सुरक्षा के लिए चीन की सेनाएं तिब्बत में तैनात की जाएंगी और तिब्बत की सेनाओं का पुनर्गठन किया जाएगा ताकि आगे चलकर चीन की सेना में उसका विलय हो जाए। यह भी वचन दिया गया कि ल्हासा वापस आने पर दलाई लामा को पूर्ण सम्मान दिया जाएगा, तिब्बत मे पूरी धार्मिक स्वतन्त्रता सुनिश्चित की जायेगी, तिब्बत के विकास में चीन पूर्ण सहयोग देगा और यह भी कि चीन का एक प्रशासकीय तथा सैनिक मिशन तिब्बत में नियुक्त किया जायेगा (हालांकि चीन ने इसका कभी पालन नहीं किया)। इस प्रकार तिब्बत को पूरी तरह चीनी प्रदेश में परिवर्तित कर दिया गया।

1954 में नेहरू ने औपचारिक तौर पर मान लिया कि तिब्बत चीन का हिस्सा है…

भारत सरकार ने 1954 में चीन के साथ तिब्बत को लेकर एक संधि की, जिसे ‘पंचशील संधि’ के नाम से जाना जाता है। इस संधि में भारत सरकार ने पहली बार लिखित रूप में तिब्बत को चीन का स्वायत्त प्रदेश स्वीकार किया और तिब्बत में भारतीय दूतावास, जो उन दिनों मिशन के नाम से जाना जाता था को बंद कर दिया। स्वतंत्र तिब्बत के साथ भारत के शताब्दियों पुराने व्यापार के अधिकारों को समाप्त करने की बात भी भारत सरकार ने स्वीकार कर ली।

2Source: http://www.mea.gov.in/Uploads/PublicationDocs/191_panchsheel.pdf

तिब्बत कभी नहीं रहा चीन का हिस्सा…

तिब्बत सदियों से एक स्वतंत्र देश था लेकिन मंगोल राजा कुबलई खान ने युवान राजवंश की स्थापना की और उसने तब तिब्बत, चीन, वियतनाम और कोरिया तक अपने राज्य का परचम लहराया था। फिर सत्रहवहीं शताब्ती में चीन के चिंग राजवंश के तिब्बत के साथ रिश्ते बने और फिर लगभग 260 वर्ष के बाद चीन की चिंग सेना ने तिब्बत पर अधिकार कर लिया लेकिन 3 वर्ष के भीतर विदेशी शासन को उखाड़ फेंका और 1912 में 13वें दलाई लामा ने तिब्बत की स्वतंत्रता की घोषणा की। तब से लेकर 1951 तक तिब्बत एक स्वंत्र देश के रूप में जाना जाता था।

  • 1912: चीन में किंग वंश के पतन के बाद चीनी सेना तिब्बत की राजधानी ल्हासा से बाहर कर दी गई।
  • 13वें दलाई लामा ने स्वतंत्रता की घोषणा की और 1950 तक तिब्बतियों ने वहां शासन किया।
  • 1935: 6 जुलाई को 14वें दलाई लामा का जन्म हुआ। नवंबर 1950 चौदहवें दलाई लामा की ताजपोशी हुई।
  • 1950: अक्टूबर में चीन की पीपुल्स लिबरेशन आर्मी तिब्बत में दाखिल हुई।
  • 1951: मई में तिब्बत के प्रतिनिधियों ने दबाव में आकर चीन के साथ एक 17-सूत्री समझौते पर हस्ताक्षर किए, जिसमें तिब्बत को स्वायत्तता देने का वादा किया गया था।
  • 1951: सितंबर में पीपुल्स लिबरेशन आर्मी ल्हासा में दाखिल हो गई।
  • 1954: दलाई लामा ने पीकिंग की यात्रा की।
  • 1959: 10 मार्च को चीन के कब्जे के खिलाफ विद्रोह शुरू हुआ।
  • 1965: चीन ने तिब्बत स्वायत्त क्षेत्र का गठन किया।
  • 1979: तिब्बत में मंद गति से उदारीकरण शुरू हुआ।
  • 1985: तिब्बत को बड़े पैमाने पर पर्यटन के लिए खोल दिया गया।
  • 1987: ल्हासा और शिगात्से में विद्रोह शुरू हुआ।
  • 1989: हू जिंताओ और उनकी पार्टी के नेताओं के नेतृत्व में तिब्बत में दमनचक्र चला।
  • 2002: चीन की सरकार ने दलाई लामा के साथ बातचीत प्रारंभ की। लेकिन वार्ता बेनतीजा रही।
  • 2008: 14 मार्च को ल्हासा में चीन विरोधी दंगे के बाद तिब्बत में विरोध प्रदर्शन शुरू हुआ।
  • चीन की सरकार ने इस प्रदर्शन को शक्ति से दबाया, कई लोगों की गिरफ्तारी हुई।

चीन का कहना है, “सात सौ साल से भी ज़्यादा समय से तिब्बत पर चीन की संप्रभुता रही है और तिब्बत कभी भी एक स्वतंत्र देश नहीं रहा है. दुनिया के किसी भी देश ने कभी भी तिब्बत को एक स्वतंत्र देश के रूप में मान्यता नहीं दी है.”

दलाई लामा की भूमिकाचीन और दलाई लामा का इतिहास ही चीन और तिब्बत का इतिहास है. सन 1409 में जे सिखांपा ने जेलग स्कूल की स्थापना की थी. इस स्कूल के माध्यम से बौद्ध धर्म का प्रचार किया जाता था. यह जगह भारत और चीन के बीच थी जिसे तिब्बत नाम से जाना जाता है. इसी स्कूल के सबसे चर्चिच छात्र थे गेंदुन द्रुप. गेंदुन आगे चलकर पहले दलाई लामा बने. बौद्ध धर्म के अनुयायी दलाई लामा को एक रूपक की तरह देखते हैं. इन्हें करुणा के प्रतीक के रूप में देखा जाता है. दूसरी तरफ इनके समर्थक अपने नेता के रूप में भी देखते हैं. दलाई लामा को मुख्य रूप से शिक्षक के तौर पर देखा जाता है. लामा का मतलब गुरु होता है. लामा अपने लोगों को सही रास्ते पर चलने की प्रेरणा देते हैं. तिब्बती बौद्ध धर्म के नेता दुनिया भर के सभी बौद्धों का मार्गदर्शन करते हैं.

1630 के दशक में तिब्बत के एकीकरण के वक़्त से ही बौद्धों और तिब्बती नेतृत्व के बीच लड़ाई है. मान्चु, मंगोल और ओइरात के गुटों में यहां सत्ता के लिए लड़ाई होती रही है. अंततः पांचवें दलाई लामा तिब्बत को एक करने में कामयाब रहे थे. इसके साथ ही तिब्बत सांस्कृतिक रूप से संपन्न बनकर उभरा था. तिब्बत के एकीकरण के साथ ही यहां बौद्ध धर्म में संपन्नता आई.

बौद्धों ने 14वें दलाई लामा को भी मान्यता दी. दलाई लामा के चुनावी प्रक्रिया को लेकर ही विवाद रहा है. 13वें दलाई लामा ने 1912 में तिब्बत को स्वतंत्र घोषित कर दिया था. करीब 40 सालों के बाद चीन के लोगों ने तिब्बत पर आक्रमण किया. चीन का यह आक्रमण तब हुआ जब वहां 14वें दलाई लामा के चुनने की प्रक्रिया चल रही थी. तिब्बत को इस लड़ाई में हार का सामना करना पड़ा. कुछ सालों बाद तिब्बत के लोगों ने चीनी शासन के ख़िलाफ़ विद्रोह कर दिया. ये अपनी संप्रभुता की मांग करने लगे.

हालांकि विद्रोहियों को इसमें सफलता नहीं मिली. दलाई लामा को लगा कि वह बुरी तरह से चीनी चंगुल में फंस जाएंगे. इसी दौरान उन्होंने भारत का रुख किया. दलाई लामा के साथ भारी संख्या में तिब्बती भी भारत आए थे. साल 1959 का था. चीन को भारत में दलाई लामा को शरण मिलना अच्छा नहीं लगा. तब चीन में माओत्से तुंग का शासन था. दलाई लामा और चीन के कम्युनिस्ट शासन के बीच तनाव बढ़ता गया. दलाई लामा को दुनिया भर से सहानुभूति मिली लेकिन अब तक वह निर्वासन की ही ज़िंदगी जी रहे हैं.

सि‍द्धों की भूमि है तिब्बत- तिब्बत प्राचीन काल से ही योगियों और सिद्धों का घर माना जाता रहा है तथा अपने पर्वतीय सौंदर्य के लिए भी यह प्रसिद्ध है। संसार में सबसे अधिक ऊंचाई पर बसा हुआ प्रदेश तिब्बत ही है। तिब्बत मध्य एशिया का सबसे ऊंचा प्रमुख पठार है। वर्तमान में यह बौद्ध धर्म का प्रमुख केंद्र है। राहुलजी सांस्कृतायन के अनुसार तिब्बत के 84 सिद्धों की परम्परा ‘सरहपा’ से आरंभ हुई और नरोपा पर पूरी हुई। सरहपा चौरासी सिद्धों में सर्व प्रथम थे। इस प्रकार इसका प्रमाण अन्यत्र भी मिलता है लेकिन तिब्बती मान्यता अनुसार सरहपा से पहले भी पांच सिद्ध हुए हैं। इन सिद्धों को हिन्दू या बौद्ध धर्म का कहना सही नहीं होगा क्योंकि ये तो वाममार्ग के अनुयायी थे और यह मार्ग दोनों ही धर्म में समाया था। बौद्ध धर्म के अनुयायी मानते हैं कि सिद्धों की वज्रयान शाखा में ही चौरासी सिद्धों की परंपरा की शुरुआत हुई, लेकिन आप देखिए की इसी लिस्ट में भारत में मनीमा को मछींद्रनाथ, गोरक्षपा को गोरखनाथ, चोरंगीपा को चोरंगीनाथ और चर्पटीपा को चर्पटनाथ कहा जाता है। यही नाथों की परंपरा के 84 सिद्ध हैं।

भारत का तीर्थ- कैलाश पर्वत और मानसरोवर तिब्बत में ही स्थित है। यहीं से ब्रह्मपुत्र नदी निकलती हैं। तिब्बत स्थित पवित्र मानसरोवर झील से निकलने वाली सांग्पो नदी पश्चिमी कैलाश पर्वत के ढाल से नीचे उतरती है तो ब्रह्मपुत्र कहलाती है। तिब्बत के मानसरोवर से निकलकर बाग्लांदेश में गंगा को अपने सीने से लगाकर एक नया नाम पद्मा फिर मेघना धारण कर सागर में समा जाने तक की 2906 किलोमीटर लंबी यात्रा करती है। कालिदास ने कैलाश और मानसरोवर के निकट बसी हुई कुबेर की नगरी ‘अलकापुरी’ का ‘मेघदूत’ में वर्णन किया है।

प्राचीन काल में इसे त्रिविष्टप कहते थे- प्राचीनकाल में तिब्बत को त्रिविष्टप कहते थे। भारत के बहुत से विद्वान मानते हैं कि तिब्बत ही प्राचीन आर्यों की भूमि है। पौराणिक ग्रंथों अनुसार वैवस्वत मनु ने जल प्रलय के बाद इसी को अपना निवास स्थान बनाया था और फिर यहीं से उनके कुल के लोग संपूर्ण भारत में फैल गए थे। वेद-पुराणों में तिब्बत को त्रिविष्टप कहा गया है। महाभारत के महाप्रस्थानिक पर्व में स्वर्गारोहण में स्पष्ट किया गया है कि तिब्बत हिमालय के उस राज्य को पुकारा जाता था जिसमें नंदनकानन नामक देवराज इंद्र का देश था।

जब भारत ने तिब्बत को चीन का हिस्सा माना

साल 2003 के जून महीने में भारत ने ये आधिकारिक रूप से मान लिया था कि तिब्बत चीन का हिस्सा है. चीन के राष्ट्रपति जियांग जेमिन के साथ तत्कालानी प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी की मुलाकात के बाद भारत ने पहली बार तिब्बत को चीन का अंग मान लिया था. हालांकि तब ये कहा गया था कि ये मान्यता परोक्ष ही है. लेकिन दोनों देशों के बीच रिश्तों में इसे एक महत्वपूर्ण कदम के तौर पर देखा गया था.

3Source: https://timesofindia.indiatimes.com/pm-on-china-visit/news/India-recognises-Tibet-as-part-of-China/articleshow/41145.cms

क्या तिब्बत पर भारत ने बड़ी भूल की थी…

19 जुलाई 2017 को लोकसभा में मुलायम सिंह ने कहा कि भारत ने तिब्बत को चीन का हिस्सा मानकर बड़ी भूल की थी. मुलायम सिंह ने यहां तक कह दिया कि चीन ने भारत पर हमले की तैयारी कर ली है. क्या भारत ने तिब्बत को चीन का हिस्सा मानकर वाकई भूल की थी?

आरसएस की पत्रिका ऑर्गेनाइजर के पूर्व संपादक शेषाद्री चारी भी मुलायम सिंह की बातों से सहमत हैं कि भारत ने तिब्बत को चीन का हिस्सा मानकर बड़ी भूल की थी. उन्होंने कहा कि पहली बार 2003 में अटल बिहारी वाजपेयी सरकार ने तिब्बत को चीन का हिस्सा माना और चीन ने सिक्किम को भारत का हिस्सा.

तिब्बत पर भारत का स्टैंड- हालांकि शेषाद्री चारी कहते हैं कि यह भारत का दूरदर्शी भरा क़दम नहीं था. प्रधानमंत्री बनने से पहले वाजपेयी तिब्बत को स्वतंत्र देश के रूप में रेखांकित करते थे. ऐसे में प्रधानमंत्री बनने के बाद वाजपेयी का यह क़दम सबको हैरान करने वाला था. शेषाद्री चारी भी वाजपेयी के क़दम से हैरान हुए थे. आख़िर वाजपेयी के सामने ऐसी क्या मजबूरी थी कि उन्होंने प्रधानमंत्री बनने के बाद तिब्बत पर अपना रुख बदल लिया.

शेषाद्री चारी कहते हैं, “हमारी वो रणनीतिक भूल थी और हमने बहुत जल्दीबाजी में ऐसा किया था. हमें तिब्बत को हाथ से जाने नहीं देना चाहिए था. शुरू से हमें एक स्टैंड पर कायम रहना चाहिए था. हमें बिल्कुल साफ़ कहना चाहिए था कि चीन ने तिब्बत पर अवैध कब्ज़ा कर रखा है और यह स्वीकार नहीं है.”

चारी ने कहा, “वाजेपयी सरकार को रणनीतिक तौर पर इसे टालना चाहिए था. उस वक़्त हमने तिब्बत के बदले सिक्किम को सेट किया था. चीन ने सिक्किम को मान्यता नहीं दी थी लेकिन जब हमने तिब्बत को उसका हिस्सा माना तो उसने भी सिक्किम को भारत का हिस्सा मान लिया.” उनका कहना है कि “इसके बाद ही नाथुला में सरहद पर ट्रेड को मंजूरी दी गई. नाथुला से इतना बड़ा व्यापार नहीं होता है कि इतनी बड़ी क़ीमत चुकानी चाहिए थी. तब ऐसा लगता था कि यह एक अस्थाई फ़ैसला है और बाद में स्थिति बदलेगी.

1914 का शिमला समझौता- शेषाद्री चारी ने कहा कि “जब भी कोई रणनीतिक फ़ैसला होता है तो आने वाले वक़्त में ग़लत साबित होने की आशंका बनी रहती है. ऐसा पंडित नेहरू के साथ भी हुआ था. चीन की जैसी आक्रामकता है उसे देख ऐसा लगता है कि वह भूटान को दूसरा तिब्बत बना देगा.”

जेएनयू में सेंटर फोर चाइनिज़ एंड साउथ ईस्ट एशिया स्टडीज के प्रोफ़ेसर बीआर दीपक का मानना है कि “तिब्बत के मामले में भारत की बड़ी लचर नीति रही है. साल 1914 में शिमला समझौते के तहत मैकमोहन रेखा को अंतरराष्ट्रीय सीमा माना गया लेकिन 1954 में नेहरू ने औपचारिक तौर पर मान लिया कि तिब्बत चीन का हिस्सा है और चीन के सा‍थ पंचशील समझौते पर दस्तखत कर दिया। Source: BBC

सीमा विवाद

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सन 1950 से लेकर 1954 तक अनेक अवसरों पर लोक-सभा में परराष्ट्र-नीति पर होने वाली बहस में सीमान्त की सुरक्षा का प्रश्न उठया जाता रहा क्योंकि तिब्बत में अपनी स्थिति पूरी तरह सुदृढ़ करके चीन ने भारतीय सीमान्तों पर अतिक्रमण करना प्रारम्भ कर दिया था। उल्लेखनीय है कि चीन की पिपुल्स सरकार ने प्रारम्भ में इन सीमाओं के विषय में कोई विरोध प्रकट नहीं किया क्योंकि वे परम्परागत सीमाओं को मानते थे। अतः सीमाओं पर कमी भी संदेह की स्थिति न उत्पन्न हो इसलिए नेहरू ने 20 नवम्बर 1950 को लोक सभा में यह स्पष्ट कर दिया था कि- Map or nomap. The McMahon Line is our definitive frontier, and no one will be allowed to cross that frontier.” (Source: Nevile Maxwell; “India’s China War” (Bombay, 1971), page- 75)

  • चीन की प्रतिक्रिया- शुरु में चीनी अधिकारियों ने इस नीति की घोषणा का कोई विरोध नहीं किया लेकिन बाद में सितम्बर 1951 को चीनी प्रधानमंत्री चाऊ-इन-लाई ने भारतीय राजदूत K.M Pannikar को परामर्श दिया कि तिब्बत और भारत की सीमा का सवाल शीघ्र हलकर लिया जाना चाहिए ताकि उसे एक स्थायी रूप मिल सके। इस प्रकार चीन ने पहली बार खुले रूप में भारत-तिब्बत अर्थात भारत-चीन सीमा को वार्ता हेतु प्रस्तुत किया। चाऊ ने नेपाल को भी वार्ता में शामिल करने का सुझाव दिया। इस वार्ता के प्रस्ताव के सम्बन्ध में मैक्सवेल ने यह भी उल्लेख किया है कि- Chou also stated,according to the Indian record of the conversation, that there was no territorial dispute or controversy between India and China.” (Source: Nevile Maxwell; “India’s China War” (Bombay, 1971), page- 76)
  • भारत की प्रतिक्रिया- चाऊ-इन-लाई के इस प्रस्ताव के उत्तर में भारत की ओर से यह कहा गया किवैसे तो दोनों देशों की सीमा कहीं विवादास्पद नहीं है, लेकिन यदि चीन चाहता है तोइस पर विचार-विमर्श हो सकता है। जनवरी 1952 में चीन में भारतीय राजदूत पाणिक्कर को तिब्बत तथा उससे लगी भारतीय सीमा के सम्बन्ध में प्रतिरक्षा जैसे मुद्दो से अवगत कराया गया।
  • चीनी पीएम का टाल-मटोल वाला रवैया- Pannikar चीनी प्रधानमंत्री चाऊ-इन-लाई से कई बार मिले लेकिन चाऊ-इन-लाई सीमा मुद्दों को छोड़कर सिर्फ सांस्कृतिक और व्यापारिक मुद्दों पर ही बात करते। इस पर Indian Ambassador to the United Nations वीके कृष्ण मेनन (1957 में रक्षा मंत्री बने थे) का विचार था- China’s attitude was ‘cunning’. मेनन आगे कहते हैं- चेंगटू (Chengtu) की मिलिट्री एकेडमी की दीवार पर चीन का एक ऐसा मानचित्र बना था जो उसका वास्तविक मानचित्र था और इस मानचित्र में कश्मीर का तथा मैकमोहन रेखा के दक्षिण का कुछ भाग शामिल किया गया था। शायद यही कारण था कि चीन की सरकार तिब्बत के मुद्दे पर बात करने से कतराती थी।(Source: Note by Menon, April, 11, 1952, Vijayalakshmi Pandit Papers)

मैकमोहन रेखा ग्रेट ब्रिटेन और तिब्बत के बीच हुए ‘शिमला सम्मेलन’ (अक्टूबर, 1913-जुलाई, 1914) की समाप्ति पर निर्धारित तिब्बत और ब्रिटिश भारत के बीच की सीमांत रेखा, जिसका नाम ब्रिटिश वार्ताकार सर हेनरी मैकमोहन के नाम पर पड़ा।

1958- चीन ने अपने एक MAP में छापा था नेफा से लेकर लद्दाख तक का कुछ हिस्सा

  • जुलाई 1958 में चीन ने अपने एक मासिक पत्रिका ‘चाइना पिक्टोरियल’ में एक मानचित्र प्रकाशित किया जिसमें नेफा का एक बहुत बड़ा हिस्सा तथा लद्दाख के कुछ हिस्सों को चीन की सीमा के अंदर दिखाया गया।(Source: Srinath Raghavan ; “Sino-Indian Boundary Dispute, 1948-60 : A Reappraisal.” Economic And Political Weekly, September 9, 2006, pge- 3886.)
  • जब भारत सरकार ने 21 अगस्त 1958 को एक पत्र द्वारा चीन सरकार का ध्यान इस ओर दिलाया तो चीन ने उत्तर दिया कि चीन ने इस क्षेत्र का सर्वेक्षण नहीं किया और न ही सीमा समस्या से संबन्धित देशों से विचार-विमर्श किया है। इसलिए इस नवीन मानचित्र को बदला नहीं जा सकता। “In this note, for the first time objection was taken by the Government of India about large areas of Ladakh, Eastern Part of Kashmir Territory- disputed between India and Pakistanbeing shown as chinese territory.” – Karunakar Gupta ; “The Hidden History of the SinoIndia Frontier” (Calcutta, 1974), page-

साफ था इस उत्तर ने चीन की पूर्व स्थिति से हटने के साफ संकेत दे दिए थे- “चीन ने पहले कहा था- कि मानचित्र पुराने हैं और समय आने पर इनमें सुधार कर लिया जाएगा।“ यह चीन की विस्तारवादी नीति के एक साफ पहलु था।

तिब्बत को चीन का एक क्षेत्र स्वीकार करना

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इस समझौते के तहत भारत ने तिब्बत को चीन का एक क्षेत्र स्वीकार कर लिया. इस तरह उस समय इस संधि ने भारत और चीन के संबंधों के तनाव को काफ़ी हद तक दूर कर दिया था. भारत को 1904 की ऐंग्लो तिबतन संधि के तहत तिब्बत के संबंध में जो अधिकार मिले थे भारत ने वे सारे इस संधि के बाद छोड़ दिए,

  • बाद में उठे सवाल- हालाँकि बाद में ये भी सवाल उठे कि इसके एवज में भारत ने सीमा संबंधी सारे विवाद निपटा क्यों नहीं लिए. मगर इसके पीछे भी भारत की मित्रता की भावना मानी जाती है कि उसने चीन के शांति और मित्रता के वायदे को मान लिया और निश्चिंत हो गया.
  • पंडित नेहरू ने अप्रैल 1954 में संसद में इस संधि का बचाव करते हुए कहा था, “ये वहाँ के मौजूदा हालात को सिर्फ़ एक पहचान देने जैसा है. ऐतिहासिक और व्यावहारिक कारणों से ये क़दम उठाया गया.” उन्होंने क्षेत्र में शांति को सबसे ज़्यादा अहमियत दी और चीन में एक विश्वसनीय दोस्त देखा. (Source: BBC)

अक्साई चिन विवाद

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भारत और चीन के बीच जिन दो क्षेत्रों को लेकर सीमा विवाद है, उनमें से एक अरुणाचल प्रदेश है तो वहीं दूसरा अक्साई चिन ही है। अक्साई चिन, जम्मू-कश्मीर का उत्तर-पूर्वी हिस्सा है और पूरे प्रदेश के क्षेत्रफल का करीब 20 प्रतिशत भाग है। चीनी कब्जे से पहले ये प्रदेश के लद्दाख क्षेत्र में आता था, जिसकी एक सीमा तिब्बत से तो दूसरी सीमा चीन से लगती थी। इस इलाके के कुछ हिस्से पर 1950 के दशक में चीन ने कब्जा करते हुए वहां से तिब्बत तक जा रही सड़क बना ली थी। हालांकि भारत को इस बात का पता देर से चला। इसके बाद साल 1962 के युद्ध के दौरान चीन ने इस पर पूरी तरह अपना कब्जा कर लिया और इसे अपने शिनजियांग उइगर स्वायत्त क्षेत्र से मिला लिया था। तब से ये उसी के कब्जे में है।

  • क्षेत्रफल अक्साई चिन का क्षेत्रफल करीब 37,244 वर्ग किलोमीटर (14,380 स्क्वेयर मील) है। बर्फीला इलाका होने की वजह से इसे सफेद पत्थरों का रेगिस्तान भी कहा जाता है। काफी ज्यादा ठंडा और पथरीला इलाका होने की वजह से यहां कुछ भी नहीं उगता है, इसलिए इसे बर्फीला रेगिस्तान भी कहते हैं। समुद्रतल से इसकी ऊंचाई करीब 5000 मीटर (16,000 फीट) है। जम्मू-कश्मीर और अक्साई चिन को जो रेखा अलग करती है, उसे LAC (लाइन ऑफ एक्चुअल कंट्रोल) कहा जाता है।
  • कहां है ये इलाका और कब से है विवादअक्साई चिन का ये इलाका तिब्बती पठार के उत्तर-पश्चिम में है. ये कुनलुन पर्वतों के ठीक नीचे का इलाका है. अगर ऐतिहासिकता में देखा जाए तो ये इलाका भारत को मध्य एशिया से जोड़ने वाले सिल्क रूप का हिस्सा था. सैंकड़ों सालों तक ये मध्य एशिया और भारत के बीच संस्कृति, बिजनेस और भाषा को जोड़ने का माध्यम रहा है. ये इलाका निर्जन है यहां स्थाई बस्तियां नहीं हैं.

सीमा विवाद से जुड़ा है मामला

  • भारत और चीन के बीच सीमा विवाद की जड़ में अक्साई चिन भी शामिल है। भारत इस हिस्से पर अपना दावा करता है, तो वहीं चीन इसे अपना इलाका बताता रहा है। 1865 में सर्वे ऑफ इंडिया के अफसर William Johnson ने इलाके का जो नक्शा बनाया, उसमें अक्साई चिन को कश्मीर के साथ बताया। इस सीमा रेखा को लानाक-ला-पास (जॉनसन लाइन 1865) के नाम से जाना गया। इसके बाद जॉनसन को हटा दिया गया। भारत इसी लाइन के आधार पर अपना दावा अक्साई चिन पर करता है।
  • इसके कुछ सालों बाद साल 1889 तक ब्रिटेन और चीन के रिश्ते काफी सुधर गए। जिसके बाद ब्रिटेन ने एकबार फिर इलाके का पुनर्निधारण करने का सोचा और इसका जिम्मा George Macartney (the British consul general at Kashgar, Xinjiang, China) और Claude Maxwell MacDonald (British Diplomat) को दिया। जिन्होंने अक्साई चिन का ज्यादातर हिस्सा चीन में डाल दिया। इस लाइन को कोंगका-ला-पास (मैकार्टनी-मैक्डॉनाल्ड 1899) के नाम से जाना गया। चीन इसी लाइन के आधार पर अक्साई चिन पर अपना हक जताता है।
  • Macartney–Macdonald Line का उपयोग 1908 तक भारत के ब्रिटिश मानचित्रों पर किया गया था। लेकिन 1911 के Xinhai Revolution के बाद चीन में केंद्रीय शक्ति का पतन हुआ और प्रथम विश्व युद्ध के अंत तक, ब्रिटिश आधिकारिक Johnson Line को आधिकारिक लाइन बना लिया। 1927 में सीमा रेखा को फिर से समायोजित किया गया और Johnson Line को ही आधिकारिक लाइन माना गया। 1947 में स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद, भारत सरकार ने अपनी आधिकारिक सीमा के आधार के रूप में जॉनसन लाइन का उपयोग किया, जिसमें अक्सिन चिन शामिल था। On 1 July 1954 Prime Minister Jawaharlal Nehru wrote a memo directing that the maps of India be revised to show definite boundaries on all frontiers. Up to this point, the boundary in the Aksai Chin sector, based on the Johnson Line, had been described as “undemarcated.”

चीन द्वारा सड़क निर्माण- During the 1950s, the People’s Republic of China built a 1,200 km (750 mi) road connecting Xinjiang and western Tibet, of which 179 km  ran south of the Johnson Line through the Aksai Chin region claimed by India. Aksai Chin was easily accessible to the Chinese, but was more difficult for the Indians on the other side of the Karakorams to reach.The Indians did not learn of the existence of the road until 1957, which was confirmed when the road was shown in Chinese maps published in 1958.

चीन ने अक्साई चिन के इलाके पर 1950 के दशक में कब्जा कर लिया था. भारत लंबे समय तक इस मामले से अनभिज्ञ रहा. 1957 में भारत को पता चला कि इलाके में चीन ने सड़क निर्माण तक शुरू कर दिया है. भारत ने इसकी खबर मिलते ही विरोध जताया. 1962 के कैबिनेट सचिव एस.एस खैरा लिखते हैं- “Information about activities of the chinese on the Indo-Tibetan border particularly in the Aksai Chin area had began to come in by 1952 or earlier”.

इस इलाके में बनाई गई सड़क को पहली बार चीन ने 1958 में अपने नक्शे में दिखाया था. ये भारत द्वारा जताए गए विरोध के खिलाफ चीनी दादागीरी थी

28 अगस्त 1959 को प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू ने बयान दिया था कि – Making a statement in Lok Sabha on August 28, 1959 (Jawaharlal Nehru: Selected Speeches, Volume 4, by Publications Division), Nehru said: “There is a large area in eastern and north-eastern Ladakh which is practically uninhabited. It is mountainous, and even the valleys are at an altitude generally exceeding 13,000 feet. To some extent, shepherds use it during the summer months for grazing… The Government of India have some police check-posts in this area but, because of the difficulties of terrain, most of these posts are at some distance from the International Border.”

  • “Some reports reached us between October 1957 and February 1958 that a Chinese detachment had crossed the international frontier and visited Khurnak Fort, which is within Indian territory. The attention of the Chinese Government was drawn to this, and they were asked to desist from entering our territory… there is no physical demarcation of the frontier in these mountainous passes, although our maps are quite clear on the subject. Thereafter, at the end of July 1959… a small Indian reconnaissance police party was sent to this area. When this party… was proceeding towards Khurnak Fort, it was apprehended, some miles from the border inside our territory, by a stronger Chinese detachment. This happened on July 28.”
  • “…the Chinese claimed that that part of the territory was theirs, but added that they would release the persons who had been apprehended. We sent a further Note to them expressing surprise at this claim and giving them the exact delineation of the traditional international frontier in this sector… No reply has yet been received to this Note. Our party was released on August 18.”
  • Three days later, Nehru confirmed the worst Indian fears — the Chinese had built a road via Aksai Chin. “According to an announcement made in China, the Yehcheng-Gartok Road, which is also called the Sinkiang-Tibet Highway, was completed in September 1957… Two reconnaissance parties were accordingly sent last year. One of these parties was taken into custody by a superior Chinese detachment. The other returned and gave us some rough indication of this newly constructed road in the Aksai Chin area,” he informed Rajya Sabha.

इन बयान के तीन दिन बाद नेहरू ने एक बहुत बड़ी कड़वी सच्चाई से देशवासियों को रू-ब-रू करा दिया कि चीन ने अक्साई चिन होते हुए एक सडक़ बना दी है। नेहरू ने राज्यसभा को बताया – ‘ चीन में की गई एक घोषणा के अनुसार येशेंग-गारतोक सडक़ जिसे सिंक्यिांग – तिब्बत हाईवे भी कहते हैं, इसका निर्माण सितम्बर 1957 में पूरा हो गया था।

राष्ट्रपति डॉ राजेन्द्र प्रसाद का पं. नेहरू को लिखा पत्र

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क्या अक्साई चिन नेहरू सरकार की सबसे बड़ी एतिहासिक भूल थी?- भूल यह कि चीन ने भारतीय क्षेत्र में लंबी-चौड़ी सडक़ बना डाली और दिल्ली सरकार को इसकी भनक तक न लग पाई। सीआईए ने 2017 में लाखों गोपनीय जानकारियां सार्वजिनक की थीं जिसमें भारत और भारतीय उपमहाद्वीप से जुड़ी भी कई रिपोर्ट्स हैं। ऐसी ही एक रिपोर्ट में लिखा है – ‘ अक्टूबर 1957 को एक चीनी अखबार ने खबर छापी कि दुनिया की सबसे ऊंची हाईवे सिंक्यिांग – तिब्बत सडक़ का निर्माण पूरा हो गया है।

  • नेहरू ने दो साल बाद संसद को दी जानकारी- अखबार ने लिखा कि ये हाईवे 1979 किमी लंबा है और इस पर ट्रकों की आवाजाही शुरू हो गई है।’यानी दिल्ली में बैठी सरकार को कुछ पता ही नहीं था या पता होने के बावजूद देश को इसकी जानकारी नहीं दी गई। नेहरू ने दो साल बाद संसद को यह जानकारी दी।
  • ये जानकारी भी इसलिए दी क्योंकि 22 अप्रैल 1959 को संसद में एक सदस्य ने कहा कि कई अखबारों में खबर छपी है कि चीन ने हमारे 30 हजार वर्ग मीटर इलाके पर दावा कर दिया है। तथा नक्शे में अक्साई चिन को चीनी इलाका दिखाया गया है।
  • सांसद के सवाल पर नेहरू ने कहा – ‘माननीय सदस्य हांगकांग या ऐसी ही अन्य जगहों से उत्पन्न हुई ऐसी खबरों पर ज्यादा ध्यान न दें। हमारे (क्षेत्र पर) ऐसा कोई प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष दावा नहीं किया गया है।’ नेहरू ने अपने बयान में अक्साई चिन का नाम ही नहीं लिया था।
  • अप्रैल 1960 में चीन के प्रधानमंत्री चाऊ एन लाई हफ्ते भर की यात्रा पर दिल्ली आए। उन्होंने नेहरू को बातचीत के दौरान बताया कि अक्साई चिन हमेशा से चीन का हिस्सा रहा है। चाऊ एन लाई ने कहा – ‘हम भारत पर अपने नक्शे नहीं थोपते हैं और हम चाहेंगे कि भारत भी ऐसा न करे। अगर हमें कोई समझौता करना है तो हम दोनों के नक्शे बदलने होंगे। ये तभी होगा जब चीन सीमा के सवाल को हल कर ले।’ चाऊ एन लाई की यात्रा के दो साल बाद चीन ने अक्साई चिन में और भीतर तक कब्जा जमा लिया।
  • चीन ने अपनी कूटयोजना के तहत 2 मार्च 1963 को पाकिस्तान के साथ समझौता करके काराकोरम क्षेत्र के उत्तर में पाक अधिकृत कश्मीर के 5180 वर्ग किमी क्षेत्र पर अपना अधिकार कर लिया- पाकिस्तान ने चीन-भारत युद्ध से पहले ही 3 मई, 1962 को चीन के सामने एक और जिनजियांग और दूसरी ओर गिलगित के बीच सीमा निर्धारण का प्रस्ताव रखा था। चीन-पाकिस्तान सीमा समझौते पर 2 मार्च, 1963 पर हस्ताक्षर किए गए। इसका परिणाम यह हुआ कि चीन ने उससमय कश्मीर मुद्दे पर पाकिस्तान के पक्ष का समर्थन किया।

Nehru’s Aksai Chin Blunder- ‘Delhi was not concerned.’ ‘It would continue sleeping for several more years, with the result that Indian territory is still occupied by China today,’ says Claude Arpi (s French-born author, journalist, historian and tibetologist). One of the Nehru government’s biggest historical blunders has been the Aksai Chin road built by China on Indian soil without Delhi noticing it. Among the several lakhs of recently released historical documents by the Central Intelligence Agency, a couple of Information Reports dating from 1953 shed some light on the issue.

Let us look at some facts.

On October 6, 1957, a Chinese newspaper, Kuang-ming Jih-pao reported: ‘The Sinkiang-Tibet — the highest highway in the world — has been completed.’

‘During the past few days, a number of trucks running on the highway on a trial basis have arrived in Ko-ta-k’e in Tibet from Yecheng in Sinkiang (Xinjiang),’ the newspaper reporter.’The Sinkiang-Tibet Highway… is 1,179 km long, of which 915 km are more than 4,000 metres above sea level; 130 km of it over 5,000 metres above sea level, with the highest point being 5,500 meters.’ Rediff.com- February 03, 2017 Click to see more

1962 युद्ध

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The front page headlines in The Sunday Standard dated October 211962, announcing the other kind of Chinese invasion that happened half-a-century ago.

तनाव की शुरुआत- मार्च 1959 में दलाई लामा शरण लेने के लिए भारत आए तो यहां उनका जोरदार स्वागत किया गया। फिर कम्युनिस्ट नेता माओत्से तुंग ने भारत पर तिब्बत में ल्हासा विद्रोह को भड़काने का आरोप लगाया। इसके बाद दोनों देशों के संबंधों में तनाव आने लगा।

छिटपुट संघर्ष की घटनाएं

  • 1959 के बाद से 1962 के बीच भारत और चीन के बीच छिटपुट संघर्ष होने लगा। 10 जुलाई1962 को करीब 350 चीनी सैनिकों ने चुशुल स्थित एक भारतीय चौकी को घेर लिया। चीनी सैनिकों ने लाउडस्पीकर्स पर गोरखा सैनिकों को समझाने की कोशिश की कि वे भारत के लिए नहीं लड़ें।

युद्ध की शुरुआत

  • युद्ध की शुरुआत 20 अक्टूबर1962 को हुई। चीन की पीपुल्स लिब्रेशन आर्मी ने लद्दाख पर और नार्थ ईस्ट फ्रंटियर एजेंसी (नेफा) में मैकमोहन लाइन के पार हमला कर दिया। युद्ध के शुरू होने तक भारत को पूरा भरोसा था कि युद्ध शुरू नहीं होगाइस वजह से भारत की ओर से तैयारी नहीं की गई।
  • युद्ध से 10 महीने पहले 21 दिसम्बर1961 को नेहरू ने कहा कि वे विश्वास से कहते हैं कि हम चीन से हर प्रकार से निपटने में सक्षम हैं। इसी तरह के वक्तव्य 1962 के प्रारम्भ में भी दिये गये। उधर चीनी सेना ने 8 सितम्बर,1962 को थागला रिज को पार कर लिया। यह चीन के 20 अक्टूबर 1962 के विशाल आक्रमण की पूर्व पीठिका थी।
  • 20 अक्टूबर 1962 को छिटपुट गोलीबारी ने युद्द की शक्ल ले ली। नेफा से लेकर लद्दाख तक की सीमाओं पर चीन ने हमला कर दिया। इस घटना के बाद प्रधानमंत्री नेहरू ने राष्ट्र के नाम संदेश में कहा, “चीनी फौज ने हमारे ऊपर हमला किया और हमारे मुल्क में घुस आए।
  • यही सोचकर युद्ध क्षेत्र में भारत ने सैनिकों की सिर्फ दो टुकड़ियों को तैनात किया जबकि चीन की वहां तीन रेजिमेंट्स तैनात थीं। चीनी सैनिकों ने भारत के टेलिफोन लाइन को भी काट दिए थे। इससे भारतीय सैनिकों के लिए अपने मुख्यालय से संपर्क करना मुश्किल हो गया था।
  • एक अन्य महत्वपूर्ण घटना 10 जुलाई1962 को गलवान घाटी में उस समय घटित हुई जब चीनी टुकड़ियों ने भारतीय सैनिक चौकी को घेर लिया और चेतावनी दी कि यदि भारतीय टुकड़ियों ने स्थान खाली न किया तो इसके गम्भीर परिणाम होंगे। भारत सरकार ने चीन की इस धमकी का जवाब देते हुए कहा कि यदि चीनी फौजें सामने आ टकरायेंगी ते भारतीय सिपाही भी आत्मरक्षार्थ गोलियाँ चलायेंगे।
  • पहले दिन चीन की पैदल सेना ने पीछे से भी हमला किया। लगातार हो रहे नुकसान की वजह से भारतीय सैनिकों को भूटान से निकलना पड़ा। चीन के शुरुआती हमलों का तो भारत की ओर से मोर्टार दागकर सामना किया गया। जब भारतीय सैनिकों को पता चला गया कि चीनी सैनिक एक दर्रे में जमा हुए हैं तो इसने मोर्टार और मशीन गन से फायरिंग शुरू कर दी। इस हमले में चीन के करीब 200 सैनिक मारे गए।
  • भारतीय सेना पूरी तरह तैयार नहीं थीइस वजह से चीन की सेना तेजी से भारतीय इलाकों में घुसती गई। 24 अक्टूबर तक चीनी सैनिक भारतीय क्षेत्र में 15 किलोमीटर अंदर तक आ गए।

चीन की ओर से संघर्ष विराम की पहली पेशकश… नेहरू ने रद्द की

  • चीनी प्रधानमंत्री लाई ने 24 अक्टूबर 1962 को नेहरू को एक पत्र लिखकर संघर्षविराम के लिए तीन-सूत्रीय प्रस्ताव रखे। इन-लाई ने प्रस्ताव रखा कि भारत और युद्ध समाप्त कर दें। इन-लाई ने प्रस्ताव रखा था कि चीन अरुणाचल प्रदेश (तत्कालीन NEFA-नॉर्थ ईस्ट फ्रंटियर एजेंसी) से वापस निकल जाएगा और भारत एवं चीन को अकसाई चीन पर यथापूर्व स्थिति बनाए रखना चाहिए।
  • 27 अक्टूबर1962 को नेहरू ने चीन के प्रस्ताव को खारिज कर दिया और कहा कि अकसाई चीन पर चीन का दावा अवैध है। इसीबीच सोवियत यूनियन ने भी अपना रुख बदलते हुए चीन का समर्थन कर दिया था और कहा था कि मैकमोहन लाइन ब्रिटिश साम्राज्यवाद का खतरनाक परिणाम है।

देश में आपात काल की घोषणा- भारत में चीनी आक्रमण से उत्पन्न स्थिति का सामना करने के लिए राष्ट्रपति डॉ० राधाकृष्णन् नें 26 अक्टूबर,1962 को देश में आपात काल की घोषणा कर दी। उन्होंने उसी रात भारत रक्षा अध्यादेश भी जारी कर दिया।

नेहरू ने रक्षा मंत्री का पद अपने हाथ में लिया- उत्तरी सीमा पर हो रही गतिविधियों के लिए नेहरू को दोष नहीं दिया गया बल्कि रक्षा मंत्री वीके कृष्ण मेनन पर गुस्सा उतारा गया। चीन आक्रमण के तीन दिन बाद दिल्ली में 23 अक्टूबर 1962 को कांग्रेस के 30 सांसदो ने अपनी एक शिकायत में कहा- कि न तो संसद और न ही देश को सरकार द्वारा अंधेरे में रखा गयाअपितु नेहरूसंसद और देश को कृष्ण मेनन द्वारा अंधेरे में रखा गया। इस पर कई सांसदों ने नेहरू को रक्षा मंत्री का पद स्वंय संभालने को कहा। 31 अक्टूबर को नेहरू ने रक्षा विभाग अपने हाथ में ले लिया। हालांकि मेनन कैबिनेट में रहे

चीनी पीएम चाउ एन लाई की कूटनीतिक चाल में उलझे नेहरू- उधर चीनी पीएम चाउ एन लाई ने कूटनीतिक चाल चलते हुए दुनिया को यह साबित करने में लगे कि 20 अक्टूबर को भारत ने चीन पर हमला किया और चीन ने उसका सिर्फ जवाब दिया। 4 नवंबर 1962 को लाई नेहरू को एक पत्र लिख था जिसमें उन्होंने कहा कि नामका-चू-घाटी में भारतीय टुकड़ियों ने विशाल आक्रमण के लिए भारी सैनिक जमाव किया। इसके दस दिन पश्चात AFRO-ASIAN देशों की सरकारों को लिखे पत्र में चाउ एन लाई ने लिखा- कि भारत ने पूरी सीमा पर विशाल आक्रमण प्रारम्भ कर दिया है।

चीन का जोरदार हमला- 14 नवंबर को फिर से दोनों देश के बीच युद्ध शुरू हो गया। 15 नवंबर1962: पूर्वी सीमा और पश्चिमी क्षेत्र में चीन का जोरदार हमला। 18 नवंबर1962: चीन ने नेफा में बोमडिला पर कब्जा किया

15 नवंबर1962: पूर्वी सीमा और पश्चिमी क्षेत्र में चीन का जोरदार हमला

18 नवंबर1962: चीन ने नेफा में बोमडिला और दक्षिण लद्दाख के रेज़ांग ला में एक साथ हमला कर दिया।

युद्ध विराम की घोषणा- 21 नवंबर1962: चीन ने एकतरफा संघर्षविराम की घोषणा की और अपने सैनिकों को वास्तविक नियंत्रण रेखा के 20 किलोमीटर पीछे लौटने को कहा। चीन की घोषणा में यह भी कहा गया कि वह अवैध मैकमोहन रेखा के उत्तर में हट जायेगा परन्तु नियन्त्रण रेखा के अन्तर्गत वह कुछ असैनिक निरीक्षक चौकियाँ रखेगा। चीन की इस घोषणा के बाद युद्ध बन्द हो गया।

1962 के संघर्ष के बाद नेहरू की काफी आलोचना हुई और अनेक विचारकों ने अपने मत प्रकट किया कि भारत की विदेशनीति असफल है- लेकिन भारत की विदेशनीति चीन के सन्दर्भ में ही असफल हुई क्योंकि इसमें आदर्शवादी बातें ज्यादा था और अपने राष्ट्रीय हितों की सुरक्षा के लिए किसी देश को जो आवश्यक उपाय करने चाहिए थे वे नहीं किए गए।

  • एक तरफ भारत अपनी आस्थाओंवसुधैव कुटुम्बकम्पंचशीलशान्तिपूर्ण सहअस्तित्व का पालन करने के लिए कटिबद्ध थाऔर पूर्णत आर्दशवादी विचारधारा अपनाकर अपना लक्ष्य सिद्ध करना चाहता था तो दूसरी तरफ चीन आक्रमणतोड़-फोड़विस्तारवाद के नक्शेकदम पर चल रहा था और उसके पास शक्ति भी थी।
14Source: Dinman Patrika- 17-23 Nov 1985
15Source: K. Subrahmanyam in the Indian Foreign Policy, the Nehru years edited by BR Nanda

भारत की सैन्य कमजोरियों की पुष्टि जनरल थिमैया के जुलाई 1962 में लिखे लेख से हो जाती है- 

16

चीन का धोखा

हिंदी-चीनी भाई-भाई का नारा आजादी के वक्त से ही भारत चीन के साथ अच्छे संबंध चाहता था। भारत जापान के साथ एक समझौते में इसलिए नहीं शामिल हुआ था क्योंकि चीन को उस समझौते से दूर रखा गया थालेकिन चीन भारत के खिलाफ दोस्ती के बजाए अपनी नई चाल चल रहा था। चीन ने जब तिब्बत पर कब्जा किया तो भारत ने इसका विरोध किया और बातचीत के लिए कहा। चीन और भारत ने 1954 में एक संधि की जिसके तहत भारत ने तिब्बत में चीनी शासन को मान लिया। इसी दौरान दोनों देशों की दोस्ती का मजबूत करने के लिए तत्कालीन प्रधानमंत्री पंडित जवाहर लाल नेहरु ने हिंदी-चीनी भाई-भाई का नारा दिया।

नेहरु को था भरोसाचीन नहीं करेगा हमला- भारत-चीन युद्ध के कुछ महीने पहले तक नेहरु और देश को भरोसा था कि दोनों देशों में अच्छे संबंध बने रहेंगे और चीन हमला नहीं करेगा। जिस वजह से विवादित क्षेत्र में भारत ने दो डिवीजन तैनात किया था जबकि चीनी सैनिकों ने वहां तीन रेजिमेंट को लगा दी थी।

चीन ने भारत के क्षेत्र का अपना बताया

इस संधि के कुछ दिन बाद ही चीन ने अपने नक्शे में भारत के 12 लाख वर्ग किलोमीटर क्षेत्र को अपने हिस्से में दिखा दिया। 4 सितंबर1958: भारत ने चाइना पिक्टोरियल में उत्तरी असम और नेफा को शामिल करने पर आपत्ति जताई। 23 जनवरी1959: जो एनलाई ने औपचारिक रूप से भारत के अंदर नेफा और लद्धाख के 40,000 वर्गमीटर पर दावा जताय। जिस पर तुरंत संज्ञान लेते हुए पंडित नेहरु ने नक्शे को सुधरने के निर्देश दिए। इस घटना के पांच साल बाद 1959 में दलाई लामा चीन छोड़कर भारत की शरण में आ गए। चीन को उम्मीद थी कि भारत चीन की वजह से दलाई लामा का विरोध करेगा लेकिन इससे उलट भारत में दलाई लामा का भव्य स्वागत हुआ। जिससे बुरी तरह भड़के चीन ने भारत पर तिब्बत में विद्रोह करवाने का आरोप लगा दिया। चीन को लगने लगा कि भारत उसके लिए तिब्बत में बड़ा खतरा बन सकता है। चीन भारत को लेकर बौखलाया हुआ था।

दलाई लामा के भारत आने के बाद 1962 तक भारत-चीन के सैनिकों में कई हिंसक झड़पे हुईं-

  • 25 अगस्त1959: लद्दाख में चीनी सैनिकों ने भारतीय चौकी पर हमला किया
  • 8 सितंबर1959: चीन ने मैकमोहन लाइन को स्वीकार करने से इनकार किया
  • 20 अक्टूबर1959: चीनी सैनिकों ने अकसाई चीन में गश्त कर रहे भारतीय सैनिकों पर हमला किया। भारत के 9 सैनिकों की मौत और 10 को बंदी बनाया।
  • 7 नवंबर1959: जो इनलाई ने मैकमोहन लाइन के दोनों तरफ 20 किलोमीटर हटने का प्रस्ताव रखा
  • 25 अप्रैल1960: विवादित क्षेत्र पर भारत के दस्तावेजी साक्ष्यों को चीन ने खारिज किया
  • 3 जून1960: चीनी सैनिकों ने नेफा में भारतीय सीमा का उल्लंघन किया
  • 31 अक्टूबर1961: चीन ने सीमा पर गश्त में आक्रामकता दिखाईभारत में सैन्य दस्ते भेजे
  • अप्रैल 1962: चीन ने अल्टिमेटम दियाअग्रिम चौकियों से भारतीय सैनिकों को वापस लेने की मांग की
  • 10 जून1962: भारत और चीनी सैनिक लद्दाख में आमने-सामनेसशस्त्र संघर्ष टला
  • 13 सितंबर1962: चीन ने फिर सीमा के दोनों तरफ दोनों फौजों को 20-20 किलोमीटर वापस लौटने का प्रस्ताव रखा
  • 20 सितंबर1962: चीनी सैनिकों ने NEFA में मैकमोहन लाइन पार कीभारतीय चौकियों पर हमला
  • 29 सितंबर1962: चीनी सैनिकों ने नेफा में दूसरा जोरदार हमला किया

1962 के भारत-चीन युद्ध में कम्युनिस्ट नेता माओत्से तुंग की बहुत बड़ी भूमिका थी… किस तरह तैयार की थी माओ ने ये योजना… और कैसे अमेरिका और रूस ने दिया था भारत को धोखा… क्या यहां नेहरू की विदेश नीति की कमजोर हुई…

  • माओ ने भारत से युद्ध की रणनीति दो साल पहले ही बना ली थी- चीन में भारत के ऑशार डी फ़ेयर्स रहे लखन मेहरोत्रा सितंबर 2016 बीबीसी को बताते हैं, “कहने को तो चीन ने ये कहा कि भारत के साथ लड़ाई के लिए उसकी फ़ारवर्ड नीति ज़िम्मेदार थीलेकिन माओ ने दो साल पहले 1960 में ही भारत के ख़िलाफ़ रणनीति बनानी शुरू कर दी थी.
  • चीन ने पहले अमेरिका से किया समझौता- यहां तक कि उन्होंने अमरीका तक से पूछ लिया कि अगर हमें किसी देश के ख़िलाफ़ युद्ध में जाना पड़े तो क्या अमरीका ताइवान में उसका हिसाब चुकता करेगाअमरीका का जवाब था कि आप चीन या उससे बाहर कुछ भी करते हैंउससे हमारा कोई मतलब नहीं है. हम बस ताइवान की सुरक्षा के लिए प्रतिबद्ध हैं.”
  • बाद में भारत को दोस्त करने वाले रूस को भी अपने साथ मिला लिया- लखन मेहरोत्रा आगे बताते हैं, “अगले साल उन्होंने यही बात ख़्रुश्चेव से पूछी. उस ज़माने में तिब्बत की सारी तेल सप्लाई रूस से आती थी. उन्हें डर था कि अगर उनकी भारत से लड़ाई हुई तो सोवियत संघ कहीं पेट्रोल की सप्लाई बंद न कर दे. उन्होंने ख़्रुश्चेव से ये वादा ले लिया कि वो ऐसा नहीं करेंगे और उन्हें बता दिया कि भारत से उनके गहरे मतभेद हैं. ख़्रुश्चेव ने उनसे सौदा किया कि आप दुनिया में तो हमारा विरोध कर रहे हैंलेकिन जब हम क्यूबा में मिसाइल भेजेंगे तो आप उसका विरोध नहीं करेंगे. ख़्रुश्चेव को ये पूरा अंदाज़ा था कि चीन भारत पर हमला कर सकता है. यहाँ तक कि मिग युद्धक विमानों की सप्लाई के लिए हमारा उनसे समझौता हो गया था. लेकिन जब लड़ाई शुरू हुई रूस ने वो विमान भेजने में देरी की लेकिन चीन को पेट्रोल की सप्लाई नहीं रोकी गई. बाद में जब ख़ुश्चेव से जब ये पूछा गया कि आप ऐसा कैसे कर सकते थे तो उनका जवाब था भारत हमारा दोस्त है लेकिन चीन हमारा भाई है.”

‘चीन से हार के लिए नेहरू भी ज़िम्मेदार’

Source: ToI & BBC… 18 मार्च 2014

Mar 2014- Australian journalist Neville Maxwell finally made part of the Henderson Brooks report public, by putting it up on his blog. The report was an internal Indian Army enquiry into its rout in the 1962 war with China — Maxwell was the New Delhi correspondent for The Times, London, at the time — but since the report was written up by Lt Gen Henderson Brooks and Brig PS Bhagat, successive Indian governments have refused to make it public. Only two copies of the report were thought to be in existence, although there was never any doubt that Maxwell had had access to the report for his 1970 book India’s China War quoted extensively from it. In his first interview to the Indian media since he made the report public, the now 88-year-old Maxwell tells TOI that he had been trying to make the report public for years but that nobody would publish it.

फॉरवर्ड पॉलिसी

इस रिपोर्ट में भारत के तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू के कार्यालय और रक्षा मंत्रालय की नीतियों ख़ासकर उसकी ‘फ़ॉरवर्ड पॉलिसी’ के लिए आलोचना की गई है.

इस पॉलिसी के तहत कथित तौर पर सैन्य मोर्चे पर मौजूद सैन्य अधिकारियों की सलाह के विपरीत सीमा पर आक्रामक नीति अपनाई गई, जबकि सीमा पर मौजूद सेना के पास संसाधनों का सख्त अभाव था.

सेवानिवृत्त ब्रिगेडियर एजेएस बहल उस समय सेकेंड लेफ्टिनेंट थे. वो सात महीने तक युद्ध बंदी के रूप में रहे थे. बहल इस बात से ख़ुश हैं कि ‘सच आख़िरकार सामने आ गया.’ वे कहते हैं कि इस युद्ध में चीन के हाथों बुरी तरह हारने के लिए अक्सर भारतीय सेना को ज़िम्मेदार ठहराया जाता है.

वे कहते हैं, “अब लोगों को पता चल जाएगा कि सेना क्यों विफल हुई थी. अब इसकी ज़िम्मेदारी और लोगों जैसे ख़ुफिया सेवाओं, सैन्य अधिकारियों और राजनीतिक नेताओं पर आएगी.”

यह रिपोर्ट भारत सरकार को साल 1963 में सौंपी गई थी. भारत की मुख्य विपक्षी पार्टी भारतीय जनता पार्टी ने कांग्रेस के नेतृत्व वाली मौजूदा गठबंधन सरकार से इस रिपोर्ट को सार्वजनिक करने का आग्रह किया था.

लेकिन भारत के मौजूदा रक्षा मंत्री एके एंटनी ने संसद में कहा कि इस रिपोर्ट को सार्वजनिक नहीं किया जा सकता क्योंकि इसमें संवेदनशील जानकारियाँ हैं.

‘पूरा सच’

ब्रिगेडियर बहल चाहते हैं कि इस रिपोर्ट को पूरी तरह सार्वजनिक किया जाए. वे कहते हैं, “भारत का हर सैनिक पूरा सच जानना चाहेगा.” ‘द हेंडरसन ब्रुक्स रिपोर्ट’ भारत सरकार ने तैयार कराई थी. इसे कभी भी उजागर नहीं किया गया. पूर्व वरिष्ठ नौकरशाह राजीव डोगरा कहते हैं कि यह बिल्कुल सही समय है जब भारत सरकार को इस रिपोर्ट को पूरा जारी किया जाए.

वे कहते हैं, “गुप्त और गोपनीय रिपोर्टों को भारतीय क़ानून के अनुसार तीस साल बाद जारी किया जाना चाहिए. अगर कोई रिपोर्ट बहुत ज़्यादा संवेदनशील है तो इसे नहीं भी जारी किया जा सकता है. लेकिन मुझे यह नहीं समझ आता कि भारत सरकार इस रिपोर्ट को क्यों नहीं जारी करना चाहती क्योंकि चीन के हाथों भारत की हार के ज़्यादातर कारण पहले से ही सार्वजनिक जानकारी में है.”

मैक्सवेल के पास यह रिपोर्ट साल 1970 से मौजूद है जब उन्होंने अपनी किताब लिखी थी. उन्होंने अपनी वेबसाइट पर इस रिपोर्ट के हिस्से जारी करते हुए लिखा कि इस रिपोर्ट का सार्वजनिक न किए जाने के पीछे कारण ‘राजनीतिक, विभाजन पैदा करने वाले और शायद पारिवारिक’ हैं.

1962 युद्ध में वो चार टक्कर… जिसको चीन आज भी याद कर कांप जाता है…

1- 17 Nov 1962- Battle of Nuranang Rifleman Jaswant Singh Rawat

17 नवंबर, 1962 को चीन की सेना ने अरुणाचल प्रदेश पर कब्जा करने के उद्देश्य से हमला कर दिया। इस 18दौरान सेना की एक बटालियन (4th battalion, 4th Garhwal Rifles) की एक कंपनी नूरानांग ब्रिज की सेफ्टी के लिए तैनात की गईजिसमें जसवंत सिंह रावत भी शामिल थे। चीनी सेना हावी होती जा रही थीइसलिए भारतीय सेना ने गढ़वाल यूनिट की चौथी बटालियन को वापस बुला लिया। लेकिन इसमें शामिल जसवंत सिंहलांस नायक त्रिलोकी सिंह नेगी और गोपाल गुसाई नहीं लौटे। ये तीनों सैनिक एक बंकर से गोलीबारी कर रही चीनी मशीनगन को छुड़ाना चाहते थे। तीनों जवान चट्टानों और झाड़ियों में छिपकर भारी गोलीबारी से बचते हुए चीनी सेना के बंकर के करीब जा पहुंचे और महज 15 यार्ड की दूरी से हैंड ग्रेनेड फेंकते हुए दुश्मन सेना के कई सैनिकों को मारकर मशीनगन छीन लाए। इससे पूरी लड़ाई की दिशा ही बदल गई और चीन का अरुणाचल प्रदेश को जीतने का सपना पूरा नहीं हो सका। हालांकिइस गोलीबारी में त्रिलोकी और गोपाल मारे गए। वहींजसवंत को दुश्मन सेना ने घेर लिया। इस लड़ाई में जसवंत सिंह ने शहीद होने से पहले अकेले ही 300 से ज़्यादा चीनी सैनिकों को मार गिराया था। इस बहादुरी के लिए जसवंत सिह को महावीर चक्र और त्रिलोक सिंह और गोपाल सिंह को वीर चक्र दिया गया। जिस चौकी पर जसवंत सिंह ने आखिरी लड़ाई लड़ी थी उसका नाम अब जसवंतगढ़ रख दिया गया है और वहां उनकी याद में एक मंदिर बनाया गया है। मंदिर में उनसे जुड़ीं चीजों को आज भी सुरक्षित रखा गया है।

2- 21 Oct 1962- चीनी सेना ने सरिजान इंडियन पोस्‍ट पर किया था हमला और Lt Col Dhan Singh Thapa

लद्दाख के पांगोंग झील के उत्तर में स्थित सिरीजाप घाटी को चुशुल एयरफील्ड की रक्षा के लिए महत्वपूर्ण माना जाता था. इस क्षेत्र में किसी भी दुश्मन अतिक्रमण और घुसपैठ को रोकने के लिए 1/8 गोरखा राइफल्स19 ने सरिजाप -1 नामक एक चौकी स्‍थापित की थी. सरिजाप -1 नामक इन चौकी की कमान उन दिनों मेजर धन सिंह थापा की डी‘ कंपनी के एक प्लाटून के पास थी. 1962 में चीनी सेना इने इसी चौकी के रास्‍ते भारत पर हमला किया था. यह वाकया 21 अक्टूबर 1962 का है.

सुबह करीब 6 बजे चीनी सेना ने अपने नापाक मंसूबों के तहत इस चौकी पर तोप और मोर्टार से हमला किया था. भारतीय सेना की स्थिति कमजोर करने के लिए चीनी सेना तोप और मोर्टार से लगातार बमबारी कर रही थी. बम बारी के दौरान दुश्‍मन सेना विशेषतौर पर भारतीय कमांड पोस्‍ट को अपना निशाना बना रही थी. बमबारी के चलते इस कमांड सेंटर का वायरलेस पूरी तरह से क्षतिग्रस्‍त हो गया था. जिसके चलते कमांड पोस्‍ट पर तैनात जवानों का संपर्क मुख्‍य कमांड से टूट गया था.

लिहाजाइस पोस्‍ट पर तैनात जवान अब अपनी मदद के लिए रिइंफोसर्समेंट भी नहीं बुला सकते थे. तमाम विपरीत परिस्थितियों के बावजूद मेजर धन सिंह थापा ने दुश्‍मनों से मोर्चा लेने का फैसला किया. इसी बीचचीनी सेना के पैदल सैनिकों ने भी इस भारतीय पोस्‍ट पर हमला बोल दिया. दुश्‍मन सेना के इस हमले का मेजर थापा ने मुंहतोड़ जवाब दिया. नतीजनतदुश्‍मन सेना के कई लड़ाके युद्ध क्षेत्र में मारे गए. अपने सैनिकों को लगातार मरता हुआ देख चीनी सेना ने अपने पैर खींचने में ही अपनी भलाई समझी.

चीनी सेना के बचे हुए जवान मौके से भाग खड़े हुए. चीनी सैनिक भले ही इस हमले में नाकाम हो गए होंलेकिन अभी तक उन्‍होंने अपनी जिद नहीं छोड़ी थी. इस बार उसने अपने सैन्‍य बेड़े में टैंक भी शामिल कर लिए थे. दुश्‍मन सेना ने तीसरी बार अपनी पूरी ताकत के साथ भारत की इस पोस्‍ट पर हमला बोला. वहींअब तक दो हमलों का सामना कर चुके मेजर थापा के सैनिक या तो शहीद हो चुके थे या फिर गंभीर रूप से घायल हो चुके थे. चीनी सेना से लगातार लड़ते हुए मेजर थापा के मौजूद गोलाबारूद और गोलियां भी खत्‍म होने लगी थी. मेजर थापा और उनके बचे हुए जवान जब तक गोलाबारूद थातब तक वे दुश्‍मन सेना को मुंहतोड़ जवाब देते रहे.

गोला बारूद और गोली खत्‍म होने पर मेजर थापा और उनके जवान संगीन लेकर चीनी दुश्‍मन पर टूट पड़े. उन्‍होंने अपनी संगीन से कई दुश्‍मनों को मार गिराया. इस युद्ध खत्‍म होने के बाद यह धारणा बनी कि युद्ध के दौरान मेजर थापा शहीद हो गए हैं. लेकिनबाद में पता चला कि मेजर थापा को चीनी दुश्‍मन ने बंधक बना लिया है. इस जानकारी के आधार पर मेजर थापा को चीनी दुश्‍मनों के चंगुल से मुक्‍त कराया गया. युद्ध के दौरानमेजर थापा के युद्ध कौशलसाहसनेतृत्‍व झमता के मद्देनजर उन्‍हें सेना के सर्वोच्‍च सम्‍मान परमवीर चक्र से सम्‍मानित किया गया.

3- 23 Oct 1962- ‘बुम ला‘ युद्ध और Subedar Joginder Singh Sahnan

चीनी सेना ने 20 अक्टूबर को नमखा चू सेक्टर और लद्दाख समेत पूर्वी सीमा के अन्य हिस्सों पर एक साथ 20हमले शुरू कर दिए. तीन दिनों में उसने बहुत सारी जमीन पर कब्जा कर लिया और धोला-थगला से भारतीय उपस्थिति को बाहर कर दिया. अब चीन को तवांग पर कब्जा करना था जो उसकी सबसे बड़ी चाहत थी. उसे तवांग पहुंचने से रोकने का काम भारतीय सेना की 1st battalion of Sikh Regiment को दिया गया था.

चीन ने अपनी सेना की एक पूरी डिविजन बमला इलाके में जमा करनी शुरू कर दी जहां से तवांग पैदल जाने का एक रास्ता सिर्फ 26 किलोमीटर का था. लेकिन बमला के उस रास्ते से 3 किलोमीटर दक्षिण पश्चिम में ट्विन पीक्स नाम की एक जगह थी जिस पर खड़े होकर मैकमोहन लाइन तक चीन की हर हरकत पर नजर रखी जा सकती थी. अब दुश्मन को बमला से ट्विन पीक्स तक पहुंचने से रोकना. इन दोनों के बीच एक महत्वपूर्ण जगह थी जिसका नाम था आईबी रिज.

ट्विन पीक्स से एक किलोमीटर दक्षिण-पश्चिम में टॉन्गपेंग ला पर पहली सिख बटालियन की एक डेल्टा कंपनी ने अपना बेस बनाया था जिसके कमांडर थे लेफ्टिनेंट हरीपाल कौशिक. उनकी डेल्टा कंपनी की 11वीं प्लाटून आईबी रिज पर तैनात थी जिसके कमांडर थे सूबेदार जोगिंदर सिंह. सिखों की इस पलटन को तोपों और गोलाबारी से कवर देने के लिए 7वीं बंगाल माउंटेन बैटरी मौजूद थी

23 अक्टूबर की सुबह 4.30 बजे चीनी सेना ने मोर्टार और एंटी-टैंक बंदूकों का मुंह खोल दिया ताकि भारतीय बंकर नष्ट किए जा सकें. फिर 6 बजे उन्होंने असम राइफल्स की पोस्ट पर हमला बोला. सुबह की पहली किरण के साथ फिर चीनी सेना ने आईबी रिज पर आक्रमण कर दिया ताकि ट्विन पीक्स को हथिया लिया जाए.

सूबेदार जोगिंदर सिंह को ये पता था कि चीनी फौज बमला से तीखी चढ़ाई करके आ रही है और वे लोग ज्यादा मजबूत आईबी रिज पर बैठे हैं. यानी सिख पलटन अपनी पुरानी पड़ चुकी ली एनफील्ड 303 राइफल्स से भी दुश्मन को कुचल सकते हैं. इसके अलावा उनके पास गोलियां कम थीं इसलिए उन्होंने अपने सैनिकों से कहा कि हर गोली का हिसाब होना चाहिए. जब तक दुश्मन रेंज में न आ जाए तब तक फायर रोक कर रखो उसके बाद चलाओ.

जल्द ही इस फ्रंट पर लड़ाई शुरू हो गई. पहले हमले में करीब 200 चीनी सैनिक सामने थेवहीं भारतीय पलटन छोटी सी. लेकिन बताया जाता है कि जोगिंदर सिंह और उनके साथियों ने चीनी सेना का बुरा हाल किया. उनके बहुत सारे सैनिक घायल हो गए. उनका जवाब इतना प्रखर था कि चीनी सेना को पहले छुपना पड़ा और उसके बाद पीछे हटना पड़ा. लेकिन इसमें भारतीय पलटन को भी नुकसान पहुंचा. इसके बाद जोगिंदर ने टॉन्गपेंग ला के कमांड सेंटर से और गोला-बारूद भिजवाने के लिए कहा. ये हो रहा था कि 200 की क्षमता वाली एक और चीनी टुकड़ी फिर से एकत्रित हुई और दूसरी बार फिर से आक्रमण कर दिया. भयंकर गोलीबारी हुई. जोगिंदर को मशीनगन से जांघ में गोली लगी. वे एक बंकर में घुसे और वहां पट्टी बांधी. एकदम विपरीत हालात में भी वे पीछे नहीं हटे और अपने साथियों को चिल्लाकर निर्देश देते रहे. जब उनका गनर शहीद हो गया तो उन्होंने 2-इंच वाली मोर्टार खुद ले ली और कई राउंड दुश्मन पर चलाए. उनकी पलटन ने बहुत सारे चीनी सैनिकों को मार दिया था। लेकिन उनके भी ज्यादातर लोग मारे जा चुके थे या बुरी तरह घायल थे.

कुछ देर बाद उनकी पलटन के पास बारूद खत्म हो चुका था. सूबेदार सिंह ने इसके अपनी पलटन के बचे-खुचे सैनिकों को तैयार किया और आखिरी धावा शत्रु पर बोला. बताया जाता है कि उन्होंने अपनी-अपनी बंदूकों पर बेयोनेट यानी चाकू लगाकर, ‘जो बोले सो निहालसत श्री अकाल’ के नारे लगाते हुए चीनी सैनिकों पर हमला कर दिया और कईयों को मार गिराया. लेकिन चीनी सैनिक आते गए. बुरी तरह से घायल सूबेदार जोगिंदर सिंह को युद्धबंदी बना लिया गया. वहां से तीन भारतीय सैनिक बच निकले थे जिन्होंने जाकर कई घंटों की इस लड़ाई की कहानी बताई. उसके कुछ ही देर बाद पीपुल्स लिबरेशन आर्मी के बंदी के तौर पर सूबेदार जोगिंदर सिंह की मृत्यु हो गई. इस अदम्य साहस से लिए उन्हें मरणोपरांत भारत का सबसे ऊंचा वीरता पुरस्कार परमवीर चक्र प्रदान किया गया.

4- 18 Nov 1962- रेजांग ला का युद्ध और Major Shaitan Singh Bhati

18 नवंबर 1962– 13 कुमायूं बटालियन की सी’ कम्पनी चुशूल सेक्टर में तैनात थी. बटालियन में 120 जवान थेजिनके पास इस पिघला देने वाली ठंड से बचने के लिए कुछ भी नहीं था. वो इस माहौल के21लिए नए थे. इसके पहले उन्हें इस तरह बर्फ के बीच रहने का कोई अनुभव न था. तभी सुबह के धुंधलके में रेजांग ला (रेजांग पास) पर चीन की तरफ से कुछ हलचल शुरू हुई. बटालियन के जवानों ने देखा कि उनकी तरफ रोशनी के कुछ गोले चले आ रहे हैं. टिमटिमाते हुए. बटालियन के अगुआ मेजर शैतान सिंह थे. उन्होंने गोली चलाने का आदेश दे दिया. थोड़ी देर बाद उन्हें पता चला कि ये रोशनी के गोले असल में लालटेन हैं. इन्हें कई सारे यॉक के गले में लटकाकर चीन की सेना ने भारत की तरफ भेजा था. ये एक चाल थी. अक्साई चीन को लेकर चीन ने भारत पर हमला कर दिया था.

चीनी सेना पूरी तैयारी से थी. ठंड में लड़ने की उन्हें आदत थी और उनके पास पर्याप्त हथियार भी थे. जबकि भारतीय टुकड़ी के पास 300-400 राउंड गोलियां और 1000 हथगोले ही थे. बंदूकें भी ऐसी जो एक बार में एक फायर करती थीं. इन्हें दूसरे वर्ल्ड-वार के बाद बेकार घोषित किया गया था. चीन को इस बात की जानकारी थी. इसीलिए उसने टुकड़ी की गोलियां ख़त्म करने के लिए ये चाल चली थी. चीन के सैनिकों ने आगे बढ़ना शुरू कर दिया था.

मेजर शैतान सिंह ने वायरलेस पर सीनियर अधिकारियों से बात की. मदद मांगी. सीनियर अफसरों ने कहा कि अभी मदद नहीं पहुंच सकती. आप चौकी छोड़कर पीछे हट जाएं. अपने साथियों की जान बचाएं. मेजर इसके लिए तैयार नहीं हुए. चौकी छोड़ने का मतलब था हार मानना. वे अपनी टुकड़ी के साथ वहीं डटे रहे. चीनी सेना ने तोपों और मोर्टारों का हमला शुरू हो गया. चीनी सैनिकों से ये 120 जवान लड़ते रहे. दस-दस चीनी सैनिकों से एक-एक जवान ने लोहा लिया. इन्हीं के लिए कवि प्रदीप ने लिखा दस-दस को एक ने माराफिर गिर गए होश गंवा के. जब अंत समय आया तो कह गए कि हम चलते हैं. खुश रहना देश के प्यारोंअब हम तो सफ़र करते हैं.’‘

ज्यादातर जवान शहीद हो गए और बहुत से जवान बुरी तरह घायल हो गए. मेजर खून से सने हुए थे. दो सैनिक घायल मेजर शैतान सिंह को एक बड़ी बर्फीली चट्टान के पीछे ले गए. मेडिकल हेल्प वहां मौजूद नहीं थी. इसके लिए बर्फीली पहाड़ियों से नीचे उतरना पड़ता था. मेजर से सैनिकों ने मेडिकल हेल्प लेने की बात की लेकिन उन्होंने मना कर दिया.

उन्होंने सैनिकों को आदेश दिया कि एक मशीन गन लेकर आओ. मशीन गन आ गई. उन्होंने कहा कि गन के ट्रिगर को रस्सी से मेरे एक पैर से बांध दो. उनके दोनों हाथ लथपथ थे. उन्होंने रस्सी की मदद से अपने एक पैर से फायरिंग करनी शुरू कर दी. उन्होंने दोनों जवानों से कहा कि सीनियर अफसरों से फिर से संपर्क करो. दोनों सैनिक वहां से चले गए.

मेजर वहां लड़ते रहे. बाद में उनके बारे में कुछ नहीं पता चला. तीन महीने बाद जब बर्फ पिघली और रेड क्रॉस सोसायटी और सेना के जवानों ने उन्हें खोजना शुरू किया तब एक गड़रिये ने बताया कि एक चट्टान के नीचे कोई दिख रहा है. लोग उसी चट्टान के नीचे पहुंचे जहां मेजर ने मशीन-गन से चीनी सैनिकों का मुकाबला किया था. उस जगह उनका शव मशीन-गन के साथ मिला. पैरों में अब भी रस्सी बंधी हुई थी. बर्फ की वजह से उनका शरीर जम गया था.

पता नहीं कितनी देर तक वो चीनी सैनिकों से लड़ते रहे और कब बर्फ ने उन्हें अपने आगोश में ले लिया. उनके साथ उनकी टुकड़ी के 114 जवानों के शव भी मिले. बाकी लोगों को चीन ने बंदी बना लिया था. हालांकि भारत युद्ध हार गया था लेकिन बाद में पता चला कि चीन की सेना का सबसे ज्यादा नुकसान रेजांग ला पर ही हुआ था. चीन के करीब 1800 सैनिक इस जगह मारे गए थे. ये एकमात्र जगह थी जहां भारतीय सेना ने चीनी सेना को घुसने नहीं दिया था. बाद में मेजर शैतान सिंह को उनकी वीरता के लिए देश का सबसे बड़ा वीरता पुरस्कार परमवीर चक्र से नवाजा गया।

INDIAN FATALITIES

  • The Indian Defense Ministry, in 1965, showed 1,383 Indian soldiers killed, 1,696 missing in action, 3,968 soldiers captured, and 1,047 soldiers wounded.
  • According to PLA records from archives, Indian casualties during the war were 4,897 killed or wounded and 3,968 captured.

CHINESE FATALITIES

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1962 के बाद चीन भारत से 3 बार और युद्ध लड़ चुका है

1- 1967 की पहली लड़ाई- 1967 को ऐसे साल के तौर पर याद किया जाता रहेगा जब हमारे सैनिकों ने चीनी दुस्साहस का मुंहतोड़ जवाब देते हुए सैकड़ों चीनी सैनिकों को न सिर्फ मार गिराया था, बल्कि उनके कई बंकरों को ध्वस्त कर दिया था. रणनीतिक स्थिति वाले नाथु ला दर्रे में हुई उस भिड़ंत की कहानी हमारे सैनिकों की जांबाजी की मिसाल है.

  • 14,200 फीट पर स्थित नाथु ला दर्रा तिब्बत-सिक्किम सीमा पर है, जिससे होकर पुराना गैंगटोक-यातुंग-ल्हासा व्यापार मार्ग गुजरता है. यूं तो सिक्किम-तिब्बत सीमा निर्धारण स्पष्ट ढंग से किया जा चुका है, पर चीन ने कभी भी सिक्किम को भारत का हिस्सा नहीं माना. 1965 के भारत-पाक युद्घ के दौरान चीन ने भारत को नाथु ला एवं जेलेप ला दर्रे खाली करने को कहा. भारत के 17 माउंटेन डिविजन ने जेलेप ला को तो खाली कर दिया, लेकिन नाथु ला पर भारत का आधिपत्य जारी रहा. आज भी जेलेप ला चीन के कब्जे में है.
  • नाथू ला दोनों देशों के बीच टकराव का बिंदु बन गया. 1967 के टकराव के दौरान भारत की 2 ग्रेनेडियर्स बटालियन के जिम्मे नाथु ला की सुरक्षा थी. इस बटालियन की कमान तब ल़े कर्नल (बाद में ब्रिगेडियर) राय सिंह के हाथों में थी. इस बटालियन की कमान तब ब्रिगेडियर एम़ एम़ एस़ बक्शी, एमवीसी, की कमान वाले माउंटेन बिग्रेड के अधीन थी.
  • भारतीय सेना के एक सूत्र के मुताबिक नाथु ला दर्रे पर सैन्य गश्त के दौरान दोनों देशों के सैनिकों के बीच अक्सर जुबानी जंग का माहौल बना रहता था जो शीघ्र ही धक्कामुक्की में तब्दील हो गया. तब चीन पक्ष में टूटी-फूटी अंग्रेजी बोलने वाला एक मात्र शख्स उसका पॉलिटिकल कमीसार (राजनीतिक प्रतिनिधि) था, जिसकी भाषा भारतीय सैनिकों को समझ में आती थी.
  • 6 सितंबर, 1967 को धक्कामुक्की की एक घटना का संज्ञान लेते हुए भारतीय सेना ने तनाव दूर करने के लिए नाथु ला से लेकर सेबू ला तक के दर्रे के बीच में तार बिछाने का फैसला किया. यह जिम्मा 70 फील्ड कंपनी ऑफ इंजीनियर्स एवं 18 राजपूत की एक टुकड़ी को सौंपा गया. जब बाड़बंदी शुरू हुई तो चीन के पॉलिटिकल कमीसार ने राय सिंह से फौरन यह काम रोकने को कहा. दोनों ओर से कहासुनी शुरू हुई और चीनी अधिकारी के साथ धक्कामुक्की से तनाव बढ़ गया. चीनी सैनिक तुरंत अपने बंकर में लौट गए और भारतीय इंजीनियरों ने तार डालना जारी रखा.
  • चंद मिनटों के अंदर चीनी सीमा से ह्न्सिल की तेज आवाज आने लगी और फिर चीनियों ने मेडियम मशीन गनों से गोलियां बरसानी शुरू कीं. भारतीय सैनिकों को शुरू में भारी नुकसान झेलना पड़ा, क्योंकि उन्हें चीन से ऐसे कदम का अंदेशा नहीं था. राय सिंह खुद जख्मी हो गए, वहीं दो जांबाज अधिकारियों 2 ग्रेनेडियर्स के कैप्टन डागर एवं 18 राजपूत के मेजर हरभजन सिंह के नेतृत्व में भारतीय सैनिकों के एक छोटे दल ने चीनी सैनिकों का मुकाबला करने की भरपूर कोशिश की और इस प्रयास में दोनों अधिकारी शहीद हो गए.
  • प्रथम 10 मिनट के अंदर करीब 70 सैनिक मारे जा चुके थे और कई घायल हुए. इसके बाद भारत की ओर से जो जवाबी हमला हुआ उसने चीन का इरादा चकनाचूर कर दिया. सेबू ला एवं कैमल्स बैक से अपनी मजबूत रणनीतिक स्थिति का लाभ उठाते हुए भारत ने जमकर आर्टिलरी पावर का प्रदर्शन किया. कई चीनी बंकर ध्वस्त हो गए… Indian Defence Ministry reported: 88 killed and 163 wounded on the Indian side, while 340 killed and 450 wounded on the Chinese side, during the two incidents.
  • भारत की ओर से लगातार तीन दिनों तक दिन-रात फायरिंग जारी रही. चीन को सबक सिखाया जा चुका था. 14 सितंबर को चीनियों ने धमकी दी कि अगर भारत की ओर से फायरिंग बंद नहीं हुई तो वह हवाई हमला करेगा. तब तक चीन को सबक मिल चुका था और फायरिंग रुक गई. रात में चीनी सैनिक अपने मारे गए साथियों की लाशें उठाकर ले गए और भारत पर सीमा का उल्लंघन करने का आरोप गढ़ा गया. 15 सितंबर को ले.ज. जगजीत अरोरा एवं ले. ज. सैम मानेकशॉ समेत कई वरिष्ठ अधिकारियों की मौजूदगी में शवों की अदला-बदली हुई.

2- 1967 की दूसरी लड़ाई- 1 अक्टूबर 1967 को चीन की पीपुल्स लिबरेशन आर्मी ने चाओ ला इलाके में फिर से भारत के सब्र की परीक्षा लेने का दुस्साहस किया, पर वहां मुस्तैद 7/11गोरखा राइफल्स एवं 10 जैक राइफल्स नामक भारतीय बटालियनों ने इस दुस्साहस को नाकाम कर चीन को फिर से सबक सिखाया. इस बार चीन ने सितंबर के संघर्ष विराम को तोड़ते हुए हमला किया था. दरअसल, सर्दी शुरु होते ही भारतीय फौज करीब 13 हजार फुट ऊंचे चो ला पास पर बननी अपनी चौकियों को खाली कर देती थी. गर्मियों में जाकर सेना दोबारा तैनात हो जाती थी. चीन ने 1 अक्टूबर का हमला यह सोचकर किया था कि चौकियां खाली होंगी, लेकिन चीन की मंशा को देखते हुए हमारी सेना ने सर्दी में भी उन चौकियों को खाली नहीं किया था. इसके बाद आमने सामने की सीधी लड़ाई शुरु हो गई.

  • हमारी सेना ने भी इस बार चीन को मुंहतोड़ जवाब देने के लिए गोले दागने शुरू कर दिए. इस लड़ाई का नेतृत्व करने वाले थे 17 वीं माउंटेन डिवीजन के मेजर जनरल सागत सिंह. लड़ाई के दौरान ही नाथू ला और चो ला दर्रे की सीमा पर बाड़ लगाने का काम किया गया ताकि चीन फिर इस इलाके में घुसपैठ की हिमाकत नहीं कर सके.
  • इस तरह 1967 की इस लड़ाई में भारतीय सेना ने चीनी हमलों को नाकाम कर दिया. लड़ाई के बाद घायल कर्नल राय सिंह को महावीर चक्र, शहादत के बाद कैप्टन डागर को वीर चक्र और मेजर हरभजन सिंह को महावीर चक्र से सम्मानित किया गया. बताया जाता है कि लड़ाई के दौरान जब भारतीय सेना के जवानों की गोलियां खत्म हो गईं तो बहादुर अफसरों एवं जवानों ने अपनी खुखरी से कई चीनी अफसरों एवं जवानों को मौत के घाट उतार दिया था.
  • 1967 के ये दोनों सबक चीन को आज तक सीमा पर गोली बरसाने से रोकते हैं. तब से आज तक सीमा पर एक भी गोली नहीं चली है, भले ही दोनों देशों की फौज एक दूसरे की आंखों में आंख डालकर सीमा का गश्त लगाने में लगी रहती है. क्या ऐसे सबक के बाद भी चीन भारत के साथ दुस्साहस करेगा?
  • चीन को याद रखना चाहिए जब 1962 के भारत एवं 1967 के भारत में इतना अंतर केवल 5 वर्षों में हो गया. ऐसे में 2017 के परमाणु शक्ति संपन्न भारत से चीन की लड़ाई मुश्किल ही है. इस तरह चीन को अतीत की घटनाओं में 1967 को कभी भूलना नहीं चाहिए.

3- 1987 की तीसरी लड़ाई- 86 में चीन को फिर लगा झटका- 1967 के 20 वर्ष बाद भारत से चीन को फिर से गहरा झटका लगा। जिसकी बुनियाद 1986 में चीन की ओर से रखी गयी। इस बार फिर टकराव पर चीन ने कहा कि भारत को इतिहास का सबक नहीं भूलना चाहिए, पर लगता है कि चीन भी कुछ भूल गया है।

  • 1986-87 में भारतीय सेना ने शक्ति प्रदर्शन में चीनी सेना यानि पीपुल्स लिबरेशन आर्मी को बुरी तरह से हिला दिया था। इस संघर्ष की शुरुआत तवांग के उत्तर में समदोरांग चू रीजन में 1986 में हुई थी. जिसके बाद उस समय के सेना प्रमुख जनरल कृष्णास्वामी सुंदरजी के नेतृत्व में ऑपरेशन फाल्कन हुआ था.
  • नामका चू से हुई शुरूआत- 1987 की झड़प की शुरुआत नामका चू से हुई थी। भारतीय फौज नामका चू के दक्षिण में ठहरी थीं। लेकिन एक आईबी टीम समदोरांग चू में पहुंच गई। यह जगह नयामजंग चू के दूसरे किनारे पर है। समदोरंग चू और नामका चू दोनों नाले इस उत्तर से दक्षिण को बहने वाली नयामजंग चू नदी में गिरते है।
  • 1985 में भारतीय फौज पूरी गर्मी में यहां डटी रही, लेकिन 1986 की गर्मियों में पहुंची तो यहां चीनी फौजें मौजूद थीं। समदोरांग चू के भारतीय इलाके में चीन अपने तंबू गाड़ चुका था।.भारत ने पूरी कोशिश की कि चीन को अपने सीमा में लौट जाने के लिए समझाया जा सके, लेकिन अड़ियल चीन मानने को तैयार नहीं था।
  • ऑपरेशन फाल्कन- 2017 की तरह 1987 में भी चीन और भारत की सेना आंखों में आंख डाले सामने खड़ी थीं, लेकिन इस बार भी चीन को जवाब मिलने वाला था। चीन ने पूर्व में लड़ाई की तैयारी पूरी कर ली थी।
  • भारतीय सेना ने ऑपरेशन फाल्कन तैयार किया, जिसका उद्देश्य सेना को तेजी से सरहद पर पहुंचाना था। तवांग से आगे कोई सड़क नहीं थी, इसलिए जनरल सुंदर जी ने जेमीथांग नाम की जगह पर एक ब्रिगेड को एयरलैंड करने के लिए इंडियन एयरफोर्स को रूस से मिले हैवी लिफ्ट MI-26 हेलीकॉप्टर का इस्तेमाल करने का फैसला किया।
  • जनरल सुंदरजी व्यूह रचना- भारतीय सेना ने हाथुंग ला पहाड़ी पर पोजीशन संभाली,जहां से समदोई चू के साथ ही तीन और पहाड़ी इलाकों पर नजर रखी जा सकती थी। 1962 में चीन ने ऊंची जगह पर पोजीशन लिया था, परंतु इस बार भारत की बारी थी। जनरल सुंदर जी की रणनीति यही पर खत्म नहीं हुई थी।
  • ऑपरेशन फाल्कन के द्वारा लद्दाख के डेमचॉक और उत्तरी सिक्किम में T -72 टैंक भी उतारे गए। अचंभित चीनियों को विश्वास नहीं हो रहा था। भारत ने 7 लाख सैनिकों की तैनाती की थी।
  • चीनियों ने घुटने टेक दिये- फलत: लद्दाख से लेकर सिक्किम तक चीनियों ने घुटने टेक दिए। इस ऑपरेशन फाल्कन ने चीन को उसकी औकात दिखा दी। भारत ने शीघ्र ही इस मौके का लाभ उठाकर अरुणाचल प्रदेश को पूर्ण राज्य का दर्जा दे दिया।
  • वियतनाम युद्ध के बाद चीनी सेनाओं ने कोई भी लड़ाई नहीं लड़ी है, जबकि भारतीय सेना सदैव पाकिस्तानी सीमा पर अघोषित युद्ध में संघर्षरत है। हिमालयी सरहदों में चीन की इतनी काबिलियत नहीं है कि वह भारत का मुकाबला कर सके।
  • तुलनात्मक तौर पर भारत चीन के समक्ष भले ही कमजोर लग सकता है, परंतु वास्तविक स्थिति ऐसी नहीं है। 1967 के दोनों युद्धों से स्पष्ट है कि अपनी विशिष्ट एवं अचूक रणनीति के द्वारा भारत न्यूनतम संसाधनों के बीच भी चीन को हराने में सक्षम है।

राजनयिक घटनाक्रम 1986 में डेंग शियाओपिंग Deputy premier of China ने भारत को चेतावनी दी कि यदि वह अपनी सेना को वापस नहीं बुलाता है तो उसे ‘सबक’ सिखाया जायेगा। तब अमेरिकी रक्षामंत्री कैस्पर वेनबर्गर ने भारत-चीन के बीच मध्यस्थ की भूमिका निभाई थी। लेकिन भारत अपने रुख पर डटा रहा। इसके चलते सैन्य गतिरोध की स्थिति पैदा हो गयी। इसके बाद मई, 1987 में तत्कालीन विदेश मंत्री एनडी तिवारी ने चीन का दौरा किया। उन्होंने चीन को स्पष्ट किया कि भारत की तनाव बढ़ाने की कोई इच्छा नहीं है। उन्होंने यह भी स्पष्ट किया कि इस सिलसिले में प्रधानमंत्री राजीव गांधी भी चीन दौरे पर आ सकते हैं। हालांकि राजीव गांधी ने नवंबर, 1988 में चीन का दौरा किया और डेंग ने खुद ‘युवा’ भारतीय प्रधानमंत्री का स्वागत करते हुए भारत के साथ अच्छे संबंधों की इच्छा जतायी थी। इसके बावजूद चीन ने 1993 में जाकर सुमदोरोंग चू से पूरी तरह अपनी सेना हटाई। सुमदोरोंग चू में चीन की दुर्गति के चलते ही 20 फरवरी 1987 में अरुणाचल भारतीय संघ का राज्य बन पाया।

1962 के बाद भारत-चीन संबंध

1962 में सीमा संघर्ष से द्विपक्षीय संबंधों को गंभीर झटका लगा और बाद में 1976 को दोनों राज्यों के संबंध दोबारा बहाल किए गए। इसके बाद द्विपक्षीय संबंधों में धीरे-धीरे सुधार देखने को मिला।

1963 कोलम्बो प्रस्ताव- भारत चीन संघर्ष से उत्पन्न विवाद एशियाई क्षेत्र की सुरक्षा को संकट मानकर वर्मा, श्रीलंका, इण्डोनेशिया, मिश्र तथा हाना आदि देशों ने कोलम्बों में एक सम्मेलन का आयोजन किया जिसका उद्देश्य सीमा विवाद का हल करना था। श्रीलंका के प्रधानमंत्री श्रीमती भण्डारनायके के प्रयासों से 19 जनवरी 1963 को कोलम्बो प्रस्ताव को प्रकाशन किया जिसके अंतर्गत भारत वचीन ने सीमा विवाद के हल हेतु प्रयास किये जायेंगे। परंतु चीन के असहयोग रवैये के कारण यह प्रस्ताव विफल रहा। कोलम्बो प्रस्ताव से मिलता जुलता ए कप्रस्ताव मिश्र के राष्ट्रपति कर्नल नासिर ने 3 अक्टूबर 1963 को प्रस्तुत किया, किंतु यह भी विफल रहा।

संबंधों में गतिरोध- अप्रैल 1965 के बाद भारत चीन सम्बंधों में गतिरोध व्याप्त रहा। लेकिन अप्रैल 1971 में कैटन के व्यापारिक मेले में हांगकांग स्थित भारतीय वाणिज्य आयुक्त को आमंत्रित करने से दोनों देशों के पारस्परिक संबंधों में कुछ नरमी आयी। फरवरी 1972 में पौलेण्ड में चीन व भारत के राजदूतों की हुई मुलाकात तथा 15 अगस्त 1962 को लाल किले समारोह पर चीनी दूतावासों के प्रतिनिधियों की उपस्थिति का भी कोई ठोस महत्वपूर्ण परिणाम नहीं निकला। दूसरी ओर भारत चीन से मधुर संबंधों की स्थापना हेतु प्रयत्न रह। सन् 1976 में इंदिरा गांधी ने एक पक्षीय कार्यवाही द्वारा राजदूतों का आदान प्रदान करके के.आर. नारायण की चीन में राजदूत के रूप में नियुक्ति की। सन् 1977 में सत्ता में आयी जनता पार्टी ने भी चीन से मधुर संबंधों की नीति के अंतर्गत विदेश मंत्री अटल बिहारी वाजपेयी को चीन भेजा परंतु उसी समय वियतनाम पर चीन के आक्रमण होने से भारत चीन संबंधों को सामान्य बनानेके प्रयासों पर प्रश्न चिन्ह लग गया। तथापि कालान्तर में दोनों देश सीमाविवाद के हल आर्थिक, सांस्कृतिक व शैक्षणिक समझौतों हेतु प्रयत्नशील दृष्टिगत हुए।

दोनों देशों ने 1976 में राजदूत स्तर पर अपने संबंधों को बहाल किया-  फिर भी, दिसंबर, 1988 में प्रधान मंत्री राजीव गांधी की चीन यात्रा से ही वास्तकव में द्विपक्षीय संबंध पुनरूज्जी वित हुए तथा भारत-चीन संबंधों के लिए एक नए सिद्धांत का निर्माण हुआ।

दिसबंर 1988प्रधानमंत्री राजीव गांधी की चीन की ऐतिहासिक यात्रा- 1988 में प्रधानमंत्री राजीव गांधी ने चीन का दौरा किया। 34 साल के बाद कोई भारतीय प्रधानमंत्री चीन की यात्रा पर गया था। इस यात्रा के बाद दोनों देश सीमा विवाद का समाधान और दूसरे क्षेत्रों में सक्रिय रूप से द्विपक्षीय संबंधों को विकसित करने के लिये सहमत हुए।

  • साल 1988 में चीन के प्रधानमंत्री ली पेंग की ओर से तत्‍कालीन भारतीय प्रधानमंत्री राजीव गांधी को 19 से 23 दिसंबर के बीच चीन की यात्रा का न्‍यौता दिया गया था। 34 वर्षों में किसी भारतीय पीएम की यह पहली चीन यात्रा थी। चीन के विदेश मंत्रालय की वेबसाइट की ओर से दी गई जानकारी के मुताबिक उस यात्रा को भारत-चीन के रिश्‍तों में एक बड़ी घटना माना गया था। चीनी पीएम ली पेंग ने राजीव गांधी के साथ वार्ता की। इसके अलावा उस समय के चीनी राष्‍ट्रपति यांग शांगकुन और चीन के सेंट्रल मिलिट्री कमीशन के चेयरमैन डेंग जियाओपिंग ने भी राजीव से मुलाकात की थी। दोनों के बीच द्विपक्षीय संबंधों और आपसी हितों से जुड़े अंतरराष्‍ट्रीय मुद्दों पर चर्चा हुई थी। दोनों देशों के नेताओं की ओर से व्‍यापार, संस्‍कृति, साइंस एंड टेक्नोलॉजी, एविएशन और दूसरे क्षेत्रों में द्विपक्षीय सहयोग और आदान-प्रदान में हुई प्रगति की तारीफ की गई थी।
  • सीमा विवाद पर क्‍या हुई थी बात
  • चीनी विदेश मंत्रालय की वेबसाइट की ओर से दी गई जानकारी के मुताबिक उस समय भारत और चीन दोनों देशों ने साथ-साथ मौजूदगी के शांतिपूर्ण तरीके के लिए पांच सिद्धांतों पर जोर दिया था। इन सिद्धांतों की पहल चीन और भारत दोनों की तरफ से की गई थी। इसके अलावा दोनों देशों के बीच सीमा विवाद पर भी चर्चा हुई थी। सीमा विवाद पर चीन के पीएम ली पेंग ने कहा था लाइन ऑफ एक्‍चुअल कंट्रोल (एलएसी) पर चीन मानता है कि दोनों देशों की आपसी समझ से ही इस मुद्दे को सुलझाया जा सकता है। दोनों देश इस बात को लेकर राजी भी हुए थे कि शांति और मित्रता के माहौल में सीमा विवाद को सुलझाया जाएगा। इसके अलावा राजीव गांधी के चीन दौरे पर दोनों देशों के बीच साइंस एंड टेक्‍नोलॉजी में आपसी सहयोग और सिविल एविएशन ट्रांसपोर्टेशन को लेकर समझौता हुआ था। इसके साथ ही 1988 से 1990 तक दोनों देशों ने आपस में सांस्‍कृतिक आदान-प्रदान पर एक द्विपक्षीय समझौते को साइन किया था। अंत में राजीव और ली पेंग ने एक ज्‍वॉइन्‍ट प्रेस कांफ्रेंस भी की थी।
  • चीन के पूर्व डिप्लोमैट जेंग शियॉन्ग ने राजीव गांधी को नई पीढ़ी के नेता बताया- चीन के पूर्व डिप्लोमैट जेंग शियॉन्ग ने आर्टिकल में लिखा है, “राजीव नई पीढ़ी के नेता थे, वे इकोनॉमिक रिफॉर्म्स के जरिये भारत के उदय को बढ़ावा देना चाहते थे, लेकिन माहौल ने उनको अपना मकसद पूरा करने में अड़चनें पैदा कीं।” जेंग का ये आर्टिकल एक बुक में पब्लिश हुआ है, जिसका नाम है- ‘स्टोरीज ऑफ चाइना एंड इंडिया’। जेंग ने इस आर्टिकल के जरिये राजीव के बीजिंग दौरे और टॉप चीनी नेताओं के साथ उनकी मीटिंग को चीन के नजरिये से देखा है।

राष्ट्राध्यक्ष दौरों की शुरुआत मई, 1992 में तत्कालीन राष्ट्रपति आर वेंकटरमण चीन की राजकीय यात्रा पर गए। राष्ट्राध्यक्ष स्तर पर दोनों देशों के बीच यह पहली यात्रा थी। परिणामस्वरूप नवंबर, 1996 में चीनी राष्ट्रपति जियांग जेमिन ने भारत का राजकीय दौरा किया। यह चीन के राष्ट्राध्यक्ष की पहली यात्रा थी। इस यात्रा के दौरान दोनों पक्षों के बीच आपसी विश्वास और सहयोग बढ़ाने के लिए चार महत्वपूर्ण समझौते किए गए।

सितंबर, 1993 में प्रधानमंत्री नरसिम्हा राव ने चीन का दौरा किया- उनकी इस यात्रा के दौरान भारत-चीन सीमा क्षेत्र में वास्त विक नियंत्रण रेखा (LAC) पर शांति एवं अमन चैन बनाए रखने पर महत्वपूर्ण करार पर हस्ताक्षर किया गया जो दोनों पक्षों द्वारा सीमा पर यथास्थिति का सम्माहन करने का प्रावधान करता है। प्रधानमंत्री नरसिम्हा राव के दौरे से पहले दिसंबर, 1991 में चीन के प्रधानमंत्री ली पेंग ने भारत दौरा किया था।

मई 1998, परमाणु परीक्षण की तपिश: मई, 1998 में अटल बिहारी वाजपेयी सरकार द्वारा पोखरण में परमाणु विस्फोट किया गया। भारत को परमाणु ताकत का आधिकारिक दर्जा देने वाली यह घटना पड़ोसी को नागवार गुजरी। लिहाजा इस घटना पर उसकी तीखी प्रतिक्रिया ने दोनों के बीच संबंधों को करीब झुलसा ही दिया। जून, 1999 में तत्कालीन विदेश मंत्री जसवंत सिंह ने चीन दौरा किया। इस दौरे में दोनों पक्षों ने एक दूसरे को धमकी न देने के वचन को दोहराया। मई-जून, 2010 में तत्कालीन राष्ट्रपति केआर नारायणन की यात्रा से दोनों के बीच उच्च स्तरीय आदान-प्रदान की वापसी हुई। जनवरी, 2002 में चीनी प्रधानमंत्री झू रोंगजी भारत आए।

जून 2003, संबंधों में मजबूती- प्रधानमंत्री अटल बिहारी बाजपेयी ने 22 से 27 जून, 2003 के दौरान चीन का आधिकारिक दौरा किया जिसके दौरान वह बीजिंग, शंघाई तथा लोयांग गए, जो मध्य चीन के हेनान प्रांत में एक प्राचीन शहर है। उन्होंने चीन के संपूर्ण शीर्ष नेतृत्व के साथ मुलाकात की जिसमें राष्ट्रपति हू जिंताओ तथा प्रधान मंत्री वेन जियाबाओ शामिल हैं। उनकी इस यात्रा के दौरान द्विपक्षीय संबंधों को परस्पर सूझबूझ के एक नए स्तर पर पहुंचाया गया तथा पूर्ण स्तर पर सहयोग में संबंधों का विस्तार किया गया।

  • प्रधान मंत्री अटल बिहारी बाजपेयी की यात्रा भारत-चीन संबंधों में मील पत्थर साबित हुई तथा द्विपक्षीय संबंधों के विकास पर अब तक का पहला व्यापक दस्तावेज – संबंधों एवं व्यापक सहयोग के लिए सिद्धांतों पर घोषणा- जिस पर यात्रा के दौरान हस्ताक्षर किया जा रहा है। उनकी इस महत्वपूर्ण यात्रा के दौरान ही दोनों देशों के प्रधानमंत्रियों ने समग्र द्विपक्षीय संबंधों की राजनीतिक दृष्टिकोण से जांच करने के लिए विशेष प्रतिनिधियों की नियुक्ति की जो सीमा प्रश्नर के समाधान की रूपरेखा है।

अप्रैल, 2005 में चीनी प्रधानमंत्री वेन जियाबाओ की यात्रा के दौरान दोनों देशों के संयुक्त घोषणापत्र पर हस्ताक्षर हुए।

नवंबर, 2006 में चीनी राष्ट्रपति हू जिंताओ की भारत यात्रा के दौरान दोनों देशों के बीच कई क्षेत्रों में सहमति का संयुक्त घोषणापत्र जारी किया गया।

13-15 जनवरी, 2008 को प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह चीन गए। दोनों देशों ने 21वीं सदी के लिए साझा दृष्टिकोण पर संयुक्त दस्तावेज जारी किया। इस यात्रा के दौरान उन्होंने प्रधान मंत्री वेन‍ जियाबाओ के साथ व्यारप विचार-विमर्श किया तथा राष्ट्रपति हू जिंताओ के साथ भी बैठक की। इस यात्रा के दौरान “भारत गणराज्य  तथा चीन जनवादी गणराज्य की 21वीं शताब्दी  के लिए साझा विजन” नामक एक संयुक्त दस्तावेज जारी किया गया जो अनेक अंतर्राष्ट्रीय तथा कुछ द्विपक्षीय मुद्दों पर साझे दृष्टिकोणों को रेखांकित करता है।

26-31 मई, 2010 को राष्ट्रपति ने चीन का राजकीय दौरा किया।

15-17 दिसंबर, 2010 को चीनी प्रधानमंत्री बेन जियाबाओ ने भारत दौरा की। इस यात्रा के दौरान दोनों देशों के बीच छह समझौतों पर हस्ताक्षर हुए। 2015 तक द्विपक्षीय कारोबार को 100 अरब डॉलर का लक्ष्य निर्धारित किया गया।

2011 को चीन-भारत विनिमय वर्षऔर साल 2012 को चीन-भारत मैत्री और सहयोग का वर्षके रूप में मनाया गया।

पीएम मोदी और और चीनी राष्ट्रपति शी जिनपिंग की मुलाकातें

  • 17-19 सितंबर, 2014- 17 सितंबर को शी जिनपिंग अपनी पत्नी पेंग लियुआन के साथ अहमदाबाद पहुंचे थे. दौरे के पहले दिन भारत-चीन के बीच तीन समझौतों पर दस्तख़त हुए थे. फिर साबरमती के तट पर जिनपिंग के स्वागत में पारंपरिक नृत्य पेश किए गए. यहां मोदी ने जिनपिंग को झूला भी झुलाया. इसके बाद जिनपिंग दिल्ली लौट आए थे, जहां उन्होंने कुछ और समझौतों पर दस्तख़त किए थे.
  • 14-16 मई, 2015 : प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी चीन यात्रा पर। यह पहला मौका था, जब चीन के राष्ट्रपति ने आधिकारिक यात्रा पर आए किसी नेता का स्वागत बीजिंग से बाहर आकर किया। जिनपिंग ने अपने गृह प्रांत शियान में प्रधानमंत्री मोदी का स्वागत किया।
  • 27- 28 अप्रैल, 2018 (Informal Summit): प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी चीन पहुँचे। वुहान में चीनी राष्ट्रपति शी जिनपिंग से वार्ता।
  • 11-12 अक्टूबर 2019(Informal Summit)-  प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और चीन के राष्ट्रपति शी जिनपिंग की तमिलनाडु के महाबलीपुरम (मामल्लपुरम) में अनौपचारिक मुलाक़ात हुई।

2017 डोकलाम और 2020 गलवान में चीन से भिड़ंत

2020- गलवान घाटी में चीन के साथ कैसे बिगड़ी बात, कब-क्या हुआ

  • अप्रैल- के अंत से लद्दाख के पेंगांग झील के किनारे भारत और चीन के सैनिकों के बीच तनाव बढ़ना शुरू हुआ।
  • 5-6- मई को लद्दाख में पेंगांग झील के पास दोनों देशों के सैकड़ों सैनिक इकट्ठा हो गए, दोनों ओर के सैनिकों के बीच झड़प हुई. इस झड़प में दोनों ओर से कई सैनिक घायल हुए। पेंगांग झील के किनारे झड़प 5 मई की रात से शुरू हुई थी जो 6 मई की सुबह तक चलती रही, झड़प में लोहे की रॉड, डंडों और पत्थरों का भी जमकर इस्तेमाल किया गया।
  • 9 मई- को उत्तरी सिक्किम में बॉर्डर के पास चीनी सैनिकों की भारतीय सैनिकों के साथ झड़प हो गई, यहां भी झड़प में दोनों ओर से सैनिक घायल हुए. हालांकि सैन्य स्तर पर मामले को सुलझा लिया गया।
  • 12 मई- को चीन के हेलिकॉप्टर LAC के पास उड़ान भरते रहे, लेकिन भारत के सुखोई लड़ाकू विमानों ने उन्हें खदेड़ दिया।
  • 18 मई- लद्दाख सीमा पर भारत और चीन के बीच एक बार तनाव की खबरें आ रही हैं। मीडिया रिपोर्ट्स के मुताबिक, गालवन नदी के किनारे चीनी सेना के कुछ टेंट देखे गए हैं। इसके बाद भारत ने भी यहां फौज की तैनाती बढ़ा दी है।
  • 23 मई- को आर्मी चीफ जनरल मनोज मुकुंद नरवणे ने लद्दाख में सीमा का दौरा किया और चीन से तनाव के हालात का जायजा लिया।
  • 25 मई- को लद्दाख के पेगांग झील और गलवान घाटी में चीन से तनाव और बढ़ गया.लद्दाख में भारत और चीन के जवानों में तनाव बरकरार, चीन विवादित क्षेत्र में बंकर बनाने के लिए मशीनें ला रहा।
  • 26 मई- को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने चीन के हालात पर अहम बैठक की।
  • 26 मई- प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की एनएसए अजीत डोभाल, चीफ ऑफ डिफेंस स्टाफ जनरल बिपिन रावत, तीनों सेनाओं के प्रमुखों के साथ इस मुद्दे पर चर्चा हुई. इससे पहले तीनों सेना प्रमुखों ने रक्षामंत्री राजनाथ सिंह को जानकारी दी थी।
  • 26 मई- चीन के राष्ट्रपति शी-जिनपिंग ने सेना से कहा है कि ट्रेनिंग और जंग की तैयारियां तेज कर दें। सबसे मुश्किल हालात को ध्यान में रखते हुए खुद को तैयार करें और देश के आधिपत्य (सॉव्रिन्टी) के लिए मजबूती से डटे रहें। चीन की सरकारी न्यूज एजेंसी शिन्हुआ के मुताबिक जिनपिंग ने कहा कि उलझे हुए मसलों को मुस्तैदी और असरदार तरीके से डील करें।
  • 26 मई- प्रधानमंत्री मोदी ने रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह से चर्चा की- इस बीच प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने 26 मई को हाईलेवल मीटिंग बुलाई। इसमें रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह, एनएसए अजीत डोभाल, सीडीएस बिपिन रावत और तीनों सेना प्रमुख शामिल हुए।
  • 27 मई: अमेरिका के राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने भारत और चीन के बीच सीमा विवाद सुलझाने के लिए मध्यस्थता की बात कही।
  • 27 मई को चर्चा- सैन्य कमांडरों ने 27 मई को भी तीन दिवसीय सम्मेलन के पहले दिन पूर्वी लद्दाख की स्थिति पर गहन चर्चा की थी। सूत्रों ने बताया कि थलसेना प्रमुख जनरल एम एम नरवणे की अध्यक्षता में हो रहे सम्मेलन में जम्मू कश्मीर तथा पूर्वोत्तर के कुछ खास क्षेत्रों में आतंकवाद रोधी अभियानों पर भी चर्चा की गई। उन्होंने कहा कि भारतीय सेना पूर्वी लद्दाख में सभी विवादित क्षेत्रों में आक्रामक हावभाव जारी रखेगी और यथास्थिति कायम होने तक पीछे नहीं हटेगी।
  • 28 मई: अमेरिका के प्रस्ताव पर भारत ने कहा कि हम शांतिप्रिय तरीके से मसले को सुलझाने पर चीन से बात कर रहे हैं।
  • 28 मई को चर्चा- भारतीय सेना ने पूर्वी लद्दाख में चीन के आक्रामक सैन्य व्यवहार को ‘मजबूती से’ रोकने के लिए रणनीति के तहत एक ओर जहां अतिरिक्त सैनिक और अस्त्र-शस्त्र भेजे हैं, वहीं दूसरी तरफ सैन्य कमांडरों ने क्षेत्र में नाजुक स्थिति पर 28 मई को लगातार दूसरे दिन चर्चा की। अधिकारियों ने बताया कि पैंगोंग त्सो, गलवान घाटी, देमचोक और दौलत बेग ओल्डी में भारत की मौजूदगी को मजबूत करने के लिए सैनिक, वाहन और उपकरण आदि भेजे गए हैं।
  • 1 जून: चीन ने कहा कि बॉर्डर पर हालात स्थिर और कंट्रोल में है, चीन के कुछ फाइटर प्लेन पूर्वी लद्दाख से 30-35 किलोमीटर मौजूद थे।
  • 2 जून: रक्षामंत्री राजनाथ सिंह ने एक इंटरव्यू में बताया कि पूर्वी लद्दाख में LAC पर चीनी  सैनिक अच्छी-खासी तादाद में मौजूद हैं. उन्होंने ये भी कहा कि हम अपना रुख बदलने वाले नहीं हैं. इसी दिन डिविजन कमांडर स्तर पर दोनों सेनाओं के शीर्ष अधिकारियों के बीच बैठक हुई, लेकिन कोई नतीजा नहीं निकला।
  • 6 जून: लेफ्टिनेंट जनरल हरिंदर सिंह के नेतृत्व में भारतीय सेना ने चीन के मेजर जनरल लियु लिन से मोल्डो में बातचीत की. मोल्डो LAC पर चीन के हिस्से में है. इसके बाद रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह ने तीनों सेनाओं के प्रमुख और चीफ ऑफ डिफेंस स्टाफ के साथ एक लंबी बैठक की. बैठक में रक्षा मंत्री को बताया गया कि चीन की ओर से बॉर्डर पर बड़ी संख्या में सैन्य मौजूदगी की गई है।
  • कमांडर स्तर की बातचीत 6 जून सुबह लगभग 9 बजे लद्दाख में चुशूल के पास चीन की सीमा में मोल्दो में शुरू हो गई थी. भारतीय सैनिक दल का नेतृत्व लेह स्थित 14 वीं कोर के कमांडर लेफ्टिनेंट जनरल हरिंदर सिंह ने किया था। चीन की तरफ से साउथ शिनजियांग मिलिट्री डिस्ट्रिक्ट के कमांडर, मेजर जनरल लिउ लिन ने हिस्सा लिया था।बैठक में भारत ने स्पष्ट कर दिया कि सीमा पर अप्रैल, 2020 से पहले वाली स्थिति बहाल होनी चाहिए।भारत की ओर से कहा गया है कि हम अपनी सीमा के भीतर कोई भी निर्माण कार्य कर सकते हैं।बैठक में हुई बातचीत की सारी जानकारी पीएमओ को दे दी गई है।
  • 8 जून- रंग लाई भारतीय कूटनीति, पूर्वी लद्दाख में कई जगहों से ढाई किलोमीटर पीछे हटा चीन- पूर्वी लद्दाख एलएसी पर जारी गतिरोध को खत्‍म करने के लिए भारतीय कूटनीति का बड़ा असर सामने आया है। पूर्वी लद्दाख में चीन के सैनिकों ने कई बिंदुओं को छोड़ा है। सरकार के शीर्ष सूत्रों ने बताया कि गलवन क्षेत्र में पीपुल्स लिबरेशन आर्मी यानी पीएलए ने पैट्रोलिंग प्वाइंट 15 और हॉट स्प्रिंग्स क्षेत्र से ढाई किलोमीटर पीछे हटी है जबकि भारत ने अपने सैनिकों को कुछ पीछे हटाया है। इससे पहले चार जून को भी ऐसी रिपोर्ट आई थी कि चीनी सेना दो किलोमीटर पीछे हट गई है। चीन ने उक्‍त कदम छह जून को लेफ्टिनेंट जनरल स्तर की बैठक से पहले उठाए थे।
  • 10 जून: भारत और चीन के मेजर जनरल रैंक के सेना के अफसरों ने बातचीत की. ये बातचीत सकारात्मक बताई गई. लेकिन भारत सरकार के सूत्रों ने बताया कि LAC पर चीनी सैनिकों की तैनाती जारी रहने तक बात नहीं बनने वाली है.
  • 11 जून: चीनी विदेश मंत्रालय की ओर से बयान दिया गया है दोनों देश इस मसले को आपस में बिल्कुल सही तरीके से निपटा रहे हैं. भारत और चीन के बीच इस मसले पर सैन्य और राजनयिक स्तर पर बात हो रही है. दोनों ही देश इस वक्त माहौल को शांत करने में जुटे हुए हैं.
  • 11 जून: खबर आई कि चीनी फौज लद्दाख से लेकर अरुणाचल प्रदेश तक डटी हुई है, लिहाजा भारत ने भी इसके जवाब में बड़ी संख्या में अपनी सेना तैनात की है. सीमा विवाद को देखते हुए भारत ने इस इलाके में रिजर्व फौज भी भेजी है.
  • 12 जून: भारत और चीन के कमांडरों के बीच मेजर जनरल स्तर की वार्ता हुई. इस दौरान भारत और चीन के बीच लद्दाख के गलवान इलाके के PP 14, PP 15 और 17A में तनाव को कम करने और गतिरोध को खत्म करने पर फोकस किया गया. ये दोनों देशों के बीच सैन्य कमांडरों के मेजर जनरल स्तर की 5 राउंड की वार्ता थी.
  • 13 जून: आर्मी चीफ एम एम नरवणे ने कहा कि चीन के साथ सीमा पर हालात काबू में है. उन्होंने कहा कि चीन और भारत के बीच सैन्य स्तर पर बातचीत हो रही है और बातचीत के जरिए हम हर तरह के विवादित मुद्दों को सुलझाने में सक्षम हैं.
  • 14 जून: जम्मू जन संवाद में रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह ने कहा कि चीन के साथ कूटनीतिक और सैन्य स्तर पर वार्ता जारी है और इस मुद्दे पर देश की सरकार लोगों को भरोसा दिलाना चाहती है कि राष्ट्रीय स्वाभिमान को किसी भी कीमत पर झुकने नहीं दिया जाएगा.
  • 15 जून: दोनों देशों के बीच ब्रिगेडियर कमांडर, कमांडर ऑफिसर लेवल की बातचीत हुई. ये बातचीत PP14 इलाके के पास की गई. इसमें गलवान घाटी में सैनिकों को वापस भेजने और फिर अप्रैल से पहले जैसी सामान्य स्थिति कायम करने को लेकर चर्चा हुई.
  • इसके बाद ताजा घटना- 15-16 जून की दरमियानी रात की है जिसमें चीन के साथ हुई झड़प में भारत के 20 सैनिक शहीद हो गए. इससे पहले मंगलवार को दोपहर में एक अफसर और दो जवानों के शहीद होने की जानकारी सामने आई थी, लेकिन बाद में 20 जवानों के शहीद होने की पुष्टि हुई.
  • 17 जून- भारत और चीन के बीच जारी तनाव के बीच विदेश मंत्री एस जयशंकर और चीन के विदेश मंत्री वांग यी के बीच बातचीत हुई है.
  • 17 जून- पीएम मोदी ने 15 राज्यों के मुख्यमंत्रियों के साथ बैठक से पहले गलवान घाटी में चीनी सेना से हिंसक झड़प में शहीद हुए 20 भारतीय जवानों के नाम दो मिनट का मौन भी रखा- चीन से विवाद को लेकर पीएम मोदी ने साफ कहा, मैं देश को भरोसा दिलाना चाहता हूं कि हमारे जवानों का बलिदान व्यर्थ नहीं जाएगा। हमारे लिए भारत की अखंडता और संप्रभुता सर्वोच्च है। इसके साथ हम कोई समझौता नहीं करेंगे और इसकी रक्षा करने से हमें कोई भी रोक नहीं सकता। भारत शांति चाहता है लेकिन भारत उकसाने पर हर हाल में यथोचित जवाब देने में सक्षम है। प्रधानमंत्री मोदी ने कहा, शहीद जवानों पर देश को गर्व है। हमारे दिवंगत शहीद वीर जवानों के विषय में देश को इस बात का गर्व होगा कि वे मारते-मारते मरे हैं।
  • 19 जून- चीन के विदेश मंत्रालय के प्रवक्ता झाऊ लिजियन ने 19 जून को कहा था- सही क्या है और गलत क्या है, यह एकदम साफ है। जो कुछ हुआ, उसकी पूरी जिम्मेदारी भारत की है। भारत-चीन बातचीत कर रहे हैं।’  चीन के विदेश मंत्रालय की प्रवक्ता हुआ चुनयिंग ने 18 जून को कहा था- भारतीय फ्रंट-लाइन के सैनिकों ने समझौता तोड़ा और लाइन ऑफ एक्चुअल कंट्रोल (एलएसी) को पार कर उकसाया और अफसरों-सैनिकों पर हमला किया। इसके बाद ही झड़प हुई और जान गई।’ उन्होंने कहा कि भारत मौजूदा हालात पर गलत राय न बनाए और चीन की अपनी क्षेत्रीय संप्रभुता की रक्षा करने की इच्छाशक्ति को कमजोर करके न देखे।
  • 20 जून- भारत के विदेश मंत्रालय ने 20 जून शाम इस पर जवाब देते हुए कहा कि मई की शुरुआत से चीन भारत की नॉर्मल पेट्रोलिंग में बाधा डाल रहा है। इसी वजह से विवाद की स्थिति बनी। हम इस बात को नहीं मानते हैं कि भारत सीमा पर एकतरफा कोई कदम रहा था। हम तो इसे मेंटेन कर रहे थे। भारत ने कहा कि गलवान पर चीन के दावे का कोई आधार नहीं है।  उनका दावा का कोई आधार नहीं है।
  • 20 जून- अमेरिकी विदेश मंत्री माइक पोंपियो ने कहा था कि चीनी सेना भारतीय सीमा पर तनाव को ‘भड़का’ रही है। उन्‍होंने चीन की सत्‍तारूढ़ कम्‍युनिस्‍ट पार्टी को ‘दुष्‍टता’ करने वाली पार्टी करार दिया था।
  • 21 जून- अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने कहा, ‘यह बहुत मुश्किल स्थिति है। हम भारत से बात कर रहे हैं, हम चीन से बात कर रहे हैं। उनके बीच वहां बड़ी समस्या हो गई है। उनके बीच झड़प हो रही है। हम देखेंगे कि क्या कर सकते हैं। हम कोशिश करेंगे और उनकी मदद करेंगे।’

2017- डोकलाम विवाद

The 73-day Doklam stand-off between India and China along the Sikkim border  

  • भारत और चीन चुंबी घाटी के इलाके में आमने-सामने है, जहां भारत-भूटान और चीन तीन देशों की सीमाएं मिलती हैं.
  • डोका ला (चीन इसेडोकलाम कहता है) पठार चुंबी घाटी (सिक्किम की सीमा से लगे) का ही हिस्सा है जहां भारतीय और चीनी सैनिकों के बीच तनाव हुआ है.
  • डोका ला पठार से सिर्फ 10-12 किमी पर ही चीन का शहर याडोंग है, जो हर मौसम में चालू रहने वाली सड़क से जुड़ा है डोका ला पठार नाथूला से सिर्फ 15 किमी की दूरी पर है.
  • जून की शुरुआत में चीन ने याडोंग से इस इलाके में सड़क को आगे बढ़ाने की कोशिश की, जिसकी वजह से ठीक इसी इलाके में भारतीय जवानों ने 20 जून को उन्हें ऐसा करने से रोका.
  • भूटान सरकार भी डोका ला इलाके में चीन की मौजूदगी का विरोध कर चुकी है, जो कि जोम्पलरी रिज में मौजूद भूटान सेना के बेस से बेहद करीब है.
  • इस पूरे विवाद से भारत की चिंता इस बात को लेकर है इस इलाके से चीन की तोपें चिकेन्स नेक कहे जाने वाली इस संकरी पट्टी के बेहद करीब तक आ सकती हैं, जो उत्तर पूर्व को पूरे भारत से जोड़ती है.
  • 28 अगस्त कोभारत और चीन के बीच डोकलाम को लेकर 73 दिनों से चला आ रहा विवाद महज 3 घंटे की सकारात्मक बातचीत से सुलझ गया.
  • June first week:  China removed an old bunker of the Indian Army at the tri-junction by using a bulldozer after the Indian side refused to accede to its request to dismantle it.
  • Intervening night of June 4-5: Chinese road-construction unit stopped by India at the Dokalam plateau
  • June 16: People’s Liberation Army (PLA) attempts to construct a road in Doka La area
  • June 20: Ambassador of Bhutan to India ‘Vetsop Namgyel’ lodges protest against Chinese intervention
  • June 23: China stops first batch of Kailash Mansarovar pilgrims, cites damage to roads from rains in Tibet region
  • June 28: Army chief Bipin Rawat visits Sikkim to take a stock of the situation at the tri-junction
  • June 29: China shows Doklam as part of its territory in a map
  • June 29: China tests a 35-tonne military tank near the Nathu La border
  • July 6: PM Modi meet President Xi during G20 Meet
  • August 2: Chinese foreign ministry released a 15-page official position statement
  • August 3: Foreign Minister Sushma Swaraj told the Rajya Sabha “War is not a solution to anything.
  • August 4: On Doklam Standoff, China Says ‘Our Restraint Has A Bottom Line’- Chinese Foreign Ministry
  • August 4: China’s CCTV on Aug 4, 2017 shows video of live-fire exercises in Tibet. 
  • August 20: People’s Liberation Army’s Western Theatre Command, Tibet  has conducted military exercises involving armoured forces
  • August 21: Home Minister Rajnath Singh Says China Tension To End Soon.
  • August 28: India and China on disengaged their troops at Doklam. 

चीनी सेना ने LAC पर कब-कब की घुसपैठ

232020- The first four months of this year, according to official data, witnessed 170 Chinese transgressions across the LAC, including 130 in Ladakh. There were only 110 such transgressions in Ladakh during the same period in 2019. But in 2019, the year when Prime Minister Narendra Modi and Chinese President Xi Jinping met at Bishkek and Mahabalipuram, there was also a 75 per cent surge in Chinese transgressions in Ladakh — 497 as against 284 transgressions in 2018. Nearly three-quarters of the transgressions, data since 2015 show, have taken place in the western sector of the LAC, which falls in Ladakh. The eastern sector, which falls in Arunachal Pradesh and Sikkim, witnessed almost one-fifth of the Chinese transgressions. 

भारत-चीन सीमा विवाद 

आखिर क्या है भारत चीन सीमा विवाद… कैसे शुरु हुआ सीमा विवाद… कितनी बार सीमाओं का हुआ निर्धारण… कहां और कौन सी सीमा भारत और चीन के बीच लगती हैं… पूर्व में अरुणाचल प्रदेश और पश्चिम में लद्दाख पर चीन क्यों इतना बौखलाया हुआ है… सब कुछ जानिए एक साथ…

भारत से लगती चीन की सीमा-

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Johnson Line, 1865- भारत और चीन के बीच सीमा विवाद की जड़ में अक्साई चिन शामिल है। भारत इस हिस्से पर अपना दावा करता है, तो वहीं चीन इसे अपना इलाका बताता रहा है। इसकी शुरुआत होता है 1865 में। 1865 में सर्वे ऑफ इंडिया के अफसर William Johnson ने इलाके का जो नक्शा बनाया, उसमें अक्साई चिन को कश्मीर के साथ बताया। इस सीमा रेखा को लानाक-ला-पास (जॉनसन लाइन 1865) के नाम से जाना गया। इसके बाद जॉनसन को हटा दिया गया। भारत इसी लाइन के आधार पर अपना दावा अक्साई चिन पर करता है।

Macartney–MacDonald Line, 1899- इसके कुछ सालों बाद साल 1889 तक ब्रिटेन और चीन के रिश्ते काफी सुधर गए। जिसके बाद ब्रिटेन ने एकबार फिर इलाके का पुनर्निधारण करने का सोचा और इसका जिम्मा George Macartney (the British consul general at Kashgar, Xinjiang, China) और Claude Maxwell MacDonald (British Diplomat) को दिया। जिन्होंने अक्साई चिन का ज्यादातर हिस्सा चीन में डाल दिया। इस लाइन को कोंगका-ला-पास (मैकार्टनी-मैक्डॉनाल्ड 1899) के नाम से जाना गया। चीन इसी लाइन के आधार पर अक्साई चिन पर अपना हक जताता है।

  • Macartney–Macdonald Line का उपयोग 1908 तक भारत के ब्रिटिश मानचित्रों पर किया गया था। लेकिन 1911 के Xinhai Revolution के बाद चीन में केंद्रीय शक्ति का पतन हुआ और प्रथम विश्व युद्ध के अंत तक, ब्रिटिश आधिकारिक Johnson Line को आधिकारिक लाइन बना लिया। 1927 में सीमा रेखा को फिर से समायोजित किया गया और Johnson Line को ही आधिकारिक लाइन माना गया। 1947 में स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद, भारत सरकार ने अपनी आधिकारिक सीमा के आधार के रूप में जॉनसन लाइन का उपयोग किया, जिसमें अक्सिन चिन शामिल था। On 1 July 1954 Prime Minister Jawaharlal Nehru wrote a memo directing that the maps of India be revised to show definite boundaries on all frontiers. Up to this point, the boundary in the Aksai Chin sector, based on the Johnson Line, had been described as “undemarcated.”

McMahon Line, 1914- साल 1913-1914 में जब ब्रिटेन और तिब्बत के बीच सीमा निर्धारण के लिए ‘शिमला सम्मेलन’ हुआ तो इस बातचीत के मुख्य वार्ताकार थे सर हेनरी मैकमोहन. इसी वजह से इस रेखा को मैकमोहन रेखा के नाम से जाना जाता है. शिमला समझौते के दौरान ब्रिटेन, चीन और तिब्बत, अलग-अलग पार्टी के तौर पर शामिल हुए थे. भारतीय साम्राज्य में तत्कालीन विदेश सचिव सर हेनरी मैकमहोन ने ब्रिटिश इंडिया और तिब्बत के बीच 890 किलोमीटर लंबी सीमा खींची. इसमें तवांग (अरुणाचल प्रदेश) को ब्रिटिश भारत का हिस्सा माना गया. मैकमहोन लाइन के पश्चिम में भूटान और पूरब में ब्रह्मपुत्र नदी का ‘ग्रेट बेंड’ है. यारलुंग जांगबो के चीन से बहकर अरुणाचल में घुसने और ब्रह्मपुत्र बनने से पहले नदी दक्षिण की तरफ बहुत घुमावदार तरीके से बेंड होती है. इसी को ग्रेट बेंड कहते हैं।

  • 1937 में मिली थी अंतरराष्ट्रीय मान्यता- शिमला समझौता प्रथम विश्व युद्ध से पहले हुआ था. लेकिन वर्ल्ड वॉर के दौरान स्थितियां बदल गईं. काफी समय बाद 1937 में अंग्रेज़ों की- अ कलेक्शन ऑफ ट्रीटीज़, ऐंगेज़मेंट्स ऐंड सनद्स रिलेटिंग टू इंडिया ऐंड नेबरिंग कंट्रीज़ नाम से एक किताब आई. विदेश विभाग में ब्रिटिश भारत सरकार के अंडर सेक्रटरी सी यू एचिसन ने इसे तैयार किया था. ये भारत और उसके पड़ोसी देशों के बीच हुई संधियां और समझौते का आधिकारिक संग्रह था. इसमें नई जानकारियां भी अपडेट हुई और मैकमोहन रेखा को अंतरराष्ट्रीय मान्यता मिली।
  • चीन नहीं मानता इस रेखा को- वहीं चीन इसे मानने से ये कहते हुए इनकार करता है कि मैकमहोन लाइन के बारे में उसको बताया ही नहीं गया था. उससे बस इनर और आउटर तिब्बत बनाने के प्रस्ताव पर बात की गई थी. उसे अंधेरे में रखकर तिब्बत के प्रतिनिधि लोनचेन शातरा और हेनरी मैकमहोन के बीच हुई गुप्त बातचीत की अंडरस्टैंडिंग पर मैकमहोन रेखा खींच दी गई।

LAC (Line of Actual Control) पर क्या है असल विवाद… जानिए

भारत का मानना है कि चीन के साथ लगी एलएसी करीब 3,488 किलोमीटर की है, जबकि चीन का कहना है यह बस 2000 किलोमीटर तक ही है। LAC (Line of Actual Control) दोनों देशों के बीच वह रेखा है जो दोनों देशों की सीमाओं को अलग-अलग करती है। लेकिन चीन की अड़ंगी के कारण से LAC की स्पष्ट परिभाषा आजतक तय नहीं हो पाई है।

LAC तीन सेक्‍टर्स में बंटी हुई है जिसमें पहला है

  1. अरुणाचल प्रदेश से लेकर सिक्किम तक का हिस्‍सा,
  2. मध्‍य में आता है हिमाचल प्रदेश और उत्‍तराखंड का हिस्‍सा
  3. पश्चिम सेक्‍टर में आता है लद्दाख का भाग

पूर्वी सेक्‍टर में LAC पर विवाद- दोनों देशों के बीच पूर्वी सेक्‍टर में मैक्‍मोहन रेखा है(According to 1914 Simla Convention- It extends for 890km from Bhutan in the west to 260km east of the great bend of the Brahmaputra River in the east, largely along the crest of the Himalayas) और यहीं पर स्थिति को लेकर विवाद है। भारत और चीन के बीच पूर्वी सेक्‍टर में जो LAC है, वहीं भारत की अंतरराष्‍ट्रीय सीमा भी है। लेकिन कुछ हिस्‍से जैसे Longju और Asaphila तक ही यह सीमा है। मध्‍य क्षेत्र में भी एलएसी को लेकर विवाद है लेकिन संक्षिप्‍त में बॉर्डर Barahoti मैदान तक है।

पश्चिम सेक्‍टर में LAC पर विवाद- दोनों देशों के बीच पश्चिमी सेक्‍टर में उस समय बड़ा विवाद हुआ था जब सन् 1959 में चीन के प्रधानमंत्री चाऊ-एन-लाई और भारत के पीएम जवाहरलाल नेहरु के बीच चिट्ठियों का आदान-प्रदान हुआ था। सन् 1956 में पहली बार दोनों ने इस प्रकार की रेखा का जिक्र हुआ था। उस समय चिट्ठी में झोऊ ने कहा था कि एलएसी पूर्व में मैकमोहन लाइन से लेकर पश्चिम के छोर तक है। इस बात की जानकारी पूर्व नेशनल सिक्‍योरिटी एडवाइजर रहे Shivshankar Menon की किताब से मिलती है- Choices: Inside the Making of India’s Foreign Policy। किताब में स्पष्ट है- LAC was “described only in general terms on maps not to scale” by the Chinese.

1962 युद्ध के बाद चीन ने दावा किया कि 1959 में वह LAC से 20 किलोमीटर पीछे चला गया था। चाऊ-एन-लाई ने युद्ध के बाद नेहरु को फिर चिट्ठी लिखी और इस बार लिखा- “To put it concretely, in the eastern sector it coincides in the main with the so-called McMahon Line, and in the western and middle sectors it coincides in the main with the traditional customary line which has consistently been pointed out by China” अर्थात ‘संक्षिप्‍त में पूर्वी सेक्‍टर में यह मैकमोहन लाइन से मिलती है और पश्चिम और मध्‍य सेक्‍टर में यह पारंपरिक रेखा के साथ मिलती है।’ चीन ने बार-बार इस तरफ इशारा किया था।

चीन द्वारा LAC के नाम पर भारत की प्रतिक्रिया क्या थी- डोकलाम विवाद के दौरान चीन के विदेश मंत्रालय ने भारत से 1959 की LAC पर टिके रहने के लिए कहा था। हालांकि भारत ने 1959 और फिर 1962 दोनों ने ही साल में LAC की संकल्‍पना को मानने से इनकार कर दिया था। यहां तक युद्ध के समय भी नेहरु की तरफ से कहा गया था- “There is no sense or meaning in the Chinese offer to withdraw twenty kilometres from what they call ‘line of actual control’. What is this ‘line of control’? Is this the line they have created by aggression since the beginning of September?” अर्थात ‘इस बात का कोई तर्क या फिर कोई मतलब नहीं है कि चीनी 20 किलोमीटर पीछे चले गए हैं और इसे वह लाइन ऑफ एक्‍चुअल कंट्रोल कह रहे हैं। यह ‘नियंत्रण रेखा’ क्या है? क्या यह रेखा उन्होंने सितंबर की शुरुआत में अपनी आक्रामकता से निर्मित की है?’ भारत की तरफ से होने वाले इस विरोध चीन की तरफ से उस लाइन को लेकर था जो कई तरह से गलत थी।

मेनन द्वारा वर्णित भारत की आपत्ति थी- Chinese line “was a disconnected series of points on a map that could be joined up in many ways; the line should omit gains from aggression in 1962 and therefore should be based on the actual position on September 8, 1962 before the Chinese attack; and the vagueness of the Chinese definition left it open for China to continue its creeping attempt to change facts on the ground by military force”.

भारतीय राजनयिक Shyam Saran की किताब, ‘How India Sees the World’ के मुताबिक 1991 में तत्‍कालीन चीनी पीएम Li Peng भारत दौरे पर आए थे। यहां पर तत्‍कालीन भारतीय पीएम पीवी नरसिम्‍हा राव ने ली के साथ LAC शांति और स्थिरता बनाए रखने की अहमियत पर जोर दिया था। इसी समय भारत ने औपचारिक तौर पर LAC की संकल्‍ना को स्‍वीकार कर लिया था।

भारत ने LAC कब स्वीकार किया- इसके बाद राव सन् 1993 में चीन के दौरे पर गए और यहां पर दोनों देशों के बीच LAC पर शांति बरकरार रखने के लिए एक समझौते पर साइन हुए। इस एग्रीमेंट में LAC का जो जिक्र था। वह LAC 1959 या फिर 1962 की LAC नहीं थी। वह सिर्फ समझौता साइन होने वाली LAC से था। कुछ क्षेत्रों में मौजूद मतभेदों को समेटने के लिए, दोनों देशों ने इस बात पर सहमति जताई थी कि सीमा मुद्दे पर ज्वॉइन्‍ट वर्किंग ग्रुप अस्तित्‍व में आएगा। यह ग्रुप LAC पर स्थिति को स्‍पष्‍ट करेगा। मेनन के मुताबिक भारत और चीन के बीच 80 के दशक के मध्‍य तेजी से संपर्क बढ़ा था। सन् 1976 में भारत सरकार की तरफ से चाइना स्‍टडी ग्रुप का गठन किया गया था। इसके बाद गश्‍ती सीमा, आपसी संपर्कों के नियम और बॉर्डर पर भारत की मौजूदगी के लिए कुछ नियम तय किए गए थे।

LAC की परिभाषा तय करने का अनुरोध खारिज- 1988 में तत्‍कालीन पीएम राजीव गांधी चीन के दौरे पर गए थे। इस समय दोनों देशों के बीच Sumdorongchu में टकराव जारी था। मेनन के मुता‍बिक दोनों देश एक सीमा समझौते पर राजी हुए थे। साथ ही बॉर्डर पर शांति और स्थिरता को बरकरार रखने पर बात हुई थी। मेनन की मानें तो साल 2002 से ही LAC को स्‍पष्‍ट करने की प्रक्रिया जारी है, लेकिन LAC की परिभाषा तय करने वाला कोई आधिकारिक नक्‍शा सार्वजनिक तौर पर उपलब्‍ध नहीं है।

2015 में LAC की स्‍पष्‍ट परिभाषा तय करने का दिया प्रस्‍ताव, चीन ने किया खारिज- 2015 में पीएम नरेंद्र मोदी चीन की यात्रा पर गए थे। इस दौरान उन्‍होंने चीन से LAC की स्‍पष्‍ट परिभाषा तय करने का प्रस्‍ताव दिया था लेकिन चीन ने उसे मानने से इनकार कर दिया। During his visit to China in May 2015, PM Narendra Modi’s proposal to clarify the LAC was rejected by the Chinese. Deputy Director General of the Asian Affairs at the Foreign Ministry, Huang Xilian later told Indian journalists that “We tried to clarify some years ago but it encountered some difficulties, which led to even complex situation. That is why whatever we do we should make it more conducive to peace and tranquillity for making things easier and not to make them complicated.”

क्या LAC दोनों देशों के बीच claim line है- Not for India. India’s claim line is the line seen in the official boundary marked on the maps as released by the Survey of India, including both Aksai Chin and Gilgit-Baltistan. In China’s case, it corresponds mostly to its claim line, but in the eastern sector, it claims entire Arunachal Pradesh as South Tibet. However, the claim lines come into question when a discussion on the final international boundaries takes place, and not when the conversation is about a working border, say the LAC.

लद्दाख में क्या सीमा विवाद है- जब भारत स्वतंत्र हुआ तो को अंग्रेजों द्वारा की गई संधियां भारत को हस्तांतरित कर दी गई थीं लेकिन जब McMahon Line पर 1914 में Shimla Agreement हुआ जिस पर ब्रिटिश भारत ने हस्ताक्षर किए थे, उस समय जम्मू और कश्मीर की रियासत के लद्दाख प्रांत का अक्साई चिन British India का हिस्सा नहीं था, हालांकि यह British Empire का हिस्सा था। पूर्वी सीमा को तो 1914 में अच्छी तरह से परिभाषित किया गया था, लेकिन पश्चिम में लद्दाख में यह नहीं हो पाया था।

AG Noorani (Lawyer, constitutional expert and political commentator) अपनी किताब “India-China Boundary Problem 1846-1947” में लिखते हैं- Sardar Vallabhbhai Patel’s Ministry of States published two White Papers on Indian states. The first, in July 1948, had two maps: one had no boundary shown in the western sector, only a partial colour wash; the second one extended the colour wash in yellow to the entire state of J&K, but mentioned “boundary undefined”. The second White Paper was published in February 1950 after India became a Republic, where the map again had boundaries which were undefined.

जुलाई 1954 में प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने एक निर्देश जारी किया- “all our old maps dealing with this frontier should be carefully examined and, where necessary, withdrawn. New maps should be printed showing our Northern and North Eastern frontier without any reference to any ‘line’. The new maps should also be sent to our embassies abroad and should be introduced to the public generally and be used in our schools, colleges, etc”. यह मानचित्र, जैसा कि आधिकारिक तौर पर आज तक इस्तेमाल किया जाता है, चीन के साथ व्यवहार का आधार बना।

LAC पाकिस्तान के साथ नियंत्रण रेखा LoC से कैसे अलग है- कश्मीर युद्ध के बाद संयुक्त राष्ट्र संघ द्वारा 1948 की संघर्ष विराम रेखा से एलओसी का उदय हुआ। दोनों देशों के बीच शिमला समझौते के बाद 1972 में इसे LoC के रूप में नामित किया गया था। एलएसी, इसके विपरीत, केवल एक अवधारणा है- यह दोनों देशों द्वारा सहमत नहीं है, न तो नक्शे पर चित्रित किया गया है और न ही जमीन पर सीमांकित किया गया है। अक्टूबर 2013 में, दोनों पक्षों ने सीमांकित रक्षा सहयोग समझौते पर हस्ताक्षर किए, जो कि सीमांकित सीमा के साथ किसी भी भड़क को रोकने के लिए थे। इसमें सैन्य स्तर और राजनयिक स्तर के संवाद तंत्र दोनों शामिल हैं। उम्मीद है कि भारत अपनी बनाई हुई स्तिथि को क़ायम रखेगा और संवाद बरक़रार रखेगा।

India-China-Relations

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सोमरस- क्या है? शराब या चमत्कारिक औषधि

डॉ. संदीप कोहली… कीबोर्ड के पत्रकारsoma_rasa

वैदिक साहित्य में वनस्पतियों के उल्लेख है-किंशुक, करञ्ज, खदिर, दूर्वा, पिप्पल, कमल,आँवला, सेमल, गोधूम मसूर, बेर, अपामार्ग, अर्क, अश्वत्थ, तिल, अर्जुन, तिलपिप्पली, पृश्नपर्णी, विल्ब, उदुम्बर, इक्षु, ल्णक्षा सहदेवी, सोम, मुञ्ज, गुग्गुल आदि- वैदिक काल में वनस्पतियों का विशेष महत्व था। वनस्पतियां जीवनदायिनी मानी जाती थी। शरीर में हुए रोगों को दूर करती थीं। यजुर्वेद- औषधियों और वनस्पतियों से शान्ति-प्राप्ति की कामना करता है। इससे यही सिद्ध होता है कि मानव जीवन वनस्पतियों पर आधारित रहा है। वेदों में जिन प्रमुख वनस्पतियों का उल्लेख है उसमें से एक है ‘सोम’। और इसी सोम से बनाया जाता था ‘सोमरस’। वही सोमरस जिसका सेवन देवता किया करते थे। देवताओं से जुड़े हर ग्रंथ, कथा, संदर्भ में देवगणों को सोमरस का पान करते हुए बताया जाता है। इन समस्त वर्णनों में जिस तरह सोमरस का वर्णन किया जाता है। अब प्रश्न उठता है- क्या सोमरस मदिरा (शराब) थी या औषधि । 

क्या है सोमरस- सबसे पहली और महत्वपूर्ण बात यह है कि सोमरस मदिरा (शराब) की तरह कोई मादक पदार्थ नहीं है। हमारे वेदों में सोमरस का विस्तृत विवरण मिलता है। विशेष रूप से ऋग्वेद में तो कई ऋचाएं विस्तार से सोमरस बनाने और पीने की विधि का वर्णन करती हैं।Somras

सोम एक रस है- रस शब्द का सर्वप्रथम व्यवहार वेदों में हुआ। ऋग्वेद में रस  शब्द का प्रयोग कभी मधु, कभी गौ-क्षीर और कभी सोमरस को प्रकट करने के लिए हुआ है। एक स्थल पर रस को उदक के पर्याय के रूप में ग्रहण किया गया है। इस प्रकार कहा जा सकता है कि वेदों में “रस” शब्द से तात्पर्य किसी भी तरलपदार्थ से है और वह “जल” भी हो सकता है।

अथर्ववेद में रस शब्द से तात्पर्य वनस्पतियों के रस से है । वहाँ वनस्पतियों के रस में जलों के रस के मिलने की कामना की गयी है । इसी संहिता के एक अन्य मन्त्र में जलों के रसको वनस्पतियों के रस से पहले उत्पन्न माना गया है। परन्तु सभी वनस्पतियों की अपेक्षा अधिक महत्त्वपूर्ण है “सोमरस के अर्थ में रस का प्रयोग।”

सोम हिमालय पर्वत पर प्राप्त होने वाली एक लता है जिसको कूटने के बाद निचोड़कर उसका रस निकाला जाता हे और देवतागण उसका पान करते हैं। यह सोम रस वैदिक देवताओं कासबसे प्रिय पेय था। ऋग्वेद में सोमरस का अत्यधिक उत्कृष्ट वाणी में स्तवन (स्तुति) किया गया है।

सोम संसार को धारण करने वाला, इन्द्रिय पोषक रस को धारण करता हुआ, उत्तम वीरता प्रदान करने वाला और हिंसा से रक्षा करने वाला है । यह सोम अग्नि, वायु और सूर्य इन तीनों रूपों को धारण करने वाला है। सोम की सामर्थ्य इसकी इस विशेषता से ही है कि संसार का प्रत्येक जीव सोम के तेज से उत्पन्न होता है और यह जगत् इसके आश्रित है। यह सोम रस आरम्भिक काल में देवताओं के द्वारा स्फूर्तिदायक पेय के रूप में ग्रहण किया जाता रहा होगा क्योंकि वेद में कुछ ऐसे उद्धरण प्राप्त होते हैं जिनमें देवता लोग सोम को पाने के लिए प्रायः उनकी मंत्रों और स्तुतियों से प्रार्थना करते थे जिस प्रकार मल्लाह नाव चलाता है उसी प्रकार यह सोम यज्ञ में यथार्थ वचन रूप स्तुतियों को प्रेरित करता है। यह सोम चेतना को आत्मसात् कर लेता है । जिस प्रकार रथी अपने अश्व को चलाता है उसी प्रकार यह सोम अपनी तरंगों को चलाता है। सोम को कहीं विश्वस्रष्टा, क्रान्तकर्मा, रक्षक एवं आनन्ददायक के रूप में वर्णित किया गया है।

इस प्रकार सोम के अर्थ में रस का प्रयोग विशिष्ट हो गया। सोमरस का आस्वाद अपूर्व था। इसमें कुछ ऐसी विशेषतायें थीं, जिनके कारण उसके पान करने से विचित्र आनन्द की प्राप्ति होती थी, साथ ही शरीर और मन में स्फूर्ति तथा मद का संचार होता था। ऋग्वेद की अनेक ऋचाओं में वाणी के लिए प्रयुक्त स्वादु, मधु आदि विशेषणों का प्रयोग इस विचार को प्रमाणित करता है कि रस के लिये वाक् शब्द के प्रयोग का भी वैदिक साहित्य में विवरण उपलब्ध होता है-

वचः स्वादो स्वादीयो रुद्राय वर्धनम् ।। ‘अर्थात् रुद्र को प्रसन्न करने के लिये स्वादु से भी स्वादु वचन। इसके अतिरिक्त ‘पिबत्वस्य गिर्वणः’, ‘मध्व ऊषु मधुयुवा रुद्रा सिषक्तिं पिप्युषी, वाचा वदामि’मधुमद् भूयासं मधुसन्दृशः’,’ तथा ‘वाचों मधु पृथिवि! छेहि मह्यम्” आदि से यहस्पष्ट हो जाता है कि रस के अर्थ में ‘वाक्’ का प्रयोग किया जाता है

ऋग्वेद में उल्लेखित है- “जो पुरुष पवमान ऋचाओं (सोमयुक्त) के रूप में ऋषियों द्वारा सम्भृत रस का पान करता है, वह पवित्र और स्वादिष्ट अन्न का आनन्द लेता है उस वेद वाणी के लिए देवी सरस्वती दूध, घृत और सोम का दोहन करती हैं। यहाँ ‘पावमान’ शब्द सोम के लिए प्रयुक्त है ।

भौतिक गुणों के साथ आध्यात्मिकता का समावेश- सोम एक प्रकार का भौतिक रस है। परन्तु जब इसका प्रयोग आध्यात्मिक रूप में किया जाता है तो यह विश्वव्यापक और अमरता को प्राप्त कर लेता है। जहां भौतिक रस के रूप में यह केवल मानवीय है, वहीं अध्यात्म के रूप में दैवीय स्पर्श से अलंकृत हो जाता है। रस के इन दोनों ही रूपों से सम्बन्धित मन्त्र ऋग्वेद में सोम की स्तुतियों में प्राप्त होते हैं ।

उपनिषदों में जिस प्रकार वेदों की अनेक भौतिक कल्पनाओं को सूक्ष्म आध्यात्मिक रूप दे दिया गया उसी प्रकार रस का भी आध्यात्मिक रूपान्तर हुआ। जहां वेदों में रस केवल मधु या सोमरस अथवा दुग्ध का ही अर्थ देता रहा। वहीं उपनिषदों में इनके मूल स्थित स्वाद की भावना का आधार लेकर यही रस मुख्यार्थ का बाधक होकर प्राणस्वरूपमाना जाने लगा। दूसरे शब्दों में उपनिषदों में रस द्रव्य के अर्थ में तो नहीं परन्तु द्रव्य-जनितशक्ति और आनन्द के रूप में प्रयुक्त हुआ । इसके अतिरिक्त न केवल द्रव्य-जनितशक्ति के रूप में बल्कि इससे भी सूक्ष्मतर रूप में तन्मात्राओं के अर्थ में प्रयुक्त हुआ है।

वृहदारण्यक उपनिषद् में ‘प्राणो वा अंगानां रसः” कहकर रस को सार भूततत्त्व कहा गया है । तैत्तिरीय उपनिषद् में स्वयं ब्रह्म को ही रस स्वरूप कहा गया है ।वह अर्थात् ब्रह्म रस स्वरूप है ।

शक्ति, तन्मयता और आनन्द का समावेश- उपर्युक्त विवरण के अतिरिक्त ‘आनन्द’ तथा ‘काम’ के रूप में भी रस के अर्थका विकास वैदिक युग में ही हुआ । आनन्द शब्द सम्पूर्ण ऋग्वेद में दो बार प्राप्त होताहै । वह भी सोम की स्तुति में ही।एक मन्त्र के अनुसार ऋत्विज जन सोम की स्तुतिमें छन्दोबद्ध वर्णन करते हुये सोम लता को पत्थर पर पीसने से उत्पन्न ध्वनि से आनन्द काअनुभव करते थे । इसका अभिप्रायः यह हो सकता है कि जब ऋत्विज् जन सोम लताको पत्थर पर पीसते थे और साथ-साथ सोम की स्तुति में मंत्रों का पाठ भी करते थे तबपीसने से उत्पन्न ध्वनि और मंत्रों के उच्चारण से एक आनन्द प्राप्त होता था ।

आनन्द की प्रकृति को समझने से “कामस्य यत्राप्ताः कामाः इस विचार कोभी स्थान प्राप्त होता है । इसके अनुसार व्यक्ति की सभी इच्छाओं के पूर्ण होने सेअथवा सभी इच्छाओं से रहित हो जाने से परम आनन्द की प्राप्ति होती है 12 काम(इच्छा) और रस की इस दशा का वर्णन अर्थर्ववेद में इस प्रकार प्राप्त होता है –

“अकामोधीरो अमृतः स्वयंभू रसेन तृप्तो न कुतश्च नोनः”

अर्थात् वह आत्मा अकाम् अर्थात्इच्छाओं से रहित, धीर, अमृत, स्वयं उत्पन्न; अपने रस से स्वतः तृप्त रहता है।  अतः कहा जा सकता है कि सोम रस के संसर्ग से रस की अर्थ परिधि में क्रमशः शक्ति, तन्मयता और अन्त में आनन्द का समावेश हो गया ।

सोम और सुरा में अंतर

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हमारे धर्मग्रंथों में मदिरा के लिए मद्यपान शब्द का उपयोग हुआ है, जिसमें मद का अर्थ अहंकार या नशे से जुड़ा है। इससे ठीक अलग सोमरस के लिए सोमपान शब्द का उपयोग हुआ है, जहां सोम का अर्थ शीतल अमृत बताया गया है।

वैदिककाल में मद्यपान का प्रचलन- वैदिक कालीन समाज कृषि प्रधान था। और वैदिक काल में सोम और सुरा का प्रचलन था। सोमयज्ञो में सोम एवं सोत्रामणी में सुरापान किया जाता था। वैदिक आर्य अपने इष्ट देवता इन्द्र को सोम व सुरा अर्पित करने के बाद पीते थे।

ऋग्वेद में दो प्रकार के मादक पेयों सोम और सुरा का उल्लेख है- सोम पुरोहितों और देवताओं द्वारा ग्रहण करने वाला पेय पदार्थ था। सुरा जन-साधारण द्वारा उपयोग किया जाने वाला पेय पदार्थ था। ऋग्वेद‘ में मद्य का एक नाम मत्सर भी है। इसका प्रसिद्ध अर्थ लोभ है।

ऋग्वेद में सोम और सुरा में फर्क बताया गया है ऋग्वेद में सुरा की घोर निंदा करते हुए कहा गया है-

हृत्सु पीतासो युध्यन्ते दुर्मदासो न सुरायाम्।।

अर्थात: सुरापान करने या नशीले पदार्थों को पीने वाले अक्सर युद्ध, मार-पिटाई या उत्पात मचाया करते हैं।

तैत्तिरीय ब्राह्मण‘ (1-3-3-3) का कहना है:

एतद् वै देवानां परममन्नं यत्सोम:एतन्मनुष्याणां यत्सुरा.

अर्थात: सोम देवताओं का परम अन्न है और सुरा मनुष्यों का परम अन्न है.

शतपथब्राह्मण‘ (12-7-3-94) कहता है:

यशो हि सुरा.

अर्थात: सुरा से यश फैलता/मिलता है

तैत्तिरीय ब्राह्मण‘ ( 1-3-3-4) कहता है:

पुमान् वै सोम: स्त्री सुरा (तैत्तिरीय ब्राह्मण 1-3-3-4)

अर्थात: सोम को पुंलिंग (पुरुष) और सुरा (स्त्री) को उस की पत्नी कहा गया है।

सौत्रामणी नामक यज्ञ में तो सुरापान का विधान है

सौत्रामण्यां सुरां पिबेत्. शतपथब्राह्मण (12-8-1-2)

इसीलिए सौत्रामणी यज्ञ को सुरावाला (सुरावान्) यज्ञ कहा है

सुरावान् वा एष बहिंषद् यज्ञो यत् सौत्रामणी।

देवताओं के लिए सुर‘ शब्द का प्रयोग होता है, जो उन के सुरापान करने के कारण ही अस्तित्व में आया है. आप्टे ने अपने कोश में ‘सुर’ शब्द का अर्थ बताते हुए ‘रामचरितम्’ का उद्धरण दिया है

सुराप्रतिग्रहाद् देवा: सुरा इत्यभिविश्रुता:.

अर्थात: सुरा ग्रहण करते रहने के कारण देवता ‘सुर’ नाम से प्रसिद्ध हुए।

सोमरस और सुरा में फर्क है ऋग्वेद में शराब की घोर निंदा करते हुए कहा गया है-

हृत्सु पीतासो युध्यन्ते दुर्मदासो न सुरायाम्।।

अर्थात: सुरापान करने या नशीले पदार्थों को पीने वाले अक्सर युद्ध, मार-पिटाई या उत्पात मचाया करते हैं।

सुरा कैसे सोमरस से अलग है… सुरा बनाने की विधि

यजुर्वेद के एक मन्त्र में सुराकार अर्थात्सुरा बनाने वाले की ओर सङ्केत किया गया है – कीलालाय सुराकारम् । इस मन्त्र का कथन है कि सुराबनाने वाला सुराकार है। यजुर्वेद के अन्य मन्त्रों में सुरा निर्माण की प्रक्रिया का भी वर्णन किया गया है-

शष्पाणि… तोक्मानि… सोमस्य लाजा.

सोमांशवो मधु।

मासरं… नग्नहुः । रूपमेतद् उपसदाम्

एतत् तिस्त्रो रात्री: सुराऽऽसुता।

अर्थात: इन मन्त्रों में कहा गया है कि अङ्कुरित चाँवल, अङ्कुरित जौ और खील का चूरा, सोमरस में डालकर तीन रात तक रखने से सुरा तैयार हो जाती है। 

वेदों में दी गई इन ऋचाओं में सोमरस का विस्तृत वर्णन किया गया है… ऋग्वेद की एक ऋचा में लिखा गया है कि ‘यह निचोड़ा हुआ शुद्ध दधिमिश्रित सोमरस, सोमपान की प्रबल इच्छा रखने वाले इन्द्रदेव को प्राप्त हो।। (ऋग्वेद-1/5/5) …हे वायुदेव! यह निचोड़ा हुआ सोमरस तीखा होने के कारण दुग्ध में मिश्रित करके तैयार किया गया है। आइए और इसका पान कीजिए।। (ऋग्वेद-1/23/1)

शतं वा य: शुचीनां सहस्रं वा समाशिराम्। एदुनिम्नं न रीयते।। (ऋग्वेद-1/30/2)

अर्थात: नीचे की ओर बहते हुए जल के समान प्रवाहित होते सैकड़ों घड़े सोमरस में मिले हुए हजारों घड़े दुग्ध मिल करके इन्द्रदेव को प्राप्त हों।

इन सभी मंत्रों में सोम में दही और दूध को मिलाने की बात कही गई है, जबकि यह सभी जानते हैं कि शराब में दूध और दही नहीं मिलाया जा सकता। भांग में दूध तो मिलाया जा सकता है लेकिन दही नहीं, लेकिन यहां यह एक ऐसे पदार्थ का वर्णन किया जा रहा है जिसमें दही भी मिलाया जा सकता है। अत: यह बात का स्पष्ट हो जाती है कि सोमरस जो भी हो लेकिन वह शराब या भांग तो कतई नहीं थी और जिससे नशा भी नहीं होता था अर्थात वह हानिकारक वस्तु तो नहीं थी। देवताओं के लिए समर्पण का यह मुख्य पदार्थ था और अनेक यज्ञों में इसका बहुविध उपयोग होता था। सबसे अधिक सोमरस पीने वाले इन्द्र और वायु हैं। पूषा आदि को भी यदा-कदा सोम अर्पित किया जाता है, जैसे वर्तमान में पंचामृत अर्पण किया जाता है।

ऋग्वेद में रस शब्द का प्रयोग कभी मधुकभी गौ-क्षीरकभी सोमरस अथवा कभी रस युक्तता को प्रकट करनेके लिए हुआ है ।

ऋग्वेद के मन्त्रों में द्यावापृथिवी में हाइड्रोजन की उपस्थिति सोम के रूप में कही गयी है –

यं सोममिन्द्र पृथिवीद्यावा गर्भं न माता बिभृतस्त्वाया।

धृतेन द्यावापृथिवी अभीवृते धृतश्रिया धृतपचा धृतावधा।

अर्थात: उपर्युक्त मन्त्रों में हाइड्रोजन की उपस्थिति पृथिवी और आकाश में सर्वत्र बताते हुए हाइड्रोजन को ही द्यावापृथिवी में वृद्धि, विस्तार और प्रकाश का कारण कहा है साथ ही मन्त्र में यह भी कहा गया है किसोम को द्यावापृथिवी ने गर्भस्थ बालक की तरह अपने अन्दर धारण किया हुआ है।

ऋग्वेद के एक मन्त्र का कथन है कि सोम देवों का पेय पदार्थ है –

अश्नवत् सोमसुत्वा।

अर्थात: सोम का अर्क निकालने की प्रक्रिया को सोम सुति और सोमसुत्या कहते थे और इस प्रकिया सेरस निकालने वाले सोमसुत् और सोमसुत्वन् कहलाते हैं। इस कार्य को पवित्र माना गया है। ऋग्वेद कापूर्ण नवम् मण्डल (११०८ मन्त्र) सोम के विषय में हैं। द्राक्षासव के समान ही सोम का भी आसव तैयारकिया जाता था जिसे देवता पेय पदार्थ के रूप में ग्रहण करते थे।

ऋग्वेद में कहा गया है कि जल में सोम आदि रसों को मिलाकर सेवन करने से मनुष्य दीर्घायु होता है-

यद् देवा अदः सलिलेसुसंरब्धा अतिष्ठत।

मन्त्र में कहा गया है कि जल में हमेशा देव तैयार होते हैं तथा जल में कोई भी कभी भी इच्छानुसार परीक्षण कर सकता है

इस मन्त्र का कथन है कि सोम के मिश्रण से तीन प्रकार के पेय बनाये जाते हैं जिन्हें सामूहिक रूप से त्र्याशिर: कहते हैं।

सोमा इव त्र्याशिरः।

दही के मिश्रण से बना पेय दध्याशिर्, सत्तू के मिश्रण से बना पेय यवाशिर् एवं दूधआदि के मिश्रण से बना पेय गवाशिर् कहलाता है। ऋग्वेद के एक मन्त्र में मध्वो रसम् कहकर मधुरसायन का भी वर्णन किया गया है। इसमें सोम के तुल्य ही मधु (शहद) का आसव और रसायन तैयारकिये जाने का वर्णन है

एक मन्त्र में सुरा निर्माण करने वाले को सुरावत् कहा गया है। ऋग्वेद के ही एक अन्य मन्त्र मेंसुरा रखने के पात्र, पीने के पात्र एवं उससे उत्पन्न होने वाली बीमारी का सङ्केत किया गया है। इस मन्त्र मेंसुरा रखने के पात्र को सुराधान, सुरा पीने के पात्र को सुराकंस एवं सुरा से उत्पन्न होने वाली बीमारी कोसुराम कहा गया है।

सुरा को समझने के लिए इन दो शब्दों सौत्रामणी’ और किण्वीकरण‘ को समझना होगा-

  • सौत्रामणी यज्ञ क्या है जिसमें सुरा का प्रयोग होता था- सौत्रामणि = सु त्रमण = अर्थात उत्तम प्रकार से रक्षा करना।  तैत्तरीय संहिता में इन्द्र कि बिखरी हुई शक्तियों को एकत्रित करने के लिए सौत्रामणि यज्ञ का वर्णन है।
  • सुरा में किण्वीकरण‘ होना आवश्यक- सोम और सुरा में एक मुख्य अंतर यह भी है कि सोमरस सोमलता को कूटकर निकाला हुआ रस है। जबकि सुरा में ‘किण्वीकरण’ होना आवश्यक है। किण्वीकरण एक विधि है इसके द्वारा किसी भी शक्करमय पदार्थ या स्टार्चमय पदार्थ से ऐल्कोहल व्यापारिक मात्रा में बनाई जाती है। इस अभिक्रिया को आज की साइंटिफिक भाषा में लिखा जा सकता है- C6H12O6 → 2 C2H5OH + 2 CO2

सौत्रामणि यज्ञ- इन्द्र के निमित्त जो यज्ञ किया जाता हैउसे सौत्रामणि यज्ञ कहते हैं। वह दो प्रकार का होता है- प्रथम स्वतन्त्र और द्वितीय अंगभूत। स्वतन्त्र भूत केवल ब्राह्मणों के लिये विधेय है और अँगभूत, क्षत्रिय और वैश्यों के लिये।

  • इस यज्ञ के दो भेद हैं – 1- कौकिली 2- चरक सौत्रामणि। कौकिली सौत्रामणि में साम मन्त्रों का गायन किया जाता है। चरक सौत्रामणि साधारण सौत्रामणि है जिसका सम्पादन प्रायः राजसूय यज्ञ के एक माह बाद किया जाता है। इस यज्ञ में तीन दिनों तक भिन्न-भिन्न प्रकार की सुरा बनाई जाती है। आजकल सुरा कीजगह दूध का प्रयोग किया जाता है।
  • तैत्तिरीय संहिता (2.5.1) तथा शतपथ ब्रह्माण (1.6.3, 5.5.4) में त्वष्टा के पुत्र विश्वरूप की गाथा आयी है। विश्वरूप के तीन सिर थे, एक से वह सोम पीता था, दूसरे से सुरा और तीसरे से भोजन करता था। इन्द्र में विश्वरूप के सिर काट डाले, इस पर त्वष्टा बहुत क्रोधित हुआ और उसने सोमयज्ञ किया जिसमें इन्द्र को आमन्त्रित नहीं किया। इन्द्र ने बिना निमन्त्रित हुए सारा सोम पी लिया। इतना पीने से इन्द्र को महान कष्ट हुआ, अत: देवताओं ने सौत्रामणी नामक इष्टि द्वारा उसे अच्छा किया। सौत्रामणि यज्ञ उस पुरोहित के लिए भी किया जाता था जो अधिक सोम पी जाता था। इससे मदमत्त व्यक्ति वरम या विरेचन करता था। (देखिए कात्यायन श्रौतसूत्र 19.1.14) शतपथ ब्राह्मण (12.7.3.5) एवं कात्यायन श्रौतसूत्र (191.20-27) में सुरा बनाने की विधि बतायी गयी है। जैमिनि (3.5.14-15) में सौत्रामणी यज्ञ के विषय में चर्चा है। इस यज्ञ में कोई ब्राह्मण बुलाया जाता था और उसे सुरा का तलछट पीना पड़ता था।

सुरा के प्रकार

बौधायन ग्रन्थ में सुरा के अलावा वारूणी और शीघ्र का भी वर्णन है।

पचित्तिय में पिठ-सुरा, पूव-सुरा, ओदन सुरा (किण्वयाकिखत्ता संभारसंयुत्ता) तथा मैरेय का उल्लेख है।

कौटिल्य ने बेदक, प्रसन्ना, आसव, अरिष्ठ, मरैय व मधु के अलावा कापिशायन और हारहूरक आदि मद्य का वर्णन है।

रामायण में भी मैरेय, सुरा और वारूणी का उल्लेख है। शर्करासव, माध्वीक, पुष्पासव और फलासवका भी रामायण में वर्णन है।

चरक ने सुरा, मदिरा, अरिष्ट, शार्कर, गौड़, मद्य, मधु आदि को मद्यपेय माना है।

सुश्रुत सूत्र में सामान्य सुरा, श्वेतसुरा यवसुरा, शीधु, नरैया और आसव का वर्णन है।

वाणभट्ट ने सुरा वारूणी, अरिष्ट, मार्दीक, खार्जूर, शर्करा, शीधु, आसव, मध्वासव आदि मद्यों का वर्णन है।

कालीदास ने नारिकेलासव, शीधु, पुष्पासव, मधु, द्राक्षासव, वारूणी व हाला आदि मद्य बताया है।

मादक पेय के रूप में सुरा‘ और मैरेय‘ के उल्लेख मिलते हैं- जातकों में मधुशाला के वर्णन उपलब्ध होते हैं। महावग्ग में मज्जा का उल्लेख है। यह एक प्रकार की सुरा थी जिसका प्रयोग औषधि के रूप में होता था। जातकों से ज्ञात होता है कि लोग उत्सव के दिन जी भरकर खाते पीते और आनन्द मनाते थे जिसमें मद्यपान का प्रमुख स्थान रहताथा। इनमें एक उत्सव का नाम ही सुरानक्षत्र पड़ गया, अनियन्त्रित सुरापान, नृत्य, संगीत और भोजन इसकी प्रमुख विशेषताएँ थी। विनयपिटक के अनुसार श्रमण तथा भिक्षु के लिए सुरापान वर्जित था।

वैदिक काल में मद्यपान का प्रचलन 

सोम का प्रयोग केवल देवगण एवं पुरोहित लोग कर सकते थे, किन्तु सुरा का प्रयोग अन्य कोई भी कर सकता था, और वह बहुधा देवगणों को समर्पित नहीं होती थी। 

सोम के अलावा 13 प्रकार के अन्य मद्यों का उल्लेख आता है- सुरा, हलिप्रिया, हाला, परिसुत, वरूणात्मजा, गन्धोत्तमा, प्रसन्ना, इरा, कादम्बरी, परिसुता, मदिरा, कश्यम् और मद्यम।a-6-abc

मद्य पान का उल्लेख

  • मदिरा पान के समय खाने वाले नमकीन का ‘नाम अवदश बताए गया है।
  • मदिरा पीने की अवसर के भी दो नाम बताए गये हैं – मधुवार, मधुक्रम।
  • महुए की शराब के चार नाम बताए गए हैं- मध्वासन, माधवक, मधु, मार्दीकम।
  • ईख से निर्मित शराब के तीन नाम- मेरेयम, आसव एवं शीधु बताए गए हैं।
  • मदिरा निर्माण के दो नाम- सन्धानम् एवं अभिषव बताए गए हैं।
  • मदिरा पीने के स्थानों के नाम शुण्डा, पानम्, मदस्थानम्, आपानम्पान गोष्ठिका बताए गए हैं।
  • मदिरा के काढ़े के लिए पिसे हुए पदार्थ का नाम मेदक, जगल बताए गया है।
  • मदिरा पीने के चषक के दो नाम – चषक एवं पानपात्रम् बताए गए हैं।
  • शराब पीने या परोसने का नाम सरक अनुतर्षणम् बताया गया है।

याज्ञवल्क्य में रंगरेज, वधिक, रजक, बंदीजन, मद्य बेचने वाले कुलाल, तेलीया गाड़ीवान के घर अन्न ग्रहण करने का निषेध है।

भागवतमहापुराण (स्कन्ध 8, अध्याय 5) के अनुसार चाक्षुष-मन्वन्तर (पौराणिक कालगणनानुसार लगभग 42.89 करोड़ वर्ष पूर्व) भगवान् विष्णु का कच्छप-अवतार हुआ एवं क्षीरसागर के मन्थन से 14 रत्नों में से नौवे क्रम में निकली सुरा लिए हुए वारुणी देवी। भगवान की अनुमति के बाद वारुणी देवी ने सुरा को असुरों को सौंप दिया गया।

ऋग्वेद (7.86.6) में वसिष्ठ ऋषि ने वरिण से प्रार्थना भरे शब्दों में कहा है कि मनुष्य स्वयं अपनी वृत्ति या शक्ति से पाप नहीं करता, प्रत्युत भाग्य, सुरा, क्रोध जुआ एंव असावधानी के कारण वह ऐसा करता है। सोम एवं सुरा के विषय में अन्य संकेत देखिए ऋग्वेद (8.2.12, 1.116.7, 1.191.10, 10.107.9, 10.13.4 एंव 5)।

अथर्ववेद (4.34.6) में ऐसा आया है कि यज्ञ करने वाले को स्वर्ग में घृत एवं मधु की झीलें एवं जल की भांति बहती हुई सुरा मिलती है। ऋग्वेद (10.131.4) में सोम-मिश्रित सुरा को सुराम कहते हैं और इसका प्रयोग इन्द्र ने असुर नमुचि के युद्ध में किया था। अथर्ववेद में सुरा का वर्णन कई स्थानों पर हुआ है, यथा 14.1.35-36, 15.9.2-3। वाजसनेयी संहिता (19.7) में भी सुरा एंव सोम का अन्तर स्पष्ट किया गया है।

शतपथ ब्राह्मण (5.5.4.28) में सोम को ‘सत्य, समृद्धि एंव प्रकाश’ तथा सुरा को ‘असत्य, क्लेश एंव अंधकार’ कहा है। इसी ब्राह्मण (5.5.4.21) ने सोम और सुरा के मिश्रण के भयानक रुप का वर्णन किया है।

काठकसंहिता (12.12) में मनोरंजक वर्णन आया है; प्रौढ़, युवक, वधुएं और श्वशुर सुरा पीते हैं, साथ-साथ प्रलाप करते हैं; मूखर्ता (विचारहीनता) सचमुच अपराध है। इसलिए ब्राह्मण यह सोचकर कि यदि मैं पीऊंगा तो अपराध करूंगा, सुरा नहीं पीता, अत: यह क्षत्रिय के लिए है; ब्राह्मण से कहना चाहिए- यदि क्षत्रिय सुरा पीये तो उसकी हानि नहीं होगी”। इस कथन से स्पष्ट है कि काठकसहिंता के काल में सामान्यत: ब्राह्मण लोग सुरा पीना छोड़ चुके थे। सौत्रामणी यज्ञ में सुरा का तलछट पीने के लिए भी ब्राह्मण का मिलना कठिन हो गया था।

तैत्तिरीय ब्राह्मण 1.8.6) ऐतरेय ब्राह्मण (37.4) में अभिषेक के समय पुरोहित द्वारा राजा के हाथ में सुरापात्र का रखा जाना वर्णित है। छान्दोग्योपनिषद् (5.10.9) में सुरापान करने वाले को पांच पापियों में परिगणित किया गया है। इसी उपनिषद् (5.11.5) में केकय के राजा अश्वपति ने कहा है कि उसके राज्य में मद्यप नहीं पाये जाते।

कुछ गृह्यसूत्रों में एक विचित्र बात पायी जाती है- अन्वष्टका के दिन जब पुरुष पितरों को पिण्ड दिया जाता है तो माता, पितामही (दादी) एवं प्रपितामही को पिण्डमान के साथ सुरा भी दी जाती है। उदाहरणार्थ, आश्व- लायनगृह्यसूत्रों (2.5.5) में आया है- “पितरों की पत्नियों को सुरा दी जाती है और पके हुए चावल का अवशेष भी”। यही बात पारस्करगृह्यसूत्रों (3.3) में भी पायी जाती है।

काठकगृह्यसूत्र (65.7-8) में आया है कि अन्वष्टका में नारी पितरों के पिण्डों पर चमस से सुरा छिड़की जानी चाहिए और वे पिण्ड नौकरों या निषादों द्वारा खाए जाने चाहिए, या उन्हें पानी या अग्नि में फेंक देना चाहिए या ब्राह्मणों को खाने के लिए दे देना चाहिए। इस विचित्र बात का कारण बताना कठिन है। यदि अंदाजा लगाए तो कहा जा सकता है कि (1) उन दिनों नारियां सुरापान किया करती थीं (सम्भवत: लुक-छिपकर), या (2) गृह्यसूत्रों के काल में अंतर्जातीय विवाह चलते थे और घर में क्षत्रिय और वैश्य पत्नियां सुरापान किया करती थीं।

मनु (11.15) ने ब्राह्मणों के लिए सुरापान वर्जित माना है, किन्तु कुल्लूक का कथन है कि कुछ टीकाकारों के मत से यह प्रतिबन्ध नारियों पर लागू नहीं होता था। गृह्यसूत्रों की दृष्टि में उपर्युक्त छूट के लिए जो भी कारण रहे हों, किन्तु यह बात काठकसंहिता एंव ब्राह्मण ग्रन्थों के लिए ही नहीं प्रत्युत अकमत से धर्मसूत्रों एंव स्मृतियों के लिए पूर्णरूपेण अमान्य रही है।

गौतम (2.25), आपस्तम्बधर्मसूत्र (1.5.17.21), मनु (11.14)  ने एक स्वर से ब्राह्मणों के लिए सभी अवस्थाओं में सभी प्रकार की नशीली वस्तुओं को वर्जित जाना है। सुरा या मद्य का पान एक महापातक कहा गया है (आपस्तम्बधर्मसूत्र 1.7.21.8, वसिष्ठधर्मसूत्र 1.20, विष्णुधर्मसूत्र 15.1, मनु 11.54, याज्ञवल्क्य 3.227)। यह सब होते हुए भी बौधायनधर्मसूत्र (1.2.4) ने लिखा है कि उत्तर के ब्राह्मणों के व्यवहार में लायी जाने वाली विचित्र पांच वस्तुओं में सीधु (आसब) भी है। इस धर्मसूत्र ने उन सभी विलक्षण पांचों वस्तुओं की भर्त्सना की है।

मनु (11.13-14) की ये बातें निबन्धों एंव टीकाकारों ने उद्धत की हैं- “सुरा भोजन का मल है, और पाप को मल कहते हैं, अंत: ब्राह्मणों, राजन्यों (क्षत्रियों) एंव वैश्यों को चाहिए कि वे सुरा का पान न करें। सुरा तीन प्रकार की होती है- गुड़ वाली, आटे वाली तथा मधूक (महुआ) के फूलों वाली (गौड़ी, पैष्टी एंव माध्वी), इनमें किसी को भी ब्राह्मण ने पीये”।

महाभारत (उद्योगपर्व 55.5) में वासुदेव एवं अर्जुन मदिरा (सुरा) पीकर मत्त हुए कह गये हैं। यह मदिरा मधु से बनी थी। तन्त्रवार्तिक (पृ. 209-210) ने लिखा है कि क्षत्रियों को यह वर्जित नहीं थी अत: वासुदेव एवं अर्जुन क्षत्रिय होने के नाते पापी नहीं हुए।

मनु (11.93-94) एवं गौतम (2.25) ने ब्राह्मणों के लिए सभी प्रकार की सुरा वर्जित मानी है, किन्तु क्षत्रियों एवं वैश्यों के लिए केवल पैष्टी वर्जित है। शूद्रों के लिए मद्यपान वर्जित नहीं था, यद्यपि वृद्ध हारीत (9.277-278) ने लिखा है कि कुछ लोगों के मत से सत्-शूद्रों को सुरापान नहीं करना चाहिए। मनु की बात करते हुए वृद्ध हारीत ने कहा है कि झूठ बोलने, मांस- भक्षण करने, मद्यपान करने, चोरी करने या दूसरे की पत्नी चुराने से शूद्र भी पतित हो जाता है। प्रत्येक वर्ण के ब्रह्मचारी को सुरापान से दूर रहना पड़ता था- (आपस्तम्बधर्मसूत्र 1.1.2.23, मनु 2.177 एवं याज्ञवल्क्य 1.33)।

महाभारत (आदिपर्व 76.77) ने शुक्र, उनकी पुत्री देवयानी एवं शिष्य कच की गाथा कही है और लिखा है कि शुक्र ने सबसे पहले ब्राह्मणों के लिए सुरापान वर्जित माना और व्यवस्था दी जी उसके उपरान्त सुरापान करने वाला ब्राह्मण ब्रह्महत्या का अपराधी माना जायेगा। मौशलपर्व (1.29-30) में आया है कि बलराम ने उस दिन से जब कि यादवों के सर्वनाश के लिए मूसल उत्पन्न किया गया, सुरापान वर्जित कर दिया और आज्ञा दी कि अनुशासन का पालन न करने से लोग सूली पर चढ़ा दिए जाएंगे।

शान्तिपर्व (34.20) ने यह भी लिखा है कि यदि कोई भय या अज्ञान से सुरापान करता है तो उसे पुन: उपनयन करना चाहिए। विष्णुधर्मसूत्र (22.83-84) के अनुसार ब्राह्मणों के लिए वर्जित मद्य 10 प्रकार की हैं- माधूक (महुआ वाली) , ऐक्षव (ईख वाली), टांक (टंक या कपित्थ फल वाली) कौल (कोल या बदर या उन्नाव नामक बेर वाली), खार्जूर (खजूर वाली), पानस (कटहर वाली) अंगूर, माध्वी (मधु वाली), मैरेय (एक पौधे के फूलों वाली) एवं नारिकेलज (नारिकेल वाली) किन्तु ये दसों क्षत्रियों एवं वैश्यों के लिए वर्जित नहीं है। सुरा नामक मदिरा चावल के आटे से बनती थी।

मनु (9.80) एवं याज्ञवल्क्य (1.73) के मतानुसार मद्यपान करन वाली पत्नी (चाहे वह शूद्र ही क्यों न हो और ब्राह्मण को ही क्यों न ब्याही गयी हो) त्याज्य है। मिताक्षरा ने उपर्युक्त याज्ञवल्क्य के कथन की टीका में पराशर (10.26) एंव वसिष्ठधर्मसूत्र का हवाला देते हुए कहा है कि मद्यपान करने वाली स्त्री के पति का अर्ध शरीर बड़े भारी पाप का भागी होता है।

धर्मसूत्रों में मद्य के प्रकार 

गौतम धर्मसूत्र में सुरा का ही वर्णन मिलता है। आपस्तम्ब (प्रमुख धर्मसूत्रों एवं स्मृतियों में प्रायश्चित विधान- शिखा शर्मा) ने भी सुरा शब्द का ही प्रयोग किया है। आपस्तम्ब धर्मसूत्र के अनुसार सुरापान करने वाला व्यक्ति अग्नि पर खौलाई गयी सुरा पिये।  बौधायन (बौधायन धर्मसुत्र) ने सुरा के अलावा वारूणी और शीघ्र का भी वर्णन किया है।

ऋग्वेद के वर्णन से लगता है कि मधु भी मादक पेय था, मधु का प्रयोग रस के संदर्भ में किया गया है। ऋग्वेद के एक श्लोक “स्वादु रसो मधुपेयो वराय” (6.44.21) में इससे राजा के मस्त होने का उल्लेख है।

बौद्ध साहित्य संयुक्त निकाय में सुरा और मैरेय का वर्णन मिलता है। धम्मपद में भी इन्हीं का वर्णन मिलता है। धम्मपद , 22/4,5(5) सुरा – मैरेय – मद्य – विरमणम् – “बौद्धभिक्षवे गृहस्थाय च सुरापानम् , मद्यपानम् , मादक वस्तु सेवनं च वर्जितमस्ति”। महावग्ग (89-223) में मज्जा का उल्लेख है। यह एक प्रकार की सुरा थी जिसका प्रयोग औषधि के रूप में होता था।

पाचित्तिय (भाग-6) में सुरा के अनेक प्रकारों का वर्णन मिलता है- मैरेय एक प्रकार की सुरा है जिसे फूलों के आसव से बनाया जाता था। इसके भी कई प्रकारों का वर्णन मिलता है जैसे – पुष्पों से बना पुष्पासव, फलों से बना फलासव और मधु से बना मध्वासव। पाचवें उपदेश में सूरा, मैरेय और मज्जा (मद्य) के सेवन पर प्रतिबंध की बात की गई है। कई और सुरा का वर्णन भी मिलता है- पिठ-सुरा, पूव-सुरा, ओदन सुरा, जो किण्वयक्खित्ता यानी फर्मेंटेशन के जरिए बनाई जाती थी।

कौटिल्य ने अर्थशास्त्र (अध्यायः25, 02.25.16) में मद्य के कई प्रकारों का वर्णन किया है – मेदक, प्रसन्ना,आसव, अरिष्ट, मैरेय और मधु। कौटिल्य ने कापिशायन और हारहूरक नामक मद्य का भी वर्णन किया है। सुरा के प्रकारों का वर्णन करते हुए कौटिल्य ने इसके चार प्रकार बताये हैं –सहकारसुरा, रसोत्तरा,बीजोत्तरा और सम्भारिका।

रामायण (बालकाण्ड- 1/45-23&25) में मद्य निम्न प्रकार मैरेय, सुरा और वारूणी का वर्णन मिलता है। वरुणस्य ततः कन्या वारुणी रघुनन्दन।। उत्पपात महाभागा मार्गमाणा परिग्रहम्। दितेः पुत्रा न तां राम जगृहुवरुणात्मजाम्।। अदितेस्तु सुता वीर जगृहुस्तामनिन्दिताम् ।असुरास्तेन दैतेयाः सुरास्तेनादितेः सुताः।। इसके अलावा शर्करासव, माध्वीक, पुष्पासव और फलासव का भी वर्णन मिलता है।

रामायण (सुंदरकाण्ड- 5/1120) में रावण की पानशाला के बारे में कहा गया है- दिव्याः प्रसन्ना विविधाः सुराः कृत सुरा अपि। शर्कर आसव माध्वीकाः पुष्प आसव फल आसवाः। वास चूर्णैः च विविधैर् मृष्टाः तैः तैः पृथक् पृथक्।। सदैव मधु-आसव (5/11/23), शर्करासव (2/94/24), पुष्पासव (5/11/23), फलासव(5/11/23), से भरी रहती थी। रामायण में रावण के रनिवास में स्थित पानशाला का विशद वर्णन हैं।

महाभारत काल में अधिकतर सुरा का ही प्रचलन था। परन्तु माध्वीक, कैलावत आदि का भी वर्णन मिलता है। कर्णपर्व- अध्याय:61- सतन्यस्य मातुर मधुसर्पिषॊ वा; माध्वीक पानस्य च सत्कृतस्य। स्त्रीपर्व- अध्याय:20- लज्ज माना पुरैवैनं माध्वीक मदमूर्छिता।

मनु ने मद्य के निम्न प्रकार वारुणी, सुरा और आसव का वर्णन किया है तथा सुरा अधिक बल दिया गया है। मनुस्मृति के श्लोक 11/95 ‘‘यक्षरक्षः पिशाचान्नं मद्यं मांस सुरा ऽऽ सवम्। सद् ब्राह्मणेन नात्तव्यं देवानामश्नता हविः।” में कहा गया है कि ‘‘मद्य, मांस, सुरा और आसव ये चारों यक्ष, राक्षसों तथा पिशाचों के अन्न (भक्ष्य पदार्थ) हैं, अतएव देवताओं के हविष्य खाने वाले ब्राह्मणों को उनका भोजन (पान) नहीं करना चाहिये।”

हरिवंश पुराण (विष्णु पर्व अध्याय 89 श्लोक 36-52) में मैरेय, माध्‍वीक, सुरा और आसव नाम मधु से भरे हुए कलश का उल्लेख है।

चरक (चरक संहिता, सूत्रस्थान- 27.180) ने निम्न प्रकार के मद्यों का वर्णन किया है – “हिक्काश्वासप्रतिश्यायकासवर्षोंग्रहारुचौं। वम्यानाह विबन्धेषु वातघ्नी मदिरा हिता।।“ आचार्य चरक ने मद्य को अनेक नाम यथा- मदिरा, जगल, अरिष्ट, शार्कर, धातकी (धाय के फूलों से निर्मित)मधुमद्य, सुरा, जौ की सुरा, तुषोदक अम्लकजिक, मैरेय, हाला, आदि से उल्लेख किया है। स्वभाव से सभी प्रकार केमद्य रस में अम्ल उष्णवीर्य आदि विपाक में भी अम्ल होते हैं मदिरा पीने से होने वाले लाभ का भी वर्णन किया है।

सुश्रुत (सुश्रुत संहिता- 174-206) ने भी मद्य के निम्न प्रकारों कावर्णन किया है – द्राक्षा मद्य, खार्जूर, प्रसन्ना, सुरा, इसके कई प्रकार है – सामान्य सुरा, श्वेतसुरा, यवसुरा,शीध्रु, मैरेय और आसव आदि।

वाणभट्ट ने निम्न प्रकार के मद्यों का वर्णन किया है सुरा, वारूणी, अरिष्ट, मार्दीक.खार्जूर, शार्केरा, शीधु, आसव, मध्वासव आदि ।

कालिदास की रचनाओं में मद्य के नारिकेलासव, शीधु, पुष्पासव, मधु, द्राक्षासव, वारूणीऔर हाला आदि प्रकारों का वर्णन मिलता है।’ कालिदास की रचनाओं में मघ के लिये मद्य आसव’ ‘मधामदिरा, कादम्बरी’ आदि पदों का प्रयोग हुआ है। कालिदास विशेषकर मद्य के तीन प्रकारों का उल्लेख करते हैं नारियल से बना हुआ नारिकेलासव, गन्ने के रस से बना हुआ शीघु और पुष्पों से निकाला हुआ पुष्पासव’। बहुधा धनिक वर्ग के लोग सुगंधित मद्य का ही प्रयोग करते थे। मृच्छकटिक में मदिरापान एवं मदिरालय के उल्लेख मिलते हैं।

चतुर्भाणी में आये धूर्तविट संवाद से लगता है कि शराब को सुगन्धित और रूचिकर बनाने के लिए उसमें कमल की पंखड़ियां तथा सहकार तैल डाला जाता था।

सुबन्धु के “वासवदत्ता” में निम्न प्रकार के मद्यों का वर्णन मिलता है यथा – मधु,वारूणी और सुरा ।

बाण के “हर्षचरित’ में कई प्रकार के मद्यों का वर्णन मिलता है – सोम, मधु,मदिरा, प्रसन्ना, सुरा, सीधु, वारूणी और आसव आदि ।

मद्यनिषेध- सुरा-त्याग

उपरोक्त संदर्भों से साफ है कि अलग अलग काल में मद्य का प्रचलन था। लेकिन इसका सेवन सीमित था। ग्रन्थों में स्थान-स्थान पर सुरा-त्याग का उल्लेख किया गया है। मदिरा पान को पाप की ओर प्रवृत्ति तक कहा गया है।

ऋग्वेद (7.86.6) और अथर्ववेद (6.70.1; 14.1.35-36) में स्पष्ट उल्लेख है कि वैदिक युग में आरम्भिक काल से लोग सुरा के गुणों और अवगुणों से परिचित थे। वैदिक साहित्य में स्थान-स्थान पर सुरा की भरपूर निन्दा की गई है। मांस और जुआ के समकक्ष ही इसे बुरा माना गया है।

ऋग्वेद (8.2.12; 8.21.14) में कहा गया है कि मनोरंजन के लिए जो सभायें जुटती थीं, उनमें मदिरा पान करने वाले लोग लड़-झगड़ पड़ते थे। ऋग्वेद (10.131.5) के मुताबिक अधिक मदिरा पान करने वाले लोग सुराग रोग से पीड़ित होते थे। मदिरा पान से पाप की ओर प्रवृत्ति होती थी।

ऋग्वेद (7.86.6) शतपथ ब्राह्मण (5.1.5.28) के अनुसार सुरा का वैदिक काल से ही ऋषियों ने कभी आदर का स्थान नहीं दिया, क्योंकि इसके पीने से मानव की असत्प्रवृत्तियों को उत्तेजना मिलती है।

रघुवंश (4.42), कुमारसंभव (6.42), नैषधीयचरित (16.98) के अनुसार उपनिषद् युग में किसी राजा के लिए गौरव की बात थी कि उसके राज्य में एक भी सुरापायी न था। मदिरापान पांच महापातकों में गिना गया है। मनु ने तो ब्राह्मण, क्षत्रियऔर वैश्य किसी के लिए भी मदिरा पान उचित नहीं माना।

महाभारत, शान्तिपर्व (111.29)- महाभारत के अनुसार सुरा का सिद्धान्त रूप में निषेध किया गया, यद्यपि स्थान-स्थान पर सुरा पीने वालों का उल्लेख मिलता है। मधु, मांस और मद्य का परित्याग करने वाला सभी कठिनाइयों को पार कर जाता है। यदि औषधि रूप में अथवाभूल से भी मद्य पी लिया तो पुन: उपनयन करना पड़ता था

महर्षि वाल्मीकि ने रामायण (4.33.46) में लिखा है कि धर्म और अर्थ की सिद्धि के लिए मदिरा पान हानिकारक है। मदिरा पान करने में धर्म, अर्थ और काम सभी नष्ट हो जाते है। जो ब्राह्मण सुरापायी होते थे, उन्हें सड़कों पर लोग धिक्कारते चलते थे।

विष्णुपुराण (2.6-9) में विहित है कि मदिरापान करने वाले तथा ऐसे व्यक्ति के साथ सम्बन्ध रखने वाले व्यक्ति नरक में जाते हैं। कतिपय उद्धरणों में मदिरा बनाने वाले व्यक्ति को भी निन्द्य बताया गया है।

वायु पुराण (18.33) और ब्रह्माण्ड पुराण (2.12.133) में निरूपित है कि मदिरा बनाने वाला व्यक्ति पूयवह नामक नरक में जाता है।

ऋग्वेद (7.86.6) में एक स्थल पर मदिरा पानको पाप का कारण बताया गया है।

शतपथ ब्राह्मण (5.1.5.28) “अमृतं पाप्मा तमः सुरा” में सुरा की उपमा असत्य, दुःख और अन्धकार से दी गई है।

मनुस्मृति (9.235) में भी मदिरा पान करने वालों को महापापी की संज्ञा दी गई है।

ब्रह्माण्डपुराण (4.7.78) में वर्णित है कि ब्राह्मण को मोह, स्नेह अथवा इच्छा से मदिरापान नहीं करना चाहिए। एक अन्य स्थल पर वर्णन आता है कि आसवपान केवल क्षत्रिय आदि तीन वर्ण कर सकते हैं। ब्राह्मण की भांति ब्राह्मणी के लिए भी इसे वर्जित किया गया है।

मत्स्य पुराण (25.62) के अनुसार मोहवश मदिरा पान करने वाला ब्राह्मण अधार्मिक है। उसे ब्रह्महत्या का दोष लगता है। लोक तथा परलोकमें उसे गर्हित स्थान मिलता है। इन उद्धरणों से व्यक्त होता है कि ब्राह्मणार्थ मदिरापान आज्ञप्त नहीं था। इस सामान्य नियम के अन्तर्गत क्षत्रियादि तीन वर्ण नहीं आते थे।

विष्णुस्मृति (54.7) में भी मदिरापान करने वाले ब्राह्मण को नारकीय बताया गया है। इसी प्रकार महाभारत ने भी ब्राह्मणार्थ मदिरापान वर्जित किया है। इस सम्बन्ध में महाभारत का उद्धरण बिना किसी अन्तर के मत्स्यपुराण के तद्विषक स्थल के साम्य रखता है।

मदिरापान के दुर्गुणों एवं अव्यवस्थित कृत्यों से राज्यों में प्रतिबंध लगाये जाते रहे हैं। ये प्रतिबंध धार्मिक और सामाजिक आचार के स्वरूप थे। गुजरात में चालुक्य कुमारपाल ने मदिरापा नहीं नहीं बल्कि मदिरा-निर्माणशाला भी बन्द करा दी थी। (मोहराजपराजय, अंक 4, पृ. 83)

हेमचन्द्र के एक विवरण से स्पष्ट है कि चौलुक्य-कुल में मद्यपान वैसा ही वर्जित था, जैसा कि ब्राह्मणों से वर्जित था। (मुनिजिनविजय, राजर्षिकुमार पाल, पृ. 19)

सोमलता

सोम नाम से एक “लता” होती थी- सोम पर्वतों पर उगने वाला पौधा है। यह लता या पौध हिमवन्त से मूजवन्त पर्वत श्रृंखला तक मिलता था। ऋग्वेद के सूक्तों में हिमवन्त (एलबुर्ज पर्वत श्रृंखला, अर्थात ईरान) img_3475तथा मूजवन्त (गान्धार-कम्बोज प्रदेश, अर्थात अफगानिस्तान) पर्वत का उल्लेख मिलता है। ऋग्वेद में सोम को पर्वतों पर रहने वाला (गिरिष्ठा) तथा अनेक बार पर्वतों पर उगने वाला (पर्वतावृधः) कहा गया है। अथर्ववेद में पर्वतों को सोमन्तो पृष्ठ कहा गया है। ये बातें संकेत करती हैं कि सोमपर्वतों पर उगता था।

इसके अलावा कहां-कहां उल्लेख है- राजस्थान के अर्बुद, उड़ीसा के महेन्द्र गिरी, हिमाचल की पहाड़ियों, विंध्याचल, मलय आदि अनेक पर्वतीय क्षेत्रों में इसकी लताओं के पाए जाने का उल्लेख भी मिलता है। 

यद्यपि सोम को पर्वतों पर उगने वाला एक पौधा कहा गया है फिर भी इसके उत्पत्ति और आवास को स्वर्गीय ही माना गया है। इसके बारे में ऐसी अवधारणा है कि स्वर्ग से इस पौधे को पृथ्वी पर लाया गया है।

ऋग्वेद में इससे सम्बन्धित एक कथा वर्णित है- जिसके अनुसार उत्क्रोश पक्षी द्वाराइस पौधे को स्वर्ग से लाया गया है। कथानुसार उत्क्रोश पक्षी सोम-पौधे के पास उड़ कर गया और इस पौधे के मधुर काण्ड को तोड़ कर, अपने पैरों के बीच दबाकर, तीव्र गति से उड़ता हुआ वज्रधर अर्थात् इन्द्र के लिए सोम लाया।

सोम का रंग– विद्वानों का मत है कि अफगानिस्तान की पहाड़ियों पर पाया जाने वाली यह सोमलता बिना पत्तियों का गहरे बादामी रंग का पौधा है। वहीं जब इससे सोमरस बनाया जाता था तक यह अरूण वर्ण का होता था। ऋग्वेद के एक मन्त्र में इसे अरूण वृक्ष की शाखाभी कहा गया है। कहीं इसके वर्ण के लिए भूरा तथा कहीं हरित शब्द का प्रयोग किया गया है। ब्राह्ममण ग्रन्थों में सोम लता के अभाव में जिस पौधे को सोमलता का स्थानापन्न किया गया है उसका वर्णभी लाल या अरूण होता था।

ईरान में कुछ वर्ष पहले इफेड्रा नामक पौधे की पहचान कुछ लोग सोम से करते थे इफेड्रा की छोटी-छोटी टहनियां बर्तनों में दक्षिण-पूर्वी तुर्कमेनिस्तान में तोगोलोक-21 नामक मंदिर परिसर में पाई गई हैं। इन बर्तनों का व्यवहार सोमपान के अनुष्ठान में होता था। यद्यपि इस निर्णायक साक्ष्य के लिए खोज जारी है। हलांकि लोग इसका इस्तेमाल यौन वर्धक दवाई के रूप में करते हैं।

ईरान और आर्यावर्त: माना जाता है कि सोमपान की प्रथा केवल ईरान और भारत के वह इलाके जिन्हें अब पाकिस्तान और अफगानिस्तान कहा जाता है यहीं के लोगों में ही प्रचलित थी। इसका मतलब पारसी और वैदिक लोगों में ही इसके रसपान करने का प्रचलन था। इस समूचे इलाके में वैदिक धर्म का पालन करने वाले लोग ही रहते थे। ‘स’ का उच्चारण ‘ह’ में बदल जाने के कारण अवेस्ता में सोम के बदले होम शब्द का प्रयोग होता था और इधर भारत में सोम का।

  • कुछ वर्ष पहले ईरान में इंफेड्रा नामक पौधे की पहचान कुछ लोग सोम से करते थे। इफेड्रा की छोटी-छोटी टहनियां बर्तनों में दक्षिण-पूर्वी तुर्कमेनिस्तान में तोगोलोक-21 नामक मंदिर परिसर में पाई गई हैं। इन बर्तनों का व्यवहार सोमपान के अनुष्ठान में होता था। यद्यपि इस निर्णायक साक्ष्य के लिए खोज जारी है।

सोम को 1. स्वर्ग की लता का रस और 2. आकाशीय चन्द्रमा का रस भी माना जाता है... सोम की उत्पत्ति के दो स्थान हैं- ऋग्वेद अनुसार सोम की उत्पत्ति के दो प्रमुख स्थान हैं- 1.स्वर्ग और 2.पार्थिव पर्वत।

वेदों में सोमलता का विशेष महत्व प्रतिपादित किया गया है। ब्राह्मण ग्रन्थों में सोमविषयक अनेक उपाख्यान मिलते हैं। एक उपाख्यान के अनुसार गायत्री नेबाज पक्षी का रूप धारण कर धुलोक से सोम का आहरण किया था। वस्तुतःसोमलता विशेष प्रकार की औषधि है जो पर्वतों पर पायी जाती है। शतपथब्राह्मण इसकी उत्पत्ति की चर्चा करता है। आयुर्वेद में सोमलता को सोमवल्ली,सोमक्षीरी और द्विज प्रिया कहा जाता है। यह सोमलता त्रिदोष – कफ, वात औरपित्त को नष्ट करती है। यह कटु और तिक्त होती है। इसमें रसायन की क्षमता है। इसलिए देवता इसे अधिक चाहते रहे। इसीलिए वेदों में सोम की विशेष प्रशंसा की गयी है। सोम को औषधियों में सर्वश्रेष्ठ माना जाता रहा। इसे औषधियों का राजा कहा गया है।

अग्नि की भांति सोम भी स्वर्ग से पृथ्वी पर आया ‘मातरिश्वा ने तुम में से एक को स्वर्ग से पृथ्वी पर उतारा; गरुत्मान ने दूसरे को मेघशिलाओं से।’ हे सोम, तुम्हारा जन्म उच्च स्थानीय है; तुम स्वर्ग में रहते हो, यद्यपि पृथ्वी तुम्हारा स्वागत करती है। सोम की उत्पत्ति का पार्थिव स्थान मूजवंत पर्वत (गांधार-कम्बोज प्रदेश) है’। -(ऋग्वेद अध्याय सोम मंडल- 4, 5, 6)

  • स्वर्गीय सोम की कल्पना चंद्रमा के रूप में की गई है। छांदोग्य उपनिषद में सोम राजा को देवताओं में भोज्य कहा गया है। कौषितकि ब्राह्मण में सोम और चन्द्र के अभेद की व्याख्या इस प्रकार की गई है : ‘दृश्य चन्द्रमा ही सोम है। सोमलता जब लाई जाती है तो चन्द्रमा उसमें प्रवेश करता है। जब कोई सोम खरीदता है तो इस विचार से कि ‘दृश्य चन्द्रमा ही सोम है; उसी का रस पेरा जाए।’

वेदों के अनुसार सोम का संबंध अमरत्व से भी है वह पितरों से मिलता है और उनको अमर बनाता है। सोम का नैतिक स्वरूप उस समय अधिक निखर जाता है, जब वह वरुण और आदित्य से संयुक्त होता है- ‘हे सोम, तुम राजा वरुण के सनातन विधान हो; तुम्हारा स्वभाव उच्च और गंभीर है; प्रिय मित्र के समान तुम सर्वांग पवित्र हो; तुम अर्यमा के समान वंदनीय हो।’

त्रित प्राचीन देवताओं में से थे। उन्होंने सोम बनाया था तथा इंद्रादि अनेक देवताओं की स्तुतियां समय-समय पर की थीं। महात्मा गौतम के तीन पुत्र थे। तीनों ही मुनि थे। उनके नाम एकत, द्वित और त्रित थे। उन तीनों में सर्वाधिक यश के भागी तथा संभावित मुनि त्रित ही थे। कालांतर में महात्मा गौतम के स्वर्गवास के उपरांत उनके समस्त यजमान तीनों पुत्रों का आदर-सत्कार करने लगे। उन तीनों में से त्रित सबसे अधिक लोकप्रिय हो गए।

कुछ विद्वान इसे ही ‘संजीवनी बूटी’ कहते हैं- सोम को न पहचान पाने की विवशता का वर्णन रामायण में मिलता है। हनुमान दो बार हिमालय जाते हैं, एक बार राम और लक्ष्मण दोनों की मूर्छा पर और एक बार केवल लक्ष्मण की मूर्छा पर, मगर ‘सोम’ की पहचान न होने पर पूरा पर्वत ही उखाड़ लाते हैं। दोनों बार लंका के वैद्य सुषेण ही असली सोम की पहचान कर पाते हैं।

  • यदि हम ऋग्वेद के नौवें ‘सोम मंडल’ में वर्णित सोम के गुणों को पढ़ें तो यह संजीवनी बूटी के गुणों से मिलते हैं इससे यह सिद्ध होता है कि सोम ही संजीवनी बूटी रही होगी। ऋग्वेद में सोमरस के बारे में कई जगह वर्णन है। एक जगह पर सोम की इतनी उपलब्धता और प्रचलन दिखाया गया है कि इंसानों के साथ-साथ गायों तक को सोमरस भरपेट खिलाए और पिलाए जाने की बात कही गई है।

सोमरस बनाने की विधि

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उच्छिष्टं चम्वोर्भर सोमं पवित्र आ सृज। नि धेहि गोरधि त्वचि।। (ऋग्वेद सूक्त 28 श्लोक 9)

अर्थात : उलूखल और मूसल द्वारा निष्पादित सोम को पात्र से निकालकर पवित्र कुशा के आसन पर रखें और अवशिष्ट को छानने के लिए पवित्र चर्म पर रखें।

औषधि: सोम: सुनोते: पदेनमभिशुण्वन्ति।- निरुक्त शास्त्र (11-2-2)

अर्थात : सोम एक औषधि है जिसको कूट-पीसकर इसका रस निकालते हैं।

  • सोम को गाय के दूध में मिलाने पर ‘गवशिरम्’ दही में ‘दध्यशिरम्’ बनता है। शहद अथवा घी के साथ भी मिश्रण किया जाता था। सोम रस बनाने की प्रक्रिया वैदिक यज्ञों में बड़े महत्व की है। इसकी तीन अवस्थाएं हैं- पेरना, छानना और मिलाना। वैदिक साहित्य में इसका विस्तृत और सजीव वर्णन उपलब्ध है।
  • सोम के डंठलों को पत्थरों से कूट-पीसकर तथा भेड़ के ऊन की छलनी से छानकर प्राप्त किए जाने वाले सोमरस के लिए इंद्र, अग्नि ही नहीं और भी वैदिक देवता लालायित रहते हैं, तभी तो पूरे विधान से होम (सोम) अनुष्ठान में पुरोहित सबसे पहले इन देवताओं को सोमरस अर्पित करते थे।
  • बाद में प्रसाद के तौर पर लेकर खुद भी तृप्त हो जाते थे। आजकल सोमरस की जगह पंचामृत ने ले ली है, जो सोम की प्रतीति-भर है। कुछ परवर्ती प्राचीन धर्मग्रंथों में देवताओं को सोम न अर्पित कर पाने की विवशतास्वरूप वैकल्पिक पदार्थ अर्पित करने की ग्लानि और क्षमा- याचना की सूक्तियां भी हैं।

सोम को दिन में तीन बार सवन अर्थात् दबाया जाता था… सन्ध्याकालीन दबाने के कृत्य को ऋभुओं से’ तथा मध्याहून और प्रातः का सम्बन्ध इन्दरे से किया गया है, किन्तु यज्ञों से प्रसंग में प्राप्त वर्णनों से पता चलता है कि अनेक देव सोम-पान करते थे। सोम यज्ञों के लिए आपस में प्रतिद्वन्द्विता होती थी। इसका वर्णन ऋग्वेद में इस प्रकार किया गया है वसिष्ठ लोग इन्द्र को पाशघुग्न वायत के सोम-यज्ञ से सुदास् के यहां उठा ले आये थे।

सोमरस पीने के फायदे

वैदिक ऋषियों का चमत्कारी आविष्कार- सोमरस एक ऐसा पदार्थ है, जो संजीवनी की तरह कार्य करता है। यह जहां व्यक्ति की जवानी बरकरार रखता है वहीं यह पूर्ण सात्विक, अत्यंत बलवर्धक, आयुवर्धक व भोजन-विष के प्रभाव को नष्ट करने वाली औषधि है।lord-indra

स्वादुष्किलायं मधुमां उतायम्तीव्र: किलायं रसवां उतायम।

उतोन्वस्य पपिवांसमिन्द्रमन कश्चन सहत आहवेषु।।- ऋग्वेद (6-47-1)

अर्थात: सोम बड़ी स्वादिष्ट है, मधुर है, रसीली है। इसका पान करने वाला बलशाली हो जाता है। वह अपराजेय बन जाता है।

शास्त्रों में सोमरस लौकिक अर्थ में एक बलवर्धक पेय माना गया है, परंतु इसका एक पारलौकिक अर्थ भी देखने को मिलता है। साधना की ऊंची अवस्था में व्यक्ति के भीतर एक प्रकार का रस उत्पन्न होता है जिसको केवल ज्ञानीजन ही जान सकते हैं।

सोमं मन्यते पपिवान् यत् संविषन्त्योषधिम्।

सोमं यं ब्रह्माणो विदुर्न तस्याश्नाति कश्चन।। (ऋग्वेद-10-85-3)

अर्थात: बहुत से लोग मानते हैं कि मात्र औषधि रूप में जो लेते हैं, वही सोम है ऐसा नहीं है। एक सोमरस हमारे भीतर भी है, जो अमृतस्वरूप परम तत्व है जिसको खाया-पिया नहीं जाता केवल ज्ञानियों द्वारा ही प्राप्त किया जा सकता है।

इसके पीने से शरीर एक विचित्र उत्साह से भर जाता था। ऋग्वेद में इसके उल्लासित और कामनीय गुणों का वर्णन करते हुए कल्पना का भी सहारा लियागया है। सोम-पान से इन्द्र के आनन्दोल्लास का कामनीय वर्णन ऋग्वेद के एक समूचे सूक्त (१०.११६) मेंकिया गया है। इस सूक्त में एक जगह उल्लिखित है कि जिस प्रकार वेग से चलने वाले घोड़े रथ को दूरतक खींच ले जाते हैं, उसी प्रकार ये सोम की घूटें मुझे दूर तक खींच ले जाती है, क्या मैंने सोम का पाननहीं किया है। हन्त! मैं पृथ्वी को यहाँ रखूगा । मैं बड़ों में बड़ा हूँ (महामहः); मैं संसार को नाभि (अन्तरिक्ष)तक उठाये हूँ, क्योंकि मैंने सोम-रस का पान किया है। आर्य भी इसके उल्लासित गुणों से परिचित । प्रगाथ काण्व ऋषि सोम-पान के प्रभाव से आनन्दित होकर कह रहे हैं – “हमने सोम पान किया है, अमरत्व पा लिया है; ज्योर्तिमय स्वर्ग की प्राप्ति कर ली है तथा हमने देवताओं को जान लिया है।’ सामवेदके एक मन्त्र में इसे बुद्धि का विकास करने वाला बताते हुए कहा गया है कि “बुद्धि को बढ़ाने वाला तथास्वयं ज्ञानवान् सोम, सोम-रस निकालने के लिए दो तख्तों के बीच रखा गया। इससे उत्साह और स्फूर्तिदोनों आती थी। सामवेद के एक मन्त्र में इसका वर्णन इस प्रकार किया गया है – “बल बढ़ाने वाला औरउत्साह बढ़ाने वाला तथा चमकने वाला सोम-रस गाय और वीर पुत्रों की इच्छा करने वालों के द्वारा निचोड़ाजाता है। इसके पीने से सम्भवतः विष का भी प्रभाव समाप्त हो जाता है।

कण्व ऋषियों ने मानवों पर सोम का प्रभाव इस प्रकार बतलाया है- ‘यह शरीर की रक्षा करता है, दुर्घटना से बचाता है, रोग दूर करता है, विपत्तियों को भगाता है, आनंद और आराम देता है, आयु बढ़ाता है और संपत्ति का संवर्द्धन करता है। इसके अलावा यह विद्वेषों से बचाता है, शत्रुओं के क्रोध और द्वेष से रक्षा करता है, उल्लासपूर्ण विचार उत्पन्न करता है, पाप करने वाले को समृद्धि का अनुभव कराता है, देवताओं के क्रोध को शांत करता है और अमर बनाता है’।

सोम विप्रत्व और ऋषित्व का सहायक है। सोम अद्भुत स्फूर्तिदायक, ओजवर्द्धक तथा घावों को पलक झपकते ही भरने की क्षमता वाला है, साथ ही अनिर्वचनीय आनंद की अनुभूति कराने वाला है।

सोमयज्ञ- सोमरस हवन में इस्तमाल होता था

जिन यज्ञों में ‘सोम लता’ से निकाले हुए सोमरस की आहुति प्रदान की जाती है, उन यागों कोसोमयाग कहा जाता है। इसमें सोम नामक लता को कूटकर उसका रस निकालकर उसे हवि के रूप में देवताओं को समर्पित Soma-Yagaकिया जाता है। “यज्ञं व्याख्यास्यामः”, “स त्रिभिदैविधीयते” श्रौतसूत्रकारों का यहकथन सोमयाग के विषय में ही सिद्ध होता है, क्योंकि यह याग तीनों वेदों की सहायता से सम्पन्न होता है। सोमयज्ञ का हवन करने वाले ऋषियों में कण्व,अंगिरा आदि ऋषि हैं।

पूर्ववर्णित अग्निहोत्र आदि यज्ञ केवल यजुर्वेद से तथा दर्शपौर्णमासादि यज्ञ ऋग्वेद एवं यजुर्वेद से सम्पन्न हो जाते हैं। इस प्रकार सोमयज्ञ में तीनों वेदों से सम्बन्धित ऋत्विजों का वरण किया जाता है। सोमयज्ञ के चार प्रकार कहे गए हैं – एकाह, अहीन, साद्यस्क एवं सत्र। दीक्षा और उपसद् आदि के अनेक दिनों में सम्पन्न होने पर भी एक दिन में सम्पन्न होने वाले सोम याग को एकाह कहते हैं। दो सेलेकर बारह दिनों में सम्पादित होने वाले याग को अहीन याग कहते हैं। बारह से अधिक दिनों में सम्पादित सोमयज्ञ की संज्ञा सत्रयाग है। एक दिन में ही दीक्षा से आरम्भ कर अवभृथ पर्यन्त सारे कार्य सम्पन्न हों वह सोमयज्ञ साद्यस्क्र याग कहलाता है।

सोम रस बनाने की प्रक्रिया वैदिक यज्ञों में बड़े महत्व की है। इसकी तीन अवस्थाएं हैं- पेरना, छानना और मिलाना। वैदिक साहित्य में इसका पूरा वर्णन लिखा हुआ है। सोम के डंठलों को पत्थरों से कूट-पीसकर तथा भेड़ के ऊन की छलनी से छानकर प्राप्त किए जाने वाले सोमरस के लिए इंद्र, अग्नि ही नहीं और भी वैदिक देवता लालायित रहते हैं, तभी तो पूरे विधान से होम (सोम) अनुष्ठान में पण्डित सबसे पहले इन देवताओं को सोमरस अर्पित करते थे। बाद में प्रसाद के तौर पर लेकर खुद भी खुश हो जाते थे।

यद्यपि सोमयज्ञ के अङ्गरूप में बहुत सी इष्टियों का सम्पादन किया जाता है फिर भी इसका प्रधान द्रव्य सोम होने के कारण इसके लिए सोमयज्ञ शब्द प्रयोग किया जाता है। सोमयज्ञ की सात संस्थाएं हैं- अग्निष्टोम, अत्याग्निष्टोम, उक्थ्य, षोडशी, वाजपेय, अतिरात्र एवं आप्तोर्याम (वाजपेय)13 सोमयाग मेंजिस स्तोम से याग की समाप्ति होती है, उसी के आधार पर उस याग का नामकरण किया जाता है। अग्निष्टोमस्तोम के द्वारा समाप्ति होने के कारण अग्निष्टोम सोमयज्ञ कहलाता है। इसी प्रकार उक्थ्य, षोडशी और अतिरात्र संज्ञक स्तोमों की समाप्ति पर उक्थ्य आदि सोम संस्थाओं का नामकरण हुआ है।

सोमयज्ञ में मुख्य रूप से चार ऋत्विज्होते हैं (ब्रह्मा, उद्गाता, होता, अध्वर्यु) इन चारों ऋत्विजों के तीन-तीन सहायक पुरोहित होते हैं। इस प्रकार सोम याग में कुल सोलह ऋत्विज होते हैं।

सोमरस की जगह पंचामृत

आजकल सोमरस की जगह पंचामृत ने ले ली है, जो सोम की प्रतीति-भर है। कुछ प्राचीन धर्मग्रंथों में देवताओं को सोम न अर्पित कर पाने की स्तिथि में कोई और चीज अर्पित करने पर क्षमा- याचना करने के मंत्र भी लिखे हैं।

मुश्किल होती गई सोम की पहचान

अध्ययनों से पता चलता है कि वैदिक काल के बाद यानी ईसा के काफी पहले ही इस वनस्पति की पहचान मुश्किल होती गई। ऐसा भी कहा जाता है कि सोम (होम) अनुष्ठान करने वाले लोगों ने इसकी जानकारी आम लोगों को नहीं दी, उसे अपने तक ही सीमित रखा और आजकल ऐसे अनुष्ठानी लोगों की पीढ़ी/परंपरा के लुप्त होने के साथ ही सोम की पहचान भी मुश्किल होती गई।

सोमरस का उल्लेख- शास्त्रों में लिखे हैं सोम के कई चमत्कारी गुण

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अनेक स्थलों पर मिलता है। सोमरस की औषधियों को श्रेष्ठ माना गया है। ऋग्वेद में सोमरस के बारे में कई जगह लिखा है। एक जगह पर सोम की इतनी उपलब्धता और प्रचलन दिखाया गया है कि इंसानों के साथ-साथ गायों तक को सोमरस भरपेट खिलाए और पिलाए जाने की बात कही गई है।

वैदिक ऋषियों का चमत्कारी आविष्कार सोमरस एक ऐसा पदार्थ है, जो संजीवनी की तरह कार्य करता है। यह जहां व्यक्ति की जवानी बरकरार रखता है वहीं यह पूर्ण सात्विक, अत्यंत बलवर्धक, आयुवर्धक व भोजन-विष के प्रभाव को नष्ट करने वाली औषधि है।

ऋग्वेद में लिखा है-

“स्वादुष्किलायं मधुमां उतायम्तीव्र: किलायं रसवां उतायम।

उतोन्वस्य पपिवांसमिन्द्रमन कश्चन सहत आहवेषु”

यानी की : सोम बड़ी स्वादिष्ट है, मधुर है, रसीली है। इसका पान करने वाला बलशाली हो जाता है। वह अपराजेय बन जाता है।

श्रीमद् भगवद्गीता में स्वयं भगवान कृष्ण ने कहा है,

त्रैविद्या मां सोमपाः पूतपापा यज्ञैरिष्ट्वा स्वर्गतिं प्रार्थयन्ते |

ते पुण्यमासाद्य सुरेन्द्रलोकमश्र्नन्ति दिव्यान्दिवि देवभोगान् || ।।9.20।।

“जो वेदों का अध्ययन करते तथा सोमरस का पान करते हैं, वे स्वर्ग प्राप्ति की गवेषणा करते हुए अप्रत्यक्ष रूप से मेरी पूजा करते हैं | वे पापकर्मों से शुद्ध होकर, इन्द्र के पवित्र स्वर्गिक धाम में जन्म लेते हैं, जहाँ वे देवताओं का सा आनन्द भोगते हैं |”

शास्त्रों में सोमरस लौकिक अर्थ में एक बलवर्धक पेय माना गया है, परंतु इसका एक पारलौकिक अर्थ भी देखने को मिलता है। साधना की ऊंची अवस्था में व्यक्ति के भीतर एक प्रकार का रस उत्पन्न होता है जिसको केवल ज्ञानीजन ही जान सकते हैं।

ब्राह्मण ग्रन्थों में इसकी निर्माण विधि बताई गई है। सोमरस बनाने हेतु इसे धोकर कटा पीसा जाता था तथा रस निचौड लिया जाता था। सोम को कटते समय मंत्र उच्चारण का उल्लेख भी था।

कल्कि कृत सोमरस को मिट्टी या धातु के पात्र में रखते थे। बाद में जल मिलाकर वस्त्र से छानने के बाद इसको बूंद-बूंद के रूप में लोगों कोऔषध के रूप में दिया जाता था।

सोम का सम्बन्ध अमरत्व से भी है । वह स्वयं अमर तथा अमरत्व प्रदान करने वाला है । वह पितरों से मिलता है और उनको अमर बनाता है। कहीं-कहीं उसको देवों का पिता कहा गया है, जिसका अर्थ यह है कि वह उनको अमरत्व प्रदान करता है। अमरत्व का सम्बन्ध नैतिकता से भी है । वह विधि का अधिष्ठान और ॠत की धारा है वह सत्य का मित्र है।

आयुर्वेदिक ग्रंथ सोमरस के बारे में सूचना देते हैं- धन्वन्तरी सोमरस

रसेंद्रचूड़ामणि 6।6-9 में कहा है,

पञ्चांगयुक्पञ्चदशच्छदाढ्या सर्पाकृतिः शोणितपर्वदेशा।

सा सोमवल्ली रसबन्धकर्म करोति एकादिवसोपनीता।।

करोति सोमवृक्षोऽपि रसबन्धवधादिकम्।

पूर्णिमादिवसानीतस्तयोर्वल्ली गुणाधिका।।

कृष्ण पक्षे प्रगलति दलं प्रत्यहं चैकमेकं शुक्लेऽप्येकं प्रभवति पुनर्लम्बमाना लताः स्युः।

तस्याः कन्द: कलयतितरां पूर्णिमायां गृहीतो बद्ध्वा सूतं कनकसहितं देहलोहं विधत्ते।।

इयं सोमकला नाम वल्ली परमदुर्लभा।

अनया बद्धसूतेन्द्रो लक्षवेधी प्रजायते।

जिसके पंद्रह पत्ते होते हैं, जिसकी आकृति सर्प की तरह होती है। जहाँ से पत्ते निकलते हैं- वे गठिं जिसकी लाल होती है, ऐसी वह पूर्णिमा के दिन लायी हुई पञ्चांग (मूल, डण्डी, पत्ते, फूल और फल) से युक्त सोमवल्ली पारद को वद्ध कर देती है। पूर्णिमा के दिन लाए हुआ पञ्चांग से युक्त सोमवृक्ष भी पारद को बधिना, पारद की भस्म बनाना आदि कार्य कर देता है। परंतु सोमवल्ली और सोमवृक्ष, इन दोनों में सोमवल्ली अधिक गुणों वाली है।

इस सोमवल्ली का कृष्ण पक्ष में प्रतिदिन एक-एक पत्ता झड़ जाता है। और शुक्ल पक्ष में पुनः प्रतिदिन एक-एक पत्ता निकल आता है। इस तरह यह लता बढ़ती रहती है। पूर्णिमा के दिन इस लता का कंद निकाला जाए तो वह बहुत श्रेष्ठ होता है। धतूरे के सहित इस कन्द में बँधा हुआ पारद देह को लोहे की तरह दृढ़ बना देता है। और इससे बँधा हुआ पारद लक्षवेधी हो जाता है अर्थात एक गुणाबद्ध पारद लाख गुणा लोहे को सोना बना देता है। यह सोम नाम की लता अत्यन्त ही दुर्लभ है। कम से कम आज के समय में सोमवल्ली किसी सोमलता से कम नहीं।

कण्व ऋषियों ने मानवों पर सोम का प्रभाव इस प्रकार बतलाया है- ‘यह शरीर की रक्षा करता है, दुर्घटना से बचाता है, रोग दूर करता है, विपत्तियों को भगाता है, आनंद और आराम देता है, आयु बढ़ाता है और संपत्ति का संवर्द्धन करता है। इसके अलावा यह विद्वेषों से बचाता है, शत्रुओं के क्रोध और द्वेष से रक्षा करता है,

कण्व ऋषियों के अनुसार सोमरस उल्लासपूर्ण विचार उत्पन्न करता है, पाप करने वाले को समृद्धि का अनुभव कराता है, देवताओं के क्रोध को शांत करता है और अमर बनाता है’। सोम विप्रत्व और ऋषित्व का सहायक है। सोम अद्भुत स्फूर्तिदायक, ओजवर्द्धक तथा घावों को पलक झपकते ही भरने की क्षमता वाला है, साथ ही आनंद की अनुभूति कराने वाला है।

सोमरस देव और मानव दोनों को यह रस स्फुर्ति और प्रेरणा देने वाला था । देवता सोम पीकर प्रसन्न होते थे; इन्द्र अपना पराक्रम सोम पीकर ही दिखलाते थे । कण्व ॠषियों ने मानवों पर सोम का प्रभाव इस प्रकार बतलाया है: ‘ यह शरीर की रक्षा करता है, दुर्घटना से बचाता है; रोग दूर करता है; विपत्तियों को भगाता है; आनन्द और आराम देता है; आयु बढ़ाता है।

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संस्कार… हिन्दू धर्म में 16 संस्कारों का महत्व

डॉ. संदीप कोहली… कीबोर्ड के पत्रकार

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‘संस्कार’ किसी भी धर्म या सम्प्रदाय के महत्त्वूपर्ण अंग है। अध्यात्म प्रधान भारतीय संस्कृति में संस्कारों का तो विशेष महत्त्व रहा है। इतिहास के प्रारम्भ से ही संस्कार धार्मिक एंव सामाजिक एकता के प्रभावकारी माध्यम रहे है। उनका उदय निःसंदेह अतीत में हुआ था लेकिन कालक्रम से अनेक परिवर्तनों के साथ वे आज भी जीवित है। संस्कार का अभिप्राय उन धार्मिक कृत्यों से है जो किसी व्यक्ति को अपने समाज का पूर्ण रुप से योग्य सदस्य बनाने के उद्देश्य से उसके शरीर, मन और मस्तिष्क को पवित्र करने के लिए किए जाते थे। हिंदू संस्कारों का उद्देश्य भी व्यक्ति में अभीष्ट गुणों को जन्म देना होता है। प्राचीन भारत में संस्कारों का मनुष्य के जीवन में विशेष महत्व था। संस्कारों के द्वारा मनुष्य अपनी सहज प्रवृतियों का पूर्ण विकास करके अपना और समाज दोनों का कल्याण करता था। ये संस्कार इस जीवन में ही मनुष्य को पवित्र नहीं करते थे, उसके पारलौकिक जीवन को भी पवित्र बनाते थे।

भारतीय मानव जीवन में संस्कारों का महत्त्व वैदिक काल से चला आ रहा है। मानव जीवन को परिष्कृत करने के लिये हमारे ऋषियों ने अनेक प्रयत्न किये हैं उन्होंने जन्म के पूर्व से लेकर मृत्यु पर्यन्त समग्र जीवन को वैज्ञानिक प्रक्रिया के साथ अविच्छिन्न रूप से समन्वित किया है। संस्कारों से परिपूर्ण मानव-जीवन हमारी भारतीय संस्कृति का मेरूदण्ड है। प्रत्येक संस्कार याज्ञिक-प्रक्रिया द्वारा सम्पन्न हो कर जीवन में उदात्ता के अवतरण का एक माध्यम बनता है, क्योंकि संस्कारों का सम्बन्ध धार्मिक-विश्वास, आस्थाएवं सामाजिक परम्पराओं से हैं, जो बातें समाज में पहले प्राकृत रूप में विद्यमानथीं, वहीं क्रमशः धीरे-धीरे सांस्कृतिक रूप में परिवर्तित हो गई।

वास्तव में संस्कार मानव जीवन को परिष्कृत करने वाली एक आध्यात्मिक विधा है। संस्कारों से सम्पन्न होने वाला मानव सुसंस्कृत, चरित्रवान, सदाचारी और प्रभुपरायण हो सकता है अन्यथा कुसंस्कार जन्य चारित्रिक पतन ही मनुष्य और समाज को विनाश की ओर ले जाता है। वही संस्कार युक्त होने पर सबका लौकिक और पारलौकिक अभ्युदय सहज सिद्ध हो जाता है। संस्कार सदाचरण और शाश्त्रीय आचार के घटक होते हैं। संस्कार, सद्विचार और सदाचार के नियामक होते हैं। इन्हीं तीनों की सुसम्पéता से मानव जीवन को अभिष्ट लक्ष्य की प्राप्ति होती है। भारतीय संस्कृति में संस्कारों का महत्व सर्वोपरि माना गया है, इसी कारण गर्भाधान से मृत्यु पर्यन्त मनुष्य पर सांस्कारिक प्रयोग चलते ही रहते हैं। इसलिए भारतीय संस्कृति सदाचार से अनुप्रमाणित रही है।

प्राकृतिक पदार्थ भी जब बिना सुसंस्कृत किए प्रयोग के योग्य नहीं बन पाते हैं तो मानव के लिए संस्कार कितना आवश्यक है यह समझ लेना चाहिए। जब तक मानव बीज रूप में है तभी से उसके दोषों का अहरण नहीं कर लिया जाता तब तक वह व्यक्ति आर्य नहीं बन पाता है और वह मानव जीवन से राष्ट्रीय जीवन में कहीं भी हव्य कव्य देने का अधिकारी भी नहीं बन पाता। मानव जीवन को पवित्र चमत्कारपूर्ण एवं उत्कृष्ट बनाने के लिए संस्कार अत्यावश्यक है।

आयुर्वेद के जनक महर्षि आचार्य चरक (च.स.वि.1/2) कहते हैं कि-

संस्कारोहि गुणान्तराधानम् उच्चते ।

अर्थात- यह असर अलग है। मनुष्य के दुर्गुणों को निकाल कर उसमें सद्गुण आरोपित करने की प्रक्रिया का नाम संस्कार है।

अंगिरा ऋषि (वीर मित्रोदयसंस्कार प्रकाश- भाग-1, पृष्ठ 139) कहते हैं कि-

चित्रकर्म यथाडेनेकैरंगैसन्मील्यते षनैः।

ब्राह्ण्यमपि तद्वास्थात्संस्कारैर्विधिपूर्व कैः।।

अर्थात- जिसके प्रकार किसी चित्र में विविध रंगों के योग से धीरे-धीरे निखार लाया जाता है, उसी प्रकार विधिपूर्वक संस्कारों के सम्पादन से ब्रह्ण्यता प्राप्त होती है।

मानवीय संस्कारों के महत्वपूर्ण तत्वों की ओर इंगित करते हुए भगवान वेद व्यास कहते हैं-

न चात्मानं प्रशंसेद्वा परनिन्दां च वर्जयेत्।

वेदनिन्दां देवनिन्दां प्रयन विवर्जयेत्।। (पद्मपुराण )

हिन्दू संस्कारों का वर्णन वेदों में कुछ सूक्तों, कुछ ब्राह्मणों, ग्रन्थों, गृह्य तथा धार्मिक सूक्तों, स्मृतियों, एवं परवर्ती निबन्ध ग्रन्थों में पाया जाता है। ये ग्रन्थ विभिन्न युगों तथा स्थानों में उद्गार, विधि, अथवा पद्धति के रूप में लिखे गये।

गृह्यसूत्रों में संस्कारों का अत्यंत विस्तृत रूप में विवेचन हुआ है-

  • पारस्कर गृह्यसूत्र- गर्भाधान’, पुंसवन, सीमन्तोन्नयन’, जातकर्म’, नामकरण,उपनयन’, समावर्तन’ संस्कारों का विस्तारपूर्वक वर्णन मिलता है।
  • गोभिलगृह्यसूत्र- अत्यन्त विस्तृत रूप में संस्कारों का विवेचन किया गया है। गर्भाधान, पुंसवन’, सीमन्तोन्नयन” जातकर्म’, निष्क्रमण, नामकरण’, चूड़ाकरण’, उपनयन, गोदान संस्कारों की चर्चा की गई है।

उपनिषदों में भी संस्कारों का वर्णन मिलता है-

  • छान्दोग्य-उपनिषद् में ब्रह्मचर्य के साधारण काल का वर्णन किया गया है।’
  • बृहदारण्यक-उपनिषद् मेंपवित्र गायत्री मन्त्र का वर्णन मिलता है।

मनुस्मृति में अनेक बहुमूल्य व्यावहारिक निर्देश प्राप्त होते हैं-‘ अनेक स्थलों पर धर्मसूत्रों तथा गृह्यसूत्रों के वर्ण्य-विषय एक-दूसरे में समाविष्ट हो जाते हैं।

धर्म-सूत्र वर्ण और आश्रम का निरूपण करते हैं- आश्रम-धर्म के अन्तर्गत उपनयन और विवाह से सम्बद्ध नियमों का विशद् वर्णन वर्णित है। यह संस्कारों के सामाजिक अंगों का सविस्तार निरूपण करते हैं।

स्मृतियां, धर्म-सूत्रों के परवर्ती तथा सुव्यवस्थिति विकास का प्रतिनिधित्व करती हैं- धर्मसूत्रों के समान वह भी मुख्यतः कर्मकाण्डों की अपेक्षा मनुष्य के सामाजिकव्यवहार से सम्बन्धित हैं। उनके वर्ण्य-विषयों का वर्गीकरण आचार, व्यवहार औरप्रायश्चित-इन तीन शीर्षकों के अन्तर्गत किया जा सकता है। प्रथम शीर्षक के अन्तर्गत संस्कार तथा उनकी नियामक विधियां दी गई हैं। उपनयन और विवाह कासर्वाधिक और पूर्ण वर्णन किया गया है, क्योंकि इन संस्कारों से वैयक्तिक जीवन केप्रथम और द्वितीय सोपान प्रारम्भ होते हैं। पञ्च महायज्ञों को भी स्मृतियों में मुख्यस्थान प्राप्त है। मनुस्मृति इन्हें अत्यन्त महत्त्वपूर्ण स्थान देती है और इसका विस्तृतनिरूपण करती है।

महाकाव्य भी संस्कारों के विषय में कुछ जानकारी देते हैं- ब्राह्मणों ने जो कि साहित्य के संरक्षक थे, अपने धर्म और संस्कृति के प्रचार के लिए महाकाव्योंका उपयोग किया, क्योंकि वह वर्तमान समय में लोकप्रिय हो चुके थे।

  • रामायण, महाभारत में अनेक संस्कार-सम्बन्धी तत्त्वों का समावेश है। रामायण तो आचारशास्त्र ही है।
  • रघुवंश तथा कुमारसम्भव जैसे महाकाव्य और उत्तररामचरित आदि नाटक ऐसे उदाहरण प्रस्तुत करते हैं, जिनसे संस्कार से सम्बद्ध अनेक जटिलविषयों का स्पष्टीकरण हो जाता है।
  • इसके पश्चात् महाकवि कालिदास ने अपनीरचनाओं में एवं भवभूति विरचित उत्तरामचरित आदि नाटकों में ऐसे उदाहरण प्रस्तुतकिये हैं, जिनसे संस्कार से सम्बन्धित अनेक जटिल विषयों का स्पष्टीकरण हो जाता है।

संस्कार : अर्थ एवं परिभाषा

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धर्मशास्त्रों में संस्कारों का अर्थ परिभाषा एवं स्वरूप का वर्णन किया गया है। प्रकृति से उत्पन्न होने वाली वस्तु प्राकृत कहलाती है।

“गुणदोषमयं सर्व स्रष्टा सृजति कौतुकी”

इसके अनुसार सर्वत्र गुण-दोषों का सम्मिश्रण देखा जाता है। व्यक्ति को परिष्कृत करने के लिए संस्कारित करने के लिये जो पद्धति  अपनाई जाती है, उसे ही संक्षेप में संस्कार कहते हैं। (पुस्तक: वेदों में भारतीय संस्कृति- पं. आद्यादत्त ठाकुर)

संस्कार शब्द की व्युत्पत्ति संस्कृत की सम्पूर्वक कृञ् धातु से घञ् प्रत्यय करके की गई है। (सम्+कृ+घञ्= संस्कार) औरइसका प्रयोग अनेक अर्थों में किया जाता है। मीमांसक विद्वान् यज्ञांगभूत पुरोडाशआदि की विधिवत् शुद्धि से इसका आशय समझते है। अद्वैतवेदान्ती जीव परशारीरिक क्रियाओं के मिथ्या आरोप को संस्कार मानते है। नैयायिक भावों को व्यक्तकरने की आत्मव्यञ्जक शक्ति को संस्कार मानते है। जिसका परिगणन वैशेषिकदर्शन में चौबीस गुणों के अन्तर्गत किया गया है।

संस्कृत साहित्य में इसका प्रयोग शिक्षा, संस्कृति, प्रशिक्षण, सौजन्य, पूर्णता,व्याकरण सम्बन्धी, शुद्धि, संस्करण, परिष्करण, शोभा, आभूषण, प्रभाव, स्वरूप,स्वभाव, क्रिया, छाप, स्मरण शक्ति, स्मरण शक्ति पर पड़ने वाला प्रभाव, शुद्धि क्रिया, धार्मिक विधि-विधान, अभिषेक, विचार, भावना, धारणा, कार्य का परिणाम्,क्रिया की विशेषता आदि अर्थो में हुआ है। इस प्रकार यह स्पष्ट है कि संस्कारशब्द के साथ विलक्षण अर्थो का योग हो गया है। जो इसके दीर्घ इतिहास क्रम मेंइसके साथ संयुक्त हो गये है। इसका अभिप्राय शुद्धि ही धार्मिक क्रियाओं तथाव्यक्ति के दैहिक, मानसिक, तथा बौद्धिक परिष्कार के लिये किये जाने वालेअनुष्ठानों में से है। जिनसे वह समाज का पूर्ण विकसित सदस्य हो सके। किन्तुहिन्दु संस्कारों में अनेक आरम्भिक विचार, अनुष्ठान भी समाविष्ट है, जिनकाउद्देश्य केवल औपचारिक दैहिक संस्कार ही न होकर संस्कार्य व्यक्ति के सम्पूर्णव्यक्तित्व का परिष्कार, शुद्धि तथा पूर्णता भी है। साधारणतया यह समझा जाता थाकि सविधि, संस्कारों के अनुष्ठान से संस्कृत व्यक्ति में विलक्षण तथा अवर्णनीयगुणों का प्रादुर्भाव हो जाता’ संस्कार शब्द का प्रयोग इस सामूहिक अर्थ में होता था

संस्कारों का उदय वैदिक काल या उससे पूर्व हो चुका था, जैसा कि वेदों के विशेष कर्मकाण्डीय मंत्रों से विदित होता है। किन्तु वैदिक साहित्य में संस्कार शब्द का प्रयोग प्राप्त नहीं होता। ब्राह्मण साहित्य में भी इसका उल्लेख नहीं है। यद्यपि इसके विशेष प्रकरणों में उपनयनः अन्त्येष्टि, आदि कुछ संस्कारों के अंगों का वर्णन किया गया है। मीमांसक विद्वान् इस शब्द का प्रयोग वैयक्तिक शुद्धि के लिये कियेजाने वाले अनुष्ठानों के लिये न कर अग्नि में आहुति देने के पूर्व यज्ञीय सामग्री के परिष्कार के लिये करते थे। संस्कारों के अंगभूत विधि-विधान, कर्मकाण्ड, आचार,प्रथाये आदि प्रायः सार्वभौम है, और संसार के विविध देशों में पायी जाती है।प्राचीन संस्कृतियों में उनका प्रतिष्ठित स्थान है और आधुनिक धर्मो में भी उनकापर्याप्त प्रतिनिधित्व है। अतः संस्कारो के ऐतिहासिक विकास को ठीक-ठीक समझनेके लिये हिन्दु संस्कारों का अन्य धर्मों में प्रचलित संस्कारों तथा विधि-विधान केसाथ तुलनात्मक अध्ययन भी आवश्यक है। आधुनिक उपयोगितावादी दृष्टि सेदेखने पर संस्कारों के कई अंग असंगत तथा उपसहनीय जान पडेंगे। किन्तु जिन्हेंअतीत, प्राचीन, जीवन और संस्कृति के सामान्य सिद्धान्तों को समझने की क्षमता,धैर्य तथा रूचि है, उन्हें ऐसा प्रतीत नहीं होगा। उनको आभास होगा कि मानव ज्ञानभण्डार को समृद्ध बनाने हेतु उनका परिचय आवश्यक है। संस्कार सम्बन्धी विश्वासतथा प्रथायें अन्धविश्वास मूलक जादू-टोना तथा पौरोहित्य कला पर अवलम्बितनहीं है। वे पर्याप्त मात्रा में परस्पर सुसंगत तथा युक्ति युक्त है, तथापि उनका उदयआज से भिन्न मनोवैज्ञानिक वातावरण में हुआ था।

संस्कार दो प्रकार से समाज को प्रभावित करते है- (1) सिद्धान्तीकरण,(2) अभ्यास। पहले से धीरे-धीरे विचारों तथा विश्वासों का स्वरूप स्थिर होता है।सभी नियामक विधियों से यह प्रभाव शक्तिमान होता है। औचित्य और कर्त्तव्य कीधारणा मनुष्य को अपने पथ से विचलित नहीं होने देती। संस्कार इसकी चेतावनीजीवन के सभी मोडों पर देते है। यह प्रक्रिया शैशवावस्था से आरम्भ होती है।

‘संस्कृति’ शब्द सम् उपसर्ग पूर्वक डुकृञ धातु के योग से बना है। अंग्रेजी में संस्कृति शब्द के लिए ‘कल्चर’ शब्द का प्रयोग किया जाता है। संस्कृति का सम्बन्ध संस्कार से है।

  • डॉ० सत्यव्रत सिद्धान्तालंकार संस्कारों की वैज्ञानिक विधि से व्याख्या करते हुए अपने ग्रन्थ ‘संस्कार चन्द्रिका (पृष्ठ – 22)’ में लिखते हैं कि बालक के उत्पन्न होते ही उसे संस्कारों की भट्ठी में डालना ही संस्कार कहलाता है। संस्कार समुच्चय की भूमिका में ज्ञानमय प्रगतिशील और सफल बनाने का नाम साधन संस्कार है।
  • स्कन्धपुराण (नागर खण्ड अ० 239 श्लो० 31) में कहा गया है कि “जन्मना जायते शूद्रः संस्काराद्द्विज उच्यते”॥ अर्थात्-  जन्म से सभी शूद्र होते हैं संस्कारों से द्विज बनते हैं।
  • आचार्य चरक कहते है-‘संस्कारो हि गुणान्तराधानामुच्यते’ (चरक संहिता,विमान 1/27),“दुर्गुनों एवं दोषों का परिहार तथा गुणों का परिवर्तन करके भिन्न एक नवीन गुणों का आधान करने का नाम संस्कार है।” निर्गुण को सगुण बनाना,विकारों एवं अशुद्धियों का निवारण करना तथा मूल्यवान गुणोंको सम्प्रेषित अथवा संक्रमित करना संस्कारों का कार्य है।
  • मीमांसा दर्शन के (3/1/3) सुत्र की व्याख्या में शबरस्वामी ने ‘संस्कार’ शब्द का अर्थ इस प्रकार किया है -‘संस्कारों नाम स भवति यस्मिञजाते पदार्थो भवति योग्यः’कस्यचिदर्थरय अर्थात् सस्कार वह है, जिसके होने से पदार्थ याव्यक्ति किसी कार्य के योग्य हो जाता है।
  • तन्त्रवार्तिक (पृ. 1078) के अनुसार – ‘योग्यतां चाद्धानाः क्रिया:संस्कारा इत्युच्यन्ते’ अर्थात संस्कार वे क्रियांए तथा रीतियां हैं,जो योग्यता प्रदान करती है। वह योग्यता दो प्रकार की होती है- (1) पापमोचन से उत्पन्न योग्यता तथा (2) नवीन गुणों सेउत्पन्न योग्यता।
  • मानवधर्मशास्त्र के प्रवर्तक महर्षि मनु ने लिखा है —-निकादिश्मशानान्तो मन्त्रस्यिोदितो विधिः ।तस्य शास्तेडधिकारोऽस्मिञज्ञेयो नान्यस्य कस्यचित् ।।(मनु. 2/26)मनुष्यों के शरीर और आत्मा को उन्नत करने के लियेमन्त्रोच्चारण पूर्वक यथाविधि निषेक से लेकर श्मशान अर्थात्गर्भाधान से लेकर अन्त्येष्टिपर्यन्त जिसके संस्कार होते हैं, वहींशास्त्र का अधिकारी होता है।
  • मीमांसा दर्शन के (3/1/3) सुत्र की व्याख्या में शबरस्वामी ने ‘संस्कार’ शब्द का अर्थ इस प्रकार किया है -‘संस्कारों नाम स भवति यस्मिञजाते पदार्थो भवति योग्यः’कस्यचिदर्थरय अर्थात् सस्कार वह है, जिसके होने से पदार्थ याव्यक्ति किसी कार्य के योग्य हो जाता है। मीमांसा दर्शन संस्कार का आशय यज्ञीय पुरोडाश आदिकी सविधि शुद्धि मानता है – ‘प्रोक्षणादिजन्यसंस्कारों यज्ञड्पुरोडशिषु।’
  • वीरमित्रोदेय संस्कार प्रकाश (भाग-1 , पृ.132) के अनुसार संस्कृत की परिभाषा है – ‘आत्मशरीरान्यतरनिष्ठो विहितक्रियाजन्योडतिशय विशेष: संस्कारः। संस्कार का अर्थ होता है- परिशुद्धि या सफाई।
  • महर्षि जैमिनी (जैमिनी सूत्र, 3.1.3)  के अनुसार संस्कार वह है, जिससे कोई व्यक्तिया वस्तु किसी कार्य के योग्य हो जाते हैं, संस्कारों नाम सभवति यस्मिञजाते पदार्थो भवति योग्यः कस्यचिदर्थस्या”संस्कारों के द्वारा वस्तु या प्राणी को और अधिक संस्कृत परिमार्जित एंव उपादेय बनाना ही इसका मुख्य उद्देश्य हैअर्थात् संस्कार पात्रता पैदा करते हैं।

संस्कारों का विवेचन मुख्य रुप से गृह्यसूत्रों में ही मिलता है, किन्तु इनमें भी संस्कार शब्द का प्रयोग यज्ञ सामग्री के पवित्रीकरण के अर्थ में किया गया है। वैखानस स्मृति सूत्र (200-500 ई.) में सबसे पहले शरीर संबंधी संस्कारों और यज्ञों में स्पष्ट अन्तर मिलता है। 

मनु और याज्ञवल्क्य के अनुसार संस्कारों से द्विजों के गर्भ और बीज के दोषादि की शुद्धि होती है। कुमारिल भट्ट (8वीं ई.) ने तन्त्रवार्तिक ग्रंथ में इसके कुछ भिन्न विचार प्रकट किए हैं। उनके अनुसार मनुष्य दो प्रकार से योग्य बनता है – पूर्व- कर्म के दोषों को दूर करने से और नए गुणों के उत्पादन से। संस्कार ये दोनों ही काम करते हैं।

संस्कारों की संख्या

संस्कारों की संख्या के सम्बन्ध में भी विचारक एक मत नहीं हैं-

ऋग्वेद में संस्कारों का उल्लेख नहीं है, किन्तु इस ग्रंथ के कुछ सूक्तों में विवाह, गर्भाधान और अंत्येष्टि से संबंधित कुछ धार्मिक कृत्यों का वर्णन मिलता है।

दशमासाञ्छशयान: कुमारो अधि मातरि!

निरैतु जीवो अक्षतों जीवन्त्या अधि!!  (ऋग्वेद- 5/75/9)

अर्थात्- हे परमात्मन, दस माह तक माता के गर्भ में रहने वाला सुकुमार जीव प्राण धारण करता हुआ अपनी प्राण शक्ति सम्पन्न माता के शरीर से सुखपूर्वक बाहर निकले।

ऋग्वेद में भी गर्भाधान संस्कार का उल्लेख हुआ है-

अहं गर्भमदधामोषधीष्वहं विश्वेषु भुवनेष्वन्त।

अहं प्रजा अजनयं पृथिव्यामहं जनिभ्यो अपरीषुपुत्रान्।। (ऋग्वेद- 10.183.3)

यजुर्वेद में केवल श्रौत यज्ञों का उल्लेख है, इसलिए इस ग्रंथ के संस्कारों की विशेष जानकारी नहीं मिलती।

गोपथ और शतपथ ब्राह्मणों में उपनयन गोदान संस्कारों के धार्मिक कृत्यों का उल्लेख मिलता है।

तैत्तिरीय उपनिषद् में शिक्षा समाप्ति पर आचार्य की दीक्षांत शिक्षा मिलती है।

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अथर्ववेद में विवाह, अंत्येष्टि, उपनयन और गर्भाधान संस्कारों का पहले से अधिक विस्तृत वर्णन मिलता है। अथर्ववेद का 5.25वां सूक्त गर्भाधान संस्कार से संबधित है। अथर्ववेद के इस सूक्त के तीसरे व पांचवें मंत्र में जो कि वृहदारण्यक उपनिषद (6.4.21) में उदृधृत है, गर्भाधान संस्कार का उद्घाटन करता प्रतीत होता है-

अथास्याउरू विहापयति विजिहीथां द्यावापृथिवी इति तस्यामर्थं निष्ठाय मुखेन मुखं संधाय त्रिरेनामनुलोमामनुमाष्टि ।

विष्णुर्योनि कल्पयतु त्वष्टा रूपाणि पिंषतु।

आसिंचतु प्रजापतिर्धाता गर्भं दधातु ते।।

गर्भ धेहि सिनीवालि गर्भ धेहि पृथुष्टुके।

गर्भ अश्विनौ देवावाधत्तां पुष्कर:जौ।। (वृहदारण्यक उपनिषद्- 6/4/21)

उपयुर्क्त मंत्र अथर्ववेद 5.25.3 और 5.25.5 से उदृधृत है।

अर्थात् गृह्यसूत्रों से पूर्व संस्कारों के पूरे नियम नहीं मिलते। ऐसा प्रतीत होता है कि गृहसूत्रों से पूर्व पारम्परिक प्रथाओं के आधार पर ही संस्कार होते थे। सबसे पहले गृहसूत्रों में ही संस्कारों की पूरी पद्धति का वर्णन मिलता है। गृह्यसूत्रों में संस्कारों के वर्णन में सबसे पहले विवाह संस्कार का उल्लेख है। इसके बाद गर्भाधान, पुंसवन, सीमंतोन्नयन, जात- कर्म, नामकरण, निष्क्रमण, अन्न- प्राशन, चूड़ा- कर्म, उपनयन और समावर्तन संस्कारों का वर्णन किया गया है। अधिकतर गृह्यसूत्रों में अंत्येष्टि संस्कार का वर्णन नहीं मिलता, क्योंकि ऐसा करना अशुभ समझा जाता था। स्मृतियों के आचार प्रकरणों में संस्कारों का उल्लेख है और तत्संबंधी नियम दिए गए हैं। इनमें उपनयन और विवाह संस्कारों का वर्णन विस्तार के साथ दिया गया है, क्योंकि उपनयन संस्कार के द्वारा व्यक्ति ब्रह्मचर्य आश्रम में और विवाह संस्कार के द्वारा गृहस्थ आश्रम में प्रवेश करता था।

आश्वलायन गृह्यसूत्र ऋग्वेद से सम्बद्ध हैं। इसमें 4 अध्याय हैं, जिनमें संस्कारों, कृषि कर्मों एवं पितृमेघ आदि धार्मिक कृत्यों का प्रधानरूप से वर्णन मिलता है। आश्वलायन गृह्यसूत्र (1.22.1) में 11 संस्कारों का वर्णन मिलता है जो निम्नलिखित हैं- 1. विवाह, 2. गर्भाधान, 3. पुंसवन, 4. सीमन्तोन्नयन, 5. जातकर्म, 6. नामकरण, 7.चूडाकरण, 8. अन्नप्राशन, 9. उपनयन, 10. समावर्तन, 11. अन्त्येष्टि।

मनु (मनु.स्मृ- 16,26,29,3-14) के अनुसार गर्भाधान से लेकर मृत्यु पर्यन्त 13 स्मार्त संस्कार हैं- गर्भाधान, पुंसवन,सीमन्तोन्नयन, जातकर्म, नामधेय, निष्क्रमण, अन्नप्राशन, चूडाकर्म, उपनयन,मौजीबन्धन, केशान्त समावर्तन अन्त्येष्टि।

बौधायन गृह्यसूत्र (यह गृह्यसूत्र कृष्णयजुर्वेद की तैत्तिरीय शाखा से सम्बद्ध हैं) में 13 संस्कारों का वर्णन किया गया है- विवाह, गर्भाधान, पुंसवन, सीमन्तोन्नयन, जातकर्म, नामकरण, निष्क्रमण, अन्नप्राशन, चूडाकर्म, उपनयन, कर्णवेध, समावर्तन तथा पितृमेध।

पारस्कर गृह्यसूत्र (1/4/13) में 13 संस्कारों की चर्चा की गई है-विवाह, गर्भाधान, पुंसवन, सीमन्तोन्नयन, जातकर्म, नामकरण,निष्क्रमण, अन्नप्राशन, चूड़ाकरण, उपनयन, केशान्त, समावर्तन, अन्त्येष्टि।

आश्वलायन, पाररकर, बौधायन गृह्यसूत्रों से हटकर सामवेदीय गृह्यसूत्रों में गोभिल गृह्यसूत्र, खादिर गृह्यसूत्र तथा द्रारायण गृह्यसूत्र में दस संस्कारों के ही वर्णन प्राप्त होते हैं। प्रायः सभी गृह्यसूत्र विवाह से ही संस्कारों का वर्णन प्रारम्भ करते हैं, लेकिन जैमिनि गृह्यसूत्र में सर्वप्रथम पुंसवन संस्कार का वर्णन किया गया है। इस गृह्यसूत्र में गर्भाधान का तो वर्णन ही नहीं किया गया है।

गौतम धर्मसूत्रों (‘चत्वारिंशत् संस्कारा अष्टौ आत्मगुण’:- 3.1-4) में संस्कारों की संख्या को बढ़ाकर 40 तक पहुंचाया गया है, जिनका क्रमिक उल्लेख निम्न है-

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वर्तमान समय में षोडश (16) संस्कारों को स्वीकृत किया गया है

संस्कार विधि के प्रारम्भ में षोडश यानी सोलह संस्कारों का उल्लेख मिलता है, किन्तु व्याख्या भाग में सत्रह संस्कारों का वर्णन हुआ है। यह संस्कार इस प्रकारहैं-गर्भाधान, पुंसवनम्, सीमन्तोन्नयन, जातकर्म, नामकरण, निष्क्रमण, अन्नप्राशन चूडाकर्ण, कर्णवेधन, उपनयन, वेदारम्भ, समावर्तन, विवाह, वानप्रस्थ, संन्यास अन्त्येष्टि संस्कार।

महर्षि वेदव्यास स्मृति शास्त्र के अनुसार, 16 संस्कार प्रचलित हैं:-

गर्भाधानं पुंसवनं सीमंतो जातकर्म च। नामक्रियानिष्क्रमणेअन्नाशनं वपनक्रिया:।।

कर्णवेधो व्रतादेशो वेदारंभक्रियाविधि:। केशांत स्नानमुद्वाहो विवाहाग्निपरिग्रह:।।

त्रेताग्निसंग्रहश्चेति संस्कारा: षोडश स्मृता:। (व्यासस्मृति – 1/13-15)

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1- गर्भाधान संस्कार

हिंदू धर्म में जिन सोलह संस्कारों का वर्णन आता है, उनमें पहला संस्कार है गर्भाधान। इस संस्कार के जरिए आत्मा कोख में आती है और जीवन-मृत्यु का चक्र आरंभ होता है।

जन्मना जायते शुद्रऽसंस्काराद्द्विज उच्यते।

अर्थात: जन्म से सभी शुद्र होते हैं और संस्कारों द्वारा व्यक्ति को द्विज बनाया जाता है।

गर्भाधान के संबध में स्मृतिसंग्रह में लिखा है:-

निषेकाद् बैजिकं चैनो गार्भिकं चापमृज्यते।

क्षेत्रसंस्कारसिद्धिश्च गर्भाधानफलं स्मृतम्।।

अर्थात: अर्थात् विधिपूर्वक संस्कार से युक्त गर्भाधान से अच्छी और सुयोग्य संतान उत्पन्न होती है। इस संस्कार से वीर्यसंबधी पाप का नाश होता है, दोष का मार्जन तथा क्षेत्र का संस्कार होता है। यही गर्भाधान-संस्कार का फल है।

हिन्दू धर्म के अनुसार गृह्स्थ जीवन का एक मुख्य उद्देश्य संतान प्राप्ति भी है, ताकि यह संसार बिना किसी व्यवधान के आगे बढ़ता रहे। जिन विवाहित दंपत्तियों को माता-पिता बनने का सुख प्राप्त होता है, उनके लिए यह ईश्वर के आशीर्वाद जैसा ही है। हर जीव जो इस दुनियां में आता है वह माता-पिता बनने का सुख प्राप्त करता है लेकिन श्रेष्ठ संतान की उत्पत्ति के लिये हिंदू धर्म ग्रंथों में कुछ नियम निर्धारित किए गए हैं। जिनका पालन करना गर्भधान संस्कार कहलाता है। कहते हैं महिला और पुरुष के मिलन से जीव स्त्री के गर्भ में अपना स्थान बना लेता है। गर्भाधान संस्कार के माध्यम से जीव के पूर्वजन्म के बुरे प्रभाव को नष्ट कर अच्छे गुणों को डाला जाता है।

संस्कारों हि नाम संस्कार्यस्य गुणाधानेन वा स्याद्योषाप नयनेन वा॥ -ब्रह्मसूत्र भाष्य 1/1/4

अर्थात: व्यक्ति में गुणों का आरोपण करने के लिए जो कर्म किया जाता है, उसे संस्कार कहते हैं।

उत्तम संतान प्राप्त करने के लिए इसीलिए सबसे पहले गर्भाधान-संस्कार करना होता है जिससे पवित्र भावना का विकास होता है। तब माता-पिता के रज एवं वीर्य के संयोग से संतानोत्पत्ति होती है। यह संयोग ही गर्भाधान कहलाता है। स्त्री और पुरुष के शारीरिक मिलन को गर्भाधान-संस्कार कहा जाता है। गर्भस्थापन के बाद अनेक प्रकार के प्राकृतिक दोषों के आक्रमण होते हैं, जिनसे बचने के लिए यह संस्कार किया जाता है। जिससे गर्भ सुरक्षित रहता है। विधिपूर्वक संस्कार से युक्त गर्भाधान से अच्छी और सुयोग्य संतान उत्पन्न होती है। शास्त्रों में लिखा भी है-

आहाराचारचेष्टाभिर्यादृशोभिः समन्वितौ।

स्त्रीपुंसौ समुपेयातां तयोः पुतोडपि तादृशः।।

अर्थात : स्त्री और पुरुष जैसे आहार-व्यवहार तथा चेष्टा से संयुक्त होकर परस्पर समागम करते हैं, उनकी संतान भी वैसे ही स्वभाव का होता है।

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श्रेष्ठ संतान के जन्म के लिए आवश्यक है कि ‘गर्भाधान’ संस्कार श्रेष्ठ मुहूर्त में किया जाए। ‘गर्भाधान’ कभी भी क्रूर ग्रहों के नक्षत्र में नहीं किया जाना चाहिए। ‘गर्भाधान’ व्रत, श्राद्धपक्ष, ग्रहणकाल, पूर्णिमा व अमावस्या को नहीं किया जाना चाहिए। जब दंपति के गोचर में चन्द्र, पंचमेश व शुक्र अशुभ भावगत हों तो ‘गर्भाधान’ करना उचित नहीं होता, आवश्यकतानुसार अनिष्ट ग्रहों की शांति-पूजा कराकर गर्भाधान संस्कार को संपन्न करना चाहिए। शास्त्रानुसार रजोदर्शन की प्रथम 4 रात्रि के अतिरिक्त 11वीं और 13वीं रात्रि को भी ‘गर्भाधान’ नहीं करना चाहिए। ‘गर्भाधान’ सदैव सूर्यास्त के पश्चात ही करना चाहिए। ‘गर्भाधान’ दक्षिणाभिमुख होकर नहीं करना चाहिए। ‘गर्भाधान’ वाले कक्ष का वातावरण पूर्ण शुद्ध होना चाहिए। ‘गर्भाधान’ के समय दंपति के आचार-विचार पूर्णतया विशुद्ध होने चाहिए।

2- पुंसवन संस्कार

16 हिन्दू धर्म संस्कारों में पुंसवन संस्कार द्वितीय संस्कार है। पुंसवन संस्कार जन्म के तीन माह के पश्चात किया जाता है। पुंसवन संस्कार तीन महीने के पश्चात इसलिए आयोजित किया जाता है क्योंकि तीसरे माह से गर्भ में आकार और संस्कार दोनों अपना स्वरूप पकड़ने लगते हैं। उनके लिए आध्यात्मिक उपचार समय पर ही कर दिया जाना चाहिए। इस संस्कार के नीचे लिखे प्रयोजनों को ध्यान में रखा जाए।  गर्भिणी सूत्र दुहरायें-

ॐ दिव्यचेतनां स्वात्मीयां करोमि।

हम दिव्य चेतना को आत्मसात् कर रहे हैं।

ॐ भूयो भूयो विधास्यामि।

यह क्रम आगे भी बनायें रखेंगे। गर्भिणी औषधि को निम्न मन्त्र के साथ सूँघे।

ॐ अद्भ्यः सम्भृतः पृथिव्यै रसाच्च विश्वकर्मणः समवर्त्तताग्रे।

तस्य त्वष्टा विदधद्रूपमेति तन्मर्त्यस्य देवत्वमाजानमग्रे॥ -३१.१७  ॥ गर्भ पूजन॥

गर्भ- पूजन के लिए गर्भिणी के घर परिवार के सभी वयस्क परिजनों के हाथ में अक्षत, पुष्प आदि दिये जाएँ। मन्त्र बोला जाए। मन्त्र समाप्ति पर एक तश्तरी में एकत्रित करके गर्भिणी को दिया जाए। वह उसे पेट से स्पर्श करके रख दे। भावना की जाए, गर्भस्थ शिशु को सद्भाव और देव- अनुग्रह का लाभ देने के लिए पूजन किया जा रहा है। गर्भिणी उसे स्वीकार करके गर्भ को वह लाभ पहुँचाने में सहयोग कर रही है।

क्यों कहते हैं पुंसवन संस्कार- पुंसवन संस्कार एक हष्ट पुष्ट संतान के लिये किया जाने वाला संस्कार है। कहते हैं कि जिस कर्म से वह गर्भस्थ जीव पुरुष बनता है, वही पुंसवन-संस्कार है। शास्त्रों अनुसार चार महीने तक गर्भ का लिंग-भेद नहीं होता है। इसलिए लड़का या लड़की के चिह्न की उत्पत्ति से पूर्व ही इस संस्कार को किया जाता है।

धर्मग्रथों में पुंसवन-संस्कार करने के दो प्रमुख उद्देश्य मिलते हैं। पहला उद्देश्य पुत्र प्राप्ति और दूसरा स्वस्थ, सुंदर तथा गुणवान संतान पाने का है। मूलत: यह संस्कार वे लोग करते हैं जिन्हें पुत्र की कामना होती है। दूसरा पुंसवन-संस्कार का उद्देश्य बलवान, शक्तिशाली एवं स्वस्थ संतान को जन्म देना है। इस संस्कार से गर्भस्थ शिशु की रक्षा होती है तथा उसे उत्तम संस्कारों से पूर्ण बनाया जाता है।

हिंदू धार्मिक ग्रंथों में सुश्रुतसंहिता, यजुर्वेद आदि में तो पुंसवन संस्कार को पुत्र प्राप्ति से भी जोड़ा गया है। स्मृतिसंग्रह में यह लिखा है – गर्भाद् भवेच्च पुंसूते पुंस्त्वस्य प्रतिपादनम् अर्थात गर्भस्थ शिशु पुत्र रूप में जन्म ले इसलिए पुंसवन संस्कार किया जाता है।

कैसे करते हैं पुंसवन संस्कार- इस संस्कार में एक विशेष औषधि को गर्भवती स्त्री की नासिका के छिद्र से भीतर पहुंचाया जाता है। हालांकि औषधि विशेष ग्रहण करना जरूरी नहीं। विशेष पूजा और मंत्र के माध्यम से भी यह संस्कार किया जाता है। कहते हैं कि तीन माह तक शिशु का लिंग निर्धारण नहीं होता है। इस संस्कार से लिंग को परिवर्तित भी किया जा सकता है।

जब तीन माह का गर्भ हो, तो लगातार 9 दिन तक सुबह या रात्रि में सोते समय स्त्री को एक विशेष मंत्र अर्थसहित पढ़कर सुनाया जाता है तथा मन में पुत्र ही होगा ऐसा बार-बार दृढ़ निश्चय एवं पूर्ण श्रद्धा के साथा संकल्प कराया जाता है, तो पुत्र ही उत्पन्न होता है।

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3- सीमन्तोन्नयन संस्कार

सीमन्तोन्नयन संस्कार हिन्दू धर्म संस्कारों में तृतीय संस्कार है। यह संस्कार पुंसवन का ही विस्तार है। इसका शाब्दिक अर्थ है- “सीमन्त” अर्थात ‘केश और उन्नयन’ अर्थात ‘ऊपर उठाना’। संस्कार विधि के समय पति अपनी पत्नी के केशों को संवारते हुए ऊपर की ओर उठाता था, इसलिए इस संस्कार का नाम ‘सीमंतोन्नयन’ पड़ गया।

इस संस्कार का उद्देश्य गर्भवती स्त्री को मानसिक बल प्रदान करते हुए सकारात्मक विचारों से पूर्ण रखना था। शिशु के विकास के साथ माता के हृदय में नई-नई इच्छाएँ पैदा होती हैं। शिशु के मानसिक विकास में इन इच्छाओं की पूर्ति महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाती है।

पुंसवन संस्कार जहां गर्भाधारण के तीसरे महीने में किये जाने का विधान है वहीं सीमन्तोन्नयन संस्कार चौथे, छठे या आठवें माह में किया जाता है। अधिकतर विद्वान इस संस्कार को आठवें महीने में किये जाने के पक्ष में हैं। आइये जानते हैं सीमन्तोन्नयन संस्कार के बारे में।

सीमन्तोन्नयन संस्कार का महत्व- जैसा कि नाम से ही जाहिर होता है कि यह सीमन्तोन्नयन सीमन्त और उन्नयन से मिलकर बना है। सीमन्त बालों को कहा जाता है और उन्नयन का अर्थ होता है ऊपर उठाना। मान्यता है कि जब स्त्री गर्भधारण करती है तो समय के साथ-साथ उसके अंदर बहुत सारे परिवर्तन आते हैं। सीमन्तोन्नयन संस्कार आठवें महीने में किया जाता है। इस समय स्त्री की पीड़ा और उसके स्वभाव में परिवर्तन बहुत बढ़ जाते हैं ऐसे में उसे मानसिक रूप से तैयार करने की जरूरत होती है। इस संस्कार के बहाने पति पत्नी के केश संवारता है ताकि उसे मानसिक शक्ति प्राप्त हो। इस संस्कार की यह मान्यता भी काफी प्रबल है कि इससे गर्भ सुरक्षित रहता है। माना जाता है कि चौथे, छठे या आठवें माह में गर्भपात हो जाये तो गर्भ के जीवित रहने की संभावनाएं नहीं होती बल्कि माता के जीवन को भी कई बार संकट हो जाता है। इसलिये यह संस्कार छठे या आठवें माह में अवश्य करने की सलाह दी जाती है। इस संस्कार का एक महत्व यह भी माना जाता है कि इससे शिशु का भी मानसिक विकास होता है। क्योंकि आठवें माह में वह माता को सुनने व समझने लगता है। इसलिये मां का मानसिक स्वास्थ्य यदि बेहतर होगा तो शिशु का भी बेहतर बना रहता है।

सीमन्तोन्नयन संस्कार की विधि- शास्त्र सम्मत मान्यता है कि गूलर की टहनी से पति पत्नी की मांग निकाले व साथ में ॐ भूर्विनयामि, ॐ भूर्विनयामि, ॐ भूर्विनयामि का जाप करें। इसके पश्चात पति इस मंत्र का उच्चारण करे-

येनादिते: सीमानं नयाति प्रजापतिर्महते सौभगाय।

तेनाहमस्यौ सीमानं नयामि प्रजामस्यै जरदष्टिं कृणोमि।।

इसका अर्थ है कि देवताओं की माता अदिति का सीमंतोन्नयन जिस प्रकार उनके पति प्रजापति ने किया था उसी प्रकार अपनी संतान के जरावस्था के पश्चात तक दीर्घजीवी होने की कामना करते हुए अपनी गर्भिणी पत्नी का सीमंतोन्नयन संस्कार करता हूं। इस विधि को पूरा करने के पश्चात गर्भिणी स्त्री को किसी वृद्धा ब्राह्मणी या फिर परिवार या आस-पड़ोस में किसी बुजूर्ग महिला का आशीर्वाद लेना चाहिये। आशीर्वाद के पश्चात गर्भवती महिला को खिचड़ी में अच्छे से घी मिलाकर खिलाये जाने का विधान भी है। इस बारे में एक उल्लेख भी शास्त्रों में मिलता है-

किं पश्यास्सीत्युक्तवा प्रजामिति वाचयेत् तं सा स्वयं।

भुज्जीत वीरसूर्जीवपत्नीति ब्राह्मण्यों मंगलाभिर्वाग्भि पासीरन्।।

इसका अर्थ है कि खिचड़ी खिलाते समय स्त्री से सवाल किया गया कि क्या देखती हो तो वह जवाब देते हुए कहती है कि संतान को देखती हूं इसके पश्चात वह खिचड़ी का सेवन करती है। संस्कार में उपस्थित स्त्रियां भी फिर आशीर्वाद देती हैं कि तुम्हारा कल्याण हो, तुम्हें सुंदर स्वस्थ संतान की प्राप्ति हो व तुम सौभाग्यवती बनी रहो।

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4- जातकर्म संस्कार

हिन्दू धर्म संस्कारों में जातकर्म संस्कार चतुर्थ संस्कार है। गर्भस्थ बालक के जन्म होने पर यह संस्कार किया जाता है। इस बारे में कहा भी गया है कि “जाते जातक्रिया भवेत्”। गर्भस्थ बालक के जन्म के समय जो भी कर्म किये जाते हैं उन्हें जातकर्म कहा जाता है। इनमें बच्चे को स्नान कराना, मुख आदि साफ करना, मधु व घी चटाना, स्तनपान, आयुप्यकरण आदि कर्म किये जाते हैं। क्योंकि जातक के जन्म लेते ही घर में सूतक माना जाता है इस कारण इन कर्मों को संस्कार का रूप दिया जाता है। मान्यता है कि इस संस्कार से माता के गर्भ में रस पान संबंधी दोष, सुवर्ण वातदोष, मूत्र दोष, रक्त दोष आदि दूर हो जाते हैं व जातक मेधावी व बलशाली बनता है।

दशमासाञ्छशयान: कुमारो अधि मातरि!

निरैतु जीवो अक्षतों जीवन्त्या अधि!!  (ऋग्वेद ५/७५/९)

हे परमात्मन, दस माह तक माता के गर्भ में रहने वाला सुकुमार जीव प्राण धारण करता हुआ अपनी प्राण शक्ति सम्पन्न माता के शरीर से सुखपूर्वक बाहर निकले.

वृहदारण्यकोपनिषद् ( 6.4.24-28 ) के अनुसार-

“पुत्रोत्पत्ति के उपरांत पिता प्रसूतिकाग्नि को प्रज्वलित करके एक कांस्य पात्र में दधि- घृत को मिश्रण करके वैदिक मंत्रों का पाठ करता था तथा शिशु के कान के पास अपने मुंह को ले जाकर तीन बार “वाक्’ शब्द का उच्चारण करता था। तदनंतर उसकी जीभ में सोने की शलाका ( चम्मच से ) दधि- घृत- मधु का मिश्रण लगाता था। इस समय उपर्युक्त मंत्र का पाठ करता था, जिसमें कहा गया है “मैं तुझमें “भू’ रखता हूँ, “भूवः’ रखता हूँ, “स्वः’ रखता हूँ, “भूर्भुवः स्वः’ सभी को एक साथ रखता हूँ। इसके बाद शिशु को सम्बोधित करते हुए कहता था “तू वेद है।”” और उसका एक गुप्त नाम भी रखता था।

मान्यता यह भी है कि यदि शिशु का जन्म मूल-ज्येष्ठा या फिर किसी अन्य अशुभ मुहूर्त में हुआ हो तो पिता को शिशु का मुख देखे बिना ही स्नान करना चाहिये।

शिशु के जन्म के पश्चात बच्चे के शरीर पर उबटन लगाया जाता है। उबटन में चने का बारीक आटा यानि बेसन की बजाय मसूर या मूंग का बारीक आटा सही रहता है। इसके पश्चात शिशु का स्नान किया जाता है। मान्यता है कि गर्भ में शिसु श्वास नहीं लेता और न ही मुख खुला होता है।

प्राकृतिक रूप से ये बंद रहते हैं और इनमें कफ भरी होती है। लेकिन जैसे ही शिशु का जन्म होता है तो कफ को निकाल कर मुख साफ करना बहुत आवश्यक होता है। इसके लिये मुख को ऊंगली से साफ कर शिशु को वमन कराया जाता है ताकि कफ बाहर निकले इसके लिये सैंधव नमक बढ़िया माना जाता है। इसे घी में मिलाकर दिया जाता है।

तालु की मज़बूती के लिये नवजात क तालु पर घी या तेल लगाया जाता है। मान्यता है कि जिस तरह कमल के पत्ते पर पानी नहीं ठहरता उसी प्रकार स्वर्ण खाने वाले को विष प्रभावित नहीं करता। अर्थात संस्कार से शिशु की बुद्धि, स्मृति, आयु, वीर्य, नेत्रों की रोशनी या कहें कुल मिलाकर शिशु को संपूर्ण पोषण मिलता है व शिशु सुकुमार होता है।

उत्पन्न हुए बालक के जो कर्म किए जाते हैं, उनको जातकर्म कहा जाता है। इन कर्मों में बच्चे को स्नान कराना, मुख आदि साफ़ करना, मधु और घी आदि चटाया जाता है।, स्तनपान तथा आयुप्यकरण है। इतने कर्म सूतिका घर में बच्चे के करने होते हैं। इसलिये इनको संस्कार का रुप दिया गया है।

शिशु के उत्पन्न हो जाने पर अपने कुल देवता और वृद्ध पुरुषों को नमस्कार कर पुत्र का मुख देखकर नदी-तालाब आदि में शीतल जल से उत्तराभिमुख हो, स्नान करें। यदि मूल-ज्येष्ठा आदि अनिष्ट काल में शिशु उत्पन्न हुआ हो तो मुख देखे बिना स्नान कर लें।

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5- नामकरण संस्कार

नामकरण संस्कार हिन्दू धर्म संस्कारों में पंचम संस्कार है। यह संस्कार बच्चे के जन्म होने के ग्यारहवें दिन में कर लेना चाहिये। बच्चे का नाम उसकी पहचान के लिए नहीं रखा जाता। गोभिल गह्यसूत्रकार के अनुसार 100 दिन या 1 वर्ष बीत जाते के बाद भी नामकरण संस्कार कराने का प्रचलन है।

गोभिल गृह्यसुत्र के अनुसार

“जननादृशरात्रे व्युष्टे शतरात्रे संवत्सरे वा नामधेयकरणम्”

अर्थात- जन्म के 10 वें दिन में 100 वें दिन में या 1 वर्ष के अंदर जातक का नामकरण संस्कार कर देना चाहिए।

नामकरण-संस्कार के संबंध में स्मृति-संग्रह में निम्नलिखित श्लोक उक्त है-

आयुर्वेडभिवृद्धिश्च सिद्धिर्व्यवहतेस्तथा ।

नामकर्मफलं त्वेतत् समुद्दिष्टं मनीषिभिः ।।

अर्थात- नामकरण-संस्कार से तेज़ तथा आयु की वृद्धि होती है। लौकिक व्यवहार में नाम की प्रसिद्धि से व्यक्ति का अस्तित्व बनता है। इसके पश्चात् प्रजापति, तिथि, नक्षत्र तथा उनके देवताओं, अग्नि तथा सोम की आहुतियां दी जाती हैं। तत्पश्चात् पिता, बुआ या दादी शिशु के दाहिने कान की ओर उसके नाम का उच्चारण करते हैं। इस संस्कार में बच्चे को शहद चटाकर और प्यार-दुलार के साथ सूर्यदेव के दर्शन कराए जाते हैं।

मनोविज्ञान एवं अक्षर-विज्ञान के जानकारों का मत है कि नाम का प्रभाव व्यक्ति के स्थूल-सूक्ष्म व्यक्तित्व पर गहराई से पड़ता रहता है। नाम सोच-समझकर तो रखा ही जाय, उसके साथ नाम रोशन करने वाले गुणों के विकास के प्रति जागरूक रहा जाय, यह जरूरी है। हिन्दू धर्म में नामकरण संस्कार में इस उद्देश्य का बोध कराने वाले श्रेष्ठ सूत्र समाहित रहते हैं।

नाम प्रायः दो होते हैं- एक गुप्त नाम दूसरा प्रचलित नाम- जैसे कहा है कि- दो नाम निश्चित करें, एक नाम नक्षत्र-सम्बन्धी हो और दूसरा नाम रुचि के अनुसार रखा गया हो।

गुप्त नाम- जिसे सिर्फ जातक के माता पिता जानते हों तथा दूसरा प्रचलित नाम जो लोक व्यवहार में उपयोग में लाया जाये। नाम गुप्त रखने का कारण जातक को मारक , उच्चाटन आदि तांत्रिक क्रियाओं से बचाना है। प्रचलित नाम पर इन सभी क्रियाओं का असर नहीं होता विफल हो जाती हैं। गुप्त नाम बालक के जन्म के समय ग्रहों की खगोलीय स्थिति के अनुसार नक्षत्र राशि का विवेचन कर के रख जाता है। इसे राशि नाम भी कहा जाता है। बालक की ग्रह दशा भविष्य फल आदि इसी नाम से देखे जाते हैं। विवाह के समय जातक जातिकवों के कुंडली का मिलाप भी राशि नाम के अनुसार होता है। सही और सार्थक नामकरण के लिए बालक के जन्म का समय, जनक स्थान, और जन्म तिथि का सही होना अति आवश्यक है।

दूसरा नाम लोक प्रचलित नाम- योग्य ब्राह्मण या ऋषि बालक के गुणों के अनुरुप बालक का नामकरण करते हैं। जैसे राम, लक्षमण, भरत और शत्रुघ्न का गुण और स्वभाव देख कर ही महर्षि वशिष्ठ ने उनका नामकरण किया था। लेकिन आजकल यह लोक प्रचलित नाम सामान्यतः माता पिता नाना नानी के रूचि के अनुसार रख जाता है। इस नाम से बालक के व्यवसाय, व्यवसाय में किसी पुरुष से शत्रुता और मित्रता के ज्ञान के लिए किया जाता है

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6- निष्क्रमण संस्कार

हिन्दू धर्म संस्कारों में निष्क्रमण संस्कार षष्ठम संस्कार है। निष्क्रमण का अर्थ हैं- बाहर निकलना । इस संस्कार के द्वारा बच्चे को पहली वार सूर्यदेव का दर्शन कराया जाता हैं। बच्चे के पैदा होते ही उसे सूर्य के प्रकाश में नहीं लाना चाहिये। इससे बच्चे की आंखों पर बुरा प्रभाव पड़ सकता है। इसलिये जब बालक की आँखें तथा शरीर कुछ पुष्ट बन जाये, तब इस संस्कार को करना चाहिये।

इस संस्कार का फल विद्धानों ने शिशु के स्वास्थ्य और आयु की वृद्धि करना बताया है –

निष्क्रमणादायुषो वृद्धिरप्युद्दिष्टा मनीषिभिः

जन्मे के चौथे मास में निष्क्रमण-संस्कार होता है। जब बच्चे का ज्ञान और कर्मेंन्द्रियों सशक्त होकर धूप, वायु आदि को सहने योग्य बन जाती है। सूर्य तथा चंद्रादि देवताओ का पूजन करके बच्चे को सूर्य, चंद्र आदि के दर्शन कराना इस संस्कार की मुख्य प्रक्रिया है। चूंकि बच्चे का शरीर पृथ्वी, जल, तेज, वायु तथा आकश से बनता है, इसलिए बच्चे के कल्याण की कामना करते हुए रहता है –

शिवे ते स्तां द्यावापृथिवी असंतापे अभिश्रियौ। शं ते सूर्य

आ तपतुशं वातो ते हदे। शिवा अभि क्षरन्तु त्वापो दिव्यः पयस्वतीः ।।

अर्थात् हे बालक! तेरे निष्क्रमण के समय द्युलोक तथा पृथिवीलोक कल्याणकारी सुखद एवं शोभास्पद हों। सूर्य तेरे लिए कल्याणकारी प्रकाश करे। तेरे हदय में स्वच्छ कल्याणकारी वायु का संचरण हो। दिव्य जल वाली गंगा-यमुना नदियाँ तेरे लिए निर्मल स्वादिष्ट जल का वहन करें।

मनुस्मृति में लिखा हैं , यह संस्कार जन्म के चौथे महीने में करना चाहिए। यह संस्कार को शुभ महुरत में करना चाहिए। इस संस्कार किये बिना बच्चे को बाहर निकालना नहीं चाहिए। घर के बाहर के दुनिया में कई तरह के शक्ति भरपूर होते हैं। यहां दैवी और दैत्य शक्ति का समागम होता हैं । निष्पाप शिशु को इन सारी दुष्प्रभाव से रक्षा करने के लिए , बच्चे का पिता प्रार्थना करते हैं। मनुष्य का शरीर पंच महाभूत से बना होता हैं , इस दिन इन देवताऔं का प्रार्थना और पूजा किया जाता हैं।

इस संस्कार से संबंधित निम्न मंत्र भी अथर्ववेद में मिलता है –

शिवे ते स्तां द्यावापृथिवी असंतापे अभिश्रियौ।

शं ते सूर्य आ तपतुशं वातो वातु ते हृदे।

शिवा अभि क्षरन्तु त्वापो दिव्या: पयस्वती:।।

अर्थात् बालक के निष्क्रमण के समय देवलोक से लेकर भू लोक तक कल्याणकारी, सुखद व शोभा देने वाला रहे। सूर्य का प्रकाश शिशु के लिये कल्याणकारी हो व शिशु के हृद्य में स्वच्छ वायु का संचार हो। पवित्र गंगा यमुना आदि नदियों का जल भी तुम्हारा कल्याण करें।

कब किया जाता है- निष्क्रमण संस्कार जातक के जन्म के चौथे मास में किया जाता है। मान्यता है कि जातक के जन्म लेते ही घर में सूतक लग जाता है। जन्म के ग्याहरवें दिन नामकरण संस्कार किया जाता है हालांकि यह कुछ लोग 100वें दिन या जातक के जन्म के एक वर्ष के उपरांत भी करते हैं। लेकिन जन्म के कुछ दिनों तक बालक को घर के बाहर नहीं निकाला जाता। माना जाता है कि इस समय जातक को सूर्य के प्रकाश में नहीं लाना चाहिये क्योंकि इससे जातक के स्वास्थ्य पर कुप्रभाव पड़ सकता है, विशेषकर आंखों को नुक्सान पंहुचने की संभावनाएं अधिक होती हैं। इसलिये जब जातक शारीरिक रूप से स्वस्थ हो जाये तो ही उसे घर से बाहर निकालना चाहिये यानि निष्क्रमण संस्कार करना चाहिये।

निष्क्रण संस्कार के दिन प्रात:काल उठकर तांबे के एक पात्र में जल लेकर उसमें रोली, गुड़, लालपुष्प की पंखुड़ियां आदि का मिश्रण करें व इस जल से सूर्यदेवता को अर्घ्य देते हुए बालक को आशीर्वाद देने के लिये उनका आह्वान करें। 

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7- अन्नप्राशन संस्कार

हिन्दू धर्म संस्कारों में अन्नप्राशन संस्कार सप्तम संस्कार है। इस संस्कार में बालक को अन्न ग्रहण कराया जाता है। एक कहावत बहुत ही प्रचलित है कि “जैसा खाये अन्न वैसा होगा मन” यानि हम जिस प्रकार का अन्न (भोजन) ग्रहण करते हैं हमारे विचार हमारा व्यवहार भी उसी प्रकार का हो जाता है। सात्विक भोजन से सात्विक गुण और तामसिक भोजन से तामसी प्रवृति हमारे अंदर आ जाती हैं। खान-पान संबंधी दोषों को दूर करने के लिये ही जातक के जन्म के छह-सात मास बाद ही सप्तम संस्कार किया जाता है जिसका नाम है अन्नप्राशन।

छठे माह में बालक का अन्नप्राशन संस्कार किया जाता है। शास्त्रों में अन्न को प्राणियों का प्राण कहा गया है। गीता में कहा गया है कि अन्न से ही प्राणी जीवित रहते हैं। अन्न से ही मन बनता है। इसलिए अन्न का जीवन में सर्वाधिक महत्व है।

अन्नाशनान्मातृगर्भे मलाशाद्यपि शुद्धयति

अर्थात- माता के गर्भ में मलिन भोजन के जो दोष शिशु में आ जाते हैं, उनके निवारण और शिशु को शुद्ध भोजन कराने की प्रक्रिया को अन्नप्राशन-संस्कार कहा जाता है।

शिशु को जब 6-7 माह की अवस्था में पेय पदार्थ, दूध आदि के अतिरिक्त प्रथम बार यज्ञ आदि करके अन्न खिलाना प्रारंभ किया जाता है, तो यह कार्य अन्नप्रशन-संस्कार के नाम से जाना जाता है। इस संस्कार का उद्देश्य यह होता है शिशु सुसंस्कारी अन्न ग्रहण करे।

शुद्ध एवं सात्त्विक, पौष्टिक अन्न से ही शरीर व मन स्वस्थ रहते हैं तथा स्वस्थ मन ही ईश्वरानुभुति का एक मात्र साधन है। आहार शुद्ध होने पर ही अंतःकरण शुद्ध होता है।

आहारशुद्धौ सत्त्वशुद्धिः

अर्थात्- शुद्ध आहार से शरीर में सत्त्वगुण की वृद्धि होती है।

हिंदू धर्म के सोलह संस्कारों में अन्नप्राशन संस्कार का भी खास महत्व है। मान्यता है कि छह मास तक शिशु माता के दुध पर ही निर्भर रहता है लेकिन इसके पश्चात उसे अन्न ग्रहण करवाया जाता है ताकि उसका पोषण और भी अच्छे से हो सके। शिशु को पहली बार माता के दुध के अलावा अन्य अन्न दुध आदि पिलाये जाने की क्रिया को अन्नप्राशन कहा जाता है।

अब तक तो शिशु माता का दुग्धपान करके ही वृद्धि को प्राप्त होता था, अब आगे स्वयं अन्न ग्रहण करके ही शरीर को पुष्ट करना होगा, क्योंकि प्राकृतिक नियम सबके लिये यही है। अब बालक को परावलम्बी न रहकर धीरे-धीरे स्वावलम्बी बनना पड़ेगा। केवल यही नहीं, आगे चलकर अपना तथा अपने परिवार के सदस्यों के भी भरण-पोषण का दायित्व संम्भालना होगा। यही इस संस्कार का तात्पर्य है।

कब किया जाता है- अन्नप्राशन संस्कार से पहले निष्क्रमण संस्कार किया जाता है जो कि जन्म के पश्चात चतुर्थ मास में किया जाता है। अन्नप्राशन संस्कार छठे या सातवें मास में किया जाता है। चूंकि छह मास तक जातक को माता का दुध ही दिया जाना चाहिये इस कारण यह संस्कार सातवें माह में किया जाना चाहिये। इसका कारण यह भी है कि इस अवस्था तक शिशु हल्का भोजन पचाने में सक्षम हो जाता है। इस समय शिशु को ऐसा अन्न दिया जाना चाहिये जो पचाने में आसान व पौष्टिक हो। इसी समय शिशु के दांत भी निकल रहे होते हैं जिससे उसका पाचनतंत्र मजबूत होने लगता है। ऐसे में पौष्टिक भोजन के सेवन से शिशु तंदुरुस्त होने लगता है।

शास्त्रों में देवों को खाद्य पदार्थ निवेदित करके अन्न खिलाने का विधान बताया गया है। इस संस्कार में शुभमुहूर्त में देवताओं का पूजन करने के पश्चात् माता-पिता चांदी के चम्मच से खीर आदि पवित्र और पुष्टिकारक अन्न शिशु को चटाते हैं और निम्नलिखित मंत्र बोलते हैं-

शिवौ ते स्तां व्रीहियवावबलासावदोमधौ।

एतौ यक्ष्मं वि बाधेते एतौ मुंचतो अंहसः।।

अर्थात्- हे बालक! जौ और चावल तुम्हारे लिए बलदायक तथा पुष्टिकारक हों, क्योंकि ये दोनों वस्तुएं यक्ष्मानाशक हैं तथा देवान्न होने से पापनाशक हैं।

कैसे किया जाता है- अन्न न सिर्फ शारीरिक पोषण बल्कि मन, बुद्धि, तेज़ व आत्मिक पोषण के लिये भी आवश्यक होता है। इससे जातक तेजस्वी व बलशाली होता है। इस संस्कार के दौरान शिशु को भात, दही, शहद और घी आदि को मिश्रित कर खिलाया जाता है। अन्न से जातक का शारीरिक व आत्मिक विकास होता है। संस्कार के लिये शुभमुहूर्त देखकर उसमें देवताओं का पूजन करना चाहिये। देवपूजा के पश्चात चांदी के चम्मच से खीर आदि का पवित्र प्रसाद शिशु को मंत्रोच्चारण के साथ माता-पिता द्वारा चटाया जाता है। इस दौरान माता-पिता को निम्न मंत्र का उच्चारण करना चाहिये-

ॐ याऽ ओषधीः पूर्वा जाता देवेभ्यस्त्रियुगं पुरा।

मनै नु बभ्रूणामह* शतं धामानि सप्त च॥

गंगाजल की कुछ बूंदें पात्र में डालकर मिलाएँ। पतितपावनी गङ्गा खाद्य की पापवृत्तियों का हनन करके उसमें पुण्य संवर्द्धन के संस्कार पैदा    कर रही हैं। ऐसी भावना के साथ उसे चम्मच से मिलाकर एक दिल कर दें। जैसे यह सब भिन्न-भिन्न वस्तुएँ एक हो गयीं, उसी प्रकार भिन्न- भिन्न श्रेष्ठ संस्कार बालक को एक समग्र श्रेष्ठ व्यक्तित्व प्रदान करें।

ॐ पञ्च नद्यः सरस्वतीमपि यन्ति सस्रोतसः।

सरस्वती तु पञ्चधा सो देशेभवत्सरित्॥

सभी वस्तुएँ मिलाकर वह मिश्रण पूजा वेदी के सामने संस्कारित होने के लिए रख दिया जाए। इसके बाद अग्नि स्थापन से लेकर गायत्री मन्त्र की आहुतियाँ पूरी करने तक का क्रम चलाया जाए।

गायत्री मन्त्र की आहुतियाँ पूरी हो जाने पर पहले तैयार की गयी खीर से ५ आहुतियाँ नीचे लिखे मन्त्र के साथ दी जाएँ। भावना की जाए कि वह    खीर इस प्रकार यज्ञ भगवान् का प्रसाद बन रही है।

ॐ देवीं वाचमजनयन्त देवाः तां विश्वरूपाः पशवो वदन्ति।

सा नो मन्द्रेषमूर्जं दुहाना धेनुर्वागस्मानुप सुष्टुतैतु स्वाहा॥

इदं वाचे इदं न मम। -ऋ० ८.१००.११

आहुतियाँ पूरी होने पर शेष खीर से बच्चे को अन्नप्राशन कराया जाए।

क्रिया और भावना-  खीर का थोड़ा- सा अंश चम्मच से मन्त्र के साथ बालक को चटा दिया जाए। भावना की जाए कि वह यज्ञावशिष्ट खीर अमृतोपम गुणयुक्त है और बालक के शारीरिक स्वास्थ्य, मानसिक सन्तुलन, वैचारिक उत्कृष्टता तथा चारित्रिक प्रामाणिकता का पथ प्रशस्त करेगी।

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8- मुंडन (चूड़ाकर्म) संस्कार विधि

चूड़ाकर्म संस्कार – हिंदू धर्म में आठवां संस्कार मुंडन संस्कार होता है। यह संस्कार पहले या तीसरे साल में किया जाता है। चूड़ाकर्म संस्कार, जिसे “चौलकर्म’ भी कहा जाता है, केवल पुत्र संतति के लिए किया जाता है। इसका अर्थ है “शिशु का मुण्डन पूर्वक “शिखा’ ( चूड़ा ) का निर्धारण करना’। सभी हिंदू शास्रकारों ने इसका वर्णन किया है।

माना जाता है कि शिशु जब माता के गर्भ से बाहर आता है तो उस समय उसके केश अशुद्ध होते हैं। शिशु के केशों की अशुद्धि दूर करने की क्रिया ही चूड़ाकर्म संस्कार कही जाती है। दरअसल हमारा सिर में ही मस्तिष्क भी होता है इसलिये इस संस्कार को मस्तिष्क की पूजा करने का संस्कार भी माना जाता है। जातक का मानसिक स्वास्थ्य अच्छा रहे व वह अपने दिमाग को सकारात्मकता के साथ सार्थक रुप से उसका सदुपयोग कर सके यही चूड़ाकर्म संस्कार का उद्देश्य भी है। इस संस्कार से शिशु के तेज में भी वृद्धि होती है।

बाल कटवाने से शरीर की अनावश्यक गर्मी निकल जाती है, दिमाग व सिर ठंडा रहता है व बच्चों में दांत निकलते समय होने वाला सिर दर्द व तालु का कांपना बंद हो जाता है। शरीर पर और विशेषकर सिर पर विटामिन-डी (धूप के रूप) में पड़ने से कोशिकाएं जाग्रत होकर खून का प्रसारण अच्छी तरह कर पाती हैं जिनसे भविष्य में आने वाले केश बेहतर होते हैं।

कब करें- मनुस्मृति के अनुसार द्विजातियों को प्रथम अथवा तृतीय वर्ष में यह संस्कार करना चाहिये। अन्नप्राशन संस्कार के कुछ समय पश्चात प्रथम वर्ष के अंत में इस संस्कार को किया जा सकता है। लेकिन तीसरे वर्ष यह संस्कार किया जाये तो बेहतर रहता है। इसका कारण यह है कि शिशु का कपाल शुरु में कोमल रहता है जो कि दो-तीन साल की अवस्था के पश्चात कठोर होने लगता है। ऐसे में सिर के कुछ रोमछिद्र तो गर्भावस्था से ही बंद हुए होते हैं। चूड़ाकर्म यानि मुंडन संस्कार द्वारा शिशु के सिर की गंदगी, कीटाणु आदि दूर हो जाते हैं। इससे रोमछिद्र खुल जाते हैं और नये व घने मजबूत बाल आने लगते हैं। यह मस्तिष्क की रक्षा के लिये भी आवश्यक होता है। कुछ परिवारों में अपनी कुल परंपरा के अनुसार शिशु के जन्म के पांचवे या सातवें साल भी इस संस्कार को किया जाता है।

  • अधिकतर धर्मशास्रकारों ने इसे जन्म से तीसरे वर्ष में किये जाने का प्रस्ताव किया है, किंतु बौधा० ( 2/8 ), पार० गृ० सू० ( 2.1.1- 2 ) तथा मनु० (2.35 ) के अनुसार उसे जन्म के प्रथम या तृतीय वर्ष में संपन्न किया जाना चाहिए
  • लेकिन आश्व० गृ० सू० (1/17/1 पर नारायणी टीका ) तथा अन्य उत्तरकालीन “संस्कारप्रकाश’ आदि संस्कार पद्धतियों में कहा गया है कि चौल कर्म के लिए यद्यपि प्रथम, तृतीय या पंचम वर्षों को सर्वाधिक उपयुक्त समझा गया है
  • असुविधा होने पर इसे इससे पूर्व या बाद में अथवा उपनयन संस्कार के साथ भी किया जा सकता है। इसीलिए कई सामाजिक वर्गों में इसे उपनयन के साथ ही किये जाने की परिपाटी पायी जाती है।

कहां करें- उत्तर भारत में अधिकतर गंगा तट पर, दुर्गा मंदिरों के प्रांगण में तथा दक्षिण भारत में तिरुपति बालाजी मंदिर तथा गुरुजन देवता के मंदिरों में मुंडन संस्कार किया जाता है। संस्कार के बाद केशों को दो पुड़ियों के बीच रखकर जल में प्रवाहित कर दिया जाता है। कहीं-कहीं केश वैसे ही विसर्जित कर दिए जाते हैं। जब सूर्य मकर, कुंभ, मेष, वृष तथा मिथुन राशियों में हो, तब मुंडन शुभ माना जाता है। परंतु बड़े लड़के का मुंडन जब सूर्य वृष राशि पर हो और मां 5 माह की गर्भवती हो, तब उस वर्ष नहीं करना चाहिए।

गर्भाधान मतश्र्च पुंसवनकं सीमंत जातामिधे नामारण्यं सह निष्क्रमेण च तथा अन्नप्राशनं कर्म च।

चूड़ारण्यं व्रतबन्ध कोप्यथ चतुर्वेद व्रतानां पुरः, केशांतः सविसिर्गकः परिणयः स्यात षोडशी कर्मणाम्‌”॥

जन्म के पश्चात्‌ प्रथम वर्ष के अंत या फिर तीसरे, पांचवें या सातवें वर्ष की समाप्ति के पूर्व शिशु का मुंडन संस्कार करना आमतौर पर प्रचलित है क्योंकि हिंदू धर्म शास्त्र के अनुसार एक वर्ष से कम उम्र में मुंडन करने से शिशु के स्वास्थ्य पर बुरा प्रभाव पड़ता है। साथ ही अमंगल होने का भय बना रहता है।

कुल परंपरा के अनुसार मुंडन संस्कार- कुल परंपरा के अनुसार प्रथम, तृतीय, पंचम या सप्तम वर्ष में भी मुंडन संस्कार करने का विधान है। शास्त्रीय एवं पौराणिक मान्यताएं यह हैं कि शिशु के मस्तिष्क को पुष्ट करने, बुद्धि में वृद्धि करने तथा गर्भावस्था की अशुचियों को दूर कर मानवतावादी आदर्शों हेतु मुंडन संस्कार किया जाता है। इसका उद्देश्य बुद्धि, विद्या, बल, आयु और तेज की वृद्धि करना है।

देवस्थान और तीर्थ स्थल पर मुंडन का महत्व- मुंडन संस्कार किसी देवस्थल या तीर्थ स्थल पर इसलिए कराया जाता है कि उस स्थल के दिव्य वातावरण का लाभ शिशु को मिले तथा उसके मन में सुविचारों की उत्पत्ति हो।

मुंडन संस्कार से दीर्घ आयु की प्राप्ति होती है। शिशु सुंदर तथा कल्याणकारी कार्यों की ओर प्रवृत्त होने वाला बनता है।

तेन ते आयुषे वयामि सुश्लोकाय स्वस्तये”। आश्वलायन गृह्यसूत्र 1/17/12

जिस शिशु का मुंडन संस्कार सही समय एवं शुभ मुहूर्त में नहीं किया जाता है उसमें बौद्धिक विकास एवं तेज शक्ति का अभाव पाया जाता है। इसलिए शिशु का मुंडन शास्त्रीय विधि से अवश्य किया जाना चाहिए।Picture9

विधि- चूड़ाकर्म संस्कार किसी शुभ मुहूर्त को देखकर किया जाना चाहिये। इस संस्कार को को किसी पवित्र धार्मिक तीर्थ स्थल पर किया जाता है। इसके पिछे मान्यता है कि जातक पर धार्मिक स्थल के दिव्य वातावरण का लाभ मिले। एक वर्ष की आयु में जातक के स्वास्थ्य पर इसका दुष्प्रभाव पड़ने के आसार होते हैं इस कारण इसे पहले साल के अंत में या तीसरे साल के अंत से पहले करना चाहिये। मान्यता है कि शिशु के मुंडन के साथ ही उसके बालों के साथ कुसंस्कारों का शमन भी हो जाता है व जातक में सुसंस्कारों का संचरण होने लगता है। शास्त्रों में लिखा भी मिलता है-

“तेन ते आयुषे वपामि सुश्लोकाय स्वस्त्ये”

इसका तात्पर्य है कि मुंडन संस्कार से जातक दीर्घायु होता है। यजुर्वेद तो यहां तक कहता है कि दीर्घायु के लिये, अन्न ग्रहण करने में सक्षम करने, उत्पादकता के लिये, ऐश्वर्य के लिये, सुंदर संतान, शक्ति व पराक्रम के लिये चूड़ाकर्म अर्थात मुंडन संस्कार करना चाहिये।

9- कर्णवेध संस्कार

हिन्दू धर्म संस्कारों में कर्णवेध संस्कार नवम संस्कार है। यह संस्कार कर्णेन्दिय में श्रवण शक्ति की वृद्धि, कर्ण में आभूषण पहनने तथा स्वास्थ्य रक्षा के लिये किया जाता है। विशेषकर कन्याओं के लिये तो कर्णवेध नितान्त आवश्यक माना गया है। इसमें दोनों कानों को वेध करके उसकी नस को ठीक रखने के लिए उसमें सुवर्ण कुण्डल धारण कराया जाता है। इससे शारीरिक लाभ होता है।

मान्यता यह भी है कि कर्णभेद संस्कार से बौद्धिक विकास के साथ साथ अच्छी सेहत सहित और भी बहुत सारे लाभ होते हैं। इस संस्कार को उपनयन संस्कार से पहले ही करवाये जाने की सलाह दी जाती है ताकि जातक की बुद्धि प्रखर हो व वह अच्छे से शिक्षा ग्रहण कर सके। शास्त्रानुसार तो जिस जातक का कर्णभेद संस्कार नहीं हुआ हो वह अपने प्रियजन के अंतिम संस्कार तक का अधिकारी नहीं माना जाता था। आरंभ में यह संस्कार बालक व बालिका दोनों का समान रूप से होता था। कन्या के लिये कर्णभेद के साथ-साथ नाक छेदन भी होता था। वर्तमान में लड़कों के लिये इस संस्कार को बहुत कम किया जाता है लेकिन अपनी इच्छानुसार कुछ लोग फैशन के तौर पर कर्णभेद जरूर करवाते हैं।

कर्णवेध संस्कार उपनयन के पूर्व ही कर दिया जाना चाहिए। इस संस्कार को 6 माह से लेकर 16वें माह तक अथवा 3.5 आदि विषम वर्षों में या कुल की पंरपरा के अनुसार उचित आयु में किया जाता है। इसे स्त्री-पुरुषों में पूर्ण स्त्रीत्व एवं पुरुषत्व की प्राप्ति के उद्देश्य से कराया जाता है। मान्यता यह भी है कि सूर्य की किरणें कानों के छिद्र से प्रवेश पाकर बालक-बालिका को तेज़ संपन्न बनाती है। बालिकाओं के आभुषण धारण हेतु तथा रोगों से बचाव हेतु यह संस्कार आधुनिक एक्युपंचर पद्धति के अनुरुप एक सशक्त माध्यम भी है। हमारे शास्त्रों में कर्णवेध रहित पुरुष को श्राद्ध का अधिकारी नहीं माना गया है।

कर्णवेध-संस्कार द्धिजों (ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य) का साही के कांटे से भी करने का विधान है। शुभ समय में, पवित्र स्थान पर बैठकर देवताओं का पूजन करने के पश्चात सूर्य के सम्मुख बाल्क या बालिका के कानों को निम्नलिखित मंत्र द्धारा अभिंमत्रित करना चाहिए –

भद्रं कर्णेभिः क्षृणुयाम देवा भद्रं पश्येमाक्षभिर्यजत्राः।

स्थिरैरंगैस्तुष्टुवां सस्तनूभिर्व्यशेमहि देवहितं यदायुः।।

भद्रं कर्णेभिः क्षृणुयाम देवा भद्रं पश्येमाक्षभिर्यजत्राः।

स्थिरैरंगैस्तुष्टुवां सस्तनूभिर्व्यशेमहि देवहितं यदायुः।।

इसके बाद बालक के दाहिने कान में पहले और बाएं कान में बाद में सुई से छेद करें। उनमें कुडंल आदि पहनाएं। बालिका के पहले बाएं कान में, फिर दाहिने कान में छेद करके तथा बाएं नाक में भी छेद करके आभुषण पहनाने का विधान है। मस्तिष्क के दोनों भागों को विद्युत के प्रभावों से प्रभावशील बनाने के लिए नाक और कान में छिद्र करके सोना पहनना लाभकारी माना गया है। नाक में नथुनी पहनने से नासिका-संबधी रोग नहीं होते और सर्दी-खांसी में राहत मिलती है।[क्या ये तथ्य है या केवल एक राय है?] कानों में सोने की बालियं या झुमकें आदि पहनने से स्त्रीयों में मासिकधर्म नियमित रहता है, इससे हिस्टीरिया रोग में भी लाभ मिलता है।

कब करें- ज्योतिषाचार्यों के अनुसार कर्णवेध संस्कार चतुर्मास (हिंदू पंचाग के अनुसार आषाढ़ शुक्ल एकादशी से कार्तिक शुक्ल एकादशी तक) में करवाया जाने का विधान है। जातक के जन्म के 12वें या 16वें दिन भी यह संस्कार किया जा सकता है। इसके अलावा छठे, सातवें या आठवें मास में भी किया जा सकता है। यदि जातक के जन्म के एक वर्ष पश्चात कर्णवेध संस्कार न किया जाये तो इसके पश्चात इसे विषम वर्ष यानि तीसरे, पांचवे, सातवें इत्यादि में संपन्न करना चाहिये। कर्णछेदन संस्कार के समय वृषभ, तुला, धनु एवं मीन आदि लग्न में बृहस्पति हो तो यह अवसर इस संस्कार के लिये श्रेष्ठ माना जाता है।

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10- विद्यारंभ संस्कार

हिन्दू धर्म संस्कारों में विद्यारंभ संस्कार दशम संस्कार है। विद्यारंभ संस्कार का संबंध उप नयन संस्कार की भांति गुरूकुल प्रथा से था, जब गुरूकुल का आचार्य बालक को यज्ञोपवीत धारण कराकर, वेदाध्ययन करता था। गुरूजनों से वेदों और उपनिषदों का अध्ययन कर तत्वज्ञान की प्राप्ति करना ही इस संस्कार का परम प्रयोजन है। जब बालक-बालिका का मस्तिष्क शिक्षा ग्रहण करने योग्य हो जाता है, तब यह संस्कार किया जाता है। आमतौर पर 5 वर्ष का बच्चा इसके लिए उपयुक्त होता है।

मंगल के देवता गणेश और कला की देवी सरस्वती को नमन करके उनसे प्रेरणा ग्रहण करने की मूल भावना इस संस्कार में निहित होती है। बालक विद्या देने वाले गुरू का पूर्ण श्रद्धा से अभिवादन व प्रणाम इसलिए करता है कि गुरू उसे एक श्रेष्ठ मानव बनाए। ज्ञानस्वरूप वेदों का विस्तृत अध्ययन करने के पूर्व मेधाजनन नामक एक उपांग संस्कार करने का विधान भी शास्त्रों में वर्णित है।

इसके करने से बालक में मेधा, प्रज्ञा, विद्या, तथा श्रद्धा की अभिवृद्धि होती है। इससे वेदाध्ययन आदि में न केवल सुविधा होती है, बल्कि विद्याध्ययन में कोई बाधा उत्पन्न नहीं होती।

ज्योतिर्निबंध में लिखा हैं-

विद्यया लुप्यते पापं विद्ययाअयु: प्रवर्धते।

विद्यया सर्वसिद्धि: स्याद्विद्ययामृतमश्नुते।।

अर्थात- वेदविद्या के अध्ययन से सारे पापों का लोप होता है, आयु की वृद्धि होती है, सारी सिद्धियां प्राप्त होती हैं, यहां तक कि विद्यार्थी के समक्ष साक्षात अमृतरस अशन पान के रूप में उपलब्ध हो जाता है।

शास्त्रवचन है कि जिसे विद्या नहीं आती, उसे धर्म, अर्थ,ख्काम, मोक्ष के चारों फलों से वंचित रहना पडता है। इसलिए विद्या की आवश्यकता अनिवार्य है।

सामजिक परिप्रेक्ष्य में विद्यारंभ संस्कार की आवश्यकता- विद्या और ज्ञान का इंसान के जीवन में क्या महत्व है इसको हर कोई भली-भांति जानता है। हर इंसान का शिक्षित होना समाज को भी सुधारता है। जिस समाज में शिक्षित लोगों की संख्या जितनी ज्यादा होती है वहां उपद्रव उतने ही कम होते हैं। हालांकि सिर्फ किताबों से ली गई जानकारी को ज्ञान नहीं कहा जा सकता असली ज्ञान या विद्या वो है जो इंसान में विवेक बुद्धि का विकास कर सके। जब इंसान में विवेक का उदय हो जाता है तो वो अच्छे-बुरे में सही तरीके से फर्क कर पाता है और समाज में सही मूल्यों का सूत्रपात होता है। इसी बात को ध्यान में रखते हुए विद्यारंभ संस्कार का सामजिक परिप्रेक्ष्य में ये महत्व और ज्यादा बढ़ जाता है ताकि आने वाले समय में बच्चा अपनी विद्या और अपने ज्ञान को विवेक के साथ इस्तेमाल कर सके।

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विद्यारम्भ संस्कार– कर्मकांड

  1. विद्या, ज्ञान और शिक्षा का प्रतीक माँ सरस्वती और भगवान गणेश को माना जाता है इसलिए विद्यारंभ के दौरान पूजा स्थल पर इन दोनों की प्रतिमाएं या चित्र होने चाहिए।
  2. पूजन स्थल में पट्टी, दवात, लेखनी, स्लेट और खड़िया भी रखी जानी चाहिए।
  3. गुरु पूजन के लिए यदि बच्चे के गुरु उपस्थित हों तो उनकी पूजा की जानी चाहिए नहीं तो प्रतीक रूप में नारियल की पूजा की जानी चाहिए।
  4. उपर्युक्त तैयारियाँ करने के बाद भगवान गणेश और माँ सरस्वती का श्रद्धापूर्वक पूजन किया जाता है। इसमें सर्वप्रथम गणेश जी की पूजा की जाती है उसके बाद माँ सरस्वती की पूजा की जाती है।
गणेश पूजन सरस्वती पूजन
क्रिया बच्चे के हाथ में फूल, अक्षत, रोली देकर मंत्र जाप के साथ-साथ भगवान गणेश की मूर्ति या चित्र के सामने अर्पित करें। बच्चे के हाथ में फूल, अक्षत, रोली देकर मंत्र जाप के साथ-साथ माँ सरस्वती की मूर्ति या चित्र के सामने अर्पित करें।
भावना पूजन के दौरान अपने मन में प्रार्थना करें कि विवेक के अधिष्ठाता गणपति बालक पर अपनी कृपा रखें और उनके आशीर्वाद से बालक के विवेक में निरंतर वृद्धि हो। साथ ही बालक/बालिका की बुद्धि भी प्रखर हो। पूजा के दौरान मन में प्रार्थना करें कि बालक/बालिका को ज्ञान, कला और संवेदना की देवी माँ सरस्वती का आशीर्वाद मिले और, माँ सरस्वती के आशीर्वाद से ज्ञान और कला के प्रति बालक/बालिका का रुझान हमेशा बना रहे।
मंत्र “गणानां त्वा गणपतिं हवामहे प्रियाणां त्वा प्रियपतिं हवामहे |

निधीनां त्वा निधिपतिं हवामहे वसो मम आहमजानि गर्भधमा त्वमजासि गर्भधम्||”

“ॐ गणपतये नमः। आवाहयामि, स्थापयामि ध्यायामि||”

“ॐ पावका नः सरस्वती, वाजेभिवार्जिनीवती। यज्ञं वष्टुधियावसुः।”

“ॐ सरस्वत्यै नमः। आवाहयामि, स्थापयामि, ध्यायामि।”

भगवान गणेश और माँ सरस्वती के पूजन के बाद शिक्षा ग्रहण करने के लिए इस्तेमाल किये जाने वाले उपकरणों (दवात, कलम और पट्टी) का पूजन करें।

विद्या प्राप्ति में इन उपकरणों के महत्व को देखते हुए इन्हें विद्यारंभ संस्कार के दौरान वेदमंत्रों से अभिमंत्रित किया जाता है ताकि इनका शुरूआती प्रभाव मंगलकारी हो सके।

अधिष्ठात्री देवी पूजन

  • उपासना विज्ञान की मान्यताओं के अनुसार कलम की अधिष्ठात्री देवी ‘धृति’ हैं, पट्टी या स्लेट की अधिष्ठात्री देवी ‘तुष्टि’ हैं और दवात की अधिष्ठात्री देवी पुष्टि हैं।
  • षोडश मातृकाओं में तीनों देवियां धृति, पुष्टि और तुष्टि उन तीन भावनाओं का प्रतिनिधित्व करती हैं जो ज्ञान और विद्या हासिल करने के लिए बहुत जरुरी और आधारभूत हैं।
  • अतः विद्यारंभ संस्कार के दौरान कलम, दवात और पट्टी का पूजन करते समय इनसे संबंधित अधिष्ठात्री देवियों का पूजन किया जाता है।
  1. लेखनी पूजन

विद्यारंभ संस्कार के दौरान बालक/बालिका के हाथ में कलम दी जाती है। चूकि कलम की देवी धृति को माना जाता है जिनका भाव ‘अभिरुचि’ है। विद्या प्राप्त करने वाले के मन में यदि विद्या पाने की अभिरुचि होगी तो जीवन में वो हमेशा आगे बढ़ता जाएगा। अगर ऐसा नहीं होता तो जीवन के कई क्षेत्रों में इंसान पीछे रह जाता है। अतः कलम पूजन के दौरान धृति देवी से प्रार्थना करनी चाहिए कि शिक्षार्थी की अभिरुचि निरंतर अध्ययन में बढ़ती ही जाए और वो शिक्षा के क्षेत्र में अच्छे परिणाम हासिल करे।

क्रिया- कलम पूजन के लिए बालक/बालिका के हाथ में पुष्प, अक्षत और रोली देकर पूजा स्थल पर स्थापित कलम पर मंत्र को उच्चारित करते हुए चढ़ाएं।

मंत्र-   “ॐ पुरुदस्मो विषुरूपऽ इन्दुः अन्तमर्हिमानमानंजधीरः।

एकपदीं द्विपदीं त्रिपदीं चतुष्पदीम्अष्टापदीं भुवनानु प्रथन्ता स्वाहा। ….-८.३०

भावना- पूजन के दौरान अभिभावकों को यह भावना रखनी चाहिए कि धृति शक्ति भविष्य में शिक्षार्थी की रूचि ज्ञान और विद्या में लगाए रखेगी।

  1. दवात पूजन

कलम का इस्तेमाल बिना दवात के नहीं किया जाता। कलम स्याही या खड़िया के सहारे ही लिख पाने में समर्थ होती है। इसी वजह से कलम के बाद दवात पूजन किया जाता है। दवात की अधिष्ठात्री देवी ‘पुष्टि’ को माना गया है। पुष्टि का भाव एकाग्रता होता है, इंसान के अंदर यदि एकाग्रता है तो वो कठिन से कठिन विषय को भी वे आसानी से समझ सकता है। इसलिए पुष्टि देवी की आराधना करना अति आवश्यक है। इसके लिए पूजा स्थल में राखी दवात के कंठ पर कलावा बांधा जाता है और रोल, धूप, अक्षत और पुष्प से दवात का पूजन किया जाता है।

क्रिया- पूजा स्थल पर रखी दवात पर मंत्र का जाप करते हुए बालक/बालिका के हाथों से पूजन सामग्री चढ़ाएं।

मंत्र-  “ॐ देवीस्तिस्रस्तिस्रो देवीवर्योधसंपतिमिन्द्रमवद्धर्यन्।

जगत्या छन्दसेन्दि्रय शूषमिन्द्रेवयो दधद्वसुवने वसुधेयस्य व्यन्तु यज॥   …. -२८.४१

भावना- माता-पिता को मन में यह भावना रखनी चाहिए कि पुष्टि शक्ति के सान्निध्य से बालक/बालिका में तीव्र बुद्धि का विकास हो और उनके अंदर एकाग्रता का गुण आए।

  1. पट्टी पूजन

कलम और दवात के बाद पट्टी का पूजन किया जाता है। कलम और दवात का उपयोग तभी हो पाता है जब पट्टी या कागज़ उपलब्ध हों, इनकी अधिष्ठात्री देवी ‘तुष्टि’ हैं। तुष्टि का भाव है मेहनत और श्रमशीलता। अच्छा ज्ञान प्राप्त करने के लिए श्रम की भी आवश्यकता होती है। कई लोग ऐसे होते हैं जिनमें पढ़ने के प्रति रूचि भी होती है और मन एकाग्र भी हो जाता है लेकिन उनके अंदर सुस्ती होने के कारण वो जीवन में कुछ नहीं कर पाते इसलिए तुष्टि देवी से कामना की जाती है कि वो शिक्षार्थी को श्रमशील बनाएं।

क्रिया- पट्टी पूजन के दौरान मंत्रोच्चारण के साथ बालक/बालिका के हाथों से पूजा-स्थल पर स्थापित पट्टी पर पूजन सामग्री अर्पित कराए।

मंत्र-  ॐ सरस्वती योन्यां गर्भमन्तरश्विभ्यांपतनी सुकृतं बिभर्ति।

अपारसेन वरुणो न साम्नेन्द्रश्रियै जनयन्नप्सु राजा॥” …. – १९.९४

भावना- अभिभावक मन में यह भावना रखें कि तुष्टि शक्ति शिक्षार्थी को श्रमशील बनाए और वह जीवन के हर मोड़ पर मेहनत कर सके।

  1. गुरु पूजन

शिक्षा प्राप्त करने के लिए अध्यापक का होना अनिवार्य है। जैसे अंधकार में एक दिया उजाला कर देता है उसी प्रकार गुरु भी शिष्य में छिपे अँधेरे को ज्ञान रुपी दिए से दूर कर देता है। विद्यारंभ संस्कार के दौरान बालक/बालिका द्वारा गुरु की भी पूजा की जाती है। इससे शिक्षार्थी के मन में अपने गुरु के प्रति सम्मान में वृद्धि होती है और शिक्षक भी शिक्षार्थी को उचित ज्ञान देने के लिए प्रतिबद्ध होता है। हमारे शास्त्रों में गुरु को ब्रह्मा से भी ऊपर माना गया है क्योंकि गुरु के द्वारा ही हमें संसार का ज्ञान होता है।

क्रिया- पूजन प्रक्रिया के दौरान अगर बालक/बालिका के गुरु समक्ष न हों तो गुरु के प्रतीक स्वरूप नारियल का मंत्रोच्चारण के द्वारा पूजन करें।

मंत्र- ॐ बृहस्पते अति यदयोर्ऽअहार्द्द्युमद्विभाति क्रतुमज्ज्जनेषु,

यद्दीदयच्छवसऽ ऋतप्रजाततदस्मासु द्रविणं धेहि चित्रम्।

उपयामगृहीतोऽसि बृहस्पतयेत्वैष ते योनिबृर्हस्पतये त्वा॥

ॐ श्री गुरवे नमः। आवाहयामिस्थापयामिध्यायामि।   …..-२६.३, तैत्ति०सं० १.८.२२.१२।

भावना- बालक में शिष्योचित गुण विकसित हों और वो अपने शिक्षक की बातों को भली भाँती समझ पाए यह भावना मन में होनी चाहिए। इसके साथ ही यह भावना भी मन में बनी रहनी चाहिए कि शिक्षार्थी गुरु का कृपा पात्र बना रहे।

  1. अक्षर लेखन और पूजन

पट्टी या कागज़ पर बालक/बालिका द्वारा ‘ॐ भूर्भुवः स्वः’ लिखा जाए। ऐसा भी किया जा सकता है कि खड़िया के द्वारा शिक्षक स्लेट पर ये शब्द लिख दे और उसके बाद माता पिता के हाथों की सहायता से बालक उन शब्दों के ऊपर लिखे। या शिक्षार्थी का हाथ पकड़कर गुरु स्लेट या कागज पर  ‘ॐ भूर्भुवः स्वः’ लिखवाए। ॐ भूर्भुवः स्वः में ॐ परमात्मा का सर्वश्रेष्ठ नाम है, भू: का अर्थ है श्रम, भुवः का अर्थ है संयम और स्वः का अर्थ है विवेक। ये सारे गुण शिक्षा प्राप्ति के लिए बहुत जरुरी हैं इसलिए विद्याआरंभ संस्कार के दौरान शिक्षार्थी द्वारा यह शब्द लिखवाए जाते हैं। यह काम अगर गुरु द्वारा करवाया जाए तो बहुत शुभ होता है।

क्रिया- अभिभावक अक्षर लेखन करवाने के बाद बालक के हाथों से मंत्र का जाप करते हुए उनपर फूल, अक्षत चढ़वाएं।

मंत्र- “ॐ नमः शम्भवाय च मयोभवाय च,

नमः शंकराय च मयस्कराय चनमः शिवाय च शिवतराय च।”  ….- १६.४१

भावना- ज्योतिषियों अनुसार अगर ज्ञान को अभिव्यक्त न किया जा सके तो उस ज्ञान का कोई महत्व नहीं रह जाता इसलिए अक्षर पूजन के द्वारा बालक/बालिका में अभिव्यक्ति के गुण डालने की कोशिश की जाती है। ज्ञान के प्रथम चरण में अभिभावकों को अक्षर पूजन कर बालक/बालिका के अंदर खुद को अभियक्त करने की जिज्ञासा डालने का प्रयास किया जाता है।

विशेष आहुति

विद्यारंभ संस्कार के अंतिम चरण में हवन सामग्री में कुछ मिष्ठान मिलाकर पांच बार निम्न मंत्र के उच्चारण के साथ पांच आहुतियां  बालक/बालिका से डलवाएं। मन में भावना करें कि यज्ञ से आयी ऊर्जा से बालक/बालिका में अच्छे संस्कार आए और मानसिक रूप से शिक्षार्थी बलिष्ठ हो।

मंत्र- “ॐ सरस्वती मनसा पेशलंवसु नासत्याभ्यां वयति दशर्तं वपुः।

      रसं परिस्रुता न रोहितंनग्नहुधीर्रस्तसरं न वेम स्वाहा। इदं सरस्वत्यै इदं न मम।” …..-१९.८३

विशेष आहुति होने के बाद यज्ञ के बाकी कर्म पूरे कर लेने चाहिए और उसके बाद आशीर्वचन, विसर्जन और जयघोष किया जाना चाहिए। अंत में प्रसाद वितरण करने के बाद विद्यारंभ संस्कार का समापन किया जाना चाहिए।

11- उपनयन संस्कार

‘उपनयन संस्कार’ हिन्दू धर्म में एकादशम संस्कार माना गया है। मनुष्य जीवन के लिए यह संस्कार विशेष महत्त्वपूर्ण है। इस संस्कार के अनन्तर ही बालक के जीवन में भौतिक तथा आध्यात्मिक उन्नति का मार्ग प्रशस्त होता है। उपनयन संस्कार, जिसे जनेऊ संस्कार और यज्ञोपवीत के नाम से भी जाना जाता है। ऐसी मान्यता है कि इस संस्कार को करने से बच्चे की न केवल भौतिक, बल्कि आध्यात्मिक प्रगति भी अच्छी तरह से होती है। इस संस्कार में शिष्य को गायत्री मंत्र की दीक्षा मिलती है। इसके बाद उसे यज्ञोपवीत धारण करना होता है। अपनी-अपनी शाखा के मुताबिक वह वेदों का अध्ययन भी करता है।

इस संस्कार में वेदारम्भ-संस्कार का भी समावेश है। इसी को यज्ञोपवीत-संस्कार भी कहते हैं। इस संस्कार में वटुक को गायत्री मंत्र की दीक्षा दी जाती है और यज्ञोपवीत धारण कराया जाता है। विशेषकर अपनी-अपनी शाखा के अनुसार वेदाध्ययन किया जाता है।

यह संस्कार असल में दीक्षा पाने यानी कि शिक्षा ग्रहण करने से जुड़ा हुआ है। यह तब होता है, जब शिष्य अपने गुरु के समीप ही रहकर उनसे दीक्षा लेता है। देखा जाए तो उपनयन शब्द का अर्थ ही होता है समीप होना। इस तरह से जब बच्चे के बारे में यह मान लिया जाता है कि अब वह शिक्षा प्राप्त करने योग्य हो गया है, तो उसका उपनयन संस्कार कर दिया जाता है। दरअसल ऐसी मान्यता है कि जन्म से हर कोई  निम्न स्तर का माना जाता है। शिक्षा प्राप्त करके ही कोई द्विज हो सकता है यानी कि ज्ञानी बन सकता है। यही वजह है कि उपनयन संस्कार हर किसी के जीवन के लिए बहुत ही जरूरी होता है।

गृह्यसूत्रों के अनुसार ब्राह्मण बालक का उपनयन संस्कार आठ वर्ष की क्षत्रिय का ग्यारह वर्ष की और वैश्य का बारह वर्ष की अवस्था में किया जाता था। तीव्र बुद्धि वाले ब्राह्मण का पाँच, बलवान क्षत्रिय का छः और कृषि आदि करने की इच्छा वाले वैश्य का आठ वर्ष की अवस्था में भी यह संस्कार किया जा सकता था। अधिकतम निर्धारित आयु तक जिन उच्च वर्ण के बालकों का उपनयन नहीं जाता था।

अधिकतम निर्धारण आयु तक जिन उच्च वर्ण के बालकों का उपनयन नहीं होता था, उन्हें व्रात्य कहा जाता था और शिष्ट समाज में उनको निंदनीय समझा जाता था। मनु ने ब्राह्मण बालक के लिए चौबीस वर्ष लिखी है। तीनों वणाç के बालकों की अवस्थाओं में अंतर का कारण यह प्रतीत होता है कि ब्राह्मण बालक के घर में सदा ही पढ़ने- पढ़ाने का वातावरण रहता था। क्षत्रिय के परिवार में इससे कुछ कम और वैश्य के परिवार में उससे भी कम। ब्राह्मण को वैसे भी क्षत्रिय और वैश्य की अपेक्षा अध्ययन में कम समय लगाना पड़ता था।

इस संस्कार के बाद बालक “द्विज’ कहलाता था, क्योंकि इस संस्कार को बालक का दूसरा जन्म समझा जाता था। इस संस्कार के बाद बालक का उत्तरदायित्व बहुत बढ़ जाता था। इसी कारण इस संस्कार का बहुत महत्व था। बालक को इस बात की अनुभूति कराई जाती थी कि वह अपने परिवार और समुदाय के प्रति अपने कर्तव्य को भली- भांति समझने के लिए ब्रह्मचर्य आश्रम में रहकर अभीष्ट योग्यता प्राप्त करें।

इसके बाद बालक भिक्षा माँगता था, जिससे कि उसमें अहम्यन्यता न रहे। भिक्षा में प्राप्त भोजन वह गुरु को देता था और गुरु के भोजन कर लेने के बाद उसमें से जो भोजन शेष बचता था, उसे वह स्वयं खाता था।

विधि- बच्चा जब अपने गुरु के पास पहुंचता है और उनसे शिक्षा प्राप्त करना शुरू करता है, तो उसी दौरान उसका उपनयन संस्कार शुरू हो जाता है। इसी क्रम में बच्चे को वेद पढ़ने का अधिकारी होने से पहले उसे यज्ञोपवीत धारण करवाया जाता है। गृह्यसूत्र एवं स्मृति ग्रंथों में उपनयन संस्कार की विधि के बारे में बड़े विस्तार से बताया गया है। प्राचीन समय में तो शिष्यों को भिक्षा भी मांग कर लानी पड़ती थी। माना जाता था कि इस संस्कार को करने से शिष्य के अंदर से अहंकार भी समाप्त होने लगता है। इस संस्कार के दौरान बच्चे के पिता उसे लेकर गुरु के पास जाते हैं, जहां बच्चा गुरु को प्रणाम करके उनसे उसे शिक्षा देने की विनती करता है। फिर गुरु वैदिक मंत्रों का जाप कर शिष्य को नये कपड़े पहनने के लिए देते हैं। गुरु बच्चे से उसका नाम पूछते हैं और वह अपना नाम बताता है। वह उससे पूछते हैं कि वह किसका शिष्य है, तो इस पर शिष्य कहता है कि वह उन्हीं का शिष्य है। इसके बाद गुरु उसका उपनयन संस्कार पूरा करते हैं।

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12- वेदारंभ संस्कार

‘वेदारंभ संस्कार’ हिन्दू धर्म में द्वादश संस्कार माना गया है। ज्ञानार्जन से सम्बन्धित है यह संस्कार। वेद का अर्थ होता है ज्ञान और वेदारम्भ के माध्यम से बालक अब ज्ञान को अपने अन्दर समाविष्ट करना शुरू करे यही अभिप्राय है इस संस्कार का। शास्त्रों में ज्ञान से बढ़कर दूसरा कोई प्रकाश नहीं समझा गया है। स्पष्ट है कि प्राचीन काल में यह संस्कार मनुष्य के जीवन में विशेष महत्व रखता था। यज्ञोपवीत के बाद बालकों को वेदों का अध्ययन एवं विशिष्ट ज्ञान से परिचित होने के लिये योग्य आचार्यो के पास गुरुकुलों में भेजा जाता था। वेदारम्भ से पहले आचार्य अपने शिष्यों को ब्रह्मचर्य व्रत कापालन करने एवं संयमित जीवन जीने की प्रतिज्ञा कराते थे तथा उसकी परीक्षा लेने के बाद ही वेदाध्ययन कराते थे। असंयमित जीवन जीने वाले वेदाध्ययन के अधिकारी नहीं माने जाते थे। हमारे चारों वेद ज्ञान के अक्षुण्ण भंडार हैं।

वेदारंभ संस्कार को वास्तव में विद्यारंभ संस्कार माना जाना चाहिये क्योंकि विद्या प्राप्ति के पश्चात ही व्यक्ति वेदों अथवा अन्य धर्मग्रंथों का अध्ययन करने में सक्षम हो पाता था। तब शिक्षा का महत्त्व वेदाध्ययन की दृष्टि से अधिक था। इस कारण इस संस्कार को विद्यारंभ संस्कार अथवा वेदारंभ संस्कार के रूप में जाना जाता है। वेदों तथा अन्य धर्मग्रंथों के अध्ययन से हमें इनके बारे में पूर्ण जानकारी प्राप्त होती थी। इस दृष्टि से इसे वेदारंभ संस्कार के नाम से ही अधिक जाना गया है। वेदाध्ययन के महत्त्व को इस प्रकार से व्यक्त किया गया है-

विद्यया लुप्यते पापं विद्यायाऽयुः प्रवर्धते।

विद्याया सर्वसिद्धिः स्याद्विद्ययाऽमृतमश्रुते।।

अर्थात- वेद विद्या के अध्ययन से सारे पापों का लोप होता है अर्थात् पाप समाप्त हो जाते हैं, आयु की वृद्धि होती है, समस्त सिद्धियां प्राप्त होती हैं, यहां तक कि उसके समक्ष अमृत-रस अक्षनपान के रूप में उपलब्ध हो जाता है।

अनेक विद्वान वेदारंभ संस्कार को अक्षरज्ञान संस्कार के साथ जोड़कर देखते हैं। उनके अनुसार अक्षरों का ज्ञान प्राप्त किये बिना न तो वेदों का अध्ययन किया जा सकता है और न शास्त्रों का लेखन कार्य संभव है। इसलिये वे वेदारंभ संस्कार से पूर्व अक्षरारंभ संस्कार पर बल देते हैं। इस बारे में अनेक विद्वानों का विचार है कि प्रारंभ में तो व्यक्ति को अक्षर (लिपि) का ज्ञान नहीं था। इसलिये तब गुरुमुख द्वारा ही वेदों का अध्ययन किया जाता था। इसके पश्चात धीरे-धीरे व्यक्ति ने लिपि का ज्ञान प्राप्त करना प्रारंभ किया और कालांतर में इसमें विकास होता चला गया। विद्वानों के मतानुसार भगवान बुद्ध के समय में अनेक लिपियां प्रचलित थीं और मनुष्य को लिपि का अच्छा ज्ञान प्राप्त था।

भगवान श्रीकृष्ण ने श्रीमद्भागवत गीता में लिखे अक्षरों को श्रेष्ठ माना है।

ऐसा माना जाता है कि वेदों का सारभूत एकाक्षर ऊँ प्रथम अक्षर था जिससे सबसे पहले मनुष्य का परिचय हुआ। ऊँ अक्षर मंत्र न होकर इसमें बहुत अधिक व्यापकता का संचार दिखाई देता है। ऊँ का उच्चारण मात्र करने से ध्वनियों के स्पंदन का अनुभव होता है। महाभारत के लेखन का काम प्रथम देव श्रीगणेश द्वारा संपूर्ण हुआ था। तांत्रिकों द्वारा अक्षरों की पूजा की जाती है। इसलिये विद्याध्ययन के लिये अक्षर का ज्ञान होना अत्यंत आवश्यक है।

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13- केशांत संस्कार

हिन्दू धर्म संस्कारों में ‘केशान्त संस्कार’ त्रयोदश संस्कार है। जैसा कि नाम से ज्ञात होता है केशांत का तात्पर्य है केश यानि बालों का अंत लेकिन इससे यह भ्रम होना स्वाभाविक है कि यदि यह केशांत संस्कार में मुंडन ही किया जाता है तो फिर चूड़ाकर्म संस्कार यानि मुंडन संस्कार भिन्न कैसे है? तो इसमें अंतर यह है कि मुंडन संस्कार जातक के जन्म के समय से जो केश उसके सिर पर होते हैं उन्हें पहली बार उतरवाने का संस्कार है जबकि केशांत संस्कार में किशोरावस्था के दौरान जब जातक की दाड़ी आती है तो पहली बार उन केशों को उतारा जाता है यानि जातक की दाड़ी बनवाई जाती है इस दौरान भी जातक के सिर के बाल भी पुन: उतारे जाते हैं। दरअसल गुरु शिष्य परंपरा के दौरान जो कि उपनयन संस्कार के पश्चात आरंभ होती है। जातक ब्रह्मचर्य का पालन करते हुए गुरु के सानिध्य में रहते हुए ज्ञानार्जन करता है। गुरु से शिक्षा दीक्षा प्राप्त करने के दौरान जातक ब्रह्मचर्य का पालन करते हुए अपने केश भी नहीं कटवाता है। जब जातक युवावस्था की दहलीज़ पर आता है तो उसके श्मश्रु यानि दाड़ी भी उग आती है। इन्हीं केशों का जब विधि-विधान से अंत होता है तो इसे केशांत संस्कार कहा जाता है। इसी संस्कार के दौरान जातक द्वारा उपनयन संस्कार के दौरान धारण की गई मौजी मेखला आदि का भी परित्याग किया जाता है।

यह इस पर निर्भर करता है कि जातक द्वारा गुरुकुल या कहें वेदाध्ययन कब पूर्ण किया जाता है। असल में इस संस्कार के साथ ही जातक को गुरुकुल से विदाई देकर ब्रह्मचर्य की अवस्था से गृहस्थाश्रम में प्रवेश करने के लिये प्रेरित किया जाता है। वेद-पुराणों सहित विभिन्न विषयों में पारंगत होने के पश्चात समावर्तन संस्कार से पहले बालों की सफाई करवाकर स्नानोपरांत जातक को स्नातक की उपाधि दी जाती है।

इसके बारे में संस्कार दीपक में उल्लेख मिलता है-

केशानाम् अन्तः समीपस्थितः श्मश्रुभाग इति व्युत्पत्त्या

केशान्तशब्देन श्मश्रुणामभिधानात् श्मश्रुसंस्कार एवं केशान्तशब्देन प्रतिपाद्यते।

अत एवाश्वलायनेनापि ‘श्मश्रुणीहोन्दति’। इति श्मश्रुणां संस्कार एवात्रोपदिष्टः।

इस संस्कार के बारे में कहीं-कहीं पर गोदान संस्कार का नाम भी आया है। केश (बालों) को गौ के नाम से भी जाना जाता है।

गोदान संस्कार के बारे में कहा गया है-

गावो लोमानि केशा दीयन्ते खंडयन्तेऽस्मिन्निति व्युत्पत्त्या

गोदानं नाम ब्राह्मणादीनां षोडशादिषु वर्षेयु कर्तव्यं केशान्ताख्यं कर्मोच्यते।

अर्थात्- यह है कि गौ अर्थात् लोम-केश जिसमें काट दिये जाते हैं। इस व्युत्पत्ति के अनुसार ब्राह्मण आदि वर्णों के लिये गोदान पद का यहां उल्लेख हुआ है।

इन वर्णों के द्वारा सोलहवें वर्ष में करने योग्य केशान्त नामक कर्म का वाचक है। विद्वानों के अनुसार यह संस्कार केवल उत्तरायण में किया जाता है। इस संस्कार को सोलहवें वर्ष में करने का विधान बताया गया है। इस आयु से पूर्व यह संस्कार प्रायः नहीं होता है। इसके पश्चात् ब्रह्मचारी शिक्षार्थी को वापिस अपने घर जाने की आज्ञा मिल जाती है। इसके पश्चात् ही उसे विवाह संस्कार करने का अधिकार भी प्राप्त हो जाता है। इस संस्कार का प्रतीकात्मक महत्त्व ही अधिक है अर्थात् ब्रह्मचारी जब अपनी शिक्षा पूर्ण कर लेता था तो उसे एक नया स्वरूप देने के लिये उसके दाढ़ी के बाल काट दिये जाते थे। विद्वान इसका तात्पर्य इस बात से भी लेते हैं कि अब यह व्यक्ति अपने जीवन की दूसरी जिम्मेदारियों को पूरा करने के लिये पूर्ण रूप से तत्पर है। जब यह व्यक्ति अपने घर लौटता है तो समावर्तन संस्कार के माध्यम से यह निश्चित कर लिया जाता था कि इस व्यक्ति की शिक्षा पूर्ण हो गई है, इसलिये इसे विवाह करके गृहस्थ जीवन जीने की आज्ञा दी जाती है। वर्तमान में इस संस्कार का विशेष महत्त्व नहीं देखा जाता है। संस्कारों के संदर्भ में इसका उल्लेख करना आवश्यक था, इसलिये यहां इस संस्कार का संक्षिप्त परिचय ही दिया गया है।

विधि- अन्य संस्कारों की तरह केशांत संस्कार भी किसी शुभ मुहूर्त में संपन्न किया जाता है। यह संस्कार गुरुकुल में ही करवाया जाता है। शास्त्रानुसार विधि विधान से व्रतों का पालन करने वाला ब्रह्मचारी यानि शिष्य इस संस्कार में गुरु की आज्ञानुसार गणेश आदि देवताओं की पूजा अर्चना के पश्चात अपने सिर एवं श्मश्रु के केशों को कटवाता है। तत्पश्चात स्नान करने के पश्चात जातक को गुरु द्वारा स्नातक की उपाधि दी जाती है।

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14- समावर्तन संस्कार

हिन्दू धर्म संस्कारों में समावर्तन संस्कार द्वादश संस्कार है। यह संस्कार विद्याध्ययनं पूर्ण हो जाने पर किया जाता है। प्राचीन परम्परा में बारह वर्ष तक आचार्यकुल या गुरुकुल में रहकर विद्याध्ययन परिसमाप्त हो जाने पर आचार्य स्वयं शिष्यों का समावर्तन-संस्कार करते थे। उस समय वे अपने शिष्यों को गृहस्थ-सम्बन्धी श्रुतिसम्मत कुछ आदर्शपूर्ण उपदेश देकर गृहस्थाश्रम में प्रवेश के लिए प्रेरित करते थे।

  • जिन विद्याओं का अध्ययन करना पड़ता था, वे चारों वेद हैं –
  • वेदान्त में शिक्षा, कल्प, व्याकरण, निरुक्त, छन्द और ज्योतिषशास्त्रं।
  • उपवेद में अथर्ववेद, धनुर्वेद, गान्धर्ववेद, आयुर्वेद आदि।
  • ब्राह्मणग्रन्थों में शतपथब्राह्मण, ऐतरेयब्राह्मण, ताण्ड्यब्राह्मण और गोपथब्राह्मण आदि।
  • उपागों में पूर्वमीमांसा, वैशेषिकशास्त्र, न्याय (तर्कशास्त्र), योगशास्त्र, सांख्यशास्त्र और वेदान्तशास्त्र आदि।

ब्रह्मचर्यव्रत के समापन व विद्यार्थीजीवन के अंत के सूचक के रुप में समावर्तन (उपदेश)-संस्कार किया जाता है, जो साधारणतया 25 वर्ष की आयु में होता है। इस संस्कार के माध्यम से गुरु-शिष्य को इंद्रिय निग्रहदान, दया और मानवकल्याण की शिक्षा देता है। ऋग्वेद में लिखा है –

युवा सुवासाः परिवीत आगात् स उ श्रेयान् भवति जायमानः।

तं धीरासः कवय उन्नयन्ति स्वाध्यों 3 मनसा देवयन्तः।।

अर्थात युवा पुरुष उत्तम वस्त्रों को धारण किए हुए, उपवीत (ब्रह्मचारी) सब विद्या से प्रकाशित जब गृहाश्रम में आता है, तब वह प्रसिद्ध होकर श्रेय मंगलकारी शोभायुक्त होता है। उसको धीर, बुद्धिमान, विद्धान, अच्छे ध्यानयुक्त मन से विद्या के प्रकाश की कामना करते हुए, ऊंचे पद पर बैठाते हैं।

25 वर्ष की अवस्था तक ब्रह्मचर्यपूर्वज गुरुकुल में रहकर, गुरु से समस्त वेद-वेदागों की शिक्षा प्राप्त करके, शिष्य जब गुरु की कसौटी पर खरा उतर जाता थ, तब गुरु उसकी शिक्षा पूर्ण होने के प्रतीकस्वरूप उसका समावर्तन-संस्कार करते थे। यह संस्कार एक या अनेक शिष्यों का एक साथ भी होता था। वर्तमान युग में भी यह संस्कार विश्वविद्यालयों में होता है, किंतु उसका रुप व उद्देश्य बदल गया है। प्राचीनकाल में समावर्तन-संस्कार द्वारा गुरु अपने शिष्य को इंद्रियनिग्रह, दान, दया और मानवकल्याण की शिक्षा देकर उसे गृहस्थ-आश्रम में प्रवेश करने की अनुमति प्रदान करते थे। वे कहते थे। उत्तिष्ठ, जाग्रत, प्राप्य वरान्निबोधक….। अर्थात उठो, जागो और छुरे कि धार से भी तीखे जीवन के श्रेष्ठ पथ को पार करो। अथर्ववेद 11/7/26 में कहा गया है कि-ब्रह्मचारी समस्त धातुओं को धारण कर समुद्र के समान ज्ञान में गंभीर सलिल जीवनाधार प्रभु के आनंद रस में विभोर होकर तपस्वी होता है। वह स्नातक होकर नम्र, शाक्तिमान और पिंगल दीप्तिमान बनकर पृथ्वी पर सुशोभित होता है।

कथा- इस समावर्तन-संस्कार के संबध में कथा प्रचलित है- एक बार देवता, मनुष्य और असुर तीनों ही ब्रह्माजी के पास ब्रह्मचर्यपूर्वक विद्याध्ययन करने लगे। कुछ काल बीत जाने पर उन्होंने ब्रह्माजी से उपदेश (समावर्तन) ग्रहण करने की इच्छा व्यक्त की। सबसे पहले देवताओं ने कहा-प्रभों! हमें उपदेश दीजिए। प्रजापति ने एक ही अक्षर कह दिया द। इस पर देवताओं ने कहा-हम समझ गए। हमारे स्वर्गादि लोकों में भोंगो की ही भरमार है। उनमें लिप्त होकर हम अंत में स्वर्ग से गिर जाते हैं, अतएव आप हमें द से दमन अर्थात इंद्रियसयंम का उपदेश कर रहे है। तब प्रजापति ब्रह्मा ने कहा-ठीक है, तुम समझ गए। फिर मनुष्यों को भी द अक्षर दिया गय, तो उन्होंने कहा-हमें द से दान करने का उपदेश दिया है, क्योंकि हम लोग जीवन भर संग्रह करने की ही लिप्सा में लगे रहते हैं। अतएव हमारा दान में ही कल्याण है। प्रजापति इस जवाब से संतुष्ट हुए। असुरों को भी ब्रह्मा ने उपदेश में अक्षर ही दिया। असुरों ने सोचा-हमारा स्वभाव हिंसक है और क्रोध व हिंसा हमारे दैनिक जीवन में व्याप्त है, तो निश्च्य ही हमारे कल्याण के लिए दया ही एकमात्र मार्ग होगा। दया से ही हम इन दुष्कर्मों को छोड़कर पाप से मुक्त हो सकते हैं। इस प्रकार हमें द से दया अर्थात प्राणि-मात्र पर दया करने का उपदेश दिया है। ब्रह्मा ने कहा-ठीक है, तुम समझ गए। निश्च्य ही दमन, दान और दया जैसे उपदेश को प्रत्येक मनुष्य को सीखकर अपनान उन्नति का मार्ग होगा।

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15- विवाह संस्कार

विवाह संस्कार हिन्दू धर्म संस्कारों में ‘पंचदश संस्कार’ है। स्नातकोत्तर जीवन विवाह का समय होता है, अर्थात् विद्याध्ययन के पश्चात् विवाह करके गृहस्थाश्रम में प्रवेश करना होता है। यह संस्कार पितृ ऋण से उऋण होने के लिए किया जाता है। मनुष्य जन्म से ही तीन ऋणों से बंधकर जन्म लेता है- ‘देव ऋण’, ‘ऋषि ऋण’ और ‘पितृ ऋण’। इनमें से अग्रिहोत्र अर्थात यज्ञादिक कार्यों से देव ऋण, वेदादिक शास्त्रों के अध्ययन से ऋषि ऋण और विवाहित पत्नी से पुत्रोत्पत्ति आदि के द्वारा पितृ ऋण से उऋण हुआ जाता है।

हिन्दू धर्म में विवाह को सोलह संस्कारों में से एक संस्कार माना गया है। विवाह दो शब्दों से मिलकर बना है- वि + वाह। अत: इसका शाब्दिक अर्थ है- “विशेष रूप से (उत्तरदायित्व का) वहन करना”। ‘पाणिग्रहण संस्कार’ को सामान्य रूप से ‘हिन्दू विवाह’ के नाम से जाना जाता है। अन्य धर्मों में विवाह पति और पत्नी के बीच एक प्रकार का करार होता है, जिसे विशेष परिस्थितियों में तोड़ा भी जा सकता है। परंतु हिन्दू विवाह पति और पत्नी के बीच जन्म-जन्मांतरों का सम्बंध होता है, जिसे किसी भी परिस्थिति में नहीं तोड़ा जा सकता। अग्नि के सात फेरे लेकर और ध्रुव तारे को साक्षी मान कर दो तन, मन तथा आत्मा एक पवित्र बंधन में बंध जाते हैं। हिन्दू विवाह में पति और पत्नी के बीच शारीरिक सम्बन्ध से अधिक आत्मिक सम्बन्ध होता है और इस सम्बन्ध को अत्यंत पवित्र माना गया है।

सृष्टि के आरंभ में विवाह जैसी कोई प्रथा नहीं थी। कोई भी पुरुष किसी भी स्त्री से यौन-संबध बनाकर संतान उत्पन्न कर सकता था। पिता का ज्ञान न होने से मातृपक्ष को ही प्रधानता थी तथा संतान का परिचय माता से ही दिया जाता था। यह व्यवस्था वैदिक काल तक चलती रही। इस व्यवस्था को परवर्ती[2] काल में ऋषियों ने चुनौती दी तथा इसे पाशाविक संबध मानते हुए नये वैवाहिक नियम बनाए। ऋषि श्वेतकेतु का एक संदर्भ वैदिक साहित्य में आया है कि उन्होंने मर्यादा की रक्षा के लिए विवाह प्रणाली की स्थापना की और तभी से कुटुंब-व्यवस्था का श्री गणेश हुआ। आजकल बहुप्रचलित और वेदमंत्रों द्वारा संपन्न होने वाले विवाहों को ‘ब्राह्मविवाह’ कहते हैं।

विवाह कि धार्मिक महत्ता पर मनु ने लिखा है –

दश पूर्वांन् परान्वंश्यान् आत्मनं चैकविंशकम्।

ब्राह्मीपुत्रः सुकृतकृन् मोचये देनसः पितृन्।

अर्थात ‘ब्राह्मविवाह’ से उत्पन्न पुत्र अपने कुल की 21 पीढ़ियों को पाप मुक्त करता है- 10 अपने आगे की, 10 अपने से पीछे और एक स्वयं अपनी। भविष्यपुराण में लिखा है कि जो लडकी को अलंकृत कर ब्राह्मविधि से विवाह करते हैं, वे निश्चय ही अपने सात पूर्वजों और सात वंशजों को नरकभोग से बचा लेते हैं।

आश्वलायन ने तो यहाँ तक लिखा है की इस विवाह विधि से उत्पन्न पुत्र बारह पूर्वजों और बारह अवरणों को पवित्र करता है –

तस्यां जातो द्धादशावरन् द्धादश पूर्वान् पुनाति।

भारतीय-संस्कृति में अनेक प्रकार के विवाह प्रचलित रहे है। मनुस्मृति के अनुसार विवाह-ब्राह्म, देव, आर्ष, प्राजापत्य, असुर, गंधर्व, राक्षस और पैशाच 8 प्रकार के होते हैं। उनमें से प्रथम 4 श्रेष्ठ और अंतिम 4 क्रमशः निकृष्ट माने जाते हैं। विवाह के लाभों में यौनतृप्ति, वंशवृद्धि, मैत्रीलाभ, साहचर्य सुख, मानसिक रुप से परिपक्वता, दीर्घायु, शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य की प्राप्ति प्रमुख है। इसके अलावा समस्याओं से जूझने की शक्ति और प्रगाढ प्रेम संबध से परिवार में सुख-शांति मिलती है। इस प्रकार विवाह-संस्कार सारे समाज के एक सुव्यवस्थित तंत्र का स्तम्भ है।

विवाह संस्कार के निम्नलिखित चरणों का उल्लेख ‘गृह्यसूत्रों’ में मिलता है :-

  1. पहले वर पक्ष के लोग कन्या के घर जाते थे।
  2. जब कन्या का पिता अपनी स्वीकृति दे देता था, तो वर यज्ञ करता था।
  3. विवाह के दिन प्रातः वधू को स्नान कराया जाता था।
  4. वधू के परिवार का पुरोहित यज्ञ करता था और चार या आठ विवाहित स्रियाँ नृत्य करती थीं।
  5. वर कन्या के घर जाकर उसे वस्र, दपंण और उबटन देता था।
  6. कन्या औपचारिक रुप से वर को दी जाती थी। ( कन्यादान )
  7. वर अपने दाहिने हाथ से वधू का दाहिना हाथ पकड़ता था। ( पाणिग्रहण )
  8. पाषाण शिला पर पैर रखना।
  9. वर का वधू को अग्नि के चारों ओर प्रदक्षिणा कराना। ( अग्नि परिणयन )
  10. खीलों का होम। ( लाजा- होम )
  11. वर- वधू का साथ- साथ सात कदम चलना ( सप्त- पदी ), जिसका अभिप्राय था कि वे जीवन- भर मिलकर कार्य करेंगे। अंत में वर, वधू को अपने घर ले जाता था।

विवाह संस्कार के सात वचन… विवाह के बाद कन्या वर से वचन लेती है कि –

पहला वचन-

तीर्थव्रतोद्यापनयज्ञ दानं मया सह त्वं यदि कान्तकुर्या:।

वामांगमायामि तदा त्वदीयं जगाद वाक्यं प्रथमं कुमारी।।

इस श्लोक के अनुसार कन्या कहती है कि स्वामि तीर्थ, व्रत, उद्यापन, यज्ञ, दान आदि सभी शुभ कर्म तुम मेरे साथ ही करोगे तभी मैं तुम्हारे वाम अंग में आ सकती हैं अर्थात् तुम्हारी पत्नी बन सकती हूं। वाम अंग पत्नी का स्थान होता है।

दूसरा वचन-

हव्यप्रदानैरमरान् पितृश्चं कव्यं प्रदानैर्यदि पूजयेथा:।

वामांगमायामि तदा त्वदीयं जगाद कन्या वचनं द्वितीयकम्।।

इस श्लोक के अनुसार कन्या वर से कहती है कि यदि तुम हव्य देकर देवताओं को और कव्य देकर पितरों की पूजा करोगे तब ही मैं तुम्हारे वाम अंग में आ सकती हूं यानी पत्नी बन सकती हूं।

तीसरा वचन-

कुटुम्बरक्षाभरंणं यदि त्वं कुर्या: पशूनां परिपालनं च।

वामांगमायामि तदा त्वदीयं जगाद कन्या वचनं तृतीयम्।

इस श्लोक के अनुसार कन्या वर से कहती है कि यदि तुम मेरी तथा परिवार की रक्षा करो तथा घर के पालतू पशुओं का पालन करो तो मैं तुम्हारे वाम अंग में आ सकती हूं यानी पत्नी बन सकती हूं।

चौथा वचन-

आयं व्ययं धान्यधनादिकानां पृष्टवा निवेशं प्रगृहं निदध्या:।।

वामांगमायामि तदा त्वदीयं जगाद कन्या वचनं चतुर्थकम्।।

चौथे वचन में कन्या वर से कहती है कि यदि तुम धन-धान्य आदि का आय-व्यय मेरी सहमति से करो तो मैं तुम्हारे वाग अंग में आ सकती हैं अर्थात् पत्नी बन सकती हूं।

पांचवां वचन-

देवालयारामतडागकूपं वापी विदध्या:यदि पूजयेथा:।

वामांगमायामि तदा त्वदीयं जगाद कन्या वचनं पंचमम्।।

पांचवे वचन में कन्या वर से कहती है कि यदि तुम यथा शक्ति देवालय, बाग, कूआं, तालाब, बावड़ी बनवाकर पूजा करोगे तो मैं तुम्हारे वाग अंग में आ सकती हूं अर्थात् पत्नी बन सकती हूं।

छठा वचन-

देशान्तरे वा स्वपुरान्तरे वा यदा विदध्या:क्रयविक्रये त्वम्।

वामांगमायामि तदा त्वदीयं जगाद कन्या वचनं षष्ठम्।।

इस श्लोक के अनुसार कन्या वर से कहती है कि यदि तुम अपने नगर में या विदेश में या कहीं भी जाकर व्यापार या नौकरी करोगे और घर-परिवार का पालन-पोषण करोगे तो मैं तुम्हारे वाग अंग में आ सकती हूं यानी पत्नी बन सकती हूं।

सातवां और अंतिम वचन-

न सेवनीया परिकी यजाया त्वया भवेभाविनि कामनीश्च।

वामांगमायामि तदा त्वदीयं जगाद कन्या वचनं सप्तम्।।

इस श्लोक के अनुसार सातवां और अंतिम वचन यह है कि कन्या वर से कहती है यदि तुम जीवन में कभी पराई स्त्री को स्पर्श नहीं करोगे तो मैं तुम्हारे वाम अंग में आ सकती हूं यानी पत्नी बन सकती हूं। शास्त्रों के अनुसार पत्नी का स्थान पति के वाम अंग की ओर यानी बाएं हाथ की ओर रहता है। विवाह से पूर्व कन्या को पति के सीधे हाथ यानी दाएं हाथ की ओर बिठाया जाता है और विवाह के बाद जब कन्या वर की पत्नी बन जाती है जब वह बाएं हाथ की ओर बिठाया जाता है।

विवाह के प्रकार- मनु आदि पुरातन स्मृतिकारों के द्वारा पुरातन काल में विभिन्न जातियों में प्रचलित अनेक वैवाहिक प्रथाओं में से, जिन आठ को मान्यता प्रदान की थी, वे थीं ब्राह्म, दैव, आर्ष, प्रजापत्य, आसुर, गांधर्व, राक्षस और पैशाच तथा च सामाजिक स्तर पर इनकी वरीयता का क्रम भी यही स्वीकार किया गया था। विवाह की इन सभी विधाओं को मनु जैसे कट्टरपंथी स्मृतिकार के द्वारा मान्यता दिया जाना। इस तथ्य का द्योतक है कि उस समय भारतीय समाज के विभिन्न वर्गों में यह सभी विधाएँ न्यूनाधिक मात्रा में प्रचलित थीं तथा इन आठ प्रकारों में से प्रथम चार को ब्राह्मण वर्ग के लिए, इनके अतिरिक्त राक्षस को ( तथा गांधर्व को ) क्षत्रिय के लिए एवं आसुर को वैश्य तथा क्षुद्र वर्गों के लिए भी मान्यता दी गयी थी, किंतु साथ ही पैशाच तथा आसुर को आर्यों के किसी भी वर्ग के लिए उचित नहीं माना गया है। संभवतः इसलिए कि ये दोनों ही विधाएँ अनार्य वर्गीय समाज से संबंधित थी। विभिन्न धर्मशास्रीय ग्रंथों में इनके रुपों तथा वरीयता क्रम में अंतर पाया जाता है। आश्व. ( 1/6 ) में पैशाच को राक्षस से पूर्व रखा है। मानव गृ. सू. में केवल ब्राह्म और शौल्क आसुर के ही नाम लिए हैं। आप. ध. सू. ( 2 / 5 / 11 – 20 ) में केवल छः प्रकार ही बताए हैं, प्रजापत्य और पैशाच को छोड़ दिया है। मनु. (3/27- 34 ) ने इनके रुपों- विधाओं को जिन रुपों में व्याख्यायित किया है, वे कुछ इस प्रकार हैं :-

  1. ब्राह्म : इसमें कन्या का पिता किसी विद्वान् तथा सदाचारी वर को स्वयं आमंत्रित करके उसे वस्रालंकारों से सुसज्जित कन्या, विधि- विधान सहित प्रदान करता था।
  2. दैव : इस प्रकार के विवाह में कन्या का पिता उसे वस्रालंकारों से सुसज्जित कर किसी ऐसे व्यक्ति को विधि- विधान सहित प्रदान करता था, जो कि याज्ञिक अर्थात् यज्ञादि कर्मों में निरत करता था।
  3. आर्ष : इस प्रकार के विवाह में कन्या का पिता यज्ञादि कार्यों के संपादन के निमित्त ( शुल्क के रुप में नहीं ) वर से एक या दो जोड़े गायों को देकर विधि- विधान सहित कन्या को उसे समर्पित करता था।
  4. प्राजापत्य : इस प्रकार के विवाह में कन्या का पिता योग्य वर को आमंत्रित कर “तुम दोनों मिलकर अपने गृहस्थधर्म का पालन करो’ ऐसा निर्देश देकर विधि- विधान के साथ कन्यादान किया करता था।
  5. आसुर : कन्या के बांधवों को धन या प्रलोभन देकर स्वेच्छा से कन्या प्राप्त करने की प्रक्रिया को “आसुर’ विवाह कहा जाता था।
  6. गांधर्व : इसमें कोई युवक- युवती स्वेच्छा से प्रणयबंधन में बंध जाते थे। अथवा यदि कोई सकाम पुरुष किसी सकामा युवती से मिलकर एकांत में वैवाहिक संबंध में प्रतिबद्ध होने का निर्णय कर लेता था, तो इसे भी गांधर्व विवाह कहा जाता था।
  7. राक्षस : इस प्रकार के विवाह में विवाह करने वाला व्यक्ति कन्या के अभिभावकों की स्वीकृति न होने पर भी, उन लोगों के साथ मार- पीट करके रोती- बिलखती कन्या का बलपूर्वक हरण करके उसको अपनी पत्नी बनने के लिए विवश करता था।
  8. पैशाच : सोई हुई या अर्धचेतना अवस्था में पड़ी अविवाहिता कन्या को एकांत में पाकर उसके साथ बलात्कार करके उसे अपनी पत्नी बनने के लिए विवश करने का नाम “पैशाच’ विवाह कहलाता था।

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16- अन्त्येष्टि संस्कार

हिन्दू जीवन के प्रसिद्ध सोलह संस्कारों में से यह अन्तिम संस्कार है, जिसमें जाति व धार्मिक मत के अनुसार भिन्नता होते हुए भी सामान्यत: मृत व्यक्ति की दाहक्रिया आदि की जाती है। अंत्येष्टि का अर्थ है, अन्तिम यज्ञ। दूसरे शब्दों में जीवन यज्ञ की यह अन्तिम प्रक्रिया है। आदर्श रूप से संस्कार गर्भधारण के क्षण से ही शुरू हो जाते हैं और व्यक्ति के जीवन में प्रत्येक महत्त्वपूर्ण चरण पर संपन्न किए जाते हैं। मृत्यु निकट आने पर रिश्तेदारों और पुरोहित को बुलाया जाता है, मंत्री व पवित्र ग्रंथों का पाठ होता है और आनुष्ठानिक भेंटें तैयार की जाती हैं। मृत्यु के उपरांत शव को जल्द से जल्द श्मशान घाट पर ले जाते हैं, जो आमतौर पर नदी तट पर स्थित होता है। मृतक का सबसे बड़ा पुत्र और आनुष्ठानिक पुरोहित दाह संस्कार करते हैं। प्रथम पन्द्रह संस्कार ऐहिक जीवन को पवित्र और सुखी बनाने के लिए है। बौधायन पितृमेधसूत्र (3.1.4) में कहा गया है-

जातसंस्कारैणेमं लोकमभिजयति मृतसंस्कारैणामुं लोकम्।

अर्थात- जातकर्म आदि संस्कारों से मनुष्य इस लोक को जीतता है; मृत-संस्कार, “अंत्येष्टि” से परलोक को

इसके बाद परिवार के सदस्यों को अपवित्र समझा जाता है। और उन पर कुछ वर्जनाएं लागू रहती हैं। इस अवधि में वे अनुष्ठान करते है। ताकि आत्मा अगले जीवन में प्रवेश कर ले। इन अनुष्ठानों में दूध और जल तथा अधपके चावल के पिंडों का अर्पण शामिल है। निश्चित तिथि को श्मशान से एकत्रित अस्थि अवशेष या तो दफ़न कर दिया जाता है या फिर नदी में प्रवाहित कर दिया जाता है। मृतकों के सम्मान में निश्चित तिथियों पर संबंधियों द्वारा श्राद्ध किए जाते हैं।

यह अनिवार्य संस्कार है। रोगी को मृत्यु से बचाने के लिए अथक प्रयास करने पर भी समय अथवा असमय में उसकी मृत्यु होती ही है। इस स्थिति को स्वीकार करते हुए बौधायन ने पुन: कहा है-

जातस्य वै मनुष्यस्य ध्रुवं मरणमिति विजानीयात्।

तस्माज्जाते न प्रहृष्येन्मृते च न विषीदेत्।

अकस्मादागतं भूतमकस्मादेव गच्छति।

तस्माज्जातं मृञ्चैव सम्पश्यन्ति सुचेतस:।

अर्थात- उत्पन्न हुए मनुष्य का मरण ध्रुव है, ऐसा जानना चाहिए। इसीलिए किसी के जन्म लेने पर न तो प्रसन्नता से फूल जाना चाहिए और न किसी के मरने पर अत्यन्त विषाद करना चाहिए। यह जीवधारी अकस्मात् कहीं से आता है और अकस्मात् ही कहीं चला जाता है। इसीलिए बुद्धिमान को जन्म और मरण को समान रूप से देखना चाहिए।

तस्यान्मातरं पितरमाचार्य पत्नीं पुत्रं शि यमन्तेवासिनं पितृव्यं

मातुलं सगोत्रमसगोत्रं वा दायमुपयच्छेद्दहनं संस्कारेण संस्कृर्वन्ति।।

अर्थात- इसीलिए यदि मृत्यु हो ही जाए तो, माता, पिता, आचार्य, पत्नी, पुत्र, शिष्य (अन्तेवासी), पितृव्य (चाचा), मातुल (मामा), सगोत्र, असगोत्र का दाय (दायित्व) ग्रहण करना चाहिए और संस्कारपूर्ण उसका दाह करना चाहिए।

हिंदू धर्म शास्त्रों की मान्यता के अनुसार अंत्येष्टि क्रिया के बिना मृतक की आत्मा को शांति नहीं मिलती। हालांकि कई जगह अंत्येष्टि को संस्कार नहीं माना जाता लेकिन अधिकतर धार्मिक ग्रंथों में इसे संस्कार के रूप में मान्यता दी है। यह एक प्रकार का यज्ञ होता है जिसमें मृतक स्वयं होम हो जाता है। संस्कार के रूप में इसकी मान्यता का एक कारण यह दिया जाता है कि इससे मृत शरीर नष्ट हो जाता है जिससे पर्यावरण की रक्षा होती है। यह द्विजों द्वारा किये जाने वाले सोलह संस्कारों में आखिरी संस्कार माना जाता है। प्रत्येक मनुष्य के लिये जन्म और मृत्यु का संस्कार ऋण स्वरूप माना गया है। हिंदूओं में भी स्त्रियों, बच्चों, सन्यासियों, सुदूरवर्ती क्षेत्र या फिर अकाल मृत्यु का शिकार होने वालों, आत्महत्या करने वालों या फिर दुर्घटनावश मृत्यु को प्राप्त होने वालों के लिये अंत्येष्टि की क्रिया भिन्न भिन्न होती है। धार्मिक दृष्टि से अंतिम संस्कार का बहुत अधिक महत्व होता है।

अंतिम संस्कार की विधि- भले ही यह अशुभ जान पड़े, दर्दनाक लगे लेकिन इस प्रक्रिया से गुजरना सबको पड़ता है अपने जीवन में हम अपनों से बिछुड़ जाते हैं। मृत्यु के पश्चात मृतक का क्या होता है यह कोई नहीं जानता शास्त्रों में स्वर्ग-नरक की अवधारणाएं हैं। पुनर्जन्म की कल्पनाएं भी हैं। लेकिन सबसे अहम भावना होती है मृतक की आत्मा की संतुष्टि, मृतक की मुक्ति इसी के लिये विधिनुसार अंतिम संस्कार की क्रिया की जाती है। स्मृति ग्रंथों के अनुसार वैदिक मंत्रों के साथ अंतिम संस्कार किया जाना चाहिये। हालांकि स्त्रियों व शूद्रों का संस्कार बिना वैदिक मंत्रों के किये जाने का विधान रहा है। मृतक को गंगाजल से स्नान करवा कर उसकी अर्थी बनाई जाती है। परिजनों द्वारा कंधा देते हुए उसे शमशान तक ले जाया जाता है जहां शव को चिता पर रखकर उसे मुखाग्नि दी जाती है। चिता की राख ठंडी होने के पश्चात मृतक की अस्थियां इकट्ठी की जाती हैं जिन्हें पवित्र तीर्थस्थल पर बहते जल में प्रवाहित किया जाता है। उत्तर भारत में गंगा नदी में अस्थियां प्रवाहित करने की परंपरा है। अस्थि विसर्जन भी विधि-विधान से योग्य ब्राह्मण द्वारा मृतक की आत्मा की शांति के लिये पूजा पाठ करवाकर किया जाता है। हालांकि कुछ क्षेत्र (महाभारत की युद्ध भूमि, गंगा आदि पवित्र नदियों के समीप के क्षेत्र आदि) पवित्र माने जाते हैं जहां अस्थि विसर्जन करने का विधान नहीं है। जिन जातकों की अकाल मृत्यु होती है उनके लिये तेरह दिन तक शोक मनाते हुए श्रादकर्म किया जाता है तो किसी बुजूर्ग या कहें आयु पूरी होने पर सुखपूर्वक जिनकी मृत्यु होती है उनकी सतरहवीं की जाती है और सतरहवीं के दिन यज्ञ हवन करवाकर ब्राह्मण भोज के साथ-साथ सामूहिक भोज भी करवाया जाता है।

अन्त्येष्टि संस्कार के समय शोक का वातावरण होता है। अधिकांश व्यक्ति ठीक प्रकार सोचने- करने की स्थिति में नहीं होते, इसलिए व्यवस्था पर विशेष ध्यान देना पड़ता है। सन्तुलित बुद्धि के अनुभवी व्यक्तियों को इसके लिए सहयोगी के रूप में नियुक्त कर लेना चाहिए। व्यवस्था के सूत्र इस प्रकार हैं-

*  मृतक के लिए नये वस्त्र, मृतक शय्या (ठठरी), उस पर बिछाने- उढ़ाने के लिए कुश एवं वस्त्र (मोटक)तैयार रखें।

*  मृतक शय्या की सज्जा के लिए पुष्प आदि उपलब्ध कर लें।

*  पिण्डदान के लिए जौ का आटा न मिले, तो गेहूँ के आटे में जौ मिलाकर गूँथ लिया जाता है।

*  कई स्थानों पर संस्कार के लिए अग्नि घर से ले जाने का प्रचलन होता है। यदि ऐसा है, तो उसकी व्यवस्था कर ली जाए, अन्यथा श्मशान घाट पर अग्नि देने अथवा मन्त्रों के साथ माचिस से अग्नि तैयार करने का क्रम बनाया जा सकता है।

*  पूजन की थाली, रोली, अक्षत, पुष्प, अगरबत्ती, माचिस आदि उपलब्ध कर लें।

*   सुगन्धित हवन सामग्री, घी, सुगन्धित समिधाएँ, चन्दन, अगर- तगर, सूखी तुलसी आदि समयानुकूल उचित मात्रा में एकत्रित कर लें।

*  यदि वर्षा का मौसम हो, तो अग्नि प्रज्वलित करने के लिए सूखा फूस, पिसी हुई राल, बूरा आदि पर्याप्त मात्रा में रख लेने चाहिए।

*  पूर्णाहुति (कपाल- क्रिया) के लिए नारियल का गोला छेद करके घी डालकर तैयार रखें।

*  वसोर्धारा आदि घृत की आहुति के लिए एक लम्बे बाँस आदि में लोटा या अन्य कोई ऐसा पात्र बाँधकर तैयार कर लिया जाए, जिससे घी की आहुति दी जा सके।

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संस्कृत- विश्व की प्राचीनतम भाषा को जानिए…

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भाषाओं की दुनिया- दुनिया भर में लगभग 7,111 भाषाएं बोली जाती हैं (Ethnologue, Directory of languages)। सबसे ज्यादा 2303 भाषाएं एशिया में बोली जाती हैं। उसके बाद 2140 अफ्रीका, 1058 अमेरिका, 288 यूरोप बाकि 1322 दुनिया के अलग-अलग हिस्सों में बोली जाती हैं। इनमें बहुत सी भाषाएं पारिवारिक रूप में परस्पर सम्बद्ध हैं। ध्वनि, व्याकरण तथा शब्द समूह के तुलनात्मक अध्ययन-विश्लेषण के आधार पर एवं भौगोलिक निकटता के आधार पर भाषाओं के पारिवारिक संबन्धों का निर्णय किया गया है।

भारतीय भाषा में संस्कृति ही सर्वस्व है। आर्य भाषाओं में यही सबसे प्राचीनतम है। आर्यभाषा के मूल रूप को जानने के लिए जितना साधन यहा है, उतना कहीं नहीं है। आजकल भारत से निकली समस्त प्रान्तीय भाषाएं द्राविड़ी भाषाओं को छोड़कर) संस्कृत भाषा से ही निकली है। भारत का प्राचीन साहित्य अत्यन्त विशाल, संस्कृत भाषा में लिपिबद्ध है। इसके सम्बन्ध में महामना मदनमोहन मालवीय जी कहते हैं- “हमारी पैतृक संपत्तियों में से सबसे बहुमूल्य रत्न में से सबसे बहुमूल्य रत्न हमारी संस्कृत भाषा है।

भाषा विज्ञान की दृष्टि से संसार की भाषाओं में दो ही भाषायें ऐसी है जिनके बोलने वालों ने संस्कृति तथा सभ्यता का निर्माण किया है- पहली है आर्यभाषा और दूसरी है सामी या समेंटिक भाषा। आर्य भाषा के अन्तर्गत दो विशिष्ट शाखाएं है- पश्चिमी एवं पूर्वी। पश्चिमी शाखा के अन्तर्गत सभी प्राचीन तथा आधुनिक योरोपीय भाषाएं सम्मिलित हैं जबकि पूर्वी शाखा के अन्तर्गत ईरानी और भारतीय भाषाएं हैं-

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भारत में भाषा का प्राचीनतम रूप हमें वैदिक साहित्य में उपलब्ध होता है वैदिक साहित्य को जनभाषा का रूप भी कहा जाता है। ऐतिहासिक विकास क्रमकी दृष्टि से भारतीय आर्यभाषा परिवार को तीन कालों में बांटकर अध्ययन किया जाता है-

  • प्राचीन आर्यभाषा- वैदिक संस्कृत, संस्कृत
  • मध्यकालीन आर्य भाषा- पाली, प्राकृत, अपभ्रंश
  • आधुनिक आर्य भाषा- हिन्दी, गुजराती, मराठी, बांग्ला आदि

ऐतिहासिक कालक्रम की दृष्टि से निम्नलिखित समय में इन्हें वर्गीकृत किया जा सकता है –

  • प्राचीन आर्य भाषा (1500 ई. पू. से 500 ई0 पू. तक)
  • मध्यकालीन आर्य भाषा काल (500 ई. पूव. से 1000 ई. तक)
  • आधुनिक आर्यभाषा काल (1000 ई. से अब तक)

वैदिक साहित्य में वेद एवं वेदों में ऋग्वेद प्राचीनतम साहित्य सर्जन है। वेद भारतीय धर्म, दर्शन एवं प्राचीन कवित्व की अपार निधि है। वेद शब्द के व्युत्पत्ति मूलक अर्थ के सम्बन्ध में विचार करते हुए ‘ऋग्वेदभाष्यभूमिका’ में स्वामी दयानन्द सरस्वती ने लिखा है-

‘विदन्ति, जानन्ति, विद्यन्ते भवन्ति, विदन्ति अथवा विदन्ते, लभन्ते, विन्दन्ति, विचारयन्तिसर्वे मनुष्याः सत्यविद्यां यैर्येषुवा तथा विद्वांसश्च भवन्ति ते वेदाः

अर्थात्- वेद मानव मात्र कीसत्य विद्या के साधन एवं स्रोत है। वस्तुतः अद्भुत प्रतिभासम्पन्न ऋषियों द्वारा साक्षात्कृतज्ञानराशि का नाम ही वेद है।

वैदिक साहित्य के अन्तर्गत संहिता साहित्य एवं वेदासाहित्य सम्मिलित है। लौकिक संस्कृत साहित्य में आदिकवि वाल्मीकि रचित रामायण एवं महर्षि वेदव्यास रचित महाभारत ऐसे विशालकलेवर ग्रन्थ है जिनसे अद्यपर्यन्त साहित्य की समस्त विधाएं अनुप्राणित होती रही हैं। इसीलिए उन्हे उपजीव्य काव्य के नाम से पुकारा जाता है। इन दोनों ग्रन्थों मे सर्वाधिक काव्यों का स्रोत निहित है। पुराण संस्कृत वाङ्मय के गरिमामय ग्रन्थ हैं। इन्हें वेदों का पूरक माना जाता है। भविष्य,भागवत्, ब्रह्माण्ड, ब्रह्मवैवर्त, ब्रह्म, वामन, वराह, विष्णु, वायु, अग्नि, नारद, पद्म, लि ,गुरूड़, कूर्म तथा स्कन्दपुराण

वैदिक कालखण्ड

  • जर्मन विद्वान डॉ. जैकोबी नेकृतिका- जैकोबी ने वेद मन्त्रों का रचना काल 4590 ई० पू० तथा ब्राह्मण ग्रन्थों का रचनाकाल 2300 ई० पू० के बादमें स्वीकार किया है।
  • प्रो. मैक्समूलर- वैदिक साहित्य को चारभागों में विभक्त किया है बुद्ध से प्रथम होने के कारण सूत्रकाल 600 विक्रम पूर्व, ब्राह्मणकाल 600 से 800 वि० पू०, मन्त्रकाल 800 से 1000 वि० पू०. तथा छन्दकाल 1000 से 1200 वि० पू० तक स्वीकार किया है।
  • कृष्ण के समय द्वापरयुग की समाप्ति के बाद महर्षि वेद व्यास ने वेद को चार प्रभागों संपादित करके व्यवस्थित किया। श्रीराम का जन्म 5114 ईसा पूर्व हुआ था और श्रीकृष्ण का जन्म 3112 ईसा पूर्व हुआ था। इस मान से लिखित रूप में आज से 6510 वर्ष पूर्व पुराने हैं वेद।
  • आर्यभट्ट के अनुसार महाभारत युद्ध 3137 ई.पू. में हुआ था। इसका मतलब यह कि वैवस्वत मनु (6673 ईसापूर्व) काल में वेद लिखे गए।

वेद, पुराण और उपनिषदों को जानने के लिए पढ़ें – drsandeepkr.wordpress.com/2019/08/22/भारतीय-संस्कृति-का-आधार-व/

ऋग्वैदिक कालीन ग्रंथ मुख्य रूप से संस्कृत भाषा में लिखे गए हैं– इसी कारण माना गया है कि इस सम्पूर्ण संसार की समस्त परिष्कृत भाषाओं में संस्कृत प्राचीन है और संस्कृत का वैदिक रूप प्राचीनतम है। संस्कृत की मूलध्वनियों का विकास भारत में हुआ और धीरे धीरे भारत की यह भाषा दूर-दूर तक फैल गई। यह भी माना जाता है कि इसके परिणामस्वरूप ईरान और यूरोप की भाषाओं का विकास हुआ। परन्तु प्रमाणों के अभाव में निर्णायक रूप में कुछ भी कहना संभव नहीं है। संस्कृत की भाषाओं के सम्बन्ध में इतना कहना ही निश्चित है कि वैदिककालीन भाषा पूर्ण रूप से विकसित थी। जो रूप वैदिक भाषा का आज उपलब्ध है उससे पूर्व के रूप का हमें कोई प्रमाण नहीं मिलता।

संस्कृत शब्द का शाब्दिक अर्थ- संस्कृत शब्द सम् पूर्वक ‘कृ’ धातु से बना है। जिसका मौलिक अर्थ है। संस्कार सम्पन्न भाषा। संस्कार शब्द के अनेक अर्थ हैं, किन्तु यहां संस्कार पदों में विद्यमान प्रकृति और प्रत्यय आदि को कहते हैं।

संस्कृत है देववाणी- विश्व की विविध भाषाओं में यही एक भाषा है जो वस्तुतः स्वर्गावतीर्ण हुई हैं क्योंकि विश्व वाङ्गमय का सबसे पुराना अनादिग्रन्थ वेद का सृजन भगवान् ने इसी भाषा में किया है—

अनादि निधना नित्या वागुत्सृष्टा स्वयम्भुवा ।।

आदौ वेदमयी दिव्या यतः सर्वाः प्रवृत्तयः ।।

तत्पश्चात् आर्ययुग के साक्षात्कृतधर्मा महर्षियों के अपरोक्ष अनुभव से लेकर आधुनिक काल के बड़े-बड़े भारतीय मनीषियों के सद्विचारों से ओत प्रोत होने के कारण संस्कृत वाङ्गमय का महत्व लोकोत्तर हो गया है। इस देश की समूची संस्कृति, सारा इतिहास और समस्त ज्ञान-विज्ञान संस्कृत में ही भरे पड़े हैं।

शुक्ल यजुर्वेद प्रातिशाख्य का सूत्र है- प्रकृति प्रत्ययादिः संस्कारः इस प्रकार कहा गया है कि देववाणी अर्थात् प्रकृति प्रत्यय आदि के विभागों से रहित थी (प्रत्यय वे शब्द हैं जो दूसरे शब्दों के अन्त में जुड़कर, अपनी प्रकृति के अनुसार, शब्द के अर्थ में परिवर्तन कर देते हैं) इसका परिणाम यह होता है कि जिज्ञासु को कठिन परिश्रम व समय लगाना होता था। इस हेतु देवों ने देवराज इन्द्र के पास जाकर वैज्ञानिक परिपाटी सुझाएं जाने की प्रार्थना की, तब इन्द्र ने देवभाषा में प्रकृति प्रत्यय विभाग द्वारा, प्रत्येक शब्द के मध्य से विलग कर शब्दोपदेश एवं अध्ययन की सरल, सुगम प्रक्रिया का निर्माण किया। इसी प्रकृति प्रत्यादि विभाग के पुनः संस्कार द्वारा संस्कृति होने से देववाणी का नाम संस्कार पड़ा। जिस भाषा के शब्दों में प्रकृति और प्रत्यय का विभाग परिलक्षित होता है तथा वर्ण का आगम वर्ण लोथ और वर्ण विकार भी ज्ञात हो ऐसे शब्दों से युक्त भाषा ही संस्कृत भाषा है। संस्कृत भाषा में शब्द दो प्रकार के होते हैं- व्युत्पन्न तथा अव्युत्पन्न। जिन नामों के साथ प्रकृति प्रत्यय की कल्पना संभव है उन्हें व्युत्पन्न कहते हैं। संस्कृत भाषा में अधिकांश नामपद प्रकृति (धातु) तथा प्रत्यय के योग से बनते हैं। धातु मूलप्रकृति है तथा उससे लगने वाले प्रत्ययों को (तिभिन्न) कृत् प्रत्यय कहा जाता है।

संस्कृत भाषा के दो रूप- प्राचीन भारतीय आर्यभाषाओं में वैदिक संस्कृत और लौकिक संस्कृत का समावेश होता है। इस प्रकार हम देखें तो संस्कृत भाषा के दो रूप मिलते हैं-

1. वैदिक संस्कृत

2. लौकिक संस्कृत

वैदिक संस्कृत- चार वैदिक संहिताओं- ऋग्वेद, यजुर्वेद, आयुर्वेदव और अथर्ववेद के अतिरिक्त इनमें ब्राह्मणों-ग्रन्थों, आरण्यकों, उपनिषदों और वेदागों की रचना हुई।

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लौकिक संस्कृत- कालिदास,वाल्मीकि, भास, वेद व्यास, आदि की रचनाएँ मिलती हैं। मगर ऐसे देखा जाये तो लौकिक संस्कृत का उद्भव स्थान भी वैदिक संस्कृत है। इस संस्कृत काल में आर्यभाषा क्षेत्र में तीन स्थानीय बोलियाँ प्रचलित थीं- पश्चिमोत्तरी, मध्यवर्ती पूर्वी। इस प्रकार प्राचीन भारतीय आर्यभाषा में वैदिक संस्कृत और लौकिक संस्कृत का समावेश होता है। वैदिक संस्कृत के कई रूप मिलते हैं, जबकि संस्कृतव्याकरणबद्ध भाषा है।

veda7.jpgसोत्र- हिंदी भाषा का स्वरूप विकास

संस्कृत भारतीय भाषाओं की जननी- भारत में आज समस्त प्रान्त अपनी-अपनी प्रान्तीय भाषा को राजभाषा बनाने में जो व्यस्त हो रहे हैं उसका एकमात्र निदान हिन्दी का राष्ट्र भाषा होना ही है। निष्पक्ष भाव से विचार किया जाए तो उत्तरप्रदेश या पश्चिम बिहार के कुछ अंश छोड़कर बंगाल, मिथिला, गुजरात, महाराष्ट्र आदि प्रदेशों को राष्ट्रभाषा हिन्दी से जितनी कठिनाई की सम्भावना है उतनी संस्कृत से नहीं। क्योंकि बंगला, मैथिली, मराठी, गुजराती आदि भाषा में संस्कृत के नब्बे प्रतिशत शब्दों का प्रयोग होता है तथा हिन्दी को भी धन-धाम और सौन्दर्य संस्कृत से ही मिल रहा है। ऐसी स्थिति में भारत की राष्ट्रभाषा यदि संस्कृत होती सम्पूर्ण भारत उस राष्ट्रभाषा का अभिनन्दन करने लगता।

भारतीयों के लिए संस्कृत केवल विचारों के आदान प्रदान का माध्यम बनने वाली भाषा ही नहीं अपितु उनकी सभ्यता, संस्कृति एवं इतिहास की एक अभिन्न अंग है; क्योंकि भारतीय इतिहास के आदिकाल से ही संस्कृत का यहां के जन-जीवन के विचार-चिन्तन एवं सभ्यता-संस्कृति में अभिन्न एवं महत्वपूर्ण स्थान रहा है। वस्तुतः भारतीय जीवन और प्रज्ञा का ऐसा कोई भी क्षेत्र नहीं जो कि इसके आवरण से अछूता हो। इसलिए पिछले दस हजार वर्षों में इस देश के द्वारा बहुत कुछ खो दिए जाने पर भी जिस चीज को एक अमूल्य धरोहर के रूप में अविच्छिन्न रूप से संजोये रखा गया है, वह है संस्कृत भाषा।

विश्व संस्कृत दिवस- भारत में प्रतिवर्ष ‘श्रावणी पूर्णिमा’ के दिन मनाया जाता है। श्रावणी पूर्णिमा अर्थात् रक्षा बन्धन ऋषियों के स्मरण तथा पूजा और समर्पण का पर्व माना जाता है। ऋषि ही संस्कृत साहित्य के आदि स्रोत हैं, इसलिए श्रावणी पूर्णिमा को “ऋषि पर्व” और “संस्कृत दिवस” के रूप में मनाया जाता है। राज्य तथा ज़िला स्तरों पर संस्कृत दिवस आयोजित किए जाते हैं। इस अवसर पर संस्कृत कवि सम्मेलन, लेखक गोष्ठी, छात्रों की भाषण तथा श्लोकोच्चारण प्रतियोगिता आदि का आयोजन किया जाता है, जिसके माध्यम से संस्कृत के विद्यार्थियों, कवियों तथा लेखकों को उचित मंच प्राप्त होता है।

1969 से हुई थी संस्कृत दिवस की शुरूआत- संस्कृत भाषा के संरक्षण और इसे बढ़ावा देने के लिए भारत सरकार के शिक्षा मंत्रालय ने 1969 से इसकी शुरूआत की थी। संस्कृति दिवस का आयोजन केंद्रीय तथा राज्य स्तर पर किया जाता था। तभी से पूरे देश में संस्कृत दिवस मनाने की परंपरा शुरू हुई थी। ये भी मान्यता है कि इसी दिन से प्राचीन भारत में नया शिक्षण सत्र शुरू होता था। गुरुकुल में छात्र इसी दिन से वेदों का अध्ययन शुरू करते थे, जो पौष माह की पूर्णिमा तक चलता था। पौष माह की पूर्णिमा से सावन की पूर्णिमा तक अध्ययन बंद रहता था। आज भी देश में जो गुरुकुल हैं, वहां सावन माह की पूर्णिमा से ही वेदों का अध्ययन शुरू होता है।

संविधान में 22 भाषाओं को मिली है मान्यता- भारत के अलग-अलग हिस्सों में तकरीबन 1600 बोलियां या भाषाएं बोली जाती हैं। इनमें से 22 भाषाओं को संविधान में मान्यता मिली हुई है। वर्ष 2003 में चार नई भाषाओं को संविधान संशोधन कर मान्यता दी गई। इससे पहले संविधान में केवल 18 भाषाओं को ही मान्यता प्राप्त थी। जिन्हें संविधान में जगह नहीं मिला है, उन्हें बोली कहा जाता है। 2011 की जनणना में देश में लगभग 122 भाषाएं दर्ज की गईं थीं। संविधान में जिन 22 भाषाओं को मान्यता दी गई है, उसमें हिन्दी, अंग्रेजी, असमी, बंगाली, बोडो, डोगरी, गुजराती, कन्नड़, कश्मीरी, कोंकणी, मैथिली, मलयालम, मणिपुरी, मराठी, नेपाली, ओड़िया, संस्कृत, संथाली, सिंधी, तमिल, तेलगु और उर्दू शामिल है।

संस्कृत कहा तक बोलचाल की भाषा थी इस प्रश्न का उत्तर देते हुए professor Edward James Rapson (professor of Sanskrit at the University of Cambridge) कहते हैं-“संस्कृत भी वैसी ही बोलचाल की भाषा है जैसी साहित्यिक अंग्रेजी है, जिसे कि हम बोलते हैं।

भाषा के अर्थरूप में ‘संस्कृत’ का प्रयोग सर्वप्रथम वाल्मीकि रामायण में मिलता है- जब वानरराज सुग्रीव प्रिय करने हेतु ऋष्यमूक पर्तत से उतर करहनूमान् श्रीराम और उनके अनुज लक्ष्मण का परिचय प्राप्त करने हेतु उनके पासआते हैं तो उन्होंने उनसे प्रसन्नता होती है और लक्ष्मण जी से कहते हैं-

नानृग्वेदविनीतस्य नायजुर्वेदधारिणाः ।

ना सामवेदविदुषः शक्यमेवं विभाषितुम।।

अर्थात् जिसे ऋग्वेद का ज्ञान प्राप्त नहीं हुआ हो जिसने यजुर्वेद का अभ्यास नहीं किया हो तथा जो सामवेद का निष्णात् विद्वान नहीं हो वह इस प्रकारकी उत्कृष्ट भाषा में संभाषण नहीं कर सकता।

हनूमान् जी ने ब्राह्मण भिक्षु रूप धारण करके श्री राम जी से वार्तालाप किया था, उनकी वाणी संस्कार और क्रम से सम्पन्न थी, यही कारण है कि श्री राम जी ने उनके द्वारा व्यवहृत भाषा के लिए “संस्कार क्रम सम्पन्न’ तथा आविलम्बित विशेषणों का प्रयोग किया है। अतः श्री राम जी कहते हैं कि –

नूनं व्याकरणं कृत्स्नमनेन बहुधा श्रुतम् ।

बहु व्याहरतानेन न किंचिदपशाब्दिम् ।

अर्थात् “निःसंदेह इन्होंने सम्पूर्ण व्याकरण का एक बार नहीं अध्ययन किया है। क्योंकि इनके मुख से एक भी अशुद्ध शब्द नहीं निकला।।

इसकी स्पष्ट सिद्धि हमें सुन्दर काण्ड में मिलती है-

यदि वाचं प्रदास्यामि द्विजातिरिव संस्कृताम् ।

रावणं मत्यमाना मां सीता भीता भविष्यति।।

अर्थात् हनूमान् जी अशोकवाटिका में सीता जी से किस भाषा में वार्तालाप किया जाय? इसका विचार करते हुए सोचते हैं कि, यदि मैं द्विज समान संस्कृत वाणी में बोलूँगा तो सीता जी मुझे रावण समझ कर डर जायेंगी।

महर्षि पाणिनि संस्कृत भाषा के प्रसिद्ध और श्रेष्ठ व्याकरणाचार्य हैं- पाणिनि (समय- विक्रम पूर्व षष्ठशती) ने संस्कृत भाषा को विशुद्ध तथा व्यवस्थित बनाये रखने के लिये प्रसिद्ध व्याकरण बनाया है, जो आठ अध्यायों में विभक्त होने के कारण ‘अष्टयाध्यायी’ कहलाता है। संस्कृत वैयाकरणों में पाणिनि व्याकरण ही सर्वाधिक प्रसिद्ध है। महर्षि पाणिनि ने विषय के सम्यक् विवेचन के लिए पंचांगों का निर्देश किया है- सूत्रपाठ, धातुपाठ, गणपाठ, उणादिपाठ, लिङ्गानुशासन। इन पंचांगों द्वारा महर्षि पाणिनि ने संस्कृत को एक सुसंस्कृत स्वरूप प्रदान किया। संस्कृत भाषा में जो एकरूपता और व्यवस्था दीख पड़ती है, यह सब पाणिनि के ही नियमन का फल है। कुछ लोग पाणिनि पर यह दोष लगाते हैं कि उन्होंने भाषा को जकड़ कर अस्वाभाविक बना दिया, परन्तु बात ऐसी नहीं है। यदि पाणिनि का व्याकरण ने रहता तो संस्कृत भाषा में देश-काल की भिन्नता से इतना रूपान्तर होता कि उसे हम पहचान भी नहीं सकते।  अष्टाध्यायी से ऊपर ‘कात्यायन’ ने वार्तिक लिखा, जिसमें उन्होंने नये प्रयुक्त शब्दों की व्याख्या दिखलाई। विक्रम-पूर्व द्वितीय शतक में पतंजलि ने ‘अष्टाध्यायी’ के ऊपर ‘भाष्य’ लिखा, जो इतना सुन्दर, उपादेय तथा प्रामाणिक है कि उसे ‘महाभाष्य’ के नाम से पुकारते हैं। लौकिक संस्कृत के कर्ता-धर्ता ये ही तीन मुनि हैं, जिनके कारण व्याकरण ‘त्रिमुनि’ के नाम से विख्यात है। पिछले युग में संस्कृत व्याकरण के ऊपर जो कुछ लिखा गया वह केवल इस ‘मुनित्रय’ के ग्रन्थों का व्याख्यानमात्र है। कुछ लोगों का कथन है कि इस ‘मुनि-त्रय’ के द्वारा व्याख्यात तथा विवृत होने के कारण से ही यह देववाणी ‘संस्कृत’ नाम के अभिहित की जाती है।

वैदिक संस्कृत से भिन्न साधारण जनता की जो बोली थी उसको यास्क ने स्थान-स्थान पर ‘भाषा’ कहा है। उन्होंने वैदिक कृदंत शब्दों की व्युत्पत्ति उन धातुओं से बतलाई है जो लोक-व्यवहार में आते थे। उस समय भिन्न-भिन्न प्रान्तों में संस्कृत शब्दों के जो रूपान्तर तथा विशिष्ट प्रयोग काम में लाये जाते थे उन सबका उल्लेख यास्क ने किया है। उदाहरणार्थ ‘शवति’ क्रियापद का प्रयोग कम्बोज देश (वर्तमान पश्चिमोत्तर–प्रान्त) में ‘जाने’ के अर्थ में किया जाता था, परन्तु इसका संज्ञापद ‘शव’ (मुर्दा) का प्रयोग आर्य लोग भिन्न अर्थ में करते थे। पूर्वी प्रान्तों (प्राच्य) में ‘दाति’ क्रियापद का प्रयोग ‘काटने’ के अर्थ में होता था, परन्तु उत्तर के लोगों में इसी से बने हुए ‘दात्र’ संज्ञा-शब्द का प्रयोग हँसिया के अर्थ में होता था। इससे स्पष्ट है कि यास्क के समय में (विक्रम पूर्व सात सौ वर्ष) संस्कृत बोलचाल की भाषा थी। संस्कृत व्याकरण की भाषा में सार्थक शब्द को ‘पद’ कहते हैं। ऐसे समस्त पदों के दो भेद किए जाते हैं-(क) सुबन्त एवं (ख) तिङन्त । ‘सुप्’ और ‘तिङ्’ दोनों प्रत्यय हैं। ये प्रत्यय जब प्रकृति (मूलशब्द या धातु) से मिलते हैं तब सार्थक शब्दों का निर्माण होता है।

पाणिनि के समय में (विक्रम-पूर्व षष्ठशती) संस्कृत का यह रूप बना ही रहा। पाणिनि भी इस बोली को ‘भाषा’ ही के नाम से पुकारते हैं। दूर से पुकारने के समयतथा प्रत्यभिवादन के अवसर पर पाणिनि ने प्लुत स्वर का विधान बतलाया है। यदि दूरसे कृष्ण को पुकारना होगा तो संस्कृत में ‘आगच्छ कृष्ण’ कहना पड़ेगा। यहाँ पाणिनिके अनुसार कृष्ण का अकार प्लुत होगा। उसी प्रकार अभिवादन करने के अनन्तर जोआशीर्वाद दिया जायगा वहाँ पर भी प्लुत करना पड़ेगा। जैसे देवदत्त नामक कोई छात्रगुरु को इस प्रकार प्रणाम करे ‘आचार्य! देवदत्तोऽहं त्वमभिवादये’ (जे गुरु जी! मैंदेवदत्त आपको प्रणाम करता हूँ, तो गुरु यह कह कर आशीर्वाद देगा-‘आयुष्मान् एधिदेवदत्त’ (आयुष्मान् बनो, हे देवदत्त) इस आशीर्वाद-वाक्य में देवदत्त के अन्त का अकारप्लुत हो जायगा, यह पाणिनि की व्यवस्था है। इन नियमों का प्रयोग तभी होगा जबभाषा वस्तुतः बोली जाती होगी।

महर्षि पतञ्जलि ने ईसा पूर्व द्वितीय शताब्दी में संस्कृत को लोक व्यवहृत एवं लोक प्रचलित कहा है। महाभाष्य के प्रारम्भ में ही ‘अथ शब्दानुशासनम्’ पर लिखते हुए उन्होंने केषां शब्दानां? लौकिकानां वैदिकानां च।’ कहकर दोनों को स्पष्ट रूप से पृथक-पृथक निर्देश किया है।

संस्कृत भगवान बुद्ध के समय में बोलचाल की भाषा थी- कई कहानियों में सुना जाता है कि भिक्षुओं ने भगवान बुद्ध के सामने विचार रखा कि आप अपनी बोल चालकी भाषा संस्कृत को बना लें। इससे भी यही परिणाम निकलता है कि संस्कृत भगवान बुद्ध के समय में बोलचाल की भाषा थी। प्रसिद्ध बौद्ध कवि अश्वघोष (ई. द्वितीय शताब्दी) ने अपने सिद्धान्तों का प्रचार करने के लिए अपनेग्रन्थ संस्कृत में लिखे। इससे यह अनुमान करना सुगम है कि संस्कृत प्राकृत की अपेक्षा साधारणजनता को अपनी ओर अधिक खींचती थी, तथा संस्कृत ने कुछ समय के लिए खोए हुए अपने पदको पुनः प्राप्त कर लिया था।

संस्कृत में शिलालेख-  दूसरी शताब्दी ईं के बाद में मिलने वाले शिलालेख क्रमशः संस्कृत में अधिक मिल रहे हैं और छठीं शताब्दी से लेकर केवल जैन शिलालेखों को छोड़कर सारे के सारे शिलालेख संस्कृत में ही मिलते हैं। यह बात सर्वमान्य है कि शिलालेख प्रायः उसी भाषा में लिखे जाते हैं जिसे सर्वसाधारण पढ़ और समझ सकते हैं ।

हेनसांग ने स्पष्ट शब्दों में कहा है कि ई. सातवीं शताब्दी में बौद्ध लोग धर्मशास्त्रीय मौखिक वादक्विकमें संस्कृत का ही व्यवहार करते थे । जैनों ने प्राकृत को बिल्कुल छोड़ तो नहीं दिया था पर वेभी संस्कृत का व्यवहार करने लगे थे ।

हिमालय और विन्ध्य तक संस्कृत बोलचाल की भाषा थी- साहित्य में ऐसे भी उल्लेख पाये जाते हैं जिनसे ज्ञात होता है कि रामायण और महाभारत जनता के सामने मूलमात्र पढ़कर सुनाये जाते थे। तब तो जनता वस्तुतः संस्कृत के श्लोकों का अर्थ समझ लेती होगी। इस प्रकार स्पष्ट है कि हिमालय और विन्ध्य के बीच फैले हुए सम्पूर्ण आर्यावर्त में संस्कृत बोल चाल की भाषा थी। इसका व्यवहार ब्राहमण ही नहीं, अन्य लोग भी करते थे।

संस्कृत का उत्थान, पतन और फिर उत्थान…

संस्कृत उत्तर-पश्चिमी भारत की बोल चाल की भाषा थी, जिसके विकास का पता सम्पूर्ण साहित्य दे रहा है और sanskrit1जिसकी ध्वन्यात्मक विशेषतायें उत्तर-पश्चिमी भारत के शिलालेखों में बहुत सीमा तक सुरक्षित है। मूलरूप में यह ब्राहमण धर्म की भाषा थी, जो उसी उत्तर पश्चिमी भाग से प्रचालितहुआ था। ब्राहमण धर्म के प्रसार के साथ इसका भी प्रसार हुआ और जब भारत के अन्य दो बड़े धर्म-जैन और बौद्ध धर्म फैलने लगे, तब कुछ समय के लिए इसका प्रसार रुक गया। जब भारत में दोनों धर्मों का अपकर्ष प्रारंभ हुआ तब इसने निर्विघ्न उन्नति करना प्रारम्भ किया धीरे-धीरे यह सारे भारत वर्ष में फैलने लगी। गुप्त काल को सांस्कृतिक विकास में भारत के स्वर्ण युग तथा सर्वोच्च और सबसे उत्कृष्ट समय के रूप में भी माना जाता है। गुप्त वंश के शासकों ने संस्कृत साहित्य को संरक्षित किया और उन्होंने उदारता से संस्कृत विद्वानों और कवियों की मदद की। अंततः संस्कृत भाषा सुसंस्कृत और शिक्षित लोगों की भाषा बन गई। इस दौर में कालिदास संस्कृत भाषा के सबसे महान कवि और नाटककार थे। कालिदास ने भारत की पौराणिक कथाओं और दर्शन को आधार बनाकर रचनाएं की। इसमें अभिज्ञानशाकुन्तलम्, रघुवंशम्, कुमारसंभवम्; मेघदूतम् और ऋतुसंहार प्रमुख हैं। समय पाकर तो यह एक विशाल राष्ट्रीय भाषा बन गयी और केवल तभी यह पदच्युत हुई जब मुस्लिम शासकों का भारत में आगमन हुआ।

काल विभाजन

संस्कृत साहित्य का इतिहास, काल विभाजन के आधार पर करना अबतक के विद्वानों के लिए टेढ़ी खीर रहा है। ऐतिहासिक दृष्टि से भारतीय आर्य भाषाओं के कालक्रम को गैरोला (संस्कृत साहित्य का संक्षिप्त इतिहास (वाचस्पति गैरोला), पृ0 18) तीन युगों में विभाजित करते हैं

  1. आर्य भाषा युग- वैदिक काल से 900 ई0 पूर्व तक
  2. मध्यकालीन आर्य भाषा युग- 500 ई0 पू0 से 1100 ई०
  3. आधुनिक आर्यभाषा युग- 1100 ई0 से अब तक

इसके आधार पर हम संस्कृत साहित्य के कालक्रम को आदिकाल,मध्यकाल और आधुनिक में विभक्त कर अध्ययन कर सकते हैं। क्योंकि वैदिककालीन(आदि काल) से ही साहित्य सृजन का रूप हमें वेदों एवं उनकी संहिताओं तथाब्राह्मण आदि ग्रन्थों में मिलता है।

पद्मविभूषण आचार्य बलदेव उपाध्याय ने संस्कृत साहित्य का इतिहास, में निम्न प्रकार से विभाजित किया है-

  1. श्रुति काल : जिसमें वैदिक साहित्य ब्राह्मण, आरण्यक, उपनिषद, का निर्माणहुआ। इस काल में वाक्य रचना सरल संक्षिप्त और क्रिया बहुलता हुआ करती थी।
  2. स्मृति काल : जिसमें रामायण, महाभारत पुराण तथा वेदांगों की रचना हुई।
  3. लौकिक संस्कृत का काल : इसमें काव्य तथा नाटकों की रचना, पाणिनि केनियमों के द्वारा संयत तथा सुव्यवस्थित की गयी भाषा से होने लगी।

उपर्युक्त विद्वानों के अवलोकन के पश्चात् सबसे मान्य उपाध्याय जी केकालक्रम विभाजन को मानते हुए श्रुतिकाल को, आदि काल तथा स्मृति काल कोमध्य काल तथा लौकिक संस्कृति साहित्य के काल को आधुनिक काल मानकरसंस्कृत साहित्य के इतिहास पर दृष्टिपात करना तर्क संगत होगा। इसके आधारपर हम संस्कृत साहित्य के कालक्रम का निर्धारण निम्न प्रकार से कर सकते हैं-

आदि काल(श्रुति काल)

  1. संहिता काल (वैदिक संहिताएँ)
  2. ब्राह्मण काल (ब्राह्मण ग्रन्थ)
  3. सूत्रकाल (वेदांग)

मध्यकाल (स्मृति काल)

  1. महाकाव्य(उपजीव्य काव्य) काल
  2. पुराण काल
  3. इसके अतिरिक्त स्मृति काल में जैन एवं बौद्ध कालीन संस्कृत साहित्य का काव्य भी दृष्टिगोचर होता है।

लौकिक साहित्य काल (आधुनिक काल)

  1. श्रव्य काव्य काल
  2. दृश्य काव्य काल

वैदिक और लौकिक साहित्य में मूलभूत भिन्नता

  1. प्रथम तो दोनों साहित्यों में विषय भेद है। वैदिक साहित्य धर्म प्रधान था,उसमें केवल दर्शन, धार्मिक व्यवस्थाएं तथा जीवन के आचार-विचार पर ही प्रकाशपड़ता था किन्तु आगे चलकर समाज विज्ञान और राजनीति आदि का समावेश होनेलगा है। रामायण की रचना से साहित्य में लौकिकता को महत्व मिला। रामायण मेंशृङ्गार, वीर, करुण, अद्भुत, वीभत्स आदि रसों का पूर्ण परिपाक हुआ है, जिसमेंउसकी लौकिकता सिद्ध होती है।
  2. लौकिक संस्कृत के विकास के साथ साहित्य में पद्यात्मकता की प्रधानता होजाती है। सभी ग्रन्थ पद्य में रचने की प्रथा चल पड़ी है। व्याकरण, दर्शन आदिशास्त्रों को छोड़कर अन्यत्र गद्य का प्रयोग किया जाने लगा। अभिप्राय यह है किसाहित्य लिखने का माध्यम पद्य ही रह गया किन्तु इसमें पूर्व वैदिक साहित्य गद्यका पर्याप्त स्थान मिला हुआ पाते है। यजुर्वेद, उपनिषद आदि में सर्वत्र गद्य के दर्शन होते हैं। इसलिए वैदिक तथा लौकिक संस्कृत के गुण हम इस आधार पर भीबाँट सकते हैं कि. जहाँ वैदिक साहित्य में गद्य को प्रश्रय प्राप्त था वहीं लौकिकसाहित्य में पद्य को प्रश्रय प्राप्त हुआ है।
  3. भाषा की दृष्टि से भी दोनों साहित्य में अन्तर है। वैदिक भाषा स्वरूप कीदृष्टि इतनी व्यवस्थित और निश्चित नहीं जितनी लौकिक संस्कृत की। लौकिकसंस्कृत को स्थिर रूप देने का श्रेय पाणिनि को है तथापि रामायण, महाभारत तथापुराणों आदि में भी कहीं-कहीं पुरानी भाषा के प्रयोग मिल जाते हैं। उन्हें आर्षप्रयोग कहकर स्वीकृत कर लिया गया है।
  4. दोनों प्रकार के साहित्य में वर्णन शैली का भी भेद दृष्टिगोचर होता है।कविताओं में जैसी उपमाएँ तथा अतिशयोक्तिपूर्ण वर्णन की प्रधानता लौकिकसंस्कृत से ही आरम्भ होती है। इससे पूर्व काव्य का लालित्य वैदिक साहित्य मेंदृष्टिगोचर नहीं होता। उसमें रूपकों की प्रमुखता है। अमूर्त को मूर्त रूप देनावैदिक साहित्य की विशेषता है।

पाश्चात्य मत- पाश्चात्य मत के अनुसार संस्कृत भाषा भारोपीय परिवार की एकभाषा है। संस्कृत तथा अन्य युरोपीय भाषाएँ किसी प्राचीन भाषासे विकसित हुई जो आज उपलब्ध नहीं हैं। संस्कृत , ईरानी और यूरोप की भाषाओं के तुलनात्मक अध्ययन के आधार पर पाश्चात्यभाषा वैज्ञानिकों ने यह निष्कर्ष निकाला कि भारत और यूरोप कीभाषाओं की एक जननी थी जिसका उन्होंने भारोपीय भाषा नामदिया है।

संस्कृत- व्याकरण

दुनिया की प्रत्येक भाषा का विकास ध्वनि संकेतों के आधार पर हुआ लेकिन संस्कृत किसी देश या धर्म की भाषा नहीं यह ब्रह्मांड की भाषा है। संस्कृत की उत्पत्ति और विकास ब्रह्मांड की ध्वनियों के माध्यम से हुआ है। यह आम लोगों screen-0.jpgद्वारा बोली गई ध्वनियां नहीं हैं। धरती और ब्रह्मांड में गति सर्वत्र है। चाहे वस्तु स्थिर हो या गतिमान। गति होगी तो ध्वनि निकलेगी। ध्वनि होगी तो शब्द निकलेगा। देवों और ऋषियों ने उक्त ध्वनियों और शब्दों को पकड़कर उसे लिपि में बांधा और उसके महत्व और प्रभाव को समझा।

देव भाषा संस्कृत की वर्ण माला का उद्गम सूर्य की रश्मियां हैं। इसमें कुल 36 स्वर और 72 व्यंजन वर्ण हैं। यह ब्रह्माण्ड से निकली हुई मूल ध्वनिया है। संस्कृत को अपौरुष भाषा इसलिए कहा जाता है कि इसकी रचना ब्रह्माण्ड की ध्वनियों से हुई है। सौर परिवार के प्रमुख सूर्य के एक ओर से 9 रश्मियां निकलती हैं और ये चारों ओर से अलग अलग निकलती हैं। इस तरह कुल 36 रश्मियां हो गई। इन 36 रश्मियों के ध्वनियों पर संस्कृत के 36 स्वर बने। इस प्रकार सूर्य की जब 9 रश्मियां पृथ्वी पर आती हैं तो उनका पृथ्वी के 8 बसुओं से टक्कर होती है। सूर्य की 9 रश्मियां और पृथ्वी के 8 बसुओं की आपस में टकराने से जो 72 प्रकार की ध्वनियां उत्पन्न हुईं वे संस्कृत के 72 व्यंजन बन गई। इस प्रकार ब्रह्माण्ड में निकलने वाली कुल 108 ध्वनियां पर संस्कृत की वर्णमाला आधारित है।

ब्रह्माण्ड की ध्वनियों के रहस्य के विषय में वेदों से ही जानकारी मिलती है। इन ध्वनियों को नासा ने भी माना है। अत: यह सर्वसिद्ध है कि वैदिक काल में बृह्मांड में होने वाली ध्वनियों का ज्ञान ऋषियों को था।

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मा ना जाता है कि अरबी भाषा को कंठ से और अंग्रेजी को केवल होंठों से ही बोला जाता है किंतु संस्कृत में वर्णमाला को स्वरों की आवाज के आधार पर कवर्ग, चवर्ग, टवर्ग, तवर्ग, पवर्ग (हिन्दी में पञ्चमाक्षर) अंत:स्थ और ऊष्म वर्गों में बांटा गया है-

  • कवर्ग- कवर्ग में ङ् का प्रयोग क, ख, ग, घ के पूर्व होता है। हालांकि ‘पराङ्मुख’ और ‘वाङ्मय’ आदि कुछ शब्दों में अपवाद स्वरूप ‘ङ्’ का ही प्रयोग मिलता है। यहाँ (ं) का प्रयोग नहीं किया जा सकता। ङ व्यंजन शब्द के आदि तथा अंत में नहीं आता। इसके अनुसार विशिष्ट ध्वन्यात्मक प्रयोगों को छोड़कर इस वर्ग के लिए अनुस्वार का प्रयोग किया जा सकता है।
  • चवर्ग- चवर्ग में ञ् का प्रयोग च, छ, ज, झ के पूर्व होता है। जैसे- अञ्चल, पञ्छी, अञ्जन एवं झञ्झट आदि। हालांकि ञ का प्रयोग हिंदी लेखन में प्रायः नहीं हो रहा है। इनके स्थान पर अब अनुस्वार का ही प्रयोग हो रहा है। ञ् भी शब्द के आदि या अंत में नहीं आता।
  • टवर्ग- टवर्ग में ण् का प्रयोग ट, ठ, ड, ढ के पूर्व होता है। जैसे- घण्टा, कण्ठ, अण्डा आदि। अब इनके स्थान पर प्रायः अनुस्वार (ं) का प्रयोग होता है। स्वतंत्र रूप से ण का प्रयोग केवल संस्कृत के शब्दों में होता है। वह भी मध्य (प्रणाम) और अंत (प्रण) में। टवर्ग के अतिरिक्त य,व एवं ण के पूर्व भी ण आता है, किन्तु ऐसी स्थिति में इसके स्थान पर अनुस्वार नहीं आता। जैसे- पुण्य, कण्व एवं विषण्ण।
  • तवर्ग- तवर्ग में न् का प्रयोग त, थ, द, ध के पूर्व होता है। जैसे- जन्तर, मन्थर, तन्दूर, गन्ध आदि। अब इनके स्थान पर भी अनुस्वार (ं) के प्रयोग की अनुशंसा की जाती है। जैसे- अंत, पंथ, आनंद एवं गंधक।
  • पवर्ग- पवर्ग में म् का प्रयोग प, फ, ब, भ के पूर्व होता है। जैसे- सम्पर्क, गुम्फित, अम्बर, गम्भीर आदि। अब इनके स्थान पर भी ङ्, ञ्, ण् एवं न् की तरह ही प्रायः अनुस्वार (ं) का प्रयोग होता है। जैसे- संपर्क, गुंफित, अंबर एवं गंभीर।

संस्कृत साहित्य 

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आदि देव ने सृष्टि के आदि में ही मनुष्य को भाषा और धर्म साथ-साथप्रदान किये जिससे संस्कृति एवं साहित्य का विकास हुआ। संस्मरणीय है किसंस्कृति “शारीरिक या मानसिक शक्तियों का दृढ़ीकरण या विकास अथवा उससेउत्पन्न अवस्था” के रूप में जानी जाती है। वहीं साहित्य शब्द और अर्थ के मञ्जुलसामञ्जस्य का सूचक है। इसकी व्युत्पत्ति है “सहितयोः शब्दार्थयोः भावः साहित्यम्अर्थात् साहित्य शब्द अर्थ का भाव है। महाकवि भर्तिहरि ने संगीत और साहित्य सेविहीन पुरुष को जब पशु कहा है, तब उसका अभिप्राय ‘साहित्य’ के उन कोमलकाव्यों से है जिसमें शब्द और अर्थ का अनुरूप सन्निवेश है। शास्त्र व साहित्य काअन्तर यही है कि शास्त्र में अर्थ प्रतीति के लिए ही शब्द का प्रयोग किया गया है,परन्तु काव्य में शब्द और अर्थ दोनों एक ही कोटि के होते है। कोई न घटकर रहताहै न बढ़कर। इसी अर्थ को ध्यान में रखकर राजशेखर ने साहित्य विद्या कोपञ्चमी विद्या कहा है, जो प्रमुख विद्याओं में पुराण, न्याय दर्शन, मीमांशा औरधर्मशास्त्र का सारभूत है। विल्हण ने अपने विक्रमांकदेवचरितम् में काव्य रूपीअमृत को साहित्य समुद्र के मन्थन से उत्पन्न होने वाला बतलाया है। 4 साहित्यशब्द का प्रयोग संकुचित अर्थ में काव्य, नाटक आदि के लिए होता है। परन्तुसाहित्य शब्द का अर्थ व्यापक रूप में भी प्रयुक्त है। साहित्य से अभिप्राय उन ग्रन्थों से है जो किसी भाषा विशेष में निबद्ध किये गये हों। इस अर्थ में वाड्.मय का प्रयोग उचित माना गया है।

साहित्य ही संस्कृति के उचित प्रसार तथा प्रचार का सर्वश्रेष्ठ साधन है।जहाँ साहित्य सामाजिक भावना एवं सामाजिक विचार की विशुद्ध अभिव्यक्ति होनेके नाते समाज का मुकुट है, वहीं सांस्कृतिक आचार तथा विचार के विपुल प्रचारकतथा प्रसारक होने के कारण संस्कृति के सन्देश को जनता तक पहुँचाने के कारणसंस्कृति का वाहक भी है। जहाँ तक भारतीय संस्कृति के प्रधान वाहक का सवालहै तो वह है संस्कृत साहित्य है और यह संस्कृति साहित्य जिस भाषा में निबद्धकिया गया है वह भाषा या देववाणी या ‘सुरभारती’ है जिससे लोक व्यवहार चलताहै तथा मुख्य धर्म सनातन धर्म है जिसमें विश्वकर्मा इस संस्था को चलाने हेतु आचार-विचार एवं नियम उपनियम दिये थे। इसकी पुष्टि प्रसिद्धि पाश्चात्य ऐतिहासिकएवं दार्शनिक विलड्यूरा के शब्दों से होती है- भारत हमारा मातृदेश है। संस्कृत समस्त यूरोपीय भाषाओं की जननी । भारतभूमि हमारे दर्शन शास्त्र की जननी थी, अरबों के माध्यम से गणित शास्त्र की भी जननीरही है। बुद्धदेव के माध्यम से इसाई धर्म में व्याप्त शासन एवं प्रजातंत्र की जननी थी।अतः कहा जा सकता है भारत माता अनेक प्रकार से हम भारतीयों की माँ हैं।

संस्कृत गद्य की परम्परा

संस्कृत गद्य का दर्शन सर्वप्रथम वैदिक साहित्य में उपलब्ध होने से संस्कृत साहित्य में गद्य भाषा की परम्परा को वैदिक संहिताओं जितना प्राचीन कहा जा सकता है। वैदिक काल से आरम्भ कर मध्यकाल तक गद्य के विकसित होने का इतिहास बड़ा ही मनोरम है। संस्कृत गद्य साहित्य का विकास मुख्यतया दो भागों में विभक्त दृष्टिगोचर होता है-

(1) वैदिक साहित्य का गद्य।

वैदिक साहित्य का गद्य- वैदिक साहित्य में चार वैदिक संहिताओं- ऋग्वेद, यजुर्वेद, आयुर्वेदव और अथर्ववेद के अतिरिक्त इनमें ब्राह्मणों-ग्रन्थों, आरण्यकों, उपनिषदों और वेदागों को सम्मिलित किया जाता है। वेदांग छः है- शिक्षा, कल्प,व्यायकरण, निरूक्त, छन्द, ज्योतिष। इन सभ्ज्ञी से सम्बन्धित साहित्य वैदिकसाहित्य की सीमा में आ जाता है। ऐतिहासिक गवेषणाओं से प्रतीत होताहै कि वैदिक संहिताओं में ही गद्य का प्रथम विवेचन किया गया है। गद्य से मिश्रित होने के कारण ही कृष्णयजुर्वेद का कृष्णत्त्व है। प्राचीनतम गद्यका उदाहरण इसी कृष्ण यजुर्वेद की तैत्तिरीय संहिता में उपलब्ध होता है।इस संहिता में गद्य भाग पद्य की अपेक्षा मात्रा में कथमपि न्यून नही है। इस वेद की अन्य संहिताओं जैसे-काठक संहिता, मैत्रायणी संहितादि में भीगद्य की सत्ता उस मात्रा में है। शुक्ल यजुर्वेद में भी कुछ गद्यात्मक मंत्रहै जिन्हें ‘यंजूषि’ कहा गया है। कालक्रम में कुछ आगे चलकर अथर्ववेद का गद्य है जिसमें गद्यांश प्रचुर मात्रा में है। यहाँ गद्य सम्पूर्ण अथर्ववेदका लगभग छठा भाग है। अथर्ववेद के 15वें तथा 16वें काण्ड में गद्यांशपाये जाते है। संहिताओं के बाद गद्य का प्रचुर प्रयोग ब्राह्मण, आरण्यकतथा उपनिषद् ग्रन्थों में मिलता है। जिनका क्रमशः वर्णन अधोलिखित है।

(क) संहिता कालीन गद्य-वैदिक संहिताओं में गद्य का प्रयोग हुआ है। यह गद्य सहज, सरलएवं सरस है। इसमें प्रौढ़ता एवं समास बहुलता नहीं है।

(ख) ब्राह्मणकालीन गद्य- ब्राह्मण ग्रन्थों में रोचक, मनोरम एवं सरस गद्य का प्रयोग हुआ है। ब्राह्मण ग्रन्थों के अनुशीलन से तत्कालीन साहित्यिक एवं व्यावहारिक गद्य का अनुमान किया जा सकता है।

(ग) उपनिषद्कालीन गद्य-उपनिषद् ग्रन्थों का गद्य पूर्णतः सजीव एवं व्यावहारिक है। इसकीभाषा सरल, सरस एवं सुबोध है। लम्बे-लम्बे समस्त पदों का प्रयोग नहींहुआ है। यत्र-तत्र विषय को हृदयंगम कराने के लिए पुनरूक्ति के दर्शनहोते है। उपनिषद् कालीन गद्य व्यावहारिक गद्य के अधिक समीप है।

(घ) उपनिषद् उत्तरकालीन गद्य- इस काल में वैदिक और लौकिक संस्कृत के गद्य का सामञ्जस्यरहता है। यह दोनों गद्यों की सन्धि का काल है। उपनिषद् साहित्य केपश्चात् वेदांग साहित्य में जो गद्य प्राप्त होता है, उसमें समास शैली केदर्शन होने लगते है। यही से गद्य साहित्य में संक्षेपीकरण की प्रवृत्तिदिखाई देने लगती है। इस शैली का चरम विकास महर्षि पाणिनि प्रणीतअष्टाध्यायी के सूत्रों में प्राप्त होता है। महर्षि पाणिनि ने सूत्र शैली कोअपनाकर गागर में सागर भरने की उक्ति को चरितार्थ कर दिया है।यास्क का निरूक्त भारतीय दर्शन और सम्पूर्ण वेदांग साहित्य में इस शैलीके दर्शन होते है। इस शैली ने शनैः शनैः जिस संस्कृत गद्य का प्रवर्तनकिया, उसे परिष्कृत और अलंकृत गद्य कहा जा सकता है। इस काल केगद्य को अध्ययन की सुविधा के लिए हम तीन भागों में विभक्त करसकते हैं-1. पौराणिक गद्य 2. शास्त्रीय गद्य 3. साहित्यिक गद्य

(2) लौकिक साहित्य का गद्य।

कौटिल्य का अर्थशास्त्र, वात्स्यायन का कामसूत्र, भरत का नाट्यशास्त्र आदि संस्कृत के कुछ ऐसे अमूल्य ग्रंथरत्न हैं – जिनका समस्त संसार के प्राचीन वाङ्मय में स्थान है। वैदिक वाङ्मय के अनंतर सांस्कृतिक दृष्टि से वाल्मीकि के रामायण और व्यास के महाभारत की भारत में सर्वोच्च प्रतिष्ठा मानी गई है। महाभारत का आज उपलब्ध स्वरूप एक लाख पद्यों का है। प्राचीन भारत की पौराणिक गाथाओं, समाजशास्त्रीय मान्यताओं, दार्शनिक आध्यात्मिक दृष्टियों, मिथकों, भारतीय ऐतिहासिक जीवनचित्रों आदि के साथ-साथ पौराणिक इतिहास, भूगोल और परंपरा का महाभारत महाकोश है। वाल्मीकि रामायण आद्य लौकिक महाकाव्य है। उसकी गणना आज भी विश्व के उच्चतम काव्यों में की जाती है। इनके अतिरिक्त अष्टादश पुराणों और उपपुराणादिकों का महाविशाल वाङ्मय है जिनमें पौराणिक या मिथकीय पद्धति से केवल आर्यों का ही नहीं, भारत की समस्त जनता और जातियों का सांस्कृति इतिहास अनुबद्ध है। इन पुराणकार मनीषियों ने भारत और भारत के बाहर से आयात सांस्कृति एवं आध्यात्मिक ऐक्य की प्रतिष्ठा का सहस्राब्दियों तक सफल प्रयास करते हुए भारतीय सांस्कृति को एकसूत्रता में आबद्ध किया है।

संस्कृत के लोकसाहित्य के आदिकवि वाल्मीकि के बाद गद्य-पद्य के लाखों श्रव्यकाव्यों और दृश्यकाव्यरूप नाटकों की रचना होती चली जिनमें अधिकांश लुप्त या नष्ट हो गए। पर जो स्वल्पांश आज उपलब्ध है, सारा विश्व उसका महत्व स्वीकार करता है। कवि कालिदास के अभिज्ञानशाकुन्तलम् नाटक को विश्व के सर्वश्रेष्ठ नाटकों में स्थान प्राप्त है। अश्वघोष, भास, भवभूति, बाणभट्ट, भारवि, माघ, श्रीहर्ष, शूद्रक, विशाखदत्त आदि कवि और नाटककारों को अपने अपने क्षेत्रों में अत्यंत उच्च स्थान प्राप्त है। सर्जनात्मक नाटकों के विचार से भी भारत का नाटक साहित्य अत्यंत संपन्न और महत्वशाली है। साहित्यशास्त्रीय समालोचन पद्धति के विचार से नाट्यशास्त्र और साहित्यशास्त्र के अत्यंत प्रौढ़, विवेचनपूर्ण और मौलिक प्रचुरसख्यक कृतियों का संस्कृत में निर्माण हुआ है। सिद्धांत की दृष्टि से रसवाद और ध्वनिवाद के विचारों को मौलिक और अत्यंत व्यापक चिंतन माना जाता है। स्तोत्र, नीति और सुभाषित के भी अनेक उच्च कोटि के ग्रंथ हैं। इनके अतिरिक्त शिल्प, कला, संगीत, नृत्य आदि उन सभी विषयों के प्रौढ़ ग्रंथ संस्कृत भाषा के माध्यम से निर्मित हुए हैं जिनका किसी भी प्रकार से आदिमध्यकालीन भारतीय जीवन में किसी पक्ष के साथ संबंध रहा है। ऐसा समझा जाता है कि द्यूतविद्या, चौर विद्या आदि जैसे विषयों पर ग्रंथ बनाना भी संस्कृत पंडितों ने नहीं छोड़ा था। एक बात और थी। भारतीय लोकजीवन में संस्कृत की ऐसी शास्त्रीय प्रतिष्ठा रही है कि ग्रंथों की मान्यता के लिए संस्कृत में रचना को आवश्यक माना जाता था। इसी कारण बौद्धों और जैनों, के दर्शन, धर्मसिद्धान्त, पुराणगाथा आदि नाना पक्षों के हजारों ग्रंथों को पालि या प्राकृत में ही नहीं संस्कृत में सप्रयास रचना हुई है। संस्कृत विद्या की न जाने कितनी महत्वपूर्ण शाखाओं का यहाँ उल्लख भी अल्पस्थानता के कारण नहीं किया जा सकता है। परंतु निष्कर्ष रूप से पूर्ण विश्वास के साथ कहा जा सकता है कि भारत की प्राचीन संस्कृत भाषा-अत्यंत समर्थ, संपन्न और ऐतिहासिक महत्व की भाषा है। इस प्राचीन वाणी का वाङ्मय भी अत्यंत व्यापक, सर्वतोमुखी, मानवतावादी तथा परमसंपन्न रहा है। विश्व की भाषा और साहित्य में संस्कृत भाषा और साहित्य का स्थान अत्यंत महत्वशाली है। समस्त विश्व के प्रच्यविद्याप्रेमियों ने संस्कृत को जो प्रतिष्ठा और उच्चासन दिया है, उसके लिए भारत के संस्कृतप्रेमी सदा कृतज्ञ बने रहेंगे।

संस्कृत साहित्य में नाटकों की परम्परा

भारत में संस्कृत नाटक की उत्पत्ति कब और कैसे हुई यहअत्यन्त जटिल एवं विवादास्पद प्रश्न है। नाटक उत्पत्ति के विषय में भारत मेंकुछ कथाएं परम्परा से चली आई हैं। इस विषय में सर्वाधिक प्राचीन कथा हमें भरतमुनि के नाट्यशास्त्र के प्रथम अध्याय में उपलब्ध होती है। इस अध्याय कानाम ही “नाट्योत्पत्ति” है। भारतीय परम्परा अनुसार ब्रह्मा जी ने नाट्येवद कीरचना की तथा भरतमुनि ने पृथ्वी मण्डल में उसका प्रचार किया।

नाटक के प्रधान अङ्ग संवाद, संगीत, नृत्य एवंअभिनय है। वैदिक साहित्य का अनुशीलन करने से ज्ञात होता है कि वैदिक कालमें इन सभी अङ्गों का किसी न किसी रूप में अस्तित्व था तथा इस अर्थ में यहकहा जा सकता है कि संस्कृत नाटक की उत्पत्ति वैदिक काल में हुई। परवास्तविक नाटक के विकसित रूप का आभास वेद में कहीं लक्षित नहीं होता है। जबकि रामायण-महाभारत में इसे अग्रसर होता हुआ देखा जा सकता है। अधिकतर पुराणों में भी नाटकों का उल्लेख है। बौद्ध साहित्य में भी नाटक कीप्राचीनता सिद्ध होती है। जातक साहित्य में भी नटों के अभिनय का उल्लेख प्राप्तहोता है।’ इस प्रकार परम्परा अनुसार नाट्यवेद की सृष्टि ब्रह्म ने की थी।

प्राचीन संस्कृत नाटकों में हमारे देश की दार्शनिकता एवं भाव गाम्भीर्य की अलौकिक झलक दृष्टिगोचर होती है। हमारा धार्मिक जीवन इस कथन का ज्वलन्त व प्रत्यक्ष प्रमाण है। हमारे समस्त धार्मिक कृत्य इसी भाषा में सम्पन्न होते हैं। संस्कृत के इस लोकायायी प्रचार का एक महान कारण इसके साहित्य में नाटकों की सुमनोहरता एवं रोचकता है।

प्राचीनकालीन नाटक

  • संस्कृत रूपक के साहित्यिक विन्यास का समारम्भ प्रथम शती ईस्वी से वर्तमान काल तक निरन्तर होता आ रहा है। इस रूप में साहित्य शब्द से अश्वघोष, कालिदास, भवभूति आदि रचनाकारों की ऐसी कृतियाँ, जो रसानन्द के साथ-साथ मानव को उचित-अनुचित का विवेक कराकर प्रेय एवं श्रेय मार्ग की ओर प्रेरित करें, उन्हें साहित्य कहा जा सकता है।
  • संस्कृत साहित्य के प्राचीन नाटकों में “शारीपुत्र प्रकरण” संस्कृत का प्रथम प्राप्य रूपक है किन्तु इसके पूर्व अनेक अनगिनत रूपकों की परम्परा विराजमान थी।
  • धार्मिक नाट्य दृश्यों से सबद्ध रूपक सर्वप्रथम पुस्तक रूप में प्रथम शताब्दी ई.पू. में अश्वघोष के लिखे हुये मिलते हैं। अश्वघोष प्रथम संस्कृत नाटककार माने जाते हैं। “शारिपुत्र प्रकरण” उन्हीं द्वारा रचित रूपक है। इसके अतिरिक्त उनके द्वारा लिखे दो अन्य नाटकों केखण्डित अंश भी मिले हैं।
  • दो खण्डित नाटकों में से एक “प्रबोधचन्द्रोदय” के समान रूपात्मक है। जिसमें बुद्धि, घृति, कीर्ति एवं बुद्ध पात्रों के रूप में चित्रित किये गये हैं तथा द्वितीय ‘मृच्छकटिक’ की भान्ति वैश्यानायिकात्मक नाटक है। “शारिपुत्र प्रकरण” नौ अंकों में समाप्त हुआ है।
  • महाकवि भास प्रथम शती ईस्वी के अश्वघोष के पश्चात् हैं। उनके द्वारा रचित अभी तक तेरह रूपक मिले हैं, इनके नाम इस प्रकार हैं – दूतवाक्य, कर्णभार, दूतघटोत्कच, ऊरुभङ्ग, मध्यमव्यायोग, पंचरात्र, अभिषेक, बालचरित, अविमारक, प्रतिमा, प्रतिज्ञायौगन्धरायण, स्वप्नवासदतम् तथा चारुदत्त।

संस्कृत साहित्य का सर्वोत्कृष्ट नाटक “अभिज्ञानशाकुन्तलम”

  • भास के पश्चात कालिदास का अवतरण हुआ। महाकवि कालिदास संस्कृत के सर्वोत्कृष्ट नाटककार माने जाते हैं उनका स्थितिकाल प्रथम शताब्दी ई. पू. माना गया है। उनके लिखे तीन नाटक कहे गये हैं – “मालिविकाग्निममित्र”, “विक्रमोर्वशीयम्” तथा “अभिज्ञानशाकुन्तलम”।
  • भारतीय नाट्यसाहित्य का पूर्ण परिपाक हमें सर्वप्रथम कालिदास की कृतियों में ही मिलता है। रचनाक्रम के अनुसार “मालविकाग्निमित्र” कालिदास का प्रथम नाटक है। प्रथम नाटक होते हुये भी यह कालिदास की नाट्यकला के विकासशील स्वरूप को प्रस्तुत करता है। कालिदास का द्वितीय नाटक ‘विक्रमोर्वशीयम्” है तथा तृतीय नाटक “अभिज्ञानशाकुन्तलम्” है जो कालिदास का ही नहीं वरन् समग्र संस्कृत साहित्य का सर्वोत्कृष्ट नाटक है।

संस्कृत के मुस्लिम विद्वान

अलबरूनी- भारत आने वाले प्रमुख अरब यात्रियों में अलबरूनी उर्फ अबूरेहान भी था। यह महमूद गजनबी के साथ भारत आया था। यहाँ रहते हुए इसने खगोल विद्या, संस्कृत तथा रसायन शास्र आदि विषयों का विस्तृत विवरण किया।

  • अलबरूनी प्रथम मुसलमान था जिसने संस्कृत पढ़ा। अलबरूनी ने पुराणों का अध्ययन किया और लाभ उठाया। गहन अध्ययन करके उसने पुराणों की विवेचना भी की थी, उसने मत्स्य, आदित्य, विष्णु और वायु पुराण का अध्ययन किया। चूंकि उसका भारतीय ज्ञान सर्वोत्कृष्ट प्रकार का था और वह भारतीय विद्याओं में पारंगत हो चुका था, इसलिए वह अपने पूर्ववर्ती और परवर्ती मुसलमान लेखकों की तुलना में सुदृढ़ साहित्य उपलब्ध करवाता है।
  • अलबरूनी ने ज्योतिष के अनेक संस्कृत ग्रन्थों का अरबी अनुवाद किया।‘किताब-उल-हिन्द’ (तहकीक-ए-हिन्द) उसकी प्रसिद्ध रचना है। उसने संस्कृत रचनाओं का उपयोग किया जिसमें ब्रह्मगुप्त, बलभद्र तथा वाराहमिहिर की रचनाए विशेष रुप से उल्लेखनीय हैं। उसने जगह-जगह भगवद्गीता, विष्णु पुराण तथा वायु पुराण को उद्धत किया है।

गेसू दराज- सूफी सन्त गेसू दराज का जन्म 1321ई. को दिल्ली में हुआ था। गेसू दराज़ दिल्ली के प्रसिद्ध सूफ़ी संत हजरत नसीरुद्दीन चिराग़ देहलवी के एक मुरीद या शिष्य थे। इनको अरबी, फ़ारसी तथा संस्कृत का अच्छा ज्ञान था। वैसे वे उर्दू भाषा के प्रारंभिक कवियों और लेखकों में से एक थे। लेकिन इनके मूल में संस्कृत वाक्य विन्यास तथा उनके स्त्रोतों से लिए गए शब्द थे।

अकबरशाह- आंध्र प्रदेश के सूफी सन्त (संस्कृत विद्वान) गेसूदराज के वंशज थे | इन्होंने संस्कृत में नायिका भेद पर ‘श्रृंगारमञ्जरी’ नामक ग्रन्थ लिखा | इन्हें बड़े साहब के नाम से भी जाना जाता है |

अब्दुलर्रहीम खानखाना- रहीम का पूरा नाम अब्दुल रहीम (अब्दुर्रहीम) ख़ानख़ाना था। ‘खानखाना’ रहीम की उपाधि थी जिसे अकबर ने प्रदान किया था। रहीम अकबर के नवरत्नों में से एक थे। वे एक बहुभाषाविद्‌ थे और हिन्दी, तुर्की, फ़ारसी, संस्कृत, अवधी, ब्रजभाषा, खड़ी बोली इत्यादि पर उन्हें दक्षता प्राप्त थी।  अब्दुर्रहीम खानखाना ने अरबी, फ़ारसी के साथ ब्रज तथा संस्कृत में रचना की।

जैनुल अबादीन कश्मीर में सुल्तान जैनुल आबदीन (१४वीं सदी) जैसे अनेक संस्कृत प्रेमी शासक हुए हैं। सकी प्रेरणा से महाभारत एवं राजतरंगिणी का संस्कृत से फारसी में तथा कई अरबी और फारसी पुस्तकों का हिन्दी भाषा में अनुवाद हुआ। इस प्रकार, इन सभी गुणों के लिए, यथार्थ ही उसका कश्मीर के अकबर के रूप में वर्णन किया गया है, यद्यपि वह उससे (अकबर से) व्यक्तिगत चरित्र के कुछ लक्षणों में भिन्न था।

इब्राहिम आदिलशाह- बीजापुर के सुल्तान इब्राहिम आदिलशाह द्वितीय (1500 -1627 ई.) ने फारसी भाषा में ‘किताब-ए-नवरस’ नामक ग्रन्थ लिखा जिसमें संस्कृत के शब्दों का प्रयोग है।  यह संगीत और कला पर लिखित ग्रन्थ है।  

हाजी इब्राहिम सरहिन्दी अ अकबर के ही शासनकाल में हाजी इब्राहिम ने शेख़भवन की सहायता सेअथर्व वेद. का फ़ारसी में अनुवाद ‘अथरबन’ नामक शीर्षक से किया।

फैजी (शेख अबु अल-फ़ैज़)- मध्यकालीन भारत का फारसी कवि थे। फैजी ने भगवतगीता का फ़ारसी भाषा में अनुवाद — राजे-ए-मगफिरत ‘ नाम से किया ।’ अकबर के आदेशनुसार फैजी ने बीजगणित के संस्कृतग्रंथ लीलावती का फ़ारसी अनुवाद किया ।

बदायूँनी- अब्दुल कादिर बदायूँनी ने सन् 1590 ई0 में रामायण का फ़ारसीभाषा में अनुवादकिया। नाकिब ख़ान और थानेश्वर के शेखसुलतान ने भी रामायण का फ़ारसी अनुवाद किया। महाभारतका भी फ़ारसी अनुवाद बदायूँनी और शेखसुलतान ने फ़ज़ी की सहायता से किया। इसकी प्रति इण्डियाआफिस लाइब्रेरी में सुरक्षित है।

मिर्ज़ा फरीकुल्लाह सैफ़ खान  औरंगजेब के ही शासनकाल में मिर्ज़ा फरीकुल्लाह सैफ़ खान ने ‘रागदर्पण’ और ‘रागसागर’ नामक संगीत ग्रन्थ का फ़ारसी में अनुवाद किया।

दाराशिकोह  दाराशिकोह मुगल बादशाहों में सबसे काबिल और विद्वान शहजादा था। वह शहंशाह शाहजहां का सबसे बड़ा बेटा था।  दाराशिकोह एक विशुद्ध साहित्यकार था। वह संस्कृत, फारसी, लातीनी, सुरियानी, अरबी भाषाओं का ज्ञाता और लेखक था। दाराशिकोह ने रामायण, महाभारत, उपनिषदों का संस्कृत से फारसी में अनुवाद किया था।  दाराशिकोह ने काशी के विद्वान पंडितराज जगन्नाथ से उसने संस्कृत सीखी। शाहजहाँ ने अपने पुत्र दाराशिकोह को संस्कृत की शिक्षा देने के लिये अपने दरबार में उन्हें सम्मानित स्थान दिया था। पंडितराज जगन्नाथ दाराशिकोह के गुरु भी थे, उन्होंने दारा को संस्कृत की शिक्षा के साथ-साथ उनका मार्गदर्शन भी किया था। 1657 में जब दाराशिकोह ने 52 उपनिषदों का फ़ारसी में अनुवाद किया था, तब पंडितराज उसके मार्गदर्शक थे। दारा शिकोह ने उपनिषदों का अध्ययन किया और उनका फारसी भाषा में‘सिर्र-ए-अकबर’ नाम से अनुवाद कराया जिसका अर्थ होता है ईश्वरीय शब्द।  दाराशिकोह ने 1654 ई. में फ़ारसी में एक किताब लिखी थी-‘मज्म-उल-बहरैन’। उसी किताब का 1655 में‘समुद्र संगम’ नाम से संस्कृत में दाराशिकोह ने अनुवाद किया था। इस पुस्तक में भारतीय दर्शन और इस्लाम के दर्शन को समुद्र मानते हुए दोनों के बीच एकता की खोज और व्याख्या है।

आधुनिक युग के संस्कृत विद्वान- मुस्लिम

वाराणसी की नाहिद आबिदी- संस्कृत की विद्वान नाहिद आबिदी मूल रूप से उत्तर प्रदेश के मिर्जापुर जिले की रहने वाली हैं और भाषा के लिए उनके काम के मद्देनजर उन्हें पद्मश्री पुरस्कार से भी सम्मानित किया गया है. मिर्जापुर के केवी डिग्री कॉलेज से संस्कृत में पोस्ट ग्रेजुएशन करने के बाद नाहिद आबिदी ने महात्मा गांधी काशी विद्यापीठ से पीएचडी की डिग्री हासिल की. 2005 में बनारस हिंदू विश्वविद्यालय में शिक्षक के रूप में पढ़ाया. नाहिद की पहली किताब 2008 में आई थी और इस किताब का नाम था’संस्कृत साहित्य में रहीम’. इसके बाद देवालयस्य दीपा नाम की किताब आई जो गालिब की किताब चिराग-ए-दयार का ट्रांसलेशन थी. साल 2014 में पद्मश्री से सम्मानित किया गया था. इसके अलावा उन्हें डीलिट की उपाधि भी मिली है. 2016 में उत्तर प्रदेश सरकार ने उन्हें यश भारती पुरस्कार से सम्मानित किया था.

प्रयागराज के हयात उल्ला- इलाहाबाद, जो अब प्रयागराज के नाम से जाना जाता हैके पेशे से अध्यापक हयात उल्ला को संस्कृत भाषा का संपूर्ण ज्ञान है. साल 1967 में उन्हें संस्कृत भाषा पर पकड़ की वजह से चतुर्वेदी की उपाधि मिली थी. हयात उल्ला इलाहाबाद के शेरवानी इंटर कॉलेज में पढ़ाते थे और वहां से रिटायर होने के बाद भी बच्चों को संस्कृत की शिक्षा पूरे मनोयोग से देते रहे हैं. 2003 में जब वह स्कूल से रिटायर हो गए। रिटायर होने के बाद अब हयात उल्ला मेहगांव इंटर कॉलेज में नि:शुल्क हिंदी और संस्कृत पढ़ा रहे हैं। 1967 में आयोजित एक राष्ट्रीय सम्मेलन में संस्कृत के देश भर के विद्वान इलाहाबाद में जमा हुए थे। हयात उल्ला के संस्कृत ज्ञान और वेदों की प्रति प्रेम से प्रभावित होकर उन्हें उस सम्मेलन में चतुर्वेदी की उपाधि दी गई थी। हयात उल्ला के बारे में मशहूर है कि वो उनके अध्यापन का तरीका दूसरे शिक्षकों से अलग है. वो संस्कृत समझाने के लिए अन्य भाषाओं को प्रयोग करते हैं.

मेरठ के मौलाना चतुर्वेदी- उत्तर प्रदेश के ही मेरठ जिले के एक और मौलाना हैं, जिन्हें’चतुर्वेदी’ के नाम से जाना जाता है. इनका नाम है शाहीन जमाली. जमाली के मुताबिक उन्होंने संस्कृत का अध्य्यन अपनी इच्छा के कारण किया. बाद में उन्होंने कई हिंदू धार्मिक पुस्तकें पढ़ीं. उनके बारे में कहा जाता है कि उनकी चारों वेदों पर समान रूप से पकड़ है.

मुंबई के पंडित गुलाम दस्तगीर- संस्कृत भाषा से कुछ ऐसा ही प्रेम मुंबई के पंडित गुलाम दस्तगीर को भी है. मुंबई के वरली इलाके में घूमते हुए अगर कभी आपको’अस्सलामु-अलेकुम गुरुजी’ सुनने को मिल जाए तो आश्चर्य न कीजिएगा. पंडित दस्तगीर बीते कई दशक से संस्कृत भाषा की सेवा में लगे हुए हैं. महाराष्ट्र के सोलापुर जिले में पैदा हुए पंडित दस्तगीर ने लंबे समय तक मुंबई के वरली हाई स्कूल में संस्कृत की शिक्षा दी.

मोहम्मद हनीफ़ ख़ान शास्त्री- एक भारतीय संस्कृत विद्वान हैं। साल 2009 में इन्हें व्यक्तिगत श्रेणी में राष्ट्रीय सांप्रदायिक सद्भावना पुरस्कार से सम्मानित किया गया था। वे राष्ट्रीय संस्कृत संस्थान के प्रोफ़ेसर रहे थे। भारत सरकार ने उन्हें 2019 में चौथे सर्वोच्च नागरिक पुरस्कार पद्म श्री (साहित्य और शिक्षा) से सम्मानित किया।

प्रोफेसर असहाब अली- गोरखपुर के पंडित दीन दयाल उपाध्याय विश्वविद्यालय, गोरखपुर में 32 सालों से अधिक समय तक संस्कृत पढ़ाने वाले और संस्कृत विभाग के एचओडी रह चुके प्रोफेसर असहाब अली

इंसान के मस्तिष्क पर संस्कृत का प्रभाव

इंसान के मस्तिष्क पर संस्कृत के प्रभाव को लेकर न्यूरोसाइंटिस्ट व्याख्या करते हैं- एमआरआई स्कैन बताता है कि प्राचीन मंत्रों को याद करने से संज्ञानात्मक कार्य से जुड़े मस्तिष्क के कुछ हिस्सों का आकार बढ़ जाता है-

https://blogs.scientificamerican.com/observations/a-neuroscientist-explores-the-sanskrit-effect/

यूनाइटेड नेशन्स से भी पहचाना है संस्कृत के वैज्ञानिक आधार कोसंस्कृत के महत्व और उसके वैज्ञानिक आधार को देखते हुए यूनेस्को ने इंटैजिबल कल्चरल हैरिटेज ऑफ ह्यूमैनिटी की लिस्ट में संस्कृत में वैदिक चैंटिंग (जाप) को शामिल करने का निर्णय लिया है.

UNESCO ने यह माना है कि संस्कृत भाषा में वेदिक चैंटिंग का मनुष्य के मन-मस्तिष्क, शरीर और आत्मा पर गहन प्रभाव होता हैhttps://ich.unesco.org/en/RL/tradition-of-vedic-chanting-00062

जब आप संस्कृत में मंत्रोच्चार करते हैं, तो उसका आपके स्वास्थ्य पर काफ़ी गहरा प्रभाव पड़ता है, क्योंकि उन अक्षरों के वायब्रेशन यानी कंपन से आपके चक्र जागृत होते हैं और आप ऊर्जावान महसूस करते हैं।

संस्कृत वैदिक काल में महान चिंतकों और संन्यासियों व ऋषि-मुनियों द्वारा इस्तेमाल की जाती थी. संस्कृत में ऐसे बहुत-से शब्द हैं, जो आपकी मानसिक चेतना को दर्शाते हैं।

हमें जो सबसे महत्वपूर्ण शब्द मिला है वो है ॐ, जो अस्तित्व की आवाज़ है, आंतरिक चेतना है और यह दरअसल ब्रह्मांड की आवाज है।

हर मनुष्य के मूल में जो चेतना है, वह है आत्मा. यह आत्मा ब्रह्मांड से अलग नहीं है. इस तरह से संस्कृत के जरिए आप ख़ुद को, अपने ब्रह्मांड को पहचान सकते हैं।

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अध्यात्म और विज्ञान का… ‘रहस्यमय लोक’

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भारतीय संस्कृति अध्यात्म प्रधान संस्कृति है, किन्तु विज्ञान की अभूतपूर्व प्रगति के कारण आधुनिक युग का जनमानस अध्यात्म के प्रति उदासीन हुआ है। इस उदासीनता के पीछे आज की भौतिकवादी सोच है। यहां यह भी देखना जरूरी है कि विज्ञान जिसने मनुष्य को बहुत कुछ दिया है, वहीं उसने मनुष्य को आध्यात्मिकता से दूर भी किया है। वास्तव में विज्ञान सिर्फ व्यक्ति के भौतिक जीवन तक पहुंचने में सक्षम है लेकिन उसके आन्तरिक आयाम तक पहुंचने में अक्षम है। विश्व के एकांगी और असंतुलित विकास का कारण यही है। आज का मनुष्य अधिक स्वार्थवादी एवं भौतिकवादी हो गया है, उसे कर्त्तव्य की अपेक्षा अधिकार पर अधिक ध्यान है।

अध्यात्म धर्म और ईश्वर की श्रद्धामय और निष्ठायुक्त भावना को ही ‘अध्यात्म’ कहते हैं। पाश्चात्य जगत् को भारतीय तत्त्वज्ञान का संदेश देने वाले महान विश्वगुरू स्वामी विवेकानंद का यह दृढ़ विश्वास था कि “अध्यात्मविद्या, भारतीय धर्म एवं दर्शन के बिना विश्व अनाथ हो जाएगा।” उनका मत था कि ‘यदि मनुष्य के पास संसार की प्रत्येक वस्तु है, पर अध्यात्म नहीं है तो कुछ भी नहीं है। उनकी दृष्टि में मनुष्य की यह परा-प्रकृत्ति-आत्मा उतनी ही सत्य है, जितना कि किसी पाश्चात्य व्यक्ति की इन्द्रियों के लिए कोई भौतिक पदार्थ।

“आनि अधि इति अध्याता:” के अनुसार ‘आत्म का ज्ञान’ ही अध्यात्म है। अधि और आत्म शब्दों से मिलकर बने हुए इस ‘अध्यात्म’ शब्द की व्याख्या कई प्रकार से की गई है। निर्गुण, निराकार और नित्य चेतन आत्मा को परमात्मा से भिन्न-अभिन्न मानते हुए विभिन्न दार्शनिक सिद्धांत प्रचलित हैं। सदियों से किए जा रहे प्रयास अभी भी ‘नेति-नेति’ से परे नहीं है। जीव-आत्मा-परमात्मा का अन्तर्सम्बन्ध ही अध्यात्म की विषय-वस्तु है।

भारतीय दर्शन ग्रन्थ अध्यात्मिकता के महत्व को प्रतिपादित करते हैं। सम्पूर्ण संसार ईश्वर सेव्याप्त है। परमात्मा का साक्षात्कार ही जीवात्मा का लक्ष्य है। आत्मा-परमात्माका ही स्वरूप है। आत्मतत्व रूप परब्रह्म से उत्पन्न होकर उसी में विलीन हो जाता है।

इस विषय में सन्त कबीरदास का यह कथन दृष्टव्य है –

पाणी ही तैं हिम भया, हिम गया बिलाइ।

जो कुछ था सोई भया, अब कुछ कहा न जाइ।।

आत्मा-परमात्मा के सम्बन्ध की विवेचना के लिए ”तैत्तिरीय उपनिषद्” में वर्णित है-

यतो वा इमानि भूतानि जायन्ते।

येन जातानि जीवन्ति।

यत् प्रयन्त्यभि संविशन्ति।

तद्वितिज्ञासस्व। तद् बह्मति।

भारतीय अध्यात्मवाद में ईश्वर, जीव एवं माया को मान्यता दी गई है। जीव ईश्वर से अलग होकर माया के बन्धन में फंस जाता है तथा ईश्वर को विस्मृत कर जगत् को सत्य एवं नित्य मान लेता है। जब ज्ञान से माया का आवरण हट जाता है तब जीव को “ब्रह्म सत्यं जगन्मिथ्या” की उक्ति सत्य प्रतीत होती है।

गीता के आठवें अध्याय में अपने स्वरुप अर्थात जीवात्मा को अध्यात्म कहा गया है। 

“परमं स्वभावोऽध्यात्ममुच्यते “

आत्मा परमात्मा का अंश है यह तो सर्विविदित है।  अध्यात्म की अनुभूति सभी प्राणियों में सामान रूप से निरंतर होती रहती है।

गीता के द्वितीय अध्याय में भी भगवान् श्रीकृष्ण ने आत्मा को अजर, अमर तथा अविनाशी बताया है –

न जायते म्रियते बा कदाचित्,

नामं भूत्वा भविता वा न भूयः।

अजो नित्यः शाश्वतोऽयं पुराणो,

न हन्यते हन्यमाने शरीरे।।

परमात्मा का माया के साथ संयोग होने पर वह जीव हो जाता है। स्थूल, सूक्ष्म और कारण- तीनों शरीरों के संबंध से रहित व्यष्टि-चेतन का नाम आत्मा है। पुनर्जन्म, मृत्यु, मोक्ष, कर्मफल आदि रहस्यों का तात्विक-विवेचन कर कर्तव्य और अकर्तव्य का निर्धारण अध्यात्म के बल पर ही किया जाता है। यही वह विलक्षण शक्ति हैं जिसके आधार पर जगत् में भारतवर्ष की श्रेष्ठता सिद्ध होती रही है। दैवीय आशीर्वाद से आध्यात्मिक ज्ञान की अथाह संपति भारतवर्ष के पास है। वेद, उपनिषद, गीता, रामायण, भागवत, महाभारत, योगसिद्धि और संतों के भजन-सभी सत्यानुभूति और अन्तर्ज्ञान की दुर्लभ विधि है। ‘अध्यात्म’ इस सृष्टि का सर्वोच्च ज्ञान है, जिसमें गूढ़तम रहस्यों का उद्घाटन किया गया है। अनेक ज्ञान-अज्ञान, व्यक्त-अव्यक्त, सूक्ष्म-स्थूल, जड़-चेतन, प्रकृति-पुरूष, आत्मा परमात्मा, सृष्ट और ब्रह्म, आदि-अंत, जन्म-मृत्यु, परलोक एवं पुनर्जन्म आदि रहस्यों को सप्रमाण प्रस्तुत करने में अध्यात्म ही सफल हो सका है।

ऋग्वेद के मण्डल 10 सूक्त 72 में संसार के प्रारम्भिक आधार काअसत् अथवा अविद्यमान् रूप में वर्णन किया गया है, जिसके साथ अदिति का,जो असीम है, तादात्म्य बताया गया है, अर्थात् वह भी असत् रूप में था। असीम से विश्व शक्ति उदित होती है। यद्यपि कभी-कभी विश्वशक्ति का स्वयं असीम उत्पत्ति स्थान करके वर्णन किया गया है। इस प्रकार की कल्पनाएँ शीघ्र अभौतिक सत्ता के साथ सम्बद्ध हो गई और इस प्रकार भौतिक विज्ञान ने धर्मके साथ गठबंधन करके अध्यात्म-विद्या को जन्म दिया।

विज्ञान और अध्यात्म जब एक दूसरे के पूरक तो विरोध कैसा???

जीवन निर्वाह की आवश्यकताओं को पूरा करने तथा सुख-शान्ति, सुव्यवस्था का सम्पादन करने के लिए किये गये प्रयास विज्ञान के अंतर्गत आते हैं। यों विज्ञान की परिभाषा किसी वस्तु या विषय का क्रमबद्ध, सुव्यवस्थित और तर्क व maxresdefault.jpgतथ्य संगत ज्ञान है। फिर भी विज्ञान का क्षेत्र अभी मुख्यतः स्थूल जगत, भौतिक संसार ही है।

दूसरी दिशा में अध्यात्म मनुष्य को सुखी और आनन्दित बनाने की व्यवस्था देता है। वह मनुष्य के स्वभाव, प्रकृति, संस्कार और अन्तश्चेतना को परिष्कृत करने पर जोर देता है तथा उसी आधार पर मनुष्य को शांत, ज्ञानी तथा आनन्दित बनाने की कला सिखाता है।

इस अन्तर्मुखी दृष्टि को अध्यात्म कहा जा सकता है और बहिर्मुखी प्रयोजनों को विज्ञान का नाम दिया जा सकता है। दीखने में अध्यात्म और विज्ञान अलग-अलग दिखाई देते हैं। उनके प्रयोग प्रयोजन भी भिन्न-भिन्न रूप में प्रस्तुत किये जाते हैं। दोनों की दिशाएँ भी अलग-अलग दिखाई देती हैं। एक बहिर्जगत में अनुसंधान करता है तो दूसरा आन्तरिक उत्कर्ष को महत्व देता है।

स्थूल दृष्टि से देखने पर विज्ञान और अध्यात्म सर्वथा भिन्न तथा एक-दूसरे के विरोधी दिखाई देते हैं, लेकिन वस्तुतः ऐसा है नहीं। दोनों एक दूसरे के साथ इतने घुले मिले हैं कि एक को दूसरे से अलग कर पाना उतना ही कठिन है। दोनों की दिशाएं भिन्न-भिन्न दिखाई देती हैं लेकिन वास्तव में दोनों एक ही दिशा में चल रहे हैं। वह दिशा है- मनुष्य को अधिकाधिक सुख-शान्ति सम्पन्न बनाना।

कहा जा चुका है कि एक बाह्य दृष्टि से मनुष्य की सुख-शान्ति के लिए प्रयत्नशील है और एक उसे आंतरिक दृष्टि से समृद्ध व सम्पन्न बनाने का उपक्रम रचता है। आंतरिक और बाह्य कार्यक्षेत्र की दृष्टि से अध्यात्म और विज्ञान में यह दो ही भिन्नताएँ हैं अन्यथा दोनों का लक्ष्य एक ही होने से वे एक ही दिशा में बढ़ने वाले दो पग हैं। अज्ञान से छूट कर ज्ञान की धूमिका में प्रवेश करने वाला दोनों का लक्ष्य है। दोनों सत्य की, परम सत्य की खोज में निरत हैं।

विज्ञान और अध्यात्म कई स्तर पर एक समान कार्यपद्धति अपनाते हैं। उदाहरण के लिए दोनों ही पिछली मान्यताओं के गलत सिद्ध होने पर उन्हें अस्वीकार कर देते हैं। दोनों ही इस तथ्य से सहमत हैं कि मनुष्य निरन्तर विकसित हो रहा है। दोनों मनुष्य के कल्याण को लक्ष्य बनाकर गतिशील हैं। दोनों सत्य की खोज में निरत हैं। जब दोनों में इतनी समानता है तो उनमें विरोध कैसा? साभार- प्रज्ञा अभिज्ञान शांतिकुंज ब्लॉग

अध्यात्म के दो मुख्य पक्ष है – ज्ञान-शक्ति और क्रिया शक्ति, जो ब्रह्म की शक्ति है। ज्ञान शक्ति चेतन और क्रिया-शक्ति जड़ है, जो प्रकृति का रूप धारण करती है। प्रकृति के रूपों से ही दृश्य-जगत् का विस्तार होता है, जो अध्यात्म का विज्ञान-पक्ष है। आधुनिक विज्ञान इसी जड़ प्रकृति के रहस्यों की खोज में लगा हुआ है। चेतन शक्ति-ज्ञान इस जड़ प्रकृति को नियंत्रित कर निश्चित रूप व आकार प्रदान करती है। चेतन के बिना जड़-शक्ति स्वत: कोई क्रिया करने, रूप या आकार ग्रहण करने अथवा विकसित होने में समर्थ नहीं है। इस चेतना शक्ति की संपूर्ण कार्यप्रणाली का विस्तृत अध्ययन अध्यात्म के अंदर किया जाता है। या जिस प्रकार अकेली जड़ या अकेली चेतन शक्ति सृष्टि रचना नहीं कर सकती, दोनों को एक-दूसरे के सहयोग की आवश्यकता होती हैं, उसी प्रकार जड़ शक्ति के अध्ययन से संबंधित अध्यात्म परस्पर पूरक होकर सहयोगी बने हुए हैं। बिना चेतना के सृष्टि का निवास नहीं हो सकता और बिना सृष्टि के चेतना को नहीं जाना जा सकता। चेतना अध्यात्म है व सृष्टि विज्ञान है। अध्यात्म विहीन विज्ञान की कल्पना ही नहीं की जा सकती।

अध्यात्म यदि प्राण है तो विज्ञान उसी का शरीर है, ये दोनों इतने अभिन्न है कि इन्हें अलग नहीं किया जा सकता। शरीर की समस्त क्रियाविधि का विश्लेषणात्मक अध्ययन विज्ञान का विषय है और प्राण से संबंधित समस्त ज्ञान अध्यात्म का क्षेत्राधिकार है। जिस प्रकार विज्ञान ने समस्त जड़ पिण्डों की भाँति शरीर का संपूर्ण ज्ञान प्रस्तुत किया गया हैं, उसी प्रकार अध्यात्म भी प्राण-तत्त्व के संबंध में सभी शंकाओं से रहित विश्लेषण प्रस्तुत करता है और इसी के बल पर सदियों से विश्व में भारत की सर्वोपरिता बनी हुई है।

अध्यात्म के अनुसार सृष्टि में कई पदार्थ जड़ है ही नहीं, विज्ञान जिसे जड़ मानता है, उसमें अध्यात्म, चेतना की सुप्तावस्था स्वीकार करता है। उचित वातावरण मिलने पर यही चेतना जब जाग्रत हो जाती है तो जड़ कहे जाने वाले बीज से चेतन वृक्ष बन जाता है। विज्ञान की दृष्टि इससे भिन्न है, वह जड़ को चेतन से पृथक न मानकर सृष्टि का मूल तत्त्व मानता हैं और दृश्य को ही प्रमाण रूप में स्वीकार करता है। अध्यात्म की भाँति विज्ञान अपने सिद्धांतों की व्याख्या करने में अभी तक सक्षम नहीं हो सका है और अध्यात्म की तुलना में विज्ञान को शिशु-तुल्य माना जाता है।

इस प्रकार स्पष्ट होता है कि “समस्त सृष्टि-रहस्यों को सुलझाने में असफल विज्ञान, दबी जुबान में ही सही, चेतन के अस्तित्व को स्वीकारता है। अनिश्चितता के रूप में ही विज्ञान द्वारा की गई ये घोषणाएँ ‘अध्यात्म’ द्वारा निरूपित सत्ता का अस्तित्व स्वीकार करती है। विज्ञान की पहुँच से बाहर के रहस्यों और चेतन का जड़ पिण्डों में जाग्रत् होकर रूपायित होने के नियमों को जानने का विज्ञान ही अध्यात्म हैं। भारतीय ग्रंथों, ऋषियों-मनीषों ने सृष्टि के सभी रहस्यों का उद्घाटन ‘अध्यात्म’ के अन्तर्गत किया है। इनकी मान्यता के अनुसार सृष्टि का मूल तत्त्व ईश्वर नहीं बल्कि उससे भी पूर्ण रूप-ब्रह्म है, जिसे वेदों ने ‘तदेक’ लाओत्से ने ‘अनाम’ तथा उपनिषदों ने ‘तत्’ जैसे नाम दिए है। ईश्वर भी उस परम तत्त्व की ही अभिव्यक्ति हैं। यह ‘ब्रह्म’ समस्त जड़-चेतन शक्ति से परिपूर्ण है। इस प्रकार विज्ञान की सीमा से परे जाकर, सृष्टि के उन अनसुलझे रहस्यों को जिन्हें विज्ञान नहीं सुलझा सका, चेतना-शक्ति के आधार पर सुलझाने में समर्थ विद्या को ‘अध्यात्म’ के नाम से जाना गया है, जिसके बल पर भारतवर्ष, विश्व का गुरू बना रहा है।

अध्यात्मवाद अवैज्ञानिक नहीं

अध्यात्मवाद अनुभूत जगत के अतिरिक्त चैतन्य या आत्मा के अस्तित्व को स्वीकार कर अनुभूति के क्षेत्र से ऊपर उठ जाता है। अतः यह विज्ञान के क्षेत्र में सीमित नहीं रहता। उससे अध्यात्मवाद को अवैज्ञानिक कहना उचित नहीं होगा।dharm

आधुनिक वैज्ञानिकों ने यह स्वीकार किया है कि विज्ञान और अध्यात्मवाद में कोई विरोध नहीं है विज्ञान का अध्यात्मवाद से समन्वय किया जा सकता है। जैव दर्शन भी अध्यात्म एवं विज्ञान में विरोध नहीं मानता है।

अध्यात्मवाद की व्याख्या से स्पष्ट होता है कि मूलभूत तत्व चेतन स्वरुप है जिसकी अभिव्यक्ति या छाया समस्त विश्व है। अध्यात्मवाद अप्रकृतिवादी तथा अलौकिकवादी है। यह प्रयोजनवादी है। यह कोरे इन्द्रियानुभववाद के बजाय आदर्शवाद को प्रश्रय देता है। यह आदर्शवादी और प्रयोजनवादी होने के चलते उच्चतर मानवीय (नैतिक, धार्मिक आदि) मूल्यों को प्रश्रय देता है, इस मत का वैज्ञानिक सत्यों से कोई विरोध नहीं है। अतः यह अवैज्ञानिक नहीं है। विज्ञान और अध्यात्म के संबंधों पर विश्व की प्रमुख हस्तियों के विचार इस प्रकार हैं :

  • सापेक्षता सिद्धांत के जन्मदाता अल्बर्ट आइंसटीनके अनुसार, इस संसार में ज्ञान और विश्वास दो वस्तुएं हैं। ज्ञान को विज्ञान व विश्वास को धर्म कहेंगे। मैं ईश्वर को मानता हूं, क्योंकि इस सृष्टि के अद्भुत रहस्यों में ईश्वरीय शक्ति ही दिखाई देती है। अब विज्ञान भी इस बात का समर्थन कर रहा है कि संपूर्ण सृष्टि का नियमन एक अदृश्य चेतना कर रही है।
  • वैज्ञानिक हक्सले ने कहा था, धर्म को लोभ और भय से मुक्त किया जाना चाहिए। उसमें काल्पनिक मान्यताओं का निराकरण होना चाहिए और चेतना को परिष्कृत करने की उसकी मूल दिशा एवं क्षमता को प्रभावी बनाया जाना चाहिए।
  • साइंस ऐंड रिलीजन के लेखक वैज्ञानिक एच. कैरोलिंगने लिखा था, इक्कीसवीं शताब्दी में अध्यात्म को विज्ञान का और विज्ञान को अध्यात्म का अभिन्न अंग मान लिया जाएगा। तब विज्ञान और अध्यात्म के समन्वय से ही उभय पक्षीय प्रगति का संतुलन आधार बन सकेगा।
  • भारत के पूर्व राष्ट्रपति एवं महान वैज्ञानिक डॉ. एपीजे अब्दुल कलाम- विज्ञान-अध्यात्म में विरोधाभास नहीं- पूर्व राष्ट्रपति डॉ. एपीजे अब्दुल कलाम एवं जन मुनि आचार्य महाप्रज्ञ का कहना है कि विज्ञान एवं आध्यात्म में कोई विरोधाभास नहीं है। द फैमिली एण्ड द नेशन नाम की पुस्तक डॉ. कलाम एवं जन मुनि आचार्य महाप्रज्ञ ने मिल कर लिखी है। डॉ. कलाम ने कहा कि विज्ञान एवं आध्यात्म का सहअस्तित्व भारत की महान विरासत है। उन्होंने कहा कि यह पुस्तक उनके और आचार्य महाप्रज्ञ के विचारों को एकरूप में प्रस्तुत करती है। आचार्य महाप्रज्ञ से अपनी मुलाकात एवं इस पुस्तक की रचना को अपने जीवन का एकदम अनूठा अनुभव बताते हुए डॉ. कलाम ने कहा कि इस पुस्तक का यह शीर्षक इसलिये रखा गया है क्यों कि उनका मानना है कि केवल वही व्यक्ति राष्ट्र के प्रति दायित्वबोध रख सकता है, जिसे परिवार में सही मूल्य सिखाए गए हैं। डॉ कलाम ने कहा कि उन्हें एवं आचार्य को विश्वास है कि भारत में यह क्षमता है कि वह एक ऐसा राष्ट्र बने, जिसमें लोग गरीबी, भय, युद्ध और प्रदूषण के बिना जीवन बिता सकते हैं। बल्कि एक शांतिपूर्ण, समृद्ध, खुशहाल और सुरक्षित समाज की रचना के लिये भारत दुनिया का रोल मॉडल बन सकता है। उन्होंने कहा कि हम ऐसा कर सकते हैं लेकिन इसके लिये दिल में सच्ची भावना होनी जरूरी है। इस अवसर पर पूर्व राष्ट्रपति ने दुनिया में शांति के लिये एक मंत्र भी दिया। उन्होंने कहा कि यदि दिल में पवित्रता से खबूसूरत चरित्र का निर्माण होता है, चरित्र में खूबसरमी से घर में सद्भावना उत्पन्न होती है। घर में सद्भावना से राष्ट्र में अनुशासन और तदंतर दुनिया में शांति आएगी। उन्होंने कहा कि विज्ञान और आध्यात्म का सहअस्तित्व भारत की विरासत है। इस अवसर पर आचार्य महाप्रज्ञ ने अपने सम्बोधन में कहा कि आध्यात्म और विज्ञान पृथक दिशाओं में जाते प्रतीत होते हैं लेकिन गहराई से विवेचना करं तो उनमें कोई भेद नहीं है। दोनों एक ही दिशा यानि सत्य की खोज में में चल रहे हैं, बस रास्ते अलग-अलग हैं। आचार्य ने कहा कि इस पुस्तक में आध्यात्म एवं विज्ञान में सम्बन्ध दिखाने की कोशिश की गई है। उन्होंने कहा कि डॉ. कलाम एक वैज्ञानिक हैं और वह खुद आध्यात्म के क्षेत्र में काम कर रहे हैं। दोनों का साथ आना इस बात की पुष्टि करता है कि विज्ञान एवं आध्यात्म का मिलना मानवीय समस्याओं के हल के लिये नितांत जरूरी है। 

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बौद्ध दर्शन पूर्णतः आध्यात्मिक होते हुए भी न तो ईश्वरवाद को स्वीकारा है और न आत्मवाद को- लेकिन भिक्षुओं को उन्होंने उस विज्ञान को भी बताया कि आखिर जन्म-जरा-मरण के दुःख से मुक्ति कैसे संभव होती है। इस विज्ञान को पटिच्चसमुत्पाद (प्रतीत्यसमुत्पाद) कहते हैं। प्रतीत्यसमुत्पाद का अर्थ होता है किसी वस्तु की प्राप्ति होने पर अन्य वस्तु की उत्पत्ति होती है। अर्थात यह होने से वह होता है। अस्मिन सति इदं भवति। यह सापेक्ष कारणतावाद है। इसके अनुसार किसी भी चीज की उत्पत्ति बिना कारण के नहीं होती।

  • भगवान् बुद्ध के धर्मचक्र प्रवर्तन में वैज्ञानिक अध्यात्म की अन्तर्धारा स्वतः ही प्रवाहित हो रही थी। भगवान् बुद्ध ने अपने प्रचवन में कहा- अध्यात्म विज्ञान का अगला एवं अन्तिम अन्वेषण बिन्दु है- दुःख निरोध का मार्ग। मेरे अनुभव में यह अष्टांगिक है- १. सम्यक् दृष्टि- यानि कि जीवन को विवेकपूर्ण ढंग से देखना२. सम्यक् संकल्प- अर्थात् अपने विचारों को सही रखना३. सम्यक् वाक् यानि कि वाणी को दोषमुक्त करनाप्रिय व हितकर बोलना४. सम्यक् कर्मान्त- अर्थात् सत्कर्म व निष्काम कर्म का मर्म समझना५. सम्यक् अजीव- यानि अपनी आजीविका के साधनों को शुद्ध करना। किसी के नुकसान में अपना नफा न सोचना। ६. सम्यक् पुरुषार्थ- अर्थात् अपने सभी प्रयत्न व पुरुषार्थ सदा संवेदना के सूत्र में गुंथे रहे७. सम्यक् स्मृति- इसके द्वारा बोधयुक्त हो स्वयं के अनुसन्धान की चेष्टा करना एवं ८. सम्यक् समाधि- इसी अवस्था में निर्वाण की प्राप्ति होती है। अध्यात्म विज्ञान का परम ध्येय भी यही है

भगवान महावीर की दृष्टि में अध्यात्मवाद का अर्थ है- पदार्थ को परम मूल्यन मानकर आत्मा को ही परम मूल्य मानना। आचारांगसूत्र में कहा गया है कि जो आत्मा है वही विज्ञाता है और जो विज्ञाता है वही आत्मा है। यहाँ आत्मज्ञान और विज्ञान एक ही है।

  • जैन दर्शन में बतलाया गया है कि आध्यात्मिक आनन्द की उपलब्धि पदार्थों में न होकर सद्गुणों में स्थिति आत्मा में होती है। इस प्रकार कहा जा सकता है कि अध्यात्मवाद का अर्थ वह सिद्धान्त होता है जो भौतिकवाद, प्रकृतिवादयंत्रवाद आदि का विरोधी है तथा आत्मा के चरमोत्कर्ष में विश्वास करता है। यहाँ यह भी स्पष्ट कर देना प्रासंगिक होगा कि अध्यात्म और विज्ञान में वस्तुतः वास्तविक विरोध नहीं है।

जहां तक विज्ञान का प्रश्न है तो विज्ञान एक शक्ति हैकिन्तु उस शक्ति का प्रयोग और उपयोग कैसे किया जाएइस तथ्य का निर्देश धर्म और दर्शन करता है वैज्ञानिक ज्ञान अपने आप में ठीक है, किन्तु जब उसे ही पूर्ण सत्य मान लेते हैं, तब वह अनेक कठिनाईयों का सबब बन जाता है। आज के विज्ञान ने विश्व के विविधवाह्य रुपों को जांचा है और उनके अनेक गुप्त रहस्यों को यांत्रिक साधनों के माध्यम से प्रकट किया है, किन्तु वह विश्व के आन्तरिक मूल सत्य को समझने में असमर्थ रहा है। वह विश्व के भौतिक तथ्यों का विश्लेषण कर लेता है, उनके पारस्परिक सम्बन्धों को भी समझ लेता है, परन्तु वह विश्व चेतना की समुचित व्याख्या नहीं कर पाता है इस दृष्टि से वह ज्ञान होते हुए भी सम्यग्ज्ञान नहीं है।

भारतीय संस्कृति में सम्यग्ज्ञान उसे ही कहा जाता है जो पर को जानने के साथ-साथ अपने को भी समझता हो। जिसने अपने आपको समझा, उसने सबको समझ लिया और जिसने अपने आपको नहीं समझा उसने किसी को नहीं समझा। विज्ञान ‘पर’ को समझता है, ‘स्व’ को नहीं। स्व का अर्थ है- चैतन्य तत्व और पर का अर्थ है- जड़त्व। एक हमें बाह्य जगत् से जोड़ता है तो दूसरा हमें अपने सेजोड़ता है। दोनों ही योग हैं। एक साधन योग है तो दूसरा साध्य योग है। एक हमेंजीवनशैली देता है तो दूसरा जीवन साध्य देता है। धर्म स्वभाव में जीना है तोविज्ञान उस स्वभाव को पहचानना है। विज्ञान हमें स्व-स्वभाव का बोध कराता हैऔर धर्म विभाव से स्वभाव में आने की प्रक्रिया सिखाता है।

विज्ञान और धर्म को लेकर यह प्रायः प्रश्न उठता है कि विज्ञान तर्क प्रधान है और धर्म जबकि श्रद्धा प्रधान है तो फिर उनमें मेल कैसा? लेकिन जिज्ञासुओं कीधारणा भ्रान्त है, क्योंकि विज्ञान न तो श्रद्धा या धर्म का विरोधी है और न ही धर्मतर्क का विरोधी। विज्ञान का प्रारम्भ हम परिकल्पना से करते हैं तो धर्म में तर्क का स्थान देकर उसे वैज्ञानिक बनाना चाहते हैं। अतः उनमें विरोध कहाँ है। विज्ञान वस्तुतः साधन देता है, लेकिन उसका उपयोग किस दिशा में करना होगा। यह दिशा निर्देश करना अध्यात्म का काम है।

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विज्ञान और अध्यात्म के संबंधों पर विश्व की प्रमुख हस्तियों के विचार

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संत विनोबा भावे- विनोबा जी के शब्दों में विज्ञान में दोहरी शक्ति है, एक विनाश शक्ति और दूसरी विकास शक्ति। वह सेवा भी कर सकता हैऔर संहार भी। अग्नि नारायण की खोज हुयी तो उससे रसोई भी बनायी जासकती है और उससे आग भी लगाई जा सकती है। अग्नि का प्रयोग घर फूंकने मेंकरना या चूल्हा जलाने में, यह अक्ल विज्ञान में नहीं है। अक्ल तो आत्मज्ञान में है। (आत्मज्ञान और विज्ञान) आत्मज्ञान है आँख और विज्ञान है पाँव । अगर मानव कोआत्मज्ञान नहीं तो वह अन्धा है। कहाँ चला जायेगा पता नहीं। अध्यात्म के पासआँख है इसलिए वह देख तो सकता है लेकिन गति की उसमें शक्ति नहीं हैइसलिए वह चल नहीं सकता। इसी तरह विज्ञान के पास गति तो है पर आँख नहींहै, इसलिए उसके पास लक्ष्य-बोध का अभाव है। यह स्थिति बिल्कुल सांख्य के प्रकृति-पुरुष की है। जिस प्रकार प्रकृति-पुरुष के संयोग से जगत का विकासहोता है उसी तरह यदि अध्यात्म और विज्ञान एक दूसरे के पूरक बन कर कार्यकरेंगे तो मानवता का विकास होगा। विनोबा जी ने कहा है- जो विज्ञान एक ओरक्लोरोफार्म की खोज करता है जिससे करुणा का कार्य होता है, वही विज्ञान अणुअस्त्रों की भी खोज करता है जिससे भयंकर संहार होता है। एक बाजू सिपाही कोजख्मी करता है, दूसरा बाजू उसको दुरुस्त करता है, यह गोरखधन्धा आज विज्ञान की मद्द से चल रहा है। इस हालत में विज्ञान का सारा कार्य उसको मिलने वालेमार्गदर्शन पर आधारित है। उसे जैसा मार्गदर्शन मिलेगा, वह वैसा ही कार्य करेगा। महावीर ने भी आचारांगसूत्र में कहा है कि शस्त्र एक से बढ़कर एक हो सकता है,किन्तु अहिंसा से बढ़कर अन्य कुछ नहीं हो सकता। इस तरह हम देखते हैं किदोंनो एक दूसरे के पूरक हैं, जबकि हम उसे एक-दूसरे का विरोधी मानते हैं। आज का विज्ञान संशयात्मवाद अंध आस्था और अविवेक की चादर में लिपटा हुआ है। विज्ञान यदि प्रकृति पर शासन करने को ही सब कुछ मानने लगा है, दूसरी ओरधर्म और दर्शन ने रुढ़िवाद, परम्परावाद और अन्धविश्वास को ही अपना लक्ष्य बना रखा है। अब यह जिज्ञासा स्वाभाविक है कि अध्यात्म और विज्ञान का क्या समन्वय संभव है? इस संदर्भ में यही कहा जा सकता है कि जैन धर्म-दर्शन अध्यात्म और विज्ञान के समन्वय का ही नाम है। जहाँ जड़ और चेतन को समान रुप में स्वीकार किया गया हो वहाँ इस प्रकार की समस्या आ ही नहीं सकती। जैन धर्म-दर्शन अध्यात्म और विज्ञान के समन्वय का ही नाम है। जहाँ जड़ और चेतना को स्वीकार करते हुए कहा है कि जो लोग एक मात्र ब्रह्म की सत्ता को स्वीकार करते हैं औरयह कहते हैं कि जड़ की सत्ता नहीं है, वह मिथ्या है, वे एकांगी ज्ञान के शिकार हैं जिसे हम चेतना रहित मानकर मिथ्या कहते हैं उसमें भी चेतना है परन्तु वह सुप्तावस्था में है। लेकिन विकास की अवस्था मे वही सुप्त चेतना परम चेतना के स्वरुप को प्राप्त करती है

संत विनोबा भावे का कहना है कि धर्म और राजनीति का युग बीत गयाअब उनका स्थान अध्यात्म और विज्ञान ग्रहण करेंगे।

विनोबा जी के आध्यात्मिक चिंतन में सबसे महत्वपूर्ण बात (अध्यात्म और विज्ञान) के समन्वय की कल्पना हैं। विनोबा जी ने विज्ञान युग में विज्ञान और अध्यात्म के समन्वय पर बल दिया। उन्होनें कहा “आगे की दुनिया में विज्ञान और आत्मज्ञान ही रहेगा सियासत और मजहब खत्म होगें । क्योंकि राजनीति आदमी को जोड़ने की बजाय तोड़ने का कार्य करती है” और नाना प्रकार की उपासनायें, आउट ऑफ डेट (काल ब्राह्म) हो गयी है, जो हृदय को संकुचित बनाती है। और एक मानव को दूसरे मानव से तोड़ती है।” इस सन्दर्भ में उन्होनें दो समीकरण प्रस्तुत किये।

राजनीति + विज्ञान = सर्वनाश

आध्यात्मिकता + विज्ञान = सर्वोदय।

उन्होनें कहा “मनुष्य रूपी पंक्षी के दो पंख है, एक आत्मज्ञान और दूसरा विज्ञान इन दोनों का ठीक ढंग से समत्व (संतुलन) रखकर ही मानव का विकास होगा।” विज्ञान और अध्यात्म के समन्वय के सन्दर्भ में उन्होनें महत्वपूर्ण तर्क प्रस्तुत किये है –

  1. आत्मज्ञान और विज्ञान दोनों पूरक है। आत्मज्ञान जीवन की दिशा निर्धारित करता है। तो विज्ञानजीवन के लिये कार्यों को सम्पन्न करता है। यदि एक आँख है तो दूसरा पैर” आइस्टीन ने भी कहा था, “Science is lame without religion and religion is blind with out Science”
  2. विनोबा जी के अनुसार विज्ञान को आत्मज्ञान (अध्यात्म) का मार्गदर्शन जरूरी है क्योंकि“विज्ञान नीति निरपेक्ष होता है। ऐसी शक्ति को जैसा मार्गदर्शन मिलेगा तदनुसार उसका उपयोग दुनिया में होगा। गलत मार्गदर्शन मिलता है तो वह नरक का मार्ग बन जाता है। सही मार्गदर्शन मिलता  है तो वह स्वर्ग मे ले जाता है ………………. क्योंकि विज्ञान में दोहरी शक्ति है – विनाश शक्ति  और सेवा शक्ति ………..  विज्ञान और तकनीकी को व्यवहार में कहाँ तक उपयोग हो इसका निर्णय आध्यात्म देगा ” विज्ञान और आध्यात्म के समन्वय में मानवता की समस्त समस्याओं का हल अहिंसा से होगा।  बरट्रेन्ड रसल ने भी कहा है। “Science by it self can not supply us with out ethich
  3. विनोबा जी के अनुसार अध्यात्मिकता धर्म से भिन्न है।“धर्म या मजहब के रूप देश और काल के अनुसार अलग-अलग हो सकते है। परन्तु अध्यात्मिकता सत्य, प्रेम और करूणा के समान सार्वत्रिक और शाश्वत है। …… भगवान का डर और दीन दुखियों की सेवा ही अध्यात्मिकता का मुख्य रूप है15) ।” विज्ञान की सृष्टि का अध्ययन मन की भूमिका से ऊपर उठकर करता है”  अतः इसमें रागद्वेष, रूचि – अभिरूचि का प्रश्न नही उठता। इसके अर्न्तगत बाह्म सृष्टि और मन दोनो का ज्ञान आ जाता है अतः इसमें सार्वभौमिकता होती है। विज्ञान और अध्यात्मिकता, धर्म को सही दिशा दे सकते है विज्ञान धर्म को मानसिक धरातल और कल्पना से परे हटाकर ज्ञान का ठोस आधार दे सकता है और आध्यात्मिकता धर्म को सभी धर्मों एवं प्राणीमात्र की एकता का ज्ञान देकर सच्चे मानव धर्म के रूप में प्रतिष्ठित कर सकती है। विनोबा जी का समस्त अध्यात्मिक चिंतन अविरोधी समन्वय पद्वति एवं शास्त्रीय व वैज्ञानिक दृष्टि पर आधारित है। और इसी के आधार पर ईश्वर, आत्मा, मोक्ष, पुनर्जन्म, इत्यादि। तात्विक । धारणाओं का विकास किया जाता है। जिसका सम्यक परीक्षण क्रमवद्ध रूप से करना अनिवार्य है।

स्वामी विवेकानंद– स्वामी विवेकानंद ने कहा है कि मनुष्य का भविष्य उसके सही अर्र्थो में वैज्ञानिक और सच्चे आध्यात्मिक होने पर टिका है। विज्ञान को जहां धर्म से मानवीयता की सीख लेने की जरूरत हैवहीं धर्म के क्षेत्र में वैज्ञानिक पद्धतियों के प्रयोग की आवश्यकता है।

“विवेकानंद जी अध्यात्म और विज्ञान को एक-दूसरे का विरोधी नहीं मानते थे। उनका विचार था कि पाश्चात्य विज्ञान का भारतीय वेदांत के साथ समन्वय करके की विश्व में सुख-समृद्धि व शांति उत्पन्न की जा सकती है। विज्ञान ने मानव जीवन को अनेक कष्टों से मुक्त किया है तथा जीवन की अन्य सुविधाएं उपलब्ध कराने में योगदान दिया है। परन्तु वेदांत के अभाव में यही विज्ञान विनाशकारी भी बन सकता है।

वेदांत तथा विज्ञान के समन्वय से मनुष्य चिन्तन और विवेकमुक्त होगा तथा मानवता अधिक सुखी होगी। पश्चिमी राष्ट्र वैज्ञानिक संस्कृति में कितने ही उन्नत क्यों न हो तत्व एवं आध्यात्मिक शिक्षा से वे मेरे बालक ही हैं। भौतिक विज्ञान केवल लौकिक आनन्द दे सकता है परन्तु अध्यात्मक विज्ञान का आदर्श मनुष्य को अधिक आनन्द देता है। वह उसे अधिक सुखी बनाता है। भौतिकवाद अनेकता, उच्छृखलता और निरर्थक महत्वाकांक्षा को जन्म देती है। व्यक्ति तथा राष्ट्र को मृत्यु को की ओर ले जाती है।”

विवेकानंद जी लिखते हैं,” पाश्चात्य शिक्षा का एक दोष है कि वह मनुष्य को अत्यंत स्वार्थी बना देती है। बुद्धि व्यक्ति को उस सर्वोच्च स्तर पर नहीं पहुंचा सकती है जिस पर हृदय उसे पहुंचाता है। हृदय ज्ञान का प्रकाश है। अतः हृदय का परिष्कार करो। ईश्वर हृदय के माध्यम से ही हमें संदेश देता है।””विश्वयारी” के व्यामोह में हम उपभोक्तावाद के जाल में उलझते जा रहे हैं। उपभोक्तावाद अपसंस्कृति को जन्म दे रहा है। इस उपभोक्तावादी उपसंस्कृति की मृगमरीचिका में फंसकर हम स्वयं अपने को भ्रष्ट कर रहे हैं, अपनी स्मृति को बिगाड़ रहे हैं, अपने विवेक को नष्ट कर रहे हैं, और उदारवाद की झूठी चमक में खुशी में झूम रहे हैं। अपसंस्कृति विस्मृति पैदा कर रही है। यह विस्मृति हमारा व्यतीत, वर्तमान और अनन्त यात्रा को बिगाड़कर हमें महाविनाश की ओर ले जा रही है। ” हम यह भूल रहे हैं कि हमारी सांस्कृतिक परंपरा परात्पर से प्रश्रित है, नित्यनूतन रूपों में वर्तमान होकर उपस्थित होती है और अनन्त की ओर अतन्द्रित भाव सेअविराम बढ़ते रहने के लिए अनादि का संदेश सुनाती है। वह हर सूर्योदय में नयी होती है, हर दोपहरी में प्रखर होती है, हर संख्या में ध्यानमग्न होती है और बिना मरे नया जन्मलेती है।

पत्रावली (द्वितीय खड), पृ. 80- भौतिक विज्ञान भौतिक विज्ञान केवल लौकिक समृद्धि दे सकता है, परंतु अध्यात्म-विज्ञान शाश्वत जीवन के लिए है। यदि शाश्वत जीवन न भी हो तो भी आध्यात्मिक विचारों का आदर्श मनुष्य को अधिक आनंद देता है और उसे अधिक सुखी बनाता है। परंतु जड़वाद की मूर्खता ही स्पद्ध, अयोग्य और तीव्र अभिलाषा, एवं व्यक्ति तथा राष्ट्र की अंतिम मृत्यु का साधन होती है।

प्रकांड विद्वान और दार्शनिक डॉ. सर्वपल्ली राधाकृष्णन – इस दुर्भाग्यपूर्ण स्थिति की ओर स्पष्ट संकेत किया है- “Science has glorified the external man. In the process, it has denigrated the inner man. This has spurred man and women to a neurotic pursuit of external pleasures and generated grisly greed for rights without duties.” इसलिए आज इस बात की आवश्यकता है कि विज्ञान के साथ-साथ अध्यात्म की ओर भी उचित ध्यान दिया जाए, अन्यथा आज का मानव विभिन्न प्रकार की समस्याओं और संकटों से त्राण नहीं पा सकता है।

स्वामी पवित्रानन्द (रामकृष्ण मिशन के एक प्रमुख संन्यासी) – आज नवयुग का निर्माण वैसे ही लोगों के द्वारा सम्भव है,जो सच्चे अर्थ में अध्यात्म से प्रेरित होते हैं, और स्वार्थ द्वारा संकीर्णता की परिधि से ऊपर उठे होते हैं। इसलिए निश्चय ही वर्तमान अध्ययन की अपनी आवश्यकता और सार्थकता स्पष्ट रुपेण दृष्टिगत होती है।

पंडित अरूण कुमार शर्मा (प्रसिद्ध बायोलॉजिस्ट)- मनुष्य जिस सत्य की खोज में पागल है, वह अध्यात्म है। आत्मा और उससे संबंधित जितने भी विषय है, उसी का नाम ‘अध्यात्म’ है जिसे विज्ञान “जैविक विद्युतशक्ति” (बायो एलेक्ट्रिसिटी) कहता है, वह वास्तव में अध्यात्म शक्ति ही है। आत्मा स्वयं अपने आप में विद्युत का एक विशाल भण्डार है।

पंडित दीनदयाल उपाध्याय- अध्यात्म और विज्ञान परस्पर विरोधी नहीं हैं। उनका समन्वय करके ही मानवजीवन को सुखी एवं निरामय किया जा सकता है। आध्यात्मिक होने का अर्थ भौतिक सुखों की ओर से उदासीन हो जाना, भारतीय संस्कृति को स्वीकार नहीं। ऐसा मिथ्या अर्थ करने के कारण ही विज्ञान में प्रगति कर चुके पश्चिम की सभी बातों का हमने सर्वागीण अनुकरण किया। इन अनुकरण में जागरूकता नहीं थी। आज भारत की अनेक समस्याएँ अंधानुकरण के कारण उत्पन्न हुई हैं। सिंधु-संस्कृति के उदय से लेकर गांधी जी के सर्वोदय तक नाना सामाजिक प्रयोग भारत ने किये हैं। अब एकात्म मानववाद एवं एकात्म संस्कृतिवाद के आधार पर आधुनिक भारत का नया राष्ट्रजीवन संगठित करने की आवश्यकता है।

विज्ञान और अध्यात्म का नाता

महर्षि व्यास के अनुसार, विश्व में मनुष्य से श्रेष्ठ और कुछ नहीं। उसी में परम चेतना को उभारने वाली विद्या का नाम अध्यात्म है। वस्तुत: अध्यात्म का लक्ष्य है- मनुष्य के अंदर छिपी शक्तियों और सत्प्रवृत्तियों को मनोवैज्ञानिक पद्धति से इतना आगे बढ़ाना कि व्यक्ति के जीवन में देवत्व छलकने लगे। दूसरी तरफ विज्ञान का लक्ष्य है प्रकृति तथा पदार्थ में छिपी शक्तियों की जानकारी प्राप्त करना, जिससे मनुष्य के जीवन में कोई भौतिक कष्ट न रहे और वह सुख-सुविधा युक्त जीवन जी सके। जीवन आत्मिक और भौतिक दोनों तत्वों से मिलकर बना है, इसलिए विज्ञान व अध्यात्म अलग-अलग होते हुए भी पूरक हैं।

अध्यात्म और विज्ञान… दोनों हैं एक-दूसरे के पूरक

– गुरु ओमानंद जी

अधिकतर लोग ये समझते हैं कि अध्यात्म और विज्ञान का आपस में कोई संबंध नहीं, लेकिन सच ये है कि ये दोनों एक सिक्के के दो पहलू हैं. हिंदू धर्म की लगभग सभी आध्यात्मिक व धार्मिक मान्यताओं के पीछे वैज्ञानिक रहस्य छुपे हैं. ऐसा इसलिए है कि लोग विज्ञान से ज़्यादा धर्म व अध्यात्म में विश्‍वास करते हैं. गुरु ओमानंद जी इसी विषय पर प्रकाश डालेंगे, ताकि लोग अध्यात्म में छिपे वैज्ञानिक रहस्य को जान सकें और स्वस्थ जीवन की ओर अग्रसर हो सकें.

अध्यात्म और विज्ञान का संबंध

सरल शब्दों में कहें, तो विज्ञान अपने शोध से आध्यात्मिक सच्चाइयों की खोज करता है और आध्यात्मिक मान्यताओं के पीछे वैज्ञानिक रहस्य छुपे होते हैं. दोनों एक ही बात कहते हैं, बस कहने का तरीका अलग-अलग है.

वैज्ञानिक खोज के पीछे छुपा अध्यात्म

अगर हम वैज्ञानिक खोज की बात करें, तो अधिकतर वैज्ञानिकों का लक्ष्य यह पता लगाना होता है कि ब्रह्मांड क्या है, उसकी शक्ति कितनी है, यह सृष्टि कैसे बनी, मानव कैसे बने आदि. इसी तरह अध्यात्म भी ब्रह्मांड की शक्ति को स्वीकारता है और मंत्र व श्‍लोकों द्वारा उसका वर्णन करता है. हम सब भी कहीं न कहीं ये बात स्वीकार करते हैं कि कोई परम शक्ति है, जो इस संसार का संचालन कर रही है. कई वैज्ञानिकों ने भी यह माना है कि उनकी खोज के पीछे आध्यात्मिक प्रेरणा या दिव्य शक्ति भी काम कर रही थी. सापेक्षता का सिद्धांत खोजने के बाद अल्बर्ट आईंस्टीन ने कहा था कि उनकी वैज्ञानिक खोजों के पीछे सबसे बड़ी प्रेरक शक्ति ब्रह्मांड का धार्मिक अनुभव है. यानी वैज्ञानिक खोजों में भी अध्यात्म छुपा है और ये बात वैज्ञानिक भी स्वीकारते हैं.

ॐ का धार्मिक और वैज्ञानिक महत्व

यदि हम बीज मंत्र ॐ की बात करें, तो ॐ का उच्चारण बहुत ही पवित्र और महत्वपूर्ण माना गया है. इसे ही सभी धर्मों और शास्त्रों का स्रोत माना जाता है, इसीलिए अनादिकाल से साधक ॐ के प्रति अगाध श्रद्धा रखते आए हैं. यही कारण है कि हर शुभकार्य करने से पहले ॐ का उच्चारण किया जाता है. इसी तरह ॐ मंत्र का वैज्ञानिक पहलू भी उतना महत्वपूर्ण है. वैज्ञानिकों का मानना है कि हमारे सिर की खोपड़ी में स्थित मस्तिष्क में कई अंग तथा दिमाग योगासन व व्यायाम द्वारा खिंचाव में नहीं लाए जा सकते, इसलिए ॐ का उच्चारण उपयोगी है. इससे दिमाग के दोनों अर्द्धगोल प्रभावित होते हैं, जिससे कंपन और तरंग मस्तिष्क में लाकर कैल्शियम कार्बोनेट का जमाव दूर करते हैं. इस प्रकार ॐ के उच्चारण से दिमाग़ को स्वस्थ व शांत रखा जा सकता है.

मेडिकल साइंस और अध्यात्म

मेडिकल साइंस भी ये बात मानता है कि मन का हमारे शरीर पर गहरा प्रभाव होता है. यदि मन ठीक नहीं है, तो उसका असर शरीर पर बीमारियों के रूप में होने लगता है. इसीलिए मेडिकल साइंस इलाज के लिए स़िर्फ दवाइयों को ही काफ़ी नहीं मानता, ख़ासकर तनाव संबंधी बीमारियों को दूर करने के लिए दवाइयों के साथ ही योग व मेडिटेशन की सलाह भी दी जाती है. रिसर्च द्वारा यह बात साबित हुई है कि किसी बड़ी बीमारी या ऑपरेशन के बाद जो लोग मेडिटेशन करते हैं या धार्मिक स्थलों में समय बिताते हैं, वे उन लोगों के मुकाबले जल्दी स्वस्थ होते हैं, जो ऐसा नहीं करते. यानी मेडिकल साइंस और अध्यात्म दोनों हमारे शरीर में हीलिंग का काम करते हैं.

अध्यात्म और विज्ञान से जुड़ी कुछ ज़रूरी बातें

  • अध्यात्म हमें वैज्ञानिक तरीके से सोचने की प्रेरणा देता है और विज्ञान हमें अध्यात्म के रहस्य बताता है. अध्यात्म वैदिक धर्मग्रंथों में विश्‍वास करता है और विज्ञान का आधार है सही तर्क और नई खोज. दोनों ही अपनी बात ठोस आधार पर करते हैं.
  • विज्ञान बाहरी जगत की सच्चाई की खोज का माध्यम है और अध्यात्म अंतर्मन को जानने-समझने का ज़रिया. दोनों ही मार्ग हमें ज्ञान की राह पर ले जाते हैं और हमारे जीवन को बेहतर बनाते हैं. हां, दोनों के रास्ते ज़रूर अलग हैं. विज्ञान भौतिक रास्ते से जाता है और अध्यात्म अभौतिक के रास्ते से.
  • अध्यात्म और विज्ञान दोनों सृजन के मूलमंत्र से जुड़े हैं. दोनों बाहरी जगत और अंतरात्मा को जोड़ने काम काम करते हैं.
  • अध्यात्म हमें मन से जोड़ता है और विज्ञान ये बताता है कि बाहरी जगत का हमारे मन और शरीर पर क्या प्रभाव पड़ता है.
  • अध्यात्म और विज्ञान दोनों ही सत्य की खोज करते हैं, हमें प्रकृति से जोड़ते हैं, मानवता से जोड़ते हैं और दोनों का उद्देश्य हमारे जीवन को बेहतर बनाना है.
  • अध्यात्म और विज्ञान दोनों समाज के कल्याण के लिए काम करते हैं. शरीर को स्वस्थ रखने के लिए यदि वैज्ञानिक खोजों की ज़रूरत होती है, तो मन को स्वस्थ और सुंदर बनाने के लिए अध्यात्म के नियमों का पालन ज़रूरी होता है. अध्यात्म और विज्ञान मिलकर स्वस्थ और सुंदर समाज का निर्माण करते हैं.
  • अध्यात्म और विज्ञान एक-दूसरे के पूरक तभी हो सकते हैं, जब अध्यात्म को अंधविश्‍वास से न जोड़ा जाए और विज्ञान का प्रयोग विनाश के लिए न हो. अध्यात्म और विज्ञान द्वारा जनहित में की गई हर खोज उन्हें एक-दूसरे के करीब ले आती है.

अध्यात्म – एक रहस्यमय विज्ञान

अध्यात्म अमूर्त आत्मा का विज्ञान है अतः इसका मुख्य विषय तो आत्मा एवं सुख प्राप्ति हेतु उसमें होने वाले प्रयत्न एवं क्रियाएं ही हैं। यह संसारदशा में आत्मा के साथ संयोग सम्बन्ध होने से अन्य भौतिक जड़ पदार्थों का भी यथोचित अध्ययन करता है, परन्तु अन्य भौतिक विज्ञानों की तरह जड़ पदार्थों की शक्तियों का गहन अध्ययन-विश्लेषण इसका विषय नहीं है क्योंकि इसका उद्देश्य तो आत्मा व जड़ पदार्थों के मध्य देखे व माने जाने वाले निमित्त-नैमित्तिक, कत्र्ता-कर्म एवं भोक्ता-भोग्य आदि अनेक प्रकार के सम्बन्धों की यथार्थता का ज्ञान कराकर आत्मा की अन्य पदार्थों व स्वयं की शक्तियों के सम्बन्ध में अज्ञानमूलक भ्रान्तियों का निवारण करना है ताकि आत्मा की पराधीन वृत्तियों का अभाव होकर स्वाधीन आत्मिक जीवन का प्रारम्भ हो सके। कहा भी है – ‘पराधीन सपने हु सुख नाहीं’।

अध्यात्म की प्रकृति:- प्रत्येक विषय की प्रकृति के सम्बन्ध में एक प्रश्न सदैव ही उत्पन्न होता है कि वह विज्ञान है या कला। आगे इसी सम्बन्ध में विचार किया गया है।

अध्यात्म एक विज्ञान है:- किसी भी वस्तु या वस्तुओं से सम्बन्धित सत्य, क्रमबद्ध एवं सुव्यवस्थित ज्ञान विज्ञान कहलाता है। साथ ही विज्ञान के अन्तर्गत खोजे गये नियम या सिद्धान्त सार्वभौमिक एवं सार्वकालिक होते हैं। यह भी सुविदित तथ्य है कि सभी वस्तुओं में कुछ सामान्य गुण होते हैं और कुछ विशेष गुण होते हैं। भौतिक विज्ञान की दृष्टि से पदार्थों में पाये जाने वाले द्रव्यमान, जड़त्व, गुरूत्व, घनत्व आदि सामान्य गुण हैं तथा प्रत्येक द्रव्य में उसके अपने विशेष गुण भी होते हैं जिनसे वह अन्य द्रव्यों से पृथक जानने में आता है। जैसे सोने व लोहे के, नमक व शक्कर के विशेष गुण स्पष्ट ही भिन्न भिन्न होते हैं। प्रयोगशालाओं में प्रयोग करने पर वे वैज्ञानिक सिद्धान्त तथा गुण सत्य सिद्ध होते हैं, जो वैज्ञानिक सिद्धान्तों की प्रामाणिकता का समर्थन करते हैं।

यदि अध्यात्म को भी विज्ञान की कसौटी पर कसा जाय तो अध्यात्म भी एक विज्ञान है ऐसा सिद्ध होता है क्योंकि सभी द्रव्यों में सामान्य व विशेष गुण पाये जाते हैं जैसे सभी जीवों में पाये जाने वाले दर्शन, ज्ञान व सुख आदि जीव के विशेष गुण हैं तथा अस्तित्व, वस्तुत्व, द्रव्यत्व आदि चेतन-अचेतन सभी द्रव्यों में पाये जाने से सामान्य गुण हैं। विभिन्न पदार्थों के सम्बन्ध में, अध्यात्म के सिद्धान्त यथा – स्वतन्त्र परिवर्तनशीलता, अकत्र्ता एवं अभोक्ता स्वभाव, निमित्त-नैमित्तिक सम्बन्ध, कर्म सिद्धान्त आदि अनेक सिद्धान्त सार्वकालिक व सार्वभौमिक सिद्धान्त हैं, जो लौकिक जीवन का गहन विशलेषण करने पर अथवा तो अनुभव की कसौटी पर कसने पर सत्य सिद्ध होते हैं।

जिस प्रकार आधुनिक विज्ञान तर्क, अनुमान, प्रयोग एवं अनुभव के आधार पर लक्ष्य की ओर बढ़ता है तथा उसका उद्देश्य मानव जीवन को सरल, सहज व आनन्दमय बनाना है। उसी प्रकार अध्यात्म भी तर्क, अनुमान प्रयोग व अनुभव के आधार पर अपने आत्महित रूप लक्ष्य (सच्चे सुख की प्राप्ति) की ओर बढ़ता है तथा उसका उद्देश्य भी आत्मा की पूर्ण शुद्ध निर्विकार सच्चिदानन्दमय दशा की उपलब्धि करना है।

अध्यात्म आत्मा की वर्तमान संसार अवस्था का, उसमें यथार्थ वस्तु स्वरूप के अज्ञानजनित मोह-राग-द्वेषादि विकारी भावों एवं इन्द्रिय विषयों मे इष्ट-अनिष्ट बुद्धि से प्रेरित प्रवृत्ति से उत्पन्न होने वाले दुःखों से मुक्ति का सटीक अनुसन्धान करता है तथा अध्यात्म ही यह बताता है कि इन्द्रिय ज्ञान व सुख पराधीन, क्षणिक एवं आकुलतामय होने से हेय हैं और आत्माश्रित ज्ञान व सुख स्वाधीन, स्थायी एवं निराकुलतामय होने से उपादेय है। अध्यात्म विभिन्न द्रव्यों के मध्य देखे जाने वाले परस्पर निमित्त-नैमित्तिक सम्बन्धों का सूक्ष्म विश्लेषण कर द्रव्यों के परस्पर अकर्तृत्व एवं सहज स्वतन्त्र कार्योत्पत्ति की शक्तियों का प्रतिपादन करता है। इस प्रकार

अध्यात्म द्वारा प्रतिपादित सिद्धान्त यथार्थ, तर्क-आगम व अनुभव की कसौटी पर सत्य सिद्ध होने से अध्यात्म एक यथार्थ विज्ञान है। हाँ! यह मूर्त भौतिक विज्ञान न होकर अमूर्त आत्मा का विज्ञान है क्योंकि इसमें अन्य पदार्थों का अध्ययन होते हुये भी आत्मा के हित हेतु आत्मस्वरूप के अनुसंधान की ही मुख्यता होती है।

अध्यात्म द्वारा ही आत्मा की स्वभावभूत शक्तियों, गुणधर्मों का अध्ययन कर संसार के चतुर्गति रूप दुःखों से उसकी मुक्ति का मार्ग प्रशस्त होता है। मुक्ति ही वह दशा है जहां उसकी सारी ही शक्तियां पूर्ण निर्मल, शुद्ध एवं सर्व सामथ्र्य सहित प्रगट हो जाने से आत्मा सदा के लिये आत्माश्रित अतीन्द्रिय आनन्द का रसास्वादन करता हुआ सुस्थित रहता है।

अध्यात्म विशुद्ध विज्ञान है:- विशुद्ध विज्ञान, विज्ञान का वह रूप है जिसमें उपयोगिता पर बल न देते हुये मात्र प्रकृति के रहस्यों की खोज की जाती है। विशुद्ध विज्ञान अपनी खोजों के प्राणी जीवन व पर्यावरण पर पड़ने वाले प्रभावों एवं उनके दुरूपयोग-सदुपयोग के प्रति उदासीन रहकर कार्य करता है। उसका उद्देश्य तो मात्र प्राकृतिक रहस्यों का उद्घाटन करना है चाहे वे लाभदायक हों या हानिकारक जैसे आणविक ऊर्जा, विस्फोटक पदार्थों, संचार साधनों, रसायनों आदि अनेक वस्तुओं-साधनों का आविष्कार।

इस परिप्रेक्ष्य में देखा जाये तो अध्यात्म भी एक विशुद्ध विज्ञान है क्योंकि यह भी जगत के चेतन-अचेतन पदार्थों के निरपेक्ष एवं यथार्थ स्वरूप का अनुसन्धान करता है। सिद्धान्तों के प्रतिपादन में अध्यात्म इस बात की परवाह नहीं करता कि उनको जानकर अज्ञानी सामान्यजन अप्रसन्न अथवा स्वच्छंद भी हो सकते हैं अथवा उनका विरोध भी हो सकता है। जैसे विश्व की अनादि-अनन्तता, वस्तु की अनन्त गुणमयता, चेतन-अचेतन द्रव्यों में परस्पर अकर्तृत्व एवं अभोक्तृत्व, द्रव्यों का स्वतन्त्र परिणमन स्वभाव, निमित्तों की कार्य निष्पादन में अकिंचित्करता, इन्द्रिय सुख की दुःखमयता आदि सिद्धान्त।

अध्यात्म सकारात्मक विज्ञान है:- सकारात्मक विज्ञान, विज्ञान का वह रूप है जो प्रकृति के उद्घाटित रहस्यों एवं सिद्धान्तों के मानव / प्राणी जीवन एवं पर्यावरण हितैषी होने की चिन्ता भी करता है। यह ऐसे वैज्ञानिक तथ्यों की खोज के प्रति उदासीन रहता है जिनका जीवन व पर्यावरण पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ने अथवा दुरूपयोग होने की सम्भावना हो।

इस अर्थ में यदि देखा जाये तो अध्यात्म एक सकारात्मक विज्ञान भी है, क्योंकि इसका जन्म ही आत्मा के आधार से और आत्महित के लिये ही होता है। अतः यह आत्मा के रागादि विकारों व अल्पज्ञता आदि अपूर्णताओं के कारणों का अनुसन्धान करता है तथा उन कारणों को दूर करके आत्मा की निर्विकार पूर्ण ज्ञान व सुख की दशा की प्राप्ति का मार्ग उद्घाटित करता है। अध्यात्म के सारे ही सिद्धान्त जगत के जीवों की सुख प्राप्ति हेतु शरीर, इन्द्रियों व विविध भोग-उपभोग सामग्री के प्रति पराधीनता व इनके अभाव में अनुभूत दीनता का अभाव कर उनकी स्वतन्त्रता व पूर्णता का मार्ग प्रशस्त करने वाले ही होते हैं, तो भी सामान्यजन अध्यात्म के सिद्धान्तों को जानकर स्वच्छन्द व अप्रसन्न न हों इसके लिये अध्यात्म सापेक्षिक कथन पद्धति (स्याद्वाद) का प्रयोग करता है ताकि सभी जिज्ञासु अध्यात्म के सिद्धान्तों का मर्म सही परिप्रेक्ष्य में समझकर अपनी अज्ञानमूलक कलुषित चित्तवृत्तियों से (मोह-राग-द्वेष, क्रोध, मान, माया, लोभादि कषाय रूप परिणामों-भावों से) मुक्त हो सकें और आत्महित के मार्ग को सहजता से समझ सकें।

अध्यात्म कला भी है:- विज्ञान द्वारा खोजे गये सिद्धान्तों का प्रयोग करते हुये जीवन के लिये उपयोगी वस्तुओं व विधियों का प्रतिपादन कर जीवन को सुखी बनाना यह कला है। कला द्वारा वस्तुओं व कार्य विधियों को सुन्दर-आकर्षक रूप दिया जाता है जिससे लोगों का जीवन सरल व सहज हो जाता है।

कला की कसौटी पर यदि देखें तो अध्यात्म कला भी सिद्ध होता है, क्योंकि अध्यात्म का, आध्यात्मिक सिद्धान्तों व जीवन शैली का जीवन में प्रवेश होते ही उस साधक व्यक्ति का जीवन सहज, सरल, स्वाधीन एवं सुखमय होने लगता है। अध्यात्म के सिद्धान्तों का प्रयोग करने वाला साधक आत्मा से भिन्न चेतन-अचेतन पदार्थों के स्वतन्त्रतया होने वाले संयोग व वियोग की दशाओं से अप्रभावित ही रहता है, वह वास्तव में आत्ममय जीवन जीता हुआ सहज ज्ञाता-दृष्टा मात्र रहता है वह कर्तृत्व के भय अथवा अहंकारजनित तनावों से मुक्त रहता हुआ अन्य लोगों के लिये भी सुन्दर-सहज, सरल, अहिंसक व अपरिग्रही जीवन का आदर्श प्रस्तुत करता है। वह अपनी वाणी का प्रयोग हित, मित, प्रिय वचन बोलने के लिये ही करता है। साधना के मार्ग पर वह इस प्रकार आगे बढ़ता है कि उसके निमित्त से सूक्ष्म जीव भी पीडि़त नहीं होते। वह अहिंसा, क्षमा, दया आदि की साक्षात् मूर्ति होता है। वह जीवन में पूर्वकृत कर्मों के फल में आने वाली प्रतिकूलताओं से आत्मस्वभाव के आश्रय से उत्पन्न निराकुल शान्ति व आनन्द के बल पर अप्रभावित ही रहता है, क्रोध-ईष्र्या-द्वेष, अहंकार, छलकपट जैसे अनेक दुर्गुण उसका स्पर्श भी नहीं कर पाते।

ऐसा सुन्दर स्व-पर को आत्महितप्रेरक निस्प्रह जीवन अध्यात्म को सर्वोत्तम कला की श्रेणी मंस खड़ा कर देता है। अध्यात्म अन्य सांसारिक कलाओं से विलक्षण कला है क्योंकि सांसारिक कलाएं तो इन्द्रिय विषयों की पोषक होने से जीवों को संसार में उलझने में निमित्त बनती हैं जबकि अध्यात्म की कला जीवों को संसार के दुःखों के मार्ग से हटाकर स्वाधीन निराकुल आत्मिक सुख की प्राप्ति का मार्ग प्रशस्त करती है।

उक्त विवेचन से स्पष्ट है कि अध्यात्म विज्ञान भी है और कला भी।

अध्यात्म एक रहस्य मय विज्ञान है:- वे तथ्य रहस्य कहे जाते हैं जिन का ज्ञान सामान्य व्यक्तियों को अपनी सहज सरल बुद्धि से नहीं हो पाता। किन्तु वे ही अबूझ तथ्य कुछ विशिष्ट ज्ञानियों तथा धुनी लोगों की जिज्ञासापूर्ण शोध के निमित्त बनते हैं और बाद में उन रहस्यों पर से पर्दा उठ जाता है। अनेक आधुनिक वैज्ञानिक आविष्कार किसी समय कोरी गप्प अथवा कल्पना की उड़ान प्रतीत होते थे किन्तु आज वे हमारे जीवन का अभिन्न अंग बन चुके हंै। उनकी बदौलत ही आज मानव समाज अधिक सुविधापूर्ण जीवन जीने की अपनी इच्छा को पूर्ण करने में सफल हो सका है।

इसी प्रकार प्राचीन काल से ही अध्यात्म विज्ञान या आत्म-विद्या भी मनीषियों की शोध-खोज का केन्द्र बिन्दु रही है जबकि सामान्यजन तो आत्मा के अस्तित्व को स्वीकार करने से भी इन्कार करते रहे हैं। क्योंकि जगत के सामान्य जीवों का शरीर, इन्द्रियों व उनके विषयभूत जड़ पदार्थों से तो सहज परिचय रहा है परन्तु उस शरीर में रहने वाले ज्ञान व आनन्द स्वभावी चैतन्य आत्मा से वे सदा ही अपरिचित रहे हैं।

आत्मा इन्द्रिय ज्ञान से जानने में न आने वाला एक अमूर्त तत्त्व है जो संसार दशा में इन्द्रियों के निमित्त से जानता देखता है और सुखी-दुखी होता हैं परन्तु इन्द्रियां व भौतिक पदार्थ जिसे छू भी नहीं पाते।

संसार दशा में पूर्व सत्कर्मों के फल में लोगों को न्यूनाधिक अनुकूलताएं उपलब्ध होती ही है और संस्कारवश व्यक्ति उनमें ही संतुष्ट रहता हुआ काल व्यतीत करता रहता है और समय आने पर अग्रिम यात्रा पर चला जाता है। इन प्राप्त अनुकूलताओं में सुख बुद्धि से प्रेरित इष्ट का संग्रह व अनिष्ट का परिहार करने के निरर्थक प्रयत्नों में कदाचित् प्राप्त सफलता-असफलता को ही जीवन का सत्य मानते हुये तथा संस्कारवश मान्य आराध्य देवों की कृपा एवं कोप से प्रेरित भक्ति को ही एक मात्र उपादेय मानते हुए यथार्थ वस्तु स्वरूप की ओर सहज ही दृष्टिपात भी नहीं करता।

इस जीवन में विभिन्न पदार्थों में सहज ही होने वाली विभिन्न अवस्थाओं में कार्य-कारण सम्बन्ध देखे जाते हैं जिनसे इस संसारी जीव की कत्र्ता-कर्म एवं भोक्ता-भोग्य रूप मिथ्या भ्रान्ति पुष्ट होती रहती है और वह उन जागतिक संयोगों की व्यवस्था में ही लगा रहता है। समयानुसार अर्जित असफलताओं व प्रतिकूलताओं का वह सही विश्लेषण करने में भी असमर्थ रहता है। फलतः उसकी दृष्टि आत्मा व अन्य पदार्थों के यथार्थ स्वरूप व माने गये कत्र्ता-कर्म व भोक्ता-भोग्य सम्बन्धों की निरर्थकता की ओर जाती ही नहीं है। और यदि कोई ज्ञानी पुरूष उसकी चर्चा करता भी है तो संसार, शरीर व भोगों में आसक्ति के कारण आत्मा-परमात्मा की चर्चा-वार्ता के प्रति उसका उपेक्षा भाव ही रहता है।

इस प्रकार उपरोक्त व अन्य अनेक कारणों से आत्म विद्या या अध्यात्म-विज्ञान सामान्यजनों के लिये रहस्यमय ही बना रहता है। परन्तु यह भी एक तथ्य है कि जिन महा मनीषी साधकों ने अपने आत्मा के रहस्यों पर से पर्दा उठाकर उसका साक्षात्कार किया है वे अपनी आत्मा में ही स्वभावरूप से विद्यमान अतीन्द्रिय ज्ञान व आनन्द का उपभोग करते हुये सदा-सर्वदा सुखी रहते हैं फिर उन्हें भौतिक इन्द्रिय विषयों के रूप में जड़ पदार्थों की आवश्यकता भी प्रतीत नहीं होती।

यहां यह बात स्पष्टतः ध्यान में रखनी चाहिये कि भौतिक विज्ञान के रहस्योद्धाटन जीवों की भौतिक लालसाओं को बढ़ा कर वास्तव में तो उनके दुःखों-आकुलताओं में वृद्धि ही करते हैं जबकि आत्मा के रहस्यों का उद्घाटन व्यक्तियों के जीवन को निराकुल शान्ति व आनन्द से भर देता है जिससे जगत की अनुकूल व प्रतिकूल स्थितियां उन्हें प्रभावित करने में भी असमर्थ रहती हैं।

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कीबोर्ड के पत्रकार

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बुंदेले हर बोलों के मुंह, हमने सुनी कहानी थी, खूब लड़ी मर्दानी, वह तो झांसी वाली रानी थी…. सुभद्रा कुमारी चौहान की यह पंक्तियां आज भी न केवल महारानी लक्ष्मीबाई की वीरगाथा बयां करती हैं, बल्कि इनको पढ़ने-गुनगुनाने मात्र से मन में देशभक्ति का एक अद्भुत संचार हो उठता है.

महिला सशक्तिकरण के इस दौर में भला युवतियों और महिलाओं के लिए रानी लक्ष्मीबाई से अधिक बड़ा प्रेरणास्रोत कौन हो सकता है, जिन्होंने पुरुषों के वर्चस्व वाले काल में महज 23 साल की आयु में ही अपने राज्य की कमान संभालते हुए अंग्रेजों के दांत खट्टे कर दिए थे। भारत की महान बेटी का जन्म 19 नवंबर को हुआ था। 

वीरांगना लक्ष्मीबाई के जन्म के वर्ष को लेकर इतिहासकारों का अलग- अलग मत है। यद्यपि जन्मतिथि पर सबकी एक राय है। कुछ इतिहासकारों का मानना है कि महारानी का जन्म 19 नवंबर 1828 को वाराणसी में हुआ था, जबकि अन्य इतिहासकार जन्मतिथि…

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रानी लक्ष्मीबाई: वीरता और शौर्य की बेमिसाल कहानी

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अयोध्या: आस्था से सियासत तक…

कीबोर्ड के पत्रकार

डॉ. संदीप… कीबोर्ड के पत्रकार

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अयोध्या, जिसे लंबे समय तक राम जन्मभूमि-बाबरी मस्जिद भूमि विवाद के लिए ही जाना जाता रहा है। क्या यह अयोध्या का सच है? क्या ये ही अयोध्या है? जी नहीं, अयोध्या का सच- 1992 में राम मंदिर निर्माण के लिए किए गए आंदोलन में ध्वस्त “विवादित ढांचे” तक सीमित नहीं है।बल्कि अयोध्या का सच उससे कहीं अधिक व्यापक है। यह सच भारत के गौरवशाली इतिहास, संस्कृति, परम्परा, विरासत और धार्मिक मूल्यों में गहराई तक विराजमान है। मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम की नगरी अयोध्या करोड़ों धर्मावलंबियों की आस्था और श्रद्धा ही नहीं बल्कि उनके उस विश्वास का प्रतीक भी है जिसमें उनका कहना है “भगवान श्रीराम का जन्म” यहीं हुआ है। श्रीराम जो सम्पूर्ण भारत राष्ट्र के स्वाभिमान है और अयोध्या उनसे जुड़ा एक संकल्प है श्रीराम की प्राचीन सांस्क़तिक धरोहर से हर कीमत पर जुड़े रहने का संकल्प। और यह संकल्प “अजय” है।

अयोध्या अर्थात…

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नवरात्र विशेष: क्या है नवरात्रि और दुर्गा पूजा का इतिहास और उसका महत्व…

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या देवी सर्वभूतेषु शक्ति-रूपेण संस्थिता।

नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नमः॥

अर्थ : जो देवी सब प्राणियों में शक्ति रूप में स्थित हैं, उनको नमस्कार, नमस्कार, बारंबार नमस्कार है।

देवीमाहात्म्यम् (देवी का महात्म्य)- वैदिक सभ्यता मुख्यत: पितृ प्रधान सभ्यता थी बावजूद वैदिक काल में देवियों का स्थान उच्चतम स्तर पर था। “देवी” शब्द का लिखित प्रयोग भी सर्वप्रथम ऋग्वेद में ही प्राप्त होता है। भव्य, चमत्कृत, दिव्य, प्रकाशित आदि इसके अर्थ गृहण किए गये हैं। ऋग्वेद में कुछ उल्लेखनीय देवियों जैसे- अदिति, दिति, पृथ्वी, सरस्वती वाचू आदि का वर्णन प्राप्त होता है। आगे चलकर क्रमशः इनमें से कई देवियों की कल्पना का उत्तरोत्तर विकास हुआ और पौराणिक युग में ये सर्वश्रेष्ठ देवी के रूपमें कल्पित की गयीं। उपनिषदों, पुराणों व महाकाव्यों में देवी शब्द का स्वरूप और अर्थ अत्यंत उत्कृष्ट होता गया। देवी वस्तुत: ईश्वर का ही मातृ-स्वरुप है। मनुष्य को अभ्युदय और निःश्रेयस का जो वर देती हैं, उन्हें ही देवी कहते हैं। शक्ति को दूसरे शब्दों में पावर या एनर्जी कहते हैं।

ऋग्वेद- मण्डल दस का “आत्म-सूक्तम” देवी तत्व का विशद विश्लेषक है। माँ के ममतामयी रूप में ईश्वरीय सत्ता को आत्मसात करने की परिकल्पना संभवत: वेदों से भी पुरानी है। वैदिक मनीषियों ने भी इसे मान्यता दी है। अम्बिका, गौरी, उमा, हैमवती, कालरात्रि, लक्ष्मी, सरस्वती, मही, दुर्गा, गायत्री आदि इसकेप्रतीक हैं। धेनु, धरती, नदियों व वनस्पतियों तक में उसी देवी – शक्ति का साक्षात्कार किया गया है। अर्थववेद में तो दे-पत्नियों, औषधियों और विदुषी नारियों,यहाँ तक कि प्रत्येक स्त्रीलिंगी प्रत्ययों में देवीत्व के दर्शन दिये गये हैं।

मार्कण्डेय महापुराण का देवी-माहात्म्य, नवरात्र व्रत और देवी-समाज के समक्ष शपत्त-पूजा का प्रबल समर्थन करने लगे। श्री बामन पुराण के देवी-महात्म्य देवी-भागवत पुराण में देवी-माहात्म्य का विशेष उल्लेख किया गया है। पुराणों के आख्यानों-उपाख्यानों से गंगा, तुलसी, सीता, राधा, सावित्री आदि के प्रति लोकआस्था प्रबल होती गयी। सिंधु घाटी की सभ्यता में मातृ-शक्ति की उपासना प्रचलित थी। मेसोपोटामियां के लेखों से ज्ञात होता है कि मातृ-देवी हर प्रकार से नगर-निवासियों की रक्षा करती थीं।

प्रकृति ही पृथ्वी का मूल है जिसने इस संसार के प्राणियों को जन्म दिया है। यही पालनकर्ता है और यही संहारकर्ता भी। इस संसार में जब विपत्तियाँ आती हैं तो वही प्रकृति रूपा माँ अनेक रूपों तथा नामों से इस पृथ्वी पर स्थूल रूप से प्रकट होती है और समस्त बाधाओं को दूर व अनाचार को समाप्त कर सदाचार को पुनः स्थापित कर अपने लोक (धाम) चली जाती है। ऐसी मातृशक्ति को हम दुर्गा भुवनेश्वरी आदि नामों से जानते हैं। समस्त देव शक्तियाँ उसी देवी के अंश तथा रूप हैं। यही कारण है कि विश्व भर में उस निराकार शक्ति का स्त्री रूप में ही विभिन्न रूपों तथा नामों से पूजन किया जाता है।

देवी के उपासक- शाक्त सम्प्रदाय’ हिन्दू धर्म के तीन प्रमुख सम्प्रदायों में से एक है। इस सम्प्रदाय में सर्वशक्तिमान को देवी (पुरुष नहीं, स्त्री) माना जाता है। कई देवियों की मान्यता है जो सभी एक ही देवी के विभिन्न रूप हैं। शाक्त मत के अन्तर्गत भी कई परम्पराएँ मिलतीं हैं जिसमें लक्ष्मी से लेकर भयावह काली तक हैं। कुछ शाक्त सम्प्रदाय अपनी देवी का सम्बन्ध शिव या विष्णु से बताते हैं।

हिन्दुओं के श्रुति तथा स्मृति ग्रन्थ, शाक्त परम्परा का प्रधान ऐतिहासिक आधार बनाते हुए दिखते हैं। इसके अलावा शाक्त लोग देवीमाहात्म्य, देवीभागवत पुराण तथा शाक्त उपनिषदों (जैसे, देवी उपनिषद) पर आस्था रखते हैं।

शाक्त सम्प्रदाय का प्राचीन मूल सिन्धु सभ्यता की मातृदेवी पूजा में मिलता है । उस समय माता रूप में प्रकृति या पृथ्वी की पूजा होती थी। वैदिक साहित्य में अदिति और पृथ्वी को देवताओं की कोटि में रखकर आदिशक्ति की प्रतिष्ठा की गयी है। यहीं अदिति आदित्य- वर्ग के सर्वश्रेष्ठ देवों की माता है। वह पृथ्वी को धारण करती हैं। अधर्ववेद में शक्ति का निस्पण किया गया है। उपनिषदों में गायत्री और तत्वरूपिण को सारी सृष्टिका रक्षक बताया गया है। केनोपनिषद की हेमवती उमा उसी शक्ति की परिचय है।

ऋग्वेद का वाक् सूक्त, देवी सूक्त, तथा रात्रि से संबधित सूक्त सृष्टि के अणु-अणु में शक्ति की सत्ता की व्यापकता की ओर संकेत करते हैं। वाजसनेयी सहिता, तैत्तिरीय ब्राह्मण तथा तैत्तिरीय आरण्यक में अंबिका, उमा, दुर्गा, काली आदि नामों का उल्लेख है ।

शैव सम्प्रदाय में शक्ति को शिव की पत्नी पार्वती मान लिया गया है। शक्ति की प्रेरणा से ‘शिव अपने कार्यों में प्रवर्तित होते हैं। शिव का कार्य-कलाप सृष्टि की रचना, पोषण और संहार मानकर शक्ति को इन सभी के लिये नियोजिका रुप में प्रतिष्ठित किया गया है। पौराणिक साहित्य में शक्ति के स्वतंत्र रूप से असंख्य महान पराक्रमों के कथानक मिलते हैं, जिनमें केवल मानव समाज को ही नहीं, अपितु देवताओं को भी शक्ति की सहायता की अपेक्षा प्रतीत होती है।

पुराणों में भिन्न-भिन्न देवताओं की भिन्न-भिन्न शक्तियों का भी उल्लेख मिलता है- जैसे विष्णु की काति, शांति, प्रीति आदि, रुद्र की गुणोदरी, गोमुखी, ज्वालामुखी , लंबोदरी, मंजरी आदि शक्तियां। देवी की इंद्राणी, वैष्णवी, ब्रह्माणी, कौमारी, वाराही, माहेश्वरी और सर्वमंगला आदि । पुराणों में नव शक्तियों के नाम भी गल्लिखित मिलते हैं । वे हैं – प्रभा, माया, सृक्षमा, विशुद्धा, दिनी, सुप्रभा, जया , विजया और सर्वसिद्वा।

सिन्धु सभ्यता के युग से लेकर पौराणिक काल तक आर्य और आर्येत्तर वर्गों के द्वारा शक्ति या उसके समकक्ष अनेक अन्य देवियों की आराधना का प्रचलन था । आर्य और आर्येतर वर्गों के बीच धार्मिक विचारों के आदान-प्रदान से तथा पारस्परिक मेल-जोल के कारण शक्ति आदि विभिन्न देवियों का विलय प्रारंभ हुआ । विलय की इस प्रक्रिया में प्रायः समस्त देवियों के नाम स्त्रोंतो में उनके पराक्रमों के स्मरण – स्वल्प विधमान रहे तथा उनकी पूजा विधियों को भी शास्त्रों में स्थान प्राप्त हो गया । फलस्वरुप, प्राचीन भारत में शक्ति के स्वस्प और उनकी आराधना से संबंधित अनेक विविधतायें देखने को मिलती हैं

प्राचीन भारत में शक्ति-उपासना का ज्ञान साहित्य के अलावा अभिलेखों एवं शिल्पकृतियों से भी होता है। मातृदेवी की अनेक आकृतियां प्रागैतिहासिक काल से ही बनने लगी थीं। सिन्धु सभ्यता के अवशेषों में मातृदेवी की अनेक प्रतिमाएं उपलब्ध हुई हैं।

पूर्व मध्य-कालीन प्रतिहार लेखों के प्रारंभ में महिषासुर मर्दिनी देवी की प्रार्थना मिलती है। सोमवंशी मान्डव शासकों के समय की अनेक महिषासुर मर्दिनी मूर्तियां सम्पूर्ण छत्तीसगढ़ क्षेत्र में उपलब्ध होती हैं गुप्त युग के नवीन पौराणिक धर्म का एक महत्वपूर्ण अंग देवी की पूजा और उपसना) थी।

वैष्णव और शैव दोनों सम्प्रदायों में देवी-उपासना और पूजा का पर्याप्त प्रचार और प्रसार हुआ । देवियों में मुख्य स्थान लक्ष्मी और पार्वती या दुर्गा का था । इसके अतिरिक्त सप्तमातृकाओं सरस्वती, गंगा, यमुना आदि देवियों की भी कल्पना की गयी । लक्ष्मी धन, सुख, समृद्धि और सौन्दर्य की देवी और विष्णु की पत्नी मानी जाती थी । विष्णु की अर्दा गिनी के स्प में भी उनकी पूजा होती थी । लक्ष्मी का विष्णु की पत्नी माना जाना गुप्त युग के पुराणों की देन है । विष्ण-पत्नी के अतिरिक्त लक्ष्मी के दो और  अन्य स्पों की कल्पना की गयी थी । प्रथम गजलक्ष्मी और द्वितीय श्री-लक्ष्मी ।

नवरात्र

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भारत में इसी मातृशक्ति की आराधना, उपासना साधना नवरात्रि उत्सव के रूप में की जाती है। सर्वज्ञातव्य है कि पृथ्वी गोल है और सूर्य का चक्कर बारह महिने में पूरा करती है। बारह महिनों के साथ बारह राशियों का भी चक पूरा होता है। पृथ्वी कोभूमध्य रेखा उत्तरी गोलार्द्ध तथा दक्षिणी गोलार्द्ध दो भागों में बाँटती है। सूर्य के दक्षिणायन एवं उत्तरायण के अनुसार एक वर्ष में दो नवरात्र आते हैं । सूर्य जब मीन राशि में होता है उसे मीनार्क अथवा चैत्र मास का नवरात्र कहते हैं तथा जब कर्क राशि में होता है तो उसे कन्यार्क अथवा आश्विन मास का नवरात्र कहते हैं। इसे शारदीय तथ ग्रीष्म के नवरात्र को बासन्तिक नवरात्र कहते हैं।

दोनों नवरात्र शुक्ल पक्ष की प्रतिपदा से नवमी तक मनाये जाने का नियम है ,जब चन्द्रमा बढ़ रहा हो । शक्ति दुर्गा की उपासना ,अराधना से बड़ी कोई पूजा नहीं । नवरात्र के समय शक्ति के वेग की धारा ,जो सृष्टि के उद्भव और विकास का कारण है ,अत्यधिक तीव्र हो जाती है । वेदों ,पुराणों में नवरात्र की महिमा गाई गई है ।’ शक्ति संगम तन्त्र ‘ में नवरात्र के महत्व को भगवान सदाशिव और भगवती शिवा के पारस्परिक वार्तालाप से निरूपित किया गया है । ‘ एक बार भगवती शिवा ने भगवान शिव से जिज्ञासा प्रकट की :-भगवन ! नवरात्र की महिमा क्या है ,क्या आप बताने का कष्ट करेंगे ? तब शिवजी ने स्पष्ट किया था :-

” नव शक्तिभिः संयुक्तं नवरात्रं तदुच्चयते ।

एकैव देव-देवेशि ! नवधा परितिष्ठता ।। “

नवरात्र में प्रयुक्त ‘ नव ‘ शब्द ‘ नौ ‘ संख्या का प्रतीक है और ‘ रात्र ‘ शब्द ‘ रात ‘ का पर्याय है। तात्पर्य यह है कि ‘नवानां रात्रीणां समाहार नवरात्र ‘ । ‘मार्कडेय पुराण’ में इन नौ शक्तियों के नामों का वर्णन है। धार्मिक ग्रंथों में उल्लेख किया गया है कि नवरात्र ‘ नवअहोरात्र ‘ का प्रतीक है अर्थात जो नौ दिन और नौ रातों तक चले ,वही नवरात्र है ।

पुराणों में उल्लेख है कि देवताओं और असुरों में लम्बे समय तकयुद्ध होता रहा। कभी देवता विजयी होते और कभी असुर । जब युद्ध समाप्ति की कोईआशा नहीं दिखी और देवताओं का पक्ष डाँवाडोल होने लगा तब देवताओं ने महाशक्ति देवीदुर्गा की शरण ली । तब भगवती दुर्गा ने नौ अवतार लेकर नौ दिनों तक असुरों से युद्धकरउनका विनाश किया । युद्ध के इन नौ दिनों में भगवती ने जो नौ रूप धारण किये ,उन्हींरूपों की आराधना नवरात्र के नौ दिनों में सनातन परम्परा के रूप में प्रचलित हुई जो आजभी स्तुत्य है ।कल्याण का प्रत्येक कार्य ,करूणा का प्रत्येक चिन्तन और निस्पृहता कीप्रत्येक उच्छवास माँ दुर्गा का ही नमन है क्योंकि माँ समूचे जगत की अधिष्ठात्री है ,वंदनीय है। कहा भी गया है कि-

” सर्व रूपमयी देवी सर्व देवी मयं जगत् ।

अतो हं विश्वरूपां तां नमामि परमेश्वरीम् ।। “

भगवती दुर्गा ने स्वयं कहा है :-‘नवरात्र के काल में जो सच्ची आस्था ,भक्ति और भावना से मेरी पूजा ,उपासना आराधना या साधना करेगा मैं उसके समस्त पाप,ताप एवं कलुषता को तिरोहित कर उसे निर्मल आनन्द प्रदान करूँगी ,साथ ही उसकी रक्षा करूँगी ।

नवशक्तियां इस प्रकार से हैं -“

प्रथम शैलपुत्री च द्वितीयं ब्रह्मचारिणी ।

तृतीयं चन्द्रघण्टेती कूष्माण्डेति चतुर्थकम् ।।

पंचमं स्कन्दमातेति षष्ठं कात्यायनीति च ।

सप्तमं कालरात्रीति महागौरीति चाष्टमम् ।।

नवमं सिद्धिदात्री च नवदुर्गाः प्रकीर्तिताः ।

“अर्थात्- ‘पहली- हिमालय को तपस्या से प्राप्त पार्वती जी शैलपुत्री हैं । दूसरी-ब्रह्मस्वरूप को प्राप्त करने वाली ब्रह्मचारिणी हैं । तीसरी- परम प्रसन्नता देने वाली ,चन्द्रमा जिनके घण्टा में स्थित है ,वह चन्द्रघण्टा देवी हैं । चौथी- तीनों प्रकार के तापों वाले संसार को अपने उदर में धारण करने वाली कूष्माण्डा हैं । पांचवी- स्कन्ददेव कीमाता होने के कारण स्कन्दमाता हैं । छठी- देवताओं के कार्य सिद्धि के लिये कत्यायनऋषि के आश्रम पर प्रकट होने के कारण कात्यायनी हैं । सातवीं- काल की भी काल होनेके कारण कालरात्रि हैं । आठवीं- अत्यन्त गौर स्वरूपा होने के कारण महागौरी हैं । नवीं-सब प्रकार की सिद्धियाँ देने वाली सिद्धिदात्री हैं।

शैलपुत्री

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अनंत शक्तियों से संपन्न हैं नवरात्रि की पहली देवी मां शैलपुत्री का स्वरूप

वन्दे वांच्छितलाभाय चंद्रार्धकृतशेखराम्‌ ।

वृषारूढ़ां शूलधरां शैलपुत्रीं यशस्विनीम्‌ ॥

मां दुर्गा को सर्वप्रथम शैलपुत्री के रूप में पूजा जाता है। पर्वतराज अर्थात शैलराज हिमालय के वहां पुत्री के रूप में जन्म लेने के कारण उनका नामकरण हुआ शैलपुत्री। इनका वाहन वृषभ है, इसलिए यह देवी वृषारूढ़ा के नाम से भी जानी जाती हैं। इस देवी ने दाएं हाथ में त्रिशूल धारण कर रखा है और बाएं हाथ में कमल सुशोभित है। माँ भगवती अपने पूर्व जन्म में दक्ष प्रजापति की कन्या के रूप में जन्मी थीं और सती की संज्ञा से सम्मानित हुई । शैलपुत्री माँ अनन्त शक्तियों की स्वामिनी हैं और शुभत्व प्रदायनी हैं।

माता के बारे वर्णन देवी भागवत पुराण और मार्कंडेय ऋषि द्वारा रचित मार्कंडेय पुराण के देवी महात्म्य में भी किया गया है। जिसे चार सौ से पांच सौ ईसा पूर्व में लिपिबद्ध किया गया था। बौद्ध और जैन ग्रंथों और कई तांत्रिक ग्रंथों, विशेष रूप से 10वीं शताब्दी में रचिल कालिका पुराण में भी इसका उल्लेख मिलता है।

आराधना मंत्र :

मंत्र :वन्दे वांछितलाभाय चन्दार्धकृतशेखराम्।

वृषारूढां शूलधरां शैलपुत्रीं यशस्विनीम्।

शैलपुत्री समस्त वन्य जीव-जंतुओं की रक्षक हैं। शैलपुत्री के अधीन वे समस्त भक्तगण आते हैं जो योग साधना, तप और अनुष्ठान के लिए पर्वतराज हिमालय की शरण लेते हैं। यही माता वैष्णव देवी, कामाख्या, सप्तपीठ और दक्षिण भारत के विभिन्न अंचलों में सदैव विराजमान रहती हैं।

सौन्दर्य की प्रतिमूर्ति- शैलपुत्री या जगदम्बा अद्वितीय सौंदर्य से युक्तथी ऐसा धूभ्र लोचन के वक्तव्य से पता चलता है। दूतरूप में जब वह शुम्भ कासंदेश लेकर उनके पास जाता है तो वहाँ (हिमालय की) तत्नहटी में सुशोभितःतपाये गये स्वर्ण की कान्ति के समान शोभावाली, खिलते हुए कमल के समानविस्तृत नेत्रों वाली, खिले हुए मुखरूपी कमल वाली, महान पराक्रम युक्त उसजगदश्विरी को देखकर वह मानों क्षण-भर के लिए सब कुछ भूल गया।

नवदुर्गा वास्तव में 9 औषधियां हैंदुर्गाकवच में लिखा है ये रहस्य- मार्कण्डेय चिकित्सा पद्धति के अनुसार प्रथम शैलपुत्री (हरड़)- प्रथम रूप शैलपुत्री माना गया है। इस भगवती देवी शैलपुत्री को हिमावती हरड़ कहते हैं। यह आयुर्वेद की प्रधान औषधि है जो सात प्रकार की होती है। हरीतिका (हरी) जो भय को हरने वाली है। पथया- जो हित करने वाली है। कायस्थ- जो शरीर को बनाए रखने वाली है। अमृता (अमृत के समान), हेमवती (हिमालय पर होने वाली), चेतकी- जो चित्त को प्रसन्न करने वाली है। श्रेयसी (यशदाता) व शिवा- कल्याण करने वाली।

नवरात्र के इस प्रथम दिन की उपासना में साधक अपने मन को मूलाधार’ चक्र में स्थित करते हैं- योगियों का मानना है कि नवरात्रि के नौ दिनों में शरीर के 9 चक्र जागृत होते हैं यदि साधक भलीभांति साधना कर रहा हो। आइए जानते हैं कि नवरात्रि का पहला दिन किस माता का है और आध्यात्मिक रूप से यह कैसे महत्वपूर्ण है।

नवरात्रि का पहला दिन समर्पित है मां शैलपुत्री को, जिनका स्वरूप बेहद सौम्य और कोमल माना गया है। क्या आपको पता है कि मां शैलपुत्री की आराधना क्यों की जाती है? ऐसी मान्यता है कि मां शैलपुत्री की पूजा करने से हमारा मन पर्वत की तरह अडिग बनता है। माता शैलपुत्री हिमालय की पुत्री हैं इसीलिए इनकी आराधना करने से मन को हिमालय जैसी स्थिरता मिलती है। माता शैलपुत्री की आराधना हमारे शरीर से भी जुड़ी है। हमारे शरीर में मुख्यत: 9 चक्र हैं।

इन चक्रों का जागृत होना हमारे लिए बहुत उपयोगी होता है। मां शैलपुत्री की आराधना के दिन हम शरीर के मूलाधार चक्र को जागृत करने की कोशिश करते हैं। इससे हमारे अंदर सुरक्षा की भावना और प्रबल हो जाती है साथ ही हमारी मौलिक क्षमता का भी विकास होता है। नवरात्रि के पहले दिन यदि कोई माता शैलपुत्री के मंत्र के उच्चारण के साथ आराधना करता है तो साधक को इस पूजा का फल जरूर प्राप्त होता है। मंत्रों की ध्वनि शरीर के चक्रों पर भी प्रभाव डालती है इसलिए इस दिन मंत्रोच्चारण अवश्य करें।

ब्रह्मचारिणी

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नवरात्रि के दूसरे दिन भगवती दुर्गा के द्वितीय स्वरूप ब्रह्मचारिणी की उपासना अराधना का प्राविधान है । इन भगवती देवी का स्वरूप पूर्ण ज्योर्तिमय एवं भव्य है। इनके बॉयें हाथ में कमण्डल एवं दाहिने हाथ में जप की माला सुशोभित रहती है। देवी ब्रह्मचारिणी की उपासना से तप, त्याग, वैराग्य, सदाचार, संयम की वृद्धि होती है। मां ब्रह्मचारिणी की कृपा से मनुष्य को सर्वत्र सिद्धि और विजय की प्राप्ति होती है, तथा जीवन की अनेक समस्याओं एवं परेशानियों का नाश होता है।

ब्रह्मचारिणी अर्थात् तप का आचरण करने वाली । ब्रह्म शब्द का यहाँ तात्पर्य ‘तपस्या ‘ से है । यह देवी पूर्व जन्म में हिमालाय के घर जन्मी थीं । इन्होंने शंकर जी को पति के रूप में प्राप्त करने के किये कठोर तपस्या की थी । कठोर तप के कारण देवी का शरीर सूखे पत्ते के समान हो गया किन्तु संकल्प इच्छा शक्ति और नियम व्रत लेकर वह शंकर जी की आराधना करती रहीं और उन्हें पति रूप में प्राप्त किया । माँ मैना से ‘उमा ‘ का संबोधन पा कर इनका एक नाम यह भी पड़ा और इसी नाम से भगवान शंकर उमापति हुये ।

आराधना मंत्र :

” दधाना करपद्माभ्यामक्षमालां कमण्डलम् ।

देवी प्रसीदतु मयि ब्रह्मचारिण्यनुन्तमा ।।

मां का स्वरूप : शिवपुराण और रामचरितमानस में लिखा है कि मां पार्वती ने भगवान शिव को पति रूप में प्राप्त करने के लिए एक हजार सालों तक फलों का सेवन कर तपस्या की थी, इसके पश्चात तीन हजार साल तक पेड़ों की पत्तियां खाकर तपस्या की, इतनी कठोर तपस्या के बाद इन्हें ब्रह्मचारिणी स्वरूप प्राप्त हुआ। इस कठिन तपस्या के कारण इस देवी को तपश्चारिणी अर्थात् ब्रह्मचारिणी नाम से अभिहित किया। उन्हें त्याग और तपस्या की देवी माना जाता है। मां ब्रह्मचारिणी के धवल वस्त्र हैं। उनके दाएं हाथ में अष्टदल की जपमाला और बाएं हाथ में कमंडल सुशोभित है।

मां दुर्गा की नौ शक्तियों में से द्वितीय शक्ति देवी ब्रह्मचारिणी का है। ब्रह्म का अर्थ है तपस्या और चारिणी यानी आचरण करने वाली अर्थात तप का आचरण करने वाली मां ब्रह्मचारिणी। देवी ब्रह्मचारिणी के दाहिने हाथ में अक्ष माला है और बाएं हाथ में कमण्डल होता है। इस देवी के कई अन्य नाम हैं जैसे तपश्चारिणी, अपर्णा और उमा। मां ब्रह्मचारिणी की कथा जीवन के कठिन क्षणों में भक्तों को सहारा देती है।

मां ब्रह्मचारिणी की कथा- पूर्वजन्म में इस देवी ने हिमालय के घर पुत्री रूप में जन्म लिया था और नारदजी के उपदेश से भगवान शंकर को पति रूप में प्राप्त करने के लिए घोर तपस्या की थी. इस कठिन तपस्या के कारण इन्हें तपश्चारिणी अर्थात्‌ ब्रह्मचारिणी नाम से जाना गया. एक हजार वर्ष तक इन्होंने केवल फल-फूल खाकर बिताए और सौ वर्षों तक केवल जमीन पर रहकर शाक पर निर्वाह किया.

कुछ दिनों तक कठिन उपवास रखे और खुले आकाश के नीचे वर्षा और धूप के घोर कष्ट सहे. तीन हजार वर्षों तक टूटे हुए बिल्व पत्र खाए और भगवान शंकर की आराधना करती रहीं. इसके बाद तो उन्होंने सूखे बिल्व पत्र खाना भी छोड़ दिए. कई हजार वर्षों तक निर्जल और निराहार रह कर तपस्या करती रहीं. पत्तों को खाना छोड़ देने के कारण ही इनका नाम अपर्णा नाम पड़ गया. कठिन तपस्या के कारण देवी का शरीर एकदम क्षीण हो गया. देवता, ऋषि, सिद्धगण, मुनि सभी ने ब्रह्मचारिणी की तपस्या को अभूतपूर्व पुण्य कृत्य बताया, सराहना की और कहा- हे देवी आज तक किसी ने इस तरह की कठोर तपस्या नहीं की. यह आप से ही संभव थी. आपकी मनोकामना परिपूर्ण होगी और भगवान चंद्रमौलि शिवजी तुम्हें पति रूप में प्राप्त होंगे. अब तपस्या छोड़कर घर लौट जाओ. जल्द ही आपके पिता आपको लेने आ रहे हैं. मां की कथा का सार यह है कि जीवन के कठिन संघर्षों में भी मन विचलित नहीं होना चाहिए. मां ब्रह्मचारिणी देवी की कृपा से सर्व सिद्धि प्राप्त होती है.

देवी ब्रह्मचारिणी मंगल ग्रह को नियंत्रित करती हैं। देवी की पूजा से मंगल ग्रह के बुरे प्रभाव कम होते हैं।

नवदुर्गा वास्तव में 9 औषधियां हैंदुर्गाकवच में लिखा है ये रहस्य- मार्कण्डेय चिकित्सा पद्धति के अनुसार द्वितीय ब्रह्मचारिणी- प्रआयु व स्मरण शक्ति बढ़ाती है ब्राह्मी- मार्कण्डेय चिकित्सा पद्धति के अनुसार, दुर्गा का दूसरा रूप ब्रह्मचारिणी को ब्राह्मी कहा गया है। ब्राह्मी आयु को बढ़ाने वाली स्मरण शक्ति को बढ़ाने वाली, खून से संबंधित बीमारियों को दूर करने वाली के साथ-साथ स्वर को मधुर करने वाली है। ब्राह्मी को सरस्वती भी कहा जाता है। क्योंकि यह मन एवं मस्तिष्क में शक्ति प्रदान करती है। यह वायु विकार और मूत्र संबंधी रोगों की प्रमुख दवा है। यह मूत्र द्वारा रक्त विकारों को बाहर निकालने में समर्थ औषधि है। अत: इन रोगों से पीडि़त व्यक्ति ने ब्रह्मचारिणी की आराधना करना चाहिए।

चन्द्रघण्टा

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माँ दुर्गा की तीसरी शक्ति के रूप में भगवती चन्द्रघण्टा की आराधना नवरात्रि के तीसरे दिन करने का प्राविधान है । माँ का यह स्वरूप परम कल्याणकारी माना जाता है । चंद्रघंटा देवी के मस्तक पर घंटे के आकार का अर्ध चंद्रमा विराजमान है इसीलिये इनका नाम चंद्रघंटा पड़ा स्वर्ण की कांतिवाली इन माँ की दस भुजायें हैं जिनमें वाण ,गदा ,खड़ग तलवार आदि अस्त्र हैं । सिंहवाहिनी माँ युद्ध में जाने को तत्पर सी प्रतीत होती हैं । देवी चन्द्रघण्टा दयामयी,पाप-तापों का शमन करने वाली हैं । ऐसा माना जाता है कि देवी के इस रूप की पूजा करने से मन को अलौकिक शांति प्राप्त होती है और इससे न केवल इस लोक में अपितु परलोक में भी परम कल्याण की प्राप्ति होती है।

आराधना मन्त्र :

” पिण्डज प्रवरारूढ़ा चण्डकोपास्त्रकैर्युता ।

प्रसादं तनुते महयं चन्द्रघण्टेति विश्रुता ।। “

मां का स्वरूप :  इनके शरीर का रंग सोने के समान बहुत चमकीला है। इस देवी के दस हाथ हैं। वे खड्ग और अन्य अस्त्र-शस्त्र से विभूषित हैं। सिंह पर सवार इस देवी की मुद्रा युद्ध के लिए उद्धत रहने की है। इसके घंटे सी भयानक ध्वनि से अत्याचारी दानव-दैत्य और राक्षस काँपते रहते हैं। नवरात्रि में तीसरे दिन इसी देवी की पूजा का महत्व है। इस देवी की कृपा से साधक को अलौकिक वस्तुओं के दर्शन होते हैं। दिव्य सुगंधियों का अनुभव होता है और कई तरह की ध्वनियां सुनाईं देने लगती हैं। इन क्षणों में साधक को बहुत सावधान रहना चाहिए।

इस देवी की आराधना से साधक में वीरता और निर्भयता के साथ ही सौम्यता और विनम्रता का विकास होता है। इसलिए हमें चाहिए कि मन, वचन और कर्म के साथ ही काया को विहित विधि-विधान के अनुसार परिशुद्ध-पवित्र करके चंद्रघंटा के शरणागत होकर उनकी उपासना-आराधना करना चाहिए। इससे सारे कष्टों से मुक्त होकर सहज ही परम पद के अधिकारी बन सकते हैं। यह देवी कल्याणकारी है। देवी चंद्रघंटा शुक्र ग्रह को नियंत्रित करती हैं। देवी की पूजा से शुक्र ग्रह के बुरे प्रभाव कम होते हैं।

माता चंद्रघंटा की कथा- देवताओं और असुरों के बीच लंबे समय तक युद्ध चला. असुरों का स्‍वामी महिषासुर था और देवाताओं के इंद्र. महिषासुर ने देवाताओं पर विजय प्राप्‍त कर इंद्र का सिंहासन हासिल कर लिया और स्‍वर्गलोक पर राज करने लगा.

इसे देखकर सभी देवतागण परेशान हो गए और इस समस्‍या से निकलने का उपाय जानने के लिए त्र‍िदेव ब्रह्मा, विष्‍णु और महेश के पास गए. देवताओं ने बताया कि महिषासुर ने इंद्र, चंद्र, सूर्य, वायु और अन्‍य देवताओं के सभी अधिकार छीन लिए हैं और उन्‍हें बंधक बनाकर स्‍वयं स्‍वर्गलोक का राजा बन गया है. देवाताओं ने बताया कि महिषासुर के अत्‍याचार के कारण अब देवता पृथ्‍वी पर विचरण कर रहे हैं और स्‍वर्ग में उनके लिए स्‍थान नहीं है.यह सुनकर ब्रह्मा, विष्‍णु और भगवान शंकर को अत्‍यधिक क्रोध आया. क्रोध के कारण तीनों के मुख से ऊर्जा उत्‍पन्‍न हुई. देवगणों के शरीर से निकली ऊर्जा भी उस ऊर्जा से जाकर मिल गई. यह दसों दिशाओं में व्‍याप्‍त होने लगी.

तभी वहां एक देवी का अवतरण हुआ. भगवान शंकर ने देवी को त्र‍िशूल और भगवान विष्‍णु ने चक्र प्रदान किया. इसी प्रकार अन्‍य देवी देवताओं ने भी माता के हाथों में अस्‍त्र शस्‍त्र सजा दिए.

इंद्र ने भी अपना वज्र और ऐरावत हाथी से उतरकर एक घंटा दिया. सूर्य ने अपना तेज और तलवार दिया और सवारी के लिए शेर दिया.

देवी अब महिषासुर से युद्ध के लिए पूरी तरह से तैयार थीं. उनका विशालकाय रूप देखकर महिषासुर यह समझ गया कि अब उसका काल आ गया है. महिषासुर ने अपनी सेना को देवी पर हमला करने को कहा. अन्‍य देत्‍य और दानवों के दल भी युद्ध में कूद पड़े. देवी ने एक ही झटके में ही दानवों का संहार कर दिया. इस युद्ध में महिषासुर तो मारा ही गया, साथ में अन्‍य बड़े दानवों और राक्षसों का संहार मां ने कर दिया. इस तरह मां ने सभी देवताओं को असुरों से अभयदान दिलाया.

नवदुर्गा वास्तव में 9 औषधियां हैंदुर्गाकवच में लिखा है ये रहस्य- मार्कण्डेय चिकित्सा पद्धति के अनुसार तृतीय चंद्रघंटा-  ये है देवी चंद्रघंटा का औषधि स्वरूप- दुर्गा का तीसरा रूप है चंद्रघंटा, इसे चनदुसूर या चमसूर कहा गया है। यह एक ऐसा पौधा है जो धनिये के समान है। (इस पौधे की पत्तियों की सब्जी बनाई जाती है)। ये कल्याणकारी है। इस औषधि से मोटापा दूर होता है। इसलिए इसको चर्महन्ती भी कहते हैं। शक्ति को बढ़ाने वाली, खत को शुद्ध करने वाली एवं हृदयरोग को ठीक करने वाली चंद्रिका औषधि है। अत: इस बीमारी से संबंधित रोगी को चंद्रघंटा की पूजा करनी चाहिए।

कूष्मांडा

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देवी भाग्वत् पुराण में बताया गया है कि इस दिन मां दुर्गा की पूजा कूष्मांडा रूप में करनी चाहिए। देवी कूष्मांडा आदिशक्ति का चौथा स्वरूप हैं। मां कूष्माण्डा की उपासना से भक्तों के समस्त रोग-शोक मिट जाते हैं। इनकी भक्ति से आयु, यश, बल और आरोग्य की वृद्धि होती है। मां कूष्माण्डा अत्यल्प सेवा और भक्ति से प्रसन्न होने वाली हैं। इनकी आराधना करने से भक्तों को तेज, ज्ञान, प्रेम, उर्जा, वर्चस्व, आयु, यश, बल,आरोग्य और संतान का सुख प्राप्त होता है। इनको साधने से भक्तों के सभी प्रकार के रोग, शोक, पीड़ा, व्याधि समाप्त होती है तथा हृदय में शुद्ध रक्त का संचार होता है। मां कूष्माण्डा की साधना या उपासना करने से शारीरिक कष्ट समाप्त होते हैं। यदि मनुष्य सच्चे हृदय से इनका शरणागत बन जाए तो फिर उसे अत्यन्त सुगमता से परम पद की प्राप्ति हो सकती है।

आराधना मन्त्र :

” सुरा सम्पूर्ण कलशं रूधिराप्लुतमेव च ।

दधाना हस्तपद्माभ्यां कूष्माण्डा शुभदास्तु मे ।।”

मां का स्वरूप : देवी कूष्मांडा की आठ भुजाएं हैं, जिनमें कमंडल, धनुष-बाण, कमल पुष्प, शंख, चक्र, गदा और सभी सिद्धियों को देने वाली जपमाला है। इन सब के इनके अलावा हाथ में अमृत कलश भी है। इनका वाहन सिंह है। मान्यता है इनकी भक्ति से आयु, यश और आरोग्य की वृद्धि होती है।

मां कूष्मांड़ा की कथा – सृष्टि की उत्पत्ति करने वाली देवी कूष्मांडा को आदिशक्ति के रूप में जाना जाता है। देवी भाग्वत् पुराण में बताया गया है कि प्रलय से लेकर सृष्टि के आरंभ तक चारों ओर अंधकार ही अंधकार था और सृष्टि बिल्कुल शून्य थी तब आदिशक्ति मां दुर्गा ने अपनी हल्की हंसी के द्वारा ब्रह्मांड(अंड) को उत्पन्न करने के कारण इनका नाम कुष्मांडा हुआ। ये अनाहत चक्र को नियंत्रित करती हैं। मां की आठ भुजाएं हैं। अतः ये अष्टभुजा देवी के नाम से भी विख्यात हैं। संस्कृत भाषा में मां कुष्मांडा को कुम्हड़ कहते हैं और इन्हें कुम्हड़ा विशेष रूप से प्रिय है। ज्योतिष में इनका संबंध बुध नामक ग्रह से है।

नवदुर्गा वास्तव में 9 औषधियां हैं, दुर्गाकवच में लिखा है ये रहस्य- मार्कण्डेय चिकित्सा पद्धति के अनुसार चतुर्थ कुष्माण्डा-  कुम्हड़ा है देवी का चतुर्थ स्वरूप- दुर्गा का चौथा रूप कुष्माण्डा है। इन देवी से संबंधित औषधि कुम्हड़ा है। इससे पेठा मिठाई बनती है। इसलिए इस रूप को पेठा कहते हैं। यह रक्त के विकार को ठीक करता है एवं पेट को साफ करता है। मानसिक रूप से कमजोर व्यक्ति के लिए यह अमृत है। यह शरीर के समस्त दोषों को दूर कर हृदय रोग को ठीक करता है।

स्कंदमाता

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मां दुर्गा का पंचम रूप स्कंदमाता के रूप में जाना जाता है। भगवान स्कंद कुमार [कार्तिकेय] की माता होने के कारण दुर्गा जी के इस पांचवें स्वरूप को स्कंद माता नाम प्राप्त हुआ है। स्कन्द पुराण के मूल उपदेष्टा कुमार कार्तिकेय (स्कन्द) ही हैं।

आराधना मन्त्र :-

” सिंहासन गता नित्यं पद्माचित कर द्वया ।

शुभ दास्तु सदा देवी स्कंदमाता यशस्विनी ।। “

मां का स्वरूप : स्कंदमाता की चार भुजाएं हैं। इनके दाहिनी तरफ की नीचे वाली भुजा, जो ऊपर की ओर उठी हुई है, उसमें कमल पुष्प है। बाईं तरफ की ऊपर वाली भुजा में वरमुद्रा में तथा नीचे वाली भुजा जो ऊपर की ओर उठी है उसमें भी कमल पुष्प ली हुई हैं। इनका वर्ण पूर्णत: शुभ्र है। ये कमल के आसन पर विराजमान रहती हैं। इसी कारण इन्हें पद्मासना देवी भी कहा जाता है। सिंह भी इनका वाहन है।

देवी स्कंदमाता बुध ग्रह को नियंत्रित करती हैं। देवी की पूजा से बुध ग्रह के बुरे प्रभाव कम होते हैं।

मां स्कंदमाता की कथा- भगवान स्कंद जी बालरूप में माता की गोद में बैठे होते हैं इस दिन साधक का मन विशुद्ध चक्र में अवस्थित होता है। स्कंद मातृस्वरूपिणी देवी की चार भुजाएं हैं, ये दाहिनी ऊपरी भुजा में भगवान स्कंद को गोद में पकड़े हैं और दाहिनी निचली भुजा जो ऊपर को उठी है, उसमें कमल पकडा हुआ है। मां का वर्ण पूर्णत: शुभ्र है और कमल के पुष्प पर विराजित रहती हैं। इसी से इन्हें पद्मासना की देवी और विद्यावाहिनी दुर्गा देवी भी कहा जाता है।

इनका वाहन भी सिंह है। स्कंदमाता सूर्यमंडल की अधिष्ठात्री देवी है। इनकी उपासना करने से साधक अलौकिक तेज की प्राप्ति करता है। यह अलौकिक प्रभामंडल प्रतिक्षण उसके योगक्षेम का निर्वहन करता है। एकाग्रभाव से मन को पवित्र करके मां की स्तुति करने से दु:खों से मुक्ति पाकर मोक्ष का मार्ग सुलभ होता है।

नवदुर्गा वास्तव में 9 औषधियां हैं, दुर्गाकवच में लिखा है ये रहस्य- मार्कण्डेय चिकित्सा पद्धति के अनुसार पंचम स्कंदमाता-  अलसी है स्कंदमाता का औषधि स्वरूप- दुर्गा का पांचवां रूप स्कंद माता है। इसे पार्वती एवं उमा भी कहते हैं। यह औषधि के रूप में अलसी के रूप में जानी जाती है। यह वात, पित्त, कफ, रोगों की नाशक औषधि है।

अलसी नीलपुष्पी पार्वती स्यादुमा क्षुमा।

अलसी मधुरा तिक्ता स्त्रिग्धापाके कदुर्गरु:।।

उष्णा दृष शुकवातन्धी कफ पित्त विनाशिनी।

वात, पित्त व कफ से प्रभावित लोगों को स्कंदमाता की पूजा करनी चाहिए।

कात्यायनी

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भगवती दुर्गा के छठे रूप का नाम कात्यायनी है । इस देवी को नवरात्रि में छठे दिन पूजा जाता है। कात्य गोत्र में विश्वप्रसिद्ध महर्षि कात्यायन ने भगवती पराम्बा की उपासना की। कठिन तपस्या की। उनकी इच्छा थी कि उन्हें पुत्री प्राप्त हो। मां भगवती ने उनके घर पुत्री के रूप में जन्म लिया। इसलिए यह देवी कात्यायनी कहलाईं।

आराधना मन्त्र :

” चन्द्रहासोज्ज्वलकरा शार्दूलवरवाहना ।

कात्यायनी शुभं दद्यात् देवी दानवघातिनी ।। “

मां का स्वरूप : भगवती कात्यायनी का स्वरूप अत्यन्त भव्य एवं दिव्य है । इनका वाहन सिंह है और इनके चार हाथ हैं । माँ के दो हाथ वरमुद्रा एवं अभयमुद्रा में हैं और तीसरे हाथ में कमल और चौथे में खड्ग शोभायमान है । माँ धर्म , अर्थ ,काम मोक्ष प्रदायिनी हैं । शत्रु पीड़ा से मुक्ति दिलाने में इन भगवती से बढ़कर कोई और नहीं ।

देवी कात्यायनी बृहस्पति ग्रह को नियंत्रित करती हैं। देवी की पूजा से बृहस्पति के बुरे प्रभाव कम होते हैं।

मां कात्यायनी की कथा – इस देवी को नवरात्रि में छठे दिन पूजा जाता है। भगवान कृष्ण को पति रूप में पाने के लिए ब्रज की गोपियों ने इन्हीं की पूजा की थी। यह पूजा कालिंदी यमुना के तट पर की गई थी। इसीलिए ये ब्रजमंडल की अधिष्ठात्री देवी के रूप में प्रतिष्ठित हैं। इनका स्वरूप अत्यंत भव्य और दिव्य है। ये स्वर्ण के समान चमकीली हैं और भास्वर हैं।  इनकी चार भुजाएं हैं। दाईं तरफ का ऊपर वाला हाथ अभयमुद्रा में है तथा नीचे वाला हाथ वर मुद्रा में। मां के बाईं तरफ के ऊपर वाले हाथ में तलवार है व नीचे वाले हाथ में कमल का फूल सुशोभित है। इनका वाहन भी सिंह है। इनकी उपासना और आराधना से भक्तों को बड़ी आसानी से अर्थ, धर्म, काम और मोक्ष चारों फलों की प्राप्ति होती है। उसके रोग, शोक, संताप और भय नष्ट हो जाते हैं। जन्मों के समस्त पाप भी नष्ट हो जाते हैं। इसलिए कहा जाता है कि इस देवी की उपासना करने से परम पद की प्राप्ति होती है।

नवदुर्गा वास्तव में 9 औषधियां हैं, दुर्गाकवच में लिखा है ये रहस्य- मार्कण्डेय चिकित्सा पद्धति के अनुसार षष्ठ कात्यायनी –  मोइया है कात्यायनी का औषधि स्वरूप- दुर्गा का छठा रूप कात्यायनी है। मोइया देवी दुर्गा के इस रूप से संबंधित औषधिक है। इसे आयुर्वेद में कई नामों से जाना जाता है। जैसे अम्बा, अम्बालिका, अम्बिका माचिका भी कहते हैं। यह कफ, पित्त, अधिक विकार एवं कंठ के रोग का नाश करती है। इन समस्याओं से पीड़ित रोगी को माता कात्यायनी की पूजा करनी चाहिए।

 

कालरात्रि

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माँ दुर्गा की सातवीं शक्ति कालरात्रि के नाम से जानी जाती है । जैसा उनका नाम है, वैसा ही उनका रूप है। खुले बालों में अमावस की रात से भी काली, मां कालरात्रि की छवि देखकर ही भूत-प्रेत भाग जाते हैं। मां वर्ण काला है। खूले बालों वाली यह माता गर्दभ पर बैठी हुई है। इनकी श्वास से भयंकर अग्नि निकलती है। इतना भयंकर रूप होने के बाद भी वे एक हाथ से भक्तों को अभय दे रही है। मधु कैटभ को मारने में मां का ही योगदान था। मां का भय उत्पन्न करने वाला रूप केवल दुष्टों के लिए है। अपने भक्तों के लिए मां अंत्यंत ही शुभ फलदायी है। कई जगह इन्हें शुभकंरी नाम से भी जाना जाता है।

आराधना मन्त्र :

करालरूपा कालाब्जा समानाकृति विग्रह ।

कालरात्रि शुभं दधाद् देवी चण्डाट्टहासिनी ।।”

मां का स्वरूप : इनके शरीर का रंग घने अंधकार की भॉति काला है । सिर के बाल बिखरे हुये हैं । गले में विद्युत की भाँति चमकने वाली माला है । यह त्रिनेत्र देवी हैं । इनके तीनों नेत्र ब्रह्माण्ड के सदृश्य गोल हैं । जिनसे विद्युत के समान चमकीली किरणें निकलती रहती हैं । इनकी नासिका की श्वास–प्रश्वास से अग्नि की भयंकर ज्वालायें निकलती रहती हैं । इनका वाहन गर्दभ (गदहा) है । यह चतुर्भुजी भवानी हैं । इनके एक हाथ में खड्ग ,दूसरे में लोहे का काँटा है और तीसरे व चौथे हाथ वरद मुद्रा व अभय मुद्रा में हैं । इनके गले में नरमुण्डों की माला है । शमशान इनका निवास स्थान है । रक्तबीज दैत्य का वध करने के कारण यह ‘रक्तदंतिका ‘ कहलाई । माँ कालरात्रि का स्वरूप देखने में तो भयावह है किन्तु यह देवी अत्यन्त दयालू एवं सदैव शुभ फल देने वाली हैं । इसी कारण इनका एक नाम ‘ शुभंकरी ‘ भी है । माँ कालरात्रि दुष्टों का दमन करने वाली हैं । दानव ,दैत्य ,राक्षस भूत-प्रेतादि इनके स्मरण मात्र से ही भयभीत होकर भाग जाते हैं । इनकी आराधना में यम नियम और संयम आवश्यक है।

देवी कालरात्रि शनि ग्रह को नियंत्रित करती हैं। देवी की पूजा से शनि के बुरे प्रभाव कम होते हैं।

मां कालरात्रि की कथा- कथा के अनुसार दैत्य शुंभ-निशुंभ और रक्तबीज ने तीनों लोकों में हाहाकार मचा रखा था। इससे चिंतित होकर सभी देवतागण शिव जी के पास गए। शिव जी ने देवी पार्वती से राक्षसों का वध कर अपने भक्तों की रक्षा करने को कहा। शिव जी की बात मानकर पार्वती जी ने दुर्गा का रूप धारण किया और शुंभ-निशुंभ का वध कर दिया। परंतु जैसे ही दुर्गा जी ने रक्तबीज को मारा उसके शरीर से निकले रक्त से लाखों रक्तबीज उत्पन्न हो गए। इसे देख दुर्गा जी ने अपने तेज से कालरात्रि को उत्पन्न किया। इसके बाद जब दुर्गा जी ने रक्तबीज को मारा तो उसके शरीर से निकलने वाले रक्त को कालरात्रि ने अपने मुख में भर लिया और सबका गला काटते हुए रक्तबीज का वध कर दिया।

नवदुर्गा वास्तव में 9 औषधियां हैं, दुर्गाकवच में लिखा है ये रहस्य- मार्कण्डेय चिकित्सा पद्धति के अनुसार सप्तम कालरात्रि-  कालरात्रि का औषधि रूप है नागदौन- दुर्गा का सप्तम रूप कालरात्रि है जिसे महायोगिनी, महायोगीश्वरी कहा गया है। यह नागदौन औषधि के रूप में जानी जाती हैं। सभी प्रकार के रोगों की नाशक सर्वत्र विजय दिलाने वाली मन एवं मस्तिष्क के समस्त विकारों को दूर करने वाली औषधि है।

इस पौधे को व्यक्ति अपने घर में लगा ले तो घर के सारे कष्ट दूर हो जाते हैं। यह सुख देने वाली एवं सभी विषों की नाशक औषधि है। इसलिए कालरात्रि की पूजा हर व्यक्ति को करनी चाहिए।

महागौरी

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नवरात्रि की आठवीं शक्ति का नाम महागौरी है । इनका स्वरूप पूर्णतः गौर है । इनके वस्त्र आभूषण भी श्वेत हैं । नवरात्रि में आठवें दिन महागौरी शक्ति की पूजा की जाती है। नाम से प्रकट है कि इनका रूप पूर्णतः गौर वर्ण है। इनकी उपमा शंख, चंद्र और कुंद के फूल से दी गई है।

आराधना मन्त्र :

” श्वेते वृष समारूढ़ा श्वेताम्बरा धरा शुचिः ।

महागौरी शुभं दद्यान्महादेव प्रमोद दा ।। “

मां का स्वरूप : मां की वर्ण पूर्णत: गौरवर्ण है। इनके गौरता की उपमा शंख, चन्द्र और कुन्द के फूल से दी जाती है। आठ वर्षीय महागौरी के समस्त वस्त्र तथा आभूषण आदि भी श्वेत हैं। चतुर्हस्तिनी माँ का एक हाथ अभय मुद्रा में है व दूसरे में त्रिशूल सुशोभित है । तीसरा हाथ वर की मुद्रा में तथा चौथे में डमरू है । इनका वाहन वृषभ है । इनकी मुद्रा अत्यन्त शान्त है । अपने पार्वती रूप में इन्होंने भगवान शिव को पति रूप में प्राप्त करने के लिये बड़ी कठोर तपस्या की थी जिसके कारण इनका शरीर एकदम काला पड़ गया था । इनकी तपस्या से प्रसन्न भगवान शिव ने जब इनके शरीर पर गंगा जी के पवित्र जल की वर्षा की तब वह विद्युत प्रभा के समान अत्यन्त कांतिमान और गौर हो उठीं । तभी से इनका नाम महागौरी पड़ा । दुर्गा पूजा के आठवें दिन महागौरी की उपासना का प्राविधान है । इनकी शक्ति अमोघ और सद्यः फलदायिनी है। इनकी उपासना से भक्तों के समस्त कल्मष धुल जाते हैं ।

देवी महागौरी राहु ग्रह को नियंत्रित करती हैं। देवी की पूजा से राहु के बुरे प्रभाव कम होते हैं।

मां महागौरी की कथा- कहा जाता है कि भगवान शिव को पति के रूप में प्राप्त करने के लिए इन्होंने कठोर तपस्या की थी, जिससे इनका शरीर काला पड़ गया। इनकी कठोर तपस्या से महादेव प्रसन्न हो गए और इनकी प्रार्थना स्वीकार कर ली। इनके शरीर का रंग तपस्या से काला हो जाने के कारण महादेव ने इन्हें गंगाजल से धोया तो ये फिर से गौर रंग वाली हो गईं। इसी कारण इनका नाम गौरी पड़ गया। इसी कारण कहा जाता है कि अष्टमी के दिन व्रत रखने से भक्तों को उनका मनचाहा जीवनसाथी मिलता है। महागौरी की एक अन्य कथा भी प्रचलित है। इसके अनुसार जब मां उमा जंगल में तपस्या कर रही थीं, तभी एक शेर वन में भूखा घूम रहा था। खाने की तलाश में वहां पहुंचा जहां मां तपस्या में लीन थी। देवी को देखकर शेर की भूख बढ़ गई और शेर उनके तपस्या पूरी करने का इंतजार करने लगा। इस इंतजार में वह काफी कमजोर हो गया। देवी जब तप से उठी तो शेर की दशा देखकर उन्हें उस पर बहुत दया आई। मां ने उसे अपनी सवारी ली और एक प्रकार से उसने भी मां के साथ तपस्या की थी। इसलिए देवी महागौरी का वाहन बैल और सिंह दोनों ही हैं।

नवदुर्गा वास्तव में 9 औषधियां हैं, दुर्गाकवच में लिखा है ये रहस्य- मार्कण्डेय चिकित्सा पद्धति के अनुसार अष्टम महागौरी-  महागौरी का रूप है तुलसी- दुर्गा का अष्टम रूप महागौरी है। इन देवी का औषधि स्वरूप तुलसी है, जो प्रत्येक घर में लगाई जाती है। तुलसी 7 प्रकार की होती है। सफेद तुलसी, काली तुलसी, मरुता, दवना, कुढेरक, अर्जक, षटपत्र। ये सभी प्रकार की तुलसी खून को साफ करती है। रक्त शोधक है एवं हृदय रोग का नाश करती है।

तुलसी सुरसा ग्राम्या सुलभा बहुमंजरी।

अपेतराक्षसी महागौरी शूलघ्नी देवदुन्दुभि:।

तुलसी कटुका तिक्ता हुध उष्णाहाहपित्तकृत्।

मरुदनिप्रदो हध तीक्षणाष्ण: पित्तलो लघु:।

इस देवी की आराधना हर सामान्य एवं रोगी व्यक्ति को करनी चाहिए।

 

सिद्धिदात्री

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मां दुर्गाजी की नौवीं शक्ति का नाम सिद्धिदात्री हैं। जैसा कि नाम से स्पष्ट है कि माता सिद्धिदात्री अपने भक्तों को सभी प्रकार की सिद्धियां देती है। नवरात्रि के आखिरी तीन दिन माता सरस्वती को समर्पित होते हैं। माता सिद्धिदात्री को माता सरस्वती का रूप भी माना जाता है।

आराधना मन्त्र :-

” सिद्ध गंधर्व यक्षाद्यैः असुरैरमरैपि ।

ॐ सिद्धिदात्री देव्यै नमः 

मां का स्वरूप :  माता सिद्धिदात्री का स्वरूप बहुत सौम्य और आकर्षक है। उनके चार हाथ हैं। एक हाथ में चक्र, एक हाथ में गदा, एक हाथ में कमल का फूल और एक हाथ में शंख लिया हुआ है। माता की आराधना करने से सभी प्रकार के ज्ञान सुलभता से मिल जाते हैं।  माता की आराधना करने वालों को कभी कोई कष्ट नहीं होता है। यह नवरात्रि का आखिरी दिन है। इसके बाद का दिन दशहरा मनाया जाता है।

देवी सिद्धिदात्री केतु ग्रह को नियंत्रित करती हैं। देवी की पूजा से केतु के बुरे प्रभाव कम होते हैं।

मां सिद्धिदात्री की कथा- मार्कण्डेय पुराण के अनुसार अणिमा, महिमा, गरिमा, लघिमा, प्राप्ति, प्राकाम्य, ईशित्व और वशित्व- ये आठ सिद्धियां होती हैं। ब्रह्मवैवर्तपुराण के श्रीकृष्ण जन्म खंड में यह संख्या अठारह बताई गई है।

इनके नाम इस प्रकार हैं –

  1. अणिमा 2. लघिमा 3. प्राप्ति 4. प्राकाम्य 5. महिमा 6. ईशित्व,वाशित्व 7. सर्वकामावसायिता 8. सर्वज्ञत्व 9. दूरश्रवण 10. परकायप्रवेशन 11. वाक्‌सिद्धि 12. कल्पवृक्षत्व 13. सृष्टि 14. संहारकरणसामर्थ्य 15. अमरत्व 16. सर्वन्यायकत्व 17. भावना 18. सिद्धि

मां सिद्धिदात्री भक्तों और साधकों को ये सभी सिद्धियां प्रदान करने में समर्थ हैं। देवीपुराण के अनुसार भगवान शिव ने इनकी कृपा से ही इन सिद्धियों को प्राप्त किया था। इनकी अनुकम्पा से ही भगवान शिव का आधा शरीर देवी का हुआ था। इसी कारण वे लोक में ‘अर्द्धनारीश्वर’ नाम से प्रसिद्ध हुए।

नवदुर्गा वास्तव में 9 औषधियां हैं, दुर्गाकवच में लिखा है ये रहस्य- मार्कण्डेय चिकित्सा पद्धति के अनुसार नवम सिद्धिदात्री-  सिद्धदात्री का स्वरूप है शतावरी- दुर्गा का नवम रूप सिद्धिदात्री है। जिसे नारायणी या शतावरी कहते हैं। शतावरी बुद्धि बल एवं वीर्य के लिए उत्तम औषधि है। रक्त विकार एवं वात पित्त शोध नाशक है। इन बीमारियों से पीड़ित व्यक्ति को सिद्धिदात्री देवी की आराधना करनी चाहिए। इस प्रकार प्रत्येक देवी आयुर्वेद की भाषा में मार्कण्डेय पुराण के अनुसार नौ औषधि के रूप में मनुष्य की प्रत्येक बीमारी को ठीक कर स्वस्थ करती है। अत: मनुष्य को इनकी आराधना एवं सेवन करना चाहिए।

नवरात्र में पूजा-अर्चना की विधि

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नवरात्र पर्व में पूजा-अर्चना का विशेष महत्त्व है। कुछ शास्त्रों के अनुसार नवरात्रि वर्ष में दो बार मनाई जाती है परन्तु देवी भागवत पुराण के अनुसार नवरात्रे वर्ष में चार बार आते हैं -चैत्र, आश्विन, आषाढ़ और माघ- “

चैत्रे आश्विने तथाषाढे, माघे कार्यो महोत्सवः।

नव-रात्रे महाराज! पूजा कार्या विशेषतः।।

इन त्यौहारों को मनाने का पर्व पौराणिक समय से ही है। इनमें से चैत्र व आश्विन मास की नवरात्रि प्रमुख है अर्थात् नवरात्रों में देवी उपासना के दो अवसर पुनीत किए गए हैं – 1) शारदीय नवरात्र 2) वासन्तिक नवरात्र देवी पूजा विशेषतः शरद और बसन्त काल में उपयुक्त मानी गई है।

शारदीय नवरात्र- शक्ति उपासना के लिए यह समय उपयुक्त माना गया है। यह नवरात्र आश्विन शुक्ला प्रतिपदा से लेकर नवमी तक होता है। नौ दिन विधिवत् हवन तथा देवी पूजन होता है।

वासन्तिक नवरात्र- दूसरे नवरात्र चैत्रशुक्ल प्रतिपदा से वैक्रमीय संवत्सर का आरम्भ और आश्विन शुक्ला प्रतिपदा से इसी संवत्सर का मध्य वर्ष होता है, अर्थात् वासन्तिक नवरात्र चैत्र मास में किए जाते हैं । इन व्रतों के करने से देवी प्रसन्न होती है नवरात्र के व्रत में विशेष रूप से इनकी पूजा करनी चाहिए । ‘शरद व बसन्त ‘ दोनों ही ऋतुओं में चण्डिका का पूजन परम आवश्यक है।

नवरात्रि पूजन चैत्र तथा आश्विन गारा के नवरात्रों में चण्डिका देवी के नव-स्वरूपों (शैलपुत्री, ब्रह्मचारिणी, चन्द्रघंटा, कुष्माण्डा, स्कन्दमाता, कात्यायनी, कालरात्रि, महागौरी व सिद्धिदात्री) की आराधना की जाती है। इन्हें नवदुर्गा भी कहा जाता है। इन शुभ महीनों में भक्तिभाव से पूजन करें। अमावस्या के दिन हविष्य का भोजन एक समय करें। नवरात्र के व्रत में किसी समतल भूमि पर सिंहासन रख कर देवी की मूर्ति उन परस्थापित करनी चाहिए तत्पश्चात् नौ दिन तक उपवास रखना चाहिए। नवरात्र पर जिसमन्त्र का जाप करें उसी मन्त्र से पायस, धृत, मधु, और शर्करा मिलाकर बहुसंख्यक होमको या पवित्र बिल्वपत्र लाल करवीर का पुष्प अथवा शर्करा मिश्रित तिल द्वारा होम करेंप्रतितिथि में ही पूजा के विधि की व्यवस्था होने पर बलिदान के भाव से अष्टमी, नवमीव चतुर्दशी में देवी की पूजा करके ब्राह्मणों को भोजन कराना चाहिए। दक्षिण में देवी पूजा- ‘गौरी’ नाम से आठ दिन की जाती है व नौवें दिनसरस्वती की पूजा की जाती है। उत्तर भारत में- अष्टमी के दिन गौरी व बालिकाओंको भोजन कराकर दक्षिणा प्रदान की जाती है।

पूजन विधि- विधि के अनुसार शुभ स्थल में चारों ओर मण्डल बना लें जो सोलह हाथ काप्रमाण और ध्वज में पताका से युक्त हो और पूजा स्थान की रचना करें। पीली मृतिका और गौ के गोबर से स्थान को लीपना चाहिए। उसके मध्य में स्थान और स्थिर वेदिकाबनानी चाहिए। चार हाथ लम्बा चौड़ा और एक हाथ ऊँचा पीठ स्थान करना चाहिएफिर वेदमन्त्र और विधानानुसार उसके ऊपर कलश स्थापन करें। नियमानुसार सुन्दरयन्त्र निर्माण करके उसके ऊपर कलश रखें। पूजा स्थान का ऊपरी भाग चन्द्रातप औरपुष्प माला से सुशोभित करके देवी के ग्रह में धूप और दीप प्रदान करें । अपनी शक्तिअनुसार इस ग्रह में प्रातः काल, मध्याह्न काल में पूजा करनी चाहिए। किसी भी प्रकारवित्त की शठता या कृपणता करना अनुचित है। वहाँ धूप, दीप, मनोहर, नैवेद्य, पुष्प और नाना प्रकार के फल उपहार में देकर देवी की पूजा करें। विशेषकर स्त्रोत पाठवेदपरायण गीत, वाद्य और अनेक प्रकार के बाजों द्वारा उत्सव करना चाहिए। अधिकतर चन्दन, वस्त्र, भूषण और अनेक प्रकार के खाद्य सुगन्धित तेल और मनोहरमाला से यथा विधि देवी की पूजा करनी चाहिए। प्रतिपदा को विधिपूर्वक प्रातः स्नान करना चाहिए। अष्टादश भुजायुक्त सनातनीदेवी की मूर्ति स्थापित करें। यदि प्रतिमा का अभाव हो तो सिंहासन में मन्त्र सहित मध्य में लिखें नवर्ण मन्त्र से संयुक्त यन्त्र को स्थापित करें। हस्तयुक्त तिथि और नन्दातिथि में पूजन करना चाहिए पहले नियम करके पीछे पूजा आरम्भ करें, रात्रि को एकबार भोजन करें।

नित्य पृथ्वी में शयन कर कुमारी पूजन करें। उसको दिव्य वस्त्र, अलंकार और अमृतमय भोजन दे अथवा नित्य प्रति एक का पूजन करें अथवा एक वृद्धि से पूजनकरें अथवा दूनी, तिगनी, वृद्धि करें अथवा नौ कन्याओं का पूजन करें। इस प्रकार पूजा करके अष्टमी या नवमी तिथि में पर्वोक्त होमद्रव्य से विद्यानानुसार होमकरावें। अन्त में विधिपूर्वक ब्राह्मण भोजन कराकर दशमी के दिन स्वयं पारण करें फिरभक्ति में तत्पर होकर अपनी शक्ति अनुसार ब्राह्मणों को अनेक वस्त्रदान करें। यदि नवरात्र में निरन्तर पूजा करने में अशक्य हो तो अष्टमी को विशेष रूप मेंपूजा करनी चाहिए। अनेक प्रकार के उपहार और गन्धमाला से अर्चित करें। पायसखीर से होम करें। क्षत्रीय मास की भी बलि प्रदान कर सकते हैं। ब्राह्मण भोजनकराकर फल, पुष्पों की भेंट से देवी को प्रसन्न करें।यदि नवरात्र के उपवास समर्थ न हो तो तीन उपवास भी विशेष फल देते हैं। सप्तमी, अष्टमी, नवमी को भक्ति भाव से तीन रात व्रत पूजन करने से पूर्ण फल मिलताहै। पूजा होम और कुमारी व्रत तथा ब्राह्मण भोजन से व्रत पूर्ण होता है। व्रत अनेक प्रकार के होते हैं पर कोई भी व्रत पृथ्वी में नवरात्र व्रत के समान नहीं है। विद्यार्थी, धनार्थी, पुत्रार्थी, आदि सभी मनुष्यों को यह सौभाग्यदायक व्रत अवश्य करना चाहिए।

कुमारी पूजन- कुमारी पूजन भी देवी उपासना का एक अंग है नवरात्र में देवी के नौ स्वरूपोंकी आराधना की जाती है। नवरात्रि व्रत, यज्ञ, उत्सवों के अवसर पर कुमारी कन्याओंकी पूजा का बहुत महत्व माना जाता था।देवी भा० पु० के अनुसार अष्टमी के दिन दो से दस (२-१०) वर्ष की कन्याओंका पूजन साक्षात दुर्गा पूजन होता है। दो वर्ष से लेकर दस वर्ष की कन्या की पूजाकरनी चाहिए। एक-एक करके प्रतिदिन कन्याओं की संख्या बढ़ाते हुए नवें दिन नौ कन्याओं का पूजन करना चाहिए। अलग-अलग आयु की कन्याओं को पूजन सेअलग-अलग फल गाना था।

देवी भागवत पुराण के अनुसार- देवी के भिन्न-भिन्न नाम दिए हैं जैसे –

1) दो वर्ष की कन्या को– “कुमारी” कहा जाता है। कुमारी पूजन के समय कहें- जो स्कन्द के तत्त्वों एवम् ब्रह्मादि देवताओं की भी लीलापूर्वक रचना करती है उस कुमारी देवी की हम पूजा करते हैं।

2) तीन वर्ष की कन्या को- “त्रिमूर्ति” कहते हैं। द्वितीय पर त्रिमूर्ति का पूजन किया जाता है। त्रिमूर्ति के पूजन के समय कहें- जो सत्त्व आदि तीनों गुणों से तीन रूप धारण करती है तथा जो तीनों कालों में व्याप्त है उस त्रिमूर्ति देवी की हम आराधना करते हैं।

3) चार वर्ष की कन्या को- “कल्याणी कुंवारी” कहा जाता है। तृतीया को कल्याणी कंजिका का पूजन करते हैं। कल्याणी कुवांरी के पूजन के समय कहें – निरन्तर पूजित होने पर साधकों का कल्याण करना जिनका स्वभाव है उन सभी मनोरथों को पूर्ण करने वाली देवी कल्याणी की स्तुति करते हैं।

4) पाँच वर्ष की कन्या को- “रोहिणी कुवांरी” कहा जाता है। चतुर्थी पर राहिणी का ही पूजन किया जाता है। रोहिणी कुवांरी के पूजन के समय कहें – जो सम्पूर्ण प्राणियों के संचित बीजों का रोपण करती हैं उन माँ राहिणी की हम पूजा करते हैं।

5) छ: वर्ष की कन्या को- “कालिका” के रूप में पूजा की जाती है। पाँचवें नवरात्र पर पूजन के समय कहें – जो देवी अखिल ब्रह्माण्ड को अपने में सगा लेता है उ. ली गों की सा रो।

6) सात वर्ष की बालिका को- “चण्डिका” के रूप में पूजा जाता है एवम् ऐश्वर्य की प्राप्ति हेतु चण्डिका की साधना की जाती है । चण्डिका के पूजन के समय कहें – जिनका रूप अत्यधिक सुन्दर है इस देवी की हम साधना करते हैं।

7) आठ वर्ष की कन्या को- “शाम्भवी कुंवारी” कहा जाता है । शाम्भवी कुंवारी के पूजन समय करें- वेद जिनके रूप हैं वे ही वेद जिनके प्रकाश सामना करती है। इस देवी की पूजन समय कहें- साधकों के संकट को दूर करने वाली दुर्गा देवीकी हम साधना करते हैं।

8) दस वर्ष की कन्या को- “सुभद्रा” नाम से जाना जाता है सुभद्रा देवी का पूजन नवमी पर किया जाता है। साधना के समय कहें- जो पूजित होने पर साधकों का कल्याण करती है उनसुभद्रा देवी की हम साधना करते हैं। भक्ति में तत्पर होकर “श्रीरस्तु” इस मन्त्र से पूजन करें। पण्डित को मन्त्रोंसे सदा कन्याओं का पूजन का पूजन करना चाहिए। वस्त्र, अलंकार, मालाऔर उच्चावच गन्धों से पूजन करना चाहिए।

देवी भागवत पुराण के अनुसार- कुमारी पूजन के लिए एक वर्ष की कन्या को कभी नहीं लेना चाहिए क्योंकि वह सभी प्रकार के पदार्थों से अज्ञात है।

दुर्गापूजा: पश्चिम बंगाल में मां की अराधना

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शारदीय नवरात्र के मौके पर देश में दुर्गा पूजा का त्योहार हर साल पूरे धूमधाम से मनाया जाता है। इसमें हर इलाके की अपनी सांस्कृतिक विशेषताएं जुड़ी होती हैं। बात चाहे मैसुरु के जंबू सावरी दशहरे की हो या कुल्लू-मनाली के दशहरे की या गुजरात के गरबा नृत्य के साथ मनाए जाने वाले उत्सव की, देश के हर इलाके में इस त्योहार का अलग ही रंग है। पर पश्चिम बंगाल का दशहरा इन सबसे अलग है। 9  दिनों तक चलने वाले इस त्योहार के दौरान वहां का पूरा माहौल शक्ति की देवी दुर्गा के रंग का हो जाता है। बंगाली हिंदुओं के लिए दुर्गा और काली की आराधना से बड़ा कोई उत्सव नहीं है। वे देश-विदेश जहां कहीं भी रहें, इस पर्व को खास बनाने में वे कोई कसर नहीं छोड़ते।

बंगाल के लोग आधाशक्ति के अनन्य उपासक हैं। बंगाल पूर्णतया शाक्त है। यहां की संस्कृति मातृ-मुखी है। इसकी छाप इस प्रान्त में बसने वाले बालों से लेकर बादशाहों तक परपड़ी है। हारका पुराण भी इस तथ्य की पुष्टि करता है कि देवी-पूजाका अधिकार शक, हूण, शाबर, बर्बर, पुलिन्दादि सबको है।। देवी लोजननी हैं। उसके अंक में सभी संतान एक हैं। भारतीय जन-मानत कानिवास है कि देवी अपने जन की चतुर्दिक रक्षा करती हैं। तंत्र-मंत्र, (.स्तवन आदि से देवी-जागरण शक्ति-सम्वर्द्धन दिया जाता है।

बंगाली लोग अपने पारिवारिक जीवन-संबंधों में भी अपने महान “माँ” शब्द को नहीं भूलते हैं। मासीमा, काकीमा, जेठीमा,पिसीमा, ठाकुर मा, बमा यहाँ तक कि बेटी में भी मातृत्व- भाव के ही दर्शन पर है।राह चलते, काम करते और आराम करते भी दुर्गा, काली,श्यामा, श्रीहोरआदि कहा करते हैं। इस बंगाल की “दुर्गा”पूजा” ते ही “वन्देमातरम् “गी ! परिस्फुटित हुआ है।

नवदुर्गा, नवरात्रि और दुर्गापूजा नाम चाहे जो पुकारें लेकिन इन 9 दिनों में जो चहल-पहल और रौनक देश भर में दिखाई देती है वह माहौल और मन को भक्तिमय बना देती है। इन सबमें सबसे ज्यादा आकर्षक और खूबसूरत परंपरा जहां नजर आती है वह है पश्चिम बंगाल की दुर्गा पूजा. … आंखों के सामने नजर आने लगते हैं भव्य पंडाल, पूजा की पवित्रता, रंगों की छटा, तेजस्वी चेहरों वाली देवियां, सिंदूर खेला, धुनुची नृत्य और भी बहुत कुछ ऐसा दिव्य और अलौकिक जो शब्दों में न बांधा जा सके।

पंडालों की भव्य और विशेष छटा कोलकाता और समूचे पश्चिम बंगाल को नवरात्रि के दौरान खास बनाते हैं। इस त्योहार के दौरान यहां का पूरा माहौल शक्ति की देवी दुर्गा के रंग में रंग जाता है। बंगाली हिंदुओं के लिए दुर्गा पूजा से बड़ा कोई उत्सव नहीं है।

  • देवी प्रतिमा- कोलकाता में नवरात्रि के दौरान मां दुर्गा के महिषासुर मर्दिनी स्वरुप को पूजा जाता है। दुर्गा पूजा पंडालों में दुर्गा की प्रतिमा महिसासुर का वध करते हुए बनाई जाती है। दुर्गा के साथ अन्य देवी-देवताओं की प्रतिमाएं भी बनाई जाती हैं। इस पूरी प्रस्तुति को चाला कहा जाता है। देवी त्रिशूल को पकड़े हुए होती हैं और उनके चरणों में महिषासुर नाम का असुर होता है। देवी के पीछे उनका वाहन शेर भी होता है। इसके साथ ही दाईं ओर होती हैं सरस्वती और कार्तिका, और बाईं ओर लक्ष्मी गणेश होते हैं। साथ ही छाल पर शिव की प्रतिमा या तस्वीर भी होती है।
  • दो पूजा- कोलकाता में दुर्गा का त्योहार केवल पंडालों तक ही सीमित नहीं है। यहां लोग दो तरह की दुर्गा पूजा करते हैं। दो अलग-अलग दुर्गा पूजा से अर्थ है एक जो बहुत बड़े स्तर पर दुर्गा पूजा मनाई जाती है, जिसे पारा कहा जाता है और दूसरा बारिर जो घर में मनाई जाती है। पारा का आयोजन पंडालों और बड़े-बड़े सामुदायिक केंद्रों में किया जाता है। वहीं दूसरा बारिर का आयोजन कोलकाता के उत्तर और दक्षिण के क्षेत्रों में किया जाता है।
  • संध्या आरती- संध्या आरती का इस दौरान खास महत्व है। कोलकाता में संध्या आरती की रौनक इतनी चमकदार और खूबसूरत होती है कि लोग इसे देखने दूर-दूर से यहां पहुंचते हैं। बंगाली पारंपरिक परिधानों में सजे-धजे लोग इस पूजा की भव्यता और सुंदरता और बढ़ा देते हैं। चारों ओर उत्सव का माहौल समां बांध देता है। संध्या आरती नौ दिनों तक चलने वाले त्योहार के दौरान रोज शाम को की जाती है। संगीत, शंख, ढोल, नगाड़ों, घंटियों और नाच-गाने के बीच संध्या आरती की रस्म पूरी की जाती है।
  • सिंदूर खेला- दशमी के दिन पूजा के आखिरी दिन महिलाएं सिंदूर खेला खेलती हैं। इसमें वह एक-दूसरे पर सिंदूर से एक दूसरे को रंग लगाती हैं। और इसी के साथ अंत होता है इस पूरे उत्सव का, जिसकी तैयारी महीनों पहले शुरू हो जाती हैं।
  • धुनुची नृत्य- धुनुची नृत्य असल में शक्ति नृत्य है। बंगाल पूजा परंपरा में यह नृत्य मां भवानी की शक्ति और ऊर्जा बढ़ाने के लिए किया जाता है। धुनुची में नारियल की जटा व रेशे (कोकोनट कॉयर) और हवन सामग्री (धुनी) रखी जाता है। उसी से मां की आरती की जाती है। धुनुची नृत्य सप्तमी से शुरू होता है और अष्टमी और नवमी तक चलता है।
  • मूर्ति विसर्जन- नवरात्रि त्योहार का आखिरी दिन दशमी होता है। इस दिन बंगाल की सड़कों में हर तरफ केवल भीड़ ही भीड़ दिखती है इस दिन यहां दुर्गा की मूर्ति का विसर्जन किया जाता है, और इस तरह दुर्गा अपने परिवार के पास वापस लौट जाती हैं। इस दिन पूजा करने वाले सभी लोग एक दूसरे के घर जाते हैं। शुभकामनाएं और मिठाई देते हैं।

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