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सोमरस- क्या है? शराब या चमत्कारिक औषधि

डॉ. संदीप कोहली… कीबोर्ड के पत्रकारsoma_rasa

वैदिक साहित्य में वनस्पतियों के उल्लेख है-किंशुक, करञ्ज, खदिर, दूर्वा, पिप्पल, कमल,आँवला, सेमल, गोधूम मसूर, बेर, अपामार्ग, अर्क, अश्वत्थ, तिल, अर्जुन, तिलपिप्पली, पृश्नपर्णी, विल्ब, उदुम्बर, इक्षु, ल्णक्षा सहदेवी, सोम, मुञ्ज, गुग्गुल आदि- वैदिक काल में वनस्पतियों का विशेष महत्व था। वनस्पतियां जीवनदायिनी मानी जाती थी। शरीर में हुए रोगों को दूर करती थीं। यजुर्वेद- औषधियों और वनस्पतियों से शान्ति-प्राप्ति की कामना करता है। इससे यही सिद्ध होता है कि मानव जीवन वनस्पतियों पर आधारित रहा है। वेदों में जिन प्रमुख वनस्पतियों का उल्लेख है उसमें से एक है ‘सोम’। और इसी सोम से बनाया जाता था ‘सोमरस’। वही सोमरस जिसका सेवन देवता किया करते थे। देवताओं से जुड़े हर ग्रंथ, कथा, संदर्भ में देवगणों को सोमरस का पान करते हुए बताया जाता है। इन समस्त वर्णनों में जिस तरह सोमरस का वर्णन किया जाता है। अब प्रश्न उठता है- क्या सोमरस मदिरा (शराब) थी या औषधि । 

क्या है सोमरस- सबसे पहली और महत्वपूर्ण बात यह है कि सोमरस मदिरा (शराब) की तरह कोई मादक पदार्थ नहीं है। हमारे वेदों में सोमरस का विस्तृत विवरण मिलता है। विशेष रूप से ऋग्वेद में तो कई ऋचाएं विस्तार से सोमरस बनाने और पीने की विधि का वर्णन करती हैं।Somras

सोम एक रस है- रस शब्द का सर्वप्रथम व्यवहार वेदों में हुआ। ऋग्वेद में रस  शब्द का प्रयोग कभी मधु, कभी गौ-क्षीर और कभी सोमरस को प्रकट करने के लिए हुआ है। एक स्थल पर रस को उदक के पर्याय के रूप में ग्रहण किया गया है। इस प्रकार कहा जा सकता है कि वेदों में “रस” शब्द से तात्पर्य किसी भी तरलपदार्थ से है और वह “जल” भी हो सकता है।

अथर्ववेद में रस शब्द से तात्पर्य वनस्पतियों के रस से है । वहाँ वनस्पतियों के रस में जलों के रस के मिलने की कामना की गयी है । इसी संहिता के एक अन्य मन्त्र में जलों के रसको वनस्पतियों के रस से पहले उत्पन्न माना गया है। परन्तु सभी वनस्पतियों की अपेक्षा अधिक महत्त्वपूर्ण है “सोमरस के अर्थ में रस का प्रयोग।”

सोम हिमालय पर्वत पर प्राप्त होने वाली एक लता है जिसको कूटने के बाद निचोड़कर उसका रस निकाला जाता हे और देवतागण उसका पान करते हैं। यह सोम रस वैदिक देवताओं कासबसे प्रिय पेय था। ऋग्वेद में सोमरस का अत्यधिक उत्कृष्ट वाणी में स्तवन (स्तुति) किया गया है।

सोम संसार को धारण करने वाला, इन्द्रिय पोषक रस को धारण करता हुआ, उत्तम वीरता प्रदान करने वाला और हिंसा से रक्षा करने वाला है । यह सोम अग्नि, वायु और सूर्य इन तीनों रूपों को धारण करने वाला है। सोम की सामर्थ्य इसकी इस विशेषता से ही है कि संसार का प्रत्येक जीव सोम के तेज से उत्पन्न होता है और यह जगत् इसके आश्रित है। यह सोम रस आरम्भिक काल में देवताओं के द्वारा स्फूर्तिदायक पेय के रूप में ग्रहण किया जाता रहा होगा क्योंकि वेद में कुछ ऐसे उद्धरण प्राप्त होते हैं जिनमें देवता लोग सोम को पाने के लिए प्रायः उनकी मंत्रों और स्तुतियों से प्रार्थना करते थे जिस प्रकार मल्लाह नाव चलाता है उसी प्रकार यह सोम यज्ञ में यथार्थ वचन रूप स्तुतियों को प्रेरित करता है। यह सोम चेतना को आत्मसात् कर लेता है । जिस प्रकार रथी अपने अश्व को चलाता है उसी प्रकार यह सोम अपनी तरंगों को चलाता है। सोम को कहीं विश्वस्रष्टा, क्रान्तकर्मा, रक्षक एवं आनन्ददायक के रूप में वर्णित किया गया है।

इस प्रकार सोम के अर्थ में रस का प्रयोग विशिष्ट हो गया। सोमरस का आस्वाद अपूर्व था। इसमें कुछ ऐसी विशेषतायें थीं, जिनके कारण उसके पान करने से विचित्र आनन्द की प्राप्ति होती थी, साथ ही शरीर और मन में स्फूर्ति तथा मद का संचार होता था। ऋग्वेद की अनेक ऋचाओं में वाणी के लिए प्रयुक्त स्वादु, मधु आदि विशेषणों का प्रयोग इस विचार को प्रमाणित करता है कि रस के लिये वाक् शब्द के प्रयोग का भी वैदिक साहित्य में विवरण उपलब्ध होता है-

वचः स्वादो स्वादीयो रुद्राय वर्धनम् ।। ‘अर्थात् रुद्र को प्रसन्न करने के लिये स्वादु से भी स्वादु वचन। इसके अतिरिक्त ‘पिबत्वस्य गिर्वणः’, ‘मध्व ऊषु मधुयुवा रुद्रा सिषक्तिं पिप्युषी, वाचा वदामि’मधुमद् भूयासं मधुसन्दृशः’,’ तथा ‘वाचों मधु पृथिवि! छेहि मह्यम्” आदि से यहस्पष्ट हो जाता है कि रस के अर्थ में ‘वाक्’ का प्रयोग किया जाता है

ऋग्वेद में उल्लेखित है- “जो पुरुष पवमान ऋचाओं (सोमयुक्त) के रूप में ऋषियों द्वारा सम्भृत रस का पान करता है, वह पवित्र और स्वादिष्ट अन्न का आनन्द लेता है उस वेद वाणी के लिए देवी सरस्वती दूध, घृत और सोम का दोहन करती हैं। यहाँ ‘पावमान’ शब्द सोम के लिए प्रयुक्त है ।

भौतिक गुणों के साथ आध्यात्मिकता का समावेश- सोम एक प्रकार का भौतिक रस है। परन्तु जब इसका प्रयोग आध्यात्मिक रूप में किया जाता है तो यह विश्वव्यापक और अमरता को प्राप्त कर लेता है। जहां भौतिक रस के रूप में यह केवल मानवीय है, वहीं अध्यात्म के रूप में दैवीय स्पर्श से अलंकृत हो जाता है। रस के इन दोनों ही रूपों से सम्बन्धित मन्त्र ऋग्वेद में सोम की स्तुतियों में प्राप्त होते हैं ।

उपनिषदों में जिस प्रकार वेदों की अनेक भौतिक कल्पनाओं को सूक्ष्म आध्यात्मिक रूप दे दिया गया उसी प्रकार रस का भी आध्यात्मिक रूपान्तर हुआ। जहां वेदों में रस केवल मधु या सोमरस अथवा दुग्ध का ही अर्थ देता रहा। वहीं उपनिषदों में इनके मूल स्थित स्वाद की भावना का आधार लेकर यही रस मुख्यार्थ का बाधक होकर प्राणस्वरूपमाना जाने लगा। दूसरे शब्दों में उपनिषदों में रस द्रव्य के अर्थ में तो नहीं परन्तु द्रव्य-जनितशक्ति और आनन्द के रूप में प्रयुक्त हुआ । इसके अतिरिक्त न केवल द्रव्य-जनितशक्ति के रूप में बल्कि इससे भी सूक्ष्मतर रूप में तन्मात्राओं के अर्थ में प्रयुक्त हुआ है।

वृहदारण्यक उपनिषद् में ‘प्राणो वा अंगानां रसः” कहकर रस को सार भूततत्त्व कहा गया है । तैत्तिरीय उपनिषद् में स्वयं ब्रह्म को ही रस स्वरूप कहा गया है ।वह अर्थात् ब्रह्म रस स्वरूप है ।

शक्ति, तन्मयता और आनन्द का समावेश- उपर्युक्त विवरण के अतिरिक्त ‘आनन्द’ तथा ‘काम’ के रूप में भी रस के अर्थका विकास वैदिक युग में ही हुआ । आनन्द शब्द सम्पूर्ण ऋग्वेद में दो बार प्राप्त होताहै । वह भी सोम की स्तुति में ही।एक मन्त्र के अनुसार ऋत्विज जन सोम की स्तुतिमें छन्दोबद्ध वर्णन करते हुये सोम लता को पत्थर पर पीसने से उत्पन्न ध्वनि से आनन्द काअनुभव करते थे । इसका अभिप्रायः यह हो सकता है कि जब ऋत्विज् जन सोम लताको पत्थर पर पीसते थे और साथ-साथ सोम की स्तुति में मंत्रों का पाठ भी करते थे तबपीसने से उत्पन्न ध्वनि और मंत्रों के उच्चारण से एक आनन्द प्राप्त होता था ।

आनन्द की प्रकृति को समझने से “कामस्य यत्राप्ताः कामाः इस विचार कोभी स्थान प्राप्त होता है । इसके अनुसार व्यक्ति की सभी इच्छाओं के पूर्ण होने सेअथवा सभी इच्छाओं से रहित हो जाने से परम आनन्द की प्राप्ति होती है 12 काम(इच्छा) और रस की इस दशा का वर्णन अर्थर्ववेद में इस प्रकार प्राप्त होता है –

“अकामोधीरो अमृतः स्वयंभू रसेन तृप्तो न कुतश्च नोनः”

अर्थात् वह आत्मा अकाम् अर्थात्इच्छाओं से रहित, धीर, अमृत, स्वयं उत्पन्न; अपने रस से स्वतः तृप्त रहता है।  अतः कहा जा सकता है कि सोम रस के संसर्ग से रस की अर्थ परिधि में क्रमशः शक्ति, तन्मयता और अन्त में आनन्द का समावेश हो गया ।

सोम और सुरा में अंतर

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हमारे धर्मग्रंथों में मदिरा के लिए मद्यपान शब्द का उपयोग हुआ है, जिसमें मद का अर्थ अहंकार या नशे से जुड़ा है। इससे ठीक अलग सोमरस के लिए सोमपान शब्द का उपयोग हुआ है, जहां सोम का अर्थ शीतल अमृत बताया गया है।

वैदिककाल में मद्यपान का प्रचलन- वैदिक कालीन समाज कृषि प्रधान था। और वैदिक काल में सोम और सुरा का प्रचलन था। सोमयज्ञो में सोम एवं सोत्रामणी में सुरापान किया जाता था। वैदिक आर्य अपने इष्ट देवता इन्द्र को सोम व सुरा अर्पित करने के बाद पीते थे।

ऋग्वेद में दो प्रकार के मादक पेयों सोम और सुरा का उल्लेख है- सोम पुरोहितों और देवताओं द्वारा ग्रहण करने वाला पेय पदार्थ था। सुरा जन-साधारण द्वारा उपयोग किया जाने वाला पेय पदार्थ था। ऋग्वेद‘ में मद्य का एक नाम मत्सर भी है। इसका प्रसिद्ध अर्थ लोभ है।

ऋग्वेद में सोम और सुरा में फर्क बताया गया है ऋग्वेद में सुरा की घोर निंदा करते हुए कहा गया है-

हृत्सु पीतासो युध्यन्ते दुर्मदासो न सुरायाम्।।

अर्थात: सुरापान करने या नशीले पदार्थों को पीने वाले अक्सर युद्ध, मार-पिटाई या उत्पात मचाया करते हैं।

तैत्तिरीय ब्राह्मण‘ (1-3-3-3) का कहना है:

एतद् वै देवानां परममन्नं यत्सोम:एतन्मनुष्याणां यत्सुरा.

अर्थात: सोम देवताओं का परम अन्न है और सुरा मनुष्यों का परम अन्न है.

शतपथब्राह्मण‘ (12-7-3-94) कहता है:

यशो हि सुरा.

अर्थात: सुरा से यश फैलता/मिलता है

तैत्तिरीय ब्राह्मण‘ ( 1-3-3-4) कहता है:

पुमान् वै सोम: स्त्री सुरा (तैत्तिरीय ब्राह्मण 1-3-3-4)

अर्थात: सोम को पुंलिंग (पुरुष) और सुरा (स्त्री) को उस की पत्नी कहा गया है।

सौत्रामणी नामक यज्ञ में तो सुरापान का विधान है

सौत्रामण्यां सुरां पिबेत्. शतपथब्राह्मण (12-8-1-2)

इसीलिए सौत्रामणी यज्ञ को सुरावाला (सुरावान्) यज्ञ कहा है

सुरावान् वा एष बहिंषद् यज्ञो यत् सौत्रामणी।

देवताओं के लिए सुर‘ शब्द का प्रयोग होता है, जो उन के सुरापान करने के कारण ही अस्तित्व में आया है. आप्टे ने अपने कोश में ‘सुर’ शब्द का अर्थ बताते हुए ‘रामचरितम्’ का उद्धरण दिया है

सुराप्रतिग्रहाद् देवा: सुरा इत्यभिविश्रुता:.

अर्थात: सुरा ग्रहण करते रहने के कारण देवता ‘सुर’ नाम से प्रसिद्ध हुए।

सोमरस और सुरा में फर्क है ऋग्वेद में शराब की घोर निंदा करते हुए कहा गया है-

हृत्सु पीतासो युध्यन्ते दुर्मदासो न सुरायाम्।।

अर्थात: सुरापान करने या नशीले पदार्थों को पीने वाले अक्सर युद्ध, मार-पिटाई या उत्पात मचाया करते हैं।

सुरा कैसे सोमरस से अलग है… सुरा बनाने की विधि

यजुर्वेद के एक मन्त्र में सुराकार अर्थात्सुरा बनाने वाले की ओर सङ्केत किया गया है – कीलालाय सुराकारम् । इस मन्त्र का कथन है कि सुराबनाने वाला सुराकार है। यजुर्वेद के अन्य मन्त्रों में सुरा निर्माण की प्रक्रिया का भी वर्णन किया गया है-

शष्पाणि… तोक्मानि… सोमस्य लाजा.

सोमांशवो मधु।

मासरं… नग्नहुः । रूपमेतद् उपसदाम्

एतत् तिस्त्रो रात्री: सुराऽऽसुता।

अर्थात: इन मन्त्रों में कहा गया है कि अङ्कुरित चाँवल, अङ्कुरित जौ और खील का चूरा, सोमरस में डालकर तीन रात तक रखने से सुरा तैयार हो जाती है। 

वेदों में दी गई इन ऋचाओं में सोमरस का विस्तृत वर्णन किया गया है… ऋग्वेद की एक ऋचा में लिखा गया है कि ‘यह निचोड़ा हुआ शुद्ध दधिमिश्रित सोमरस, सोमपान की प्रबल इच्छा रखने वाले इन्द्रदेव को प्राप्त हो।। (ऋग्वेद-1/5/5) …हे वायुदेव! यह निचोड़ा हुआ सोमरस तीखा होने के कारण दुग्ध में मिश्रित करके तैयार किया गया है। आइए और इसका पान कीजिए।। (ऋग्वेद-1/23/1)

शतं वा य: शुचीनां सहस्रं वा समाशिराम्। एदुनिम्नं न रीयते।। (ऋग्वेद-1/30/2)

अर्थात: नीचे की ओर बहते हुए जल के समान प्रवाहित होते सैकड़ों घड़े सोमरस में मिले हुए हजारों घड़े दुग्ध मिल करके इन्द्रदेव को प्राप्त हों।

इन सभी मंत्रों में सोम में दही और दूध को मिलाने की बात कही गई है, जबकि यह सभी जानते हैं कि शराब में दूध और दही नहीं मिलाया जा सकता। भांग में दूध तो मिलाया जा सकता है लेकिन दही नहीं, लेकिन यहां यह एक ऐसे पदार्थ का वर्णन किया जा रहा है जिसमें दही भी मिलाया जा सकता है। अत: यह बात का स्पष्ट हो जाती है कि सोमरस जो भी हो लेकिन वह शराब या भांग तो कतई नहीं थी और जिससे नशा भी नहीं होता था अर्थात वह हानिकारक वस्तु तो नहीं थी। देवताओं के लिए समर्पण का यह मुख्य पदार्थ था और अनेक यज्ञों में इसका बहुविध उपयोग होता था। सबसे अधिक सोमरस पीने वाले इन्द्र और वायु हैं। पूषा आदि को भी यदा-कदा सोम अर्पित किया जाता है, जैसे वर्तमान में पंचामृत अर्पण किया जाता है।

ऋग्वेद में रस शब्द का प्रयोग कभी मधुकभी गौ-क्षीरकभी सोमरस अथवा कभी रस युक्तता को प्रकट करनेके लिए हुआ है ।

ऋग्वेद के मन्त्रों में द्यावापृथिवी में हाइड्रोजन की उपस्थिति सोम के रूप में कही गयी है –

यं सोममिन्द्र पृथिवीद्यावा गर्भं न माता बिभृतस्त्वाया।

धृतेन द्यावापृथिवी अभीवृते धृतश्रिया धृतपचा धृतावधा।

अर्थात: उपर्युक्त मन्त्रों में हाइड्रोजन की उपस्थिति पृथिवी और आकाश में सर्वत्र बताते हुए हाइड्रोजन को ही द्यावापृथिवी में वृद्धि, विस्तार और प्रकाश का कारण कहा है साथ ही मन्त्र में यह भी कहा गया है किसोम को द्यावापृथिवी ने गर्भस्थ बालक की तरह अपने अन्दर धारण किया हुआ है।

ऋग्वेद के एक मन्त्र का कथन है कि सोम देवों का पेय पदार्थ है –

अश्नवत् सोमसुत्वा।

अर्थात: सोम का अर्क निकालने की प्रक्रिया को सोम सुति और सोमसुत्या कहते थे और इस प्रकिया सेरस निकालने वाले सोमसुत् और सोमसुत्वन् कहलाते हैं। इस कार्य को पवित्र माना गया है। ऋग्वेद कापूर्ण नवम् मण्डल (११०८ मन्त्र) सोम के विषय में हैं। द्राक्षासव के समान ही सोम का भी आसव तैयारकिया जाता था जिसे देवता पेय पदार्थ के रूप में ग्रहण करते थे।

ऋग्वेद में कहा गया है कि जल में सोम आदि रसों को मिलाकर सेवन करने से मनुष्य दीर्घायु होता है-

यद् देवा अदः सलिलेसुसंरब्धा अतिष्ठत।

मन्त्र में कहा गया है कि जल में हमेशा देव तैयार होते हैं तथा जल में कोई भी कभी भी इच्छानुसार परीक्षण कर सकता है

इस मन्त्र का कथन है कि सोम के मिश्रण से तीन प्रकार के पेय बनाये जाते हैं जिन्हें सामूहिक रूप से त्र्याशिर: कहते हैं।

सोमा इव त्र्याशिरः।

दही के मिश्रण से बना पेय दध्याशिर्, सत्तू के मिश्रण से बना पेय यवाशिर् एवं दूधआदि के मिश्रण से बना पेय गवाशिर् कहलाता है। ऋग्वेद के एक मन्त्र में मध्वो रसम् कहकर मधुरसायन का भी वर्णन किया गया है। इसमें सोम के तुल्य ही मधु (शहद) का आसव और रसायन तैयारकिये जाने का वर्णन है

एक मन्त्र में सुरा निर्माण करने वाले को सुरावत् कहा गया है। ऋग्वेद के ही एक अन्य मन्त्र मेंसुरा रखने के पात्र, पीने के पात्र एवं उससे उत्पन्न होने वाली बीमारी का सङ्केत किया गया है। इस मन्त्र मेंसुरा रखने के पात्र को सुराधान, सुरा पीने के पात्र को सुराकंस एवं सुरा से उत्पन्न होने वाली बीमारी कोसुराम कहा गया है।

सुरा को समझने के लिए इन दो शब्दों सौत्रामणी’ और किण्वीकरण‘ को समझना होगा-

  • सौत्रामणी यज्ञ क्या है जिसमें सुरा का प्रयोग होता था- सौत्रामणि = सु त्रमण = अर्थात उत्तम प्रकार से रक्षा करना।  तैत्तरीय संहिता में इन्द्र कि बिखरी हुई शक्तियों को एकत्रित करने के लिए सौत्रामणि यज्ञ का वर्णन है।
  • सुरा में किण्वीकरण‘ होना आवश्यक- सोम और सुरा में एक मुख्य अंतर यह भी है कि सोमरस सोमलता को कूटकर निकाला हुआ रस है। जबकि सुरा में ‘किण्वीकरण’ होना आवश्यक है। किण्वीकरण एक विधि है इसके द्वारा किसी भी शक्करमय पदार्थ या स्टार्चमय पदार्थ से ऐल्कोहल व्यापारिक मात्रा में बनाई जाती है। इस अभिक्रिया को आज की साइंटिफिक भाषा में लिखा जा सकता है- C6H12O6 → 2 C2H5OH + 2 CO2

सौत्रामणि यज्ञ- इन्द्र के निमित्त जो यज्ञ किया जाता हैउसे सौत्रामणि यज्ञ कहते हैं। वह दो प्रकार का होता है- प्रथम स्वतन्त्र और द्वितीय अंगभूत। स्वतन्त्र भूत केवल ब्राह्मणों के लिये विधेय है और अँगभूत, क्षत्रिय और वैश्यों के लिये।

  • इस यज्ञ के दो भेद हैं – 1- कौकिली 2- चरक सौत्रामणि। कौकिली सौत्रामणि में साम मन्त्रों का गायन किया जाता है। चरक सौत्रामणि साधारण सौत्रामणि है जिसका सम्पादन प्रायः राजसूय यज्ञ के एक माह बाद किया जाता है। इस यज्ञ में तीन दिनों तक भिन्न-भिन्न प्रकार की सुरा बनाई जाती है। आजकल सुरा कीजगह दूध का प्रयोग किया जाता है।
  • तैत्तिरीय संहिता (2.5.1) तथा शतपथ ब्रह्माण (1.6.3, 5.5.4) में त्वष्टा के पुत्र विश्वरूप की गाथा आयी है। विश्वरूप के तीन सिर थे, एक से वह सोम पीता था, दूसरे से सुरा और तीसरे से भोजन करता था। इन्द्र में विश्वरूप के सिर काट डाले, इस पर त्वष्टा बहुत क्रोधित हुआ और उसने सोमयज्ञ किया जिसमें इन्द्र को आमन्त्रित नहीं किया। इन्द्र ने बिना निमन्त्रित हुए सारा सोम पी लिया। इतना पीने से इन्द्र को महान कष्ट हुआ, अत: देवताओं ने सौत्रामणी नामक इष्टि द्वारा उसे अच्छा किया। सौत्रामणि यज्ञ उस पुरोहित के लिए भी किया जाता था जो अधिक सोम पी जाता था। इससे मदमत्त व्यक्ति वरम या विरेचन करता था। (देखिए कात्यायन श्रौतसूत्र 19.1.14) शतपथ ब्राह्मण (12.7.3.5) एवं कात्यायन श्रौतसूत्र (191.20-27) में सुरा बनाने की विधि बतायी गयी है। जैमिनि (3.5.14-15) में सौत्रामणी यज्ञ के विषय में चर्चा है। इस यज्ञ में कोई ब्राह्मण बुलाया जाता था और उसे सुरा का तलछट पीना पड़ता था।

सुरा के प्रकार

बौधायन ग्रन्थ में सुरा के अलावा वारूणी और शीघ्र का भी वर्णन है।

पचित्तिय में पिठ-सुरा, पूव-सुरा, ओदन सुरा (किण्वयाकिखत्ता संभारसंयुत्ता) तथा मैरेय का उल्लेख है।

कौटिल्य ने बेदक, प्रसन्ना, आसव, अरिष्ठ, मरैय व मधु के अलावा कापिशायन और हारहूरक आदि मद्य का वर्णन है।

रामायण में भी मैरेय, सुरा और वारूणी का उल्लेख है। शर्करासव, माध्वीक, पुष्पासव और फलासवका भी रामायण में वर्णन है।

चरक ने सुरा, मदिरा, अरिष्ट, शार्कर, गौड़, मद्य, मधु आदि को मद्यपेय माना है।

सुश्रुत सूत्र में सामान्य सुरा, श्वेतसुरा यवसुरा, शीधु, नरैया और आसव का वर्णन है।

वाणभट्ट ने सुरा वारूणी, अरिष्ट, मार्दीक, खार्जूर, शर्करा, शीधु, आसव, मध्वासव आदि मद्यों का वर्णन है।

कालीदास ने नारिकेलासव, शीधु, पुष्पासव, मधु, द्राक्षासव, वारूणी व हाला आदि मद्य बताया है।

मादक पेय के रूप में सुरा‘ और मैरेय‘ के उल्लेख मिलते हैं- जातकों में मधुशाला के वर्णन उपलब्ध होते हैं। महावग्ग में मज्जा का उल्लेख है। यह एक प्रकार की सुरा थी जिसका प्रयोग औषधि के रूप में होता था। जातकों से ज्ञात होता है कि लोग उत्सव के दिन जी भरकर खाते पीते और आनन्द मनाते थे जिसमें मद्यपान का प्रमुख स्थान रहताथा। इनमें एक उत्सव का नाम ही सुरानक्षत्र पड़ गया, अनियन्त्रित सुरापान, नृत्य, संगीत और भोजन इसकी प्रमुख विशेषताएँ थी। विनयपिटक के अनुसार श्रमण तथा भिक्षु के लिए सुरापान वर्जित था।

वैदिक काल में मद्यपान का प्रचलन 

सोम का प्रयोग केवल देवगण एवं पुरोहित लोग कर सकते थे, किन्तु सुरा का प्रयोग अन्य कोई भी कर सकता था, और वह बहुधा देवगणों को समर्पित नहीं होती थी। 

सोम के अलावा 13 प्रकार के अन्य मद्यों का उल्लेख आता है- सुरा, हलिप्रिया, हाला, परिसुत, वरूणात्मजा, गन्धोत्तमा, प्रसन्ना, इरा, कादम्बरी, परिसुता, मदिरा, कश्यम् और मद्यम।a-6-abc

मद्य पान का उल्लेख

  • मदिरा पान के समय खाने वाले नमकीन का ‘नाम अवदश बताए गया है।
  • मदिरा पीने की अवसर के भी दो नाम बताए गये हैं – मधुवार, मधुक्रम।
  • महुए की शराब के चार नाम बताए गए हैं- मध्वासन, माधवक, मधु, मार्दीकम।
  • ईख से निर्मित शराब के तीन नाम- मेरेयम, आसव एवं शीधु बताए गए हैं।
  • मदिरा निर्माण के दो नाम- सन्धानम् एवं अभिषव बताए गए हैं।
  • मदिरा पीने के स्थानों के नाम शुण्डा, पानम्, मदस्थानम्, आपानम्पान गोष्ठिका बताए गए हैं।
  • मदिरा के काढ़े के लिए पिसे हुए पदार्थ का नाम मेदक, जगल बताए गया है।
  • मदिरा पीने के चषक के दो नाम – चषक एवं पानपात्रम् बताए गए हैं।
  • शराब पीने या परोसने का नाम सरक अनुतर्षणम् बताया गया है।

याज्ञवल्क्य में रंगरेज, वधिक, रजक, बंदीजन, मद्य बेचने वाले कुलाल, तेलीया गाड़ीवान के घर अन्न ग्रहण करने का निषेध है।

भागवतमहापुराण (स्कन्ध 8, अध्याय 5) के अनुसार चाक्षुष-मन्वन्तर (पौराणिक कालगणनानुसार लगभग 42.89 करोड़ वर्ष पूर्व) भगवान् विष्णु का कच्छप-अवतार हुआ एवं क्षीरसागर के मन्थन से 14 रत्नों में से नौवे क्रम में निकली सुरा लिए हुए वारुणी देवी। भगवान की अनुमति के बाद वारुणी देवी ने सुरा को असुरों को सौंप दिया गया।

ऋग्वेद (7.86.6) में वसिष्ठ ऋषि ने वरिण से प्रार्थना भरे शब्दों में कहा है कि मनुष्य स्वयं अपनी वृत्ति या शक्ति से पाप नहीं करता, प्रत्युत भाग्य, सुरा, क्रोध जुआ एंव असावधानी के कारण वह ऐसा करता है। सोम एवं सुरा के विषय में अन्य संकेत देखिए ऋग्वेद (8.2.12, 1.116.7, 1.191.10, 10.107.9, 10.13.4 एंव 5)।

अथर्ववेद (4.34.6) में ऐसा आया है कि यज्ञ करने वाले को स्वर्ग में घृत एवं मधु की झीलें एवं जल की भांति बहती हुई सुरा मिलती है। ऋग्वेद (10.131.4) में सोम-मिश्रित सुरा को सुराम कहते हैं और इसका प्रयोग इन्द्र ने असुर नमुचि के युद्ध में किया था। अथर्ववेद में सुरा का वर्णन कई स्थानों पर हुआ है, यथा 14.1.35-36, 15.9.2-3। वाजसनेयी संहिता (19.7) में भी सुरा एंव सोम का अन्तर स्पष्ट किया गया है।

शतपथ ब्राह्मण (5.5.4.28) में सोम को ‘सत्य, समृद्धि एंव प्रकाश’ तथा सुरा को ‘असत्य, क्लेश एंव अंधकार’ कहा है। इसी ब्राह्मण (5.5.4.21) ने सोम और सुरा के मिश्रण के भयानक रुप का वर्णन किया है।

काठकसंहिता (12.12) में मनोरंजक वर्णन आया है; प्रौढ़, युवक, वधुएं और श्वशुर सुरा पीते हैं, साथ-साथ प्रलाप करते हैं; मूखर्ता (विचारहीनता) सचमुच अपराध है। इसलिए ब्राह्मण यह सोचकर कि यदि मैं पीऊंगा तो अपराध करूंगा, सुरा नहीं पीता, अत: यह क्षत्रिय के लिए है; ब्राह्मण से कहना चाहिए- यदि क्षत्रिय सुरा पीये तो उसकी हानि नहीं होगी”। इस कथन से स्पष्ट है कि काठकसहिंता के काल में सामान्यत: ब्राह्मण लोग सुरा पीना छोड़ चुके थे। सौत्रामणी यज्ञ में सुरा का तलछट पीने के लिए भी ब्राह्मण का मिलना कठिन हो गया था।

तैत्तिरीय ब्राह्मण 1.8.6) ऐतरेय ब्राह्मण (37.4) में अभिषेक के समय पुरोहित द्वारा राजा के हाथ में सुरापात्र का रखा जाना वर्णित है। छान्दोग्योपनिषद् (5.10.9) में सुरापान करने वाले को पांच पापियों में परिगणित किया गया है। इसी उपनिषद् (5.11.5) में केकय के राजा अश्वपति ने कहा है कि उसके राज्य में मद्यप नहीं पाये जाते।

कुछ गृह्यसूत्रों में एक विचित्र बात पायी जाती है- अन्वष्टका के दिन जब पुरुष पितरों को पिण्ड दिया जाता है तो माता, पितामही (दादी) एवं प्रपितामही को पिण्डमान के साथ सुरा भी दी जाती है। उदाहरणार्थ, आश्व- लायनगृह्यसूत्रों (2.5.5) में आया है- “पितरों की पत्नियों को सुरा दी जाती है और पके हुए चावल का अवशेष भी”। यही बात पारस्करगृह्यसूत्रों (3.3) में भी पायी जाती है।

काठकगृह्यसूत्र (65.7-8) में आया है कि अन्वष्टका में नारी पितरों के पिण्डों पर चमस से सुरा छिड़की जानी चाहिए और वे पिण्ड नौकरों या निषादों द्वारा खाए जाने चाहिए, या उन्हें पानी या अग्नि में फेंक देना चाहिए या ब्राह्मणों को खाने के लिए दे देना चाहिए। इस विचित्र बात का कारण बताना कठिन है। यदि अंदाजा लगाए तो कहा जा सकता है कि (1) उन दिनों नारियां सुरापान किया करती थीं (सम्भवत: लुक-छिपकर), या (2) गृह्यसूत्रों के काल में अंतर्जातीय विवाह चलते थे और घर में क्षत्रिय और वैश्य पत्नियां सुरापान किया करती थीं।

मनु (11.15) ने ब्राह्मणों के लिए सुरापान वर्जित माना है, किन्तु कुल्लूक का कथन है कि कुछ टीकाकारों के मत से यह प्रतिबन्ध नारियों पर लागू नहीं होता था। गृह्यसूत्रों की दृष्टि में उपर्युक्त छूट के लिए जो भी कारण रहे हों, किन्तु यह बात काठकसंहिता एंव ब्राह्मण ग्रन्थों के लिए ही नहीं प्रत्युत अकमत से धर्मसूत्रों एंव स्मृतियों के लिए पूर्णरूपेण अमान्य रही है।

गौतम (2.25), आपस्तम्बधर्मसूत्र (1.5.17.21), मनु (11.14)  ने एक स्वर से ब्राह्मणों के लिए सभी अवस्थाओं में सभी प्रकार की नशीली वस्तुओं को वर्जित जाना है। सुरा या मद्य का पान एक महापातक कहा गया है (आपस्तम्बधर्मसूत्र 1.7.21.8, वसिष्ठधर्मसूत्र 1.20, विष्णुधर्मसूत्र 15.1, मनु 11.54, याज्ञवल्क्य 3.227)। यह सब होते हुए भी बौधायनधर्मसूत्र (1.2.4) ने लिखा है कि उत्तर के ब्राह्मणों के व्यवहार में लायी जाने वाली विचित्र पांच वस्तुओं में सीधु (आसब) भी है। इस धर्मसूत्र ने उन सभी विलक्षण पांचों वस्तुओं की भर्त्सना की है।

मनु (11.13-14) की ये बातें निबन्धों एंव टीकाकारों ने उद्धत की हैं- “सुरा भोजन का मल है, और पाप को मल कहते हैं, अंत: ब्राह्मणों, राजन्यों (क्षत्रियों) एंव वैश्यों को चाहिए कि वे सुरा का पान न करें। सुरा तीन प्रकार की होती है- गुड़ वाली, आटे वाली तथा मधूक (महुआ) के फूलों वाली (गौड़ी, पैष्टी एंव माध्वी), इनमें किसी को भी ब्राह्मण ने पीये”।

महाभारत (उद्योगपर्व 55.5) में वासुदेव एवं अर्जुन मदिरा (सुरा) पीकर मत्त हुए कह गये हैं। यह मदिरा मधु से बनी थी। तन्त्रवार्तिक (पृ. 209-210) ने लिखा है कि क्षत्रियों को यह वर्जित नहीं थी अत: वासुदेव एवं अर्जुन क्षत्रिय होने के नाते पापी नहीं हुए।

मनु (11.93-94) एवं गौतम (2.25) ने ब्राह्मणों के लिए सभी प्रकार की सुरा वर्जित मानी है, किन्तु क्षत्रियों एवं वैश्यों के लिए केवल पैष्टी वर्जित है। शूद्रों के लिए मद्यपान वर्जित नहीं था, यद्यपि वृद्ध हारीत (9.277-278) ने लिखा है कि कुछ लोगों के मत से सत्-शूद्रों को सुरापान नहीं करना चाहिए। मनु की बात करते हुए वृद्ध हारीत ने कहा है कि झूठ बोलने, मांस- भक्षण करने, मद्यपान करने, चोरी करने या दूसरे की पत्नी चुराने से शूद्र भी पतित हो जाता है। प्रत्येक वर्ण के ब्रह्मचारी को सुरापान से दूर रहना पड़ता था- (आपस्तम्बधर्मसूत्र 1.1.2.23, मनु 2.177 एवं याज्ञवल्क्य 1.33)।

महाभारत (आदिपर्व 76.77) ने शुक्र, उनकी पुत्री देवयानी एवं शिष्य कच की गाथा कही है और लिखा है कि शुक्र ने सबसे पहले ब्राह्मणों के लिए सुरापान वर्जित माना और व्यवस्था दी जी उसके उपरान्त सुरापान करने वाला ब्राह्मण ब्रह्महत्या का अपराधी माना जायेगा। मौशलपर्व (1.29-30) में आया है कि बलराम ने उस दिन से जब कि यादवों के सर्वनाश के लिए मूसल उत्पन्न किया गया, सुरापान वर्जित कर दिया और आज्ञा दी कि अनुशासन का पालन न करने से लोग सूली पर चढ़ा दिए जाएंगे।

शान्तिपर्व (34.20) ने यह भी लिखा है कि यदि कोई भय या अज्ञान से सुरापान करता है तो उसे पुन: उपनयन करना चाहिए। विष्णुधर्मसूत्र (22.83-84) के अनुसार ब्राह्मणों के लिए वर्जित मद्य 10 प्रकार की हैं- माधूक (महुआ वाली) , ऐक्षव (ईख वाली), टांक (टंक या कपित्थ फल वाली) कौल (कोल या बदर या उन्नाव नामक बेर वाली), खार्जूर (खजूर वाली), पानस (कटहर वाली) अंगूर, माध्वी (मधु वाली), मैरेय (एक पौधे के फूलों वाली) एवं नारिकेलज (नारिकेल वाली) किन्तु ये दसों क्षत्रियों एवं वैश्यों के लिए वर्जित नहीं है। सुरा नामक मदिरा चावल के आटे से बनती थी।

मनु (9.80) एवं याज्ञवल्क्य (1.73) के मतानुसार मद्यपान करन वाली पत्नी (चाहे वह शूद्र ही क्यों न हो और ब्राह्मण को ही क्यों न ब्याही गयी हो) त्याज्य है। मिताक्षरा ने उपर्युक्त याज्ञवल्क्य के कथन की टीका में पराशर (10.26) एंव वसिष्ठधर्मसूत्र का हवाला देते हुए कहा है कि मद्यपान करने वाली स्त्री के पति का अर्ध शरीर बड़े भारी पाप का भागी होता है।

धर्मसूत्रों में मद्य के प्रकार 

गौतम धर्मसूत्र में सुरा का ही वर्णन मिलता है। आपस्तम्ब (प्रमुख धर्मसूत्रों एवं स्मृतियों में प्रायश्चित विधान- शिखा शर्मा) ने भी सुरा शब्द का ही प्रयोग किया है। आपस्तम्ब धर्मसूत्र के अनुसार सुरापान करने वाला व्यक्ति अग्नि पर खौलाई गयी सुरा पिये।  बौधायन (बौधायन धर्मसुत्र) ने सुरा के अलावा वारूणी और शीघ्र का भी वर्णन किया है।

ऋग्वेद के वर्णन से लगता है कि मधु भी मादक पेय था, मधु का प्रयोग रस के संदर्भ में किया गया है। ऋग्वेद के एक श्लोक “स्वादु रसो मधुपेयो वराय” (6.44.21) में इससे राजा के मस्त होने का उल्लेख है।

बौद्ध साहित्य संयुक्त निकाय में सुरा और मैरेय का वर्णन मिलता है। धम्मपद में भी इन्हीं का वर्णन मिलता है। धम्मपद , 22/4,5(5) सुरा – मैरेय – मद्य – विरमणम् – “बौद्धभिक्षवे गृहस्थाय च सुरापानम् , मद्यपानम् , मादक वस्तु सेवनं च वर्जितमस्ति”। महावग्ग (89-223) में मज्जा का उल्लेख है। यह एक प्रकार की सुरा थी जिसका प्रयोग औषधि के रूप में होता था।

पाचित्तिय (भाग-6) में सुरा के अनेक प्रकारों का वर्णन मिलता है- मैरेय एक प्रकार की सुरा है जिसे फूलों के आसव से बनाया जाता था। इसके भी कई प्रकारों का वर्णन मिलता है जैसे – पुष्पों से बना पुष्पासव, फलों से बना फलासव और मधु से बना मध्वासव। पाचवें उपदेश में सूरा, मैरेय और मज्जा (मद्य) के सेवन पर प्रतिबंध की बात की गई है। कई और सुरा का वर्णन भी मिलता है- पिठ-सुरा, पूव-सुरा, ओदन सुरा, जो किण्वयक्खित्ता यानी फर्मेंटेशन के जरिए बनाई जाती थी।

कौटिल्य ने अर्थशास्त्र (अध्यायः25, 02.25.16) में मद्य के कई प्रकारों का वर्णन किया है – मेदक, प्रसन्ना,आसव, अरिष्ट, मैरेय और मधु। कौटिल्य ने कापिशायन और हारहूरक नामक मद्य का भी वर्णन किया है। सुरा के प्रकारों का वर्णन करते हुए कौटिल्य ने इसके चार प्रकार बताये हैं –सहकारसुरा, रसोत्तरा,बीजोत्तरा और सम्भारिका।

रामायण (बालकाण्ड- 1/45-23&25) में मद्य निम्न प्रकार मैरेय, सुरा और वारूणी का वर्णन मिलता है। वरुणस्य ततः कन्या वारुणी रघुनन्दन।। उत्पपात महाभागा मार्गमाणा परिग्रहम्। दितेः पुत्रा न तां राम जगृहुवरुणात्मजाम्।। अदितेस्तु सुता वीर जगृहुस्तामनिन्दिताम् ।असुरास्तेन दैतेयाः सुरास्तेनादितेः सुताः।। इसके अलावा शर्करासव, माध्वीक, पुष्पासव और फलासव का भी वर्णन मिलता है।

रामायण (सुंदरकाण्ड- 5/1120) में रावण की पानशाला के बारे में कहा गया है- दिव्याः प्रसन्ना विविधाः सुराः कृत सुरा अपि। शर्कर आसव माध्वीकाः पुष्प आसव फल आसवाः। वास चूर्णैः च विविधैर् मृष्टाः तैः तैः पृथक् पृथक्।। सदैव मधु-आसव (5/11/23), शर्करासव (2/94/24), पुष्पासव (5/11/23), फलासव(5/11/23), से भरी रहती थी। रामायण में रावण के रनिवास में स्थित पानशाला का विशद वर्णन हैं।

महाभारत काल में अधिकतर सुरा का ही प्रचलन था। परन्तु माध्वीक, कैलावत आदि का भी वर्णन मिलता है। कर्णपर्व- अध्याय:61- सतन्यस्य मातुर मधुसर्पिषॊ वा; माध्वीक पानस्य च सत्कृतस्य। स्त्रीपर्व- अध्याय:20- लज्ज माना पुरैवैनं माध्वीक मदमूर्छिता।

मनु ने मद्य के निम्न प्रकार वारुणी, सुरा और आसव का वर्णन किया है तथा सुरा अधिक बल दिया गया है। मनुस्मृति के श्लोक 11/95 ‘‘यक्षरक्षः पिशाचान्नं मद्यं मांस सुरा ऽऽ सवम्। सद् ब्राह्मणेन नात्तव्यं देवानामश्नता हविः।” में कहा गया है कि ‘‘मद्य, मांस, सुरा और आसव ये चारों यक्ष, राक्षसों तथा पिशाचों के अन्न (भक्ष्य पदार्थ) हैं, अतएव देवताओं के हविष्य खाने वाले ब्राह्मणों को उनका भोजन (पान) नहीं करना चाहिये।”

हरिवंश पुराण (विष्णु पर्व अध्याय 89 श्लोक 36-52) में मैरेय, माध्‍वीक, सुरा और आसव नाम मधु से भरे हुए कलश का उल्लेख है।

चरक (चरक संहिता, सूत्रस्थान- 27.180) ने निम्न प्रकार के मद्यों का वर्णन किया है – “हिक्काश्वासप्रतिश्यायकासवर्षोंग्रहारुचौं। वम्यानाह विबन्धेषु वातघ्नी मदिरा हिता।।“ आचार्य चरक ने मद्य को अनेक नाम यथा- मदिरा, जगल, अरिष्ट, शार्कर, धातकी (धाय के फूलों से निर्मित)मधुमद्य, सुरा, जौ की सुरा, तुषोदक अम्लकजिक, मैरेय, हाला, आदि से उल्लेख किया है। स्वभाव से सभी प्रकार केमद्य रस में अम्ल उष्णवीर्य आदि विपाक में भी अम्ल होते हैं मदिरा पीने से होने वाले लाभ का भी वर्णन किया है।

सुश्रुत (सुश्रुत संहिता- 174-206) ने भी मद्य के निम्न प्रकारों कावर्णन किया है – द्राक्षा मद्य, खार्जूर, प्रसन्ना, सुरा, इसके कई प्रकार है – सामान्य सुरा, श्वेतसुरा, यवसुरा,शीध्रु, मैरेय और आसव आदि।

वाणभट्ट ने निम्न प्रकार के मद्यों का वर्णन किया है सुरा, वारूणी, अरिष्ट, मार्दीक.खार्जूर, शार्केरा, शीधु, आसव, मध्वासव आदि ।

कालिदास की रचनाओं में मद्य के नारिकेलासव, शीधु, पुष्पासव, मधु, द्राक्षासव, वारूणीऔर हाला आदि प्रकारों का वर्णन मिलता है।’ कालिदास की रचनाओं में मघ के लिये मद्य आसव’ ‘मधामदिरा, कादम्बरी’ आदि पदों का प्रयोग हुआ है। कालिदास विशेषकर मद्य के तीन प्रकारों का उल्लेख करते हैं नारियल से बना हुआ नारिकेलासव, गन्ने के रस से बना हुआ शीघु और पुष्पों से निकाला हुआ पुष्पासव’। बहुधा धनिक वर्ग के लोग सुगंधित मद्य का ही प्रयोग करते थे। मृच्छकटिक में मदिरापान एवं मदिरालय के उल्लेख मिलते हैं।

चतुर्भाणी में आये धूर्तविट संवाद से लगता है कि शराब को सुगन्धित और रूचिकर बनाने के लिए उसमें कमल की पंखड़ियां तथा सहकार तैल डाला जाता था।

सुबन्धु के “वासवदत्ता” में निम्न प्रकार के मद्यों का वर्णन मिलता है यथा – मधु,वारूणी और सुरा ।

बाण के “हर्षचरित’ में कई प्रकार के मद्यों का वर्णन मिलता है – सोम, मधु,मदिरा, प्रसन्ना, सुरा, सीधु, वारूणी और आसव आदि ।

मद्यनिषेध- सुरा-त्याग

उपरोक्त संदर्भों से साफ है कि अलग अलग काल में मद्य का प्रचलन था। लेकिन इसका सेवन सीमित था। ग्रन्थों में स्थान-स्थान पर सुरा-त्याग का उल्लेख किया गया है। मदिरा पान को पाप की ओर प्रवृत्ति तक कहा गया है।

ऋग्वेद (7.86.6) और अथर्ववेद (6.70.1; 14.1.35-36) में स्पष्ट उल्लेख है कि वैदिक युग में आरम्भिक काल से लोग सुरा के गुणों और अवगुणों से परिचित थे। वैदिक साहित्य में स्थान-स्थान पर सुरा की भरपूर निन्दा की गई है। मांस और जुआ के समकक्ष ही इसे बुरा माना गया है।

ऋग्वेद (8.2.12; 8.21.14) में कहा गया है कि मनोरंजन के लिए जो सभायें जुटती थीं, उनमें मदिरा पान करने वाले लोग लड़-झगड़ पड़ते थे। ऋग्वेद (10.131.5) के मुताबिक अधिक मदिरा पान करने वाले लोग सुराग रोग से पीड़ित होते थे। मदिरा पान से पाप की ओर प्रवृत्ति होती थी।

ऋग्वेद (7.86.6) शतपथ ब्राह्मण (5.1.5.28) के अनुसार सुरा का वैदिक काल से ही ऋषियों ने कभी आदर का स्थान नहीं दिया, क्योंकि इसके पीने से मानव की असत्प्रवृत्तियों को उत्तेजना मिलती है।

रघुवंश (4.42), कुमारसंभव (6.42), नैषधीयचरित (16.98) के अनुसार उपनिषद् युग में किसी राजा के लिए गौरव की बात थी कि उसके राज्य में एक भी सुरापायी न था। मदिरापान पांच महापातकों में गिना गया है। मनु ने तो ब्राह्मण, क्षत्रियऔर वैश्य किसी के लिए भी मदिरा पान उचित नहीं माना।

महाभारत, शान्तिपर्व (111.29)- महाभारत के अनुसार सुरा का सिद्धान्त रूप में निषेध किया गया, यद्यपि स्थान-स्थान पर सुरा पीने वालों का उल्लेख मिलता है। मधु, मांस और मद्य का परित्याग करने वाला सभी कठिनाइयों को पार कर जाता है। यदि औषधि रूप में अथवाभूल से भी मद्य पी लिया तो पुन: उपनयन करना पड़ता था

महर्षि वाल्मीकि ने रामायण (4.33.46) में लिखा है कि धर्म और अर्थ की सिद्धि के लिए मदिरा पान हानिकारक है। मदिरा पान करने में धर्म, अर्थ और काम सभी नष्ट हो जाते है। जो ब्राह्मण सुरापायी होते थे, उन्हें सड़कों पर लोग धिक्कारते चलते थे।

विष्णुपुराण (2.6-9) में विहित है कि मदिरापान करने वाले तथा ऐसे व्यक्ति के साथ सम्बन्ध रखने वाले व्यक्ति नरक में जाते हैं। कतिपय उद्धरणों में मदिरा बनाने वाले व्यक्ति को भी निन्द्य बताया गया है।

वायु पुराण (18.33) और ब्रह्माण्ड पुराण (2.12.133) में निरूपित है कि मदिरा बनाने वाला व्यक्ति पूयवह नामक नरक में जाता है।

ऋग्वेद (7.86.6) में एक स्थल पर मदिरा पानको पाप का कारण बताया गया है।

शतपथ ब्राह्मण (5.1.5.28) “अमृतं पाप्मा तमः सुरा” में सुरा की उपमा असत्य, दुःख और अन्धकार से दी गई है।

मनुस्मृति (9.235) में भी मदिरा पान करने वालों को महापापी की संज्ञा दी गई है।

ब्रह्माण्डपुराण (4.7.78) में वर्णित है कि ब्राह्मण को मोह, स्नेह अथवा इच्छा से मदिरापान नहीं करना चाहिए। एक अन्य स्थल पर वर्णन आता है कि आसवपान केवल क्षत्रिय आदि तीन वर्ण कर सकते हैं। ब्राह्मण की भांति ब्राह्मणी के लिए भी इसे वर्जित किया गया है।

मत्स्य पुराण (25.62) के अनुसार मोहवश मदिरा पान करने वाला ब्राह्मण अधार्मिक है। उसे ब्रह्महत्या का दोष लगता है। लोक तथा परलोकमें उसे गर्हित स्थान मिलता है। इन उद्धरणों से व्यक्त होता है कि ब्राह्मणार्थ मदिरापान आज्ञप्त नहीं था। इस सामान्य नियम के अन्तर्गत क्षत्रियादि तीन वर्ण नहीं आते थे।

विष्णुस्मृति (54.7) में भी मदिरापान करने वाले ब्राह्मण को नारकीय बताया गया है। इसी प्रकार महाभारत ने भी ब्राह्मणार्थ मदिरापान वर्जित किया है। इस सम्बन्ध में महाभारत का उद्धरण बिना किसी अन्तर के मत्स्यपुराण के तद्विषक स्थल के साम्य रखता है।

मदिरापान के दुर्गुणों एवं अव्यवस्थित कृत्यों से राज्यों में प्रतिबंध लगाये जाते रहे हैं। ये प्रतिबंध धार्मिक और सामाजिक आचार के स्वरूप थे। गुजरात में चालुक्य कुमारपाल ने मदिरापा नहीं नहीं बल्कि मदिरा-निर्माणशाला भी बन्द करा दी थी। (मोहराजपराजय, अंक 4, पृ. 83)

हेमचन्द्र के एक विवरण से स्पष्ट है कि चौलुक्य-कुल में मद्यपान वैसा ही वर्जित था, जैसा कि ब्राह्मणों से वर्जित था। (मुनिजिनविजय, राजर्षिकुमार पाल, पृ. 19)

सोमलता

सोम नाम से एक “लता” होती थी- सोम पर्वतों पर उगने वाला पौधा है। यह लता या पौध हिमवन्त से मूजवन्त पर्वत श्रृंखला तक मिलता था। ऋग्वेद के सूक्तों में हिमवन्त (एलबुर्ज पर्वत श्रृंखला, अर्थात ईरान) img_3475तथा मूजवन्त (गान्धार-कम्बोज प्रदेश, अर्थात अफगानिस्तान) पर्वत का उल्लेख मिलता है। ऋग्वेद में सोम को पर्वतों पर रहने वाला (गिरिष्ठा) तथा अनेक बार पर्वतों पर उगने वाला (पर्वतावृधः) कहा गया है। अथर्ववेद में पर्वतों को सोमन्तो पृष्ठ कहा गया है। ये बातें संकेत करती हैं कि सोमपर्वतों पर उगता था।

इसके अलावा कहां-कहां उल्लेख है- राजस्थान के अर्बुद, उड़ीसा के महेन्द्र गिरी, हिमाचल की पहाड़ियों, विंध्याचल, मलय आदि अनेक पर्वतीय क्षेत्रों में इसकी लताओं के पाए जाने का उल्लेख भी मिलता है। 

यद्यपि सोम को पर्वतों पर उगने वाला एक पौधा कहा गया है फिर भी इसके उत्पत्ति और आवास को स्वर्गीय ही माना गया है। इसके बारे में ऐसी अवधारणा है कि स्वर्ग से इस पौधे को पृथ्वी पर लाया गया है।

ऋग्वेद में इससे सम्बन्धित एक कथा वर्णित है- जिसके अनुसार उत्क्रोश पक्षी द्वाराइस पौधे को स्वर्ग से लाया गया है। कथानुसार उत्क्रोश पक्षी सोम-पौधे के पास उड़ कर गया और इस पौधे के मधुर काण्ड को तोड़ कर, अपने पैरों के बीच दबाकर, तीव्र गति से उड़ता हुआ वज्रधर अर्थात् इन्द्र के लिए सोम लाया।

सोम का रंग– विद्वानों का मत है कि अफगानिस्तान की पहाड़ियों पर पाया जाने वाली यह सोमलता बिना पत्तियों का गहरे बादामी रंग का पौधा है। वहीं जब इससे सोमरस बनाया जाता था तक यह अरूण वर्ण का होता था। ऋग्वेद के एक मन्त्र में इसे अरूण वृक्ष की शाखाभी कहा गया है। कहीं इसके वर्ण के लिए भूरा तथा कहीं हरित शब्द का प्रयोग किया गया है। ब्राह्ममण ग्रन्थों में सोम लता के अभाव में जिस पौधे को सोमलता का स्थानापन्न किया गया है उसका वर्णभी लाल या अरूण होता था।

ईरान में कुछ वर्ष पहले इफेड्रा नामक पौधे की पहचान कुछ लोग सोम से करते थे इफेड्रा की छोटी-छोटी टहनियां बर्तनों में दक्षिण-पूर्वी तुर्कमेनिस्तान में तोगोलोक-21 नामक मंदिर परिसर में पाई गई हैं। इन बर्तनों का व्यवहार सोमपान के अनुष्ठान में होता था। यद्यपि इस निर्णायक साक्ष्य के लिए खोज जारी है। हलांकि लोग इसका इस्तेमाल यौन वर्धक दवाई के रूप में करते हैं।

ईरान और आर्यावर्त: माना जाता है कि सोमपान की प्रथा केवल ईरान और भारत के वह इलाके जिन्हें अब पाकिस्तान और अफगानिस्तान कहा जाता है यहीं के लोगों में ही प्रचलित थी। इसका मतलब पारसी और वैदिक लोगों में ही इसके रसपान करने का प्रचलन था। इस समूचे इलाके में वैदिक धर्म का पालन करने वाले लोग ही रहते थे। ‘स’ का उच्चारण ‘ह’ में बदल जाने के कारण अवेस्ता में सोम के बदले होम शब्द का प्रयोग होता था और इधर भारत में सोम का।

  • कुछ वर्ष पहले ईरान में इंफेड्रा नामक पौधे की पहचान कुछ लोग सोम से करते थे। इफेड्रा की छोटी-छोटी टहनियां बर्तनों में दक्षिण-पूर्वी तुर्कमेनिस्तान में तोगोलोक-21 नामक मंदिर परिसर में पाई गई हैं। इन बर्तनों का व्यवहार सोमपान के अनुष्ठान में होता था। यद्यपि इस निर्णायक साक्ष्य के लिए खोज जारी है।

सोम को 1. स्वर्ग की लता का रस और 2. आकाशीय चन्द्रमा का रस भी माना जाता है... सोम की उत्पत्ति के दो स्थान हैं- ऋग्वेद अनुसार सोम की उत्पत्ति के दो प्रमुख स्थान हैं- 1.स्वर्ग और 2.पार्थिव पर्वत।

वेदों में सोमलता का विशेष महत्व प्रतिपादित किया गया है। ब्राह्मण ग्रन्थों में सोमविषयक अनेक उपाख्यान मिलते हैं। एक उपाख्यान के अनुसार गायत्री नेबाज पक्षी का रूप धारण कर धुलोक से सोम का आहरण किया था। वस्तुतःसोमलता विशेष प्रकार की औषधि है जो पर्वतों पर पायी जाती है। शतपथब्राह्मण इसकी उत्पत्ति की चर्चा करता है। आयुर्वेद में सोमलता को सोमवल्ली,सोमक्षीरी और द्विज प्रिया कहा जाता है। यह सोमलता त्रिदोष – कफ, वात औरपित्त को नष्ट करती है। यह कटु और तिक्त होती है। इसमें रसायन की क्षमता है। इसलिए देवता इसे अधिक चाहते रहे। इसीलिए वेदों में सोम की विशेष प्रशंसा की गयी है। सोम को औषधियों में सर्वश्रेष्ठ माना जाता रहा। इसे औषधियों का राजा कहा गया है।

अग्नि की भांति सोम भी स्वर्ग से पृथ्वी पर आया ‘मातरिश्वा ने तुम में से एक को स्वर्ग से पृथ्वी पर उतारा; गरुत्मान ने दूसरे को मेघशिलाओं से।’ हे सोम, तुम्हारा जन्म उच्च स्थानीय है; तुम स्वर्ग में रहते हो, यद्यपि पृथ्वी तुम्हारा स्वागत करती है। सोम की उत्पत्ति का पार्थिव स्थान मूजवंत पर्वत (गांधार-कम्बोज प्रदेश) है’। -(ऋग्वेद अध्याय सोम मंडल- 4, 5, 6)

  • स्वर्गीय सोम की कल्पना चंद्रमा के रूप में की गई है। छांदोग्य उपनिषद में सोम राजा को देवताओं में भोज्य कहा गया है। कौषितकि ब्राह्मण में सोम और चन्द्र के अभेद की व्याख्या इस प्रकार की गई है : ‘दृश्य चन्द्रमा ही सोम है। सोमलता जब लाई जाती है तो चन्द्रमा उसमें प्रवेश करता है। जब कोई सोम खरीदता है तो इस विचार से कि ‘दृश्य चन्द्रमा ही सोम है; उसी का रस पेरा जाए।’

वेदों के अनुसार सोम का संबंध अमरत्व से भी है वह पितरों से मिलता है और उनको अमर बनाता है। सोम का नैतिक स्वरूप उस समय अधिक निखर जाता है, जब वह वरुण और आदित्य से संयुक्त होता है- ‘हे सोम, तुम राजा वरुण के सनातन विधान हो; तुम्हारा स्वभाव उच्च और गंभीर है; प्रिय मित्र के समान तुम सर्वांग पवित्र हो; तुम अर्यमा के समान वंदनीय हो।’

त्रित प्राचीन देवताओं में से थे। उन्होंने सोम बनाया था तथा इंद्रादि अनेक देवताओं की स्तुतियां समय-समय पर की थीं। महात्मा गौतम के तीन पुत्र थे। तीनों ही मुनि थे। उनके नाम एकत, द्वित और त्रित थे। उन तीनों में सर्वाधिक यश के भागी तथा संभावित मुनि त्रित ही थे। कालांतर में महात्मा गौतम के स्वर्गवास के उपरांत उनके समस्त यजमान तीनों पुत्रों का आदर-सत्कार करने लगे। उन तीनों में से त्रित सबसे अधिक लोकप्रिय हो गए।

कुछ विद्वान इसे ही ‘संजीवनी बूटी’ कहते हैं- सोम को न पहचान पाने की विवशता का वर्णन रामायण में मिलता है। हनुमान दो बार हिमालय जाते हैं, एक बार राम और लक्ष्मण दोनों की मूर्छा पर और एक बार केवल लक्ष्मण की मूर्छा पर, मगर ‘सोम’ की पहचान न होने पर पूरा पर्वत ही उखाड़ लाते हैं। दोनों बार लंका के वैद्य सुषेण ही असली सोम की पहचान कर पाते हैं।

  • यदि हम ऋग्वेद के नौवें ‘सोम मंडल’ में वर्णित सोम के गुणों को पढ़ें तो यह संजीवनी बूटी के गुणों से मिलते हैं इससे यह सिद्ध होता है कि सोम ही संजीवनी बूटी रही होगी। ऋग्वेद में सोमरस के बारे में कई जगह वर्णन है। एक जगह पर सोम की इतनी उपलब्धता और प्रचलन दिखाया गया है कि इंसानों के साथ-साथ गायों तक को सोमरस भरपेट खिलाए और पिलाए जाने की बात कही गई है।

सोमरस बनाने की विधि

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उच्छिष्टं चम्वोर्भर सोमं पवित्र आ सृज। नि धेहि गोरधि त्वचि।। (ऋग्वेद सूक्त 28 श्लोक 9)

अर्थात : उलूखल और मूसल द्वारा निष्पादित सोम को पात्र से निकालकर पवित्र कुशा के आसन पर रखें और अवशिष्ट को छानने के लिए पवित्र चर्म पर रखें।

औषधि: सोम: सुनोते: पदेनमभिशुण्वन्ति।- निरुक्त शास्त्र (11-2-2)

अर्थात : सोम एक औषधि है जिसको कूट-पीसकर इसका रस निकालते हैं।

  • सोम को गाय के दूध में मिलाने पर ‘गवशिरम्’ दही में ‘दध्यशिरम्’ बनता है। शहद अथवा घी के साथ भी मिश्रण किया जाता था। सोम रस बनाने की प्रक्रिया वैदिक यज्ञों में बड़े महत्व की है। इसकी तीन अवस्थाएं हैं- पेरना, छानना और मिलाना। वैदिक साहित्य में इसका विस्तृत और सजीव वर्णन उपलब्ध है।
  • सोम के डंठलों को पत्थरों से कूट-पीसकर तथा भेड़ के ऊन की छलनी से छानकर प्राप्त किए जाने वाले सोमरस के लिए इंद्र, अग्नि ही नहीं और भी वैदिक देवता लालायित रहते हैं, तभी तो पूरे विधान से होम (सोम) अनुष्ठान में पुरोहित सबसे पहले इन देवताओं को सोमरस अर्पित करते थे।
  • बाद में प्रसाद के तौर पर लेकर खुद भी तृप्त हो जाते थे। आजकल सोमरस की जगह पंचामृत ने ले ली है, जो सोम की प्रतीति-भर है। कुछ परवर्ती प्राचीन धर्मग्रंथों में देवताओं को सोम न अर्पित कर पाने की विवशतास्वरूप वैकल्पिक पदार्थ अर्पित करने की ग्लानि और क्षमा- याचना की सूक्तियां भी हैं।

सोम को दिन में तीन बार सवन अर्थात् दबाया जाता था… सन्ध्याकालीन दबाने के कृत्य को ऋभुओं से’ तथा मध्याहून और प्रातः का सम्बन्ध इन्दरे से किया गया है, किन्तु यज्ञों से प्रसंग में प्राप्त वर्णनों से पता चलता है कि अनेक देव सोम-पान करते थे। सोम यज्ञों के लिए आपस में प्रतिद्वन्द्विता होती थी। इसका वर्णन ऋग्वेद में इस प्रकार किया गया है वसिष्ठ लोग इन्द्र को पाशघुग्न वायत के सोम-यज्ञ से सुदास् के यहां उठा ले आये थे।

सोमरस पीने के फायदे

वैदिक ऋषियों का चमत्कारी आविष्कार- सोमरस एक ऐसा पदार्थ है, जो संजीवनी की तरह कार्य करता है। यह जहां व्यक्ति की जवानी बरकरार रखता है वहीं यह पूर्ण सात्विक, अत्यंत बलवर्धक, आयुवर्धक व भोजन-विष के प्रभाव को नष्ट करने वाली औषधि है।lord-indra

स्वादुष्किलायं मधुमां उतायम्तीव्र: किलायं रसवां उतायम।

उतोन्वस्य पपिवांसमिन्द्रमन कश्चन सहत आहवेषु।।- ऋग्वेद (6-47-1)

अर्थात: सोम बड़ी स्वादिष्ट है, मधुर है, रसीली है। इसका पान करने वाला बलशाली हो जाता है। वह अपराजेय बन जाता है।

शास्त्रों में सोमरस लौकिक अर्थ में एक बलवर्धक पेय माना गया है, परंतु इसका एक पारलौकिक अर्थ भी देखने को मिलता है। साधना की ऊंची अवस्था में व्यक्ति के भीतर एक प्रकार का रस उत्पन्न होता है जिसको केवल ज्ञानीजन ही जान सकते हैं।

सोमं मन्यते पपिवान् यत् संविषन्त्योषधिम्।

सोमं यं ब्रह्माणो विदुर्न तस्याश्नाति कश्चन।। (ऋग्वेद-10-85-3)

अर्थात: बहुत से लोग मानते हैं कि मात्र औषधि रूप में जो लेते हैं, वही सोम है ऐसा नहीं है। एक सोमरस हमारे भीतर भी है, जो अमृतस्वरूप परम तत्व है जिसको खाया-पिया नहीं जाता केवल ज्ञानियों द्वारा ही प्राप्त किया जा सकता है।

इसके पीने से शरीर एक विचित्र उत्साह से भर जाता था। ऋग्वेद में इसके उल्लासित और कामनीय गुणों का वर्णन करते हुए कल्पना का भी सहारा लियागया है। सोम-पान से इन्द्र के आनन्दोल्लास का कामनीय वर्णन ऋग्वेद के एक समूचे सूक्त (१०.११६) मेंकिया गया है। इस सूक्त में एक जगह उल्लिखित है कि जिस प्रकार वेग से चलने वाले घोड़े रथ को दूरतक खींच ले जाते हैं, उसी प्रकार ये सोम की घूटें मुझे दूर तक खींच ले जाती है, क्या मैंने सोम का पाननहीं किया है। हन्त! मैं पृथ्वी को यहाँ रखूगा । मैं बड़ों में बड़ा हूँ (महामहः); मैं संसार को नाभि (अन्तरिक्ष)तक उठाये हूँ, क्योंकि मैंने सोम-रस का पान किया है। आर्य भी इसके उल्लासित गुणों से परिचित । प्रगाथ काण्व ऋषि सोम-पान के प्रभाव से आनन्दित होकर कह रहे हैं – “हमने सोम पान किया है, अमरत्व पा लिया है; ज्योर्तिमय स्वर्ग की प्राप्ति कर ली है तथा हमने देवताओं को जान लिया है।’ सामवेदके एक मन्त्र में इसे बुद्धि का विकास करने वाला बताते हुए कहा गया है कि “बुद्धि को बढ़ाने वाला तथास्वयं ज्ञानवान् सोम, सोम-रस निकालने के लिए दो तख्तों के बीच रखा गया। इससे उत्साह और स्फूर्तिदोनों आती थी। सामवेद के एक मन्त्र में इसका वर्णन इस प्रकार किया गया है – “बल बढ़ाने वाला औरउत्साह बढ़ाने वाला तथा चमकने वाला सोम-रस गाय और वीर पुत्रों की इच्छा करने वालों के द्वारा निचोड़ाजाता है। इसके पीने से सम्भवतः विष का भी प्रभाव समाप्त हो जाता है।

कण्व ऋषियों ने मानवों पर सोम का प्रभाव इस प्रकार बतलाया है- ‘यह शरीर की रक्षा करता है, दुर्घटना से बचाता है, रोग दूर करता है, विपत्तियों को भगाता है, आनंद और आराम देता है, आयु बढ़ाता है और संपत्ति का संवर्द्धन करता है। इसके अलावा यह विद्वेषों से बचाता है, शत्रुओं के क्रोध और द्वेष से रक्षा करता है, उल्लासपूर्ण विचार उत्पन्न करता है, पाप करने वाले को समृद्धि का अनुभव कराता है, देवताओं के क्रोध को शांत करता है और अमर बनाता है’।

सोम विप्रत्व और ऋषित्व का सहायक है। सोम अद्भुत स्फूर्तिदायक, ओजवर्द्धक तथा घावों को पलक झपकते ही भरने की क्षमता वाला है, साथ ही अनिर्वचनीय आनंद की अनुभूति कराने वाला है।

सोमयज्ञ- सोमरस हवन में इस्तमाल होता था

जिन यज्ञों में ‘सोम लता’ से निकाले हुए सोमरस की आहुति प्रदान की जाती है, उन यागों कोसोमयाग कहा जाता है। इसमें सोम नामक लता को कूटकर उसका रस निकालकर उसे हवि के रूप में देवताओं को समर्पित Soma-Yagaकिया जाता है। “यज्ञं व्याख्यास्यामः”, “स त्रिभिदैविधीयते” श्रौतसूत्रकारों का यहकथन सोमयाग के विषय में ही सिद्ध होता है, क्योंकि यह याग तीनों वेदों की सहायता से सम्पन्न होता है। सोमयज्ञ का हवन करने वाले ऋषियों में कण्व,अंगिरा आदि ऋषि हैं।

पूर्ववर्णित अग्निहोत्र आदि यज्ञ केवल यजुर्वेद से तथा दर्शपौर्णमासादि यज्ञ ऋग्वेद एवं यजुर्वेद से सम्पन्न हो जाते हैं। इस प्रकार सोमयज्ञ में तीनों वेदों से सम्बन्धित ऋत्विजों का वरण किया जाता है। सोमयज्ञ के चार प्रकार कहे गए हैं – एकाह, अहीन, साद्यस्क एवं सत्र। दीक्षा और उपसद् आदि के अनेक दिनों में सम्पन्न होने पर भी एक दिन में सम्पन्न होने वाले सोम याग को एकाह कहते हैं। दो सेलेकर बारह दिनों में सम्पादित होने वाले याग को अहीन याग कहते हैं। बारह से अधिक दिनों में सम्पादित सोमयज्ञ की संज्ञा सत्रयाग है। एक दिन में ही दीक्षा से आरम्भ कर अवभृथ पर्यन्त सारे कार्य सम्पन्न हों वह सोमयज्ञ साद्यस्क्र याग कहलाता है।

सोम रस बनाने की प्रक्रिया वैदिक यज्ञों में बड़े महत्व की है। इसकी तीन अवस्थाएं हैं- पेरना, छानना और मिलाना। वैदिक साहित्य में इसका पूरा वर्णन लिखा हुआ है। सोम के डंठलों को पत्थरों से कूट-पीसकर तथा भेड़ के ऊन की छलनी से छानकर प्राप्त किए जाने वाले सोमरस के लिए इंद्र, अग्नि ही नहीं और भी वैदिक देवता लालायित रहते हैं, तभी तो पूरे विधान से होम (सोम) अनुष्ठान में पण्डित सबसे पहले इन देवताओं को सोमरस अर्पित करते थे। बाद में प्रसाद के तौर पर लेकर खुद भी खुश हो जाते थे।

यद्यपि सोमयज्ञ के अङ्गरूप में बहुत सी इष्टियों का सम्पादन किया जाता है फिर भी इसका प्रधान द्रव्य सोम होने के कारण इसके लिए सोमयज्ञ शब्द प्रयोग किया जाता है। सोमयज्ञ की सात संस्थाएं हैं- अग्निष्टोम, अत्याग्निष्टोम, उक्थ्य, षोडशी, वाजपेय, अतिरात्र एवं आप्तोर्याम (वाजपेय)13 सोमयाग मेंजिस स्तोम से याग की समाप्ति होती है, उसी के आधार पर उस याग का नामकरण किया जाता है। अग्निष्टोमस्तोम के द्वारा समाप्ति होने के कारण अग्निष्टोम सोमयज्ञ कहलाता है। इसी प्रकार उक्थ्य, षोडशी और अतिरात्र संज्ञक स्तोमों की समाप्ति पर उक्थ्य आदि सोम संस्थाओं का नामकरण हुआ है।

सोमयज्ञ में मुख्य रूप से चार ऋत्विज्होते हैं (ब्रह्मा, उद्गाता, होता, अध्वर्यु) इन चारों ऋत्विजों के तीन-तीन सहायक पुरोहित होते हैं। इस प्रकार सोम याग में कुल सोलह ऋत्विज होते हैं।

सोमरस की जगह पंचामृत

आजकल सोमरस की जगह पंचामृत ने ले ली है, जो सोम की प्रतीति-भर है। कुछ प्राचीन धर्मग्रंथों में देवताओं को सोम न अर्पित कर पाने की स्तिथि में कोई और चीज अर्पित करने पर क्षमा- याचना करने के मंत्र भी लिखे हैं।

मुश्किल होती गई सोम की पहचान

अध्ययनों से पता चलता है कि वैदिक काल के बाद यानी ईसा के काफी पहले ही इस वनस्पति की पहचान मुश्किल होती गई। ऐसा भी कहा जाता है कि सोम (होम) अनुष्ठान करने वाले लोगों ने इसकी जानकारी आम लोगों को नहीं दी, उसे अपने तक ही सीमित रखा और आजकल ऐसे अनुष्ठानी लोगों की पीढ़ी/परंपरा के लुप्त होने के साथ ही सोम की पहचान भी मुश्किल होती गई।

सोमरस का उल्लेख- शास्त्रों में लिखे हैं सोम के कई चमत्कारी गुण

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अनेक स्थलों पर मिलता है। सोमरस की औषधियों को श्रेष्ठ माना गया है। ऋग्वेद में सोमरस के बारे में कई जगह लिखा है। एक जगह पर सोम की इतनी उपलब्धता और प्रचलन दिखाया गया है कि इंसानों के साथ-साथ गायों तक को सोमरस भरपेट खिलाए और पिलाए जाने की बात कही गई है।

वैदिक ऋषियों का चमत्कारी आविष्कार सोमरस एक ऐसा पदार्थ है, जो संजीवनी की तरह कार्य करता है। यह जहां व्यक्ति की जवानी बरकरार रखता है वहीं यह पूर्ण सात्विक, अत्यंत बलवर्धक, आयुवर्धक व भोजन-विष के प्रभाव को नष्ट करने वाली औषधि है।

ऋग्वेद में लिखा है-

“स्वादुष्किलायं मधुमां उतायम्तीव्र: किलायं रसवां उतायम।

उतोन्वस्य पपिवांसमिन्द्रमन कश्चन सहत आहवेषु”

यानी की : सोम बड़ी स्वादिष्ट है, मधुर है, रसीली है। इसका पान करने वाला बलशाली हो जाता है। वह अपराजेय बन जाता है।

श्रीमद् भगवद्गीता में स्वयं भगवान कृष्ण ने कहा है,

त्रैविद्या मां सोमपाः पूतपापा यज्ञैरिष्ट्वा स्वर्गतिं प्रार्थयन्ते |

ते पुण्यमासाद्य सुरेन्द्रलोकमश्र्नन्ति दिव्यान्दिवि देवभोगान् || ।।9.20।।

“जो वेदों का अध्ययन करते तथा सोमरस का पान करते हैं, वे स्वर्ग प्राप्ति की गवेषणा करते हुए अप्रत्यक्ष रूप से मेरी पूजा करते हैं | वे पापकर्मों से शुद्ध होकर, इन्द्र के पवित्र स्वर्गिक धाम में जन्म लेते हैं, जहाँ वे देवताओं का सा आनन्द भोगते हैं |”

शास्त्रों में सोमरस लौकिक अर्थ में एक बलवर्धक पेय माना गया है, परंतु इसका एक पारलौकिक अर्थ भी देखने को मिलता है। साधना की ऊंची अवस्था में व्यक्ति के भीतर एक प्रकार का रस उत्पन्न होता है जिसको केवल ज्ञानीजन ही जान सकते हैं।

ब्राह्मण ग्रन्थों में इसकी निर्माण विधि बताई गई है। सोमरस बनाने हेतु इसे धोकर कटा पीसा जाता था तथा रस निचौड लिया जाता था। सोम को कटते समय मंत्र उच्चारण का उल्लेख भी था।

कल्कि कृत सोमरस को मिट्टी या धातु के पात्र में रखते थे। बाद में जल मिलाकर वस्त्र से छानने के बाद इसको बूंद-बूंद के रूप में लोगों कोऔषध के रूप में दिया जाता था।

सोम का सम्बन्ध अमरत्व से भी है । वह स्वयं अमर तथा अमरत्व प्रदान करने वाला है । वह पितरों से मिलता है और उनको अमर बनाता है। कहीं-कहीं उसको देवों का पिता कहा गया है, जिसका अर्थ यह है कि वह उनको अमरत्व प्रदान करता है। अमरत्व का सम्बन्ध नैतिकता से भी है । वह विधि का अधिष्ठान और ॠत की धारा है वह सत्य का मित्र है।

आयुर्वेदिक ग्रंथ सोमरस के बारे में सूचना देते हैं- धन्वन्तरी सोमरस

रसेंद्रचूड़ामणि 6।6-9 में कहा है,

पञ्चांगयुक्पञ्चदशच्छदाढ्या सर्पाकृतिः शोणितपर्वदेशा।

सा सोमवल्ली रसबन्धकर्म करोति एकादिवसोपनीता।।

करोति सोमवृक्षोऽपि रसबन्धवधादिकम्।

पूर्णिमादिवसानीतस्तयोर्वल्ली गुणाधिका।।

कृष्ण पक्षे प्रगलति दलं प्रत्यहं चैकमेकं शुक्लेऽप्येकं प्रभवति पुनर्लम्बमाना लताः स्युः।

तस्याः कन्द: कलयतितरां पूर्णिमायां गृहीतो बद्ध्वा सूतं कनकसहितं देहलोहं विधत्ते।।

इयं सोमकला नाम वल्ली परमदुर्लभा।

अनया बद्धसूतेन्द्रो लक्षवेधी प्रजायते।

जिसके पंद्रह पत्ते होते हैं, जिसकी आकृति सर्प की तरह होती है। जहाँ से पत्ते निकलते हैं- वे गठिं जिसकी लाल होती है, ऐसी वह पूर्णिमा के दिन लायी हुई पञ्चांग (मूल, डण्डी, पत्ते, फूल और फल) से युक्त सोमवल्ली पारद को वद्ध कर देती है। पूर्णिमा के दिन लाए हुआ पञ्चांग से युक्त सोमवृक्ष भी पारद को बधिना, पारद की भस्म बनाना आदि कार्य कर देता है। परंतु सोमवल्ली और सोमवृक्ष, इन दोनों में सोमवल्ली अधिक गुणों वाली है।

इस सोमवल्ली का कृष्ण पक्ष में प्रतिदिन एक-एक पत्ता झड़ जाता है। और शुक्ल पक्ष में पुनः प्रतिदिन एक-एक पत्ता निकल आता है। इस तरह यह लता बढ़ती रहती है। पूर्णिमा के दिन इस लता का कंद निकाला जाए तो वह बहुत श्रेष्ठ होता है। धतूरे के सहित इस कन्द में बँधा हुआ पारद देह को लोहे की तरह दृढ़ बना देता है। और इससे बँधा हुआ पारद लक्षवेधी हो जाता है अर्थात एक गुणाबद्ध पारद लाख गुणा लोहे को सोना बना देता है। यह सोम नाम की लता अत्यन्त ही दुर्लभ है। कम से कम आज के समय में सोमवल्ली किसी सोमलता से कम नहीं।

कण्व ऋषियों ने मानवों पर सोम का प्रभाव इस प्रकार बतलाया है- ‘यह शरीर की रक्षा करता है, दुर्घटना से बचाता है, रोग दूर करता है, विपत्तियों को भगाता है, आनंद और आराम देता है, आयु बढ़ाता है और संपत्ति का संवर्द्धन करता है। इसके अलावा यह विद्वेषों से बचाता है, शत्रुओं के क्रोध और द्वेष से रक्षा करता है,

कण्व ऋषियों के अनुसार सोमरस उल्लासपूर्ण विचार उत्पन्न करता है, पाप करने वाले को समृद्धि का अनुभव कराता है, देवताओं के क्रोध को शांत करता है और अमर बनाता है’। सोम विप्रत्व और ऋषित्व का सहायक है। सोम अद्भुत स्फूर्तिदायक, ओजवर्द्धक तथा घावों को पलक झपकते ही भरने की क्षमता वाला है, साथ ही आनंद की अनुभूति कराने वाला है।

सोमरस देव और मानव दोनों को यह रस स्फुर्ति और प्रेरणा देने वाला था । देवता सोम पीकर प्रसन्न होते थे; इन्द्र अपना पराक्रम सोम पीकर ही दिखलाते थे । कण्व ॠषियों ने मानवों पर सोम का प्रभाव इस प्रकार बतलाया है: ‘ यह शरीर की रक्षा करता है, दुर्घटना से बचाता है; रोग दूर करता है; विपत्तियों को भगाता है; आनन्द और आराम देता है; आयु बढ़ाता है।

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संस्कार… हिन्दू धर्म में 16 संस्कारों का महत्व

डॉ. संदीप कोहली… कीबोर्ड के पत्रकार

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‘संस्कार’ किसी भी धर्म या सम्प्रदाय के महत्त्वूपर्ण अंग है। अध्यात्म प्रधान भारतीय संस्कृति में संस्कारों का तो विशेष महत्त्व रहा है। इतिहास के प्रारम्भ से ही संस्कार धार्मिक एंव सामाजिक एकता के प्रभावकारी माध्यम रहे है। उनका उदय निःसंदेह अतीत में हुआ था लेकिन कालक्रम से अनेक परिवर्तनों के साथ वे आज भी जीवित है। संस्कार का अभिप्राय उन धार्मिक कृत्यों से है जो किसी व्यक्ति को अपने समाज का पूर्ण रुप से योग्य सदस्य बनाने के उद्देश्य से उसके शरीर, मन और मस्तिष्क को पवित्र करने के लिए किए जाते थे। हिंदू संस्कारों का उद्देश्य भी व्यक्ति में अभीष्ट गुणों को जन्म देना होता है। प्राचीन भारत में संस्कारों का मनुष्य के जीवन में विशेष महत्व था। संस्कारों के द्वारा मनुष्य अपनी सहज प्रवृतियों का पूर्ण विकास करके अपना और समाज दोनों का कल्याण करता था। ये संस्कार इस जीवन में ही मनुष्य को पवित्र नहीं करते थे, उसके पारलौकिक जीवन को भी पवित्र बनाते थे।

भारतीय मानव जीवन में संस्कारों का महत्त्व वैदिक काल से चला आ रहा है। मानव जीवन को परिष्कृत करने के लिये हमारे ऋषियों ने अनेक प्रयत्न किये हैं उन्होंने जन्म के पूर्व से लेकर मृत्यु पर्यन्त समग्र जीवन को वैज्ञानिक प्रक्रिया के साथ अविच्छिन्न रूप से समन्वित किया है। संस्कारों से परिपूर्ण मानव-जीवन हमारी भारतीय संस्कृति का मेरूदण्ड है। प्रत्येक संस्कार याज्ञिक-प्रक्रिया द्वारा सम्पन्न हो कर जीवन में उदात्ता के अवतरण का एक माध्यम बनता है, क्योंकि संस्कारों का सम्बन्ध धार्मिक-विश्वास, आस्थाएवं सामाजिक परम्पराओं से हैं, जो बातें समाज में पहले प्राकृत रूप में विद्यमानथीं, वहीं क्रमशः धीरे-धीरे सांस्कृतिक रूप में परिवर्तित हो गई।

वास्तव में संस्कार मानव जीवन को परिष्कृत करने वाली एक आध्यात्मिक विधा है। संस्कारों से सम्पन्न होने वाला मानव सुसंस्कृत, चरित्रवान, सदाचारी और प्रभुपरायण हो सकता है अन्यथा कुसंस्कार जन्य चारित्रिक पतन ही मनुष्य और समाज को विनाश की ओर ले जाता है। वही संस्कार युक्त होने पर सबका लौकिक और पारलौकिक अभ्युदय सहज सिद्ध हो जाता है। संस्कार सदाचरण और शाश्त्रीय आचार के घटक होते हैं। संस्कार, सद्विचार और सदाचार के नियामक होते हैं। इन्हीं तीनों की सुसम्पéता से मानव जीवन को अभिष्ट लक्ष्य की प्राप्ति होती है। भारतीय संस्कृति में संस्कारों का महत्व सर्वोपरि माना गया है, इसी कारण गर्भाधान से मृत्यु पर्यन्त मनुष्य पर सांस्कारिक प्रयोग चलते ही रहते हैं। इसलिए भारतीय संस्कृति सदाचार से अनुप्रमाणित रही है।

प्राकृतिक पदार्थ भी जब बिना सुसंस्कृत किए प्रयोग के योग्य नहीं बन पाते हैं तो मानव के लिए संस्कार कितना आवश्यक है यह समझ लेना चाहिए। जब तक मानव बीज रूप में है तभी से उसके दोषों का अहरण नहीं कर लिया जाता तब तक वह व्यक्ति आर्य नहीं बन पाता है और वह मानव जीवन से राष्ट्रीय जीवन में कहीं भी हव्य कव्य देने का अधिकारी भी नहीं बन पाता। मानव जीवन को पवित्र चमत्कारपूर्ण एवं उत्कृष्ट बनाने के लिए संस्कार अत्यावश्यक है।

आयुर्वेद के जनक महर्षि आचार्य चरक (च.स.वि.1/2) कहते हैं कि-

संस्कारोहि गुणान्तराधानम् उच्चते ।

अर्थात- यह असर अलग है। मनुष्य के दुर्गुणों को निकाल कर उसमें सद्गुण आरोपित करने की प्रक्रिया का नाम संस्कार है।

अंगिरा ऋषि (वीर मित्रोदयसंस्कार प्रकाश- भाग-1, पृष्ठ 139) कहते हैं कि-

चित्रकर्म यथाडेनेकैरंगैसन्मील्यते षनैः।

ब्राह्ण्यमपि तद्वास्थात्संस्कारैर्विधिपूर्व कैः।।

अर्थात- जिसके प्रकार किसी चित्र में विविध रंगों के योग से धीरे-धीरे निखार लाया जाता है, उसी प्रकार विधिपूर्वक संस्कारों के सम्पादन से ब्रह्ण्यता प्राप्त होती है।

मानवीय संस्कारों के महत्वपूर्ण तत्वों की ओर इंगित करते हुए भगवान वेद व्यास कहते हैं-

न चात्मानं प्रशंसेद्वा परनिन्दां च वर्जयेत्।

वेदनिन्दां देवनिन्दां प्रयन विवर्जयेत्।। (पद्मपुराण )

हिन्दू संस्कारों का वर्णन वेदों में कुछ सूक्तों, कुछ ब्राह्मणों, ग्रन्थों, गृह्य तथा धार्मिक सूक्तों, स्मृतियों, एवं परवर्ती निबन्ध ग्रन्थों में पाया जाता है। ये ग्रन्थ विभिन्न युगों तथा स्थानों में उद्गार, विधि, अथवा पद्धति के रूप में लिखे गये।

गृह्यसूत्रों में संस्कारों का अत्यंत विस्तृत रूप में विवेचन हुआ है-

  • पारस्कर गृह्यसूत्र- गर्भाधान’, पुंसवन, सीमन्तोन्नयन’, जातकर्म’, नामकरण,उपनयन’, समावर्तन’ संस्कारों का विस्तारपूर्वक वर्णन मिलता है।
  • गोभिलगृह्यसूत्र- अत्यन्त विस्तृत रूप में संस्कारों का विवेचन किया गया है। गर्भाधान, पुंसवन’, सीमन्तोन्नयन” जातकर्म’, निष्क्रमण, नामकरण’, चूड़ाकरण’, उपनयन, गोदान संस्कारों की चर्चा की गई है।

उपनिषदों में भी संस्कारों का वर्णन मिलता है-

  • छान्दोग्य-उपनिषद् में ब्रह्मचर्य के साधारण काल का वर्णन किया गया है।’
  • बृहदारण्यक-उपनिषद् मेंपवित्र गायत्री मन्त्र का वर्णन मिलता है।

मनुस्मृति में अनेक बहुमूल्य व्यावहारिक निर्देश प्राप्त होते हैं-‘ अनेक स्थलों पर धर्मसूत्रों तथा गृह्यसूत्रों के वर्ण्य-विषय एक-दूसरे में समाविष्ट हो जाते हैं।

धर्म-सूत्र वर्ण और आश्रम का निरूपण करते हैं- आश्रम-धर्म के अन्तर्गत उपनयन और विवाह से सम्बद्ध नियमों का विशद् वर्णन वर्णित है। यह संस्कारों के सामाजिक अंगों का सविस्तार निरूपण करते हैं।

स्मृतियां, धर्म-सूत्रों के परवर्ती तथा सुव्यवस्थिति विकास का प्रतिनिधित्व करती हैं- धर्मसूत्रों के समान वह भी मुख्यतः कर्मकाण्डों की अपेक्षा मनुष्य के सामाजिकव्यवहार से सम्बन्धित हैं। उनके वर्ण्य-विषयों का वर्गीकरण आचार, व्यवहार औरप्रायश्चित-इन तीन शीर्षकों के अन्तर्गत किया जा सकता है। प्रथम शीर्षक के अन्तर्गत संस्कार तथा उनकी नियामक विधियां दी गई हैं। उपनयन और विवाह कासर्वाधिक और पूर्ण वर्णन किया गया है, क्योंकि इन संस्कारों से वैयक्तिक जीवन केप्रथम और द्वितीय सोपान प्रारम्भ होते हैं। पञ्च महायज्ञों को भी स्मृतियों में मुख्यस्थान प्राप्त है। मनुस्मृति इन्हें अत्यन्त महत्त्वपूर्ण स्थान देती है और इसका विस्तृतनिरूपण करती है।

महाकाव्य भी संस्कारों के विषय में कुछ जानकारी देते हैं- ब्राह्मणों ने जो कि साहित्य के संरक्षक थे, अपने धर्म और संस्कृति के प्रचार के लिए महाकाव्योंका उपयोग किया, क्योंकि वह वर्तमान समय में लोकप्रिय हो चुके थे।

  • रामायण, महाभारत में अनेक संस्कार-सम्बन्धी तत्त्वों का समावेश है। रामायण तो आचारशास्त्र ही है।
  • रघुवंश तथा कुमारसम्भव जैसे महाकाव्य और उत्तररामचरित आदि नाटक ऐसे उदाहरण प्रस्तुत करते हैं, जिनसे संस्कार से सम्बद्ध अनेक जटिलविषयों का स्पष्टीकरण हो जाता है।
  • इसके पश्चात् महाकवि कालिदास ने अपनीरचनाओं में एवं भवभूति विरचित उत्तरामचरित आदि नाटकों में ऐसे उदाहरण प्रस्तुतकिये हैं, जिनसे संस्कार से सम्बन्धित अनेक जटिल विषयों का स्पष्टीकरण हो जाता है।

संस्कार : अर्थ एवं परिभाषा

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धर्मशास्त्रों में संस्कारों का अर्थ परिभाषा एवं स्वरूप का वर्णन किया गया है। प्रकृति से उत्पन्न होने वाली वस्तु प्राकृत कहलाती है।

“गुणदोषमयं सर्व स्रष्टा सृजति कौतुकी”

इसके अनुसार सर्वत्र गुण-दोषों का सम्मिश्रण देखा जाता है। व्यक्ति को परिष्कृत करने के लिए संस्कारित करने के लिये जो पद्धति  अपनाई जाती है, उसे ही संक्षेप में संस्कार कहते हैं। (पुस्तक: वेदों में भारतीय संस्कृति- पं. आद्यादत्त ठाकुर)

संस्कार शब्द की व्युत्पत्ति संस्कृत की सम्पूर्वक कृञ् धातु से घञ् प्रत्यय करके की गई है। (सम्+कृ+घञ्= संस्कार) औरइसका प्रयोग अनेक अर्थों में किया जाता है। मीमांसक विद्वान् यज्ञांगभूत पुरोडाशआदि की विधिवत् शुद्धि से इसका आशय समझते है। अद्वैतवेदान्ती जीव परशारीरिक क्रियाओं के मिथ्या आरोप को संस्कार मानते है। नैयायिक भावों को व्यक्तकरने की आत्मव्यञ्जक शक्ति को संस्कार मानते है। जिसका परिगणन वैशेषिकदर्शन में चौबीस गुणों के अन्तर्गत किया गया है।

संस्कृत साहित्य में इसका प्रयोग शिक्षा, संस्कृति, प्रशिक्षण, सौजन्य, पूर्णता,व्याकरण सम्बन्धी, शुद्धि, संस्करण, परिष्करण, शोभा, आभूषण, प्रभाव, स्वरूप,स्वभाव, क्रिया, छाप, स्मरण शक्ति, स्मरण शक्ति पर पड़ने वाला प्रभाव, शुद्धि क्रिया, धार्मिक विधि-विधान, अभिषेक, विचार, भावना, धारणा, कार्य का परिणाम्,क्रिया की विशेषता आदि अर्थो में हुआ है। इस प्रकार यह स्पष्ट है कि संस्कारशब्द के साथ विलक्षण अर्थो का योग हो गया है। जो इसके दीर्घ इतिहास क्रम मेंइसके साथ संयुक्त हो गये है। इसका अभिप्राय शुद्धि ही धार्मिक क्रियाओं तथाव्यक्ति के दैहिक, मानसिक, तथा बौद्धिक परिष्कार के लिये किये जाने वालेअनुष्ठानों में से है। जिनसे वह समाज का पूर्ण विकसित सदस्य हो सके। किन्तुहिन्दु संस्कारों में अनेक आरम्भिक विचार, अनुष्ठान भी समाविष्ट है, जिनकाउद्देश्य केवल औपचारिक दैहिक संस्कार ही न होकर संस्कार्य व्यक्ति के सम्पूर्णव्यक्तित्व का परिष्कार, शुद्धि तथा पूर्णता भी है। साधारणतया यह समझा जाता थाकि सविधि, संस्कारों के अनुष्ठान से संस्कृत व्यक्ति में विलक्षण तथा अवर्णनीयगुणों का प्रादुर्भाव हो जाता’ संस्कार शब्द का प्रयोग इस सामूहिक अर्थ में होता था

संस्कारों का उदय वैदिक काल या उससे पूर्व हो चुका था, जैसा कि वेदों के विशेष कर्मकाण्डीय मंत्रों से विदित होता है। किन्तु वैदिक साहित्य में संस्कार शब्द का प्रयोग प्राप्त नहीं होता। ब्राह्मण साहित्य में भी इसका उल्लेख नहीं है। यद्यपि इसके विशेष प्रकरणों में उपनयनः अन्त्येष्टि, आदि कुछ संस्कारों के अंगों का वर्णन किया गया है। मीमांसक विद्वान् इस शब्द का प्रयोग वैयक्तिक शुद्धि के लिये कियेजाने वाले अनुष्ठानों के लिये न कर अग्नि में आहुति देने के पूर्व यज्ञीय सामग्री के परिष्कार के लिये करते थे। संस्कारों के अंगभूत विधि-विधान, कर्मकाण्ड, आचार,प्रथाये आदि प्रायः सार्वभौम है, और संसार के विविध देशों में पायी जाती है।प्राचीन संस्कृतियों में उनका प्रतिष्ठित स्थान है और आधुनिक धर्मो में भी उनकापर्याप्त प्रतिनिधित्व है। अतः संस्कारो के ऐतिहासिक विकास को ठीक-ठीक समझनेके लिये हिन्दु संस्कारों का अन्य धर्मों में प्रचलित संस्कारों तथा विधि-विधान केसाथ तुलनात्मक अध्ययन भी आवश्यक है। आधुनिक उपयोगितावादी दृष्टि सेदेखने पर संस्कारों के कई अंग असंगत तथा उपसहनीय जान पडेंगे। किन्तु जिन्हेंअतीत, प्राचीन, जीवन और संस्कृति के सामान्य सिद्धान्तों को समझने की क्षमता,धैर्य तथा रूचि है, उन्हें ऐसा प्रतीत नहीं होगा। उनको आभास होगा कि मानव ज्ञानभण्डार को समृद्ध बनाने हेतु उनका परिचय आवश्यक है। संस्कार सम्बन्धी विश्वासतथा प्रथायें अन्धविश्वास मूलक जादू-टोना तथा पौरोहित्य कला पर अवलम्बितनहीं है। वे पर्याप्त मात्रा में परस्पर सुसंगत तथा युक्ति युक्त है, तथापि उनका उदयआज से भिन्न मनोवैज्ञानिक वातावरण में हुआ था।

संस्कार दो प्रकार से समाज को प्रभावित करते है- (1) सिद्धान्तीकरण,(2) अभ्यास। पहले से धीरे-धीरे विचारों तथा विश्वासों का स्वरूप स्थिर होता है।सभी नियामक विधियों से यह प्रभाव शक्तिमान होता है। औचित्य और कर्त्तव्य कीधारणा मनुष्य को अपने पथ से विचलित नहीं होने देती। संस्कार इसकी चेतावनीजीवन के सभी मोडों पर देते है। यह प्रक्रिया शैशवावस्था से आरम्भ होती है।

‘संस्कृति’ शब्द सम् उपसर्ग पूर्वक डुकृञ धातु के योग से बना है। अंग्रेजी में संस्कृति शब्द के लिए ‘कल्चर’ शब्द का प्रयोग किया जाता है। संस्कृति का सम्बन्ध संस्कार से है।

  • डॉ० सत्यव्रत सिद्धान्तालंकार संस्कारों की वैज्ञानिक विधि से व्याख्या करते हुए अपने ग्रन्थ ‘संस्कार चन्द्रिका (पृष्ठ – 22)’ में लिखते हैं कि बालक के उत्पन्न होते ही उसे संस्कारों की भट्ठी में डालना ही संस्कार कहलाता है। संस्कार समुच्चय की भूमिका में ज्ञानमय प्रगतिशील और सफल बनाने का नाम साधन संस्कार है।
  • स्कन्धपुराण (नागर खण्ड अ० 239 श्लो० 31) में कहा गया है कि “जन्मना जायते शूद्रः संस्काराद्द्विज उच्यते”॥ अर्थात्-  जन्म से सभी शूद्र होते हैं संस्कारों से द्विज बनते हैं।
  • आचार्य चरक कहते है-‘संस्कारो हि गुणान्तराधानामुच्यते’ (चरक संहिता,विमान 1/27),“दुर्गुनों एवं दोषों का परिहार तथा गुणों का परिवर्तन करके भिन्न एक नवीन गुणों का आधान करने का नाम संस्कार है।” निर्गुण को सगुण बनाना,विकारों एवं अशुद्धियों का निवारण करना तथा मूल्यवान गुणोंको सम्प्रेषित अथवा संक्रमित करना संस्कारों का कार्य है।
  • मीमांसा दर्शन के (3/1/3) सुत्र की व्याख्या में शबरस्वामी ने ‘संस्कार’ शब्द का अर्थ इस प्रकार किया है -‘संस्कारों नाम स भवति यस्मिञजाते पदार्थो भवति योग्यः’कस्यचिदर्थरय अर्थात् सस्कार वह है, जिसके होने से पदार्थ याव्यक्ति किसी कार्य के योग्य हो जाता है।
  • तन्त्रवार्तिक (पृ. 1078) के अनुसार – ‘योग्यतां चाद्धानाः क्रिया:संस्कारा इत्युच्यन्ते’ अर्थात संस्कार वे क्रियांए तथा रीतियां हैं,जो योग्यता प्रदान करती है। वह योग्यता दो प्रकार की होती है- (1) पापमोचन से उत्पन्न योग्यता तथा (2) नवीन गुणों सेउत्पन्न योग्यता।
  • मानवधर्मशास्त्र के प्रवर्तक महर्षि मनु ने लिखा है —-निकादिश्मशानान्तो मन्त्रस्यिोदितो विधिः ।तस्य शास्तेडधिकारोऽस्मिञज्ञेयो नान्यस्य कस्यचित् ।।(मनु. 2/26)मनुष्यों के शरीर और आत्मा को उन्नत करने के लियेमन्त्रोच्चारण पूर्वक यथाविधि निषेक से लेकर श्मशान अर्थात्गर्भाधान से लेकर अन्त्येष्टिपर्यन्त जिसके संस्कार होते हैं, वहींशास्त्र का अधिकारी होता है।
  • मीमांसा दर्शन के (3/1/3) सुत्र की व्याख्या में शबरस्वामी ने ‘संस्कार’ शब्द का अर्थ इस प्रकार किया है -‘संस्कारों नाम स भवति यस्मिञजाते पदार्थो भवति योग्यः’कस्यचिदर्थरय अर्थात् सस्कार वह है, जिसके होने से पदार्थ याव्यक्ति किसी कार्य के योग्य हो जाता है। मीमांसा दर्शन संस्कार का आशय यज्ञीय पुरोडाश आदिकी सविधि शुद्धि मानता है – ‘प्रोक्षणादिजन्यसंस्कारों यज्ञड्पुरोडशिषु।’
  • वीरमित्रोदेय संस्कार प्रकाश (भाग-1 , पृ.132) के अनुसार संस्कृत की परिभाषा है – ‘आत्मशरीरान्यतरनिष्ठो विहितक्रियाजन्योडतिशय विशेष: संस्कारः। संस्कार का अर्थ होता है- परिशुद्धि या सफाई।
  • महर्षि जैमिनी (जैमिनी सूत्र, 3.1.3)  के अनुसार संस्कार वह है, जिससे कोई व्यक्तिया वस्तु किसी कार्य के योग्य हो जाते हैं, संस्कारों नाम सभवति यस्मिञजाते पदार्थो भवति योग्यः कस्यचिदर्थस्या”संस्कारों के द्वारा वस्तु या प्राणी को और अधिक संस्कृत परिमार्जित एंव उपादेय बनाना ही इसका मुख्य उद्देश्य हैअर्थात् संस्कार पात्रता पैदा करते हैं।

संस्कारों का विवेचन मुख्य रुप से गृह्यसूत्रों में ही मिलता है, किन्तु इनमें भी संस्कार शब्द का प्रयोग यज्ञ सामग्री के पवित्रीकरण के अर्थ में किया गया है। वैखानस स्मृति सूत्र (200-500 ई.) में सबसे पहले शरीर संबंधी संस्कारों और यज्ञों में स्पष्ट अन्तर मिलता है। 

मनु और याज्ञवल्क्य के अनुसार संस्कारों से द्विजों के गर्भ और बीज के दोषादि की शुद्धि होती है। कुमारिल भट्ट (8वीं ई.) ने तन्त्रवार्तिक ग्रंथ में इसके कुछ भिन्न विचार प्रकट किए हैं। उनके अनुसार मनुष्य दो प्रकार से योग्य बनता है – पूर्व- कर्म के दोषों को दूर करने से और नए गुणों के उत्पादन से। संस्कार ये दोनों ही काम करते हैं।

संस्कारों की संख्या

संस्कारों की संख्या के सम्बन्ध में भी विचारक एक मत नहीं हैं-

ऋग्वेद में संस्कारों का उल्लेख नहीं है, किन्तु इस ग्रंथ के कुछ सूक्तों में विवाह, गर्भाधान और अंत्येष्टि से संबंधित कुछ धार्मिक कृत्यों का वर्णन मिलता है।

दशमासाञ्छशयान: कुमारो अधि मातरि!

निरैतु जीवो अक्षतों जीवन्त्या अधि!!  (ऋग्वेद- 5/75/9)

अर्थात्- हे परमात्मन, दस माह तक माता के गर्भ में रहने वाला सुकुमार जीव प्राण धारण करता हुआ अपनी प्राण शक्ति सम्पन्न माता के शरीर से सुखपूर्वक बाहर निकले।

ऋग्वेद में भी गर्भाधान संस्कार का उल्लेख हुआ है-

अहं गर्भमदधामोषधीष्वहं विश्वेषु भुवनेष्वन्त।

अहं प्रजा अजनयं पृथिव्यामहं जनिभ्यो अपरीषुपुत्रान्।। (ऋग्वेद- 10.183.3)

यजुर्वेद में केवल श्रौत यज्ञों का उल्लेख है, इसलिए इस ग्रंथ के संस्कारों की विशेष जानकारी नहीं मिलती।

गोपथ और शतपथ ब्राह्मणों में उपनयन गोदान संस्कारों के धार्मिक कृत्यों का उल्लेख मिलता है।

तैत्तिरीय उपनिषद् में शिक्षा समाप्ति पर आचार्य की दीक्षांत शिक्षा मिलती है।

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अथर्ववेद में विवाह, अंत्येष्टि, उपनयन और गर्भाधान संस्कारों का पहले से अधिक विस्तृत वर्णन मिलता है। अथर्ववेद का 5.25वां सूक्त गर्भाधान संस्कार से संबधित है। अथर्ववेद के इस सूक्त के तीसरे व पांचवें मंत्र में जो कि वृहदारण्यक उपनिषद (6.4.21) में उदृधृत है, गर्भाधान संस्कार का उद्घाटन करता प्रतीत होता है-

अथास्याउरू विहापयति विजिहीथां द्यावापृथिवी इति तस्यामर्थं निष्ठाय मुखेन मुखं संधाय त्रिरेनामनुलोमामनुमाष्टि ।

विष्णुर्योनि कल्पयतु त्वष्टा रूपाणि पिंषतु।

आसिंचतु प्रजापतिर्धाता गर्भं दधातु ते।।

गर्भ धेहि सिनीवालि गर्भ धेहि पृथुष्टुके।

गर्भ अश्विनौ देवावाधत्तां पुष्कर:जौ।। (वृहदारण्यक उपनिषद्- 6/4/21)

उपयुर्क्त मंत्र अथर्ववेद 5.25.3 और 5.25.5 से उदृधृत है।

अर्थात् गृह्यसूत्रों से पूर्व संस्कारों के पूरे नियम नहीं मिलते। ऐसा प्रतीत होता है कि गृहसूत्रों से पूर्व पारम्परिक प्रथाओं के आधार पर ही संस्कार होते थे। सबसे पहले गृहसूत्रों में ही संस्कारों की पूरी पद्धति का वर्णन मिलता है। गृह्यसूत्रों में संस्कारों के वर्णन में सबसे पहले विवाह संस्कार का उल्लेख है। इसके बाद गर्भाधान, पुंसवन, सीमंतोन्नयन, जात- कर्म, नामकरण, निष्क्रमण, अन्न- प्राशन, चूड़ा- कर्म, उपनयन और समावर्तन संस्कारों का वर्णन किया गया है। अधिकतर गृह्यसूत्रों में अंत्येष्टि संस्कार का वर्णन नहीं मिलता, क्योंकि ऐसा करना अशुभ समझा जाता था। स्मृतियों के आचार प्रकरणों में संस्कारों का उल्लेख है और तत्संबंधी नियम दिए गए हैं। इनमें उपनयन और विवाह संस्कारों का वर्णन विस्तार के साथ दिया गया है, क्योंकि उपनयन संस्कार के द्वारा व्यक्ति ब्रह्मचर्य आश्रम में और विवाह संस्कार के द्वारा गृहस्थ आश्रम में प्रवेश करता था।

आश्वलायन गृह्यसूत्र ऋग्वेद से सम्बद्ध हैं। इसमें 4 अध्याय हैं, जिनमें संस्कारों, कृषि कर्मों एवं पितृमेघ आदि धार्मिक कृत्यों का प्रधानरूप से वर्णन मिलता है। आश्वलायन गृह्यसूत्र (1.22.1) में 11 संस्कारों का वर्णन मिलता है जो निम्नलिखित हैं- 1. विवाह, 2. गर्भाधान, 3. पुंसवन, 4. सीमन्तोन्नयन, 5. जातकर्म, 6. नामकरण, 7.चूडाकरण, 8. अन्नप्राशन, 9. उपनयन, 10. समावर्तन, 11. अन्त्येष्टि।

मनु (मनु.स्मृ- 16,26,29,3-14) के अनुसार गर्भाधान से लेकर मृत्यु पर्यन्त 13 स्मार्त संस्कार हैं- गर्भाधान, पुंसवन,सीमन्तोन्नयन, जातकर्म, नामधेय, निष्क्रमण, अन्नप्राशन, चूडाकर्म, उपनयन,मौजीबन्धन, केशान्त समावर्तन अन्त्येष्टि।

बौधायन गृह्यसूत्र (यह गृह्यसूत्र कृष्णयजुर्वेद की तैत्तिरीय शाखा से सम्बद्ध हैं) में 13 संस्कारों का वर्णन किया गया है- विवाह, गर्भाधान, पुंसवन, सीमन्तोन्नयन, जातकर्म, नामकरण, निष्क्रमण, अन्नप्राशन, चूडाकर्म, उपनयन, कर्णवेध, समावर्तन तथा पितृमेध।

पारस्कर गृह्यसूत्र (1/4/13) में 13 संस्कारों की चर्चा की गई है-विवाह, गर्भाधान, पुंसवन, सीमन्तोन्नयन, जातकर्म, नामकरण,निष्क्रमण, अन्नप्राशन, चूड़ाकरण, उपनयन, केशान्त, समावर्तन, अन्त्येष्टि।

आश्वलायन, पाररकर, बौधायन गृह्यसूत्रों से हटकर सामवेदीय गृह्यसूत्रों में गोभिल गृह्यसूत्र, खादिर गृह्यसूत्र तथा द्रारायण गृह्यसूत्र में दस संस्कारों के ही वर्णन प्राप्त होते हैं। प्रायः सभी गृह्यसूत्र विवाह से ही संस्कारों का वर्णन प्रारम्भ करते हैं, लेकिन जैमिनि गृह्यसूत्र में सर्वप्रथम पुंसवन संस्कार का वर्णन किया गया है। इस गृह्यसूत्र में गर्भाधान का तो वर्णन ही नहीं किया गया है।

गौतम धर्मसूत्रों (‘चत्वारिंशत् संस्कारा अष्टौ आत्मगुण’:- 3.1-4) में संस्कारों की संख्या को बढ़ाकर 40 तक पहुंचाया गया है, जिनका क्रमिक उल्लेख निम्न है-

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वर्तमान समय में षोडश (16) संस्कारों को स्वीकृत किया गया है

संस्कार विधि के प्रारम्भ में षोडश यानी सोलह संस्कारों का उल्लेख मिलता है, किन्तु व्याख्या भाग में सत्रह संस्कारों का वर्णन हुआ है। यह संस्कार इस प्रकारहैं-गर्भाधान, पुंसवनम्, सीमन्तोन्नयन, जातकर्म, नामकरण, निष्क्रमण, अन्नप्राशन चूडाकर्ण, कर्णवेधन, उपनयन, वेदारम्भ, समावर्तन, विवाह, वानप्रस्थ, संन्यास अन्त्येष्टि संस्कार।

महर्षि वेदव्यास स्मृति शास्त्र के अनुसार, 16 संस्कार प्रचलित हैं:-

गर्भाधानं पुंसवनं सीमंतो जातकर्म च। नामक्रियानिष्क्रमणेअन्नाशनं वपनक्रिया:।।

कर्णवेधो व्रतादेशो वेदारंभक्रियाविधि:। केशांत स्नानमुद्वाहो विवाहाग्निपरिग्रह:।।

त्रेताग्निसंग्रहश्चेति संस्कारा: षोडश स्मृता:। (व्यासस्मृति – 1/13-15)

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1- गर्भाधान संस्कार

हिंदू धर्म में जिन सोलह संस्कारों का वर्णन आता है, उनमें पहला संस्कार है गर्भाधान। इस संस्कार के जरिए आत्मा कोख में आती है और जीवन-मृत्यु का चक्र आरंभ होता है।

जन्मना जायते शुद्रऽसंस्काराद्द्विज उच्यते।

अर्थात: जन्म से सभी शुद्र होते हैं और संस्कारों द्वारा व्यक्ति को द्विज बनाया जाता है।

गर्भाधान के संबध में स्मृतिसंग्रह में लिखा है:-

निषेकाद् बैजिकं चैनो गार्भिकं चापमृज्यते।

क्षेत्रसंस्कारसिद्धिश्च गर्भाधानफलं स्मृतम्।।

अर्थात: अर्थात् विधिपूर्वक संस्कार से युक्त गर्भाधान से अच्छी और सुयोग्य संतान उत्पन्न होती है। इस संस्कार से वीर्यसंबधी पाप का नाश होता है, दोष का मार्जन तथा क्षेत्र का संस्कार होता है। यही गर्भाधान-संस्कार का फल है।

हिन्दू धर्म के अनुसार गृह्स्थ जीवन का एक मुख्य उद्देश्य संतान प्राप्ति भी है, ताकि यह संसार बिना किसी व्यवधान के आगे बढ़ता रहे। जिन विवाहित दंपत्तियों को माता-पिता बनने का सुख प्राप्त होता है, उनके लिए यह ईश्वर के आशीर्वाद जैसा ही है। हर जीव जो इस दुनियां में आता है वह माता-पिता बनने का सुख प्राप्त करता है लेकिन श्रेष्ठ संतान की उत्पत्ति के लिये हिंदू धर्म ग्रंथों में कुछ नियम निर्धारित किए गए हैं। जिनका पालन करना गर्भधान संस्कार कहलाता है। कहते हैं महिला और पुरुष के मिलन से जीव स्त्री के गर्भ में अपना स्थान बना लेता है। गर्भाधान संस्कार के माध्यम से जीव के पूर्वजन्म के बुरे प्रभाव को नष्ट कर अच्छे गुणों को डाला जाता है।

संस्कारों हि नाम संस्कार्यस्य गुणाधानेन वा स्याद्योषाप नयनेन वा॥ -ब्रह्मसूत्र भाष्य 1/1/4

अर्थात: व्यक्ति में गुणों का आरोपण करने के लिए जो कर्म किया जाता है, उसे संस्कार कहते हैं।

उत्तम संतान प्राप्त करने के लिए इसीलिए सबसे पहले गर्भाधान-संस्कार करना होता है जिससे पवित्र भावना का विकास होता है। तब माता-पिता के रज एवं वीर्य के संयोग से संतानोत्पत्ति होती है। यह संयोग ही गर्भाधान कहलाता है। स्त्री और पुरुष के शारीरिक मिलन को गर्भाधान-संस्कार कहा जाता है। गर्भस्थापन के बाद अनेक प्रकार के प्राकृतिक दोषों के आक्रमण होते हैं, जिनसे बचने के लिए यह संस्कार किया जाता है। जिससे गर्भ सुरक्षित रहता है। विधिपूर्वक संस्कार से युक्त गर्भाधान से अच्छी और सुयोग्य संतान उत्पन्न होती है। शास्त्रों में लिखा भी है-

आहाराचारचेष्टाभिर्यादृशोभिः समन्वितौ।

स्त्रीपुंसौ समुपेयातां तयोः पुतोडपि तादृशः।।

अर्थात : स्त्री और पुरुष जैसे आहार-व्यवहार तथा चेष्टा से संयुक्त होकर परस्पर समागम करते हैं, उनकी संतान भी वैसे ही स्वभाव का होता है।

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श्रेष्ठ संतान के जन्म के लिए आवश्यक है कि ‘गर्भाधान’ संस्कार श्रेष्ठ मुहूर्त में किया जाए। ‘गर्भाधान’ कभी भी क्रूर ग्रहों के नक्षत्र में नहीं किया जाना चाहिए। ‘गर्भाधान’ व्रत, श्राद्धपक्ष, ग्रहणकाल, पूर्णिमा व अमावस्या को नहीं किया जाना चाहिए। जब दंपति के गोचर में चन्द्र, पंचमेश व शुक्र अशुभ भावगत हों तो ‘गर्भाधान’ करना उचित नहीं होता, आवश्यकतानुसार अनिष्ट ग्रहों की शांति-पूजा कराकर गर्भाधान संस्कार को संपन्न करना चाहिए। शास्त्रानुसार रजोदर्शन की प्रथम 4 रात्रि के अतिरिक्त 11वीं और 13वीं रात्रि को भी ‘गर्भाधान’ नहीं करना चाहिए। ‘गर्भाधान’ सदैव सूर्यास्त के पश्चात ही करना चाहिए। ‘गर्भाधान’ दक्षिणाभिमुख होकर नहीं करना चाहिए। ‘गर्भाधान’ वाले कक्ष का वातावरण पूर्ण शुद्ध होना चाहिए। ‘गर्भाधान’ के समय दंपति के आचार-विचार पूर्णतया विशुद्ध होने चाहिए।

2- पुंसवन संस्कार

16 हिन्दू धर्म संस्कारों में पुंसवन संस्कार द्वितीय संस्कार है। पुंसवन संस्कार जन्म के तीन माह के पश्चात किया जाता है। पुंसवन संस्कार तीन महीने के पश्चात इसलिए आयोजित किया जाता है क्योंकि तीसरे माह से गर्भ में आकार और संस्कार दोनों अपना स्वरूप पकड़ने लगते हैं। उनके लिए आध्यात्मिक उपचार समय पर ही कर दिया जाना चाहिए। इस संस्कार के नीचे लिखे प्रयोजनों को ध्यान में रखा जाए।  गर्भिणी सूत्र दुहरायें-

ॐ दिव्यचेतनां स्वात्मीयां करोमि।

हम दिव्य चेतना को आत्मसात् कर रहे हैं।

ॐ भूयो भूयो विधास्यामि।

यह क्रम आगे भी बनायें रखेंगे। गर्भिणी औषधि को निम्न मन्त्र के साथ सूँघे।

ॐ अद्भ्यः सम्भृतः पृथिव्यै रसाच्च विश्वकर्मणः समवर्त्तताग्रे।

तस्य त्वष्टा विदधद्रूपमेति तन्मर्त्यस्य देवत्वमाजानमग्रे॥ -३१.१७  ॥ गर्भ पूजन॥

गर्भ- पूजन के लिए गर्भिणी के घर परिवार के सभी वयस्क परिजनों के हाथ में अक्षत, पुष्प आदि दिये जाएँ। मन्त्र बोला जाए। मन्त्र समाप्ति पर एक तश्तरी में एकत्रित करके गर्भिणी को दिया जाए। वह उसे पेट से स्पर्श करके रख दे। भावना की जाए, गर्भस्थ शिशु को सद्भाव और देव- अनुग्रह का लाभ देने के लिए पूजन किया जा रहा है। गर्भिणी उसे स्वीकार करके गर्भ को वह लाभ पहुँचाने में सहयोग कर रही है।

क्यों कहते हैं पुंसवन संस्कार- पुंसवन संस्कार एक हष्ट पुष्ट संतान के लिये किया जाने वाला संस्कार है। कहते हैं कि जिस कर्म से वह गर्भस्थ जीव पुरुष बनता है, वही पुंसवन-संस्कार है। शास्त्रों अनुसार चार महीने तक गर्भ का लिंग-भेद नहीं होता है। इसलिए लड़का या लड़की के चिह्न की उत्पत्ति से पूर्व ही इस संस्कार को किया जाता है।

धर्मग्रथों में पुंसवन-संस्कार करने के दो प्रमुख उद्देश्य मिलते हैं। पहला उद्देश्य पुत्र प्राप्ति और दूसरा स्वस्थ, सुंदर तथा गुणवान संतान पाने का है। मूलत: यह संस्कार वे लोग करते हैं जिन्हें पुत्र की कामना होती है। दूसरा पुंसवन-संस्कार का उद्देश्य बलवान, शक्तिशाली एवं स्वस्थ संतान को जन्म देना है। इस संस्कार से गर्भस्थ शिशु की रक्षा होती है तथा उसे उत्तम संस्कारों से पूर्ण बनाया जाता है।

हिंदू धार्मिक ग्रंथों में सुश्रुतसंहिता, यजुर्वेद आदि में तो पुंसवन संस्कार को पुत्र प्राप्ति से भी जोड़ा गया है। स्मृतिसंग्रह में यह लिखा है – गर्भाद् भवेच्च पुंसूते पुंस्त्वस्य प्रतिपादनम् अर्थात गर्भस्थ शिशु पुत्र रूप में जन्म ले इसलिए पुंसवन संस्कार किया जाता है।

कैसे करते हैं पुंसवन संस्कार- इस संस्कार में एक विशेष औषधि को गर्भवती स्त्री की नासिका के छिद्र से भीतर पहुंचाया जाता है। हालांकि औषधि विशेष ग्रहण करना जरूरी नहीं। विशेष पूजा और मंत्र के माध्यम से भी यह संस्कार किया जाता है। कहते हैं कि तीन माह तक शिशु का लिंग निर्धारण नहीं होता है। इस संस्कार से लिंग को परिवर्तित भी किया जा सकता है।

जब तीन माह का गर्भ हो, तो लगातार 9 दिन तक सुबह या रात्रि में सोते समय स्त्री को एक विशेष मंत्र अर्थसहित पढ़कर सुनाया जाता है तथा मन में पुत्र ही होगा ऐसा बार-बार दृढ़ निश्चय एवं पूर्ण श्रद्धा के साथा संकल्प कराया जाता है, तो पुत्र ही उत्पन्न होता है।

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3- सीमन्तोन्नयन संस्कार

सीमन्तोन्नयन संस्कार हिन्दू धर्म संस्कारों में तृतीय संस्कार है। यह संस्कार पुंसवन का ही विस्तार है। इसका शाब्दिक अर्थ है- “सीमन्त” अर्थात ‘केश और उन्नयन’ अर्थात ‘ऊपर उठाना’। संस्कार विधि के समय पति अपनी पत्नी के केशों को संवारते हुए ऊपर की ओर उठाता था, इसलिए इस संस्कार का नाम ‘सीमंतोन्नयन’ पड़ गया।

इस संस्कार का उद्देश्य गर्भवती स्त्री को मानसिक बल प्रदान करते हुए सकारात्मक विचारों से पूर्ण रखना था। शिशु के विकास के साथ माता के हृदय में नई-नई इच्छाएँ पैदा होती हैं। शिशु के मानसिक विकास में इन इच्छाओं की पूर्ति महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाती है।

पुंसवन संस्कार जहां गर्भाधारण के तीसरे महीने में किये जाने का विधान है वहीं सीमन्तोन्नयन संस्कार चौथे, छठे या आठवें माह में किया जाता है। अधिकतर विद्वान इस संस्कार को आठवें महीने में किये जाने के पक्ष में हैं। आइये जानते हैं सीमन्तोन्नयन संस्कार के बारे में।

सीमन्तोन्नयन संस्कार का महत्व- जैसा कि नाम से ही जाहिर होता है कि यह सीमन्तोन्नयन सीमन्त और उन्नयन से मिलकर बना है। सीमन्त बालों को कहा जाता है और उन्नयन का अर्थ होता है ऊपर उठाना। मान्यता है कि जब स्त्री गर्भधारण करती है तो समय के साथ-साथ उसके अंदर बहुत सारे परिवर्तन आते हैं। सीमन्तोन्नयन संस्कार आठवें महीने में किया जाता है। इस समय स्त्री की पीड़ा और उसके स्वभाव में परिवर्तन बहुत बढ़ जाते हैं ऐसे में उसे मानसिक रूप से तैयार करने की जरूरत होती है। इस संस्कार के बहाने पति पत्नी के केश संवारता है ताकि उसे मानसिक शक्ति प्राप्त हो। इस संस्कार की यह मान्यता भी काफी प्रबल है कि इससे गर्भ सुरक्षित रहता है। माना जाता है कि चौथे, छठे या आठवें माह में गर्भपात हो जाये तो गर्भ के जीवित रहने की संभावनाएं नहीं होती बल्कि माता के जीवन को भी कई बार संकट हो जाता है। इसलिये यह संस्कार छठे या आठवें माह में अवश्य करने की सलाह दी जाती है। इस संस्कार का एक महत्व यह भी माना जाता है कि इससे शिशु का भी मानसिक विकास होता है। क्योंकि आठवें माह में वह माता को सुनने व समझने लगता है। इसलिये मां का मानसिक स्वास्थ्य यदि बेहतर होगा तो शिशु का भी बेहतर बना रहता है।

सीमन्तोन्नयन संस्कार की विधि- शास्त्र सम्मत मान्यता है कि गूलर की टहनी से पति पत्नी की मांग निकाले व साथ में ॐ भूर्विनयामि, ॐ भूर्विनयामि, ॐ भूर्विनयामि का जाप करें। इसके पश्चात पति इस मंत्र का उच्चारण करे-

येनादिते: सीमानं नयाति प्रजापतिर्महते सौभगाय।

तेनाहमस्यौ सीमानं नयामि प्रजामस्यै जरदष्टिं कृणोमि।।

इसका अर्थ है कि देवताओं की माता अदिति का सीमंतोन्नयन जिस प्रकार उनके पति प्रजापति ने किया था उसी प्रकार अपनी संतान के जरावस्था के पश्चात तक दीर्घजीवी होने की कामना करते हुए अपनी गर्भिणी पत्नी का सीमंतोन्नयन संस्कार करता हूं। इस विधि को पूरा करने के पश्चात गर्भिणी स्त्री को किसी वृद्धा ब्राह्मणी या फिर परिवार या आस-पड़ोस में किसी बुजूर्ग महिला का आशीर्वाद लेना चाहिये। आशीर्वाद के पश्चात गर्भवती महिला को खिचड़ी में अच्छे से घी मिलाकर खिलाये जाने का विधान भी है। इस बारे में एक उल्लेख भी शास्त्रों में मिलता है-

किं पश्यास्सीत्युक्तवा प्रजामिति वाचयेत् तं सा स्वयं।

भुज्जीत वीरसूर्जीवपत्नीति ब्राह्मण्यों मंगलाभिर्वाग्भि पासीरन्।।

इसका अर्थ है कि खिचड़ी खिलाते समय स्त्री से सवाल किया गया कि क्या देखती हो तो वह जवाब देते हुए कहती है कि संतान को देखती हूं इसके पश्चात वह खिचड़ी का सेवन करती है। संस्कार में उपस्थित स्त्रियां भी फिर आशीर्वाद देती हैं कि तुम्हारा कल्याण हो, तुम्हें सुंदर स्वस्थ संतान की प्राप्ति हो व तुम सौभाग्यवती बनी रहो।

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4- जातकर्म संस्कार

हिन्दू धर्म संस्कारों में जातकर्म संस्कार चतुर्थ संस्कार है। गर्भस्थ बालक के जन्म होने पर यह संस्कार किया जाता है। इस बारे में कहा भी गया है कि “जाते जातक्रिया भवेत्”। गर्भस्थ बालक के जन्म के समय जो भी कर्म किये जाते हैं उन्हें जातकर्म कहा जाता है। इनमें बच्चे को स्नान कराना, मुख आदि साफ करना, मधु व घी चटाना, स्तनपान, आयुप्यकरण आदि कर्म किये जाते हैं। क्योंकि जातक के जन्म लेते ही घर में सूतक माना जाता है इस कारण इन कर्मों को संस्कार का रूप दिया जाता है। मान्यता है कि इस संस्कार से माता के गर्भ में रस पान संबंधी दोष, सुवर्ण वातदोष, मूत्र दोष, रक्त दोष आदि दूर हो जाते हैं व जातक मेधावी व बलशाली बनता है।

दशमासाञ्छशयान: कुमारो अधि मातरि!

निरैतु जीवो अक्षतों जीवन्त्या अधि!!  (ऋग्वेद ५/७५/९)

हे परमात्मन, दस माह तक माता के गर्भ में रहने वाला सुकुमार जीव प्राण धारण करता हुआ अपनी प्राण शक्ति सम्पन्न माता के शरीर से सुखपूर्वक बाहर निकले.

वृहदारण्यकोपनिषद् ( 6.4.24-28 ) के अनुसार-

“पुत्रोत्पत्ति के उपरांत पिता प्रसूतिकाग्नि को प्रज्वलित करके एक कांस्य पात्र में दधि- घृत को मिश्रण करके वैदिक मंत्रों का पाठ करता था तथा शिशु के कान के पास अपने मुंह को ले जाकर तीन बार “वाक्’ शब्द का उच्चारण करता था। तदनंतर उसकी जीभ में सोने की शलाका ( चम्मच से ) दधि- घृत- मधु का मिश्रण लगाता था। इस समय उपर्युक्त मंत्र का पाठ करता था, जिसमें कहा गया है “मैं तुझमें “भू’ रखता हूँ, “भूवः’ रखता हूँ, “स्वः’ रखता हूँ, “भूर्भुवः स्वः’ सभी को एक साथ रखता हूँ। इसके बाद शिशु को सम्बोधित करते हुए कहता था “तू वेद है।”” और उसका एक गुप्त नाम भी रखता था।

मान्यता यह भी है कि यदि शिशु का जन्म मूल-ज्येष्ठा या फिर किसी अन्य अशुभ मुहूर्त में हुआ हो तो पिता को शिशु का मुख देखे बिना ही स्नान करना चाहिये।

शिशु के जन्म के पश्चात बच्चे के शरीर पर उबटन लगाया जाता है। उबटन में चने का बारीक आटा यानि बेसन की बजाय मसूर या मूंग का बारीक आटा सही रहता है। इसके पश्चात शिशु का स्नान किया जाता है। मान्यता है कि गर्भ में शिसु श्वास नहीं लेता और न ही मुख खुला होता है।

प्राकृतिक रूप से ये बंद रहते हैं और इनमें कफ भरी होती है। लेकिन जैसे ही शिशु का जन्म होता है तो कफ को निकाल कर मुख साफ करना बहुत आवश्यक होता है। इसके लिये मुख को ऊंगली से साफ कर शिशु को वमन कराया जाता है ताकि कफ बाहर निकले इसके लिये सैंधव नमक बढ़िया माना जाता है। इसे घी में मिलाकर दिया जाता है।

तालु की मज़बूती के लिये नवजात क तालु पर घी या तेल लगाया जाता है। मान्यता है कि जिस तरह कमल के पत्ते पर पानी नहीं ठहरता उसी प्रकार स्वर्ण खाने वाले को विष प्रभावित नहीं करता। अर्थात संस्कार से शिशु की बुद्धि, स्मृति, आयु, वीर्य, नेत्रों की रोशनी या कहें कुल मिलाकर शिशु को संपूर्ण पोषण मिलता है व शिशु सुकुमार होता है।

उत्पन्न हुए बालक के जो कर्म किए जाते हैं, उनको जातकर्म कहा जाता है। इन कर्मों में बच्चे को स्नान कराना, मुख आदि साफ़ करना, मधु और घी आदि चटाया जाता है।, स्तनपान तथा आयुप्यकरण है। इतने कर्म सूतिका घर में बच्चे के करने होते हैं। इसलिये इनको संस्कार का रुप दिया गया है।

शिशु के उत्पन्न हो जाने पर अपने कुल देवता और वृद्ध पुरुषों को नमस्कार कर पुत्र का मुख देखकर नदी-तालाब आदि में शीतल जल से उत्तराभिमुख हो, स्नान करें। यदि मूल-ज्येष्ठा आदि अनिष्ट काल में शिशु उत्पन्न हुआ हो तो मुख देखे बिना स्नान कर लें।

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5- नामकरण संस्कार

नामकरण संस्कार हिन्दू धर्म संस्कारों में पंचम संस्कार है। यह संस्कार बच्चे के जन्म होने के ग्यारहवें दिन में कर लेना चाहिये। बच्चे का नाम उसकी पहचान के लिए नहीं रखा जाता। गोभिल गह्यसूत्रकार के अनुसार 100 दिन या 1 वर्ष बीत जाते के बाद भी नामकरण संस्कार कराने का प्रचलन है।

गोभिल गृह्यसुत्र के अनुसार

“जननादृशरात्रे व्युष्टे शतरात्रे संवत्सरे वा नामधेयकरणम्”

अर्थात- जन्म के 10 वें दिन में 100 वें दिन में या 1 वर्ष के अंदर जातक का नामकरण संस्कार कर देना चाहिए।

नामकरण-संस्कार के संबंध में स्मृति-संग्रह में निम्नलिखित श्लोक उक्त है-

आयुर्वेडभिवृद्धिश्च सिद्धिर्व्यवहतेस्तथा ।

नामकर्मफलं त्वेतत् समुद्दिष्टं मनीषिभिः ।।

अर्थात- नामकरण-संस्कार से तेज़ तथा आयु की वृद्धि होती है। लौकिक व्यवहार में नाम की प्रसिद्धि से व्यक्ति का अस्तित्व बनता है। इसके पश्चात् प्रजापति, तिथि, नक्षत्र तथा उनके देवताओं, अग्नि तथा सोम की आहुतियां दी जाती हैं। तत्पश्चात् पिता, बुआ या दादी शिशु के दाहिने कान की ओर उसके नाम का उच्चारण करते हैं। इस संस्कार में बच्चे को शहद चटाकर और प्यार-दुलार के साथ सूर्यदेव के दर्शन कराए जाते हैं।

मनोविज्ञान एवं अक्षर-विज्ञान के जानकारों का मत है कि नाम का प्रभाव व्यक्ति के स्थूल-सूक्ष्म व्यक्तित्व पर गहराई से पड़ता रहता है। नाम सोच-समझकर तो रखा ही जाय, उसके साथ नाम रोशन करने वाले गुणों के विकास के प्रति जागरूक रहा जाय, यह जरूरी है। हिन्दू धर्म में नामकरण संस्कार में इस उद्देश्य का बोध कराने वाले श्रेष्ठ सूत्र समाहित रहते हैं।

नाम प्रायः दो होते हैं- एक गुप्त नाम दूसरा प्रचलित नाम- जैसे कहा है कि- दो नाम निश्चित करें, एक नाम नक्षत्र-सम्बन्धी हो और दूसरा नाम रुचि के अनुसार रखा गया हो।

गुप्त नाम- जिसे सिर्फ जातक के माता पिता जानते हों तथा दूसरा प्रचलित नाम जो लोक व्यवहार में उपयोग में लाया जाये। नाम गुप्त रखने का कारण जातक को मारक , उच्चाटन आदि तांत्रिक क्रियाओं से बचाना है। प्रचलित नाम पर इन सभी क्रियाओं का असर नहीं होता विफल हो जाती हैं। गुप्त नाम बालक के जन्म के समय ग्रहों की खगोलीय स्थिति के अनुसार नक्षत्र राशि का विवेचन कर के रख जाता है। इसे राशि नाम भी कहा जाता है। बालक की ग्रह दशा भविष्य फल आदि इसी नाम से देखे जाते हैं। विवाह के समय जातक जातिकवों के कुंडली का मिलाप भी राशि नाम के अनुसार होता है। सही और सार्थक नामकरण के लिए बालक के जन्म का समय, जनक स्थान, और जन्म तिथि का सही होना अति आवश्यक है।

दूसरा नाम लोक प्रचलित नाम- योग्य ब्राह्मण या ऋषि बालक के गुणों के अनुरुप बालक का नामकरण करते हैं। जैसे राम, लक्षमण, भरत और शत्रुघ्न का गुण और स्वभाव देख कर ही महर्षि वशिष्ठ ने उनका नामकरण किया था। लेकिन आजकल यह लोक प्रचलित नाम सामान्यतः माता पिता नाना नानी के रूचि के अनुसार रख जाता है। इस नाम से बालक के व्यवसाय, व्यवसाय में किसी पुरुष से शत्रुता और मित्रता के ज्ञान के लिए किया जाता है

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6- निष्क्रमण संस्कार

हिन्दू धर्म संस्कारों में निष्क्रमण संस्कार षष्ठम संस्कार है। निष्क्रमण का अर्थ हैं- बाहर निकलना । इस संस्कार के द्वारा बच्चे को पहली वार सूर्यदेव का दर्शन कराया जाता हैं। बच्चे के पैदा होते ही उसे सूर्य के प्रकाश में नहीं लाना चाहिये। इससे बच्चे की आंखों पर बुरा प्रभाव पड़ सकता है। इसलिये जब बालक की आँखें तथा शरीर कुछ पुष्ट बन जाये, तब इस संस्कार को करना चाहिये।

इस संस्कार का फल विद्धानों ने शिशु के स्वास्थ्य और आयु की वृद्धि करना बताया है –

निष्क्रमणादायुषो वृद्धिरप्युद्दिष्टा मनीषिभिः

जन्मे के चौथे मास में निष्क्रमण-संस्कार होता है। जब बच्चे का ज्ञान और कर्मेंन्द्रियों सशक्त होकर धूप, वायु आदि को सहने योग्य बन जाती है। सूर्य तथा चंद्रादि देवताओ का पूजन करके बच्चे को सूर्य, चंद्र आदि के दर्शन कराना इस संस्कार की मुख्य प्रक्रिया है। चूंकि बच्चे का शरीर पृथ्वी, जल, तेज, वायु तथा आकश से बनता है, इसलिए बच्चे के कल्याण की कामना करते हुए रहता है –

शिवे ते स्तां द्यावापृथिवी असंतापे अभिश्रियौ। शं ते सूर्य

आ तपतुशं वातो ते हदे। शिवा अभि क्षरन्तु त्वापो दिव्यः पयस्वतीः ।।

अर्थात् हे बालक! तेरे निष्क्रमण के समय द्युलोक तथा पृथिवीलोक कल्याणकारी सुखद एवं शोभास्पद हों। सूर्य तेरे लिए कल्याणकारी प्रकाश करे। तेरे हदय में स्वच्छ कल्याणकारी वायु का संचरण हो। दिव्य जल वाली गंगा-यमुना नदियाँ तेरे लिए निर्मल स्वादिष्ट जल का वहन करें।

मनुस्मृति में लिखा हैं , यह संस्कार जन्म के चौथे महीने में करना चाहिए। यह संस्कार को शुभ महुरत में करना चाहिए। इस संस्कार किये बिना बच्चे को बाहर निकालना नहीं चाहिए। घर के बाहर के दुनिया में कई तरह के शक्ति भरपूर होते हैं। यहां दैवी और दैत्य शक्ति का समागम होता हैं । निष्पाप शिशु को इन सारी दुष्प्रभाव से रक्षा करने के लिए , बच्चे का पिता प्रार्थना करते हैं। मनुष्य का शरीर पंच महाभूत से बना होता हैं , इस दिन इन देवताऔं का प्रार्थना और पूजा किया जाता हैं।

इस संस्कार से संबंधित निम्न मंत्र भी अथर्ववेद में मिलता है –

शिवे ते स्तां द्यावापृथिवी असंतापे अभिश्रियौ।

शं ते सूर्य आ तपतुशं वातो वातु ते हृदे।

शिवा अभि क्षरन्तु त्वापो दिव्या: पयस्वती:।।

अर्थात् बालक के निष्क्रमण के समय देवलोक से लेकर भू लोक तक कल्याणकारी, सुखद व शोभा देने वाला रहे। सूर्य का प्रकाश शिशु के लिये कल्याणकारी हो व शिशु के हृद्य में स्वच्छ वायु का संचार हो। पवित्र गंगा यमुना आदि नदियों का जल भी तुम्हारा कल्याण करें।

कब किया जाता है- निष्क्रमण संस्कार जातक के जन्म के चौथे मास में किया जाता है। मान्यता है कि जातक के जन्म लेते ही घर में सूतक लग जाता है। जन्म के ग्याहरवें दिन नामकरण संस्कार किया जाता है हालांकि यह कुछ लोग 100वें दिन या जातक के जन्म के एक वर्ष के उपरांत भी करते हैं। लेकिन जन्म के कुछ दिनों तक बालक को घर के बाहर नहीं निकाला जाता। माना जाता है कि इस समय जातक को सूर्य के प्रकाश में नहीं लाना चाहिये क्योंकि इससे जातक के स्वास्थ्य पर कुप्रभाव पड़ सकता है, विशेषकर आंखों को नुक्सान पंहुचने की संभावनाएं अधिक होती हैं। इसलिये जब जातक शारीरिक रूप से स्वस्थ हो जाये तो ही उसे घर से बाहर निकालना चाहिये यानि निष्क्रमण संस्कार करना चाहिये।

निष्क्रण संस्कार के दिन प्रात:काल उठकर तांबे के एक पात्र में जल लेकर उसमें रोली, गुड़, लालपुष्प की पंखुड़ियां आदि का मिश्रण करें व इस जल से सूर्यदेवता को अर्घ्य देते हुए बालक को आशीर्वाद देने के लिये उनका आह्वान करें। 

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7- अन्नप्राशन संस्कार

हिन्दू धर्म संस्कारों में अन्नप्राशन संस्कार सप्तम संस्कार है। इस संस्कार में बालक को अन्न ग्रहण कराया जाता है। एक कहावत बहुत ही प्रचलित है कि “जैसा खाये अन्न वैसा होगा मन” यानि हम जिस प्रकार का अन्न (भोजन) ग्रहण करते हैं हमारे विचार हमारा व्यवहार भी उसी प्रकार का हो जाता है। सात्विक भोजन से सात्विक गुण और तामसिक भोजन से तामसी प्रवृति हमारे अंदर आ जाती हैं। खान-पान संबंधी दोषों को दूर करने के लिये ही जातक के जन्म के छह-सात मास बाद ही सप्तम संस्कार किया जाता है जिसका नाम है अन्नप्राशन।

छठे माह में बालक का अन्नप्राशन संस्कार किया जाता है। शास्त्रों में अन्न को प्राणियों का प्राण कहा गया है। गीता में कहा गया है कि अन्न से ही प्राणी जीवित रहते हैं। अन्न से ही मन बनता है। इसलिए अन्न का जीवन में सर्वाधिक महत्व है।

अन्नाशनान्मातृगर्भे मलाशाद्यपि शुद्धयति

अर्थात- माता के गर्भ में मलिन भोजन के जो दोष शिशु में आ जाते हैं, उनके निवारण और शिशु को शुद्ध भोजन कराने की प्रक्रिया को अन्नप्राशन-संस्कार कहा जाता है।

शिशु को जब 6-7 माह की अवस्था में पेय पदार्थ, दूध आदि के अतिरिक्त प्रथम बार यज्ञ आदि करके अन्न खिलाना प्रारंभ किया जाता है, तो यह कार्य अन्नप्रशन-संस्कार के नाम से जाना जाता है। इस संस्कार का उद्देश्य यह होता है शिशु सुसंस्कारी अन्न ग्रहण करे।

शुद्ध एवं सात्त्विक, पौष्टिक अन्न से ही शरीर व मन स्वस्थ रहते हैं तथा स्वस्थ मन ही ईश्वरानुभुति का एक मात्र साधन है। आहार शुद्ध होने पर ही अंतःकरण शुद्ध होता है।

आहारशुद्धौ सत्त्वशुद्धिः

अर्थात्- शुद्ध आहार से शरीर में सत्त्वगुण की वृद्धि होती है।

हिंदू धर्म के सोलह संस्कारों में अन्नप्राशन संस्कार का भी खास महत्व है। मान्यता है कि छह मास तक शिशु माता के दुध पर ही निर्भर रहता है लेकिन इसके पश्चात उसे अन्न ग्रहण करवाया जाता है ताकि उसका पोषण और भी अच्छे से हो सके। शिशु को पहली बार माता के दुध के अलावा अन्य अन्न दुध आदि पिलाये जाने की क्रिया को अन्नप्राशन कहा जाता है।

अब तक तो शिशु माता का दुग्धपान करके ही वृद्धि को प्राप्त होता था, अब आगे स्वयं अन्न ग्रहण करके ही शरीर को पुष्ट करना होगा, क्योंकि प्राकृतिक नियम सबके लिये यही है। अब बालक को परावलम्बी न रहकर धीरे-धीरे स्वावलम्बी बनना पड़ेगा। केवल यही नहीं, आगे चलकर अपना तथा अपने परिवार के सदस्यों के भी भरण-पोषण का दायित्व संम्भालना होगा। यही इस संस्कार का तात्पर्य है।

कब किया जाता है- अन्नप्राशन संस्कार से पहले निष्क्रमण संस्कार किया जाता है जो कि जन्म के पश्चात चतुर्थ मास में किया जाता है। अन्नप्राशन संस्कार छठे या सातवें मास में किया जाता है। चूंकि छह मास तक जातक को माता का दुध ही दिया जाना चाहिये इस कारण यह संस्कार सातवें माह में किया जाना चाहिये। इसका कारण यह भी है कि इस अवस्था तक शिशु हल्का भोजन पचाने में सक्षम हो जाता है। इस समय शिशु को ऐसा अन्न दिया जाना चाहिये जो पचाने में आसान व पौष्टिक हो। इसी समय शिशु के दांत भी निकल रहे होते हैं जिससे उसका पाचनतंत्र मजबूत होने लगता है। ऐसे में पौष्टिक भोजन के सेवन से शिशु तंदुरुस्त होने लगता है।

शास्त्रों में देवों को खाद्य पदार्थ निवेदित करके अन्न खिलाने का विधान बताया गया है। इस संस्कार में शुभमुहूर्त में देवताओं का पूजन करने के पश्चात् माता-पिता चांदी के चम्मच से खीर आदि पवित्र और पुष्टिकारक अन्न शिशु को चटाते हैं और निम्नलिखित मंत्र बोलते हैं-

शिवौ ते स्तां व्रीहियवावबलासावदोमधौ।

एतौ यक्ष्मं वि बाधेते एतौ मुंचतो अंहसः।।

अर्थात्- हे बालक! जौ और चावल तुम्हारे लिए बलदायक तथा पुष्टिकारक हों, क्योंकि ये दोनों वस्तुएं यक्ष्मानाशक हैं तथा देवान्न होने से पापनाशक हैं।

कैसे किया जाता है- अन्न न सिर्फ शारीरिक पोषण बल्कि मन, बुद्धि, तेज़ व आत्मिक पोषण के लिये भी आवश्यक होता है। इससे जातक तेजस्वी व बलशाली होता है। इस संस्कार के दौरान शिशु को भात, दही, शहद और घी आदि को मिश्रित कर खिलाया जाता है। अन्न से जातक का शारीरिक व आत्मिक विकास होता है। संस्कार के लिये शुभमुहूर्त देखकर उसमें देवताओं का पूजन करना चाहिये। देवपूजा के पश्चात चांदी के चम्मच से खीर आदि का पवित्र प्रसाद शिशु को मंत्रोच्चारण के साथ माता-पिता द्वारा चटाया जाता है। इस दौरान माता-पिता को निम्न मंत्र का उच्चारण करना चाहिये-

ॐ याऽ ओषधीः पूर्वा जाता देवेभ्यस्त्रियुगं पुरा।

मनै नु बभ्रूणामह* शतं धामानि सप्त च॥

गंगाजल की कुछ बूंदें पात्र में डालकर मिलाएँ। पतितपावनी गङ्गा खाद्य की पापवृत्तियों का हनन करके उसमें पुण्य संवर्द्धन के संस्कार पैदा    कर रही हैं। ऐसी भावना के साथ उसे चम्मच से मिलाकर एक दिल कर दें। जैसे यह सब भिन्न-भिन्न वस्तुएँ एक हो गयीं, उसी प्रकार भिन्न- भिन्न श्रेष्ठ संस्कार बालक को एक समग्र श्रेष्ठ व्यक्तित्व प्रदान करें।

ॐ पञ्च नद्यः सरस्वतीमपि यन्ति सस्रोतसः।

सरस्वती तु पञ्चधा सो देशेभवत्सरित्॥

सभी वस्तुएँ मिलाकर वह मिश्रण पूजा वेदी के सामने संस्कारित होने के लिए रख दिया जाए। इसके बाद अग्नि स्थापन से लेकर गायत्री मन्त्र की आहुतियाँ पूरी करने तक का क्रम चलाया जाए।

गायत्री मन्त्र की आहुतियाँ पूरी हो जाने पर पहले तैयार की गयी खीर से ५ आहुतियाँ नीचे लिखे मन्त्र के साथ दी जाएँ। भावना की जाए कि वह    खीर इस प्रकार यज्ञ भगवान् का प्रसाद बन रही है।

ॐ देवीं वाचमजनयन्त देवाः तां विश्वरूपाः पशवो वदन्ति।

सा नो मन्द्रेषमूर्जं दुहाना धेनुर्वागस्मानुप सुष्टुतैतु स्वाहा॥

इदं वाचे इदं न मम। -ऋ० ८.१००.११

आहुतियाँ पूरी होने पर शेष खीर से बच्चे को अन्नप्राशन कराया जाए।

क्रिया और भावना-  खीर का थोड़ा- सा अंश चम्मच से मन्त्र के साथ बालक को चटा दिया जाए। भावना की जाए कि वह यज्ञावशिष्ट खीर अमृतोपम गुणयुक्त है और बालक के शारीरिक स्वास्थ्य, मानसिक सन्तुलन, वैचारिक उत्कृष्टता तथा चारित्रिक प्रामाणिकता का पथ प्रशस्त करेगी।

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8- मुंडन (चूड़ाकर्म) संस्कार विधि

चूड़ाकर्म संस्कार – हिंदू धर्म में आठवां संस्कार मुंडन संस्कार होता है। यह संस्कार पहले या तीसरे साल में किया जाता है। चूड़ाकर्म संस्कार, जिसे “चौलकर्म’ भी कहा जाता है, केवल पुत्र संतति के लिए किया जाता है। इसका अर्थ है “शिशु का मुण्डन पूर्वक “शिखा’ ( चूड़ा ) का निर्धारण करना’। सभी हिंदू शास्रकारों ने इसका वर्णन किया है।

माना जाता है कि शिशु जब माता के गर्भ से बाहर आता है तो उस समय उसके केश अशुद्ध होते हैं। शिशु के केशों की अशुद्धि दूर करने की क्रिया ही चूड़ाकर्म संस्कार कही जाती है। दरअसल हमारा सिर में ही मस्तिष्क भी होता है इसलिये इस संस्कार को मस्तिष्क की पूजा करने का संस्कार भी माना जाता है। जातक का मानसिक स्वास्थ्य अच्छा रहे व वह अपने दिमाग को सकारात्मकता के साथ सार्थक रुप से उसका सदुपयोग कर सके यही चूड़ाकर्म संस्कार का उद्देश्य भी है। इस संस्कार से शिशु के तेज में भी वृद्धि होती है।

बाल कटवाने से शरीर की अनावश्यक गर्मी निकल जाती है, दिमाग व सिर ठंडा रहता है व बच्चों में दांत निकलते समय होने वाला सिर दर्द व तालु का कांपना बंद हो जाता है। शरीर पर और विशेषकर सिर पर विटामिन-डी (धूप के रूप) में पड़ने से कोशिकाएं जाग्रत होकर खून का प्रसारण अच्छी तरह कर पाती हैं जिनसे भविष्य में आने वाले केश बेहतर होते हैं।

कब करें- मनुस्मृति के अनुसार द्विजातियों को प्रथम अथवा तृतीय वर्ष में यह संस्कार करना चाहिये। अन्नप्राशन संस्कार के कुछ समय पश्चात प्रथम वर्ष के अंत में इस संस्कार को किया जा सकता है। लेकिन तीसरे वर्ष यह संस्कार किया जाये तो बेहतर रहता है। इसका कारण यह है कि शिशु का कपाल शुरु में कोमल रहता है जो कि दो-तीन साल की अवस्था के पश्चात कठोर होने लगता है। ऐसे में सिर के कुछ रोमछिद्र तो गर्भावस्था से ही बंद हुए होते हैं। चूड़ाकर्म यानि मुंडन संस्कार द्वारा शिशु के सिर की गंदगी, कीटाणु आदि दूर हो जाते हैं। इससे रोमछिद्र खुल जाते हैं और नये व घने मजबूत बाल आने लगते हैं। यह मस्तिष्क की रक्षा के लिये भी आवश्यक होता है। कुछ परिवारों में अपनी कुल परंपरा के अनुसार शिशु के जन्म के पांचवे या सातवें साल भी इस संस्कार को किया जाता है।

  • अधिकतर धर्मशास्रकारों ने इसे जन्म से तीसरे वर्ष में किये जाने का प्रस्ताव किया है, किंतु बौधा० ( 2/8 ), पार० गृ० सू० ( 2.1.1- 2 ) तथा मनु० (2.35 ) के अनुसार उसे जन्म के प्रथम या तृतीय वर्ष में संपन्न किया जाना चाहिए
  • लेकिन आश्व० गृ० सू० (1/17/1 पर नारायणी टीका ) तथा अन्य उत्तरकालीन “संस्कारप्रकाश’ आदि संस्कार पद्धतियों में कहा गया है कि चौल कर्म के लिए यद्यपि प्रथम, तृतीय या पंचम वर्षों को सर्वाधिक उपयुक्त समझा गया है
  • असुविधा होने पर इसे इससे पूर्व या बाद में अथवा उपनयन संस्कार के साथ भी किया जा सकता है। इसीलिए कई सामाजिक वर्गों में इसे उपनयन के साथ ही किये जाने की परिपाटी पायी जाती है।

कहां करें- उत्तर भारत में अधिकतर गंगा तट पर, दुर्गा मंदिरों के प्रांगण में तथा दक्षिण भारत में तिरुपति बालाजी मंदिर तथा गुरुजन देवता के मंदिरों में मुंडन संस्कार किया जाता है। संस्कार के बाद केशों को दो पुड़ियों के बीच रखकर जल में प्रवाहित कर दिया जाता है। कहीं-कहीं केश वैसे ही विसर्जित कर दिए जाते हैं। जब सूर्य मकर, कुंभ, मेष, वृष तथा मिथुन राशियों में हो, तब मुंडन शुभ माना जाता है। परंतु बड़े लड़के का मुंडन जब सूर्य वृष राशि पर हो और मां 5 माह की गर्भवती हो, तब उस वर्ष नहीं करना चाहिए।

गर्भाधान मतश्र्च पुंसवनकं सीमंत जातामिधे नामारण्यं सह निष्क्रमेण च तथा अन्नप्राशनं कर्म च।

चूड़ारण्यं व्रतबन्ध कोप्यथ चतुर्वेद व्रतानां पुरः, केशांतः सविसिर्गकः परिणयः स्यात षोडशी कर्मणाम्‌”॥

जन्म के पश्चात्‌ प्रथम वर्ष के अंत या फिर तीसरे, पांचवें या सातवें वर्ष की समाप्ति के पूर्व शिशु का मुंडन संस्कार करना आमतौर पर प्रचलित है क्योंकि हिंदू धर्म शास्त्र के अनुसार एक वर्ष से कम उम्र में मुंडन करने से शिशु के स्वास्थ्य पर बुरा प्रभाव पड़ता है। साथ ही अमंगल होने का भय बना रहता है।

कुल परंपरा के अनुसार मुंडन संस्कार- कुल परंपरा के अनुसार प्रथम, तृतीय, पंचम या सप्तम वर्ष में भी मुंडन संस्कार करने का विधान है। शास्त्रीय एवं पौराणिक मान्यताएं यह हैं कि शिशु के मस्तिष्क को पुष्ट करने, बुद्धि में वृद्धि करने तथा गर्भावस्था की अशुचियों को दूर कर मानवतावादी आदर्शों हेतु मुंडन संस्कार किया जाता है। इसका उद्देश्य बुद्धि, विद्या, बल, आयु और तेज की वृद्धि करना है।

देवस्थान और तीर्थ स्थल पर मुंडन का महत्व- मुंडन संस्कार किसी देवस्थल या तीर्थ स्थल पर इसलिए कराया जाता है कि उस स्थल के दिव्य वातावरण का लाभ शिशु को मिले तथा उसके मन में सुविचारों की उत्पत्ति हो।

मुंडन संस्कार से दीर्घ आयु की प्राप्ति होती है। शिशु सुंदर तथा कल्याणकारी कार्यों की ओर प्रवृत्त होने वाला बनता है।

तेन ते आयुषे वयामि सुश्लोकाय स्वस्तये”। आश्वलायन गृह्यसूत्र 1/17/12

जिस शिशु का मुंडन संस्कार सही समय एवं शुभ मुहूर्त में नहीं किया जाता है उसमें बौद्धिक विकास एवं तेज शक्ति का अभाव पाया जाता है। इसलिए शिशु का मुंडन शास्त्रीय विधि से अवश्य किया जाना चाहिए।Picture9

विधि- चूड़ाकर्म संस्कार किसी शुभ मुहूर्त को देखकर किया जाना चाहिये। इस संस्कार को को किसी पवित्र धार्मिक तीर्थ स्थल पर किया जाता है। इसके पिछे मान्यता है कि जातक पर धार्मिक स्थल के दिव्य वातावरण का लाभ मिले। एक वर्ष की आयु में जातक के स्वास्थ्य पर इसका दुष्प्रभाव पड़ने के आसार होते हैं इस कारण इसे पहले साल के अंत में या तीसरे साल के अंत से पहले करना चाहिये। मान्यता है कि शिशु के मुंडन के साथ ही उसके बालों के साथ कुसंस्कारों का शमन भी हो जाता है व जातक में सुसंस्कारों का संचरण होने लगता है। शास्त्रों में लिखा भी मिलता है-

“तेन ते आयुषे वपामि सुश्लोकाय स्वस्त्ये”

इसका तात्पर्य है कि मुंडन संस्कार से जातक दीर्घायु होता है। यजुर्वेद तो यहां तक कहता है कि दीर्घायु के लिये, अन्न ग्रहण करने में सक्षम करने, उत्पादकता के लिये, ऐश्वर्य के लिये, सुंदर संतान, शक्ति व पराक्रम के लिये चूड़ाकर्म अर्थात मुंडन संस्कार करना चाहिये।

9- कर्णवेध संस्कार

हिन्दू धर्म संस्कारों में कर्णवेध संस्कार नवम संस्कार है। यह संस्कार कर्णेन्दिय में श्रवण शक्ति की वृद्धि, कर्ण में आभूषण पहनने तथा स्वास्थ्य रक्षा के लिये किया जाता है। विशेषकर कन्याओं के लिये तो कर्णवेध नितान्त आवश्यक माना गया है। इसमें दोनों कानों को वेध करके उसकी नस को ठीक रखने के लिए उसमें सुवर्ण कुण्डल धारण कराया जाता है। इससे शारीरिक लाभ होता है।

मान्यता यह भी है कि कर्णभेद संस्कार से बौद्धिक विकास के साथ साथ अच्छी सेहत सहित और भी बहुत सारे लाभ होते हैं। इस संस्कार को उपनयन संस्कार से पहले ही करवाये जाने की सलाह दी जाती है ताकि जातक की बुद्धि प्रखर हो व वह अच्छे से शिक्षा ग्रहण कर सके। शास्त्रानुसार तो जिस जातक का कर्णभेद संस्कार नहीं हुआ हो वह अपने प्रियजन के अंतिम संस्कार तक का अधिकारी नहीं माना जाता था। आरंभ में यह संस्कार बालक व बालिका दोनों का समान रूप से होता था। कन्या के लिये कर्णभेद के साथ-साथ नाक छेदन भी होता था। वर्तमान में लड़कों के लिये इस संस्कार को बहुत कम किया जाता है लेकिन अपनी इच्छानुसार कुछ लोग फैशन के तौर पर कर्णभेद जरूर करवाते हैं।

कर्णवेध संस्कार उपनयन के पूर्व ही कर दिया जाना चाहिए। इस संस्कार को 6 माह से लेकर 16वें माह तक अथवा 3.5 आदि विषम वर्षों में या कुल की पंरपरा के अनुसार उचित आयु में किया जाता है। इसे स्त्री-पुरुषों में पूर्ण स्त्रीत्व एवं पुरुषत्व की प्राप्ति के उद्देश्य से कराया जाता है। मान्यता यह भी है कि सूर्य की किरणें कानों के छिद्र से प्रवेश पाकर बालक-बालिका को तेज़ संपन्न बनाती है। बालिकाओं के आभुषण धारण हेतु तथा रोगों से बचाव हेतु यह संस्कार आधुनिक एक्युपंचर पद्धति के अनुरुप एक सशक्त माध्यम भी है। हमारे शास्त्रों में कर्णवेध रहित पुरुष को श्राद्ध का अधिकारी नहीं माना गया है।

कर्णवेध-संस्कार द्धिजों (ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य) का साही के कांटे से भी करने का विधान है। शुभ समय में, पवित्र स्थान पर बैठकर देवताओं का पूजन करने के पश्चात सूर्य के सम्मुख बाल्क या बालिका के कानों को निम्नलिखित मंत्र द्धारा अभिंमत्रित करना चाहिए –

भद्रं कर्णेभिः क्षृणुयाम देवा भद्रं पश्येमाक्षभिर्यजत्राः।

स्थिरैरंगैस्तुष्टुवां सस्तनूभिर्व्यशेमहि देवहितं यदायुः।।

भद्रं कर्णेभिः क्षृणुयाम देवा भद्रं पश्येमाक्षभिर्यजत्राः।

स्थिरैरंगैस्तुष्टुवां सस्तनूभिर्व्यशेमहि देवहितं यदायुः।।

इसके बाद बालक के दाहिने कान में पहले और बाएं कान में बाद में सुई से छेद करें। उनमें कुडंल आदि पहनाएं। बालिका के पहले बाएं कान में, फिर दाहिने कान में छेद करके तथा बाएं नाक में भी छेद करके आभुषण पहनाने का विधान है। मस्तिष्क के दोनों भागों को विद्युत के प्रभावों से प्रभावशील बनाने के लिए नाक और कान में छिद्र करके सोना पहनना लाभकारी माना गया है। नाक में नथुनी पहनने से नासिका-संबधी रोग नहीं होते और सर्दी-खांसी में राहत मिलती है।[क्या ये तथ्य है या केवल एक राय है?] कानों में सोने की बालियं या झुमकें आदि पहनने से स्त्रीयों में मासिकधर्म नियमित रहता है, इससे हिस्टीरिया रोग में भी लाभ मिलता है।

कब करें- ज्योतिषाचार्यों के अनुसार कर्णवेध संस्कार चतुर्मास (हिंदू पंचाग के अनुसार आषाढ़ शुक्ल एकादशी से कार्तिक शुक्ल एकादशी तक) में करवाया जाने का विधान है। जातक के जन्म के 12वें या 16वें दिन भी यह संस्कार किया जा सकता है। इसके अलावा छठे, सातवें या आठवें मास में भी किया जा सकता है। यदि जातक के जन्म के एक वर्ष पश्चात कर्णवेध संस्कार न किया जाये तो इसके पश्चात इसे विषम वर्ष यानि तीसरे, पांचवे, सातवें इत्यादि में संपन्न करना चाहिये। कर्णछेदन संस्कार के समय वृषभ, तुला, धनु एवं मीन आदि लग्न में बृहस्पति हो तो यह अवसर इस संस्कार के लिये श्रेष्ठ माना जाता है।

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10- विद्यारंभ संस्कार

हिन्दू धर्म संस्कारों में विद्यारंभ संस्कार दशम संस्कार है। विद्यारंभ संस्कार का संबंध उप नयन संस्कार की भांति गुरूकुल प्रथा से था, जब गुरूकुल का आचार्य बालक को यज्ञोपवीत धारण कराकर, वेदाध्ययन करता था। गुरूजनों से वेदों और उपनिषदों का अध्ययन कर तत्वज्ञान की प्राप्ति करना ही इस संस्कार का परम प्रयोजन है। जब बालक-बालिका का मस्तिष्क शिक्षा ग्रहण करने योग्य हो जाता है, तब यह संस्कार किया जाता है। आमतौर पर 5 वर्ष का बच्चा इसके लिए उपयुक्त होता है।

मंगल के देवता गणेश और कला की देवी सरस्वती को नमन करके उनसे प्रेरणा ग्रहण करने की मूल भावना इस संस्कार में निहित होती है। बालक विद्या देने वाले गुरू का पूर्ण श्रद्धा से अभिवादन व प्रणाम इसलिए करता है कि गुरू उसे एक श्रेष्ठ मानव बनाए। ज्ञानस्वरूप वेदों का विस्तृत अध्ययन करने के पूर्व मेधाजनन नामक एक उपांग संस्कार करने का विधान भी शास्त्रों में वर्णित है।

इसके करने से बालक में मेधा, प्रज्ञा, विद्या, तथा श्रद्धा की अभिवृद्धि होती है। इससे वेदाध्ययन आदि में न केवल सुविधा होती है, बल्कि विद्याध्ययन में कोई बाधा उत्पन्न नहीं होती।

ज्योतिर्निबंध में लिखा हैं-

विद्यया लुप्यते पापं विद्ययाअयु: प्रवर्धते।

विद्यया सर्वसिद्धि: स्याद्विद्ययामृतमश्नुते।।

अर्थात- वेदविद्या के अध्ययन से सारे पापों का लोप होता है, आयु की वृद्धि होती है, सारी सिद्धियां प्राप्त होती हैं, यहां तक कि विद्यार्थी के समक्ष साक्षात अमृतरस अशन पान के रूप में उपलब्ध हो जाता है।

शास्त्रवचन है कि जिसे विद्या नहीं आती, उसे धर्म, अर्थ,ख्काम, मोक्ष के चारों फलों से वंचित रहना पडता है। इसलिए विद्या की आवश्यकता अनिवार्य है।

सामजिक परिप्रेक्ष्य में विद्यारंभ संस्कार की आवश्यकता- विद्या और ज्ञान का इंसान के जीवन में क्या महत्व है इसको हर कोई भली-भांति जानता है। हर इंसान का शिक्षित होना समाज को भी सुधारता है। जिस समाज में शिक्षित लोगों की संख्या जितनी ज्यादा होती है वहां उपद्रव उतने ही कम होते हैं। हालांकि सिर्फ किताबों से ली गई जानकारी को ज्ञान नहीं कहा जा सकता असली ज्ञान या विद्या वो है जो इंसान में विवेक बुद्धि का विकास कर सके। जब इंसान में विवेक का उदय हो जाता है तो वो अच्छे-बुरे में सही तरीके से फर्क कर पाता है और समाज में सही मूल्यों का सूत्रपात होता है। इसी बात को ध्यान में रखते हुए विद्यारंभ संस्कार का सामजिक परिप्रेक्ष्य में ये महत्व और ज्यादा बढ़ जाता है ताकि आने वाले समय में बच्चा अपनी विद्या और अपने ज्ञान को विवेक के साथ इस्तेमाल कर सके।

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विद्यारम्भ संस्कार– कर्मकांड

  1. विद्या, ज्ञान और शिक्षा का प्रतीक माँ सरस्वती और भगवान गणेश को माना जाता है इसलिए विद्यारंभ के दौरान पूजा स्थल पर इन दोनों की प्रतिमाएं या चित्र होने चाहिए।
  2. पूजन स्थल में पट्टी, दवात, लेखनी, स्लेट और खड़िया भी रखी जानी चाहिए।
  3. गुरु पूजन के लिए यदि बच्चे के गुरु उपस्थित हों तो उनकी पूजा की जानी चाहिए नहीं तो प्रतीक रूप में नारियल की पूजा की जानी चाहिए।
  4. उपर्युक्त तैयारियाँ करने के बाद भगवान गणेश और माँ सरस्वती का श्रद्धापूर्वक पूजन किया जाता है। इसमें सर्वप्रथम गणेश जी की पूजा की जाती है उसके बाद माँ सरस्वती की पूजा की जाती है।
गणेश पूजन सरस्वती पूजन
क्रिया बच्चे के हाथ में फूल, अक्षत, रोली देकर मंत्र जाप के साथ-साथ भगवान गणेश की मूर्ति या चित्र के सामने अर्पित करें। बच्चे के हाथ में फूल, अक्षत, रोली देकर मंत्र जाप के साथ-साथ माँ सरस्वती की मूर्ति या चित्र के सामने अर्पित करें।
भावना पूजन के दौरान अपने मन में प्रार्थना करें कि विवेक के अधिष्ठाता गणपति बालक पर अपनी कृपा रखें और उनके आशीर्वाद से बालक के विवेक में निरंतर वृद्धि हो। साथ ही बालक/बालिका की बुद्धि भी प्रखर हो। पूजा के दौरान मन में प्रार्थना करें कि बालक/बालिका को ज्ञान, कला और संवेदना की देवी माँ सरस्वती का आशीर्वाद मिले और, माँ सरस्वती के आशीर्वाद से ज्ञान और कला के प्रति बालक/बालिका का रुझान हमेशा बना रहे।
मंत्र “गणानां त्वा गणपतिं हवामहे प्रियाणां त्वा प्रियपतिं हवामहे |

निधीनां त्वा निधिपतिं हवामहे वसो मम आहमजानि गर्भधमा त्वमजासि गर्भधम्||”

“ॐ गणपतये नमः। आवाहयामि, स्थापयामि ध्यायामि||”

“ॐ पावका नः सरस्वती, वाजेभिवार्जिनीवती। यज्ञं वष्टुधियावसुः।”

“ॐ सरस्वत्यै नमः। आवाहयामि, स्थापयामि, ध्यायामि।”

भगवान गणेश और माँ सरस्वती के पूजन के बाद शिक्षा ग्रहण करने के लिए इस्तेमाल किये जाने वाले उपकरणों (दवात, कलम और पट्टी) का पूजन करें।

विद्या प्राप्ति में इन उपकरणों के महत्व को देखते हुए इन्हें विद्यारंभ संस्कार के दौरान वेदमंत्रों से अभिमंत्रित किया जाता है ताकि इनका शुरूआती प्रभाव मंगलकारी हो सके।

अधिष्ठात्री देवी पूजन

  • उपासना विज्ञान की मान्यताओं के अनुसार कलम की अधिष्ठात्री देवी ‘धृति’ हैं, पट्टी या स्लेट की अधिष्ठात्री देवी ‘तुष्टि’ हैं और दवात की अधिष्ठात्री देवी पुष्टि हैं।
  • षोडश मातृकाओं में तीनों देवियां धृति, पुष्टि और तुष्टि उन तीन भावनाओं का प्रतिनिधित्व करती हैं जो ज्ञान और विद्या हासिल करने के लिए बहुत जरुरी और आधारभूत हैं।
  • अतः विद्यारंभ संस्कार के दौरान कलम, दवात और पट्टी का पूजन करते समय इनसे संबंधित अधिष्ठात्री देवियों का पूजन किया जाता है।
  1. लेखनी पूजन

विद्यारंभ संस्कार के दौरान बालक/बालिका के हाथ में कलम दी जाती है। चूकि कलम की देवी धृति को माना जाता है जिनका भाव ‘अभिरुचि’ है। विद्या प्राप्त करने वाले के मन में यदि विद्या पाने की अभिरुचि होगी तो जीवन में वो हमेशा आगे बढ़ता जाएगा। अगर ऐसा नहीं होता तो जीवन के कई क्षेत्रों में इंसान पीछे रह जाता है। अतः कलम पूजन के दौरान धृति देवी से प्रार्थना करनी चाहिए कि शिक्षार्थी की अभिरुचि निरंतर अध्ययन में बढ़ती ही जाए और वो शिक्षा के क्षेत्र में अच्छे परिणाम हासिल करे।

क्रिया- कलम पूजन के लिए बालक/बालिका के हाथ में पुष्प, अक्षत और रोली देकर पूजा स्थल पर स्थापित कलम पर मंत्र को उच्चारित करते हुए चढ़ाएं।

मंत्र-   “ॐ पुरुदस्मो विषुरूपऽ इन्दुः अन्तमर्हिमानमानंजधीरः।

एकपदीं द्विपदीं त्रिपदीं चतुष्पदीम्अष्टापदीं भुवनानु प्रथन्ता स्वाहा। ….-८.३०

भावना- पूजन के दौरान अभिभावकों को यह भावना रखनी चाहिए कि धृति शक्ति भविष्य में शिक्षार्थी की रूचि ज्ञान और विद्या में लगाए रखेगी।

  1. दवात पूजन

कलम का इस्तेमाल बिना दवात के नहीं किया जाता। कलम स्याही या खड़िया के सहारे ही लिख पाने में समर्थ होती है। इसी वजह से कलम के बाद दवात पूजन किया जाता है। दवात की अधिष्ठात्री देवी ‘पुष्टि’ को माना गया है। पुष्टि का भाव एकाग्रता होता है, इंसान के अंदर यदि एकाग्रता है तो वो कठिन से कठिन विषय को भी वे आसानी से समझ सकता है। इसलिए पुष्टि देवी की आराधना करना अति आवश्यक है। इसके लिए पूजा स्थल में राखी दवात के कंठ पर कलावा बांधा जाता है और रोल, धूप, अक्षत और पुष्प से दवात का पूजन किया जाता है।

क्रिया- पूजा स्थल पर रखी दवात पर मंत्र का जाप करते हुए बालक/बालिका के हाथों से पूजन सामग्री चढ़ाएं।

मंत्र-  “ॐ देवीस्तिस्रस्तिस्रो देवीवर्योधसंपतिमिन्द्रमवद्धर्यन्।

जगत्या छन्दसेन्दि्रय शूषमिन्द्रेवयो दधद्वसुवने वसुधेयस्य व्यन्तु यज॥   …. -२८.४१

भावना- माता-पिता को मन में यह भावना रखनी चाहिए कि पुष्टि शक्ति के सान्निध्य से बालक/बालिका में तीव्र बुद्धि का विकास हो और उनके अंदर एकाग्रता का गुण आए।

  1. पट्टी पूजन

कलम और दवात के बाद पट्टी का पूजन किया जाता है। कलम और दवात का उपयोग तभी हो पाता है जब पट्टी या कागज़ उपलब्ध हों, इनकी अधिष्ठात्री देवी ‘तुष्टि’ हैं। तुष्टि का भाव है मेहनत और श्रमशीलता। अच्छा ज्ञान प्राप्त करने के लिए श्रम की भी आवश्यकता होती है। कई लोग ऐसे होते हैं जिनमें पढ़ने के प्रति रूचि भी होती है और मन एकाग्र भी हो जाता है लेकिन उनके अंदर सुस्ती होने के कारण वो जीवन में कुछ नहीं कर पाते इसलिए तुष्टि देवी से कामना की जाती है कि वो शिक्षार्थी को श्रमशील बनाएं।

क्रिया- पट्टी पूजन के दौरान मंत्रोच्चारण के साथ बालक/बालिका के हाथों से पूजा-स्थल पर स्थापित पट्टी पर पूजन सामग्री अर्पित कराए।

मंत्र-  ॐ सरस्वती योन्यां गर्भमन्तरश्विभ्यांपतनी सुकृतं बिभर्ति।

अपारसेन वरुणो न साम्नेन्द्रश्रियै जनयन्नप्सु राजा॥” …. – १९.९४

भावना- अभिभावक मन में यह भावना रखें कि तुष्टि शक्ति शिक्षार्थी को श्रमशील बनाए और वह जीवन के हर मोड़ पर मेहनत कर सके।

  1. गुरु पूजन

शिक्षा प्राप्त करने के लिए अध्यापक का होना अनिवार्य है। जैसे अंधकार में एक दिया उजाला कर देता है उसी प्रकार गुरु भी शिष्य में छिपे अँधेरे को ज्ञान रुपी दिए से दूर कर देता है। विद्यारंभ संस्कार के दौरान बालक/बालिका द्वारा गुरु की भी पूजा की जाती है। इससे शिक्षार्थी के मन में अपने गुरु के प्रति सम्मान में वृद्धि होती है और शिक्षक भी शिक्षार्थी को उचित ज्ञान देने के लिए प्रतिबद्ध होता है। हमारे शास्त्रों में गुरु को ब्रह्मा से भी ऊपर माना गया है क्योंकि गुरु के द्वारा ही हमें संसार का ज्ञान होता है।

क्रिया- पूजन प्रक्रिया के दौरान अगर बालक/बालिका के गुरु समक्ष न हों तो गुरु के प्रतीक स्वरूप नारियल का मंत्रोच्चारण के द्वारा पूजन करें।

मंत्र- ॐ बृहस्पते अति यदयोर्ऽअहार्द्द्युमद्विभाति क्रतुमज्ज्जनेषु,

यद्दीदयच्छवसऽ ऋतप्रजाततदस्मासु द्रविणं धेहि चित्रम्।

उपयामगृहीतोऽसि बृहस्पतयेत्वैष ते योनिबृर्हस्पतये त्वा॥

ॐ श्री गुरवे नमः। आवाहयामिस्थापयामिध्यायामि।   …..-२६.३, तैत्ति०सं० १.८.२२.१२।

भावना- बालक में शिष्योचित गुण विकसित हों और वो अपने शिक्षक की बातों को भली भाँती समझ पाए यह भावना मन में होनी चाहिए। इसके साथ ही यह भावना भी मन में बनी रहनी चाहिए कि शिक्षार्थी गुरु का कृपा पात्र बना रहे।

  1. अक्षर लेखन और पूजन

पट्टी या कागज़ पर बालक/बालिका द्वारा ‘ॐ भूर्भुवः स्वः’ लिखा जाए। ऐसा भी किया जा सकता है कि खड़िया के द्वारा शिक्षक स्लेट पर ये शब्द लिख दे और उसके बाद माता पिता के हाथों की सहायता से बालक उन शब्दों के ऊपर लिखे। या शिक्षार्थी का हाथ पकड़कर गुरु स्लेट या कागज पर  ‘ॐ भूर्भुवः स्वः’ लिखवाए। ॐ भूर्भुवः स्वः में ॐ परमात्मा का सर्वश्रेष्ठ नाम है, भू: का अर्थ है श्रम, भुवः का अर्थ है संयम और स्वः का अर्थ है विवेक। ये सारे गुण शिक्षा प्राप्ति के लिए बहुत जरुरी हैं इसलिए विद्याआरंभ संस्कार के दौरान शिक्षार्थी द्वारा यह शब्द लिखवाए जाते हैं। यह काम अगर गुरु द्वारा करवाया जाए तो बहुत शुभ होता है।

क्रिया- अभिभावक अक्षर लेखन करवाने के बाद बालक के हाथों से मंत्र का जाप करते हुए उनपर फूल, अक्षत चढ़वाएं।

मंत्र- “ॐ नमः शम्भवाय च मयोभवाय च,

नमः शंकराय च मयस्कराय चनमः शिवाय च शिवतराय च।”  ….- १६.४१

भावना- ज्योतिषियों अनुसार अगर ज्ञान को अभिव्यक्त न किया जा सके तो उस ज्ञान का कोई महत्व नहीं रह जाता इसलिए अक्षर पूजन के द्वारा बालक/बालिका में अभिव्यक्ति के गुण डालने की कोशिश की जाती है। ज्ञान के प्रथम चरण में अभिभावकों को अक्षर पूजन कर बालक/बालिका के अंदर खुद को अभियक्त करने की जिज्ञासा डालने का प्रयास किया जाता है।

विशेष आहुति

विद्यारंभ संस्कार के अंतिम चरण में हवन सामग्री में कुछ मिष्ठान मिलाकर पांच बार निम्न मंत्र के उच्चारण के साथ पांच आहुतियां  बालक/बालिका से डलवाएं। मन में भावना करें कि यज्ञ से आयी ऊर्जा से बालक/बालिका में अच्छे संस्कार आए और मानसिक रूप से शिक्षार्थी बलिष्ठ हो।

मंत्र- “ॐ सरस्वती मनसा पेशलंवसु नासत्याभ्यां वयति दशर्तं वपुः।

      रसं परिस्रुता न रोहितंनग्नहुधीर्रस्तसरं न वेम स्वाहा। इदं सरस्वत्यै इदं न मम।” …..-१९.८३

विशेष आहुति होने के बाद यज्ञ के बाकी कर्म पूरे कर लेने चाहिए और उसके बाद आशीर्वचन, विसर्जन और जयघोष किया जाना चाहिए। अंत में प्रसाद वितरण करने के बाद विद्यारंभ संस्कार का समापन किया जाना चाहिए।

11- उपनयन संस्कार

‘उपनयन संस्कार’ हिन्दू धर्म में एकादशम संस्कार माना गया है। मनुष्य जीवन के लिए यह संस्कार विशेष महत्त्वपूर्ण है। इस संस्कार के अनन्तर ही बालक के जीवन में भौतिक तथा आध्यात्मिक उन्नति का मार्ग प्रशस्त होता है। उपनयन संस्कार, जिसे जनेऊ संस्कार और यज्ञोपवीत के नाम से भी जाना जाता है। ऐसी मान्यता है कि इस संस्कार को करने से बच्चे की न केवल भौतिक, बल्कि आध्यात्मिक प्रगति भी अच्छी तरह से होती है। इस संस्कार में शिष्य को गायत्री मंत्र की दीक्षा मिलती है। इसके बाद उसे यज्ञोपवीत धारण करना होता है। अपनी-अपनी शाखा के मुताबिक वह वेदों का अध्ययन भी करता है।

इस संस्कार में वेदारम्भ-संस्कार का भी समावेश है। इसी को यज्ञोपवीत-संस्कार भी कहते हैं। इस संस्कार में वटुक को गायत्री मंत्र की दीक्षा दी जाती है और यज्ञोपवीत धारण कराया जाता है। विशेषकर अपनी-अपनी शाखा के अनुसार वेदाध्ययन किया जाता है।

यह संस्कार असल में दीक्षा पाने यानी कि शिक्षा ग्रहण करने से जुड़ा हुआ है। यह तब होता है, जब शिष्य अपने गुरु के समीप ही रहकर उनसे दीक्षा लेता है। देखा जाए तो उपनयन शब्द का अर्थ ही होता है समीप होना। इस तरह से जब बच्चे के बारे में यह मान लिया जाता है कि अब वह शिक्षा प्राप्त करने योग्य हो गया है, तो उसका उपनयन संस्कार कर दिया जाता है। दरअसल ऐसी मान्यता है कि जन्म से हर कोई  निम्न स्तर का माना जाता है। शिक्षा प्राप्त करके ही कोई द्विज हो सकता है यानी कि ज्ञानी बन सकता है। यही वजह है कि उपनयन संस्कार हर किसी के जीवन के लिए बहुत ही जरूरी होता है।

गृह्यसूत्रों के अनुसार ब्राह्मण बालक का उपनयन संस्कार आठ वर्ष की क्षत्रिय का ग्यारह वर्ष की और वैश्य का बारह वर्ष की अवस्था में किया जाता था। तीव्र बुद्धि वाले ब्राह्मण का पाँच, बलवान क्षत्रिय का छः और कृषि आदि करने की इच्छा वाले वैश्य का आठ वर्ष की अवस्था में भी यह संस्कार किया जा सकता था। अधिकतम निर्धारित आयु तक जिन उच्च वर्ण के बालकों का उपनयन नहीं जाता था।

अधिकतम निर्धारण आयु तक जिन उच्च वर्ण के बालकों का उपनयन नहीं होता था, उन्हें व्रात्य कहा जाता था और शिष्ट समाज में उनको निंदनीय समझा जाता था। मनु ने ब्राह्मण बालक के लिए चौबीस वर्ष लिखी है। तीनों वणाç के बालकों की अवस्थाओं में अंतर का कारण यह प्रतीत होता है कि ब्राह्मण बालक के घर में सदा ही पढ़ने- पढ़ाने का वातावरण रहता था। क्षत्रिय के परिवार में इससे कुछ कम और वैश्य के परिवार में उससे भी कम। ब्राह्मण को वैसे भी क्षत्रिय और वैश्य की अपेक्षा अध्ययन में कम समय लगाना पड़ता था।

इस संस्कार के बाद बालक “द्विज’ कहलाता था, क्योंकि इस संस्कार को बालक का दूसरा जन्म समझा जाता था। इस संस्कार के बाद बालक का उत्तरदायित्व बहुत बढ़ जाता था। इसी कारण इस संस्कार का बहुत महत्व था। बालक को इस बात की अनुभूति कराई जाती थी कि वह अपने परिवार और समुदाय के प्रति अपने कर्तव्य को भली- भांति समझने के लिए ब्रह्मचर्य आश्रम में रहकर अभीष्ट योग्यता प्राप्त करें।

इसके बाद बालक भिक्षा माँगता था, जिससे कि उसमें अहम्यन्यता न रहे। भिक्षा में प्राप्त भोजन वह गुरु को देता था और गुरु के भोजन कर लेने के बाद उसमें से जो भोजन शेष बचता था, उसे वह स्वयं खाता था।

विधि- बच्चा जब अपने गुरु के पास पहुंचता है और उनसे शिक्षा प्राप्त करना शुरू करता है, तो उसी दौरान उसका उपनयन संस्कार शुरू हो जाता है। इसी क्रम में बच्चे को वेद पढ़ने का अधिकारी होने से पहले उसे यज्ञोपवीत धारण करवाया जाता है। गृह्यसूत्र एवं स्मृति ग्रंथों में उपनयन संस्कार की विधि के बारे में बड़े विस्तार से बताया गया है। प्राचीन समय में तो शिष्यों को भिक्षा भी मांग कर लानी पड़ती थी। माना जाता था कि इस संस्कार को करने से शिष्य के अंदर से अहंकार भी समाप्त होने लगता है। इस संस्कार के दौरान बच्चे के पिता उसे लेकर गुरु के पास जाते हैं, जहां बच्चा गुरु को प्रणाम करके उनसे उसे शिक्षा देने की विनती करता है। फिर गुरु वैदिक मंत्रों का जाप कर शिष्य को नये कपड़े पहनने के लिए देते हैं। गुरु बच्चे से उसका नाम पूछते हैं और वह अपना नाम बताता है। वह उससे पूछते हैं कि वह किसका शिष्य है, तो इस पर शिष्य कहता है कि वह उन्हीं का शिष्य है। इसके बाद गुरु उसका उपनयन संस्कार पूरा करते हैं।

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12- वेदारंभ संस्कार

‘वेदारंभ संस्कार’ हिन्दू धर्म में द्वादश संस्कार माना गया है। ज्ञानार्जन से सम्बन्धित है यह संस्कार। वेद का अर्थ होता है ज्ञान और वेदारम्भ के माध्यम से बालक अब ज्ञान को अपने अन्दर समाविष्ट करना शुरू करे यही अभिप्राय है इस संस्कार का। शास्त्रों में ज्ञान से बढ़कर दूसरा कोई प्रकाश नहीं समझा गया है। स्पष्ट है कि प्राचीन काल में यह संस्कार मनुष्य के जीवन में विशेष महत्व रखता था। यज्ञोपवीत के बाद बालकों को वेदों का अध्ययन एवं विशिष्ट ज्ञान से परिचित होने के लिये योग्य आचार्यो के पास गुरुकुलों में भेजा जाता था। वेदारम्भ से पहले आचार्य अपने शिष्यों को ब्रह्मचर्य व्रत कापालन करने एवं संयमित जीवन जीने की प्रतिज्ञा कराते थे तथा उसकी परीक्षा लेने के बाद ही वेदाध्ययन कराते थे। असंयमित जीवन जीने वाले वेदाध्ययन के अधिकारी नहीं माने जाते थे। हमारे चारों वेद ज्ञान के अक्षुण्ण भंडार हैं।

वेदारंभ संस्कार को वास्तव में विद्यारंभ संस्कार माना जाना चाहिये क्योंकि विद्या प्राप्ति के पश्चात ही व्यक्ति वेदों अथवा अन्य धर्मग्रंथों का अध्ययन करने में सक्षम हो पाता था। तब शिक्षा का महत्त्व वेदाध्ययन की दृष्टि से अधिक था। इस कारण इस संस्कार को विद्यारंभ संस्कार अथवा वेदारंभ संस्कार के रूप में जाना जाता है। वेदों तथा अन्य धर्मग्रंथों के अध्ययन से हमें इनके बारे में पूर्ण जानकारी प्राप्त होती थी। इस दृष्टि से इसे वेदारंभ संस्कार के नाम से ही अधिक जाना गया है। वेदाध्ययन के महत्त्व को इस प्रकार से व्यक्त किया गया है-

विद्यया लुप्यते पापं विद्यायाऽयुः प्रवर्धते।

विद्याया सर्वसिद्धिः स्याद्विद्ययाऽमृतमश्रुते।।

अर्थात- वेद विद्या के अध्ययन से सारे पापों का लोप होता है अर्थात् पाप समाप्त हो जाते हैं, आयु की वृद्धि होती है, समस्त सिद्धियां प्राप्त होती हैं, यहां तक कि उसके समक्ष अमृत-रस अक्षनपान के रूप में उपलब्ध हो जाता है।

अनेक विद्वान वेदारंभ संस्कार को अक्षरज्ञान संस्कार के साथ जोड़कर देखते हैं। उनके अनुसार अक्षरों का ज्ञान प्राप्त किये बिना न तो वेदों का अध्ययन किया जा सकता है और न शास्त्रों का लेखन कार्य संभव है। इसलिये वे वेदारंभ संस्कार से पूर्व अक्षरारंभ संस्कार पर बल देते हैं। इस बारे में अनेक विद्वानों का विचार है कि प्रारंभ में तो व्यक्ति को अक्षर (लिपि) का ज्ञान नहीं था। इसलिये तब गुरुमुख द्वारा ही वेदों का अध्ययन किया जाता था। इसके पश्चात धीरे-धीरे व्यक्ति ने लिपि का ज्ञान प्राप्त करना प्रारंभ किया और कालांतर में इसमें विकास होता चला गया। विद्वानों के मतानुसार भगवान बुद्ध के समय में अनेक लिपियां प्रचलित थीं और मनुष्य को लिपि का अच्छा ज्ञान प्राप्त था।

भगवान श्रीकृष्ण ने श्रीमद्भागवत गीता में लिखे अक्षरों को श्रेष्ठ माना है।

ऐसा माना जाता है कि वेदों का सारभूत एकाक्षर ऊँ प्रथम अक्षर था जिससे सबसे पहले मनुष्य का परिचय हुआ। ऊँ अक्षर मंत्र न होकर इसमें बहुत अधिक व्यापकता का संचार दिखाई देता है। ऊँ का उच्चारण मात्र करने से ध्वनियों के स्पंदन का अनुभव होता है। महाभारत के लेखन का काम प्रथम देव श्रीगणेश द्वारा संपूर्ण हुआ था। तांत्रिकों द्वारा अक्षरों की पूजा की जाती है। इसलिये विद्याध्ययन के लिये अक्षर का ज्ञान होना अत्यंत आवश्यक है।

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13- केशांत संस्कार

हिन्दू धर्म संस्कारों में ‘केशान्त संस्कार’ त्रयोदश संस्कार है। जैसा कि नाम से ज्ञात होता है केशांत का तात्पर्य है केश यानि बालों का अंत लेकिन इससे यह भ्रम होना स्वाभाविक है कि यदि यह केशांत संस्कार में मुंडन ही किया जाता है तो फिर चूड़ाकर्म संस्कार यानि मुंडन संस्कार भिन्न कैसे है? तो इसमें अंतर यह है कि मुंडन संस्कार जातक के जन्म के समय से जो केश उसके सिर पर होते हैं उन्हें पहली बार उतरवाने का संस्कार है जबकि केशांत संस्कार में किशोरावस्था के दौरान जब जातक की दाड़ी आती है तो पहली बार उन केशों को उतारा जाता है यानि जातक की दाड़ी बनवाई जाती है इस दौरान भी जातक के सिर के बाल भी पुन: उतारे जाते हैं। दरअसल गुरु शिष्य परंपरा के दौरान जो कि उपनयन संस्कार के पश्चात आरंभ होती है। जातक ब्रह्मचर्य का पालन करते हुए गुरु के सानिध्य में रहते हुए ज्ञानार्जन करता है। गुरु से शिक्षा दीक्षा प्राप्त करने के दौरान जातक ब्रह्मचर्य का पालन करते हुए अपने केश भी नहीं कटवाता है। जब जातक युवावस्था की दहलीज़ पर आता है तो उसके श्मश्रु यानि दाड़ी भी उग आती है। इन्हीं केशों का जब विधि-विधान से अंत होता है तो इसे केशांत संस्कार कहा जाता है। इसी संस्कार के दौरान जातक द्वारा उपनयन संस्कार के दौरान धारण की गई मौजी मेखला आदि का भी परित्याग किया जाता है।

यह इस पर निर्भर करता है कि जातक द्वारा गुरुकुल या कहें वेदाध्ययन कब पूर्ण किया जाता है। असल में इस संस्कार के साथ ही जातक को गुरुकुल से विदाई देकर ब्रह्मचर्य की अवस्था से गृहस्थाश्रम में प्रवेश करने के लिये प्रेरित किया जाता है। वेद-पुराणों सहित विभिन्न विषयों में पारंगत होने के पश्चात समावर्तन संस्कार से पहले बालों की सफाई करवाकर स्नानोपरांत जातक को स्नातक की उपाधि दी जाती है।

इसके बारे में संस्कार दीपक में उल्लेख मिलता है-

केशानाम् अन्तः समीपस्थितः श्मश्रुभाग इति व्युत्पत्त्या

केशान्तशब्देन श्मश्रुणामभिधानात् श्मश्रुसंस्कार एवं केशान्तशब्देन प्रतिपाद्यते।

अत एवाश्वलायनेनापि ‘श्मश्रुणीहोन्दति’। इति श्मश्रुणां संस्कार एवात्रोपदिष्टः।

इस संस्कार के बारे में कहीं-कहीं पर गोदान संस्कार का नाम भी आया है। केश (बालों) को गौ के नाम से भी जाना जाता है।

गोदान संस्कार के बारे में कहा गया है-

गावो लोमानि केशा दीयन्ते खंडयन्तेऽस्मिन्निति व्युत्पत्त्या

गोदानं नाम ब्राह्मणादीनां षोडशादिषु वर्षेयु कर्तव्यं केशान्ताख्यं कर्मोच्यते।

अर्थात्- यह है कि गौ अर्थात् लोम-केश जिसमें काट दिये जाते हैं। इस व्युत्पत्ति के अनुसार ब्राह्मण आदि वर्णों के लिये गोदान पद का यहां उल्लेख हुआ है।

इन वर्णों के द्वारा सोलहवें वर्ष में करने योग्य केशान्त नामक कर्म का वाचक है। विद्वानों के अनुसार यह संस्कार केवल उत्तरायण में किया जाता है। इस संस्कार को सोलहवें वर्ष में करने का विधान बताया गया है। इस आयु से पूर्व यह संस्कार प्रायः नहीं होता है। इसके पश्चात् ब्रह्मचारी शिक्षार्थी को वापिस अपने घर जाने की आज्ञा मिल जाती है। इसके पश्चात् ही उसे विवाह संस्कार करने का अधिकार भी प्राप्त हो जाता है। इस संस्कार का प्रतीकात्मक महत्त्व ही अधिक है अर्थात् ब्रह्मचारी जब अपनी शिक्षा पूर्ण कर लेता था तो उसे एक नया स्वरूप देने के लिये उसके दाढ़ी के बाल काट दिये जाते थे। विद्वान इसका तात्पर्य इस बात से भी लेते हैं कि अब यह व्यक्ति अपने जीवन की दूसरी जिम्मेदारियों को पूरा करने के लिये पूर्ण रूप से तत्पर है। जब यह व्यक्ति अपने घर लौटता है तो समावर्तन संस्कार के माध्यम से यह निश्चित कर लिया जाता था कि इस व्यक्ति की शिक्षा पूर्ण हो गई है, इसलिये इसे विवाह करके गृहस्थ जीवन जीने की आज्ञा दी जाती है। वर्तमान में इस संस्कार का विशेष महत्त्व नहीं देखा जाता है। संस्कारों के संदर्भ में इसका उल्लेख करना आवश्यक था, इसलिये यहां इस संस्कार का संक्षिप्त परिचय ही दिया गया है।

विधि- अन्य संस्कारों की तरह केशांत संस्कार भी किसी शुभ मुहूर्त में संपन्न किया जाता है। यह संस्कार गुरुकुल में ही करवाया जाता है। शास्त्रानुसार विधि विधान से व्रतों का पालन करने वाला ब्रह्मचारी यानि शिष्य इस संस्कार में गुरु की आज्ञानुसार गणेश आदि देवताओं की पूजा अर्चना के पश्चात अपने सिर एवं श्मश्रु के केशों को कटवाता है। तत्पश्चात स्नान करने के पश्चात जातक को गुरु द्वारा स्नातक की उपाधि दी जाती है।

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14- समावर्तन संस्कार

हिन्दू धर्म संस्कारों में समावर्तन संस्कार द्वादश संस्कार है। यह संस्कार विद्याध्ययनं पूर्ण हो जाने पर किया जाता है। प्राचीन परम्परा में बारह वर्ष तक आचार्यकुल या गुरुकुल में रहकर विद्याध्ययन परिसमाप्त हो जाने पर आचार्य स्वयं शिष्यों का समावर्तन-संस्कार करते थे। उस समय वे अपने शिष्यों को गृहस्थ-सम्बन्धी श्रुतिसम्मत कुछ आदर्शपूर्ण उपदेश देकर गृहस्थाश्रम में प्रवेश के लिए प्रेरित करते थे।

  • जिन विद्याओं का अध्ययन करना पड़ता था, वे चारों वेद हैं –
  • वेदान्त में शिक्षा, कल्प, व्याकरण, निरुक्त, छन्द और ज्योतिषशास्त्रं।
  • उपवेद में अथर्ववेद, धनुर्वेद, गान्धर्ववेद, आयुर्वेद आदि।
  • ब्राह्मणग्रन्थों में शतपथब्राह्मण, ऐतरेयब्राह्मण, ताण्ड्यब्राह्मण और गोपथब्राह्मण आदि।
  • उपागों में पूर्वमीमांसा, वैशेषिकशास्त्र, न्याय (तर्कशास्त्र), योगशास्त्र, सांख्यशास्त्र और वेदान्तशास्त्र आदि।

ब्रह्मचर्यव्रत के समापन व विद्यार्थीजीवन के अंत के सूचक के रुप में समावर्तन (उपदेश)-संस्कार किया जाता है, जो साधारणतया 25 वर्ष की आयु में होता है। इस संस्कार के माध्यम से गुरु-शिष्य को इंद्रिय निग्रहदान, दया और मानवकल्याण की शिक्षा देता है। ऋग्वेद में लिखा है –

युवा सुवासाः परिवीत आगात् स उ श्रेयान् भवति जायमानः।

तं धीरासः कवय उन्नयन्ति स्वाध्यों 3 मनसा देवयन्तः।।

अर्थात युवा पुरुष उत्तम वस्त्रों को धारण किए हुए, उपवीत (ब्रह्मचारी) सब विद्या से प्रकाशित जब गृहाश्रम में आता है, तब वह प्रसिद्ध होकर श्रेय मंगलकारी शोभायुक्त होता है। उसको धीर, बुद्धिमान, विद्धान, अच्छे ध्यानयुक्त मन से विद्या के प्रकाश की कामना करते हुए, ऊंचे पद पर बैठाते हैं।

25 वर्ष की अवस्था तक ब्रह्मचर्यपूर्वज गुरुकुल में रहकर, गुरु से समस्त वेद-वेदागों की शिक्षा प्राप्त करके, शिष्य जब गुरु की कसौटी पर खरा उतर जाता थ, तब गुरु उसकी शिक्षा पूर्ण होने के प्रतीकस्वरूप उसका समावर्तन-संस्कार करते थे। यह संस्कार एक या अनेक शिष्यों का एक साथ भी होता था। वर्तमान युग में भी यह संस्कार विश्वविद्यालयों में होता है, किंतु उसका रुप व उद्देश्य बदल गया है। प्राचीनकाल में समावर्तन-संस्कार द्वारा गुरु अपने शिष्य को इंद्रियनिग्रह, दान, दया और मानवकल्याण की शिक्षा देकर उसे गृहस्थ-आश्रम में प्रवेश करने की अनुमति प्रदान करते थे। वे कहते थे। उत्तिष्ठ, जाग्रत, प्राप्य वरान्निबोधक….। अर्थात उठो, जागो और छुरे कि धार से भी तीखे जीवन के श्रेष्ठ पथ को पार करो। अथर्ववेद 11/7/26 में कहा गया है कि-ब्रह्मचारी समस्त धातुओं को धारण कर समुद्र के समान ज्ञान में गंभीर सलिल जीवनाधार प्रभु के आनंद रस में विभोर होकर तपस्वी होता है। वह स्नातक होकर नम्र, शाक्तिमान और पिंगल दीप्तिमान बनकर पृथ्वी पर सुशोभित होता है।

कथा- इस समावर्तन-संस्कार के संबध में कथा प्रचलित है- एक बार देवता, मनुष्य और असुर तीनों ही ब्रह्माजी के पास ब्रह्मचर्यपूर्वक विद्याध्ययन करने लगे। कुछ काल बीत जाने पर उन्होंने ब्रह्माजी से उपदेश (समावर्तन) ग्रहण करने की इच्छा व्यक्त की। सबसे पहले देवताओं ने कहा-प्रभों! हमें उपदेश दीजिए। प्रजापति ने एक ही अक्षर कह दिया द। इस पर देवताओं ने कहा-हम समझ गए। हमारे स्वर्गादि लोकों में भोंगो की ही भरमार है। उनमें लिप्त होकर हम अंत में स्वर्ग से गिर जाते हैं, अतएव आप हमें द से दमन अर्थात इंद्रियसयंम का उपदेश कर रहे है। तब प्रजापति ब्रह्मा ने कहा-ठीक है, तुम समझ गए। फिर मनुष्यों को भी द अक्षर दिया गय, तो उन्होंने कहा-हमें द से दान करने का उपदेश दिया है, क्योंकि हम लोग जीवन भर संग्रह करने की ही लिप्सा में लगे रहते हैं। अतएव हमारा दान में ही कल्याण है। प्रजापति इस जवाब से संतुष्ट हुए। असुरों को भी ब्रह्मा ने उपदेश में अक्षर ही दिया। असुरों ने सोचा-हमारा स्वभाव हिंसक है और क्रोध व हिंसा हमारे दैनिक जीवन में व्याप्त है, तो निश्च्य ही हमारे कल्याण के लिए दया ही एकमात्र मार्ग होगा। दया से ही हम इन दुष्कर्मों को छोड़कर पाप से मुक्त हो सकते हैं। इस प्रकार हमें द से दया अर्थात प्राणि-मात्र पर दया करने का उपदेश दिया है। ब्रह्मा ने कहा-ठीक है, तुम समझ गए। निश्च्य ही दमन, दान और दया जैसे उपदेश को प्रत्येक मनुष्य को सीखकर अपनान उन्नति का मार्ग होगा।

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15- विवाह संस्कार

विवाह संस्कार हिन्दू धर्म संस्कारों में ‘पंचदश संस्कार’ है। स्नातकोत्तर जीवन विवाह का समय होता है, अर्थात् विद्याध्ययन के पश्चात् विवाह करके गृहस्थाश्रम में प्रवेश करना होता है। यह संस्कार पितृ ऋण से उऋण होने के लिए किया जाता है। मनुष्य जन्म से ही तीन ऋणों से बंधकर जन्म लेता है- ‘देव ऋण’, ‘ऋषि ऋण’ और ‘पितृ ऋण’। इनमें से अग्रिहोत्र अर्थात यज्ञादिक कार्यों से देव ऋण, वेदादिक शास्त्रों के अध्ययन से ऋषि ऋण और विवाहित पत्नी से पुत्रोत्पत्ति आदि के द्वारा पितृ ऋण से उऋण हुआ जाता है।

हिन्दू धर्म में विवाह को सोलह संस्कारों में से एक संस्कार माना गया है। विवाह दो शब्दों से मिलकर बना है- वि + वाह। अत: इसका शाब्दिक अर्थ है- “विशेष रूप से (उत्तरदायित्व का) वहन करना”। ‘पाणिग्रहण संस्कार’ को सामान्य रूप से ‘हिन्दू विवाह’ के नाम से जाना जाता है। अन्य धर्मों में विवाह पति और पत्नी के बीच एक प्रकार का करार होता है, जिसे विशेष परिस्थितियों में तोड़ा भी जा सकता है। परंतु हिन्दू विवाह पति और पत्नी के बीच जन्म-जन्मांतरों का सम्बंध होता है, जिसे किसी भी परिस्थिति में नहीं तोड़ा जा सकता। अग्नि के सात फेरे लेकर और ध्रुव तारे को साक्षी मान कर दो तन, मन तथा आत्मा एक पवित्र बंधन में बंध जाते हैं। हिन्दू विवाह में पति और पत्नी के बीच शारीरिक सम्बन्ध से अधिक आत्मिक सम्बन्ध होता है और इस सम्बन्ध को अत्यंत पवित्र माना गया है।

सृष्टि के आरंभ में विवाह जैसी कोई प्रथा नहीं थी। कोई भी पुरुष किसी भी स्त्री से यौन-संबध बनाकर संतान उत्पन्न कर सकता था। पिता का ज्ञान न होने से मातृपक्ष को ही प्रधानता थी तथा संतान का परिचय माता से ही दिया जाता था। यह व्यवस्था वैदिक काल तक चलती रही। इस व्यवस्था को परवर्ती[2] काल में ऋषियों ने चुनौती दी तथा इसे पाशाविक संबध मानते हुए नये वैवाहिक नियम बनाए। ऋषि श्वेतकेतु का एक संदर्भ वैदिक साहित्य में आया है कि उन्होंने मर्यादा की रक्षा के लिए विवाह प्रणाली की स्थापना की और तभी से कुटुंब-व्यवस्था का श्री गणेश हुआ। आजकल बहुप्रचलित और वेदमंत्रों द्वारा संपन्न होने वाले विवाहों को ‘ब्राह्मविवाह’ कहते हैं।

विवाह कि धार्मिक महत्ता पर मनु ने लिखा है –

दश पूर्वांन् परान्वंश्यान् आत्मनं चैकविंशकम्।

ब्राह्मीपुत्रः सुकृतकृन् मोचये देनसः पितृन्।

अर्थात ‘ब्राह्मविवाह’ से उत्पन्न पुत्र अपने कुल की 21 पीढ़ियों को पाप मुक्त करता है- 10 अपने आगे की, 10 अपने से पीछे और एक स्वयं अपनी। भविष्यपुराण में लिखा है कि जो लडकी को अलंकृत कर ब्राह्मविधि से विवाह करते हैं, वे निश्चय ही अपने सात पूर्वजों और सात वंशजों को नरकभोग से बचा लेते हैं।

आश्वलायन ने तो यहाँ तक लिखा है की इस विवाह विधि से उत्पन्न पुत्र बारह पूर्वजों और बारह अवरणों को पवित्र करता है –

तस्यां जातो द्धादशावरन् द्धादश पूर्वान् पुनाति।

भारतीय-संस्कृति में अनेक प्रकार के विवाह प्रचलित रहे है। मनुस्मृति के अनुसार विवाह-ब्राह्म, देव, आर्ष, प्राजापत्य, असुर, गंधर्व, राक्षस और पैशाच 8 प्रकार के होते हैं। उनमें से प्रथम 4 श्रेष्ठ और अंतिम 4 क्रमशः निकृष्ट माने जाते हैं। विवाह के लाभों में यौनतृप्ति, वंशवृद्धि, मैत्रीलाभ, साहचर्य सुख, मानसिक रुप से परिपक्वता, दीर्घायु, शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य की प्राप्ति प्रमुख है। इसके अलावा समस्याओं से जूझने की शक्ति और प्रगाढ प्रेम संबध से परिवार में सुख-शांति मिलती है। इस प्रकार विवाह-संस्कार सारे समाज के एक सुव्यवस्थित तंत्र का स्तम्भ है।

विवाह संस्कार के निम्नलिखित चरणों का उल्लेख ‘गृह्यसूत्रों’ में मिलता है :-

  1. पहले वर पक्ष के लोग कन्या के घर जाते थे।
  2. जब कन्या का पिता अपनी स्वीकृति दे देता था, तो वर यज्ञ करता था।
  3. विवाह के दिन प्रातः वधू को स्नान कराया जाता था।
  4. वधू के परिवार का पुरोहित यज्ञ करता था और चार या आठ विवाहित स्रियाँ नृत्य करती थीं।
  5. वर कन्या के घर जाकर उसे वस्र, दपंण और उबटन देता था।
  6. कन्या औपचारिक रुप से वर को दी जाती थी। ( कन्यादान )
  7. वर अपने दाहिने हाथ से वधू का दाहिना हाथ पकड़ता था। ( पाणिग्रहण )
  8. पाषाण शिला पर पैर रखना।
  9. वर का वधू को अग्नि के चारों ओर प्रदक्षिणा कराना। ( अग्नि परिणयन )
  10. खीलों का होम। ( लाजा- होम )
  11. वर- वधू का साथ- साथ सात कदम चलना ( सप्त- पदी ), जिसका अभिप्राय था कि वे जीवन- भर मिलकर कार्य करेंगे। अंत में वर, वधू को अपने घर ले जाता था।

विवाह संस्कार के सात वचन… विवाह के बाद कन्या वर से वचन लेती है कि –

पहला वचन-

तीर्थव्रतोद्यापनयज्ञ दानं मया सह त्वं यदि कान्तकुर्या:।

वामांगमायामि तदा त्वदीयं जगाद वाक्यं प्रथमं कुमारी।।

इस श्लोक के अनुसार कन्या कहती है कि स्वामि तीर्थ, व्रत, उद्यापन, यज्ञ, दान आदि सभी शुभ कर्म तुम मेरे साथ ही करोगे तभी मैं तुम्हारे वाम अंग में आ सकती हैं अर्थात् तुम्हारी पत्नी बन सकती हूं। वाम अंग पत्नी का स्थान होता है।

दूसरा वचन-

हव्यप्रदानैरमरान् पितृश्चं कव्यं प्रदानैर्यदि पूजयेथा:।

वामांगमायामि तदा त्वदीयं जगाद कन्या वचनं द्वितीयकम्।।

इस श्लोक के अनुसार कन्या वर से कहती है कि यदि तुम हव्य देकर देवताओं को और कव्य देकर पितरों की पूजा करोगे तब ही मैं तुम्हारे वाम अंग में आ सकती हूं यानी पत्नी बन सकती हूं।

तीसरा वचन-

कुटुम्बरक्षाभरंणं यदि त्वं कुर्या: पशूनां परिपालनं च।

वामांगमायामि तदा त्वदीयं जगाद कन्या वचनं तृतीयम्।

इस श्लोक के अनुसार कन्या वर से कहती है कि यदि तुम मेरी तथा परिवार की रक्षा करो तथा घर के पालतू पशुओं का पालन करो तो मैं तुम्हारे वाम अंग में आ सकती हूं यानी पत्नी बन सकती हूं।

चौथा वचन-

आयं व्ययं धान्यधनादिकानां पृष्टवा निवेशं प्रगृहं निदध्या:।।

वामांगमायामि तदा त्वदीयं जगाद कन्या वचनं चतुर्थकम्।।

चौथे वचन में कन्या वर से कहती है कि यदि तुम धन-धान्य आदि का आय-व्यय मेरी सहमति से करो तो मैं तुम्हारे वाग अंग में आ सकती हैं अर्थात् पत्नी बन सकती हूं।

पांचवां वचन-

देवालयारामतडागकूपं वापी विदध्या:यदि पूजयेथा:।

वामांगमायामि तदा त्वदीयं जगाद कन्या वचनं पंचमम्।।

पांचवे वचन में कन्या वर से कहती है कि यदि तुम यथा शक्ति देवालय, बाग, कूआं, तालाब, बावड़ी बनवाकर पूजा करोगे तो मैं तुम्हारे वाग अंग में आ सकती हूं अर्थात् पत्नी बन सकती हूं।

छठा वचन-

देशान्तरे वा स्वपुरान्तरे वा यदा विदध्या:क्रयविक्रये त्वम्।

वामांगमायामि तदा त्वदीयं जगाद कन्या वचनं षष्ठम्।।

इस श्लोक के अनुसार कन्या वर से कहती है कि यदि तुम अपने नगर में या विदेश में या कहीं भी जाकर व्यापार या नौकरी करोगे और घर-परिवार का पालन-पोषण करोगे तो मैं तुम्हारे वाग अंग में आ सकती हूं यानी पत्नी बन सकती हूं।

सातवां और अंतिम वचन-

न सेवनीया परिकी यजाया त्वया भवेभाविनि कामनीश्च।

वामांगमायामि तदा त्वदीयं जगाद कन्या वचनं सप्तम्।।

इस श्लोक के अनुसार सातवां और अंतिम वचन यह है कि कन्या वर से कहती है यदि तुम जीवन में कभी पराई स्त्री को स्पर्श नहीं करोगे तो मैं तुम्हारे वाम अंग में आ सकती हूं यानी पत्नी बन सकती हूं। शास्त्रों के अनुसार पत्नी का स्थान पति के वाम अंग की ओर यानी बाएं हाथ की ओर रहता है। विवाह से पूर्व कन्या को पति के सीधे हाथ यानी दाएं हाथ की ओर बिठाया जाता है और विवाह के बाद जब कन्या वर की पत्नी बन जाती है जब वह बाएं हाथ की ओर बिठाया जाता है।

विवाह के प्रकार- मनु आदि पुरातन स्मृतिकारों के द्वारा पुरातन काल में विभिन्न जातियों में प्रचलित अनेक वैवाहिक प्रथाओं में से, जिन आठ को मान्यता प्रदान की थी, वे थीं ब्राह्म, दैव, आर्ष, प्रजापत्य, आसुर, गांधर्व, राक्षस और पैशाच तथा च सामाजिक स्तर पर इनकी वरीयता का क्रम भी यही स्वीकार किया गया था। विवाह की इन सभी विधाओं को मनु जैसे कट्टरपंथी स्मृतिकार के द्वारा मान्यता दिया जाना। इस तथ्य का द्योतक है कि उस समय भारतीय समाज के विभिन्न वर्गों में यह सभी विधाएँ न्यूनाधिक मात्रा में प्रचलित थीं तथा इन आठ प्रकारों में से प्रथम चार को ब्राह्मण वर्ग के लिए, इनके अतिरिक्त राक्षस को ( तथा गांधर्व को ) क्षत्रिय के लिए एवं आसुर को वैश्य तथा क्षुद्र वर्गों के लिए भी मान्यता दी गयी थी, किंतु साथ ही पैशाच तथा आसुर को आर्यों के किसी भी वर्ग के लिए उचित नहीं माना गया है। संभवतः इसलिए कि ये दोनों ही विधाएँ अनार्य वर्गीय समाज से संबंधित थी। विभिन्न धर्मशास्रीय ग्रंथों में इनके रुपों तथा वरीयता क्रम में अंतर पाया जाता है। आश्व. ( 1/6 ) में पैशाच को राक्षस से पूर्व रखा है। मानव गृ. सू. में केवल ब्राह्म और शौल्क आसुर के ही नाम लिए हैं। आप. ध. सू. ( 2 / 5 / 11 – 20 ) में केवल छः प्रकार ही बताए हैं, प्रजापत्य और पैशाच को छोड़ दिया है। मनु. (3/27- 34 ) ने इनके रुपों- विधाओं को जिन रुपों में व्याख्यायित किया है, वे कुछ इस प्रकार हैं :-

  1. ब्राह्म : इसमें कन्या का पिता किसी विद्वान् तथा सदाचारी वर को स्वयं आमंत्रित करके उसे वस्रालंकारों से सुसज्जित कन्या, विधि- विधान सहित प्रदान करता था।
  2. दैव : इस प्रकार के विवाह में कन्या का पिता उसे वस्रालंकारों से सुसज्जित कर किसी ऐसे व्यक्ति को विधि- विधान सहित प्रदान करता था, जो कि याज्ञिक अर्थात् यज्ञादि कर्मों में निरत करता था।
  3. आर्ष : इस प्रकार के विवाह में कन्या का पिता यज्ञादि कार्यों के संपादन के निमित्त ( शुल्क के रुप में नहीं ) वर से एक या दो जोड़े गायों को देकर विधि- विधान सहित कन्या को उसे समर्पित करता था।
  4. प्राजापत्य : इस प्रकार के विवाह में कन्या का पिता योग्य वर को आमंत्रित कर “तुम दोनों मिलकर अपने गृहस्थधर्म का पालन करो’ ऐसा निर्देश देकर विधि- विधान के साथ कन्यादान किया करता था।
  5. आसुर : कन्या के बांधवों को धन या प्रलोभन देकर स्वेच्छा से कन्या प्राप्त करने की प्रक्रिया को “आसुर’ विवाह कहा जाता था।
  6. गांधर्व : इसमें कोई युवक- युवती स्वेच्छा से प्रणयबंधन में बंध जाते थे। अथवा यदि कोई सकाम पुरुष किसी सकामा युवती से मिलकर एकांत में वैवाहिक संबंध में प्रतिबद्ध होने का निर्णय कर लेता था, तो इसे भी गांधर्व विवाह कहा जाता था।
  7. राक्षस : इस प्रकार के विवाह में विवाह करने वाला व्यक्ति कन्या के अभिभावकों की स्वीकृति न होने पर भी, उन लोगों के साथ मार- पीट करके रोती- बिलखती कन्या का बलपूर्वक हरण करके उसको अपनी पत्नी बनने के लिए विवश करता था।
  8. पैशाच : सोई हुई या अर्धचेतना अवस्था में पड़ी अविवाहिता कन्या को एकांत में पाकर उसके साथ बलात्कार करके उसे अपनी पत्नी बनने के लिए विवश करने का नाम “पैशाच’ विवाह कहलाता था।

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16- अन्त्येष्टि संस्कार

हिन्दू जीवन के प्रसिद्ध सोलह संस्कारों में से यह अन्तिम संस्कार है, जिसमें जाति व धार्मिक मत के अनुसार भिन्नता होते हुए भी सामान्यत: मृत व्यक्ति की दाहक्रिया आदि की जाती है। अंत्येष्टि का अर्थ है, अन्तिम यज्ञ। दूसरे शब्दों में जीवन यज्ञ की यह अन्तिम प्रक्रिया है। आदर्श रूप से संस्कार गर्भधारण के क्षण से ही शुरू हो जाते हैं और व्यक्ति के जीवन में प्रत्येक महत्त्वपूर्ण चरण पर संपन्न किए जाते हैं। मृत्यु निकट आने पर रिश्तेदारों और पुरोहित को बुलाया जाता है, मंत्री व पवित्र ग्रंथों का पाठ होता है और आनुष्ठानिक भेंटें तैयार की जाती हैं। मृत्यु के उपरांत शव को जल्द से जल्द श्मशान घाट पर ले जाते हैं, जो आमतौर पर नदी तट पर स्थित होता है। मृतक का सबसे बड़ा पुत्र और आनुष्ठानिक पुरोहित दाह संस्कार करते हैं। प्रथम पन्द्रह संस्कार ऐहिक जीवन को पवित्र और सुखी बनाने के लिए है। बौधायन पितृमेधसूत्र (3.1.4) में कहा गया है-

जातसंस्कारैणेमं लोकमभिजयति मृतसंस्कारैणामुं लोकम्।

अर्थात- जातकर्म आदि संस्कारों से मनुष्य इस लोक को जीतता है; मृत-संस्कार, “अंत्येष्टि” से परलोक को

इसके बाद परिवार के सदस्यों को अपवित्र समझा जाता है। और उन पर कुछ वर्जनाएं लागू रहती हैं। इस अवधि में वे अनुष्ठान करते है। ताकि आत्मा अगले जीवन में प्रवेश कर ले। इन अनुष्ठानों में दूध और जल तथा अधपके चावल के पिंडों का अर्पण शामिल है। निश्चित तिथि को श्मशान से एकत्रित अस्थि अवशेष या तो दफ़न कर दिया जाता है या फिर नदी में प्रवाहित कर दिया जाता है। मृतकों के सम्मान में निश्चित तिथियों पर संबंधियों द्वारा श्राद्ध किए जाते हैं।

यह अनिवार्य संस्कार है। रोगी को मृत्यु से बचाने के लिए अथक प्रयास करने पर भी समय अथवा असमय में उसकी मृत्यु होती ही है। इस स्थिति को स्वीकार करते हुए बौधायन ने पुन: कहा है-

जातस्य वै मनुष्यस्य ध्रुवं मरणमिति विजानीयात्।

तस्माज्जाते न प्रहृष्येन्मृते च न विषीदेत्।

अकस्मादागतं भूतमकस्मादेव गच्छति।

तस्माज्जातं मृञ्चैव सम्पश्यन्ति सुचेतस:।

अर्थात- उत्पन्न हुए मनुष्य का मरण ध्रुव है, ऐसा जानना चाहिए। इसीलिए किसी के जन्म लेने पर न तो प्रसन्नता से फूल जाना चाहिए और न किसी के मरने पर अत्यन्त विषाद करना चाहिए। यह जीवधारी अकस्मात् कहीं से आता है और अकस्मात् ही कहीं चला जाता है। इसीलिए बुद्धिमान को जन्म और मरण को समान रूप से देखना चाहिए।

तस्यान्मातरं पितरमाचार्य पत्नीं पुत्रं शि यमन्तेवासिनं पितृव्यं

मातुलं सगोत्रमसगोत्रं वा दायमुपयच्छेद्दहनं संस्कारेण संस्कृर्वन्ति।।

अर्थात- इसीलिए यदि मृत्यु हो ही जाए तो, माता, पिता, आचार्य, पत्नी, पुत्र, शिष्य (अन्तेवासी), पितृव्य (चाचा), मातुल (मामा), सगोत्र, असगोत्र का दाय (दायित्व) ग्रहण करना चाहिए और संस्कारपूर्ण उसका दाह करना चाहिए।

हिंदू धर्म शास्त्रों की मान्यता के अनुसार अंत्येष्टि क्रिया के बिना मृतक की आत्मा को शांति नहीं मिलती। हालांकि कई जगह अंत्येष्टि को संस्कार नहीं माना जाता लेकिन अधिकतर धार्मिक ग्रंथों में इसे संस्कार के रूप में मान्यता दी है। यह एक प्रकार का यज्ञ होता है जिसमें मृतक स्वयं होम हो जाता है। संस्कार के रूप में इसकी मान्यता का एक कारण यह दिया जाता है कि इससे मृत शरीर नष्ट हो जाता है जिससे पर्यावरण की रक्षा होती है। यह द्विजों द्वारा किये जाने वाले सोलह संस्कारों में आखिरी संस्कार माना जाता है। प्रत्येक मनुष्य के लिये जन्म और मृत्यु का संस्कार ऋण स्वरूप माना गया है। हिंदूओं में भी स्त्रियों, बच्चों, सन्यासियों, सुदूरवर्ती क्षेत्र या फिर अकाल मृत्यु का शिकार होने वालों, आत्महत्या करने वालों या फिर दुर्घटनावश मृत्यु को प्राप्त होने वालों के लिये अंत्येष्टि की क्रिया भिन्न भिन्न होती है। धार्मिक दृष्टि से अंतिम संस्कार का बहुत अधिक महत्व होता है।

अंतिम संस्कार की विधि- भले ही यह अशुभ जान पड़े, दर्दनाक लगे लेकिन इस प्रक्रिया से गुजरना सबको पड़ता है अपने जीवन में हम अपनों से बिछुड़ जाते हैं। मृत्यु के पश्चात मृतक का क्या होता है यह कोई नहीं जानता शास्त्रों में स्वर्ग-नरक की अवधारणाएं हैं। पुनर्जन्म की कल्पनाएं भी हैं। लेकिन सबसे अहम भावना होती है मृतक की आत्मा की संतुष्टि, मृतक की मुक्ति इसी के लिये विधिनुसार अंतिम संस्कार की क्रिया की जाती है। स्मृति ग्रंथों के अनुसार वैदिक मंत्रों के साथ अंतिम संस्कार किया जाना चाहिये। हालांकि स्त्रियों व शूद्रों का संस्कार बिना वैदिक मंत्रों के किये जाने का विधान रहा है। मृतक को गंगाजल से स्नान करवा कर उसकी अर्थी बनाई जाती है। परिजनों द्वारा कंधा देते हुए उसे शमशान तक ले जाया जाता है जहां शव को चिता पर रखकर उसे मुखाग्नि दी जाती है। चिता की राख ठंडी होने के पश्चात मृतक की अस्थियां इकट्ठी की जाती हैं जिन्हें पवित्र तीर्थस्थल पर बहते जल में प्रवाहित किया जाता है। उत्तर भारत में गंगा नदी में अस्थियां प्रवाहित करने की परंपरा है। अस्थि विसर्जन भी विधि-विधान से योग्य ब्राह्मण द्वारा मृतक की आत्मा की शांति के लिये पूजा पाठ करवाकर किया जाता है। हालांकि कुछ क्षेत्र (महाभारत की युद्ध भूमि, गंगा आदि पवित्र नदियों के समीप के क्षेत्र आदि) पवित्र माने जाते हैं जहां अस्थि विसर्जन करने का विधान नहीं है। जिन जातकों की अकाल मृत्यु होती है उनके लिये तेरह दिन तक शोक मनाते हुए श्रादकर्म किया जाता है तो किसी बुजूर्ग या कहें आयु पूरी होने पर सुखपूर्वक जिनकी मृत्यु होती है उनकी सतरहवीं की जाती है और सतरहवीं के दिन यज्ञ हवन करवाकर ब्राह्मण भोज के साथ-साथ सामूहिक भोज भी करवाया जाता है।

अन्त्येष्टि संस्कार के समय शोक का वातावरण होता है। अधिकांश व्यक्ति ठीक प्रकार सोचने- करने की स्थिति में नहीं होते, इसलिए व्यवस्था पर विशेष ध्यान देना पड़ता है। सन्तुलित बुद्धि के अनुभवी व्यक्तियों को इसके लिए सहयोगी के रूप में नियुक्त कर लेना चाहिए। व्यवस्था के सूत्र इस प्रकार हैं-

*  मृतक के लिए नये वस्त्र, मृतक शय्या (ठठरी), उस पर बिछाने- उढ़ाने के लिए कुश एवं वस्त्र (मोटक)तैयार रखें।

*  मृतक शय्या की सज्जा के लिए पुष्प आदि उपलब्ध कर लें।

*  पिण्डदान के लिए जौ का आटा न मिले, तो गेहूँ के आटे में जौ मिलाकर गूँथ लिया जाता है।

*  कई स्थानों पर संस्कार के लिए अग्नि घर से ले जाने का प्रचलन होता है। यदि ऐसा है, तो उसकी व्यवस्था कर ली जाए, अन्यथा श्मशान घाट पर अग्नि देने अथवा मन्त्रों के साथ माचिस से अग्नि तैयार करने का क्रम बनाया जा सकता है।

*  पूजन की थाली, रोली, अक्षत, पुष्प, अगरबत्ती, माचिस आदि उपलब्ध कर लें।

*   सुगन्धित हवन सामग्री, घी, सुगन्धित समिधाएँ, चन्दन, अगर- तगर, सूखी तुलसी आदि समयानुकूल उचित मात्रा में एकत्रित कर लें।

*  यदि वर्षा का मौसम हो, तो अग्नि प्रज्वलित करने के लिए सूखा फूस, पिसी हुई राल, बूरा आदि पर्याप्त मात्रा में रख लेने चाहिए।

*  पूर्णाहुति (कपाल- क्रिया) के लिए नारियल का गोला छेद करके घी डालकर तैयार रखें।

*  वसोर्धारा आदि घृत की आहुति के लिए एक लम्बे बाँस आदि में लोटा या अन्य कोई ऐसा पात्र बाँधकर तैयार कर लिया जाए, जिससे घी की आहुति दी जा सके।

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अध्यात्म और विज्ञान का… ‘रहस्यमय लोक’

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भारतीय संस्कृति अध्यात्म प्रधान संस्कृति है, किन्तु विज्ञान की अभूतपूर्व प्रगति के कारण आधुनिक युग का जनमानस अध्यात्म के प्रति उदासीन हुआ है। इस उदासीनता के पीछे आज की भौतिकवादी सोच है। यहां यह भी देखना जरूरी है कि विज्ञान जिसने मनुष्य को बहुत कुछ दिया है, वहीं उसने मनुष्य को आध्यात्मिकता से दूर भी किया है। वास्तव में विज्ञान सिर्फ व्यक्ति के भौतिक जीवन तक पहुंचने में सक्षम है लेकिन उसके आन्तरिक आयाम तक पहुंचने में अक्षम है। विश्व के एकांगी और असंतुलित विकास का कारण यही है। आज का मनुष्य अधिक स्वार्थवादी एवं भौतिकवादी हो गया है, उसे कर्त्तव्य की अपेक्षा अधिकार पर अधिक ध्यान है।

अध्यात्म धर्म और ईश्वर की श्रद्धामय और निष्ठायुक्त भावना को ही ‘अध्यात्म’ कहते हैं। पाश्चात्य जगत् को भारतीय तत्त्वज्ञान का संदेश देने वाले महान विश्वगुरू स्वामी विवेकानंद का यह दृढ़ विश्वास था कि “अध्यात्मविद्या, भारतीय धर्म एवं दर्शन के बिना विश्व अनाथ हो जाएगा।” उनका मत था कि ‘यदि मनुष्य के पास संसार की प्रत्येक वस्तु है, पर अध्यात्म नहीं है तो कुछ भी नहीं है। उनकी दृष्टि में मनुष्य की यह परा-प्रकृत्ति-आत्मा उतनी ही सत्य है, जितना कि किसी पाश्चात्य व्यक्ति की इन्द्रियों के लिए कोई भौतिक पदार्थ।

“आनि अधि इति अध्याता:” के अनुसार ‘आत्म का ज्ञान’ ही अध्यात्म है। अधि और आत्म शब्दों से मिलकर बने हुए इस ‘अध्यात्म’ शब्द की व्याख्या कई प्रकार से की गई है। निर्गुण, निराकार और नित्य चेतन आत्मा को परमात्मा से भिन्न-अभिन्न मानते हुए विभिन्न दार्शनिक सिद्धांत प्रचलित हैं। सदियों से किए जा रहे प्रयास अभी भी ‘नेति-नेति’ से परे नहीं है। जीव-आत्मा-परमात्मा का अन्तर्सम्बन्ध ही अध्यात्म की विषय-वस्तु है।

भारतीय दर्शन ग्रन्थ अध्यात्मिकता के महत्व को प्रतिपादित करते हैं। सम्पूर्ण संसार ईश्वर सेव्याप्त है। परमात्मा का साक्षात्कार ही जीवात्मा का लक्ष्य है। आत्मा-परमात्माका ही स्वरूप है। आत्मतत्व रूप परब्रह्म से उत्पन्न होकर उसी में विलीन हो जाता है।

इस विषय में सन्त कबीरदास का यह कथन दृष्टव्य है –

पाणी ही तैं हिम भया, हिम गया बिलाइ।

जो कुछ था सोई भया, अब कुछ कहा न जाइ।।

आत्मा-परमात्मा के सम्बन्ध की विवेचना के लिए ”तैत्तिरीय उपनिषद्” में वर्णित है-

यतो वा इमानि भूतानि जायन्ते।

येन जातानि जीवन्ति।

यत् प्रयन्त्यभि संविशन्ति।

तद्वितिज्ञासस्व। तद् बह्मति।

भारतीय अध्यात्मवाद में ईश्वर, जीव एवं माया को मान्यता दी गई है। जीव ईश्वर से अलग होकर माया के बन्धन में फंस जाता है तथा ईश्वर को विस्मृत कर जगत् को सत्य एवं नित्य मान लेता है। जब ज्ञान से माया का आवरण हट जाता है तब जीव को “ब्रह्म सत्यं जगन्मिथ्या” की उक्ति सत्य प्रतीत होती है।

गीता के आठवें अध्याय में अपने स्वरुप अर्थात जीवात्मा को अध्यात्म कहा गया है। 

“परमं स्वभावोऽध्यात्ममुच्यते “

आत्मा परमात्मा का अंश है यह तो सर्विविदित है।  अध्यात्म की अनुभूति सभी प्राणियों में सामान रूप से निरंतर होती रहती है।

गीता के द्वितीय अध्याय में भी भगवान् श्रीकृष्ण ने आत्मा को अजर, अमर तथा अविनाशी बताया है –

न जायते म्रियते बा कदाचित्,

नामं भूत्वा भविता वा न भूयः।

अजो नित्यः शाश्वतोऽयं पुराणो,

न हन्यते हन्यमाने शरीरे।।

परमात्मा का माया के साथ संयोग होने पर वह जीव हो जाता है। स्थूल, सूक्ष्म और कारण- तीनों शरीरों के संबंध से रहित व्यष्टि-चेतन का नाम आत्मा है। पुनर्जन्म, मृत्यु, मोक्ष, कर्मफल आदि रहस्यों का तात्विक-विवेचन कर कर्तव्य और अकर्तव्य का निर्धारण अध्यात्म के बल पर ही किया जाता है। यही वह विलक्षण शक्ति हैं जिसके आधार पर जगत् में भारतवर्ष की श्रेष्ठता सिद्ध होती रही है। दैवीय आशीर्वाद से आध्यात्मिक ज्ञान की अथाह संपति भारतवर्ष के पास है। वेद, उपनिषद, गीता, रामायण, भागवत, महाभारत, योगसिद्धि और संतों के भजन-सभी सत्यानुभूति और अन्तर्ज्ञान की दुर्लभ विधि है। ‘अध्यात्म’ इस सृष्टि का सर्वोच्च ज्ञान है, जिसमें गूढ़तम रहस्यों का उद्घाटन किया गया है। अनेक ज्ञान-अज्ञान, व्यक्त-अव्यक्त, सूक्ष्म-स्थूल, जड़-चेतन, प्रकृति-पुरूष, आत्मा परमात्मा, सृष्ट और ब्रह्म, आदि-अंत, जन्म-मृत्यु, परलोक एवं पुनर्जन्म आदि रहस्यों को सप्रमाण प्रस्तुत करने में अध्यात्म ही सफल हो सका है।

ऋग्वेद के मण्डल 10 सूक्त 72 में संसार के प्रारम्भिक आधार काअसत् अथवा अविद्यमान् रूप में वर्णन किया गया है, जिसके साथ अदिति का,जो असीम है, तादात्म्य बताया गया है, अर्थात् वह भी असत् रूप में था। असीम से विश्व शक्ति उदित होती है। यद्यपि कभी-कभी विश्वशक्ति का स्वयं असीम उत्पत्ति स्थान करके वर्णन किया गया है। इस प्रकार की कल्पनाएँ शीघ्र अभौतिक सत्ता के साथ सम्बद्ध हो गई और इस प्रकार भौतिक विज्ञान ने धर्मके साथ गठबंधन करके अध्यात्म-विद्या को जन्म दिया।

विज्ञान और अध्यात्म जब एक दूसरे के पूरक तो विरोध कैसा???

जीवन निर्वाह की आवश्यकताओं को पूरा करने तथा सुख-शान्ति, सुव्यवस्था का सम्पादन करने के लिए किये गये प्रयास विज्ञान के अंतर्गत आते हैं। यों विज्ञान की परिभाषा किसी वस्तु या विषय का क्रमबद्ध, सुव्यवस्थित और तर्क व maxresdefault.jpgतथ्य संगत ज्ञान है। फिर भी विज्ञान का क्षेत्र अभी मुख्यतः स्थूल जगत, भौतिक संसार ही है।

दूसरी दिशा में अध्यात्म मनुष्य को सुखी और आनन्दित बनाने की व्यवस्था देता है। वह मनुष्य के स्वभाव, प्रकृति, संस्कार और अन्तश्चेतना को परिष्कृत करने पर जोर देता है तथा उसी आधार पर मनुष्य को शांत, ज्ञानी तथा आनन्दित बनाने की कला सिखाता है।

इस अन्तर्मुखी दृष्टि को अध्यात्म कहा जा सकता है और बहिर्मुखी प्रयोजनों को विज्ञान का नाम दिया जा सकता है। दीखने में अध्यात्म और विज्ञान अलग-अलग दिखाई देते हैं। उनके प्रयोग प्रयोजन भी भिन्न-भिन्न रूप में प्रस्तुत किये जाते हैं। दोनों की दिशाएँ भी अलग-अलग दिखाई देती हैं। एक बहिर्जगत में अनुसंधान करता है तो दूसरा आन्तरिक उत्कर्ष को महत्व देता है।

स्थूल दृष्टि से देखने पर विज्ञान और अध्यात्म सर्वथा भिन्न तथा एक-दूसरे के विरोधी दिखाई देते हैं, लेकिन वस्तुतः ऐसा है नहीं। दोनों एक दूसरे के साथ इतने घुले मिले हैं कि एक को दूसरे से अलग कर पाना उतना ही कठिन है। दोनों की दिशाएं भिन्न-भिन्न दिखाई देती हैं लेकिन वास्तव में दोनों एक ही दिशा में चल रहे हैं। वह दिशा है- मनुष्य को अधिकाधिक सुख-शान्ति सम्पन्न बनाना।

कहा जा चुका है कि एक बाह्य दृष्टि से मनुष्य की सुख-शान्ति के लिए प्रयत्नशील है और एक उसे आंतरिक दृष्टि से समृद्ध व सम्पन्न बनाने का उपक्रम रचता है। आंतरिक और बाह्य कार्यक्षेत्र की दृष्टि से अध्यात्म और विज्ञान में यह दो ही भिन्नताएँ हैं अन्यथा दोनों का लक्ष्य एक ही होने से वे एक ही दिशा में बढ़ने वाले दो पग हैं। अज्ञान से छूट कर ज्ञान की धूमिका में प्रवेश करने वाला दोनों का लक्ष्य है। दोनों सत्य की, परम सत्य की खोज में निरत हैं।

विज्ञान और अध्यात्म कई स्तर पर एक समान कार्यपद्धति अपनाते हैं। उदाहरण के लिए दोनों ही पिछली मान्यताओं के गलत सिद्ध होने पर उन्हें अस्वीकार कर देते हैं। दोनों ही इस तथ्य से सहमत हैं कि मनुष्य निरन्तर विकसित हो रहा है। दोनों मनुष्य के कल्याण को लक्ष्य बनाकर गतिशील हैं। दोनों सत्य की खोज में निरत हैं। जब दोनों में इतनी समानता है तो उनमें विरोध कैसा? साभार- प्रज्ञा अभिज्ञान शांतिकुंज ब्लॉग

अध्यात्म के दो मुख्य पक्ष है – ज्ञान-शक्ति और क्रिया शक्ति, जो ब्रह्म की शक्ति है। ज्ञान शक्ति चेतन और क्रिया-शक्ति जड़ है, जो प्रकृति का रूप धारण करती है। प्रकृति के रूपों से ही दृश्य-जगत् का विस्तार होता है, जो अध्यात्म का विज्ञान-पक्ष है। आधुनिक विज्ञान इसी जड़ प्रकृति के रहस्यों की खोज में लगा हुआ है। चेतन शक्ति-ज्ञान इस जड़ प्रकृति को नियंत्रित कर निश्चित रूप व आकार प्रदान करती है। चेतन के बिना जड़-शक्ति स्वत: कोई क्रिया करने, रूप या आकार ग्रहण करने अथवा विकसित होने में समर्थ नहीं है। इस चेतना शक्ति की संपूर्ण कार्यप्रणाली का विस्तृत अध्ययन अध्यात्म के अंदर किया जाता है। या जिस प्रकार अकेली जड़ या अकेली चेतन शक्ति सृष्टि रचना नहीं कर सकती, दोनों को एक-दूसरे के सहयोग की आवश्यकता होती हैं, उसी प्रकार जड़ शक्ति के अध्ययन से संबंधित अध्यात्म परस्पर पूरक होकर सहयोगी बने हुए हैं। बिना चेतना के सृष्टि का निवास नहीं हो सकता और बिना सृष्टि के चेतना को नहीं जाना जा सकता। चेतना अध्यात्म है व सृष्टि विज्ञान है। अध्यात्म विहीन विज्ञान की कल्पना ही नहीं की जा सकती।

अध्यात्म यदि प्राण है तो विज्ञान उसी का शरीर है, ये दोनों इतने अभिन्न है कि इन्हें अलग नहीं किया जा सकता। शरीर की समस्त क्रियाविधि का विश्लेषणात्मक अध्ययन विज्ञान का विषय है और प्राण से संबंधित समस्त ज्ञान अध्यात्म का क्षेत्राधिकार है। जिस प्रकार विज्ञान ने समस्त जड़ पिण्डों की भाँति शरीर का संपूर्ण ज्ञान प्रस्तुत किया गया हैं, उसी प्रकार अध्यात्म भी प्राण-तत्त्व के संबंध में सभी शंकाओं से रहित विश्लेषण प्रस्तुत करता है और इसी के बल पर सदियों से विश्व में भारत की सर्वोपरिता बनी हुई है।

अध्यात्म के अनुसार सृष्टि में कई पदार्थ जड़ है ही नहीं, विज्ञान जिसे जड़ मानता है, उसमें अध्यात्म, चेतना की सुप्तावस्था स्वीकार करता है। उचित वातावरण मिलने पर यही चेतना जब जाग्रत हो जाती है तो जड़ कहे जाने वाले बीज से चेतन वृक्ष बन जाता है। विज्ञान की दृष्टि इससे भिन्न है, वह जड़ को चेतन से पृथक न मानकर सृष्टि का मूल तत्त्व मानता हैं और दृश्य को ही प्रमाण रूप में स्वीकार करता है। अध्यात्म की भाँति विज्ञान अपने सिद्धांतों की व्याख्या करने में अभी तक सक्षम नहीं हो सका है और अध्यात्म की तुलना में विज्ञान को शिशु-तुल्य माना जाता है।

इस प्रकार स्पष्ट होता है कि “समस्त सृष्टि-रहस्यों को सुलझाने में असफल विज्ञान, दबी जुबान में ही सही, चेतन के अस्तित्व को स्वीकारता है। अनिश्चितता के रूप में ही विज्ञान द्वारा की गई ये घोषणाएँ ‘अध्यात्म’ द्वारा निरूपित सत्ता का अस्तित्व स्वीकार करती है। विज्ञान की पहुँच से बाहर के रहस्यों और चेतन का जड़ पिण्डों में जाग्रत् होकर रूपायित होने के नियमों को जानने का विज्ञान ही अध्यात्म हैं। भारतीय ग्रंथों, ऋषियों-मनीषों ने सृष्टि के सभी रहस्यों का उद्घाटन ‘अध्यात्म’ के अन्तर्गत किया है। इनकी मान्यता के अनुसार सृष्टि का मूल तत्त्व ईश्वर नहीं बल्कि उससे भी पूर्ण रूप-ब्रह्म है, जिसे वेदों ने ‘तदेक’ लाओत्से ने ‘अनाम’ तथा उपनिषदों ने ‘तत्’ जैसे नाम दिए है। ईश्वर भी उस परम तत्त्व की ही अभिव्यक्ति हैं। यह ‘ब्रह्म’ समस्त जड़-चेतन शक्ति से परिपूर्ण है। इस प्रकार विज्ञान की सीमा से परे जाकर, सृष्टि के उन अनसुलझे रहस्यों को जिन्हें विज्ञान नहीं सुलझा सका, चेतना-शक्ति के आधार पर सुलझाने में समर्थ विद्या को ‘अध्यात्म’ के नाम से जाना गया है, जिसके बल पर भारतवर्ष, विश्व का गुरू बना रहा है।

अध्यात्मवाद अवैज्ञानिक नहीं

अध्यात्मवाद अनुभूत जगत के अतिरिक्त चैतन्य या आत्मा के अस्तित्व को स्वीकार कर अनुभूति के क्षेत्र से ऊपर उठ जाता है। अतः यह विज्ञान के क्षेत्र में सीमित नहीं रहता। उससे अध्यात्मवाद को अवैज्ञानिक कहना उचित नहीं होगा।dharm

आधुनिक वैज्ञानिकों ने यह स्वीकार किया है कि विज्ञान और अध्यात्मवाद में कोई विरोध नहीं है विज्ञान का अध्यात्मवाद से समन्वय किया जा सकता है। जैव दर्शन भी अध्यात्म एवं विज्ञान में विरोध नहीं मानता है।

अध्यात्मवाद की व्याख्या से स्पष्ट होता है कि मूलभूत तत्व चेतन स्वरुप है जिसकी अभिव्यक्ति या छाया समस्त विश्व है। अध्यात्मवाद अप्रकृतिवादी तथा अलौकिकवादी है। यह प्रयोजनवादी है। यह कोरे इन्द्रियानुभववाद के बजाय आदर्शवाद को प्रश्रय देता है। यह आदर्शवादी और प्रयोजनवादी होने के चलते उच्चतर मानवीय (नैतिक, धार्मिक आदि) मूल्यों को प्रश्रय देता है, इस मत का वैज्ञानिक सत्यों से कोई विरोध नहीं है। अतः यह अवैज्ञानिक नहीं है। विज्ञान और अध्यात्म के संबंधों पर विश्व की प्रमुख हस्तियों के विचार इस प्रकार हैं :

  • सापेक्षता सिद्धांत के जन्मदाता अल्बर्ट आइंसटीनके अनुसार, इस संसार में ज्ञान और विश्वास दो वस्तुएं हैं। ज्ञान को विज्ञान व विश्वास को धर्म कहेंगे। मैं ईश्वर को मानता हूं, क्योंकि इस सृष्टि के अद्भुत रहस्यों में ईश्वरीय शक्ति ही दिखाई देती है। अब विज्ञान भी इस बात का समर्थन कर रहा है कि संपूर्ण सृष्टि का नियमन एक अदृश्य चेतना कर रही है।
  • वैज्ञानिक हक्सले ने कहा था, धर्म को लोभ और भय से मुक्त किया जाना चाहिए। उसमें काल्पनिक मान्यताओं का निराकरण होना चाहिए और चेतना को परिष्कृत करने की उसकी मूल दिशा एवं क्षमता को प्रभावी बनाया जाना चाहिए।
  • साइंस ऐंड रिलीजन के लेखक वैज्ञानिक एच. कैरोलिंगने लिखा था, इक्कीसवीं शताब्दी में अध्यात्म को विज्ञान का और विज्ञान को अध्यात्म का अभिन्न अंग मान लिया जाएगा। तब विज्ञान और अध्यात्म के समन्वय से ही उभय पक्षीय प्रगति का संतुलन आधार बन सकेगा।
  • भारत के पूर्व राष्ट्रपति एवं महान वैज्ञानिक डॉ. एपीजे अब्दुल कलाम- विज्ञान-अध्यात्म में विरोधाभास नहीं- पूर्व राष्ट्रपति डॉ. एपीजे अब्दुल कलाम एवं जन मुनि आचार्य महाप्रज्ञ का कहना है कि विज्ञान एवं आध्यात्म में कोई विरोधाभास नहीं है। द फैमिली एण्ड द नेशन नाम की पुस्तक डॉ. कलाम एवं जन मुनि आचार्य महाप्रज्ञ ने मिल कर लिखी है। डॉ. कलाम ने कहा कि विज्ञान एवं आध्यात्म का सहअस्तित्व भारत की महान विरासत है। उन्होंने कहा कि यह पुस्तक उनके और आचार्य महाप्रज्ञ के विचारों को एकरूप में प्रस्तुत करती है। आचार्य महाप्रज्ञ से अपनी मुलाकात एवं इस पुस्तक की रचना को अपने जीवन का एकदम अनूठा अनुभव बताते हुए डॉ. कलाम ने कहा कि इस पुस्तक का यह शीर्षक इसलिये रखा गया है क्यों कि उनका मानना है कि केवल वही व्यक्ति राष्ट्र के प्रति दायित्वबोध रख सकता है, जिसे परिवार में सही मूल्य सिखाए गए हैं। डॉ कलाम ने कहा कि उन्हें एवं आचार्य को विश्वास है कि भारत में यह क्षमता है कि वह एक ऐसा राष्ट्र बने, जिसमें लोग गरीबी, भय, युद्ध और प्रदूषण के बिना जीवन बिता सकते हैं। बल्कि एक शांतिपूर्ण, समृद्ध, खुशहाल और सुरक्षित समाज की रचना के लिये भारत दुनिया का रोल मॉडल बन सकता है। उन्होंने कहा कि हम ऐसा कर सकते हैं लेकिन इसके लिये दिल में सच्ची भावना होनी जरूरी है। इस अवसर पर पूर्व राष्ट्रपति ने दुनिया में शांति के लिये एक मंत्र भी दिया। उन्होंने कहा कि यदि दिल में पवित्रता से खबूसूरत चरित्र का निर्माण होता है, चरित्र में खूबसरमी से घर में सद्भावना उत्पन्न होती है। घर में सद्भावना से राष्ट्र में अनुशासन और तदंतर दुनिया में शांति आएगी। उन्होंने कहा कि विज्ञान और आध्यात्म का सहअस्तित्व भारत की विरासत है। इस अवसर पर आचार्य महाप्रज्ञ ने अपने सम्बोधन में कहा कि आध्यात्म और विज्ञान पृथक दिशाओं में जाते प्रतीत होते हैं लेकिन गहराई से विवेचना करं तो उनमें कोई भेद नहीं है। दोनों एक ही दिशा यानि सत्य की खोज में में चल रहे हैं, बस रास्ते अलग-अलग हैं। आचार्य ने कहा कि इस पुस्तक में आध्यात्म एवं विज्ञान में सम्बन्ध दिखाने की कोशिश की गई है। उन्होंने कहा कि डॉ. कलाम एक वैज्ञानिक हैं और वह खुद आध्यात्म के क्षेत्र में काम कर रहे हैं। दोनों का साथ आना इस बात की पुष्टि करता है कि विज्ञान एवं आध्यात्म का मिलना मानवीय समस्याओं के हल के लिये नितांत जरूरी है। 

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बौद्ध दर्शन पूर्णतः आध्यात्मिक होते हुए भी न तो ईश्वरवाद को स्वीकारा है और न आत्मवाद को- लेकिन भिक्षुओं को उन्होंने उस विज्ञान को भी बताया कि आखिर जन्म-जरा-मरण के दुःख से मुक्ति कैसे संभव होती है। इस विज्ञान को पटिच्चसमुत्पाद (प्रतीत्यसमुत्पाद) कहते हैं। प्रतीत्यसमुत्पाद का अर्थ होता है किसी वस्तु की प्राप्ति होने पर अन्य वस्तु की उत्पत्ति होती है। अर्थात यह होने से वह होता है। अस्मिन सति इदं भवति। यह सापेक्ष कारणतावाद है। इसके अनुसार किसी भी चीज की उत्पत्ति बिना कारण के नहीं होती।

  • भगवान् बुद्ध के धर्मचक्र प्रवर्तन में वैज्ञानिक अध्यात्म की अन्तर्धारा स्वतः ही प्रवाहित हो रही थी। भगवान् बुद्ध ने अपने प्रचवन में कहा- अध्यात्म विज्ञान का अगला एवं अन्तिम अन्वेषण बिन्दु है- दुःख निरोध का मार्ग। मेरे अनुभव में यह अष्टांगिक है- १. सम्यक् दृष्टि- यानि कि जीवन को विवेकपूर्ण ढंग से देखना२. सम्यक् संकल्प- अर्थात् अपने विचारों को सही रखना३. सम्यक् वाक् यानि कि वाणी को दोषमुक्त करनाप्रिय व हितकर बोलना४. सम्यक् कर्मान्त- अर्थात् सत्कर्म व निष्काम कर्म का मर्म समझना५. सम्यक् अजीव- यानि अपनी आजीविका के साधनों को शुद्ध करना। किसी के नुकसान में अपना नफा न सोचना। ६. सम्यक् पुरुषार्थ- अर्थात् अपने सभी प्रयत्न व पुरुषार्थ सदा संवेदना के सूत्र में गुंथे रहे७. सम्यक् स्मृति- इसके द्वारा बोधयुक्त हो स्वयं के अनुसन्धान की चेष्टा करना एवं ८. सम्यक् समाधि- इसी अवस्था में निर्वाण की प्राप्ति होती है। अध्यात्म विज्ञान का परम ध्येय भी यही है

भगवान महावीर की दृष्टि में अध्यात्मवाद का अर्थ है- पदार्थ को परम मूल्यन मानकर आत्मा को ही परम मूल्य मानना। आचारांगसूत्र में कहा गया है कि जो आत्मा है वही विज्ञाता है और जो विज्ञाता है वही आत्मा है। यहाँ आत्मज्ञान और विज्ञान एक ही है।

  • जैन दर्शन में बतलाया गया है कि आध्यात्मिक आनन्द की उपलब्धि पदार्थों में न होकर सद्गुणों में स्थिति आत्मा में होती है। इस प्रकार कहा जा सकता है कि अध्यात्मवाद का अर्थ वह सिद्धान्त होता है जो भौतिकवाद, प्रकृतिवादयंत्रवाद आदि का विरोधी है तथा आत्मा के चरमोत्कर्ष में विश्वास करता है। यहाँ यह भी स्पष्ट कर देना प्रासंगिक होगा कि अध्यात्म और विज्ञान में वस्तुतः वास्तविक विरोध नहीं है।

जहां तक विज्ञान का प्रश्न है तो विज्ञान एक शक्ति हैकिन्तु उस शक्ति का प्रयोग और उपयोग कैसे किया जाएइस तथ्य का निर्देश धर्म और दर्शन करता है वैज्ञानिक ज्ञान अपने आप में ठीक है, किन्तु जब उसे ही पूर्ण सत्य मान लेते हैं, तब वह अनेक कठिनाईयों का सबब बन जाता है। आज के विज्ञान ने विश्व के विविधवाह्य रुपों को जांचा है और उनके अनेक गुप्त रहस्यों को यांत्रिक साधनों के माध्यम से प्रकट किया है, किन्तु वह विश्व के आन्तरिक मूल सत्य को समझने में असमर्थ रहा है। वह विश्व के भौतिक तथ्यों का विश्लेषण कर लेता है, उनके पारस्परिक सम्बन्धों को भी समझ लेता है, परन्तु वह विश्व चेतना की समुचित व्याख्या नहीं कर पाता है इस दृष्टि से वह ज्ञान होते हुए भी सम्यग्ज्ञान नहीं है।

भारतीय संस्कृति में सम्यग्ज्ञान उसे ही कहा जाता है जो पर को जानने के साथ-साथ अपने को भी समझता हो। जिसने अपने आपको समझा, उसने सबको समझ लिया और जिसने अपने आपको नहीं समझा उसने किसी को नहीं समझा। विज्ञान ‘पर’ को समझता है, ‘स्व’ को नहीं। स्व का अर्थ है- चैतन्य तत्व और पर का अर्थ है- जड़त्व। एक हमें बाह्य जगत् से जोड़ता है तो दूसरा हमें अपने सेजोड़ता है। दोनों ही योग हैं। एक साधन योग है तो दूसरा साध्य योग है। एक हमेंजीवनशैली देता है तो दूसरा जीवन साध्य देता है। धर्म स्वभाव में जीना है तोविज्ञान उस स्वभाव को पहचानना है। विज्ञान हमें स्व-स्वभाव का बोध कराता हैऔर धर्म विभाव से स्वभाव में आने की प्रक्रिया सिखाता है।

विज्ञान और धर्म को लेकर यह प्रायः प्रश्न उठता है कि विज्ञान तर्क प्रधान है और धर्म जबकि श्रद्धा प्रधान है तो फिर उनमें मेल कैसा? लेकिन जिज्ञासुओं कीधारणा भ्रान्त है, क्योंकि विज्ञान न तो श्रद्धा या धर्म का विरोधी है और न ही धर्मतर्क का विरोधी। विज्ञान का प्रारम्भ हम परिकल्पना से करते हैं तो धर्म में तर्क का स्थान देकर उसे वैज्ञानिक बनाना चाहते हैं। अतः उनमें विरोध कहाँ है। विज्ञान वस्तुतः साधन देता है, लेकिन उसका उपयोग किस दिशा में करना होगा। यह दिशा निर्देश करना अध्यात्म का काम है।

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विज्ञान और अध्यात्म के संबंधों पर विश्व की प्रमुख हस्तियों के विचार

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संत विनोबा भावे- विनोबा जी के शब्दों में विज्ञान में दोहरी शक्ति है, एक विनाश शक्ति और दूसरी विकास शक्ति। वह सेवा भी कर सकता हैऔर संहार भी। अग्नि नारायण की खोज हुयी तो उससे रसोई भी बनायी जासकती है और उससे आग भी लगाई जा सकती है। अग्नि का प्रयोग घर फूंकने मेंकरना या चूल्हा जलाने में, यह अक्ल विज्ञान में नहीं है। अक्ल तो आत्मज्ञान में है। (आत्मज्ञान और विज्ञान) आत्मज्ञान है आँख और विज्ञान है पाँव । अगर मानव कोआत्मज्ञान नहीं तो वह अन्धा है। कहाँ चला जायेगा पता नहीं। अध्यात्म के पासआँख है इसलिए वह देख तो सकता है लेकिन गति की उसमें शक्ति नहीं हैइसलिए वह चल नहीं सकता। इसी तरह विज्ञान के पास गति तो है पर आँख नहींहै, इसलिए उसके पास लक्ष्य-बोध का अभाव है। यह स्थिति बिल्कुल सांख्य के प्रकृति-पुरुष की है। जिस प्रकार प्रकृति-पुरुष के संयोग से जगत का विकासहोता है उसी तरह यदि अध्यात्म और विज्ञान एक दूसरे के पूरक बन कर कार्यकरेंगे तो मानवता का विकास होगा। विनोबा जी ने कहा है- जो विज्ञान एक ओरक्लोरोफार्म की खोज करता है जिससे करुणा का कार्य होता है, वही विज्ञान अणुअस्त्रों की भी खोज करता है जिससे भयंकर संहार होता है। एक बाजू सिपाही कोजख्मी करता है, दूसरा बाजू उसको दुरुस्त करता है, यह गोरखधन्धा आज विज्ञान की मद्द से चल रहा है। इस हालत में विज्ञान का सारा कार्य उसको मिलने वालेमार्गदर्शन पर आधारित है। उसे जैसा मार्गदर्शन मिलेगा, वह वैसा ही कार्य करेगा। महावीर ने भी आचारांगसूत्र में कहा है कि शस्त्र एक से बढ़कर एक हो सकता है,किन्तु अहिंसा से बढ़कर अन्य कुछ नहीं हो सकता। इस तरह हम देखते हैं किदोंनो एक दूसरे के पूरक हैं, जबकि हम उसे एक-दूसरे का विरोधी मानते हैं। आज का विज्ञान संशयात्मवाद अंध आस्था और अविवेक की चादर में लिपटा हुआ है। विज्ञान यदि प्रकृति पर शासन करने को ही सब कुछ मानने लगा है, दूसरी ओरधर्म और दर्शन ने रुढ़िवाद, परम्परावाद और अन्धविश्वास को ही अपना लक्ष्य बना रखा है। अब यह जिज्ञासा स्वाभाविक है कि अध्यात्म और विज्ञान का क्या समन्वय संभव है? इस संदर्भ में यही कहा जा सकता है कि जैन धर्म-दर्शन अध्यात्म और विज्ञान के समन्वय का ही नाम है। जहाँ जड़ और चेतन को समान रुप में स्वीकार किया गया हो वहाँ इस प्रकार की समस्या आ ही नहीं सकती। जैन धर्म-दर्शन अध्यात्म और विज्ञान के समन्वय का ही नाम है। जहाँ जड़ और चेतना को स्वीकार करते हुए कहा है कि जो लोग एक मात्र ब्रह्म की सत्ता को स्वीकार करते हैं औरयह कहते हैं कि जड़ की सत्ता नहीं है, वह मिथ्या है, वे एकांगी ज्ञान के शिकार हैं जिसे हम चेतना रहित मानकर मिथ्या कहते हैं उसमें भी चेतना है परन्तु वह सुप्तावस्था में है। लेकिन विकास की अवस्था मे वही सुप्त चेतना परम चेतना के स्वरुप को प्राप्त करती है

संत विनोबा भावे का कहना है कि धर्म और राजनीति का युग बीत गयाअब उनका स्थान अध्यात्म और विज्ञान ग्रहण करेंगे।

विनोबा जी के आध्यात्मिक चिंतन में सबसे महत्वपूर्ण बात (अध्यात्म और विज्ञान) के समन्वय की कल्पना हैं। विनोबा जी ने विज्ञान युग में विज्ञान और अध्यात्म के समन्वय पर बल दिया। उन्होनें कहा “आगे की दुनिया में विज्ञान और आत्मज्ञान ही रहेगा सियासत और मजहब खत्म होगें । क्योंकि राजनीति आदमी को जोड़ने की बजाय तोड़ने का कार्य करती है” और नाना प्रकार की उपासनायें, आउट ऑफ डेट (काल ब्राह्म) हो गयी है, जो हृदय को संकुचित बनाती है। और एक मानव को दूसरे मानव से तोड़ती है।” इस सन्दर्भ में उन्होनें दो समीकरण प्रस्तुत किये।

राजनीति + विज्ञान = सर्वनाश

आध्यात्मिकता + विज्ञान = सर्वोदय।

उन्होनें कहा “मनुष्य रूपी पंक्षी के दो पंख है, एक आत्मज्ञान और दूसरा विज्ञान इन दोनों का ठीक ढंग से समत्व (संतुलन) रखकर ही मानव का विकास होगा।” विज्ञान और अध्यात्म के समन्वय के सन्दर्भ में उन्होनें महत्वपूर्ण तर्क प्रस्तुत किये है –

  1. आत्मज्ञान और विज्ञान दोनों पूरक है। आत्मज्ञान जीवन की दिशा निर्धारित करता है। तो विज्ञानजीवन के लिये कार्यों को सम्पन्न करता है। यदि एक आँख है तो दूसरा पैर” आइस्टीन ने भी कहा था, “Science is lame without religion and religion is blind with out Science”
  2. विनोबा जी के अनुसार विज्ञान को आत्मज्ञान (अध्यात्म) का मार्गदर्शन जरूरी है क्योंकि“विज्ञान नीति निरपेक्ष होता है। ऐसी शक्ति को जैसा मार्गदर्शन मिलेगा तदनुसार उसका उपयोग दुनिया में होगा। गलत मार्गदर्शन मिलता है तो वह नरक का मार्ग बन जाता है। सही मार्गदर्शन मिलता  है तो वह स्वर्ग मे ले जाता है ………………. क्योंकि विज्ञान में दोहरी शक्ति है – विनाश शक्ति  और सेवा शक्ति ………..  विज्ञान और तकनीकी को व्यवहार में कहाँ तक उपयोग हो इसका निर्णय आध्यात्म देगा ” विज्ञान और आध्यात्म के समन्वय में मानवता की समस्त समस्याओं का हल अहिंसा से होगा।  बरट्रेन्ड रसल ने भी कहा है। “Science by it self can not supply us with out ethich
  3. विनोबा जी के अनुसार अध्यात्मिकता धर्म से भिन्न है।“धर्म या मजहब के रूप देश और काल के अनुसार अलग-अलग हो सकते है। परन्तु अध्यात्मिकता सत्य, प्रेम और करूणा के समान सार्वत्रिक और शाश्वत है। …… भगवान का डर और दीन दुखियों की सेवा ही अध्यात्मिकता का मुख्य रूप है15) ।” विज्ञान की सृष्टि का अध्ययन मन की भूमिका से ऊपर उठकर करता है”  अतः इसमें रागद्वेष, रूचि – अभिरूचि का प्रश्न नही उठता। इसके अर्न्तगत बाह्म सृष्टि और मन दोनो का ज्ञान आ जाता है अतः इसमें सार्वभौमिकता होती है। विज्ञान और अध्यात्मिकता, धर्म को सही दिशा दे सकते है विज्ञान धर्म को मानसिक धरातल और कल्पना से परे हटाकर ज्ञान का ठोस आधार दे सकता है और आध्यात्मिकता धर्म को सभी धर्मों एवं प्राणीमात्र की एकता का ज्ञान देकर सच्चे मानव धर्म के रूप में प्रतिष्ठित कर सकती है। विनोबा जी का समस्त अध्यात्मिक चिंतन अविरोधी समन्वय पद्वति एवं शास्त्रीय व वैज्ञानिक दृष्टि पर आधारित है। और इसी के आधार पर ईश्वर, आत्मा, मोक्ष, पुनर्जन्म, इत्यादि। तात्विक । धारणाओं का विकास किया जाता है। जिसका सम्यक परीक्षण क्रमवद्ध रूप से करना अनिवार्य है।

स्वामी विवेकानंद– स्वामी विवेकानंद ने कहा है कि मनुष्य का भविष्य उसके सही अर्र्थो में वैज्ञानिक और सच्चे आध्यात्मिक होने पर टिका है। विज्ञान को जहां धर्म से मानवीयता की सीख लेने की जरूरत हैवहीं धर्म के क्षेत्र में वैज्ञानिक पद्धतियों के प्रयोग की आवश्यकता है।

“विवेकानंद जी अध्यात्म और विज्ञान को एक-दूसरे का विरोधी नहीं मानते थे। उनका विचार था कि पाश्चात्य विज्ञान का भारतीय वेदांत के साथ समन्वय करके की विश्व में सुख-समृद्धि व शांति उत्पन्न की जा सकती है। विज्ञान ने मानव जीवन को अनेक कष्टों से मुक्त किया है तथा जीवन की अन्य सुविधाएं उपलब्ध कराने में योगदान दिया है। परन्तु वेदांत के अभाव में यही विज्ञान विनाशकारी भी बन सकता है।

वेदांत तथा विज्ञान के समन्वय से मनुष्य चिन्तन और विवेकमुक्त होगा तथा मानवता अधिक सुखी होगी। पश्चिमी राष्ट्र वैज्ञानिक संस्कृति में कितने ही उन्नत क्यों न हो तत्व एवं आध्यात्मिक शिक्षा से वे मेरे बालक ही हैं। भौतिक विज्ञान केवल लौकिक आनन्द दे सकता है परन्तु अध्यात्मक विज्ञान का आदर्श मनुष्य को अधिक आनन्द देता है। वह उसे अधिक सुखी बनाता है। भौतिकवाद अनेकता, उच्छृखलता और निरर्थक महत्वाकांक्षा को जन्म देती है। व्यक्ति तथा राष्ट्र को मृत्यु को की ओर ले जाती है।”

विवेकानंद जी लिखते हैं,” पाश्चात्य शिक्षा का एक दोष है कि वह मनुष्य को अत्यंत स्वार्थी बना देती है। बुद्धि व्यक्ति को उस सर्वोच्च स्तर पर नहीं पहुंचा सकती है जिस पर हृदय उसे पहुंचाता है। हृदय ज्ञान का प्रकाश है। अतः हृदय का परिष्कार करो। ईश्वर हृदय के माध्यम से ही हमें संदेश देता है।””विश्वयारी” के व्यामोह में हम उपभोक्तावाद के जाल में उलझते जा रहे हैं। उपभोक्तावाद अपसंस्कृति को जन्म दे रहा है। इस उपभोक्तावादी उपसंस्कृति की मृगमरीचिका में फंसकर हम स्वयं अपने को भ्रष्ट कर रहे हैं, अपनी स्मृति को बिगाड़ रहे हैं, अपने विवेक को नष्ट कर रहे हैं, और उदारवाद की झूठी चमक में खुशी में झूम रहे हैं। अपसंस्कृति विस्मृति पैदा कर रही है। यह विस्मृति हमारा व्यतीत, वर्तमान और अनन्त यात्रा को बिगाड़कर हमें महाविनाश की ओर ले जा रही है। ” हम यह भूल रहे हैं कि हमारी सांस्कृतिक परंपरा परात्पर से प्रश्रित है, नित्यनूतन रूपों में वर्तमान होकर उपस्थित होती है और अनन्त की ओर अतन्द्रित भाव सेअविराम बढ़ते रहने के लिए अनादि का संदेश सुनाती है। वह हर सूर्योदय में नयी होती है, हर दोपहरी में प्रखर होती है, हर संख्या में ध्यानमग्न होती है और बिना मरे नया जन्मलेती है।

पत्रावली (द्वितीय खड), पृ. 80- भौतिक विज्ञान भौतिक विज्ञान केवल लौकिक समृद्धि दे सकता है, परंतु अध्यात्म-विज्ञान शाश्वत जीवन के लिए है। यदि शाश्वत जीवन न भी हो तो भी आध्यात्मिक विचारों का आदर्श मनुष्य को अधिक आनंद देता है और उसे अधिक सुखी बनाता है। परंतु जड़वाद की मूर्खता ही स्पद्ध, अयोग्य और तीव्र अभिलाषा, एवं व्यक्ति तथा राष्ट्र की अंतिम मृत्यु का साधन होती है।

प्रकांड विद्वान और दार्शनिक डॉ. सर्वपल्ली राधाकृष्णन – इस दुर्भाग्यपूर्ण स्थिति की ओर स्पष्ट संकेत किया है- “Science has glorified the external man. In the process, it has denigrated the inner man. This has spurred man and women to a neurotic pursuit of external pleasures and generated grisly greed for rights without duties.” इसलिए आज इस बात की आवश्यकता है कि विज्ञान के साथ-साथ अध्यात्म की ओर भी उचित ध्यान दिया जाए, अन्यथा आज का मानव विभिन्न प्रकार की समस्याओं और संकटों से त्राण नहीं पा सकता है।

स्वामी पवित्रानन्द (रामकृष्ण मिशन के एक प्रमुख संन्यासी) – आज नवयुग का निर्माण वैसे ही लोगों के द्वारा सम्भव है,जो सच्चे अर्थ में अध्यात्म से प्रेरित होते हैं, और स्वार्थ द्वारा संकीर्णता की परिधि से ऊपर उठे होते हैं। इसलिए निश्चय ही वर्तमान अध्ययन की अपनी आवश्यकता और सार्थकता स्पष्ट रुपेण दृष्टिगत होती है।

पंडित अरूण कुमार शर्मा (प्रसिद्ध बायोलॉजिस्ट)- मनुष्य जिस सत्य की खोज में पागल है, वह अध्यात्म है। आत्मा और उससे संबंधित जितने भी विषय है, उसी का नाम ‘अध्यात्म’ है जिसे विज्ञान “जैविक विद्युतशक्ति” (बायो एलेक्ट्रिसिटी) कहता है, वह वास्तव में अध्यात्म शक्ति ही है। आत्मा स्वयं अपने आप में विद्युत का एक विशाल भण्डार है।

पंडित दीनदयाल उपाध्याय- अध्यात्म और विज्ञान परस्पर विरोधी नहीं हैं। उनका समन्वय करके ही मानवजीवन को सुखी एवं निरामय किया जा सकता है। आध्यात्मिक होने का अर्थ भौतिक सुखों की ओर से उदासीन हो जाना, भारतीय संस्कृति को स्वीकार नहीं। ऐसा मिथ्या अर्थ करने के कारण ही विज्ञान में प्रगति कर चुके पश्चिम की सभी बातों का हमने सर्वागीण अनुकरण किया। इन अनुकरण में जागरूकता नहीं थी। आज भारत की अनेक समस्याएँ अंधानुकरण के कारण उत्पन्न हुई हैं। सिंधु-संस्कृति के उदय से लेकर गांधी जी के सर्वोदय तक नाना सामाजिक प्रयोग भारत ने किये हैं। अब एकात्म मानववाद एवं एकात्म संस्कृतिवाद के आधार पर आधुनिक भारत का नया राष्ट्रजीवन संगठित करने की आवश्यकता है।

विज्ञान और अध्यात्म का नाता

महर्षि व्यास के अनुसार, विश्व में मनुष्य से श्रेष्ठ और कुछ नहीं। उसी में परम चेतना को उभारने वाली विद्या का नाम अध्यात्म है। वस्तुत: अध्यात्म का लक्ष्य है- मनुष्य के अंदर छिपी शक्तियों और सत्प्रवृत्तियों को मनोवैज्ञानिक पद्धति से इतना आगे बढ़ाना कि व्यक्ति के जीवन में देवत्व छलकने लगे। दूसरी तरफ विज्ञान का लक्ष्य है प्रकृति तथा पदार्थ में छिपी शक्तियों की जानकारी प्राप्त करना, जिससे मनुष्य के जीवन में कोई भौतिक कष्ट न रहे और वह सुख-सुविधा युक्त जीवन जी सके। जीवन आत्मिक और भौतिक दोनों तत्वों से मिलकर बना है, इसलिए विज्ञान व अध्यात्म अलग-अलग होते हुए भी पूरक हैं।

अध्यात्म और विज्ञान… दोनों हैं एक-दूसरे के पूरक

– गुरु ओमानंद जी

अधिकतर लोग ये समझते हैं कि अध्यात्म और विज्ञान का आपस में कोई संबंध नहीं, लेकिन सच ये है कि ये दोनों एक सिक्के के दो पहलू हैं. हिंदू धर्म की लगभग सभी आध्यात्मिक व धार्मिक मान्यताओं के पीछे वैज्ञानिक रहस्य छुपे हैं. ऐसा इसलिए है कि लोग विज्ञान से ज़्यादा धर्म व अध्यात्म में विश्‍वास करते हैं. गुरु ओमानंद जी इसी विषय पर प्रकाश डालेंगे, ताकि लोग अध्यात्म में छिपे वैज्ञानिक रहस्य को जान सकें और स्वस्थ जीवन की ओर अग्रसर हो सकें.

अध्यात्म और विज्ञान का संबंध

सरल शब्दों में कहें, तो विज्ञान अपने शोध से आध्यात्मिक सच्चाइयों की खोज करता है और आध्यात्मिक मान्यताओं के पीछे वैज्ञानिक रहस्य छुपे होते हैं. दोनों एक ही बात कहते हैं, बस कहने का तरीका अलग-अलग है.

वैज्ञानिक खोज के पीछे छुपा अध्यात्म

अगर हम वैज्ञानिक खोज की बात करें, तो अधिकतर वैज्ञानिकों का लक्ष्य यह पता लगाना होता है कि ब्रह्मांड क्या है, उसकी शक्ति कितनी है, यह सृष्टि कैसे बनी, मानव कैसे बने आदि. इसी तरह अध्यात्म भी ब्रह्मांड की शक्ति को स्वीकारता है और मंत्र व श्‍लोकों द्वारा उसका वर्णन करता है. हम सब भी कहीं न कहीं ये बात स्वीकार करते हैं कि कोई परम शक्ति है, जो इस संसार का संचालन कर रही है. कई वैज्ञानिकों ने भी यह माना है कि उनकी खोज के पीछे आध्यात्मिक प्रेरणा या दिव्य शक्ति भी काम कर रही थी. सापेक्षता का सिद्धांत खोजने के बाद अल्बर्ट आईंस्टीन ने कहा था कि उनकी वैज्ञानिक खोजों के पीछे सबसे बड़ी प्रेरक शक्ति ब्रह्मांड का धार्मिक अनुभव है. यानी वैज्ञानिक खोजों में भी अध्यात्म छुपा है और ये बात वैज्ञानिक भी स्वीकारते हैं.

ॐ का धार्मिक और वैज्ञानिक महत्व

यदि हम बीज मंत्र ॐ की बात करें, तो ॐ का उच्चारण बहुत ही पवित्र और महत्वपूर्ण माना गया है. इसे ही सभी धर्मों और शास्त्रों का स्रोत माना जाता है, इसीलिए अनादिकाल से साधक ॐ के प्रति अगाध श्रद्धा रखते आए हैं. यही कारण है कि हर शुभकार्य करने से पहले ॐ का उच्चारण किया जाता है. इसी तरह ॐ मंत्र का वैज्ञानिक पहलू भी उतना महत्वपूर्ण है. वैज्ञानिकों का मानना है कि हमारे सिर की खोपड़ी में स्थित मस्तिष्क में कई अंग तथा दिमाग योगासन व व्यायाम द्वारा खिंचाव में नहीं लाए जा सकते, इसलिए ॐ का उच्चारण उपयोगी है. इससे दिमाग के दोनों अर्द्धगोल प्रभावित होते हैं, जिससे कंपन और तरंग मस्तिष्क में लाकर कैल्शियम कार्बोनेट का जमाव दूर करते हैं. इस प्रकार ॐ के उच्चारण से दिमाग़ को स्वस्थ व शांत रखा जा सकता है.

मेडिकल साइंस और अध्यात्म

मेडिकल साइंस भी ये बात मानता है कि मन का हमारे शरीर पर गहरा प्रभाव होता है. यदि मन ठीक नहीं है, तो उसका असर शरीर पर बीमारियों के रूप में होने लगता है. इसीलिए मेडिकल साइंस इलाज के लिए स़िर्फ दवाइयों को ही काफ़ी नहीं मानता, ख़ासकर तनाव संबंधी बीमारियों को दूर करने के लिए दवाइयों के साथ ही योग व मेडिटेशन की सलाह भी दी जाती है. रिसर्च द्वारा यह बात साबित हुई है कि किसी बड़ी बीमारी या ऑपरेशन के बाद जो लोग मेडिटेशन करते हैं या धार्मिक स्थलों में समय बिताते हैं, वे उन लोगों के मुकाबले जल्दी स्वस्थ होते हैं, जो ऐसा नहीं करते. यानी मेडिकल साइंस और अध्यात्म दोनों हमारे शरीर में हीलिंग का काम करते हैं.

अध्यात्म और विज्ञान से जुड़ी कुछ ज़रूरी बातें

  • अध्यात्म हमें वैज्ञानिक तरीके से सोचने की प्रेरणा देता है और विज्ञान हमें अध्यात्म के रहस्य बताता है. अध्यात्म वैदिक धर्मग्रंथों में विश्‍वास करता है और विज्ञान का आधार है सही तर्क और नई खोज. दोनों ही अपनी बात ठोस आधार पर करते हैं.
  • विज्ञान बाहरी जगत की सच्चाई की खोज का माध्यम है और अध्यात्म अंतर्मन को जानने-समझने का ज़रिया. दोनों ही मार्ग हमें ज्ञान की राह पर ले जाते हैं और हमारे जीवन को बेहतर बनाते हैं. हां, दोनों के रास्ते ज़रूर अलग हैं. विज्ञान भौतिक रास्ते से जाता है और अध्यात्म अभौतिक के रास्ते से.
  • अध्यात्म और विज्ञान दोनों सृजन के मूलमंत्र से जुड़े हैं. दोनों बाहरी जगत और अंतरात्मा को जोड़ने काम काम करते हैं.
  • अध्यात्म हमें मन से जोड़ता है और विज्ञान ये बताता है कि बाहरी जगत का हमारे मन और शरीर पर क्या प्रभाव पड़ता है.
  • अध्यात्म और विज्ञान दोनों ही सत्य की खोज करते हैं, हमें प्रकृति से जोड़ते हैं, मानवता से जोड़ते हैं और दोनों का उद्देश्य हमारे जीवन को बेहतर बनाना है.
  • अध्यात्म और विज्ञान दोनों समाज के कल्याण के लिए काम करते हैं. शरीर को स्वस्थ रखने के लिए यदि वैज्ञानिक खोजों की ज़रूरत होती है, तो मन को स्वस्थ और सुंदर बनाने के लिए अध्यात्म के नियमों का पालन ज़रूरी होता है. अध्यात्म और विज्ञान मिलकर स्वस्थ और सुंदर समाज का निर्माण करते हैं.
  • अध्यात्म और विज्ञान एक-दूसरे के पूरक तभी हो सकते हैं, जब अध्यात्म को अंधविश्‍वास से न जोड़ा जाए और विज्ञान का प्रयोग विनाश के लिए न हो. अध्यात्म और विज्ञान द्वारा जनहित में की गई हर खोज उन्हें एक-दूसरे के करीब ले आती है.

अध्यात्म – एक रहस्यमय विज्ञान

अध्यात्म अमूर्त आत्मा का विज्ञान है अतः इसका मुख्य विषय तो आत्मा एवं सुख प्राप्ति हेतु उसमें होने वाले प्रयत्न एवं क्रियाएं ही हैं। यह संसारदशा में आत्मा के साथ संयोग सम्बन्ध होने से अन्य भौतिक जड़ पदार्थों का भी यथोचित अध्ययन करता है, परन्तु अन्य भौतिक विज्ञानों की तरह जड़ पदार्थों की शक्तियों का गहन अध्ययन-विश्लेषण इसका विषय नहीं है क्योंकि इसका उद्देश्य तो आत्मा व जड़ पदार्थों के मध्य देखे व माने जाने वाले निमित्त-नैमित्तिक, कत्र्ता-कर्म एवं भोक्ता-भोग्य आदि अनेक प्रकार के सम्बन्धों की यथार्थता का ज्ञान कराकर आत्मा की अन्य पदार्थों व स्वयं की शक्तियों के सम्बन्ध में अज्ञानमूलक भ्रान्तियों का निवारण करना है ताकि आत्मा की पराधीन वृत्तियों का अभाव होकर स्वाधीन आत्मिक जीवन का प्रारम्भ हो सके। कहा भी है – ‘पराधीन सपने हु सुख नाहीं’।

अध्यात्म की प्रकृति:- प्रत्येक विषय की प्रकृति के सम्बन्ध में एक प्रश्न सदैव ही उत्पन्न होता है कि वह विज्ञान है या कला। आगे इसी सम्बन्ध में विचार किया गया है।

अध्यात्म एक विज्ञान है:- किसी भी वस्तु या वस्तुओं से सम्बन्धित सत्य, क्रमबद्ध एवं सुव्यवस्थित ज्ञान विज्ञान कहलाता है। साथ ही विज्ञान के अन्तर्गत खोजे गये नियम या सिद्धान्त सार्वभौमिक एवं सार्वकालिक होते हैं। यह भी सुविदित तथ्य है कि सभी वस्तुओं में कुछ सामान्य गुण होते हैं और कुछ विशेष गुण होते हैं। भौतिक विज्ञान की दृष्टि से पदार्थों में पाये जाने वाले द्रव्यमान, जड़त्व, गुरूत्व, घनत्व आदि सामान्य गुण हैं तथा प्रत्येक द्रव्य में उसके अपने विशेष गुण भी होते हैं जिनसे वह अन्य द्रव्यों से पृथक जानने में आता है। जैसे सोने व लोहे के, नमक व शक्कर के विशेष गुण स्पष्ट ही भिन्न भिन्न होते हैं। प्रयोगशालाओं में प्रयोग करने पर वे वैज्ञानिक सिद्धान्त तथा गुण सत्य सिद्ध होते हैं, जो वैज्ञानिक सिद्धान्तों की प्रामाणिकता का समर्थन करते हैं।

यदि अध्यात्म को भी विज्ञान की कसौटी पर कसा जाय तो अध्यात्म भी एक विज्ञान है ऐसा सिद्ध होता है क्योंकि सभी द्रव्यों में सामान्य व विशेष गुण पाये जाते हैं जैसे सभी जीवों में पाये जाने वाले दर्शन, ज्ञान व सुख आदि जीव के विशेष गुण हैं तथा अस्तित्व, वस्तुत्व, द्रव्यत्व आदि चेतन-अचेतन सभी द्रव्यों में पाये जाने से सामान्य गुण हैं। विभिन्न पदार्थों के सम्बन्ध में, अध्यात्म के सिद्धान्त यथा – स्वतन्त्र परिवर्तनशीलता, अकत्र्ता एवं अभोक्ता स्वभाव, निमित्त-नैमित्तिक सम्बन्ध, कर्म सिद्धान्त आदि अनेक सिद्धान्त सार्वकालिक व सार्वभौमिक सिद्धान्त हैं, जो लौकिक जीवन का गहन विशलेषण करने पर अथवा तो अनुभव की कसौटी पर कसने पर सत्य सिद्ध होते हैं।

जिस प्रकार आधुनिक विज्ञान तर्क, अनुमान, प्रयोग एवं अनुभव के आधार पर लक्ष्य की ओर बढ़ता है तथा उसका उद्देश्य मानव जीवन को सरल, सहज व आनन्दमय बनाना है। उसी प्रकार अध्यात्म भी तर्क, अनुमान प्रयोग व अनुभव के आधार पर अपने आत्महित रूप लक्ष्य (सच्चे सुख की प्राप्ति) की ओर बढ़ता है तथा उसका उद्देश्य भी आत्मा की पूर्ण शुद्ध निर्विकार सच्चिदानन्दमय दशा की उपलब्धि करना है।

अध्यात्म आत्मा की वर्तमान संसार अवस्था का, उसमें यथार्थ वस्तु स्वरूप के अज्ञानजनित मोह-राग-द्वेषादि विकारी भावों एवं इन्द्रिय विषयों मे इष्ट-अनिष्ट बुद्धि से प्रेरित प्रवृत्ति से उत्पन्न होने वाले दुःखों से मुक्ति का सटीक अनुसन्धान करता है तथा अध्यात्म ही यह बताता है कि इन्द्रिय ज्ञान व सुख पराधीन, क्षणिक एवं आकुलतामय होने से हेय हैं और आत्माश्रित ज्ञान व सुख स्वाधीन, स्थायी एवं निराकुलतामय होने से उपादेय है। अध्यात्म विभिन्न द्रव्यों के मध्य देखे जाने वाले परस्पर निमित्त-नैमित्तिक सम्बन्धों का सूक्ष्म विश्लेषण कर द्रव्यों के परस्पर अकर्तृत्व एवं सहज स्वतन्त्र कार्योत्पत्ति की शक्तियों का प्रतिपादन करता है। इस प्रकार

अध्यात्म द्वारा प्रतिपादित सिद्धान्त यथार्थ, तर्क-आगम व अनुभव की कसौटी पर सत्य सिद्ध होने से अध्यात्म एक यथार्थ विज्ञान है। हाँ! यह मूर्त भौतिक विज्ञान न होकर अमूर्त आत्मा का विज्ञान है क्योंकि इसमें अन्य पदार्थों का अध्ययन होते हुये भी आत्मा के हित हेतु आत्मस्वरूप के अनुसंधान की ही मुख्यता होती है।

अध्यात्म द्वारा ही आत्मा की स्वभावभूत शक्तियों, गुणधर्मों का अध्ययन कर संसार के चतुर्गति रूप दुःखों से उसकी मुक्ति का मार्ग प्रशस्त होता है। मुक्ति ही वह दशा है जहां उसकी सारी ही शक्तियां पूर्ण निर्मल, शुद्ध एवं सर्व सामथ्र्य सहित प्रगट हो जाने से आत्मा सदा के लिये आत्माश्रित अतीन्द्रिय आनन्द का रसास्वादन करता हुआ सुस्थित रहता है।

अध्यात्म विशुद्ध विज्ञान है:- विशुद्ध विज्ञान, विज्ञान का वह रूप है जिसमें उपयोगिता पर बल न देते हुये मात्र प्रकृति के रहस्यों की खोज की जाती है। विशुद्ध विज्ञान अपनी खोजों के प्राणी जीवन व पर्यावरण पर पड़ने वाले प्रभावों एवं उनके दुरूपयोग-सदुपयोग के प्रति उदासीन रहकर कार्य करता है। उसका उद्देश्य तो मात्र प्राकृतिक रहस्यों का उद्घाटन करना है चाहे वे लाभदायक हों या हानिकारक जैसे आणविक ऊर्जा, विस्फोटक पदार्थों, संचार साधनों, रसायनों आदि अनेक वस्तुओं-साधनों का आविष्कार।

इस परिप्रेक्ष्य में देखा जाये तो अध्यात्म भी एक विशुद्ध विज्ञान है क्योंकि यह भी जगत के चेतन-अचेतन पदार्थों के निरपेक्ष एवं यथार्थ स्वरूप का अनुसन्धान करता है। सिद्धान्तों के प्रतिपादन में अध्यात्म इस बात की परवाह नहीं करता कि उनको जानकर अज्ञानी सामान्यजन अप्रसन्न अथवा स्वच्छंद भी हो सकते हैं अथवा उनका विरोध भी हो सकता है। जैसे विश्व की अनादि-अनन्तता, वस्तु की अनन्त गुणमयता, चेतन-अचेतन द्रव्यों में परस्पर अकर्तृत्व एवं अभोक्तृत्व, द्रव्यों का स्वतन्त्र परिणमन स्वभाव, निमित्तों की कार्य निष्पादन में अकिंचित्करता, इन्द्रिय सुख की दुःखमयता आदि सिद्धान्त।

अध्यात्म सकारात्मक विज्ञान है:- सकारात्मक विज्ञान, विज्ञान का वह रूप है जो प्रकृति के उद्घाटित रहस्यों एवं सिद्धान्तों के मानव / प्राणी जीवन एवं पर्यावरण हितैषी होने की चिन्ता भी करता है। यह ऐसे वैज्ञानिक तथ्यों की खोज के प्रति उदासीन रहता है जिनका जीवन व पर्यावरण पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ने अथवा दुरूपयोग होने की सम्भावना हो।

इस अर्थ में यदि देखा जाये तो अध्यात्म एक सकारात्मक विज्ञान भी है, क्योंकि इसका जन्म ही आत्मा के आधार से और आत्महित के लिये ही होता है। अतः यह आत्मा के रागादि विकारों व अल्पज्ञता आदि अपूर्णताओं के कारणों का अनुसन्धान करता है तथा उन कारणों को दूर करके आत्मा की निर्विकार पूर्ण ज्ञान व सुख की दशा की प्राप्ति का मार्ग उद्घाटित करता है। अध्यात्म के सारे ही सिद्धान्त जगत के जीवों की सुख प्राप्ति हेतु शरीर, इन्द्रियों व विविध भोग-उपभोग सामग्री के प्रति पराधीनता व इनके अभाव में अनुभूत दीनता का अभाव कर उनकी स्वतन्त्रता व पूर्णता का मार्ग प्रशस्त करने वाले ही होते हैं, तो भी सामान्यजन अध्यात्म के सिद्धान्तों को जानकर स्वच्छन्द व अप्रसन्न न हों इसके लिये अध्यात्म सापेक्षिक कथन पद्धति (स्याद्वाद) का प्रयोग करता है ताकि सभी जिज्ञासु अध्यात्म के सिद्धान्तों का मर्म सही परिप्रेक्ष्य में समझकर अपनी अज्ञानमूलक कलुषित चित्तवृत्तियों से (मोह-राग-द्वेष, क्रोध, मान, माया, लोभादि कषाय रूप परिणामों-भावों से) मुक्त हो सकें और आत्महित के मार्ग को सहजता से समझ सकें।

अध्यात्म कला भी है:- विज्ञान द्वारा खोजे गये सिद्धान्तों का प्रयोग करते हुये जीवन के लिये उपयोगी वस्तुओं व विधियों का प्रतिपादन कर जीवन को सुखी बनाना यह कला है। कला द्वारा वस्तुओं व कार्य विधियों को सुन्दर-आकर्षक रूप दिया जाता है जिससे लोगों का जीवन सरल व सहज हो जाता है।

कला की कसौटी पर यदि देखें तो अध्यात्म कला भी सिद्ध होता है, क्योंकि अध्यात्म का, आध्यात्मिक सिद्धान्तों व जीवन शैली का जीवन में प्रवेश होते ही उस साधक व्यक्ति का जीवन सहज, सरल, स्वाधीन एवं सुखमय होने लगता है। अध्यात्म के सिद्धान्तों का प्रयोग करने वाला साधक आत्मा से भिन्न चेतन-अचेतन पदार्थों के स्वतन्त्रतया होने वाले संयोग व वियोग की दशाओं से अप्रभावित ही रहता है, वह वास्तव में आत्ममय जीवन जीता हुआ सहज ज्ञाता-दृष्टा मात्र रहता है वह कर्तृत्व के भय अथवा अहंकारजनित तनावों से मुक्त रहता हुआ अन्य लोगों के लिये भी सुन्दर-सहज, सरल, अहिंसक व अपरिग्रही जीवन का आदर्श प्रस्तुत करता है। वह अपनी वाणी का प्रयोग हित, मित, प्रिय वचन बोलने के लिये ही करता है। साधना के मार्ग पर वह इस प्रकार आगे बढ़ता है कि उसके निमित्त से सूक्ष्म जीव भी पीडि़त नहीं होते। वह अहिंसा, क्षमा, दया आदि की साक्षात् मूर्ति होता है। वह जीवन में पूर्वकृत कर्मों के फल में आने वाली प्रतिकूलताओं से आत्मस्वभाव के आश्रय से उत्पन्न निराकुल शान्ति व आनन्द के बल पर अप्रभावित ही रहता है, क्रोध-ईष्र्या-द्वेष, अहंकार, छलकपट जैसे अनेक दुर्गुण उसका स्पर्श भी नहीं कर पाते।

ऐसा सुन्दर स्व-पर को आत्महितप्रेरक निस्प्रह जीवन अध्यात्म को सर्वोत्तम कला की श्रेणी मंस खड़ा कर देता है। अध्यात्म अन्य सांसारिक कलाओं से विलक्षण कला है क्योंकि सांसारिक कलाएं तो इन्द्रिय विषयों की पोषक होने से जीवों को संसार में उलझने में निमित्त बनती हैं जबकि अध्यात्म की कला जीवों को संसार के दुःखों के मार्ग से हटाकर स्वाधीन निराकुल आत्मिक सुख की प्राप्ति का मार्ग प्रशस्त करती है।

उक्त विवेचन से स्पष्ट है कि अध्यात्म विज्ञान भी है और कला भी।

अध्यात्म एक रहस्य मय विज्ञान है:- वे तथ्य रहस्य कहे जाते हैं जिन का ज्ञान सामान्य व्यक्तियों को अपनी सहज सरल बुद्धि से नहीं हो पाता। किन्तु वे ही अबूझ तथ्य कुछ विशिष्ट ज्ञानियों तथा धुनी लोगों की जिज्ञासापूर्ण शोध के निमित्त बनते हैं और बाद में उन रहस्यों पर से पर्दा उठ जाता है। अनेक आधुनिक वैज्ञानिक आविष्कार किसी समय कोरी गप्प अथवा कल्पना की उड़ान प्रतीत होते थे किन्तु आज वे हमारे जीवन का अभिन्न अंग बन चुके हंै। उनकी बदौलत ही आज मानव समाज अधिक सुविधापूर्ण जीवन जीने की अपनी इच्छा को पूर्ण करने में सफल हो सका है।

इसी प्रकार प्राचीन काल से ही अध्यात्म विज्ञान या आत्म-विद्या भी मनीषियों की शोध-खोज का केन्द्र बिन्दु रही है जबकि सामान्यजन तो आत्मा के अस्तित्व को स्वीकार करने से भी इन्कार करते रहे हैं। क्योंकि जगत के सामान्य जीवों का शरीर, इन्द्रियों व उनके विषयभूत जड़ पदार्थों से तो सहज परिचय रहा है परन्तु उस शरीर में रहने वाले ज्ञान व आनन्द स्वभावी चैतन्य आत्मा से वे सदा ही अपरिचित रहे हैं।

आत्मा इन्द्रिय ज्ञान से जानने में न आने वाला एक अमूर्त तत्त्व है जो संसार दशा में इन्द्रियों के निमित्त से जानता देखता है और सुखी-दुखी होता हैं परन्तु इन्द्रियां व भौतिक पदार्थ जिसे छू भी नहीं पाते।

संसार दशा में पूर्व सत्कर्मों के फल में लोगों को न्यूनाधिक अनुकूलताएं उपलब्ध होती ही है और संस्कारवश व्यक्ति उनमें ही संतुष्ट रहता हुआ काल व्यतीत करता रहता है और समय आने पर अग्रिम यात्रा पर चला जाता है। इन प्राप्त अनुकूलताओं में सुख बुद्धि से प्रेरित इष्ट का संग्रह व अनिष्ट का परिहार करने के निरर्थक प्रयत्नों में कदाचित् प्राप्त सफलता-असफलता को ही जीवन का सत्य मानते हुये तथा संस्कारवश मान्य आराध्य देवों की कृपा एवं कोप से प्रेरित भक्ति को ही एक मात्र उपादेय मानते हुए यथार्थ वस्तु स्वरूप की ओर सहज ही दृष्टिपात भी नहीं करता।

इस जीवन में विभिन्न पदार्थों में सहज ही होने वाली विभिन्न अवस्थाओं में कार्य-कारण सम्बन्ध देखे जाते हैं जिनसे इस संसारी जीव की कत्र्ता-कर्म एवं भोक्ता-भोग्य रूप मिथ्या भ्रान्ति पुष्ट होती रहती है और वह उन जागतिक संयोगों की व्यवस्था में ही लगा रहता है। समयानुसार अर्जित असफलताओं व प्रतिकूलताओं का वह सही विश्लेषण करने में भी असमर्थ रहता है। फलतः उसकी दृष्टि आत्मा व अन्य पदार्थों के यथार्थ स्वरूप व माने गये कत्र्ता-कर्म व भोक्ता-भोग्य सम्बन्धों की निरर्थकता की ओर जाती ही नहीं है। और यदि कोई ज्ञानी पुरूष उसकी चर्चा करता भी है तो संसार, शरीर व भोगों में आसक्ति के कारण आत्मा-परमात्मा की चर्चा-वार्ता के प्रति उसका उपेक्षा भाव ही रहता है।

इस प्रकार उपरोक्त व अन्य अनेक कारणों से आत्म विद्या या अध्यात्म-विज्ञान सामान्यजनों के लिये रहस्यमय ही बना रहता है। परन्तु यह भी एक तथ्य है कि जिन महा मनीषी साधकों ने अपने आत्मा के रहस्यों पर से पर्दा उठाकर उसका साक्षात्कार किया है वे अपनी आत्मा में ही स्वभावरूप से विद्यमान अतीन्द्रिय ज्ञान व आनन्द का उपभोग करते हुये सदा-सर्वदा सुखी रहते हैं फिर उन्हें भौतिक इन्द्रिय विषयों के रूप में जड़ पदार्थों की आवश्यकता भी प्रतीत नहीं होती।

यहां यह बात स्पष्टतः ध्यान में रखनी चाहिये कि भौतिक विज्ञान के रहस्योद्धाटन जीवों की भौतिक लालसाओं को बढ़ा कर वास्तव में तो उनके दुःखों-आकुलताओं में वृद्धि ही करते हैं जबकि आत्मा के रहस्यों का उद्घाटन व्यक्तियों के जीवन को निराकुल शान्ति व आनन्द से भर देता है जिससे जगत की अनुकूल व प्रतिकूल स्थितियां उन्हें प्रभावित करने में भी असमर्थ रहती हैं।

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भारतीय संस्कृति में श्राद्ध संस्कार, तर्पण का महत्व

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भारतीय सनातन परम्परा में श्राद्ध और तर्पण कर्म का विशेष महत्व है। इसे धर्माचरण के अंग के रूप में परिगणित किया गया है। वैदिककाल, सूत्रकाल अथवा पुराणकाल से लेकर मध्यकाल के धर्मशास्त्रकारों तक सभी लोगों ने श्राद्ध और तर्पण की महत्व की व्याख्या की है।

‘श्राद्ध’ क्या हैं- वेदों में ‘उपास्य’ (जिसकी उपासना या पूजा की जाती है) देवता बताए गए हैं और यज्ञ में भी ‘उपास्य’ देवता ही होते हैं। यज्ञ का मुख्य उद्देश्य देवताओं का तृप्त करना था। इसी प्रकार पुराणकाल में पितरों की तृप्ति व संतुष्टि के लिए श्राद्ध व तर्पण का विधान बताया गया है। जिस प्रकार यज्ञ से देवतृप्त होते हैं, उसी प्रकार श्राद्ध व तर्पण से पितरों की संतुष्टि होती है। वेद और उपनिषद में यज्ञ से देवों की तृप्ति के रहस्य का वर्णन है, वहाँ दूसरी और पुराण व स्मृतियों में श्राद्ध व तर्पण से पितरों की तृप्ति के रहस्य का वर्णन है।

वैदिक ग्रन्थों में ‘श्राद्ध’ शब्द का उल्लेख नहीं है किन्तु एक शब्द ‘पितृयज्ञ’  का उल्लेख है जिसे पितरों से जोड़ा गया है- किन्तु यह ज्ञातव्य है कि‘श्राद्ध’ शब्द किसी भी प्राचीन वैदिक ग्रन्थ में नहीं पाया जाता, यद्यपि पिण्ड-पितृयज्ञ (जो आहिताग्नि द्वारा प्रत्येक मास की अमावस्या को सम्पादित होता था)महा-पितृयज्ञ (चातुर्मास्य या सकमेघ में सम्पादित) एवं अष्ट का आरम्भिक वैदिक साहित्य में पाये जाते हैं।

वेदानुसार यज्ञ 5 प्रकार के होते हैं- 1. ब्रह्म यज्ञ, 2. देवयज्ञ, 3. पितृयज्ञ, 4. वैश्वदेव यज्ञ, 5. अतिथि यज्ञ। उक्त 5 यज्ञों को पुराणों और अन्य ग्रंथों में विस्तार दिया गया है। उक्त 5 यज्ञों में से ही एक यज्ञ है पितृयज्ञ। इसे पुराण में श्राद्ध कर्म की संज्ञा दी गई है।

  • पितृयज्ञ” शब्द ऋग्वेद में आया है मनुस्मृति में वर्णन है कि पितृयज्ञ तीन प्रकार से सम्पादित होता है। तर्पण द्वारा, बलिहरण द्वारा, जिसमें बलि का शेषांश पितरों को दिया जाता है एवं प्रतिदिन श्राद्ध द्वारा- जिसमें कम से कम एक ब्राह्मण को खिलाया जाता था।
  • गृहस्थाश्रमी के लिए विहित पंचमहायज्ञों का अन्तिम अंग पितृयज्ञ है-पितृयज्ञ में श्राद्ध और तर्पण को महत्वपूर्ण स्थान दिया गया है।इसके द्वारा पितरों को सन्तुष्ट किया जाता है। जल के अन्दर सशिर स्नान करने के उपरान्त जल में खड़े होकर तर्पण किया जाता है। श्राद्ध पितृयज्ञ तर्पण के बाद दूसरा महत्वपूर्ण अंग है। धर्मसूत्रकारों ने तर्पण को स्नान तथा ब्रह्मयज्ञ का अग माना है। देवताओं, पितरों तथा ऋषियों को जल देना ही तर्पण कहलाता है। सभी धर्माचार्यों ने श्राद्ध और तर्पण का विस्तृत विवेचन किया है।

अथर्ववेद में उल्लेख है-

अहमेवास्म्यमावास्या… समगच्छन्त सर्वे।। -अथर्व 7/79/2

अर्थात- सूर्य-चन्द्र दोनों अमा साथ-साथ बसते हों, वह तिथि अमावस्या मैं हूं। मुझमें सब साध्यगण, पितृविशेष और इन्द्र प्रभृति देवता इकट्ठे होते हैं।

परा यात पितर… अधा मासि पुनरा यात नो गृहान्…।। -अथर्व18/4/63

अर्थात- हे सोमपानकर्ता पितृगण! आप अपने पितृलोक के गंभीर असाध्य पितृयाण मार्गों से अपने लोक को जाएं। मास की पूर्णता पर अमावस्या के दिन हविष्य का सेवन करने के लिए हमारे घरों में आप पुन: आएं। हे पितृगण! आप ही हमें उत्तम प्रजा और श्रेष्ठ संतति प्रदान करने में सक्षम हैं।

गंगा माहात्म्य का वर्णन करते हुए विष्णु पुराण में कहा है किजो मनुष्य गंगा में स्नान करके पितृगण का आदर पूर्वक अर्चन करते हैं, वह सभी पापों से मुक्त हो जाते हैं। पितृगण भी पुण्यतीर्थों को जलाञ्जलि की कामना करते रहते हैं। गंगा प्रवाह में पुत्रों द्वारा किया गया एक दिन का तर्पण, उन्हें सौ वर्ष तक दुर्लभ तृप्ति प्रदान करता है

  • पितरों के लिये अंजलि में जल लेकर उसे भूस्खधा ओ सुवस्सवधा ओ सुवस्स्वधा ओ ओसुवस्स्वधा भूर्भुवस्सुवर्म हर्नम!’ आदिमन्त्र के साथ तर्पण करना चाहिये। तर्पण करने के उपरान्त सूर्यदेव की स्तुति करे।

 ‘हिन्दू कोश’ में श्रद्धा पूर्वक पितरों की तृप्ति के लिए किये गये धार्मिक कृत्य को श्राद्ध कहते हैं। इसे ही ‘पितृयज्ञ’ भी कहते हैं ‘स्वामी दयानन्द’ ने पितृयज्ञ के तर्पण एवं श्राद्ध नामक दो भेद हैं जबकि कुछ विद्वानों के अनुसार श्राद्ध और तर्पण पृथक्-पृथक्कर्म नहीं है अपितु पितृयज्ञ के ही दो रूप है।

‘कठोपनिषद्’ में श्राद्ध शब्द आया है, जो भी कोई इस अत्यन्त विशिष्ट सिद्धान्त को ब्राह्मणों की सभा में या श्राद्ध के समय उद्घोषित करता है वह अमरता को प्राप्त करता है। ‘श्राद्ध’ शब्द का आरम्भिक प्रयोग सूत्र साहित्य में प्राप्त होता हैं।

श्राद्ध शब्द की उत्पत्ति ‘श्रद्धा’ शब्द में ‘अण्’ प्रत्यय के संयोग से होती है। पाणिनि के मतानुसार-

श्रद्धाप्रयोजनमस्य इति श्राद्धम्‘ अथवा ‘श्रद्धया यत्क्रियते तच्छ्राद्धम्

अर्थात्- श्रद्धा ही श्राद्ध का प्रयोजन है। प्रायः धार्मिक कृत्यों के मूल में अटूट विश्वास एवं दृढ़ संकल्पितभाव का नाम ही श्रद्धा है।

श्राद्ध शब्द के मूल में ‘श्रद्धा’ शब्द निहित है क्योंकि यह श्रद्धा का विषय है… श्रद्धा के यथार्थ स्वरूप का नाम ही विश्वास है। विश्वास के अर्थ में श्रद्धा का ऋग्वेद में अनेक बार उल्लेख हुआ है। श्रद्धाभक्ति पूर्वक पितरों को लक्षित करके जो कुछ ब्राह्मणों को प्रदान किया जाता है, वह श्राद्ध कहलाता है।

याज्ञवल्क्य स्मृति में उल्लिखित है-

‘श्राद्धं नामादनीयस्य तत्स्थानीयस्य वा। द्रव्यस्य प्रेतोद्देशेन श्रद्धया त्यागः।।

अर्थात्- पितरों को उद्देश्य करके उनके निमित्त अथवा उनके प्रतिनिधियों(ब्राह्मणों) को श्रद्धापूर्वक किया गया द्रव्य का त्याग ही, ‘श्राद्ध’ है।

श्राद्ध के सन्दर्भ में पारस्कर गृह्यसूत्र में उल्लेख किया गया है –

‘श्रद्धया दीयते यस्मात् तेन श्राद्धं निगद्यते’

अर्थात् – जिसमें श्रद्धापूर्वक दिया जाता है, उसे श्राद्ध करते हैं।

ऋग्वेद के कौषीतकि गृह्यसूत्र में उल्लेखित है-

दिवताः पितरो नित्यं गच्छन्ति गृहमेधिनम् ।।

भागार्थमतिथिश्चापि तेभ्यो निर्वप्तुमर्हति ।।

अर्थात्- देवता, पितर व अतिथि नित्यप्रति अपने-अपने भाग की अपेक्षा से गृहस्थके यहाँ आते हैं तथा वे उन्हें अपनी सामर्थ्यानुसार तृप्त करते हैं। शांखायन ने भी इस उक्तिका यथावत् समर्थन किया है।

‘ब्रह्मपुराण’ में श्राद्ध की परिभाषा देते हुए कहा गया है किजो कुछ उचित काल, पात्र एवं स्थान के अनुसार उचित(शास्त्रानुमोदित) विधि द्वारा पितरों को लक्ष्य करके श्रद्धापूर्वक ब्राह्मणोंको दिया जाता है वह ‘ श्राद्ध’ कहलाता है।

याज्ञवल्क्यस्मृतिमें मिताक्षरा’ ने श्राद्ध की परिभाषा देते हुएकहा है कि पितरों का उद्देश्य करके (उनके कल्याण के लिए) श्रद्धापूर्वक किसी वस्तु का या उनसे सम्बन्धित किसी द्रव्य का त्याग* श्राद्ध’ है।

‘स्कन्दपुराण के अनुसार श्राद्ध’ नाम इसलिए पड़ा है कि उस कृत्य में श्रद्धा मूल में निहित होती है। इसका तात्पर्य यह है किइसमें न केवल विश्वास है, अपितु एक अटल धारणा है कि व्यक्तिको यह करना ही है।

वैदिकोत्तरकालीन साहित्य में पाणिनिने ‘श्राद्धिन्’ और‘श्राद्धिक’ को -वह जिसने श्राद्ध-भोजन कर लिया हो’ के अर्थ में निश्चित किया है। ‘श्राद्ध’ शब्द ‘श्रद्धा’ से निकाला जा सकता है।

‘मार्कण्डेयपुराण’ में ‘श्राद्ध’ का सम्बन्ध श्रद्धा से द्योतित किया गया है और कहा गया है कि श्राद्ध में जो कुछ भी दिया जाता है।वह पितरों द्वारा प्रयुक्त होने वाले उस भोजन में परिवर्तित हो जाताहै जिसे वे कर्म एवं पुनर्जन्म के सिद्धान्त के अनुसार नए शरीर के रूप में पाते हैं।

देवों और पितरों की दिशा- पितरों एवं देवी-देवताओं के निमित्त सम्पन्न किए जाने वाले कार्यों के समय दिशाओं का विचार किया जाता है। इस सन्दर्भ में उल्लेख है कि प्राचीन काल में देवों तथा मनुष्यों ने दिशाओं का विभाजन कर लिया था जिसमें देवों ने पूर्व, पितरों ने दक्षिण, मनुष्यों ने पश्चिम एवं रुद्रों ने उत्तर दिशा को स्वीकार किया था।

सामान्यत: यह आज भी देखा जाता है कि देव-पूजा पूर्वाभिमुख तथा पितर-पूजा दक्षिणाभिमुख की जाती है। यह कर्मकाण्ड का नियम है कि देवों के निमित्त यज्ञ मध्याह्न से पहले प्रारम्भ किए जाते हैं तथा पितृयज्ञ अपराह्न में किए जाते हैं।

श्राद्ध (पितृ-पूजा) एवं देव पूजा में यज्ञोपवीत (जनेऊ) का विशेष महत्त्व है- यह जानना आवश्यक है कि यज्ञोपवीत देव यज्ञ में बायें कन्धे के ऊपर एवं दाहिने हाथ के नीचे से रहता है। तथा पितृ-कृत्य के समय इसमें विपरीत अर्थात् दायें कन्धे के ऊपर तथा बायें हाथ के नीचे रहता है।

श्राद्ध के 12 प्रकार- प्रथम वर्गीकरण के अनुसार श्राद्धों को तीन भागों में बांटा गया है। 1. नित्य 2. नैमित्तिक एवं काम्य।’  हालांकि भविष्यपुराण के अन्तर्गत 12 प्रकार के श्राद्धों का वर्णन है-

  1. नित्य- प्रतिदिन किए जाने वाले श्राद्ध को नित्य श्राद्ध कहते हैं।
  2. नैमित्तिक- वार्षिक तिथि पर किए जाने वाले श्राद्ध को नैमित्तिक श्राद्ध कहते हैं।
  3. काम्य- किसी कामना के लिए किए जाने वाले श्राद्ध को काम्य श्राद्ध कहते हैं।
  4. नान्दी- किसी मांगलिक अवसर पर किए जाने वाले श्राद्ध को नान्दी श्राद्ध कहते हैं।
  5. पार्वण – पितृपक्ष, अमावस्या एवं तिथि आदि पर किए जाने वाले श्राद्ध को पार्वण श्राद्ध कहते हैं।
  6. सपिण्डन- त्रिवार्षिक श्राद्ध जिसमें प्रेतपिण्ड का पितृपिण्ड में सम्मिलन कराया जाता है
  7. गोष्ठी- पारिवारिक या स्वजातीय समूह में जो श्राद्ध किया जाता है उसे गोष्ठी श्राद्ध कहते हैं।
  8. शुद्धयर्थ- शुद्धि हेतु जो श्राद्ध किया जाता है उसे शुद्धयर्थ श्राद्ध कहते हैं। इसमें ब्राह्मण-भोज आवश्यक होता है।
  9. कर्मांग- षोडष संस्कारों के निमित्त जो श्राद्ध किया जाता है उसे कर्मांग श्राद्ध कहते हैं।
  10. दैविक – देवताओं के निमित्त जो श्राद्ध किया जाता है उसे दैविक श्राद्ध कहते हैं।
  11. यात्रार्थ- तीर्थ स्थानों में जो श्राद्ध किया जाता है उसे यात्रार्थ श्राद्ध कहते हैं।
  12. पुष्ट्यर्थ- स्वयं एवं पारिवारिक सुख-समृद्धि व उन्नति के लिए जो श्राद्ध किया जाता है।

किसको श्राद्ध करने का अधिकार-  ‘गौतमधर्मसूत्र’ का कथन है कि “पुत्रों के अभाव में सपिण्डलोग (भाई-भतीजे), माता के सपिण्ड लोग (मामा या ममेरा भाई) एवं शिष्य लोग श्राद्ध कर्म कर सकते हैं। अगर यह नहीं हैं तो कुल-पुरोहित एवं आचार्य (वेद-शिक्षक) श्राद्ध कर्म कर सकते हैं।

  • पिता के लिए पिण्डदान एवं जल-तर्पण पुत्र द्वारा होना चाहिए; पुत्राभाव में (अनुपस्थिति या मृत्यु पर) यह पत्नी का अधिकार है और पत्नी के अभाव में सगा भाई भी श्राद्ध कर्म कर सकता है।  ‘विष्णुपुराण’ में कहा गया है कि (मृत के) पुत्र, पौत्र, भाई की संतति पिण्डदान करने के अधिकारी होते हैं।
  • मार्कण्डेयपुराण’ में कहा गया है कि यदि व्यक्ति अपुत्र ही मर जाए तो पुत्री का पुत्र भी पिण्ड दान कर सकता है। नाना के लिए पुत्रि का पुत्र पिण्डदान कर सकता है। इन लोगों के अभाव में पत्नियाँ बिना मन्त्रों के श्राद्ध-कर्म कर सकती हैं, पत्नी के अभाव में कुल के किसी व्यक्ति द्वारा श्राद्ध कर्म किया जा सकता है।
  • पिता अपने पुत्र के श्राद्ध कर्म योग्य नहीं होता है और न बड़ा भाई छोटे भाई के श्राद्ध कर्म योग्य माना जाता है, ये लोग स्नेहवश वैसा कर सकते हैं किन्तु सपिण्डीकरण नहीं कर सकते।
  • माता-पिता कुमारी कन्याओं को पिण्ड दान कर सकते हैं, यहाँ तक कि वे किसी योग्य व्यक्ति के अभाव में विवाहित कन्याओं को भी पिण्ड दानकर सकते हैं। पुत्री का पुत्र एवं नाना एक-दूसरे को पिण्ड दानकर सकते हैं; इसी प्रकार दामाद और ससुर भी कर सकते हैं, पुत्रवधू सास को पिण्ड दानकर सकती है।

श्राद्ध कराने योग्य ब्राह्मण

  • श्राद्ध कर्ता चाहे जो भी हो लेकिन श्राद्ध योग्य ब्राह्मण श्राद्ध कर्म में विशेष महत्त्व रखते है। इस विषय में बहुत से ग्रन्थों में योग्य ब्राह्मणों का उल्लेख किया गया है-
  • ‘गौतमधर्मसूत्र’ के अनुसार- आमंत्रित ब्राह्मणों को वेदज्ञ, अत्यन्त संयमी, क्रोध एंव वासनाओं से मुक्त तथा मन एवं इन्द्रियों पर संयम करने वाले एवं शुद्धाचरण वाले, पवित्र होना चाहिए।
  • ‘शंख-लिखित’के अनुसार जो वेद अथवा वेदांगो का ज्ञाता हो, जो पंचाग्नियां रखता है; जो वेदस्वाध्यायी हो, जो सांख्य, योग, उपनिषदों एवं धर्मशास्त्र को जानता हो।
  • ‘मनुस्मृति’ में भी कहा गया है कि श्राद्ध के समय ऐसे ब्राह्मण को आमंत्रित करें जो न मित्र हो और न शत्रु, जो व्यक्ति केवल मित्र बनाने के उद्देश्य लिए श्राद्ध करता है और देवार्पण करता है।

आमन्त्रित ब्राह्मणों की संख्या- श्राद्ध में आमन्त्रित ब्राह्मणों की संख्या के विषय में विद्वानों में पर्याप्त मतभेद पाया जाता है। ‘आश्वलायनगृह्यसूत्र’ के अनुसार श्राद्ध में आमन्त्रित ब्राह्मणों की संख्या जितनी अधिक उतने ही अधिक फलकी प्राप्ति होती है। ‘शंखायनगृह्यसूत्र’ के अनुसार श्राद्ध में आमन्त्रित ब्राह्मणों की संख्या कम-से-कम तीन होनी चाहिए। ऋषि ‘गौतम’ के अनुसार भी ब्राह्मणों की संख्या कम-से-कम होनी चाहिए।

श्राद्ध में ब्राह्मण भोजन के बर्तन कैसे हो- सोने, चांदी, कांसे और तांबे के बर्तन भोजन के लिए सर्वोत्तम हैं। पितृ, चांदी के बर्तन से किए तर्पण से तृप्त होते हैं।

  • श्राद्ध और तर्पण में लोहे और स्टील के बर्तन का प्रयोग न करें।
  • केले के पत्ते पर श्राद्ध का भोजन नहीं कराना चाहिए।
  • शास्त्रों में लिखा है कि इससे पितरों को तृप्ति नहीं मिलती।
  • श्राद्ध तिथि पर भोजन के लिए, ब्राह्मणों को पहले से आमंत्रित करें।
  • दक्षिण दिशा में बैंठाएं, क्योंकि दक्षिण में पितरों का वास होता है।
  • हाथ में जल, अक्षत, फूल और तिल लेकर संकल्प कराएं।
  • कुत्ते, गाय, कौए, चींटी और देवता को भोजन कराने के बाद, ब्राह्मणों को भोजन कराएं।
  • भोजन दोनों हाथों से परोसें, एक हाथ से परोसा भोजन, राक्षस छीन लेते हैं।
  • बिना ब्राह्मण भोज के, पितृ भोजन नहीं करते और शाप देकर लौट जाते हैं।
  • ब्राह्मणों को तिलक लगाकर कपड़े, अनाज और दक्षिणा देकर आशीर्वाद लें।
  • भोजन कराने के बाद, ब्राह्मणों को द्वार तक छोड़ें।
  • ब्राह्मणों के साथ पितरों की भी विदाई होती हैं।
  • ब्राह्मण भोजन के बाद, स्वयं और रिश्तेदारों को भोजन कराएं।
  • श्राद्ध में कोई भिक्षा मांगे, तो आदर से उसे भोजन कराएं।
  • कुत्ते और कौए का भोजन, कुत्ते और कौए को ही खिलाएं, गाय को नहीं।

श्राद्ध के भोजन में क्या परोसें क्या नहीं

क्या न पकाएं

  • खीर पूरी अनिवार्य है।
  • जौ, मटर और सरसों का उपयोग श्रेष्ठ है।
  • ज़्य़ादा पकवान पितरों की पसंद के होने चाहिए।
  • गंगाजल, दूध, शहद, कुश और तिल सबसे ज्यादा ज़रूरी है।
  • तिल ज़्यादा होने से उसका फल अक्षय होता है।
  • तिल पिशाचों से श्राद्ध की रक्षा करते हैं।

क्या न पकाएं

  • चना, मसूर, उड़द, कुलथी, सत्तू, मूली, काला जीरा।
  • कचनार, खीरा, काला उड़द, काला नमक, लौकी,प्याज और लहसन।
  • बड़ी सरसों, काले सरसों की पत्ती और बासी, खराब अन्न, फल और मेवे।

श्राद्ध और तर्पण कर्म के प्रचलन की प्राचीनता: आरम्भिक काल में पूर्वजों को प्रसन्न करने के लिए जो आहुतियाँ दी जाती थी अथवा उत्सव किए किए जाते थे वे कालान्तर में श्रद्धा एवं स्मरण चिह्नों के रूप में प्रचलित हो गए।

प्राक्वैदिक इतिहास में पितरों के विषय में कतिपय विश्वास प्रकट किए गए हैं। ‘बौधायनधर्मसूत्र’ ने एक ब्राह्मण ग्रन्थ से निष्कर्ष निकाला है कि पितर लोग पक्षियों के रूप में विचरण करते हैं।

‘वायुपुराण’ में ऐसा कहा गया है कि श्राद्ध के समय पितर लोग आमन्त्रित ब्राह्मणों में वायु रूप से प्रविष्ट हो जाते हैं और जब योग्य ब्राह्मण वस्त्रों, अन्नों, भक्ष्यों, पेयों, गायों, अश्वों और ग्रामों आदि से सम्पूजित हो जाते हैं तो वे प्रसन्न होते हैं।

मनु का भी कथन है। कि पितर लोग आमन्त्रित ब्राह्मणों में प्रवेश करते हैं।

‘आपस्तम्बधर्मसूत्र’ में कहा गया है कि पुराने काल में मनुष्य एवं देव इसी लोक में रहते थे। देव यज्ञों के कारण स्वर्ग चले गए, किन्तु मनुष्य यहाँ रह गए। जो मनुष्य देवों के समान यज्ञ करते हैं वे परलोक (स्वर्ग) में देवों एवं ब्रह्म के साथ निवास करते हैं। तब मनु ने मनुष्यों को पीछे रहते देखकर उस कृत्य का आरम्भ किया जिसे श्राद्ध’ की संज्ञा मिली है जो मानव जाति को श्रेय (मुक्ति या आनन्द) की ओर ले जाता है।

इसी प्रकार ‘महाभारत’ एवं ‘विष्णुधर्मोत्तरपुराण’ में आया है कि श्राद्ध-प्रथा का संस्थापन विष्णु के वराहावतार के समय हुआ और विष्णु को पिता, पितामह एवं प्रपितामह को दिए गए तीनों पिण्डों में अवस्थित मानना चाहिए।

आपस्तम्बधर्मसूत्र’ के वचन से ऐसा अनुमान लगाया जा सकता है। कि ईसा की कई शताब्दियों पूर्व श्राद्ध प्रथा स्थापित हो चुकी थी और यह मानवजाति के पिता मनु के समान ही प्राचीन है, किन्तु यह ज्ञातव्य है कि ‘श्राद्ध’ शब्द किसी भी प्राचीन वैदिक ग्रन्थ में नहीं पाया जाता यद्यपि पिण्डपितृयज्ञ (जो आहिताग्नि द्वारा प्रत्येक मास की अमावस्या को सम्पादित होता था), महापितृयज्ञ (चातुर्मास्य या साकमेध में सम्पादित) एवं अष्टका आरम्भिक वैदिक साहित्य में ज्ञात थे।

श्राद्ध-तर्पण से जुड़ी अलग-अलग कथाएं

सर्वप्रथम राजा भगीरथ ने अपने पूर्वजों का गंगाजल-अक्षत-तिल से श्राद्ध-तर्पण किया था- राजा भगीरथ सूर्यवंशी थे, जिन्होंने तपकर मां गंगा को धरती पर लाकर कपिल मुनि के शाप से अपने 60 हजार पूर्वजों को मोक्ष प्रदान करवाया था। राजा भगीरथ ने अपने पूर्वजों का गंगाजल, अक्षत, तिल से श्राद्ध तर्पण किया था। तब से माघ मकर संक्रांति में स्नान और तिल का महत्व आजतक चला आ रहा है। कपिल मुनि के आश्रम पर जिस दिन मां गंगा आई थीं, वह मकर संक्रांति का ही दिन था। मां गंगा के जल से राजा भगीरथ के पूर्वजों को स्वर्ग की प्राप्ति हुई थी। तब कपिल मुनि ने वरदान देते हुए कहा था, ‘मातु गंगे त्रिकाल तक जन-जन का पापहरण करेंगी और भक्तजनों की सात पीढिय़ों को मुक्ति एवं मोक्ष प्रदान करेंगी।

सबसे पहले भगवान श्रीराम ने किया था पुनपुन नदी के तट पर पूर्वजों का पिंडदान- पुनपुन का घाट प्रथम पिंडदान स्थल है, जहां देश-विदेश के श्रद्धालु अपने पितरों के लिए पूजा एवं तर्पण करते हैं। पौराणिक मान्यताओं के अनुसार, पुनपुन नदी (पटना से करीब 13 किलोमीटर दूर पुनपुन) को पितृ तर्पण की प्रथम वेदी के रूप में स्वीकार किया गया है। ऐसा कहा जाता है कि मर्यादा पुरुषोत्तम भगवान श्रीराम ने सबसे पहले पुनपुन नदी के तट पर ही अपने पूर्वजों का पिंडदान किया था। उसके बाद ही उन्होंने गया में फल्गु नदी के तट पर पिंडदान किया था। परंपरा के अनुसार, पितृ पक्ष के दौरान पितरों के मोक्ष दिलाने के लिए गया में पिंडदान से पहले पितृ-तर्पण की प्रथम वेदी के रूप में मशहूर पुनपुन नदी में प्रथम पिंडदान का विधान है। पुराणों में वर्णित ‘आदि गंगा’ पुन: पुन: कहकर पुनपुन को आदि गंगा के रूप में महिमामंडित किया गया है और इसकी महत्ता सर्वविदित है।

गया में श्राद्ध का महत्व

  • दो विशेष स्थानों के कारण गया का महत्व काफी बढ़ जाता है। विष्णुपद मन्दिर और फल्गु नदी तट गया को विशेष बनाते हैं। पौराणिक कथाओं के अनुसार, भगवान विष्णु के चरण कमल विष्णुपद मंदिर में विराजमान हैं, जिसकी पूजा के लिए लोग दुनिया के कोने कोने से आते हैं।
  • दूसरा सबसे महत्वपूर्ण स्थान है फल्गु नदी का तट। पौराणिक मान्यताओं के अनुसार, यहां पर श्राद्ध कर्म करने से पितरों को बैकुंठ प्राप्त होता है। इस कारण से हिन्दू अपने पितरों को पिंडदान और तर्पण के लिए एक बार गया जरूर आते हैं। गया में पिंडदान करने वाला व्यक्ति भी स्वयं परमगति को प्राप्त करता है।
  • कहा जाता है कि भगवान राम ने अपने पिता राजा दशरथ के आत्मा की शांति के लिए सीता जी के साथ गया में पिंडदान किया था। तब से ऐसी मान्यता है कि जो भी गया में अपने पितरों को पिंडदान करेगा, उसके पितर तृप्त हो जाएंगे। वह व्यक्ति पितृ ऋण से मुक्त हो जाएगा।

महाभारत के अनुशासन पर्व के अनुसार ऐसे शुरू हुआ था श्राद्ध पूजन- महाभारत के ‘अनुशासन पर्व’ में भी भीष्म पितामह ने युधिष्ठिर को श्राद्ध के संबंध में कई ऐसी बातें बताई हैं, जो वर्तमान समय में बहुत कम लोग जानते हैं. सबसे पहले श्राद्ध का उपदेश महर्षि निमि को महातपस्वी अत्रि मुनि ने दिया था. इस प्रकार पहले निमि ने श्राद्ध का आरंभ किया, उसके बाद अन्य महर्षि भी श्राद्ध करने लगे. धीरे-धीरे चारों वर्णों के लोग श्राद्ध में पितरों को अन्न देने लगे. लगातार श्राद्ध का भोजन करते-करते देवता और पितर पूर्ण तृप्त हो गए. श्राद्ध का भोजन लगातार करने से पितरों को अजीर्ण (भोजन न पचना) रोग हो गया और इससे उन्हें कष्ट होने लगा. तब वे ब्रह्माजी के पास गए और उनसे कहा कि ‘श्राद्ध का अन्न खाते-खाते हमें अजीर्ण रोग हो गया है. इससे हमें कष्ट हो रहा है. आप हमारा कल्याण कीजिए.’ देवताओं की बात सुनकर ब्रह्माजी बोले- ‘मेरे निकट ये अग्निदेव बैठे हैं. ये ही आपका कल्याण करेंगे.’ अग्निदेव बोले- ‘देवताओं और पितरों अब से श्राद्ध में हम लोग साथ ही भोजन किया करेंगे. मेरे साथ रहने से आप लोगों का अजीर्ण दूर हो जाएगा.’ यह सुनकर देवता व पितर प्रसन्न हुए. इसलिए श्राद्ध में सबसे पहले अग्नि का भाग दिया जाता है. महाभारत के अनुसार श्राद्ध में जो तीन पिंडों का विधान है उनमें से पहला जल में डाल देना चाहिए. दूसरा पिंड श्राद्धकर्ता की पत्नी को खिला देना चाहिए और तीसरे पिंड की अग्नि में छोड़ देना चाहिए. यही श्राद्ध का विधान है. जो इसका पालन करता है उसके पितर सदा प्रसन्नचित्त और संतुष्ट रहते हैं और उसका दिया हुआ दान अक्षय होता है.

कर्ण की वजह से मनता है पितृपक्ष, कर्ण की पौराणिक कथा- महाभारत के दौरान, कर्ण की मृत्यु हो जाने के बाद जब उनकी आत्मा स्वर्ग में पहुंची तो उन्हें बहुत सारा सोना और गहने दिए गए। कर्ण की आत्मा को कुछ समझ नहीं आया, वह तो आहार तलाश रहे थे। उन्होंने देवता इंद्र से पूछा किउन्हें भोजन की जगह सोना क्यों दिया गया। तब देवता इंद्र ने कर्ण को बताया कि उसने अपने जीवित रहते हुए पूरा जीवन सोना दान किया लेकिन अपने पूर्वजों को कभी भी खाना दान नहीं किया। तब कर्ण ने इंद्र से कहा उन्हें यह ज्ञात नहीं था कि उनके पूर्वज कौन थे और इसी वजह से वह कभी उन्हें कुछ दान नहीं कर सकें। इस सबके बाद कर्ण को उनकी गलती सुधारने का मौका दिया गया और 16 दिन के लिए पृथ्वी पर वापस भेजा गया, जहां उन्होंने अपने पूर्वजों को याद करते हुए उनका श्राद्ध कर उन्हें आहार दान किया। तर्पण किया, इन्हीं 16 दिन की अवधि को पितृ पक्ष कहा गया। ब्राह्मण साक्षात् अग्नि स्वरूप हैं क्योंकि जिस प्रकार अग्नि में सम्पादित आज्य, चरु एवं अन्य विविध होम वह (अग्नि) आत्मसातकरके अभीष्ट देवी-देवताओं को तृप्त करता है। ठीक उसी प्रकार पितर श्राद्ध में आमन्त्रित

तर्पण की पद्धति

  • बोधायन ने कहा है, ‘तर्पण नदी पर करें ।’ यह तर्पण नदी में नाभि तक पानी में खडे रहकर अथवा नदी के किनारे बैठकर करें ।
  • देवताओं तथा ऋषियों के लिए पूर्व की ओर मुख कर तथा पितरों के लिए दक्षिण की ओर मुख कर तर्पण करना चाहिए ।
  • धर्मशास्त्र बताता है, ‘देवताओं को तर्पण सव्य (यज्ञोपवीत बाएं कंधे पर रखकर) से, ऋषि को निवीत (यज्ञोपवीत गले में पहन कर) से एवं पितरों को अपसव्य (यज्ञोपवीत दाएं कंधे पर लेकर) से करें।’
  • तर्पण के लिए दर्भ (कुश) की आवश्यकता होती है । दर्भ के अग्रभाग से देवताओं के लिए, दर्भ को मध्य से मोडकर ऋषियों के लिए तथा दो दर्भ के मूल एवं अग्र भाग से पितरों के लिए तर्पण करें ।
  • हाथ की उंगलियों के अग्रभाग में स्थित देवतीर्थ से देवताओं को, अनामिका एवं कनिष्ठा के मूल से ऋषियों को और तर्जनी एवं अंगूठे के मध्यभाग से पितरों को जल दें (तर्पण करें ) ।
  • प्रत्येक देवता को एक, ऋषि को दो एवं पितर को तीन अंजली तर्पण दें । मातृत्रय को तीन अंजलि एवं अन्य स्रियों को एक अंजलि तर्पण दें ।’   (यहां‘एक अंजलि तर्पण दें’ से आशय है, ‘एक बार अंजुलि में जल लेकर तर्पण दें’।

तर्पण में इस बातों का रखें ख्याल

  • तर्पण में दूध, तिल, कुशा, पुष्प, गंध मिश्रित जल से पितरों को तृप्त किया जाता है।
  • ब्राह्मणों को भोजन और पिंड दान से, पितरों को भोजन दिया जाता है।
  • वस्त्रदान से पितरों तक वस्त्र पहुंचाया जाता है।
  • यज्ञ की पत्नी दक्षिणा है। श्राद्ध का फल, दक्षिणा देने पर ही मिलता है।
  • श्राद्ध के लिए दोपहर का कुतुप और रोहिण मुहूर्त श्रेष्ठ है। कुतुप मुहूर्त दोपहर 11:36 से 12:24 तक होता है। 
  • रोहिण मुहूर्त दोपहर 12:24 से दिन में 1:15 तक।
  • कुतप काल में किए गए दान का अक्षय फल मिलता है।
  • पूर्वजों का तर्पण, हर पूर्णिमा और अमावस्या पर करें।
  • श्राद्ध के दिनों में, कम से कम जल से तर्पण ज़रूर करें।
  • चंद्रलोक के ऊपर और सूर्यलोक के पास पितृलोक होने से, वहां पानी की कमी है।
  • जल के तर्पण से, पितरों की प्यास बुझती है वरना पितृ प्यासे रहते हैं।
  • पिता का श्राद्ध पुत्र करता है। पुत्र के न होने पर, पत्नी को श्राद्ध करना चाहिए।
  • पत्नी न होने पर, सगा भाई श्राद्ध कर सकता है।
  • एक से ज्य़ादा पुत्र होने पर, बड़े पुत्र को श्राद्ध करना चाहिए।
  • कभी भी रात में श्राद्ध न करें, क्योंकि रात्रि राक्षसी का समय है।
  • दोनों संध्याओं के समय भी श्राद्धकर्म नहीं किया जाता है।

श्राद्ध करते समय इन बातों के स्मृति में रखें

  • जिन व्यक्तियों की सामान्य एवं स्वाभाविक मृत्यु चतुर्दशी को हुई हो, उनका श्राद्ध चतुर्दशी तिथि को कदापि नहीं करना चाहिए, बल्कि पितृपक्ष की त्रयोदशी अथवा अमावस्या के दिन उनका श्राद्ध करना चाहिए।
  • अपमृत्यु, अर्थात किसी प्रकार की दुर्घटना, सर्पदंश, विष, शस्‍त्रप्रहार, हत्या, आत्महत्या या अन्य किसी प्रकार से अस्वा‍भाविक मृत्यु हुई हो, तो उनका श्राद्ध मृत्यु तिथि वाले दिन कदापि नहीं करना चाहिए।
  • अपमृत्यु वाले व्यक्तियों को श्राद्ध केवल चतुर्दशी तिथि को ही करना चाहिए, चाहे उनकी मृत्यु किसी भी ति‍थि को हुई हो।
  • संन्यासियों का श्राद्ध केवल पितृपक्ष की द्वादशी को ही किया जाता है, चाहे उनकी मृत्यु किसी भी तिथि को हुई हो।
  • नाना तथा नानी का श्राद्ध भी केवल अश्विन शुक्ल प्रतिपदा को ही करना चाहिए, चाहे उनकी मृत्यु किसी भी तिथि में हुई हो।
  • स्वाभाविक रूप से मरने वालों का श्राद्ध भाद्रपद शुक्ल पूर्णिमा अथवा आश्विन कृष्ण अमावस्या को करना चाहिए। (सब तिथियों की जानकारी ब्राह्मण और पंडितों को होती है)

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ऋतु वर्णन- पतझड़, सावन, बसंत, बहार एक बरस के मौसम चार… पर यहां मौसम छह…

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ऋतुएं प्राकृतिक अवस्थाओं के अनुसार वर्ष का छोटा कालखंड है जिसमें मौसम की दशाएं एक खास प्रकार की होती हैं। यह कालखण्ड एक वर्ष को कई भागों में विभाजित करता है जिनके दौरान पृथ्वी के सूर्य की परिक्रमा के परिणामस्वरूप दिन की अवधि, तापमान, वर्षा, आर्द्रता इत्यादि मौसमी दशाएं एक चक्रीय रूप में बदलती हैं। Gregorian calendar के मुताबिक चार ऋतुएं मानी जाती हैं- वसंत (Spring), ग्रीष्म (Summer), शरद (Autumn) और शिशिर (Winter)। लेकिन भारत में चार ऋतुओं का नहीं बल्कि छह ऋतुओं वर्णन किया गया है।

प्राचीन काल में यहां छह ऋतुएं मानी जाती थीं- वसंत (Spring), ग्रीष्म (Summer), वर्षा (Rainy) शरद (Autumn), हेमंत (Pre-Winter) और शिशिर (Winter)। छः ऋतुओं में प्रत्येक ऋतु का चक्र दो-दो महीने का बन जाता है। वैशाख और जेठ के महीने ग्रीष्म ऋतु के होते हैं। आषाढ़ और सावन के महीनों में वर्षा ऋतु होती है। भाद्र और आश्विन के दो महीने शरद् ऋतु के होते हैं। हेमंत का समय कार्तिक और अगहन (मार्गशीर्ष) के महीनों का होता है। शिशिर ऋतु पूस (पौष) और माघ के महीने में उतर आती है, जबकि वसंत का साम्राज्य फाल्गुन और चैत्र के महीनों में होता है। ऋतु वर्णन पर तो महाकवि कालिदास ने पूरी काव्यरचना ही कर डाली थी। ऋतुसंहार महाकवि कालिदास की प्रथम काव्यरचना मानी जाती है, जिसके छह सर्गो में ग्रीष्म से आरंभ कर वसंत तक की छह ऋतुओं का सुंदर प्रकृतिचित्रण प्रस्तुत किया गया है।

ऋतुओं का चक्र फसल, वन, पशु-पक्षियों और भारतीयों को प्रत्येक रूप में प्रभावित करता है। वस्त्र पहनने से लेकर भोजन और देशाटन भी इससे प्रभावित होता है। इस ऋतु की आश्चर्यचकित करने वाली एक अन्य विशेषता भी है। कभी राजस्थान की मरूभूमि जल की बूँद के लिए तरसती है तो चिरापूँजी में वर्षा की झड़ी रूकने का नाम ही नहीं लेती है। जब भारत का दक्षिण भाग गरम रहता है तो उत्तरी भाग शीत से ठिठुर जाता है। कई प्रांत कभी प्रचंड लू में तपने लगते हैं तो दूसरे प्रांतों में पानी को बर्फ में जमा देने वाली ठंड पड़ती है। ऋतुओं का यह चक्र एक ही प्रकार की अनुभूति से बचाता है और बेचैनी के क्षणों को फिर से परिवर्तित कर देता है। कभी धरती तपने लगती है, कभी वर्षा की झड़ी में नहाने लगती है, कभी बर्फ़ की श्वेत चादर ओढ़ लेती है तो कभी वसंत की मादक-मोहक रंगों से सजी धजी नवयौवना बनकर खिलखिलाती है।

क्र.म.

 ऋतुएँ हिंदी माह ग्रेगोरियन माह    तापमान मौसमों के त्यौहार
1. वसंत (Spring) चैत्र और वैशाख मार्च, अप्रैल 20-30 डिग्री सेल्सियस बसंत पंचमी, गुडी पडवा, होली, रामनवमी, वैशाखी/ हनुमान जयंती 
2. ग्रीष्म (Summer) ज्येष्ठ और आषाढ मई, जून बहुत गर्म, 40- 50 डिग्री सेल्सियस वट पूर्णिमा, रथ यात्रा और गुरु पूर्णिमा
3. वर्षा (Rainy) सावन और भाद्रपद जुलाई, अगस्त गर्म, उमस और बहुत ज्यादा वर्षा रक्षा बंधन, कृष्ण जन्माष्टमी, गणेश चतुर्थी
4. शरद (Autumn) आश्विन और कार्तिक सितम्बर, अक्टूबर 19-25 डिग्री सेल्सियस नवरात्रि, विजयादशमी, शरद पूर्णिमा
5. हेमंत (pre-winter) मार्गशीर्ष और पौष नवंबर, दिसंबर 20-15 डिग्री सेल्सियस दीपावली और कार्तिक पूर्णिमा
6. शिशिर (Winter) माघ और फागुन जनवरी, फरवरी 10 डिग्री से काम हो सकता है.

संक्रांति, महाशिवरात्रि

 

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वसंत, ग्रीष्म, वर्षा, शरद, शिशिर और हेमंत इन 6 ऋतुओं में से वसंत को ऋतुओं का राजा अर्थात सर्वश्रेष्ठ ऋतु माना गया है। जो फरवरी, मार्च माह में अपना सौंदर्य बिखेरती है। ऐसा माना गया है कि माघ महीने की शुक्ल पंचमी से 

giphyवसंत ऋतु का आरंभ होता है। फाल्गुन और चैत्र मास वसंत ऋतु के माने गए हैं। फाल्गुन वर्ष का अंतिम मास है और चैत्र पहला। इस प्रकार हिंदू पंचांग के वर्ष का अंत और प्रारंभ वसंत में ही होता है। इस ऋतु के  आने पर सर्दी कम हो जाती है। मौसम सुहावना हो जाता है। पेड़ों में नए पत्ते आने लगते हैं। आम बौरों से लद जाते हैं और खेत सरसों के फूलों से भरे पीले दिखाई देते हैं अतः राग रंग और उत्सव मनाने के लिए यह ऋतु सर्वश्रेष्ठ मानी गई है और इसे ऋतुराज कहा गया है।

इस ऋतु में होली, धुलेंडी, रंगपंचमी, बसंत पंचमी, नवरात्रि, रामनवमी, नव-संवत्सर, हनुमान जयंती और गुरु पूर्णिमा उत्सव मनाए जाते हैं। इनमें से रंगपंचमी और बसंत पंचमी जहां मौसम परिवर्तन की सूचना देते हैं वहीं नव-संवत्सर से नए वर्ष की शुरुआत होती है।  इसके अलावा होली-धुलेंडी जहां भक्त प्रहलाद की याद में मनाई जाती हैं वहीं नवरात्रि मां दुर्गा का उत्सव है तो दूसरी ओर रामनवमी, हनुमान जयंती और बुद्ध पूर्णिमा के दिन दोनों ही महापुरुषों का जन्म हुआ था।

वसंत ऋतु में वसंत पंचमी, शिवरात्रि तथा होली नामक पर्व मनाए जाते हैं। भारतीय संगीत साहित्य और कला में इसे महत्वपूर्ण स्थान है। संगीत में एक विशेष राग वसंत के नाम पर बनाया गया है जिसे राग बसंत कहते हैं।

‘पौराणिक कथाओं के अनुसार वसंत को कामदेव का पुत्र कहा गया है। देव (कवि) ने वसंत ऋतु का वर्णन करते हुए कहा है कि रूप व सौंदर्य के देवता कामदेव के घर पुत्रोत्पत्ति का समाचार पाते ही प्रकृति झूम उठती है। पेड़ों उसके लिए नव पल्लव का पालना डालते है, फूल वस्त्र पहनाते हैं पवन झुलाती है और कोयल उसे गीत सुनाकर बहलाती है।भगवान कृष्ण ने गीता में कहा है ऋतुओं में मैं वसंत हूँ— क्या कहा देव (कवि) ने-

डार द्रुम पलना बिछौना नव पल्लव केसुमन झिंगूला सोहै तन छबि भारी दै।

पवन झूलावैकेकी-कीर बतरावैं देव’, कोकिल हलावै हुलसावै कर तारी दै।।

पूरित पराग सों उतारो करै राई नोनकंजकली नायिका लतान सिर सारी दै।

मदन महीप जू को बालक बसंत ताहिप्रातहि जगावत गुलाब चटकारी दै॥

अर्थात- प्रस्तुत कवित्त में देव (कवि) ने वसंत ऋतू का बड़ा ही हृदयग्राही वर्णन किया है. उन्होंने वसंत की कल्पना कामदेव के नवशिशु के रूप में की है. पेड़ की डाली बालक का झुला है. वृक्षों के नए पत्ते पलने पर पलने वाले बच्चे के लिए बिछा हुआ है. हवा स्वयं आकर बच्चे को झुला रही है. मोर और तोता मधुर स्वर में बालक का बालक का मन बहला रहे हैं. कोयल बालक को हिलाती और तालियाँ बजाती है. कवि कहते हैं कि कमल के फूलों से कलियाँ मानो पर अपने सिरपर पराग रूपी पल्ला की हुई है, ताकि बच्चे पर किसी की नज़र न लगे. इस वातावरणमें कामदेव का बालक वसंत इस प्रकार बना हुआ है की मानो वह प्रातःकाल गुलाब रूपी चुटकी बजा बजाकर जगा रही है.

वेद और पुराणों में वसंत ऋतु

ऋग्वेद में भगवती सरस्वती का वर्णन करते हुए कहा गया है-

प्रणो देवी सरस्वती वाजेभिर्वजिनीवती धीनामणित्रयवत

अर्थात- ये परम चेतना हैं। सरस्वती के रूप में ये हमारी बुद्घिप्रज्ञा और मनोव्त्तियों की संरक्षिका हैं। हममे जो आचार और मेघा है उसका आधार भगवती सरस्वती ही हैं। इनकी समृद्धि और स्वरूप का वैभव अद्भूत है।

रामायण में महर्षि वाल्मीकि ने वसंत का अत्‍यंत मनोहारी चित्रण किया है-

1

भगवान कृष्ण ने गीता में ऋतुनां कुसुमाकरः‘ कहकर वसंत को अपनी सृष्टि माना है-

बृहत्साम तथा साम्नां गायत्री छन्दसामहम् ।

मासानां मार्गशीर्षोऽहं ऋतूनां कुसुमाकर: ॥

अर्थातृ- गायन-शास्त्र में वृहत् सामवेद हूँ छन्द-गायत्री छन्द-कलाप में। द्वादश-मास में मार्गशीर्ष मास हूँ ऋतुओं में हूँ कुसुमाकर (वसंत) मैं।

वामन पुराण में कामदेव के भस्म होकर अनंग हो जाने का वर्णन नहीं मिलता, बल्कि वह सुगन्धित फूलों के रूप में परिवर्तित हो गया। इस पुराण में बसंत का बड़ा ही सुन्दर वर्णन किया गया है-

ततो वसन्ते संप्राप्ते किंशुका ज्वलनप्रभा:।

निष्पत्रा: सततंरेजु: शोभयन्तो धरातलम्॥ (वामन पुराण 1/6/9)

अर्थातृ- बसन्त ऋतु के आगमन पर ढाक के वृक्षलाल वर्ण वाले पुष्पों के कारण अग्नि के समान प्रभा वाले प्रतीत हो रहे थे। उन लाल पुष्पों के गुच्छों से लदे वृक्षों के कारण धरा शोभायमान हो रही थी।

ब्रह्म पुराण के अनुसार चैत्र शुक्ल प्रतिपदा को ही सृष्टि का प्रारंभ हुआ था और इसी दिन भारत वर्ष में काल गणना प्रारंभ हुई थी। कहा है कि :-

चैत्र मासे जगद्ब्रह्म समग्रे प्रथमेऽनि

शुक्ल पक्षे समग्रे तु सदा सूर्योदये सति। – ब्रह्म पुराण

चैत्र शुक्ल की प्रतिपदा वसंत ऋतु में आती है। वसंत ऋतु में वृक्षलता फूलों से लदकर आह्लादित होते हैं जिसे मधुमास भी कहते हैं। इतना ही यह वसंत ऋतु समस्त चराचर को प्रेमाविष्ट करके समूची धरती को विभिन्न प्रकार के फूलों से अलंकृत कर जन मानस में नववर्ष की उल्लासउमंग तथा मादकाता का संचार करती है।

कालिदास ने ऋतुसंहार में बसंत का जैसा वर्णन किया हैवैसा कहीं नहीं दिखाई देता-

द्रुमा सपुष्पा: सलिलं सपदमस्त्रीय सकामा: पवन: सुगंधी:।

सुखा: प्रदोषा: दिवसाश्च रम्या:सर्व प्रिये चारुतरं वसंते।।

अलका! यह नाम लेते ही नयनों के सामने एक चित्र उभरता है उस भावमयी कमनीय भूमि का,  जहां चिर-सुषमा की वंशी गूंजती रहती हो, जहां के सरोवरों में सोने के कमल खिलते हों, जहां  मृण-तरू पात चिर वसंत की छवि में नहा रहे हों। अपार यौवन, अपार सुख, अपार विलास की  इस रंगस्थली ने महाकवि कालिदास की कल्पना को अनुप्रमाणित किया। उनकी रस प्राण वाणी  में फूट पड़ी विरही-यक्ष की करुण गाथा।

ऋतुसंहार के षष्ठ सर्ग में गीतकार वसंत को एक आक्रामक योद्धा की तरह चित्रित करता है- बोलता है, प्रियतमे ! देखों यह वसन्त योद्धा कामी जनों के मन को बेचने के लिए आ गया इस बसन्त योद्धा के वाण आम के बौर है और उनमें घूमती हुयी भ्रमर पक्ति ही धनुष की डोरी है। प्रिये, यह बसन्त ऋतुराज है। यहाँ सब सुन्दर ही सुन्दर है। तरू कुसुमों से लदे हैं। जलाशय कमल पुष्पों से सुशोभित हैं, ललनाएँ कामातुर हैं, पवन सुगन्धित है। सुबह से शाम तक सारा दिन रमणीय लगता है। प्रिये, बसन्त में वसुन्धरा नई बहू की तरह प्रतीत होती है। इस समय धरती अंगारे की तरह लाल-लाल पलाश के कुसुमों से छायी है। उसे देखकर लगता है कि वह हैं। कोई नव वधू लाल चूनर ओढ़ आयी है! इस तरह हम देखते है कि प्रस्तुत गीतिकाव्य में कवि ने प्रत्येक ऋतु के सौन्दर्य का चित्रण करते हुए प्रकृति के रंगीन चित्र प्रस्तुत किये हैं। यहाँ हमने विस्तार भय से प्रत्येक ऋतुओं का कुछ ही चित्र चित्रित किये है। ऋतुसंहार को वस्तुतः प्रकृति वर्णन बहुत ही रमणीय और हृदयावर्धक है। इसमें कथानक तक की अल्पता किन्तु चित्रण की बहुलता है।

2.png2a.pngकालिदास ने कुमारसम्भव में भी वसंत का उल्लेख करते हुए लिखा- पार्वती ने वसंत के फूलों से अपने आप को अलंकृत किया है। उसके अशोक ने पद्मराग मणि को धता बता दी है, कर्णिकार ने स्वर्ण की द्युति को खींच लिया है तथा सिंधुवार के पुष्प ही मुक्तामाला बन गये हैं-

अशोकनिर्भर्त्सितपद्मरागमाकृष्टहेमद्युतिकर्णिकारम्।

मुक्ताकलापीकृतसिन्दुवारं वसंतपुष्पाभरणं वहंती॥

वसंत आता नहींले आया जाता है…जो चाहे- जब चाहे अपने पर ले आ सकता है

कालिदास से लेकर महाप्राण निराला तक. टैगोर से लेकर शैली तक. सब वसंत के दीवाने…! तभी तो कालिदास ने इसे ‘वसंतयोद्धा’ कहा है –

वसंतयोद्धा समुपागतः प्रिये…

वसन्त रूपी वीर आ गया । बौरे हुए आम के अंकुर इसके. बाण हैं, भरी की पंक्ति ही इसके घनुष का रोड़ा है और यह कामुक जनों के मन की बेधन के लिए तैयार है।) इस पद में कवि ने वसन्त की उपमा वीर से की है ।

वसंत का यह ‘योद्धा’ हर्ष और नवोत्कर्ष लाता है. दैहिक उमंगों और प्रकृति के बीच एक अजीब सा साम्य बैठ जाता है. निराला के यहां भी और कालिदास के यहां भी…

सखिवसंत आया…
भरा हर्ष वन के मन,
नवोत्कर्ष छाया…‘ – निराला

कालिदास के काव्य में भी वसंत जिसे छू जाए, वही सुगंध से भर उठता है – क्या फूल, क्या लताएं, क्या हवा और क्या हृदय – सभी वसंत के प्रहार से विकल हो उठते हैं…

द्रुमा: सपुष्पा: सलिलं स्पद्मं
स्त्रियः सकामः पवनः सुगंधि:,
सुखा: प्रदोषा दिवसाश्च रम्या:
सर्वमम् प्रियम् चारुतरम् वसंते…

‘पवनः सुगंधि:’ कालिदास के यहां विकलता का उत्स है. वह चंचल भी कम नहीं. आम के पेड़ों को हिलाकर भाग जाती है…

‘आकम्पयन कुसुमिता: सहकारशाखा’… कोयल की कूक को सभी दिशाओं में फैला देती है… ‘विस्तारयन परभ्रतस्य वचांसि दिक्षु…’ कोई भी तो ऐसा नहीं, जिसके हृदय को वसंत की यह हवा विचिलित न कर देती हो…! ‘वायुर्विवाति हृदयानि हरंन्नराणाम, नीहारपानविगमात्सुभगो वसंते…’

यह ‘वसंती हवा’ चली ही आ रही है. आज के जन-कवि तक पहुंचते-पहुंचते भी न इसका रूप बदला है, न चंचलता. हां, कालिदास का अपना युग था. राजाओं, सामंतों और कुलीन वर्गों की रुचियां शेष समाज पर भारी थीं. इतिहास और काव्य लिखने वाले राज्याश्रित होते थे. राजाओं और कुलीनों का गुणगान उनका युगीन-बोध था और एक यथार्थ भी, लेकिन ऋतुराज ने अपने प्रभाव में भेदभाव नहीं किया…

शायद इसलिए आज के कवि को शायद इसीलिए वसंत उतना ही पंसद है-

हवा हूंहवा हूंमैं वसंती हवा हूं…
वही हांवहीजो युगों से गगन को,
बिना कष्ट-श्रम के संभाले हुए हूं…
वही हांवहीजो सभी प्राणियों को,
पिला प्रेम-आसव जिलाये हुए हूं…‘- केदारनाथ अग्रवाल

जैसे कालिदास के युग की वासंतिक हवा आम के बौर हिला धमाचौकड़ी मचाती थी. नटखट और शैतान बच्चे की तरह. ठीक उसी तरह वह आज के कवि के यहां भी आम और महुआ के पेड़ों पर चढ़कर थपाथप मचाती है – कितना अदभुत साम्य है…!

चढ़ी पेड़ महुआ थपाथप मचाया,
गिरी धम्म से फिरचढ़ी आम ऊपर,
उसे भी झकोराकिया कान में कू‘,
उतर के भगी मैंहरे खेत पहुंची,
वहां गेहुओं में लहर खूब मारी,
पहर दो पहर क्याअनेकों पहर तक,
इसी में रही मैं…
बसंती हवा‘ – केदारनाथ अग्रवाल

वसंत, जो प्रकृति में, पेड़-पौधों पर, और कभी-कभी हृदय में आ धमकता है, क्या इस धरा पर सभी के हृदयों को समान रूप से आनंदित ही करता है? क्या वसंत उद्विग्न नहीं करता! क्या वसंत कालिदास के युग के दरिद्र को भी उसी तरह रुचिकर लगता रहा होगा, जैसा उस युग के भद्र-पुरुषों और कुलीनों को लगता होगा! इस बात का कोई ऐतिहासिक प्रमाण तो मिलता नहीं। शायद मिले भी नहीं. संभव है, इस तरह का कोई समूह-बोध रहा ही न हो, लेकिन वसंत ने लोगों को अलग-अलग तो स्पर्श किया ही है. कुछ ने उसे अभिव्यक्तिमय कर दिया तो कोई उसे मौन भोगकर शांत बना रहा. जिसे अपने प्रिय का स्नेह मिले, वह वसंत में भला क्यों खुश न होता!

सरस्वती पूजन एवं ज्ञान का महापर्व है बसंत

वसंत ऋतु के आगमन का समाचार और विद्या की देवी सरस्वती के जन्मदिन की खुशियों को लेकर आज बसंत पंचमी का त्यौहार आया है. प्रकृति और विद्या के प्रति अपने समर्पण को दर्शाने का यह सबसे बेहतरीन मौका है. ठंडी के बाद मौसम अपने सबसे रंगीन रुप में करवट लेता है और पेड़ों पर निकली नई कोपलें इस शुभ-संकेत देती हैं. आज के दिन पितृ तर्पण और कामदेव की पूजा का भी विधान है. बसंत पंचमी को श्री पंचमी तथा ज्ञान पंचमी भी कहते हैं.

बसंत पंचमी मुख्यत: मां सरस्वती के प्रकट होने के उपक्ष्य में मनाया जाता है. धार्मिक ग्रंथों में ऐसी मान्यता है कि इसी दिन शब्दों की शक्ति मनुष्य की झोली में आई थी. हिंदू धर्म में देवी शक्ति के जो तीन रूप हैं -काली, लक्ष्मी और सरस्वती, इनमें से सरस्वती वाणी और अभिव्यक्ति की अधिष्ठात्री हैं. सृष्टि के प्रारंभिक काल में भगवान विष्णु की आज्ञा से ब्रह्माजी ने मनुष्य योनि की रचना की. पर अपने प्रारंभिक अवस्था में मनुष्य मूक था और धरती बिलकुल शांत थी. ब्रह्माजी ने जब धरती को मूक और नीरस देखा तो अपने कमंडल से जल लेकर छिटका दिया., जिससे एक अद्भुत शक्ति के रूप में चतुर्भुजी सुंदर स्त्री प्रकट हुई. जिनके एक हाथ में वीणा एवं दूसरा हाथ वर मुद्रा में था. इस जल से हाथ में वीणा धारण किए जो शक्ति प्रगट हुई, वह सरस्वती कहलाई. उनके वीणा का तार छेड़ते ही तीनों लोकों में कंपन हो गया (यानी ऊर्जा का संचार आरंभ हुआ) और सबको शब्द और वाणी मिल गई.

ब्राह्मण-ग्रंथों के अनुसार वाग्देवी सरस्वती ब्रह्मस्वरूपा, कामधेनु तथा समस्त देवों की प्रतिनिधि हैं। ये ही विद्या, बुद्धि और ज्ञान की देवी हैं। अमित तेजस्वनी व अनंत गुणशालिनी देवी सरस्वती की पूजा-आराधना के लिए माघमास की पंचमी तिथि निर्धारित की गयी है। बसंत पंचमी को इनका आविर्भाव दिवस माना जाता है। अतः वागीश्वरी जयंती व श्रीपंचमी नाम से भी यह तिथि प्रसिद्ध है। ऋग्वेद के (10/125 सूक्त) में सरस्वती देवी के असीम प्रभाव व महिमा का वर्णन है। माँ सरस्वती विद्या व ज्ञान की अधिष्ठात्री हैं। कहते हैं। जिनकी जिव्हा पर सरस्वती देवी का वास होता है, वे अत्यंत ही विद्वान व कुशाग्र बुद्धि होते हैं। बहुत लोग अपना ईष्ट माँ सरस्वती को मानकर उनकी पूजा-आराधना करते हैं। जिन पर सरस्वती की कृपा होती है, वे ज्ञानी और विद्या के धनी होते हैं। बसंत पंचमी का दिन सरस्वती जी की साधना को ही अर्पित है। शास्त्रों में भगवती सरस्वती की आराधना व्यक्तिगत रूप में करने का विधान है, किंतु आजकल सार्वजनिक पूजा-पाण्डालों में देवी सरस्वती की मूर्ति स्थापित कर पूजा करने का विधान चल निकला है। यह ज्ञान का त्योहार है, फलतः इस दिन प्रायः शिक्षण संस्थानों व विद्यालयों में अवकाश होता है। विद्यार्थी पूजा स्थान को सजाने-संवारने का प्रबन्ध करते हैं। महोत्सव के कुछ सप्ताह पूर्व ही, विद्यालय विभिन्न प्रकार के वार्षिक समारोह मनाना प्रारंभ कर देते हैं। संगीत, वाद- विवाद, खेल- कूद प्रतियोगिताएँ एवं सांस्कृतिक कार्यक्रम आयोजित किये जाते हैं। बसंत पंचमी के दिन ही विजेयताओं को पुरस्कार बांटे जाते हैं। माता-पिता तथा समुदाय के अन्य लोग भी बच्चों को उत्साहित करने इन समारोहों में आते हैं। समारोह का आरम्भ और समापन सरस्वती वन्दना से होता है। प्रार्थना के भाव हैं-

ओ माँ सरस्वती ! मेरे मस्तिष्क से अंधेरे (अज्ञान) को हटा दो तथा मुझे शाश्वत ज्ञान का आशीर्वाद दो!

सरस्वती का जैसा शुभ श्वेत, धवल रूप वेदों में वर्णित किया गया है, वह इस प्रकार है-

या कुन्देन्दुतुषारहारधवला या शुभ्रवस्त्रावृता 

या वीणावरदण्डमण्डितकरा या श्वेतपद्मासना।

या ब्रह्माच्युत शंकरप्रभृतिभिर्देवैः सदा वन्दिता

सा मां पातु सरस्वती भगवती निःशेषजाड्यापहा ॥1॥

जो विद्या की देवी भगवती सरस्वती कुन्द के फूल, चंद्रमा, हिमराशि और मोती के हार की तरह धवल वर्ण की है और जो श्वेत वस्त्र धारण करती है, जिनके हाथ में वीणा-दण्ड शोभायमान है, जिन्होंने श्वेत कमलों पर आसन ग्रहण किया है तथा ब्रह्मा विष्णु एवं शंकर आदि देवताओं द्वारा जो सदा पूजित हैं, वही संपूर्ण जड़ता और अज्ञान को दूर कर देने वाली सरस्वती हमारी रक्षा करें ॥1॥

शुक्लां ब्रह्मविचार सार परमामाद्यां जगद्व्यापिनीं

वीणा-पुस्तक-धारिणीमभयदां जाड्यान्धकारापहाम्‌।

हस्ते स्फाटिकमालिकां विदधतीं पद्मासने संस्थिताम्‌

वन्दे तां परमेश्वरीं भगवतीं बुद्धिप्रदां शारदाम्‌॥2॥

शुक्लवर्ण वाली,संपूर्ण चराचर जगत्‌ में व्याप्त, आदिशक्ति, परब्रह्म के विषय में किए गए विचार एवं चिंतन के सार रूप परम उत्कर्ष को धारण करने वाली, सभी भयों से भयदान देने वाली, अज्ञान के अंधेरे को मिटाने वाली, हाथों में वीणा, पुस्तक और स्फटिक की माला धारण करने वाली और पद्मासन पर विराजमान्‌ बुद्धि प्रदान करने वाली, सर्वोच्च ऐश्वर्य से अलंकृत, भगवती शारदा (सरस्वती देवी) की मैं वंदना करता हूं ॥2॥

श्रीकृष्ण ने की प्रथम पूजा : देवी सरस्वती की पूजा करने के पीछे भी पौराणिक कथा है। इनकी सबसे पहले पूजा श्रीकृष्ण और ब्रह्माजी ने ही की है। देवी सरस्वती ने जब श्रीकृष्ण को देखा तो उनके रूप पर मोहित हो गईं और पति के रूप में पाने की इच्छा करने लगीं। भगवान कृष्ण को इस बात का पता चलने पर उन्होंने कहा कि वे तो राधा के प्रति समर्पित हैं। परंतु सरस्वती को प्रसन्न करने के लिए उन्होंने वरदान दिया कि प्रत्येक विद्या की इच्छा रखनेवाला माघ मास की शुक्ल पंचमी को तुम्हारा पूजन करेगा। यह वरदान देने के बाद स्वयं श्रीकृष्ण ने पहले देवी की पूजा की। सृष्टि निर्माण के लिए मूल प्रकृति के पाँच रूपों में से सरस्वती एक है, जो वाणी, बुद्घि, विद्या और ज्ञान की अधिष्ठात्री देवी है। बसंत पंचमी का अवसर इस देवी को पूजने के लिए पूरे वर्ष में सबसे उपयुक्त है क्योंकि इस काल में धरती जो रूप धारण करती है, वह सुंदरतम होता है।

नवीन कार्यों के लिए शुभ है बसंत ऋतु- बसंत को सभी शुभ कार्यों के लिए अत्यंत शुभ ऋतु माना गया है। मुख्यतः विद्यारंभ, नवीन विद्या प्राप्ति एवं गृह प्रवेश के लिए बसंत पंचमी को पुराणों में भी अत्यंत श्रेयस्कर माना गया है। बसंत पंचमी को अत्यंत शुभ मुहूर्त मानने के पीछे अनेक कारण हैं। यह पर्व अधिकतर माघ मास में ही पड़ता है। माघ मास का भी धार्मिक एवं आध्यात्मिक दृष्टि से विशेष महत्व है। इस माह में पवित्र तीर्थों में स्नान करने का विशेष महत्व बताया गया है। दूसरे इस समय सूर्यदेव भी उत्तरायण होते हैं। पुराणों में उल्लेख मिलता है कि देवताओं का एक अहोरात्र (दिन-रात) मनुष्यों के एक वर्ष के बराबर होता है, अर्थात उत्तरायण देवताओं का दिन तथा दक्षिणायन रात्रि कही जाती है। सूर्य की क्रांति 22 दिसम्बर को अधिकतम हो जाती है और यहीं से सूर्य उत्तरायण शनि हो जाते हैं। 14 जनवरी को सूर्य मकर राशि में प्रवेश करते हैं और अगले 6 माह तक उत्तरायण रहते हैं। सूर्य का मकर से मिथुन राशियों के बीच भ्रमण उत्तरायण कहलाता है। देवताओं का दिन माघ के महीने में मकर संक्रांति से प्रारंभ होकर आषाढ़ मास तक चलता है। तत्पश्चात आषाढ़ मास में शुक्ल पक्ष की एकादशी से कार्तिक मास शुक्ल पक्ष एकादशी तक का समय भगवान विष्णु का निद्रा काल अथवा शयन काल माना जाता है। इस समय सूर्यदेव कर्क से धनु राशियों के बीच भ्रमण करते हैं, जिसे सूर्य का दक्षिणायन काल भी कहते हैं। सामान्यतः इस काल में शुभ कार्यों को वर्जित बताया गया है। चूंकि बसंत पंचमी का पर्व इतने शुभ समय में पड़ता है, अतः इस पर्व का स्वतः ही आध्यात्मिक, धार्मिक, वैदिक आदि सभी दृष्टियों से अति विशिष्ट महत्व परिलक्षित होता है।

वसंत को कहते हैं ऋतुओं का राजा- मौसम प्रकृति के बदलाव का अहसास दिलाता है। हर बदलती हुई ऋतु अपने साथ एक संदेश लेकर आती है। भारत की प्रकृति के अनुसार हमारे यहां छ: ऋतुएं प्रमुख रूप से मानी गई है। हेमंत, शिशिर, वसंत, ग्रीष्म, वर्षा व शरद ऋतु। इनमें वसंत को सबका राजा कहा गया है।

वसंत को ऋतुओं को राजा कहने के पीछे कई कारण हैं जैसे- फसल तैयार रहने से उल्लास और खुशी के त्यौहार, मंगल कार्य, विवाह , सुहाना मौसम, आम की मोहनी खुशबू, कोयल की कूक, शीतल मन्द सुरभित हवा, खिलते फूल, मतवाला माहौल, सुहानी शाम, फागुन के मदमस्त करने वाले गीत सब मिलकर अनुकूल समां बाधते है। यही कारण है कि वसंत को ऋतुराज की संज्ञा दी गई है। वसंत की उत्पत्ति के संबंध में धर्मग्रंथों में एक कथा भी है जो इस प्रकार है-

अंधकासुर नाम के राक्षस का वध सिर्फ भगवान शंकर के पुत्र से ही संभव था। तो शिवपुत्र कैसे पैदा हो? इसके लिए शिवजी को कौन तैयार करे? तब कामदेव के कहने पर ब्रह्माजी की योजना के अनुसार वसंत को उत्पन्न किया गया था। कालिका पुराण में वसंत का व्यक्तीकरण करते हुए इसे सुदर्शन, अति आकर्षक, सन्तुलित शरीर वाला, आकर्षक नैन-नक्श वाला, अनेक फूलों से सजा, आम की मंजरियों को हाथ में पकड़े रहने वाला, मतवाले हाथी जैसी चाल वाला आदि सारे ऐसे गुणों से भरपूर बताया है।

बसंत पंचमी का दिन अनेक साहित्यकारों तथा महापुरुषों से भी जुड़ा है- बसंत पंचमी वाले दिन वीर हकीकत राय जी का वध इसलिए कर दिया गया था क्योंकि इस वीर बालक ने अपना धर्म त्यागने से इनकार कर दिया था। हिंदी के महान कवि सूर्यकांत त्रिपाठी निराला जी का जन्मदिवस भी बसंत  पंचमी वाले दिन ही मानाया जाता है। हिंदी के महान कवि निराला जी ने भी सरस्वती रूप में भारत माता की वंदना कुछ यों की है- 

भारति जय-विजय करे, कनक-शस्य-कमल धरे,
लंका पदतल-शतदल, गर्जितोमिं सागर-जल,
धोता शुचि चरण युगल, स्तव कर बहु अर्थ भरे।

मां सरस्वती के जन्म बसंत  पंचमी पर्व व वसंत  ऋतु के महत्व को रवींद्रनाथ टैगोर ने कुछ यों वर्णन किया है :

आओ आओ कहे वसंत  धरती पर, लाओ कुछ गान प्रेमतान।
लाओ नवयौवन की उमंग नवप्राण, उत्फुल्ल नयी कामनाएं घरती पर।

वसंत ऋतु में सर्दी की कंपकंपी कुछ कम होने लगती है। कहावत है ‘आया वसंत, पाला उड़ंत।’ कवि व शिक्षक डॉ. बालकिशन शर्मा ने वसंत  का कुछ यों यशोगान किया है :

फाल्गुण में फिर मस्ती जागी, कण-कण धरती का इतराया,
वसंत  संग ले, कामदेव को, नव-शृंगार सजाने आया॥
पिक  गाती, मैना मदमाती, कुसुमित उपवन, मस्त सुगंध,
पुन: धरा संगीत-भरी, जीवन के टूटे सब बंध॥

धर्म और इतिहास दोनों से जुड़ी है वसंत ऋतु- वसंत ऋतु आते ही प्रकृति का कण-कण खिल उठता है। मानव तो क्या पशु-पक्षी तक उल्लास से भर जाते हैं। हर दिन नयी उमंग से सूर्योदय होता है और नयी चेतना प्रदान कर अगले दिन फिर आने का आश्वासन देकर चला जाता है। यों तो माघ का यह पूरा मास ही उत्साह देने वाला है, पर बसंत पंचमी (माघ शुक्ल 5) का पर्व भारतीय जनजीवन को अनेक तरह से प्रभावित करता है। प्राचीनकाल से इसे ज्ञान और कला की देवी मां सरस्वती का जन्मदिवस माना जाता है। जो शिक्षाविद भारत और भारतीयता से प्रेम करते हैं, वे इस दिन मां शारदे की पूजाकर उनसे और अधिक ज्ञानवान होने की प्रार्थना करते हैं।

कलाकारों का तो कहना ही क्या? जो महत्व सैनिकों के लिए अपने शस्त्रों और विजयादशमी का है, जो विद्वानों के लिए अपनी पुस्तकों और व्यास पूर्णिमा का है, जो व्यापारियों के लिए अपने तराजू, बाट, बहीखातों और दीपावली का है, वही महत्व कलाकारों के लिए बसंत पंचमी का है। चाहे वे कवि हों या लेखक, गायक हों या वादक, नाटककार हों या नृत्यकार, सब दिन का प्रारम्भ अपने उपकरणों की पूजा और मां सरस्वती की वंदना से करते हैं।

इसके साथ ही यह पर्व हमें अतीत की अनेक प्रेरक घटनाओं की भी याद दिलाता है।

सर्वप्रथम तो यह हमें त्रेता युग से जोड़ती है। रावण द्वारा सीता के हरण के बाद श्रीराम उसकी खोज में दक्षिण की ओर बढ़े। इसमें जिन स्थानों पर वे गये, उनमें दंडकारण्य भी था। यहीं शबरी नामक भीलनी रहती थी। जब राम उसकी कुटिया में पधारे, तो वह सुध-बुध खो बैठी और चख-चखकर मीठे बेर राम जी को खिलाने लगी। प्रेम में पगे झूठे बेरों वाली इस घटना को रामकथा के सभी गायकों ने अपने-अपने ढंग से प्रस्तुत किया। दंडकारण्य का वह क्षेत्र इन दिनों गुजरात और मध्य प्रदेश में फैला है। गुजरात के डांग जिले में वह स्थान है जहां शबरी मां का आश्रम था। बसंत पंचमी के दिन ही रामचंद्र जी वहां आये थे। उस क्षेत्र के वनवासी आज भी एक शिला को पूजते हैं, जिसके बारे में उनकी श्रद्धा है कि श्रीराम आकर यहीं बैठे थे। वहां शबरी माता का मंदिर भी है। मोरारी बापू की प्रेरणा से वहां 10 से 12 फरवरी तक शबरी कुंभ का आयोजन हो रहा है।

बसंत पंचमी का दिन हमें पृथ्वीराज चौहान की भी याद दिलाता है। उन्होंने विदेशी हमलावर मोहम्मद गौरी को 16 बार पराजित किया और उदारता दिखाते हुए हर बार जीवित छोड़ दिया, पर जब सत्रहवीं बार वे पराजित हुए, तो मोहम्मद गौरी ने उन्हें नहीं छोड़ा। वह उन्हें अपने साथ अफगानिस्तान ले गया और उनकी आंखें फोड़ दीं। इसके बाद की घटना तो जगप्रसिद्ध ही है। गौरी ने मृत्युदंड देने से पूर्व उनके शब्दभेदी बाण का कमाल देखना चाहा। पृथ्वीराज के साथी कवि चंदबरदाई के परामर्श पर गौरी ने ऊंचे स्थान पर बैठकर तवे पर चोट मारकर संकेत किया। तभी चंदबरदाई ने पृथ्वीराज को संदेश दिया।

चार बांस चौबीस गज, अंगुल अष्ट प्रमाण

ता ऊपर सुल्तान है, मत चूको चौहान।।

पृथ्वीराज चौहान ने इस बार भूल नहीं की। उन्होंने तवे पर हुई चोट और चंद्रबरदाई के संकेत से अनुमान लगाकर जो बाण मारा, वह गौरी के सीने में जा धंसा। इसके बाद चंदबरदाई और पृथ्वीराज ने भी एक दूसरे के पेट में छुरा भौंककर आत्मबलिदान दे दिया। (1192 ई) यह घटना भी बसंत पंचमी वाले दिन ही हुई थी।

बसंत पंचमी का लाहौर निवासी वीर हकीकत से भी गहरा संबंध है। एक दिन जब मुल्ला जी किसी काम से विद्यालय छोड़कर चले गये, तो सब बच्चे खेलने लगे, पर वह पढ़ता रहा। जब अन्य बच्चों ने उसे छेड़ा, तो दुर्गा मां की सौगंध दी। मुस्लिम बालकों ने दुर्गा मां की हंसी उड़ाई। हकीकत ने कहा कि यदि में तुम्हारी बीबी फातिमा के बारे में कुछ कहूं, तो तुम्हें कैसा लगेगा? बस फिर क्या था, मुल्ला जी के आते ही उन शरारती छात्रों ने शिकायत कर दी कि इसने बीबी फातिमा को गाली दी है। फिर तो बात बढ़ते हुए काजी तक जा पहुंची। मुस्लिम शासन में वही निर्णय हुआ, जिसकी अपेक्षा थी। आदेश हो गया कि या तो हकीकत मुसलमान बन जाये, अन्यथा उसे मृत्युदंड दिया जायेगा। हकीकत ने यह स्वीकार नहीं किया। परिणामतः उसे तलवार के घाट उतारने का फरमान जारी हो गया।

कहते हैं उसके भोले मुख को देखकर जल्लाद के हाथ से तलवार गिर गयी। हकीकत ने तलवार उसके हाथ में दी और कहा कि जब मैं बच्चा होकर अपने धर्म का पालन कर रहा हूं, तो तुम बड़े होकर अपने धर्म से क्यों विमुख हो रहे हो? इस पर जल्लाद ने दिल मजबूत कर तलवार चला दी, पर उस वीर का शीश धरती पर नहीं गिरा। वह आकाशमार्ग से सीधा स्वर्ग चला गया। यह घटना बसंत पंचमी (23.2.1734) को ही हुई थी। पाकिस्तान यद्यपि मुस्लिम देश है, पर हकीकत के आकाशगामी शीश की याद में वहां वसंत पंचमी पर पतंगें उड़ाई जाती है। हकीकत लाहौर का निवासी था। अतः पतंगबाजी का सर्वाधिक जोर लाहौर में रहता है।

बसंत पंचमी हमें गुरू रामसिंह कूका की भी याद दिलाती है। उनका जन्म 1816 ई. में बसंत पंचमी पर लुधियाना के भैणी ग्राम में हुआ था। कुछ समय वे रणजीत सिंह की सेना में रहे, फिर घर आकर खेतीबाड़ी में लग गये, पर आध्यात्मिक प्रवृत्ति होने के कारण इनके प्रवचन सुनने लोग आने लगे। धीरे-धीरे इनके शिष्यों का एक अलग पंथ ही बन गया, जो कूका पंथ कहलाया।

गुरू रामसिंह गोरक्षा, स्वदेशी, नारी उद्धार, अंतरजातीय विवाह, सामूहिक विवाह आदि पर बहुत जोर देते थे। उन्होंने भी सर्वप्रथम अंग्रेजी शासन का बहिष्कार कर अपनी स्वतंत्र डाक और प्रशासन व्यवस्था चलायी थी। प्रतिवर्ष मकर संक्रांति पर भैणी गांव में मेला लगता था। 1872 में मेले में आते समय उनके एक शिष्य को मुसलमानों ने घेर लिया। उन्होंने उसे पीटा और गोवध कर उसके मुंह में गोमांस ठूंस दिया। यह सुनकर गुरू रामसिंह के शिष्य भड़क गये। उन्होंने उस गांव पर हमला बोल दिया, पर दूसरी ओर से अंग्रेज सेना आ गयी। अतः युद्ध का पासा पलट गया।

इस संघर्ष में अनेक कूका वीर शहीद हुए और 68 पकड़ लिये गये। इनमें से 50 को सत्रह जनवरी 1872 को मलेरकोटला में तोप के सामने खड़ाकर उड़ा दिया गया। शेष 18 को अगले दिन फांसी दी गयी। दो दिन बाद गुरू रामसिंह को भी पकड़कर बर्मा की मांडले जेल में भेज दिया गया। 14 साल तक वहां कठोर अत्याचार सहकर 1885 ई. में उन्होंने अपना शरीर त्याग दिया।

बसंत पंचमी हिन्दी साहित्य की अमर विभूति महाकवि सूर्यकांत त्रिपाठी निरालाका जन्मदिवस (28.02.1899) भी है। निराला जी के मन में निर्धनों के प्रति अपार प्रेम और पीड़ा थी। वे अपने पैसे और वस्त्र खुले मन से निर्धनों को दे डालते थे। इस कारण लोग उन्हंे ‘महाप्राण‘ कहते थे। एक बार नेहरूजी ने शासन की ओर से कुछ सहयोग का प्रबंध किया, पर वह राशि उन्होंने महादेवी वर्मा को भिजवाई। उन्हें भय था कि यदि वह राशि निराला जी को मिली, तो वे उसे भी निर्धनों में बांट देंगे। जहां एक ओर वसंत ऋतु हमारे मन में उल्लास का संचार करती है, वहीं दूसरी ओर यह हमें उन वीरों का भी स्मरण कराती है, जिन्होंने देश और धर्म के लिए अपने प्राणों की बलि दे दी। आइये, इन सबकी स्मृति में नमन करते हुए हम भी वसंत के उत्साह में सम्मिलित हों।

“वैलंटाइंस डे” यानी हमारा “मदनोत्सव”-  14 फरवरी – वेलेंटाइन डे, प्यार करने वालों के लिए सबसे बड़ा दिन जिसे संत वेलेंटाइन की याद में मनाया जाता है। लेकिन इन प्यार के परिंदों को शायद नहीं पता भारत में ”वेलेंटाइन डे” तो भारतवासी हजारों सालों से मना रहे हैं।बसंत पंचमी, वसंतोत्सव, मदनोत्सव… इसकी प्रक्रिया रति और कामदेव यानी क्यूपिड/ वीनस के श्रृंगाररस से भरी है। उस वैलंटाइन के आगाज में हमारे देश में बसंत पंचमी के बाद पूरे दो महीने रहता है, जो असल में प्रेमी-प्रेमिकाओं का ही पर्व है। होली का उत्सव इसका चरमबिन्दु है, जब रस के रसिया का एकाकार हो जाता है।

हमारा वसंतोत्सव या कामदेव और रति के प्यार का उत्सव वैलंटाइन डे भी एक पाश्चात्य देशों से चला पर्व है, जिसकी शुरुआत तीसरी शताब्दी के दरम्यान हुई। जब इटली में रोमन शासक क्लाडियस द्वितीय अपनी सेना के युवा सैनिकों के लिए बहुत ही कठोर अनुशासन का पालन करवाता था। उसके शासन में प्रत्येक युवा को 20 से 30 साल की आयु के दौरान अनिवार्य रूप से सेना में भर्ती होना पड़ता। इस दौरान उनको अपने प्रियजनों सहित पत्नी/ प्रेमिका से मिलने तक की सख्त पाबन्दी थी। वक्त गुजरने के साथ इस पाबंदी का विरोध होने लगा और रोमन चर्च पादरी सेन्ट वैलंटाइन ने 14 फरवरी के इस परम्परा का विरोध करके चर्च में ऐसे जोडों का विवाह करवाना आरंभ कर दिया। उसके बाद सभी सैनिकों और प्रेमी जोड़ों ने इस परम्परा का स्वागत किया और तब से हर साल की 14 फरवरी वैलंटाइंस डे के नाम से विख्यात हो गई और धीरे-धीरे यूरोप से एशिया और दुनिया के अन्य देशों में भी यह दिन प्रेमी दिवस के रूप में प्रचलित हो गया। भारत में इसे पहुंचने में लगभग 1700 साल लगे और अब सभी महानगरों के प्रेमी युगल इस दिन एक-दूसरे को कार्ड उपहार आदि देकर वैलंटाइंस डे मनाते हैं। बाजारों में 15 दिन पहले से सस्ते और मंहगे गिफ्ट सजे रहते हैं और धड़ल्ले से युवा प्रेमी एक-दूसरे के लिए प्रेम का इजहार करने में आगे रहते हैं। यहां पर यह भी निवेदन है कि नकली और असली युवा रस्म आज पूरा बाजार का रूप ले चुका है। पश्चिमी देशों का तो हम नहीं जानते, लेकिन भारतीय परिवेश में वैलंटाइंस डे का लगभग 50 हजार करोड़ के गिफ्ट आइटम्स का बजट है, जो प्यार के देवताओं को अर्पित होता है।

यही परिष्कृत मदनोत्सव का अधिष्ठाता कामदेव को हिंदू शास्त्रों में प्रेम और काम का देवता माना गया है। उनका स्वरूप युवा और आकर्षक है। वह विवाहित हैं और रति उनकी पत्नी हैं। वह इतने शक्तिशाली हैं कि उनके लिए किसी प्रकार के कवच की कल्पना नहीं की गई है। उनके अन्य नामों में रागवृंत, अनंग, कंदर्प, मन्मथ, मनसिजा, मदन, रतिकांत, पुष्पवान, पुष्पधन्वा आदि प्रसिद्ध हैं। कामदेव, हिंदू देवी श्रीलक्ष्मी के पुत्र और कृष्ण के पुत्र प्रद्युम्न का अवतार हैं। कामदेव के आध्यात्मिक रूप को हिंदू धर्म में वैष्णव अनुयायियों द्वारा कृष्ण को भी माना जाता है। जिन्होंने रति के रूप में 16 हजार पत्नियों से महारास रचाया था और व्रजमंडल की सभी गोपियां उनपर न्यौछावर थीं।

देशभर में बसंत पंचमी का त्योहर अलग-अलग अंदाज में कैसे मनाया जाता है-

उत्तराखंड- उत्तराखंड की खासियत है, वहां एक के बाद एक त्योहार सालभर मनाए जाते हैं। बसंत पंचमी के दिन यहां के मंदिर बेहद खूबसूरत ढंग से सजाए जाते हैं। बसंत पंचमी मनाने का अर्थ यहां वसंत तु का स्वागत करना है। यहां धरती मां की पूजा भी की जाती है। जौ, मक्का, गेहूं के बाले घर के दरवाजों, खिड़कियों पर व मंदिर में लगाते हैं और दीए जलाए जाते हैं।

हरियाणा- हरियाणा में पतंग उड़ाकर बसंत पंचमी मनाई जाती है। लहलहाते खेतों की पूजा भी की जाती है।

पश्चिमी बंगाल- बसंत पंचमी को बंगाल में पूरी विधि-विधान से देवी सरस्वती की पूजा करके मनाया जाता है। बंगाल में आज भी अधिकतर बच्चों को इस दिन ही स्कूल में दाखिला दिलाया जाता है। बसंत पंचमी आते ही परीक्षाओं के दिन भी नजदीक आ जाते हैं। इस दिन कॉपी, किताब, कलम आदि की पूजा भी की जाती है। प्राचीनकाल में राजा व शासक इस दिन कवि सम्मेलन आदि कराते थे। पुरस्कार व सम्मान बांटते थे।

पंजाब व उत्तर भारत- पंजाब व उत्तरी भारत में लोग सरसों की फसल के लहलहाते खेत देखकर मग्न हो उठते हैं। पीले फूलों से सजावट की जाती है। पीले फूल एक-दूसरे को भेंट स्वरूप भी दिए जाते हैं। भांगड़ा किया जाता है। ज्यादातर सभी लोग पीले रंग के वस्त्र ही पहनते हैं। मीठे पीले चावल पकाए जाते हैं। कुछ लोग पीले वस्त्र से अपना सिर ढकते हैं, तो कुछ पीला तिलक माथे पर लगाते हैं। केसर हलवा भी बनाया जाता है।

बिहार व उड़ीसा- बिहार व उड़ीसा में इसे सिरा पंचमी कहा जाता है। इस दिन वहां लोग हल की पूजा करते हैं और सर्दी के मौसम के बाद खेती के लिए धरती को तैयार करते हैं।

गुजरात और राजस्थान-  बसंत पंचमी में खास तौर से पतंगों का मेला लगता है। पूरा आकाश अलग-अलग आकार की  रंग-रंगीली पतंगों से भर जाता है। पतंग उड़ाते हुए गाने भी गाए जाते हैं व पतंग उड़ाने की कई प्रतियोगिताएं होती हैं।

आयुर्वेद के अनुसार वसंत ऋतु में कौन सा पकवान और मिष्ठान लाभदायक होता है…

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वसंत का असली आनंद जब वन में से गुजरते हैं तब उठाया जा सकता है। रंग-बिरंगे पुष्पों से आच्छादित वृक्ष….. शीतल एवं मंद-मंद बहती वायु….. प्रकृति मानों, पूरी बहार में होती है। ऐसे में सहज ही प्रभु का स्मरण हो आता है, सहज ही में ध्यानावस्था में पहुँचा जा सकता है। ऐसी सुंदर वसंत ऋतु में आयुर्वेद ने खान-पान में संयम की बात कहकर व्यक्ति एवं समाज की नीरोगता का ध्यान रखा है।

जिस प्रकार पानी अग्नि को बुझा देता है वैसे ही वसंत ऋतु में पिघला हुआ कफ जठराग्नि को मंद कर देता है। इसीलिए इस ऋतु में लाई, भूने हुए चने, ताजी हल्दी, ताजी मूली, अदरक, पुरानी जौ, पुराने गेहूँ की चीजें खाने के लिए कहा गया है। इसके अलावा मूँग बनाकर खाना भी उत्तम है। नागरमोथ अथवा सोंठ डालकर उबाला हुआ पानी पीने से कफ का नाश होता है। देखो, आयुर्वेद विज्ञान की दृष्टि कितनी सूक्ष्म है !

मन को प्रसन्न करें एवं हृदय के लिए हितकारी हों ऐसे आसव, अरिष्ट जैसे कि मध्वारिष्ट, द्राक्षारिष्ट, गन्ने का रस, सिरका आदि पीना इस ऋतु में लाभदायक है।

वसंत में आने वाला होली का त्यौहार पर मुख्य मिठाईयां- गुजिया, गुलाब जामुन, तिल के लड्डू, शकरपारे, कलाकंद बालूशाही, कांजी बड़े

ठंडाई- ठंडाई ऐसा पेय पदार्थ है जो कि होली का मजा दुगुना कर देता हैं। ठंडाई को कई तरह से बनाया जा सकता हैं। इसमें बादाम, पिस्ताह, केसर, गुलाब की पत्तियों और कई मसालों को आराम से मिक्सा किया जा सकता है। ठंडाई में खरबूजे के बीज भी मिलाए जा सकते हैं ये ठंडाई का मजा दुगुना कर देते हैं। ठंडाई को बनाने में विशष बात है कि आप चाहे तो ठंडाई के पाउडर को पहले ही तैयार कर सकते हैं और जब भी ठंडाई बनानी हो तो ठंडे दूध में इसे मिलाकर सर्व किया जा सकता है।

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ज्येष्ठ और आषाढ़ ‘ग्रीष्म ऋतु’ के मास हैं। इसमें सूर्य उत्तरायण की ओर बढ़ता है। ग्रीष्म ऋतु प्राणीमात्र के लिए कष्टकारी अवश्य है, पर तप के बिना सुख-सुविधा को प्राप्त नहीं किया जा सकता। यह ऋतु अंग्रेजी कैलेंडर अनुसार giphy (1).gifमई और जून में रहती है।

मादक वसन्त का अन्त होते ही ग्रीष्म की प्रचंडता आरम्भ हो जाती है। वसन्त ऋतु काम से, ग्रीष्म क्रोध से सम्बन्धित है। ग्रीष्म ऋतु, भारतवर्ष की छह ऋतओं में से एक ऋतु है, जिसमें वातावरण का तापमान प्रायः उच्च रहता है। दिन बड़े हो जाते हैं रातें छोटी।  शीतल सुंगधित पवन के स्थान पर गरम-गरम लू चलने लगती है। धरती जलने लगती है। नदी-तलाब सूखने लगते हैं। कमल कुसुम मुरझा जाते हैं। दिन बड़े होने लगते हैं। सर्वत्र अग्नि की वर्षा होती-सी प्रतीत होती है। शरद ऋतु का बाल सूर्य ग्रीष्म ऋतु को प्राप्त होते ही भगवान शंकर की क्रोधाग्नि-सी बरसाने लगा है। ज्येष्ठ मास में तो ग्रीष्म की अखंडता और भी प्रखर हो जाती है। छाया भी छाया ढूंढने लगती है।–

बैठी रही अति सघन वन पैठी सदन तन माँह

देखी दुपहरी जेठ की छाँहों चाहती छाँह।।

ग्रीष्म की प्रचंडता का प्रभाव प्राणियों पर पड़े बिना नहीं रहता। शरीर में स्फूर्ति का स्थान आलस्य ले लेता है। तनिक-सा श्रम करते ही शरीर पसीने से सराबोर हो जाता है। कण्ठ सूखने लगता है। अधिक श्रम करने पर बहुत थकान हो जाती है। इस मौसम में यात्रा करना भी दूभर हो जाता है। यह ऋतु प्रकृति के सर्वाधिक उग्र रुप की द्योतक है।

भारत में सामान्यतया 15 मार्च से 15 जून तक ग्रीष्म मानी जाती है। इस समय तक सूर्य भूमध्य रेखा से कर्क रेखा की ओर बढ़ता है, जिससे सम्पूर्ण देश में तापमान में वृद्धि होने लगती है। इस समय सूर्य के कर्क रेखा की ओर अग्रसर होने के साथ ही तापमान का अधिकतम बिन्दु भी क्रमशः दक्षिण से उत्तर की ओर बढ़ता जाता है और मई के अन्त में देश के उत्तरी-पश्चिमी भाग में 48डिग्री सेल्सियस तक पहुंच जाता है। उत्तर पश्चिमी भारत के शुष्क भागों में इस समय चलने वाली गर्म एवं शुष्क हवाओं को ‘लू’ कहा जाता है। राजस्थान, पंजाब, हरियाणा तथा पश्चिमी उत्तर प्रदेश में प्रायः शाम के समय धूल भरी आँधियाँ आती है, जिनके कारण दृश्यता तक कम हो जाती है। धूल की प्रकृति एवं रंग के आधार पर इन्हें काली अथवा पीली आंधियां कहा जाता है। सामुद्रिक प्रभाव के कारण दक्षिण भारत में इन गर्म पवनों तथा आंधियों का अभाव पाया जाता है।

त्योहार- ग्रीष्म माह में अच्छा भोजन और बीच-बीच में व्रत करने का प्रचलन रहता है। इस माह में निर्जला एकादशी, वट सावित्री व्रत, शीतलाष्टमी, देवशयनी एकादशी और गुरु पूर्णिमा आदि त्योहार आते हैं। गुरु पूर्णिमा के बाद से श्रावण मास शुरू होता है और इसी से ऋतु परिवर्तन हो जाता है और वर्षा ऋतु का आगमन हो जाता है।

रीतिकालीन कवियों में सेनापति का ग्रीष्म ऋतु वर्णन अत्यन्त प्रसिद्ध है।–

वृष को तरनि तेज सहसौं किरन करि

ज्वालन के जाल बिकराल बरखत हैं।

तचति धरनिजग जरत झरनिसीरी

छाँह को पकरि पंथी पंछी बिरमत हैं॥

सेनापति नैकु दुपहरी के ढरतहोत

धमका विषमजो नपात खरकत हैं।

मेरे जान पौनों सीरी ठौर कौ पकरि कोनों

घरी एक बैठी कहूँ घामैं बितवत हैं॥

रासो काव्य रचनाकार ‘अब्दुल रहमान’ द्वारा लिखी गई सन्देश रासक में षड्ऋतुवर्णन ग्रीष्म से प्रारम्भ होता है…

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ग्रीष्म शब्द ग्रसन से बना है। ग्रीष्म ऋतु में सूर्य अपनी किरणों द्वारा पृथ्वी के रस को ग्रस लेता है।

भागवत पुराण में ग्रीष्म ऋतु में कृष्ण द्वारा कालिया नाग के दमन की कथा आती है जिसको उपरोक्त आधार पर समझा जा सकता है । भागवत पुराण का द्वितीय स्कन्ध सृष्टि से सम्बन्धित है जिसकी व्याख्या अपेक्षित है।

शतपथ ब्राह्मण में ग्रीष्म का स्तनयन/गर्जन से तादात्म्य कहा गया है जिसकी व्याख्या अपेक्षित है।

जैमिनीय ब्राह्मण 2.51 में वाक् या अग्नि को ग्रीष्म कहा गया है ।

तैत्तिरीय संहिता में ग्रीष्म ऋतु यव प्राप्त करती है। तैत्तिरीय ब्राह्मण में ग्रीष्म में रुद्रों की स्तुति का निर्देश है। तैत्तरीय संहिता में ऋतुओं एवं मासों के नाम बताये गये है,जैसे :- बसंत ऋतु के दो मास- मधु माधवग्रीष्म ऋतु के शुक्र-शुचिवर्षा के नभ और नभस्यशरद के इष ऊर्जहेमन्त के सह सहस्य और शिशिर ऋतु के दो माह तपस और तपस्य बताये गये हैं।

चरक संहिता में कहा गया हैः …… शिशिर ऋतु उत्तम बलवाली, वसन्त ऋतु मध्यम बलवाली और ग्रीष्म ऋतु दौर्बल्यवाली होती है। ग्रीष्म ऋतु में गरम जलवायु पित्त एकत्र करती है। प्रकृति में होने वाले परिवर्तन शरीर को प्रभावित करते हैं। इसलिए व्यक्ति को साधारण रूप से भोजन तथा आचार-व्यवहार के साथ प्रकृति और उसके परिवर्तनों के साथ सामंजस्य स्थापित करना चाहिए । तापमान बढ़ने पर पित्त उत्तेजित होता है तथा शरीर में जमा हो जाता है। व्याधियों से बचाव के लिए ऋतु के अनुकूल आहार तथा गतिविधियों का पालन जरूरी है।

होलिकोत्सव में सरसों के चूर्ण से उबटन लगाने की परंपरा है, ताकि ग्रीष्म ऋतु में त्वचा की सुरक्षा रहे। आदिकाल से उत्तर भारत में जहाँ तेज गर्मी होती है, गरम हवाएँ चलती हैं वहाँ पर त्वाचा की लाली के शमन के लिए प्राय: लोग सरसों के बीजों के उबटन का प्रयोग करते हैं।

नवरात्री दुर्गा पूजा वर्ष में दो बार आती है। यह जलवायु प्रधान पर्व है। अतः एक बार यह पर्व ग्रीष्म काल आगमन में राम नवरात्रि चैत्र (अप्रैल मई) के नाम से जाना जाता है। दूसरी बार इसे दुर्गा नवरात्रि अश्विन(सितम्बर-अकतूबर) मास में मनाया जाता है। यह समय शीतकाल के आरम्भ का होता है। यह दोनो समय ऋतु परिवर्तन के है।

प्रकृति-चित्रण में बिहारी किसी से पीछे नहीं रहे हैं। षट ॠतुओं का उन्होंने बड़ा ही सुंदर वर्णन किया है। ग्रीष्म ॠतु का चित्र देखिए –

कहलाने एकत बसत अहि मयूर मृग बाघ।

जगत तपोतन से कियोदरिघ दाघ निदाघ।।

कालिदास ने अभिज्ञानशाकुन्तलम् और ऋतुसंहार में ग्रीष्म ऋतु का वर्णन किया है-

अभिज्ञानशाकुन्तलम्- नाटक के प्रारम्भ में ही ग्रीष्म-वर्णन करते हुए लिखा कि वन-वायु के पाटल की सुगंधि से मिलकर सुगंधित हो उठने और छाया में लेटते ही नींद आने लगने और दिवस का अन्त रमणीय होने के द्वारा नाटक की कथा-वस्तु की मोटे तौर पर सूचना दे दी गई है, जो क्रमशः पहले शकुन्तला और दुष्यन्त के मिलन, उसके बाद नींद-प्रभाव से शकुन्तला को भूल जाने और नाटक का अन्त सुखद होने की सूचक है।

ऋतुसंहार में महाकवि कालिदास कहते हैं- प्रथम सर्ग के ग्रीष्म ऋतु के वर्णन में गीतिकार अपनी प्रियतमा को प्यार भरा सम्बोधन कर कहता है। प्रिये देखो, यह घोर गर्मी का मौसम है। इस ऋतु में सूर्य बहुत ही प्रचण्ड हो जाता है, -चन्द्र किरणें सुहानी लगती हैं, जल में स्नान करना भला लगता है। सांयकाल बड़ा रमणीयहो जाता है क्योंकि उस समय सूर्य का ताप नहीं सताता ! काम भावना भी प्रायः शिथिल पड़ जाता है। संभवतः इस सन्दर्भ में युवा कवि की यह सूचना रही हो कि ऋतु राजबसन्त में कामोद्रेक द्विगुणित हो जाता है।

गर्मी की रात में चन्द्र किरणों से रात्रि की कालिमा क्षी हो जाने से चाँदनी राते बहुत ही सुहावनी लगती है। ऐसे ही उष्पकाल में जिन भवनों में जल यन्त्र (फब्बारे) लगे रहते हैं, वे भी अति मनोरम लगते हैं । ठण्डक देने वाले चन्द्रकान्त मणि और सरस चन्दन का सेवन अति सुखकर लगता है। ग्रीष्म की चाँदनी रातों में धवल भवनों की छतों पर सुख से सोई ललनाओं के मुखों की कालि को देखकर चन्द्रमा बहुत ही उत्कण्ठित हो जाता है और रात्रि समाप्ति की वेला में  उनकी सुन्दरता से लजा कर फीका पड़ जाता है।

ग्रीष्म ऋतु में मयूर, सूर्य के आतप से इतने परितप्त हो जाते है कि अपने पंखों की छाया में धूप निवारण के लिए आ छिपे सॉपों को भी नहीं खाते, जबकि यह सर्प उनके भक्ष्य जंगल में फैली हुयी दावाग्नि का भी सरस चित्रण कवि करता है । पर्वत की गुफाओं में हवा का जोर पकड़कर दवानल बढ़ रहा है। सूखे बॉसों में चर-चर की आवाज आ रही है क्योकि जलने से ये शब्द करते है । जो अभभ दूर थी वहीं दावाग्नि सूखे तिनकों में फैलकर बढ़ती ही जाती है । इसी तरह से इधर-उधर घूमने वाले हरेषों को व्याकुल कर देती है। इस तरह से कवि ने प्रथम सर्ग में ग्रीष्म ऋतु का हृदय हारी वर्णन किया है ।

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ज्येष्ठ की गर्मी- ज्येष्ठ हिन्दू पंचांग का तीसरा मास है। ज्येष्ठ या जेठ माह गर्मी का माह है। इस महीने में बहुत गर्मी पडती है। फाल्गुन माह में होली के त्योहार के बाद से ही गर्मियाँ प्रारम्भ हो जाती हैं। चैत्र और बैशाख माह में अपनी गर्मी दिखाते हुए ज्येष्ठ माह में वह अपने चरम पर होती है। ज्येष्ठ गर्मी का माह है। इस माह जल का महत्त्व बढ जाता है। इस माह जल की पूजा की जाती है और जल को बचाने का प्रयास किया जाता है। प्राचीन समय में ऋषि मुनियों ने पानी से जुड़े दो त्योहारों का विधान इस माह में किया है-

ज्येष्ठ शुक्ल दशमी को गंगा दशहरा

ज्येष्ठ शुक्ल एकादशी को निर्जला एकादशी

इन त्योहारों से ऋषियों ने संदेश दिया कि गंगा नदी का पूजन करें और जल के महत्त्व को समझें। गंगा दशहरे के अगले दिन ही निर्जला एकादशी के व्रत का विधान रखा है जिससे संदेश मिलता है कि वर्ष में एक दिन ऐसा उपवास करें जिसमें जल ना ग्रहण करें और जल का महत्त्व समझें। ईश्वर की पूजा करें। गंगा नदी को ज्येष्ठ भी कहा जाता है क्योंकि गंगा नदी अपने गुणों में अन्य नदियों से ज्येष्ठ(बडी) है। ऐसी मान्यता है कि नर्मदा और यमुना नदी गंगा नदी से बडी और विस्तार में ब्रह्मपुत्र बड़ी है किंतु गुणों, गरिमा और महत्त्व की दृष्टि से गंगा नदी बड़ी है। गंगा की विशेषता बताता है ज्येष्ठ और ज्येष्ठ के शुक्ल पक्ष की दशमी गंगा दशहरा के रूप में गंगा की आराधना का महापर्व है।

निर्जला एकादशी- भीषण गर्मी के बीच तप की पराकाष्टा को दर्शाता है यह व्रत। इसमें दान-पुण्य एवं सेवा भाव का भी बहुत बड़ा महत्व शास्त्रों में बताया गया है।  ज्येष्ठ मास के शुक्ल पक्ष की एकादशी निर्जला एकादशी कहलाती है। अन्य महीनों की एकादशी को फलाहार किया जाता है, परंतु इस एकादशी को फल तो क्या जल भी ग्रहण नहीं किया जाता। यह एकादशी ग्रीष्म ऋतु में बड़े कष्ट और तपस्या से की जाती है। अतः अन्य एकादशियों से इसका महत्व सर्वोपरि है। इस एकादशी के करने से आयु और आरोग्य की वृद्धि तथा उत्तम लोकों की प्राप्ति होती है। महाभारत के अनुसार अधिक माससहित एक वर्ष की छब्बीसों एकादशियां न की जा सकें तो केवल निर्जला एकादशी का ही व्रत कर लेने से पूरा फल प्राप्त हो जाता है।

वृषस्थे मिथुनस्थेऽर्के शुक्ला ह्येकादशी भवेत्‌

ज्येष्ठे मासि प्रयत्रेन सोपाष्या जलवर्जिता।

नवतपा- नवतपा को ज्येष्ठ महीने के ग्रीष्म ऋतु में तपन की अधिकता का द्योतक माना जाता है। सूर्य के रोहिणी नक्षत्र में प्रवेश करने के साथ नवतपा शुरू हो जाता है। शुक्ल पक्ष में आर्द्रा नक्षत्र से लेकर 9 नक्षत्रों में 9 दिनों तक नवतपा रहता है। नवतपा में तपा देने वाली भीषण गर्मी पड़ती है। नवतपा में सूर्यदेव लोगों के पसीने छुड़ा देते हैं। पारा एक दम से 48 डिग्री पर पहुंच जाता है। जबकि न्यूनतम तापमान 32 डिग्री तक रहता है। लेकिन नवतपा के बाद एक अच्छी खबर आती है आर्द्रा के 10 नक्षत्रों तक जिस नक्षत्र में सबसे अधिक गर्मी पड़ती है, आगे चलकर उस नक्षत्र में 15 दिनों तक सूर्य रहते हैं और अच्छी वर्षा होती है।

राग दीपक- ग्रीष्म की जलविहीन शुष्क ऋतु में भी कलाकार की रचनाधर्मिता जागृत रहती है। संगीतकार इस उष्ण वातावरण को राग दीपक के स्वरों में प्रदर्शित करता है तो चित्रकार रंग तथा तूलिका के माध्यम से राग दीपक को चित्र में साकार करता है। भारतीय मान्यताओं के अनुसार राग के गायन के ऋतु निर्धारित है । सही समय पर गाया जाने वाला राग अधिक प्रभावी होता है । राग और उनकी ऋतु इस प्रकार है –

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तानसेन और राग दीपक- परिवर्तन ही प्रकृति का नियम है। ग्रीष्म की तपन के पश्चात आकाश में छाने लगते हैं – श्वेत-श्याम बादलों के समूह तथा संदेश देते हैंजन-जन में प्राणों का संचार करने वाली बर्षा ऋतु के आगमन का। आकाश में छायी श्यामल घटाओं तथा ठंडी-ठंडी बयार के साथ झूमती आती है जन-जन को रससिक्त करतीजीवन दायिनी वर्षा की प्रथम फुहार। वर्षा की सहभागिनी ग्रीष्म की उष्णता आकाश से जल बिंदुओं के रूप में पुन: धरती पर अवतरित होती है किंतु अपने नवीन मनमोहक रूप में। उष्ण वातावरण के कारण घिर आये मेघ तत्पश्चात जीवनदान करती वर्षा का प्रसंग एक किवदंती में प्राप्त होता है जिसके अनुसार बादशाह अकबर ने दरबार में गायक तानसेन से ग्रीष्म ऋतु का राग दीपक‘ सुनने का अनुरोध किया। तानसेन के स्वरों के साथ वातावरण में ऊष्णता व्याप्त होती गयी। सभी दरबारीगण तथा स्वयं तानसेन भी बढ़ती गरमी को सहन नहीं कर पा रहे थे। लगता थाजैसे सूर्य देव स्वयं धरती पर अवतरित होते जा रहे हैं। तभी कहीं दूर से राग मेघ के स्वरों के साथ मेघ को आमंत्रित किया जाने लगा। जल वर्षा के कारण ही गायक तानसेन की जीवन रक्षा हुई। 

आयुर्वेद के अनुसार ग्रीष्म ऋतु में कौन सा पकवान और मिष्ठान लाभदायक होता है…

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वसंत ऋतु की समाप्ति के बाद ग्रीष्म ऋतु का आगमन होता है। अप्रैल, मई तथा जून के प्रारंभिक दिनों का समावेश ग्रीष्म ऋतु में होता है। इन दिनों में सूर्य की किरणें अत्यंत उष्ण होती हैं। इनके सम्पर्क से हवा रूक्ष बन जाती है और यह रूक्ष-उष्ण हवा अन्नद्रव्यों को सुखाकर शुष्क बना देती है तथा स्थिर चर सृष्टि में से आर्द्रता, चिकनाई का शोषण करती है। इस अत्यंत रूक्ष बनी हुई वायु के कारण, पैदा होने वाले अन्न-पदार्थों में कटु, तिक्त, कषाय रसों का प्राबल्य बढ़ता है और इनके सेवन से मनुष्यों में दुर्बलता आने लगती है। शरीर में वातदोष का संचय होने लगता है। अगर इन दिनों में वातप्रकोपक आहार-विहार करते रहे तो यही संचित वात ग्रीष्म के बाद आने वाली वर्षा ऋतु में अत्यंत प्रकुपित होकर विविध व्याधियों को आमंत्रण देता है। आयुर्वेद चिकित्सा-शास्त्र के अनुसार ‘चय एव जयेत् दोषं।’ अर्थात् दोष जब शरीर में संचित होने लगते हैं तभी उनका शमन करना चाहिए। अतः इस ऋतु में मधुर, तरल, सुपाच्य, हलके,जलीय, ताजे, स्निग्ध, शीत गुणयुक्त पदार्थों का सेवन करना चाहिए। जैसे कम मात्रा में श्रीखंड, घी से बनी मिठाइयाँ, आम, मक्खन, मिश्री आदि खानी चाहिए। इस ऋतु में प्राणियों के शरीर का जलीयांश कम होता है जिससे प्यास ज्यादा लगती है। शरीर में जलीयांश कम होने से पेट की बीमारियाँ, दस्त, उलटी, कमजोरी, बेचैनी आदि परेशानियाँ उत्पन्न होती हैं। इसलिए ग्रीष्म ऋतु में कम आहार लेकर शीतल जल बार-बार पीना हितकर है।

आहारः ग्रीष्म ऋतु में साठी के पुराने चावलगेहूँदूधमक्खनगुलाब का शरबत, आमपन्ना से शरीर में शीतलतास्फूर्ति तथा शक्ति आती है। सब्जियों में लौकीगिल्कीपरवलनींबूकरेलाकेले के फूलचौलाईहरी ककड़ीहरा धनिया,पुदीना और फलों में द्राक्षतरबूजखरबूजाएक-दो-केलेनारियलमौसमीआमसेबअनारअंगूर का सेवन लाभदायी है। इस ऋतु में तीखे, खट्टे, कसैले एवं कड़वे रसवाले पदार्थ नहीं खाने चाहिए। नमकीन, रूखा, तेज मिर्च-मसालेदार तथा तले हुए पदार्थ, बासी एवं दुर्गन्धयुक्त पदार्थ, दही, अमचूर, आचार, इमली आदि न खायें। गरमी से बचने के लिए बाजारू शीत पेय (कोल्ड ड्रिंक्स), आइस क्रीम, आइसफ्रूट, डिब्बाबंद फलों के रस का सेवन कदापि न करें। इनके सेवन से शरीर में कुछ समय के लिए शीतलता का आभास होता है परंतु ये पदार्थ पित्तवर्धक होने के कारण आंतरिक गर्मी बढ़ाते हैं। इनकी जगह कच्चे आम को भूनकर बनाया गया मीठा पनापानी में नींबू का रस तथा मिश्री मिलाकर बनाया गया शरबतजीरे की शिकंजीठंडाईहरे नारियल का पानीफलों का ताजा रसदूध और चावल की खीरगुलकंद आदि शीत तथा जलीय पदार्थों का सेवन करें। इससे सूर्य की अत्यंत उष्ण किरणों के दुष्प्रभाव से शरीर का रक्षण किया जा सकता है।

 

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श्रावण और भाद्रपद ‘वर्षा ऋतु’ के मास हैं। वर्षा नया जीवन लेकर आती है। मोर के पांव में नृत्य बंध जाता है। संपूर्ण giphy (2).gifश्रावण माह में उपवास रखा जाता है। इस ऋतु के तीज, रक्षाबंधन और कृष्ण जन्माष्टमी सबसे बड़े त्योहार हैं।

 

वर्षा ऋतु आषाढ़, श्रावण तथा भादो मास में मुख्य रूप से होती है। जून माह से शुरू होने वाली वर्षा ऋतु हमें अप्रैल और मई की भीषण गर्मी से राहत दिलाती है। यह मौसम भारतीय किसानों के लिए बेहद ही हितकारी एवं महत्वपूर्ण है।

1 जून के करीब केरल तट और अंडमान निकोबार द्वीप समूह में मानसून सक्रिय हो जाता है। हमारे देश में वर्षा ऋतु के अमूमन तीन या चार महीने माने गए हैं। दक्षिण में ज्यादा दिनों तक पानी बरसता है यानी वहां वर्षा ऋतु ज्यादा लंबी होती है जबकि जैसे-जैसे हम दक्षिण से उत्तर की ओर जाते हैं तो वर्षा के दिन कम होते जाते हैं।

वर्षा का महत्व : वर्षा का मानव जीवन में बेहद ही महत्व है क्योंकि पानी के बिना जीवन संभव नहीं है।  वर्षा से फसलों के लिए पानी मिलता है तथा सूखे हुए कुएं, तालाबों तथा नदियों को फिर से भरने का कार्य वर्षा के द्वारा ही किया जाता है। इसीलिए कहा जाता है कि जल ही जीवन है।  इस मौसम में छोटे-छोटे जीव-जंतु जो गर्मी के मारे जमीन के नीचे छिप जाते हैं, बाहर निकल जाते हैं। मेंढ़क की टर्र-टर्र की आवाज सुनाई पड़ने लगती है। आकाश में प्राय: बादल छाए रहते हैं। वर्षा ऋतु का आनंद लेने के लिए लोग पिकनिक मनाते हैं। गांवों में सावन के झूलों पर युवतियां झूलती हैं। वर्षा ऋतु में ही रक्षा बंधन, तीज आदि त्योहार आते हैं। इस ऋतु में अनेक बीमारियां भी फैल जाती हैं।

वेदों में वर्षा ऋतु से सम्बंधित अनेक सूक्त हैं- जैसे पर्जन्य सूक्त ( ऋग्वेद 7/101,102 सूक्त), वृष्टि सूक्त (अथर्ववेद 4/12) एवं प्राणसूक्त (अथर्ववेद 11/4 ) मंडूक सूक्त (ऋग्वेद 7/103 सूक्त) आदि।

पर्जन्य सूक्त मेघ के गरजने, सुखदायक वर्षा होने एवं सृष्टि के फलने-फूलने का सन्देश देता हैं।  जबकि मंडूक सूक्त वर्षा ऋतु में मनुष्यों के कर्तव्यों का प्रतिपादन करता हैं।

ऋग्वेद में वर्षा ऋतु को उत्सव मानकर शस्यश्यामला प्रकृति के साथ अपनी हार्दिक प्रसन्नता की अभिव्यक्ति की गयी है –

ब्राह्मणासो अतिरात्रे न सोमे सरो न पूर्णमभितो वर्दन्तः।।

संवत्सरस्य तदहः परि छु यन्मण्डूकाः प्रावृषीण बभूव।।

अर्थात् जिस दिन पहली वर्षा होती हैउस दिन मेढक सरोवरों के पूर्ण रूप से भर जाने की कामना से चारों ओर बोलते हैंइधर-उधर स्थिर होते हैंउसी प्रकार हे ब्राह्मणों ! तुम भी रात्रि के अनन्तर ब्राह्म-मुहूर्त में जिस समय सौम्य-वृद्धि होती हैउस समय वेदध्वनि से परमेश्वर के यज्ञ का वर्णन करते हुए वर्षा-ऋतु के आगमन को उत्सव की तरह मनाओ।

वर्षा ऋतु के साथ श्रावणी पर्व का आगमन होता है- इस पर्व में मनुष्यों को वेद का पाठ करने का विधान हैं।  इस पर्व में वेदाध्ययन को वर्षा आरम्भ होने पर मौन पड़े मेंढक जैसे प्रसन्न होकर ध्वनि करते है। वेद कहते है कि हे वेदपाठी ब्राह्मण वर्षा आरम्भ होने पर वैसे ही अपना मौन व्रत तोड़कर वेदों  सम्भाषण आरम्भ करे। मंडूक सूक्त के प्रथम मन्त्र का सन्देश ईश्वर के महत्त्व गायन से वर्षा का स्वागत करने का सन्देश हैं। इस सूक्त के अगले चार मन्त्रों में सन्देश दिया गया है कि गर्मी के मारे सुखें हुए मंडूक वर्धा होने पर तेज ध्वनि निकालते हुए एक दूसरे के समीप जैसे जाते हैं वैसे ही हे मनुष्यों तुम भी अपने परिवार के सभी सदस्यों, सम्बन्धियों, मित्रों, अनुचरों आदि के साथ संग होकर वेदों का पाठ करों। जब सभी समान मन्त्रों से एक ही पाठ करेंगे तो सभी की ध्वनि एक से होगी। सभी के विचार एक से होंगे। सभी के आचरण भी श्रेष्ठ बनेंगे।

वर्षा काल के इस समय को चातुर्मास‘  भी कहा जाता है क्‍योंकि वर्षा ऋतु चार माह का होता है। जैन प्रथा में आषाढ़ी पूर्णिमा से कार्तिक पूर्णिमा तक का समय ‘चातुर्मास‘ कहलाता है जबकी वैदिक प्रथा में आषाढ़ से आसोज तक का समय ‘चातुर्मास‘ कहलाता है। ‘चातुर्मास‘ का समय आत्म-वैभव को पाने और अध्यात्म की फसल उगाने की दृष्टि से  अच्‍छा माना जाता है। इसी कारण से अविरल पदयात्रा करने वाले साधु-संत भी इस समय एक जगह स्थिर प्रवास करते हैं और उन्‍हीं की प्रेरणा से धर्म जागरण में वृद्धि होती है।

मनुस्मृति और मत्स्य पुराण में कहा गया है कि साधु-संन्यासी जन गरमी और सर्दी की  ऋतुओं के आठ महीनों में अविरल पदयात्रा करते रहेंलेकिन सब प्राणियों की दया हेतु वर्षा ऋतु में एकत्र निवास करें।

प्राचीन समय में चातुर्मास की स्थापना के चार उद्देश्य माने जाते थे -आत्म विकास, धर्म का प्रचार, विशिष्ट साधना और क्षेत्रीय स्थिति। साधना का आदि बिंदु है जिज्ञासा। नई जिज्ञासा के बिना आत्मज्ञान में एक प्रकार का ठहराव आ जाता है। वह समाज के लिए शुभ नहीं, कष्टकर हो जाता है। जैसे वर्षों तक एक ही कक्षा में रहने वाला विद्यार्थी एबनॉर्मल माना जाता है। वैसे ही, वर्षों तक धर्म की उपासना करने वाला श्रावक समाज यदि धार्मिकता की पहली-दूसरी कक्षा को भी पार न कर सके, तो उसकी धार्मिकता पर प्रश्न खड़े होते हैं। जहां कुछ व्यक्ति सामूहिक रूप से ध्यान, साधना, तपोयोग या मंत्र अनुष्ठान करना चाहें, उन्हें चातुर्मास का उपहार प्राप्त हो सकता है। जिस क्षेत्र की स्थिति विषम हो, जनता अशांति, अराजकता या अत्याचारी शासक की क्रूरता की शिकार हो, उसके समाधान के लिए भी समता के प्रतीक साधु-साध्वियों का चातुर्मास करवाया जाता था। क्योंकि संत वस्तुतः वही होता है, जो औरों को शांति प्रदान करे।

रामायण के किष्किंधाकाण्ड में वर्षा ऋतु का वर्णन है-

कहत अनुज सन कथा अनेका। भगति बिरत नृपनीति बिबेका॥

बरषा काल मेघ नभ छाए। गरजत लागत परम सुहाए॥4॥

भावार्थ : श्री राम छोटे भाई लक्ष्मणजी से भक्ति, वैराग्य, राजनीति और ज्ञान की अनेकों कथाएँ कहते हैं। वर्षाकाल में आकाश में छाए हुए बादल गरजते हुए बहुत ही सुहावने लगते हैं॥4॥

महाबृष्टि चलि फूटि किआरीं। जिमि सुतंत्र भएँ बिगरहिं नारीं॥

कृषी निरावहिं चतुर किसाना। जिमि बुध तजहिं मोह मद माना॥4॥

भावार्थ : भारी वर्षा से खेतों की क्यारियाँ फूट चली हैं, जैसे स्वतंत्र होने से स्त्रियाँ बिगड़ जाती हैं। चतुर किसान खेतों को निरा रहे हैं (उनमें से घास आदि को निकालकर फेंक रहे हैं।) जैसे विद्वान्‌ लोग मोह, मद और मान का त्याग कर देते हैं॥4॥

देखिअत चक्रबाक खग नाहीं। कलिहि पाइ जिमि धर्म पराहीं॥

ऊषर बरषइ तृन नहिं जामा। जिमि हरिजन हियँ उपज न कामा॥5॥

भावार्थ : चक्रवाक पक्षी दिखाई नहीं दे रहे हैं, जैसे कलियुग को पाकर धर्म भाग जाते हैं। ऊसर में वर्षा होती है, पर वहाँ घास तक नहीं उगती। जैसे हरिभक्त के हृदय में काम नहीं उत्पन्न होता॥5॥

दादुर धुनि चहु दिसा सुहाई। बेद पढ़हिं जनु बटु समुदाई॥

नव पल्लव भए बिटप अनेका। साधक मन जस मिलें बिबेका॥1॥

भावार्थ : चारों दिशाओं में मेंढकों की ध्वनि ऐसी सुहावनी लगती है, मानो विद्यार्थियों के समुदाय वेद पढ़ रहे हों। अनेकों वृक्षों में नए पत्ते आ गए हैं, जिससे वे ऐसे हरे-भरे एवं सुशोभित हो गए हैं जैसे साधक का मन विवेक (ज्ञान) प्राप्त होने पर हो जाता है॥1॥

समिटि समिटि जल भरहिं तलावा। जिमि सदगुन सज्जन पहिं आवा॥

सरिता जल जलनिधि महुँ जोई। होइ अचल जिमि जिव हरि पाई॥4॥

भावार्थ : जल एकत्र हो-होकर तालाबों में भर रहा है, जैसे सद्गुण (एक-एककर) सज्जन के पास चले आते हैं। नदी का जल समुद्र में जाकर वैसे ही स्थिर हो जाता है, जैसे जीव श्री हरि को पाकर अचल (आवागमन से मुक्त) हो जाता है॥4॥

बरषहिं जलद भूमि निअराएँ। जथा नवहिं बुध बिद्या पाएँ।

बूँद अघात सहहिं गिरि कैसे। खल के बचन संत सह जैसें॥2॥

भावार्थ : बादल पृथ्वी के समीप आकर (नीचे उतरकर) बरस रहे हैं, जैसे विद्या पाकर विद्वान्‌ नम्र हो जाते हैं। बूँदों की चोट पर्वत कैसे सहते हैं, जैसे दुष्टों के वचन संत सहते हैं॥2॥

लछिमन देखु मोर गन नाचत बारिद पेखि।

गृही बिरति रत हरष जस बिष्नुभगत कहुँ देखि॥13

भावार्थ : (श्री रामजी कहने लगे-) हे लक्ष्मण! देखो, मोरों के झुंड बादलों को देखकर नाच रहे हैं जैसे वैराग्य में अनुरक्त गृहस्थ किसी विष्णुभक्त को देखकर हर्षित होते हैं॥13॥

तुलसीदास रामचरितमानस में एक चौपाई मंडूक सूक्त से सम्बन्ध में आती है-

दादुर धुनि चहु दिसा सुहाई। बेद पढ़हिं जनु बटु समुदाई॥

नव पल्लव भए बिटप अनेका। साधक मन जस मिलें बिबेका॥ -किष्किन्धा काण्ड

अर्थात वर्षा का वर्णन में श्रीराम जी लक्ष्मण को कहते हैं- वर्षा में मेंढको की ध्वनी इस तरह सुनाई देती है जैसे बटुकसमुदाय ( ब्रह्मचारीगण) वेद पढ़ रहे हों। पेड़ों पर नए पत्ते निकल आये है। एक साधक योगी के मन को यह विवेक देने वाला हैं।

शतपथ ब्राह्मण में कथित है कि प्रजापति ने आदित्य से चक्षु को तत्पश्चात् चक्षु द्वारा वर्षा को बनाया। वर्षा की व्युत्पत्ति देते हुए ‘निरुक्त’ में वर्णित है कि इनमें बादल बरसता है, इसीलिए वर्षा नाम पड़ा। वस्तुतः वर्षा ऋतु नभ और नभस्य नामक मासों पर आधारित मानी गई है और इन मासों का स्वभाव है बरसना।

तैत्तिरीय संहिता (१.१.१४) के भट्ट्टभास्कर भाष्य तथा वाजसनेयी संहिता (७.३०) के उवट भाष्य में कथित है कि

“नभ – नह्यति बध्नाति जन्तूनिति नभः।

नभस्य – न भातीति नभः।

अथवा

“नभ और नभस्य – नह्यन्न सूर्यो भाति मेघप्रचुरत्वात् तस्मान्नभो नभस्यश्च।

अर्थात् जिस काल में मेघों की प्रचुरता होती हैवह काल वर्षा ऋतु के नाम से जाना जाता है। वस्तुत: शतपथ ब्राह्मण में वर्षा ऋतु के विषय में सबसे अधिक वर्णन मिलता है। यहाँ वाक्यों में उसकी वास्तविक

स्थितिउसकी रूप-रेखा तथा स्थिति आदि पर विस्तार से चर्चा की गई है।

सर्वप्रथम वर्षा ऋतु की स्थिति को अन्तरिक्ष में बताया गया है। तत्पश्चात् उसके स्वरूप का वर्णन करते हुए जल को इसका वास्तविक स्वरूप कहा गया है। अभिप्राय यह है कि जिस प्रकार वसन्त ऋतु में चारों ओर सुगन्ध का, ग्रीष्म ऋतु में उष्णता का एहसास होता है, उसी प्रकार वर्षा ऋतु का स्वरूप जल से ही बनता है। इस विषय में कहा गया है कि वर्षा ऋतु में जो वर्षा आती है, वह अग्नि से बनती है, अर्थात् अग्नि के प्रज्वलित होने से भाप बनती है, जिससे काले-काले मेघ बनते हैं और इस प्रकार वर्षा होती है।

इस प्रकार यहाँ विज्ञान के वाष्पीकरण नामक विख्यात नियम की ओर ध्यान आकर्षित करने का प्रयास किया गया है। शतपथ ब्राह्मण में वर्षा ऋतु की रूप-रेखा इस प्रकार दी गई है – वर्षा अग्नि है, संवत्स, समिधा, बिजली लौ, बादल धुआँ, चमक अंगारा, गरज चिंगारियाँ है।

आज भी जब-जब वर्षा- काल आता है तो यह स्थिति सामान्यतया देखने को मिलती है-

बादल, गरज, चमक, बिजली, बारिश।  जिस ऋतु में सूर्य की किरणें आर्द्र वायु को लेकर ऊष्मा के बल पर वाष्प बनाकर बरसना प्रारम्भ कर देती हैं, उस काल को वर्षा काल कहा जाता है। शतपथ के वाक्यों में वर्षा के जल का माहात्म्य भी देखने को मिलता है। यहाँ कथित है कि जल की स्वाभाविक विशेषता यह है कि वह शान्ति पहुँचाता है।

अतः वर्षा के जल को पवित्र, स्वच्छ, शुद्ध एवं वज्र की तरह ऋतु-विज्ञान । शतपथ ब्राह्मण के सन्दर्भ में कठोर एवं तेज समझना चाहिए, जो हमारी बुराई को काट भी देता है और धो भी देता है।

पाश्चात्य विद्वान् जे. गोंडा ने भी अपने ग्रन्थ ‘मन्त्र इंटरप्रिटेशन इन द शतपथ ब्राह्मण’ में वर्षा के जल के महत्त्व का कथन किया है। इस प्रकार यहाँ वर्षा के जल को धर्मानुकूल कहकर उसके महत्त्व को प्रतिपादित किया गया है।

ऋतुसंहार के द्वितीय सर्ग में कवि वर्षा ऋतु का वर्णन करता है- कवि कहता है कि वर्षा का मौसम कामी जनों को प्रिय होता है। वर्षा का मौसम एक राजसी ठाठ-आट से आता प्रतीत होता है । राजा का वाहन यदि हाथी होता है तो वर्षाकाल का वाहन मेघ है। राजा के आगे-आगे ध्वज पताकायें फहराती हैं तो यहाँ बिजली की पताकाएं फहराती है। राजा की यात्रा में नगाड़े बजते हैं तो यहाँ वज्रपात के शब्द नगाड़े का काम करते हैं। वर्षा ऋतु का पवन जो कदम्ब, सर्ज, अर्जुन, केतकी वृक्षों को झकझोरता है। वन उनके पुष्पों के सौरभ से सुगन्धित है! मेघों के सीकरों से शीतल है । वह किसे सुहावना नहीं लगता। अन्त में कवि कहता है वर्षा काल अनेक गुणों से चिताकर्षक होता है। अंगनाओं में चित का हरण करने वाला है। वृक्ष लता वल्लरी, वृक्ष आदि का मित्र है और प्रेमियों का जैसे प्राण ही है।

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कालिदास ने मेघदूत‘ में बादलों और वर्षा ऋतु का जितना खूबसूरत वर्णन किया है वैसा शायद ही किसी ने किया हो-  कालीदास ने मेघ का यक्ष के शब्दों में बखूबी वर्णन किया है. यक्ष बादलों से कहता है, हे मेघ जब तुम आकाश में उमड़ते हुए उठोगे तो प्रवासी पथिकों की स्त्रियां मुंह पर लटकते हुए घुंघराले बालों को ऊपर फेंककर इस आशा से तुम्‍हारी ओर टकटकी लगाएंगी कि अब प्रियतम अवश्‍य आते होंगे. तुम्‍हारे घुमड़ने पर कौन-सा जन विरह में व्‍याकुल अपनी पत्‍नी के प्रति उदासीन रह सकता हैयदि उसका जीवन मेरी तरह पराधीन नहीं है?..”

वहीं बारिश होने के बाद क्या-क्या होगा इसका बहुत खूबसूरत वर्णन किया गया है. बरसात होने पर क्या होगा इसके बारे में यक्ष बताता है, ”पुष्पित कदम्ब को भ्रमर मस्त होकर देख रहे होंगेपहला जल पाकर मुकुलित कन्दली को हरिण खा रहे होंगे और गज प्रथम वर्षाजल के कारण पृथिवी से निकलने वाली गन्ध सूंघ रहे होंगे-इस प्रकार भिन्न-भिन्न यिाओं को देखकर मेघ के गमन मार्ग का स्वत:अनुमान हो जाता है. प्रकृति से मनुष्य का घनिष्ठ सम्बन्ध है. यही कारण है कि वह मनुष्य के अंतकरण को प्रभावित करती है. 

यक्ष पहाड़ों से निकलने वाले बादल का बहुत खूबसूरत वर्णन करता है और कहता है जब काले बादल उन पहाड़ों में दिखते हैं तो कृष्‍ण की छवी बन जाती है. यक्ष कहता है, ” हे मेघ जब तुम उन पहाड़ों से निकलोगे तो तुम्‍हारा सांवला शरीर और भी अधिक खिल उठेगाजैसे झलकती हुई मोरशिखा से गोपाल वेशधारी कृष्‍ण का शरीर सज गया था.

वर्षा ऋतु का इतंजार सबसे ज्यादा किसानों को होता है और इसको बखूबी कालीदास ने यक्ष के जरिए बताया है. यक्ष बादलों से माल क्षेत्र के पठारी (बुन्देलखंड) के इलाकों पर बरसने को कहता है जहां किसान ने फसल बोने के लिए जोती हुई खेत में बरसात का पानी गिरने का इंतजार कर रहा हो. यक्ष कहते हैं, हे मेघ..खेती का फल तुम्‍हारे अधीन है – इस उमंग से ग्राम-बधूटियां भौंहें चलाने में भोलेपर प्रेम से गीले अपने नेत्रों में तुम्‍हें भर लेंगी. माल क्षेत्र के ऊपर इस प्रकार उमड़-घुमड़कर बरसना कि हल से तत्‍काल खुरची हुई भूमि गन्‍धवती हो उठे.

यक्ष मेघ को उत्‍तर दिशा उज्जैन के महलो में ठहरने को कहते हैं और साथ ही कहते हैं कि बरसात में उस नागर की स्त्रियों के नेत्रों की चंचलता को न देखा तो ठगा हुआ महसूस करोगे. वह कहते हैं, ” उज्‍जयिनी के महलों की ऊंची अटारियों की गोद में बिलसने से विमुख न होना. बिजली चमकने से चकाचौंध हुई वहां की नागरी स्त्रियों के नेत्रों की चंचल चितवनों का सुख तुमने न लूटा तो समझना कि ठगे गए. वहां घरों के पालतू मोर भाईचारे के प्रेम से तुम्‍हें नृत्‍य का उपहार भेंट करेंगे. वहां फूलों से सुरभित महलों में सुन्‍दर स्त्रियों के महावर लगे चरणों की छाप देखते हुए तुम मार्ग की थकान मिटाना.

इस तरह कालीदास के मेघदूत के पहले भाग ”पूर्वमेघ” में बादलों का खूबसूरत वर्णन किया गया है. वहीं इस खण्ड काव्य के दूसरे भाग ”उत्तरमेघ” में यक्ष के संदेश का वर्णन है।

आयुर्वेद के अनुसार वर्षा ऋतु में कौन सा पकवान और मिष्ठान लाभदायक होता है…a11.jpg

वर्षा ऋतु में वायु का विशेष प्रकोप तथा पित्त का संचय होता है। वर्षा ऋतु में वातावरण के प्रभाव के कारण स्वाभाविक ही जठराग्नि मंद रहती है, जिसके कारण पाचनशक्ति कम हो जाने से अजीर्ण, बुखार, वायुदोष का प्रकोप, सर्दी,खाँसी, पेट के रोग, कब्जियत, अतिसार, प्रवाहिका, आमवात, संधिवात आदि रोग होने की संभावना रहती है। इन रोगों से बचने के लिए तथा पेट की पाचक अग्नि को सँभालने के लिए आयुर्वेद के अनुसार उपवास तथा लघु भोजन हितकर है। इसलिए हमारे आर्षदृष्टा ऋषि-मुनियों ने इस ऋतु में अधिक-से-अधिक उपवास का संकेत कर धर्म के द्वारा शरीर के स्वास्थ्य का ध्यान रखा है। इस ऋतु में जल की स्वच्छता पर विशेष ध्यान दें। जल द्वारा उत्पन्न होने वाले उदर-विकार, अतिसार, प्रवाहिका एवं हैजा जैसी बीमारियों से बचने के लिए पानी को उबालें, आधा जल जाने पर उतार कर ठंडा होने दें, तत्पश्चात् हिलाये बिना ही ऊपर का पानी दूसरे बर्तन में भर दें एवं उसी पानी का सेवन करें। जल को उबालकर ठंडा करके पीना सर्वश्रेष्ठ उपाय है। आजकल पानी को शुद्ध करने हेतु विविध फिल्टर भी प्रयुक्त किये जाते हैं। उनका भी उपयोग कर सकते हैं। पीने के लिए और स्नान के लिए गंदे पानी का प्रयोग बिल्कुल न करें क्योंकि गंदे पानी के सेवन से उदर व त्वचा सम्बन्धी व्याधियाँ पैदा हो जाती हैं।

आहारः इस ऋतु में वात की वृद्धि होने के कारण उसे शांत करने के लिए मधुर, अम्ल व लवण रसयुक्त, हलके व शीघ्र पचने वाले तथा वात का शमन करने वाले पदार्थों एवं व्यंजनों से युक्त आहार लेना चाहिए। सब्जियों में मेथी, सहिजन, परवल,लौकी, सरगवा, बथुआ, पालक एवं सूरन हितकर हैं।

सेवफलमूँगगरम दूधलहसुनअदरकसोंठअजवायनसाठी के चावलपुराना अनाजगेहूँचावलजौखट्टे एवं खारे पदार्थदलियाशहदप्याजगाय का घीतिल एवं सरसों का तेलमहुए का अरिष्टअनारद्राक्ष का सेवन लाभदायी है।

मालपूएगुलगुलेकसार जैसे स्वादिस्ट पकवान विशेष रूप से त्यौहारोंवर्षा ऋतु अथवा सावन के महीनों में बनाए जाते थे

 

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शरद उत्तर भारत की सबसे मनोहर ऋतु है। बारिश का मौसम समाप्त होने के बाद शरद ऋतु का आगमन होता है। इस ऋतु में प्रकृति का सौंदर्य काफी निराला होता है। इसकी छटा देखते ही बनती है। इसमें आकाश निर्मल हो जाता tenor.gifहै। नदियों का जल (आज भी) स्वच्छ हो जाता है। रेल से यात्रा करें तो रेलवे लाइन से लगे-सटे गड्डों पोखरों में कुमुदिनी खिली हुए दिखलाई पड़ेंगी। खिलती रात में हैं लेकिन दिन में दस-ग्यारह बजे तक खिली रहती हैं। इसी ऋतु में हारसिंगार खिलता है। निराला ने लिखा है, ‘झरते हैं चुंबन गगन के।’

  • आश्विन और कार्तिक शरद् ऋतु के दो मास होते हैं । इस ऋतु में सूर्य पिंगल और उष्ण होता है । आकाश निर्मल और कहीं-कहीं श्वेत वर्ण मेघ युक्त होता है । सरोवर कमलों सहित हंसों से शोभायमान होते हैं । सूखी भूमि चीटियों से भर जाती है ।
  • वर्षा काल में भूमिस्थ जल में अनेक प्रकार के खनिज पदार्थ मिल जाते हैं । मल, मूत्र, कीट, कृमि उनका मल-मूत्र सब कुछ जल में आकर मिल जाता है । इसे निर्विष करने के लिए सूर्य की जीवाणु नाशक प्रखर किरणें, चन्द्रमा की अमृतमय किरणें और हवा आवश्यक है तथा यह सब शरद् ऋतु में प्राप्त होती है ।
  • शरद् ऋतु में रातें ठण्डी और सुहावनी हो जाती है। वन कुमुद और मालती के फूलों से सुशोभित होते हैं। अनगिनत तारों की चमक और चन्द्रमा की चांदनी से रात्रि का अन्धकार दूर हो जाता है । संसार ऐसा लगता है। मानों दूध के सागर में स्नान कर रहा हो ।
  • शरद् ऋतु के सुहावने मौसम में ऐसा कोई सरोवर नहीं है जिस में सुन्दर कमल न हों, ऐसा कोई पंकज नहीं है जिस पर भ्रमर नहीं बैठा हो, ऐसा कोई भौंरा नहीं है जो गूंज न रहा हो । ऐसी कोई भनभनाहट और पक्षियों का कलरव नहीं जो मन न हर रहा हो । कहने का तात्पर्य यह है कि शरद् ऋतु में कमल खिले हुए है, कमलों पर बैठे हुए भौरों की रसीली गूंज मनुष्यों के चित्त को चुरा रही हैं ।
  • इस ऋतु में दिन और रात का तापमान प्राय: सामान्य होता है । आलस्य के स्थान पर शरीर में चुस्ती और कार्य करने का उत्साह बढ़ जाता है । फल और सब्जियों की बहार आ जाती है । विभिन्न पदार्थ खाने को दिल करता है । चेहरे पर खुशी और जीवन में प्रसन्नता आ जाती है ।
  • शरद् ऋतु अपने साथ कई त्यौहार लाती है । जैसे- दशहरा और दीपावली । इसमें लोग मिठाइयां और नाना प्रकार के व्यंजन खाते और खिलाते हैं । खुशियां मनाते हुए इस त्यौहार को विदा करते हैं । इतने में कार्तिक पूर्णिमा का स्नान आता है । इसके साथ ही शरद् ऋतु की समाप्ति, हेमन्त के आगमन को सूचित करती है ।

शरद पूर्णिमा की रात को चंद्रमा का पूजन कर खीर का भोग लगाया जाता है, जिससे आयु बढ़ती है व चेहरे पर कान्ति आती है एवं शरीर स्वस्थ रहता है। शरद पूर्णिमा को रातभर पात्र में चंद्रमा की रोशनी में रखी खीर सुबह खाई जाती है। शरद पूर्णिमा की मनमोहक सुनहरी रात में वैद्यों द्वारा जड़ी बूटियों से औषधि का निर्माण किया जाता है।

त्योहार- श्राद्ध पक्ष, नवरात्रि, दशहरा, करवा चौथ। इस ऋतु में ही शारदीय नवरात्रि की धूम रहती है। जगह-जगह उत्सव का माहौल रहता है। इस ऋतु के अन्य व्रत और उत्सव- छठ पूजा, गोपाष्टमी, अक्षय नवमी, देवोत्थान एकादशी, बैकुंठ चतुर्दशी, कार्तिक पूर्णिमा,उत्पन्ना एकादशी, विवाह पंचमी, स्कंद षष्ठी आदि व्रत-त्योहार भी आते हैं। आषाढ़ शुक्ल एकादशी को भगवान विष्णु क्षीरसागर में चार मास के लिए योगनिद्रा में लीन हो जाते हैं। कार्तिक शुक्ल एकादशी को चातुर्मास संपन्न होता है और इसी दिन भगवान अपनी योग निद्रा से जागते हैं। भगवान के जागने की खुशी में ही देवोत्थान एकादशी का व्रत इसी ऋतु में संपन्न होता है।

ऋग्वेद में शरद ऋतु का वर्णन करते हुए कहा गया है-

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तुलसीदासजी ने रामचरितमानस में शरद ऋतु का गुणगान करते हुए लिखा है- पंचवटी में श्रीराम-लक्ष्मण से शरदागम का वर्णन करते हुए कहते हैं:

बरषा बिगत सरद ऋतु आई। लछिमन देखहु परम सुहाई॥

फूलें कास सकल महि छाई। जनु बरषाँ कृत प्रगट बुढ़ाई॥

अर्थात- हे लक्ष्मण! देखो वर्षा बीत गई और परम सुंदर शरद ऋतु आ गई। फूले हुए कास से सारी पृथ्वी छा गई। मानो वर्षा ऋतु ने कास रूपी सफेद बालों के रूप में अपना वृद्घापकाल प्रकट किया है। वृद्घा वर्षा की ओट में आती शरद नायिका ने तुलसीदास के साथ कवि कुल गुरु कालिदास को भी इसी अदा में बाँधा था। ऋतु संहारम के अनुसार लो आ गई यह नव वधू-सी शोभतीशरद नायिका! कास के सफेद पुष्पों से ढँकी इस श्वेत वस्त्रा का मुख कमल पुष्पों से ही निर्मित है और मस्त राजहंसी की मधुर आवाज ही इसकी नुपूर ध्वनि है। पकी बालियों से नतधान के पौधों की तरह तरंगायित इसकी तन-यष्टि किसका मन नहीं मोहती।

जानि सरद ऋतु खंजन आए।

पाइ समय जिमि सुकृत सुहाए॥

अर्थात- शरद ऋतु जानकर खंजन पक्षी आ गए। जैसे समय पाकर सुंदर सुकृत आ जाते हैं अर्थात पुण्य प्रकट हो जाते हैं। बसंत के अपने झूमते-महकते सुमनइठलाती-खिलती कलियाँ हो सकती हैं। गंधवाही मंद बयारभौंरों की गुंजरित-उल्लासित पंक्तियाँ हो सकती हैंपर शरद का नील धवलस्फटिक-सा आकाशअमृतवर्षिणी चाँदनी और कमल-कुमुदिनियों भरे ताल-तड़ाग उसके पास कहाँसंपूर्ण धरती को श्वेत चादर में ढँकने को आकुल ये कास-जवास के सफेद-सफेद ऊर्ध्वमुखी फूल तो शरद संपदा है। पावस मेघों के अथक प्रयासों से धुले साफ आसमान में विरहता चाँद और उससे फूटतीधरती की ओर भागती निर्बाधनिष्कलंक चाँदनी शरद के ही एकाधिकार हैं। शरद में वृष्टि थम जाती है। मौसम सुहावना हो जाता हैं। दिन सामान्य तो रात्रि में ठंडक रहती है। शरद को मनोहारी और स्वस्थ ऋतु मानते हैं। प्रायः अश्विन मास में शरद पूर्णिमा के आसपास शरद ऋतु का सौंदर्य दिखाई देता है।[1]

शरद पूर्णिमा और महारास

शास्त्रों में शरद ऋतु को अमृत संयोग ऋतु भी कहा जाता है, क्योंकि शरद की पूर्णिमा को चन्द्रमा की किरणों से अमृत की वर्षा का संयोग उपस्थित होता है। वही सोम चन्द्र किरणें धरती में छिटक कर अन्न-वनस्पति आदि में औषधीय गुणों को सींचती है।

आश्विन शुक्ल पक्ष पूर्णिमा यानी शरद पूर्णिमा के दिन यमुना के तट पर भगवान श्रीकृष्ण ने गोपियों के साथ महारास किया था। श्रीमद्भागवत के दशम स्कन्द में रास पंचाध्यायी में भगवान श्रीकृष्ण द्वारा इसी शरद पूर्णिमा को यमुना पुलिन में गोपिकाओं के साथ महारास के बारे में बताया गया है। मनीषियों का मानना है कि जो श्रद्धालु इस दिन चन्द्रदर्शन कर महारास का स्वाध्याय, पाठ, श्रवण एवं दर्शन करते हैं उन्हें हृदय रोग नहीं होता साथ ही जिन्हें हृदय रोग की संभावना हो गई हो उन्हें रोग से छुटकारा मिल जाता है। रास पंचाध्यायी का आखिरी श्लोक इस बात की पुष्टि भी करता है।

विक्रीडितं व्रतवधुशिरिदं च विष्णों:

श्रद्धान्वितोऽनुुणुयादथवर्णयेघः

भक्तिं परां भगवति प्रतिलभ्य कामं

हृद्रोगमाश्वहिनोत्यचिरेण धीरः

वस्तुतः समस्त रोग कामनाओं से उत्पन्न होते हैं जिनका मुख्य स्थान हृदय होता है। मानव अच्छी-बुरी अनेक कामनाएं करता है। उनको प्राप्त करने की उत्कृष्ट इच्छा प्रकट होती है। इच्छा पूर्ति न होने पर क्रोध-क्षोभ आदि प्रकट होने लगता है। वह सीधे हृदय पर ही आघात करता है।

गीता में भगवान श्री कृष्ण ने शरद पूर्णिमा के चंद्रमा के लिए कहा है-

पुष्णामि चौषधी: सर्वा: सोमो भूत्वा रसात्मक:।।

रसस्वरूप अर्थात् अमृतमय चन्द्रमा होकर सम्पूर्ण औषधियों को अर्थात् वनस्पतियों को मैं पुष्ट करता हूं।

ऋतुसंहार में महाकवि कालिदास कहते हैं- तृतीय सर्ग में शरद् ऋतु का चित्रण है- गीतकार शरद् को नववधु की तरह चित्रितकरता है। वह कहता है, प्रिये, देखो, अपने रूप सौन्दर्य से रमणीय नववधू की तरह यह शरद आ गई फूले हुए कांस के फूल ही इसकी साड़ी है ! सरोवर में खिले हुये कमल इसका सुन्दर मुखे है, और हँसों की आवाजें ही इसके नुपूरों की रूनझुना है। पके हुए धनके पौधे के तरह यह गोरी है, और लचकदार शरीर वाली है। प्यारी इस ऋतु में कांस पुष्पों से पूरी पृथ्वी सफेद दिख रही है, रातें चन्द्र किरणों से धवल कान्ति वाली हैं, हंसों के द्वारा सरिताओं का जल उज्जवल है, सरोवर प्रफुल्ल कुमुद के फूलों से श्वेताभ दिख रहे है । वनभाग सप्तच्छद के फूलों से और उपवन मालती पुष्पों सेश्वेतता लिए हुए है। वर्षाकाल चला गया है । मयूरों का नृत्य अब नहीं दिखाई पड़ता, उसके स्थान पर अब सावलि शोभित हो रही है। वर्षा में फूलने वाले कदम्ब, कुटज आदि तरूओं की शोभा अब क्षीण प्राय है। अब उसके स्थान पर सप्तच्छद वृक्षों में पुष्प सौन्दर्य बिखर रहा है ।

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शरद ऋतु में काव्य खिलता है

शरद उत्तर भारत की सबसे मनोहर ऋतु है। इसमें आकाश निर्मल हो जाता है। नदियों का जल (आज भी) स्वच्छ हो जाता है। रेल से यात्रा करें तो रेलवे लाइन से लगे-सटे गड्डों पोखरों में कुमुदिनी खिली हुए दिखलाई पड़ेंगी। खिलती रात में हैं लेकिन दिन में दस-ग्यारह बजे तक खिली रहती हैं। इसी ऋतु में हारसिंगार खिलता है। निराला ने लिखा है, ‘झरते हैं चुंबन गगन के।’ सबसे विशिष्ट शरदकालीन वातावरण का रोमांचक स्पर्श होता है। अब आप से पूछूं कि आपको समकालीन कवियों की लिखी हुई कोई कविता (जाहिर है आपको अच्छी ही कविता याद आएगी) शरद के सौंदर्य पर याद आ रही है, अगर ऐसी कोई दुर्लभ कविता खोजने पर मिल भी जाए तो वह दुर्लभ ही होगी। क्या नए कवियों को शरद का सौंदर्य प्रभावित नहीं करता?  क्या समकालीन कविता ने आस-पास के जीवन जगत को सहज मन से देखना बंद कर दिया है? रीतिकाल को हिंदी साहित्य में उत्कृष्ट साहित्य सृजन के लिए बहुत अच्छा काल नहीं माना जाता। कहते हैं कि वो दरबारी काल था।

फिर भी उस काल के सहृदय कवि सेनापति ने लिखा है-

कातिक की रात थोरी-थोरी सिहरात,

सेनापति को सुहात सुखी जीवन के गन हैं

फूली है कुमुद फूली मालती सघन बन

मानहुं जगत छीर सागर मगन है

 

शरद चाँदनी!-सुमित्रानंदन पंत…

शरद चाँदनी!

विहँस उठी मौन अतल

नीलिमा उदासिनी!

आकुल सौरभ समीर

छल छल चल सरसि नीर,

हृदय प्रणय से अधीर,

जीवन उन्मादिनी!

आयुर्वेद के अनुसार शरद ऋतु में कौन सा पकवान और मिष्ठान लाभदायक होता है…

भाद्रपद एवं आश्विन ये शरद ऋतु के दो महीने हैं। शरद ऋतु स्वच्छता के बारे में सावधान रहने की ऋतु है अर्थात् इस मौसम में स्वच्छता रखने की खास जरूरत है। रोगाणाम् शारदी माताः। अर्थात् शरद ऋतु रोगों की माता है। शरद ऋतु में स्वाभाविक रूप से ही पित्तप्रकोप होता है। इससे इन दो महीनों में ऐसा ही आहार एवं औषधी लेनी चाहिए जो पित्त का शमन करे। मध्याह्न के समय पित्त बढ़ता है। तीखे नमकीन, खट्टे, गरम एवं दाह उत्पन्न करने वाले द्रव्यों का सेवन, मद्यपान, क्रोध अथवा भय, धूप में घूमना, रात्रि-जागरण एवं अधिक उपवास – इनसे पित्त बढ़ता है। दही, खट्टी छाछ, इमली, टमाटर, नींबू, कच्चे आम, मिर्ची, लहसुन, राई, खमीर लाकर बनाये गये व्यंजन एवं उड़द जैसी चीजें भी पित्त की वृद्धि करती हैं। इस ऋतु में पित्तदोष की शांति के लिए ही शास्त्रकारों द्वारा खीर खाने, घी का हलवा खाने तथा श्राद्धकर्म करने का आयोजन किया गया है। इसी उद्देश्य से चन्द्रविहार, गरबा नृत्य तथा शरद पूर्णिमा के उत्सव के आयोजन का विधान है। गुड़ एवं घूघरी (उबाली हुई ज्वार-बाजरा आदि) के सेवन से तथा निर्मल, स्वच्छ वस्त्र पहन कर फूल, कपूर, चंदन द्वारा पूजन करने से मन प्रफुल्लित एवं शांत होकर पित्तदोष के शमन में सहायता मिलती है।

गुड़ का शीराधृतकुमारी (एलोए वेरा) या तिल की मिठाइयां शरद ऋतु में लाभदायक हैं-

शरदपूनम की शीतल रात्रि छत पर चन्द्रमा की किरणों में रखी हुई दूध-पोहे अथवा दूध-चावल की खीर सर्वप्रियपित्तशामकशीतल एवं सात्त्विक आहार है। इस रात्रि में ध्यानभजनसत्संगकीर्तनचन्द्रदर्शन आदि शारीरिक व मानसिक आरोग्यता के लिए अत्यंत लाभदायक है।

 

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प्राचीनकाल से शरद पूर्णिमा को बेहद महत्वपूर्ण पर्व माना जाता है। शरद पूर्णिमा से हेमंत ऋतु की शुरुआत होती है। IMG_20190101_074739-ANIMATION.gifशीत ऋतु दो भागों में विभक्त है। हल्के गुलाबी जाड़े को हेमंत ऋतु का नाम दिया गया है और तीव्र तथा तीखे जाड़े को शिशिर। यह दिसंबर से लगभग 15 जनवरी तक रहती है। यह ऋतु हिन्दू माह के मार्गशीर्ष और पौष मास मास के बीच रहती है। इस ऋतु में शरीर प्राय: स्वस्थ रहता है। पाचनशक्ति बढ़ जाती है।

भारत में छःप्रकार की ऋतुएँ पाई जाती हैं, जो कि संसार के किसी अन्य भागों में नहीं होती- (1) ग्रीष्म (2) वर्षा (3) शरद् (4) हेमन्त (5) शिशिरएवं (6) बसन्त ऋतु। वैसे तो अधिकांश ग्रंथों के अनुसार ऋतुओं की इतनीही संख्या है, किन्तु कुछ ग्रंथों में ऋतु की संख्या तीन अथवा पांच भी बताईगई है क्योंकि उन्होंने हेमन्त तथा शिशिर ऋतु को एक ही माना है।’

  • दोनों ऋतुओं ने हमारी परंपराओं को अनेक रूपों में प्रभावित किया है। हेमंत ऋतु अर्थात मार्गशीर्ष और पौष मास में वृश्चिक और धनु राशियां संक्रमण करती हैं। वसंत, ग्रीष्म और वर्षा देवी ऋतु हैं तो शरद, हेमंत और शिशिर पितरों की ऋतु हैं।
  • हेमंत ऋतु में कार्तिक, अगहन और पौष मास पड़ेंगे तो कार्तिक मास में करवा चौथ, धनतेरस, रूप चतुर्दशी, दीपावली, गोवर्धन पूजा, भाई दूज आदि तीज-त्योहार पड़ेंगे, वहीं कार्तिक स्नान पूर्ण होकर दीपदान होगा।
  • कार्तिक शुक्ल प्रबोधिनी एकादशी पर तुलसी विवाह होगा और चातुर्मास की समाप्ति होगी, तो बैकुंठ चतुर्दशी पर हरिहर मिलन भी इसी मास में होगा।
  • अगहन अर्थात मार्गशीर्ष मास में गीता जयंती, दत्त जयंती आएगी। पौष मास में हनुमान अष्टमी, पार्श्वनाथ जयंती आदि के अलावा रविवार को सूर्य उपासना का विशेष महत्व है।
  • हेमंत ऋतु में कार्तिक, अगहन और पौष मास पड़ेंगे। कार्तिक मास में करवा चौथ, धनतेरस, रूप चतुर्दशी, दीपावली, गोवर्धन पूजा, भाई दूज आदि तीज-त्योहार पड़ेंगे, वहीं कार्तिक स्नान पूर्ण होकर दीपदान होगा।

इस ऋतु के वर्णन में तो कवि लोग श्रृंगार के विविध चित्र ही प्रस्तुत करते रहे हैं। षट्ऋतुओं का वर्णन करते समय हेमन्त को अपेक्षाकृत कम स्थान ही मिला है,क्योंकि प्राकृतिक जगत् के सौन्दर्य में इसी ऋतु में भारी कमी आती है। इस काल का शीतही संयोग के लिए बाध्य करता है। रात्रि को बढ़ना संयोगी जनों के लिए सुखद है। उसकादु:ख तो केवल चकवा-चकवी को ही है। इस ऋतु ने सभी को काम के वशीभूत कर दिया कयौ सबै जगु काम बस, जीते जिते अजेइ।कुसुम सरहिं सर धनुष कर अगहनु गहन न देई।

महाकवि कालिदास की मेघदूत कविता पर हरिवंशराय बच्चन ने कहा है – हो धरणि चाहे शरद की, चाँदनी में स्नान करती। वायु ऋतु हेमंत की, चाहे गगन में विचरती। मैं स्वयं बन मेघ जाता… हेमंत में तुषार (पाला) से पूरा वातावरण ढँक जाता है। ठंडी हवाएँ चलना प्रारंभ हो जाती हैं। तापमान गिरने लगता है। दिशाएँ धूल धुसरित होती हैं। सूरज कोहरे से आच्छादित रहता है। प्रियंगु और नागकेसर के वृक्ष फूलने-फलने लगते हैं और हरसिंगार, धतुरा, गेंदा, कचनार, मधुमालती आदि बहार पर होते हैं।

रामायण में लिखा- लक्ष्मण द्वारा राम से हेमन्त ऋतु की ओर संकेत करते समय देखा जा सकता है। लक्ष्मण, राम से कहते है कि इस ऋतु मे अधिक ठण्डक या पाले के कारण लोगों का शरीर रूखा हो जाता है । पृथ्वी पर रबी की खेती लहलहाने लगती है (‘नीहारपुरूषो लोकः पृथिवी सस्यमालिनी/ 3/16/5) । संभवतः इसी ऋतु में प्रायः सभी जनपदों के निवासियों की अन्न प्राप्ति विषयक कामनाएँ प्रचुररूपेण पूर्ण हो जाती थी ।(प्राज्यकामा जनपदाः सम्पन्नतरगोरसा’ / 3/16/7) गोरस भी खूब मात्रा में हुआ करता था ।

शतपथ ब्राह्मण के अनुसार…

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हेमंत आगमन का धार्मिक महत्व : हेमंत ऋतु अर्थात् मार्गशीष और पौष मास में वृश्चिक और धनु राशियाँ संक्रमण करती हैं। बसंत, ग्रीष्म और वर्षा देवी ऋतु हैं तो शरद, हेमंत और शिशिर पितरों की ऋतु है। हेमंत ऋतु में कार्तिक, अगहन और पौष मास पड़ेंगे। कार्तिक मास में करवा चौथ, धनतेरस, रूप चतुर्दशी, दीपावली, गोवर्धन पूजा, भाई दूज आदि तीज-त्योहार पड़ेंगे, वहीं कार्तिक स्नान पूर्ण होकर दीपदान होगा।  इस माह में उज्जैन में महाकालेश्वर की दो सवारी कार्तिक और दो सवारी अगहन मास में निकलेगी। कार्तिक शुक्ल प्रबोधिनी एकादशी पर तुलसी विवाह होगा और चातुर्मास की समाप्ति होगी, तो बैकुंठ चतुर्दशी पर हरिहर मिलन भी इसी मास में होगा। अगहन अर्थात् मार्गशीर्ष मास में गीता जयंती, दत्त जयंती, सोमवती अमावस्या के अलावा काल भैरव तथा आताल-पाताल भैरव की सवारी भी निकलेगी। पौष मास में हनुमान अष्टमी, पार्श्वनाथ जयंती आदि के अलावा रविवार को सूर्य उपासना का विशेष महत्व है।

साहित्यिक उल्लेख

महाकवि कालिदास का अमर ग्रंथ ऋतुसंहारम्‌ छहों ऋतुओं का इतना अनूठा वर्णन कर अमर हो गया कि उसके हजारों अनुवाद विश्व की सैकड़ों भाषाओं में उपलब्ध हैं। ऋतुसंहारम्‌ में महाकवि कालिदास ने हेमंत ऋतु का वर्णन कुछ यूँ किया है-

नवप्रवालोद्रमसस्यरम्यः प्रफुल्लोध्रः परिपक्वशालिः।

विलीनपद्म प्रपतत्तुषारोः हेमंतकालः समुपागता-यम्‌॥

अर्थात- बीज अंकुरित हो जाते हैंलोध्र पर फूल आ चुके हैं धान पक गया और कटने को तैयार हैलेकिन कमल नहीं दिखाई देते हैं और स्त्रियों को श्रृंगार के लिए अन्य पुष्पों का उपयोग करना पड़ता है। ओस की बूँदें गिरने लगी हैं और यह समय पूर्व शीतकाल है। महिलाएँ चंदन का उबटन और सुगंध उपयोग करती हैं। खेत और सरोवर देख लोगों के दिल हर्षित हो जाते हैं।

ऋतुसंहार के चतुर्थ सर्ग में हेमन्त ऋतु वर्णन है- गीतकार ऋतु के नये-नये चित्र प्रस्तुत करता है । वह बोलता है, प्रिये, हेमन्त काल में ठण्डक की वजह से विलासिनी स्त्रियाँ अपने बाहुओं में केयूर और बलय आदि आभूषण नहीं धारण करती, नितम्बों में नवीन वस्त्र एवं पयोघरों पर सूक्ष्म रेशमी वस्त्र धारण नहीं करती । प्रियंगु लता ठण्ड से पक गई है । वह ठण्डी हवा से कॉप रही है और उत्तरोत्तर है। पीली पड़ती जा रही है । यह बेचारी अब विरहणी स्त्री सी पीली हो रही है ।

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राजस्थान में तो लोक मानस जाड़े की अनेक मधुर कल्पनाओं से सुरूचित साहित्य रचता रहा है। राजस्थानी में शीतकाल को सियाला कहते हैं। नायिका सियाले में अकेले नहीं रहना चाहती। वह नायक को परदेश जाने से रोकती है “अकेले मत छोड़ोजी सियाला में।”

रचनाकार मलिक मुहम्मद जायसी ने षट् ऋतु वर्णन खंड में कुछ यूँ कहा है-

ऋतु हेमंत संग पिएउ पियाला।

अगहन पूस सीत सुख-काला॥

धनि औ पिउ महँ सीउ सोहागा।

दुहुँन्ह अंग एकै मिलि लागा।

आयुर्वेद में हेमंत ऋतु को सेहत बनाने की ऋतु कहा गया है। हेमंत में शरीर के दोष शांत स्थिति में होते हैं। अग्नि उच्च होती है इसलिए वर्ष का यह सबसे स्वास्थ्यप्रद मौसम होता है, जिसमें भरपूर ऊर्जा, शरीर की उच्च प्रतिरक्षा शक्ति तथा अग्नि चिकित्सकों को छुट्टी पर भेज देती है। इस ऋतु में शरीर की तेल मालिश और गर्म जल से स्नान की आवश्यकता महसूस होती है। कसरत और अच्छी मात्रा में खठ्ठा-मीठा और नमकीन खाद्य शरीर की अग्नि को बढ़ाते हैं। हेमंत ऋतु में शीत वायु के लगने से अग्नि वृद्घि होती है। चरक ने कहा है-

“शीते शीतानिलस्पर्शसंरुद्घो बलिनां बलीः।

पक्ता भवति…”

शरद के बाद इस ऋतु में मौसम सुहावना होता है। जलवायु अच्छी होती है। तेज धूप से कीड़े-मकोड़ों का संहार हो जाता है। स्वास्थ्य की दृष्टि से यह उत्तम समय होता है। छः-छः मास के दो अयन होते हैं। दक्षिणायन में पावस, शरद और हेमंत ऋतु तथा शिशिर, बसंत तथा ग्रीष्म उत्तरायन की ऋतुएँ हैं।

सेहत बनाने की ऋतु- इसलिए हेमन्त ऋतु में स्निग्ध घी, तैल आदि से युक्त, अम्ल तथा लवण रस युक्त भोज्य प्रदार्थों का एवं दूध से बने पदार्थों का निरन्तर सेवन करना चाहिए। हेमन्त ऋतु में दूध तथा उससे बनने वाले पदार्थ, ईंख से बनने वाले पदार्थ गुड़,खाण्ड आदि, ‌‌‌तेल, घृत, नये चावलों का भात, उड़द की दाल एवं उष्ण जल का सेवन करने वाले मनुष्यों की आयु क्षीण नहीं होती अर्थात्‌ वे दीर्घायु तथा स्वस्थ रहते हैं।

 

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बसंत, ग्रीष्म और वर्षा देवी ऋतु हैं तो शरद, हेमंत और शिशिर पितरों की ऋतु है।  शिशिर में कड़ाके की ठंड पड़ती है। घना कोहरा छाने लगता है। ओस से कण-कण भीग जाता है। दिशाएं धवल और उज्ज्वल हो जाती हैं मानो वसुंधराsource.gif और अंबर एकाकार हो गए हों।

यह ऋतु हिन्दू माह के माघ और फाल्गुन के महीने अर्थात पतझड़ माह में आती है। इस ऋतु में प्रकृति पर बुढ़ापा छा जाता है। वृक्षों के पत्ते झड़ने लगते हैं। चारों ओर कुहरा छाया रहता है। इस ऋतु से ऋतु चक्र के पूर्ण होने का संकेत मिलता है और फिर से नववर्ष और नए जीवन की शुरुआत की सुगबुगाहट सुनाई देने लगती है।

अंग्रेजी माह अनुसार यह ऋ‍तु 15 जनवरी से पूरे फरवरी माह तक रहती है। इस ऋतु में मकर संक्रांति का त्योहार आता है, जो हिन्दू धर्म का सबसे बड़ा त्योहार माना जाता है। इस दिन सूर्य दक्षिणायन से उत्तरायण होना शुरू होता है। 

इस ऋतु में मकर संक्रांति का त्योहार आता है, जो हिन्दू धर्म का सबसे बड़ा त्योहार माना जाता है। इस दिन सूर्य दक्षिणायन से उत्तरायण होना शुरू होता है। इसी ऋतु में हिन्दू मास फाल्गुन कृष्ण चतुर्दशी को महाशिवरात्रि का महापर्व मनाया जाता है।

शिशिर में वातावरण में सूर्य के अमृत तत्व की प्रधानता रहती है तो शाक, फल, वनस्पतियां इस अवधि में अमृत तत्व को अपने में सर्वाधिक आकर्षित करती हैं और उसी से पुष्ट होती हैं। मकर संक्रांति पर शीतकाल अपने यौवन पर रहता है।

ऋतुसंहार में महाकवि कालिदास कहते हैं- पञ्चम सर्ग में कवि शिशिर का हृदयहारी वर्णन करता है- वह कहता है प्रिये जाड़े की ऋतु में चन्दन, जो चन्द्र किरणों की तरह शीतल होता है बिल्कुल अच्छा नहीं लगता। भवनों की छत ठण्डक के कारण सुहावनी नहीं प्रतीत होती। जाड़े की बर्फीली हवा भी नहीं सुहाती। इस शिशिर काल में मीठा भोजन अच्छा लगता है। स्वादिष्ट भाइ, ईख का रस भी सुखकर होता है। इस काल में बिलासिनी की रमजेच्छा बलवती हो जाती है। जिनके पति बाहर हैं ऐसी युवतियों के चित को शिशिर काल व्यथित कर देता है।

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कविशिरोमणि भट्ट मथुरानाथ शास्त्री कहते हैं-

शिशिरे स्वदंते वहितायः पवने प्रवाति!

अर्थात्- शिशिर में ठंढी हवा बहती है, तो आग तापना मीठा लगता है।

ऋग्वेद के अनुसार

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सुश्रुत संहिता के अनुसार

शिशिरे शीते अधिकं वातवृष्टयाकुलादिशा

अर्थात्- शिशिर ऋतु में शीत अधिक होता है दिशाएँ वायु एवं वर्षा से व्याकुल रहती हैं। शेष लक्षण हेमन्त जैसे होते है।

चरक संहिता के अनुसार

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महाकवि श्रीहर्ष  ने अपने संस्कृत महाकाव्य नैषधीयचरित में लिखा है-

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भद्रबाहु संहिता में लिखा है-

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आयुर्वेद के अनुसार शिशिर ऋतु में कौन सा पकवान और मिष्ठान लाभदायक होता है…

शीत ऋतु (दिसंबर-जनवरी) में उपयुक्त आहारa12.jpg

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शीत ऋतु के अंतर्गत हेमंत और शिशिर ऋतु आते हैं। यह ऋतु विसर्गकाल अर्थात् दक्षिणायन काअंतकाल कहलाती है। इस काल में चन्द्रमा की शक्ति सूर्य की अपेक्षा अधिक प्रभावशाली होती है। इसलिए इस ऋतु में औषधियाँ, वृक्ष, पृथ्वी की पौष्टिकता में भरपूर वृद्धि होती है व जीव जंतुभी पुष्ट होते हैं। इस ऋतु में शरीर में कफ का संचय होता है तथा पित्तदोष का नाश होता है। शीत ऋतु में स्वाभाविक रूप से जठराग्नि तीव्र रहती है, अतः पाचन शक्ति प्रबल रहती है। ऐसाइसलिए होता है कि हमारे शरीर की त्वचा पर ठंडी हवा और हवा और ठंडे वातावरण का प्रभावबारंबारपड़ते रहने से शरीर के अंदर की उष्णता बाहर नहीं निकल पाती और अंदर ही अंदर इकट्ठी होकर जठराग्नि को प्रबल करती है। अतः इस समय लिया गया पौष्टिक और बलवर्धक आहार वर्षभर शरीर को तेज, बल और पुष्टि प्रदान करता है। इस ऋतु में एक स्वस्थ व्यक्ति को अपनी सेहतकी तंदरूस्ती के लिए किस प्रकार का आहार लेना चाहिए ? शरीर की रक्षा कैसे करनी चाहिए ? आइये, उसे हम जानें-

शीत ऋतु में खारा तथा मधु रसप्रधान आहार लेना चाहिए।पचने में भारी, पौष्टिकता से भरपूर, गरम व स्निग्ध प्रकृति के घी से बने पदार्थों का यथायोग्य सेवन करना चाहिए। वर्षभर शरीर की स्वास्थ्य-रक्षा हेतु शक्ति का भंडार एकत्रित करने के लिए उड़दपाक, सालमपाक, सोंठपाक जैसेवाजीकारक पदार्थों अथवा च्यवनप्राश आदि का उपयोग करना चाहिए।

मौसमी फल व शाक, दूध, रबड़ी, घी, मक्खन, मट्ठा, शहद, उड़द, खजूर, तिल, खोपरा, मेथी, पीपर, सूखा मेवा तथा चरबी बढ़ाने वाले अन्य पौष्टिक पदार्थ इस ऋतु में सेवन योग्य माने जाते हैं। प्रातः सेवन हेतु रात को भिगोये हुए कच्चे चने (खूब चबाकर खाये), मूँगफली, गुड़, गाजर, केला, शकरकंद, सिंघाड़ा, आँवला आदि कम खर्च में सेवन किये जाने वाले पौष्टिक पदार्थ हैं।

शीत ऋतु में उपयोगी पाक- अदरक पाकखजूर पाकबादाम पाकमेथी पाकसूंठी पाकअंजीर पाकअश्वगंधा पाक

शीतकाल में पाक का सेवन अत्यंत लाभदायक होता है। पाक के सेवन से रोगों को दूर करने में एवं शरीर में शक्ति लाने में मदद मिलती है। स्वादिष्ट एवं मधुर होने के कारण रोगी को भी पाक का सेवन करने में उबान नहीं आती। पाक में डाली जाने वाली काष्ठ-औषधियों एवं सुगंधित औषधियों का चूर्ण अलग-अलग करके उन्हें कपड़छान कर लेना चाहिए। किशमिश, बादाम, चारोली, खसखस, पिस्ता, अखरोट, नारियल जैसी वस्तुओं के चूर्ण को कपड़छन करने की जरूरत नहीं है। उन्हें तो थोड़ा-थोड़ा कूटकर ही पाक में मिला सकते हैं।

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दिल्ली मेरी जान… पढ़े दिल्ली की अनसुनी दास्तां

क्या आप अपनी दिल्ली को जानते है!!! नहीं??? तो यहां पढ़ें… देश के दिल ‘दिल्ली’ की पूरी कहानी…delhi.jpg

‘दिल्ली’ भारत की आधुनिक राजधानी है। गुप्तकाल से दिल्ली सल्तनत तक और फिर मुगल शासन से लेकर ब्रिटिश साम्राज्य तक के विस्तार की कहानी है दिल्ली। लाल कोट और तुगलकाबाद की चारदीवारी से शाहजहांनाबाद की शान-ओ-शौकत है दिल्ली। अंग्रेजी हुकूमत के वास्तुशिल्प और गगनचुंबी इमारतों की दास्तां है दिल्ली।

दक्षिण पश्चिम में अरावली पहाड़ियों से लेकर पूर्व में कल-कल बहती यमुना नदी तक दिल्ली की सशक्त ऐतिहासिक पृष्ठभूमि रही है। यहां भारतीय इतिहास के कुछ सर्वाधिक शक्तिशाली शासकों ने शासन किया है। जो समय-समय पर इसका विस्तार करते रहे हैं। दिल्ली के इतिहास का एक सिरा महाकाव्य महाभारत के समय तक जाता है, जब पांडवों ने इंद्रप्रस्थ का निर्माण किया था। तब से लेकर अब तक दिल्ली ने अनेक राजाओं, सुल्तानों और सम्राटों के समय को बदलते देखा है। तब से लेकर आज तक इस शहर में बदलते नामों का सफर जारी है। पहली दिल्ली ‘लाल कोट’ (1052ईं), दूसरी दिल्ली ‘सिरी’ (1303ईं), तीसरी दिल्ली ‘तुगलकाबाद’ (1320ईं), चौथी दिल्ली ‘जहांपनाह’ (1325ईं), पांचवी दिल्ली ‘फिरोजाबाद’ (1354ईं), छठी दिल्ली ‘दीनपनाह’ (1538ईं–1545ईं), सातवीं दिल्ली ‘शाहजहांनाबाद’ (1638ईं-1649ईं) और आठवीं दिल्ली ‘नई दिल्ली’ (1911ईं) थी। ये सात नाम आज भले ही दिल्ली के खंडहर हो चुके भवनों के साथ मिट गए हैं पर लोक-स्मृति में आज भी जिंदा है।

साल 1192 में अफगान योद्धा और गौरी साम्राज्य के शासक मुहम्मद गौरी ने पृथ्वीराज चौहान को तराईन के द्वितीय युद्ध हरा कर राजपूतों के शहर पर कब्जा किया और 1206 में दिल्ली सल्तनत की नींव रखी। 1398 में दिल्ली पर तैमूर के हमले ने सल्तनत का खात्मा किया; लोधी, जो दिल्ली के अंतिम सुल्तान साबित हुए के बाद बाबर ने सत्ता संभाली, जिसने 1526 में पानीपत की लड़ाई के बाद मुग़ल साम्राज्य की स्थापना की। आरंभिक मुग़ल शासकों ने आगरा को अपनी राजधानी बनाया और दिल्ली शाहजहां द्वारा पुरानी दिल्ली की दीवार के निर्माण (1638) के बाद ही यह शहर उनकी स्थायी गद्दी बन पाया।

हिन्दू राजाओं से लेकर मुस्लिम सुल्तानों तक, दिल्ली का शासन एक शासक से दूसरे शासक के हाथों जाता रहा। शहर की मिट्टी खून, कुर्बानी और देश-प्रेम से सींची हुई है। प्राचीन काल से ही पुरानी ‘हवेलियां’ और इमारतें खामोश खड़ी हैं किन्तु उनका खामोशियां अपने मालिकों और उन लोगों को सदाएं देती हैं जो सैंकड़ों वर्षों पहले उनमें रहे थे।

1803 ई. में शहर पर अंग्रेजों का कब्जा हो गया। वर्ष 1911 में, अंग्रेजों ने कलकत्ता से बदलकर दिल्ली को अपनी राजधानी बनाया। यह शहर पुनः शासकीय गतिविधियों का केन्द्र बन गया। किन्तु, शहर की प्रतिष्ठा है कि वह अपनी गद्दी पर बैठने वालों को बदलती रहा है। इनमें ब्रिटिश और वे वर्तमान राजनीतिक पार्टियां भी शामिल हैं, जिन्हें स्वतंत्र भारत का नेतृत्व करने का गौरव हासिल हुआ है। 1947 में स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद, नई दिल्ली को अधिकारिक तौर पर भारत की राजधानी घोषित किया गया।

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सात बार उजड़ी और फिर से आबाद हुई दिल्ली

पहली दिल्ली- किला राय पिथौरा या लाल कोट (1052 A.D)

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लाल कोट- 1052 ईसवीं दिल्ली पर पहली बार तोमर वंश के अनंगपाल ने घुसपैठियों से रक्षा के लिए एक विस्तृत किला बनवाया जिसका नाम लाल कोट था।  

लाल कोट यानी लाल रंग का किला, जो कि वर्तमान दिल्ली क्षेत्र का प्रथम निर्मित नगर था। इसकी स्थापना तोमर शासक राजा अनंग पाल ने 1060 ईसवीं में की थी। साक्ष्य बताते हैं कि तोमर वंश ने दक्षिण दिल्ली क्षेत्र में लगभग सूरज कुण्ड के पास शासन किया, जो 700 ईसवीं से आरम्भ हुआ था। फिर चौहान राजा, पृथ्वी राज चौहान ने बारहवीं शती में शासन ले लिया और उस नगर एवं किले का नाम किला राय पिथौरा रखा।

ऐसा कहा जाता है कि महाभारत के अनुसार, कुरू देश की राजधानी गंगा के किनारे हस्तिनापुर में स्थित थी और कौरवों एवं पांडवों के बीच संबंध बिगड़ने के बाद धृतराष्ट्र ने उन्हें यमुना के किनारे खांडवप्रस्थ का क्षेत्र दे दिया। यहां बसाये गये नगर का नाम इंद्रपस्थ था। वर्तमान में स्थित पुराने किले के स्थान पर ही संभवत: इंद्रप्रस्थ बसा हुआ था, जो महाभारत महाकाव्य के योद्धाओं की राजधानी थी। इस स्थान पर पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग ने खुदाई भी की, जिसमें प्रारंभिक ऐतिहासिक काल से लेकर मध्यकाल तक के आवास होने के प्रमाण मिले हैं। यहां उत्तर गुप्तकाल, शक, कुषाण और मौर्यकाल तक के घरों, सोख-कुओं और गलियों के प्रमाण मिले हैं। 1966 में मौर्य सम्राट अशोक के 273-236 ईसा पूर्व के अभिलेख की खोज 1966 में हुई, जो श्रीनिवासपुरी पर अरावली पर्वत श्रृंखला के एक छोर पर खुरदुरी चट्टान पर खुदा हुआ है। शर्मा के मुताबिक, सात नगरों में सबसे पहला दसवीं शताब्दी के अंतिम समय का है, लेकिन यह दिल्ली के अतीत का प्रमाण प्रस्तुत करने के लिए काफी नहीं है और यह यहां के दीर्घकालीन और महत्वपूर्ण इतिहास के सम्पूर्ण काल का प्रतिनिधित्व करता है।

ऐसा कहा जा सकता है कि दिल्ली के आसपास पहली बस्ती लगभग तीन हजार साल पहले बसी थी और पुराने किले की खुदाई में मिले भूरे रंग के मिट्टी के बर्तन मिले हैं, जो एक हजार साल से अधिक पुराने है। इतिहास में उल्लेखित दिल्ली के सात नगरों में बारहवीं सदी में चौहान शासक पृथ्वीराज तृतीय का किला राय पिथौरा, 1303 में अलाउद्दीन खिलजी द्वारा बसायी गयी सीरी, गयासुद्दीन तुगलक द्वारा बसाया गया तुगलकाबाद, मुहम्मद बिन तुगलक का जहांपनाह शहर, फिरोजशाह तुगलक द्वारा बसाया गया फिरोजाबाद (कोटला फिरोजशाह), शेर शाह सूरी का पुराना किला और 1638-1648 के बीच मुगल शासक शाहजहां द्वारा बसाया गया शाहजहांबाद शामिल है।

नामकरण की रोचक कहानियां

‘किल्ली तो ढिल्ली भई’… ढिल्ली, देहली, दिल्लिका’… और नाम पड़ गया दिल्ली

दिल्ली शहर का नाम दिल्ली कैसे पड़ा, इसके कई तर्क हैं? कहते हैं ईसा से 50 वर्ष पूर्व एक मौर्य राजा थे, जिनका नाम था धिल्लु, ढिल्लू या दिल्लु भी कहा जाता था। माना जाता है कि यहीं से अपभ्रंश होकर नाम दिल्ली पड़ गया।

कुछ इतिहासकार कहते हैं कि तोमरवंश के एक राजा धव ने इलाके का नाम ढीली रख दिया था, क्योंकि किले के अंदर लोहे का स्तंभ ढीला था और उसे वहां से बदला गया था। यह ढीली शब्द बाद में दिल्ली हो गया।

एक तर्क यह भी है कि तोमरवंश के दौरान जो सिक्के बनाए जाते थे, उन्हें देहलीवाल कहा करते थे। इसी से दिल्ली नाम पड़ा। वहीं कुछ लोगों का मानना है कि इस शहर को एक-डेढ़ हजार वर्ष पहले हिंदुस्तान की दहलीज माना जाता था। दहलीज का अपभ्रंश दिल्ली हो गया।

कुछ अन्य इतिहासकारों का मानना है दिल्ली शब्द फारसी के देहलीज से आया है क्योंकि दिल्ली गंगा के तराई इलाकों के लिए एक ‘देहलीज’ थी।

महाराज पृथ्वीराज चौहान के दरबारी कवि चंदबरदाई की हिंदी रचना ‘पृथ्वीराज रासो’ में तोमर राजा अनंगपाल को दिल्ली का संस्थापक बताया गया है। ऐसा माना जाता है कि उन्होंने ही ‘लाल कोट’ का निर्माण करवाया था।

मध्यकाल में लिखे गए ग्रंथ ‘पृथ्वीराज रासो’ में ‘किल्ली-दिल्ली’ की कथा कुछ इस प्रकार है- किल्ली तो ढिल्ली भई, तोमर हुए मतीहीन’,  राजा अनंगपाल तोमर के लालकोट में एक लौह स्तंभ था। एक दिन राजा ने दरबार में बताया कि लौह स्तंभ पाताल में शेषनाग के फन पर टिका हुआ है, जिसने पृथ्वी को अपने फन पर संभाल रखा है। इस पर राज ज्योतिषी ने भविष्य वाणी की कि जब तक यह स्तंभ खड़ा रहेगा, तब तक यहां तोमर वंश का शासन चलता रहेगा।

राजा अनंगपाल तोमर को यह सुनकर बड़ी उत्सुकता हुई, उसने तुरंत उस लौह स्तंभ को उखाड़कर देखने का आदेश दिया। जब स्तंभ को उखाड़कर देखा गया, तो उसके निचले सिरे पर रक्त जैसा रंग लगा हुआ था। यह समझा गया कि यह नाग राजा शेषनाग का खून है, जो लौह स्तंभ को उखाड़ने की वजह से लगा है। राजा अनंगपाल तोमर ने उसे फिर से लगाने का आदेश दिया। लेकिन यह लौह स्तंभ दोबारा लगाने पर ढीला हो गया। इसीलिए इसे ‘ढीली’ कहने लगे और इसी से बिगड़ कर दिल्ली नाम पड़ा। पृथ्वीराज रासो महाकाव्य में तोमर वंश के पतन का कारण इसी बात को माना गया है।

‘दिल्ली’ या ‘दिल्लिका’ शब्द का प्रयोग सर्वप्रथम उदयपुर में प्राप्त शिलालेखों पर पाया गया। इस शिलालेख का समय 1170 इसवीं निर्धारित किया गया है।

अभिलेख बताते हैं ढिल्लिका या धिल्ली से कैसे बनी दिल्‍ली

इतिहासकारों के अनुसार, ढिल्लिका नाम का प्रथम उल्लेख उदयपुर के बिजोलिया के 1170ई. के अभिलेख में आता है, जिसमें दिल्ली पर चौहानों द्वारा अधिकार किए जाने के उल्लेख है। गयासुद्दीन तुगलक के 1276 के पालम बावली अभिलेख में इसका नाम ढिल्ली लिखा है। लाल किला संग्रहालय में रखे मुहम्मद बिन तुगलक के 1328ई.  के अभिलेख में हरियाना में ढिल्लिका नगर के होने का उल्लेख है। इसी प्रकार डिडवाना के लाडनू के 1316 ई. के अभिलेख में हरीतान प्रदेश में धिल्ली नगर का जिक्र है। संभवत: ‘अंग्रेजी शब्द दिल्ली इसी से निकला है, जो अभिलेखों में ढिल्ली का साम्य है। दिल्ली पर तोमर, चौहान, गुलाम, खिलजी, तुगलक, सैयद, लोदी, सूर, मुगल वंश के शासकों ने राज किया और 1911 में अंग्रेजों ने कलकत्ता के स्थान पर इसे एकीकृत भारत की राजधानी बनाया, जिस स्थिति को आजादी के बाद भी बदला नहीं गया।

  • बिजोलिया के अभिलेख- ज्ञात अभिलेखों में ढिल्लिका का नाम सबसे पहले राजस्थान के उदयपुर जिले में बिजोलिया के 1170 ईस्वी के अभिलेख में आता है। जिसमें दिल्ली पर चौहानों के अधिकार किए जाने का उल्लेख है। राजा विग्रहराज चतुर्थ (1153-64) ने जो शाकंभरी (आज का सांभर जो कि अपनी नमक की झील के कारण प्रसिद्ध है) के चौहान वंश के बीसल देव के नाम से जाना जाता है, राज्य संभालने के तुरंत बाद शायद तोमरों से दिल्ली छीन ली थी। बिजोलिया के अभिलेख में उसके द्वारा दिल्ली पर अधिकार किए जाने का उल्लेख है जबकि अन्य अभिलेखों में दिल्ली पर तोमरों और चौहानों द्वारा क्रमशः शासन किए जाने का उल्लेख है।

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  • एपिग्राफिया इंडिका 26 (1841-42) के अनुसार, अशोक के स्तम्भ पर अंकित ईस्वी सन् 1163 या 1164 के एक लेख में, जो इस समय कोटला फिरोजशाह में है, विन्ध्य और हिमालय के बीच की भूमि पर विग्रहराज के आधिपत्य का उल्लेख है। ये तो दिल्ली से बाहर मिलने वाले प्रस्तर लेख प्रमाण हैं।

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  • पालम बावली का शिलालेख- दिल्ली में ही तेरहवीं सदी का पहला एक अभिलेख जो कि पालम गांव के एक सीढ़ीदार कुंए (बावली) से मिला है, जिसमें उल्लेख है कि ढिल्ली के एक व्यक्ति ने सीढ़ीदार कुंए का निर्माण कराया था। यह अभिलेख मुलतान जिले में उच्छ से आए उद्धार (नामक व्यापारी) द्वारा (देहली से ठीक बाहर) पालम में एक बावली और एक धर्मशाला के निर्माण की बात दर्ज करता है। पंडित योगेश्वर द्वारा विक्रमी 1333 में रचित यह अभिलेख शिव और गणपति की वन्दना से आरम्भ होता है। जहां तक पालम बावली के शिलालेख का संबंध है कुछ दशक पूर्व यह लालकिला के संग्रहालय में हुआ करता था। इतिहास के अध्ययन के हिसाब से यह शिलालेख कई दृष्टि से बेहद महत्वपूर्ण है। पहली बार इसमें ढिल्ली शब्द का उल्लेख दिल्ली के लिए हुआ है। इसके अतिरिक्त यह पहला शिलालेख है जिसमें हरियाणा क्षेत्र का उल्लेख किया गया है। जबकि किसी भी समकालीन विदेशी इतिहासकार ने कभी भी दिल्ली के आपसपास के क्षेत्र का उल्लेख हरियाणा के रूप में नहीं किया है।

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  • बलबन के समय के पालम-बावली अभिलेख तिथि 1272 ईस्वी (विक्रम संवत् 1333) में लिखा है कि हरियाणा पर पहले तोमरों ने तथा बाद में चौहान ने शासन किया। अब यह शक शासकों के अधीन है। यह अभिलेख देहली और हरियाणा के राजाओं को तोमर, चौहान और शक बतलाता है, इनमें से पहले दो को राजपूत वंश माना गया है तथा अंतिम से अभिप्राय सुल्तान है। यह बात शकों की एक विस्तृत सूची अर्थात् तब तक के शासक बलबन समेत देहली के सुल्तानों की एक सूची से स्पष्ट कर दी गई है।
  • “जनरल ऑफ दि एपिग्राफिक सोसाइटी ऑफ बंगाल” भाग 43 (1874) के अनुसार, 1276 ईस्वी के पालम बावली के अभिलेख में, जो गयासुद्दीन बलबन के शासन काल में लिखा गया था, नगर का नाम दिल्ली बताया गया है और जिस प्रदेश में यह स्थित है, उसे हरिनायक कहा गया है। ऐसा लगता है कि इस अभिलेख का रचियता दिल्ली को हरियाणा मानता है। यह इस नाम का क्षेत्र के लिए आरंभिक उपयोग है। इससे पहले शायद इसका उल्लेख मिनहाज सिराज की “तबाकत ए नासिरी”, जो कि 1259-60 में पूरी हुई, में मिलता है।

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  • एक अन्य तत्कालीन कवि श्रीधर ने 1132 ईस्वी में “पार्श्वनाथ चरित्र” पुस्तक में भी ढिल्ल्किापुरी का बखान किया है। उन दिनों यह ढिल्लिका हरियाणा का ही हिस्सा था। पालम का यह संस्कृत अभिलेख यही दर्शाता है।
  • सरबन शिलालेख- उपर्युक्त वर्णन जैसा वर्णन सरबन शिलालेख में भी मिलता है जिसकी तिथि 1327 ईस्वी (विक्रम संवत् 1384) अंकित है। मुहम्मद बिन तुगलक के काल का यह अभिलेख दिल्ली शहर के पांच मील दक्षिण में अवस्थित सरबन नामक गांव से मिला है। उसमें भी हरियाणा में ढिल्लिका नगर होने का उल्लेख है। प्रायः सौ वर्ष पूर्व तक रायसीना के इस इलाके को सरबन नाम से ही जाना जाता था। यही इंद्रप्रस्थ तथा ढिल्लिका के अंतर को प्रकट करता है। ढिल्लिका को हरियाणा के एक नगर के रूप में वर्णित किया गया है। यह संस्कृत अभिलेख इस समय लाल किले के संग्रहालय में मौजूद है। इस अभिलेख में स्वयं इस गावं का इन्द्रप्रस्थ के जिले (प्रतिगण) में स्थित होने का उल्लेख है।

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  • इसी तरह, राजस्थान के डीडवाना के लाडनू में पाए गए 1316 ईस्वी के एक प्रसिद्ध लेख में हरीतान प्रदेश में धिल्ली नगर के होने का उल्लेख है। स्पष्ट है कि दिल्ली एक महत्वपूर्ण नगर था और शायद यह हरियाणा की राजधानी भी था। आधुनिक अंग्रेजी डेल्ही नाम दिहली या दिल्ली से निकला है, जो अभिलेखों के ढिल्ली का साम्य है।

एक अनुश्रुति यह भी है  कि इसका नाम ‘राजा ढीलू’ के नाम पर पड़ा जिसका आधिपत्य ईसा पूर्व पहली शताब्दी में इस क्षेत्र पर था। बिजोला अभिलेखों (1170 ई.) में उल्लेखित ढिल्ली या ढिल्लिका सबसे पहला लिखित उद्धरण है। कुछ अन्य लोगों के मतानुसार आठवीं सदी में कन्नौज के राजा दिल्लू के नाम पर इसका नामांकन हुआ है। दिल्ली का नाम राजा ढिल्लू के “दिल्हीका”(800 ई.पू.) के नाम से माना गया है, जो मध्यकाल का पहला बसाया हुआ शहर था, जो दक्षिण-पश्चिम सीमा के पास स्थित था। जो वर्तमान में महरौली के पास है। यह शहर मध्यकाल के सात शहरों में सबसे पहला था। इसे योगिनीपुरा के नाम से भी जाना जाता है, जो योगिनी (एक् प्राचीन देवी) के शासन काल में था। एक राय ये भी है कि एक अभिषाप को झूठा सिद्ध करने के लिए राजा ढिल्लू ने इस शहर की बुनियाद में गड़ी एक कील को खुदवाने की कोशिश की। इस घटना के बाद उनके राजपाट का तो अंत हो गया लेकिन मशहूर हुई एक कहावत, किल्ली तो ढिल्ली भई, तोमर हुए मतीहीन, जिससे दिल्ली को उसका नाम मिला।

लेकिन इसको महत्त्व तब मिला जब 12वीं शताब्दी में राजा अनंगपाल तोमर ने अपना तोमर राजवंश लालकोट से चलाया, जिसे बाद 1180ईं में अजमेर के चौहान राजा पृथ्वीराज चौहान इसका नाम “किला राय पिथौरा” रखा। 1192ईं में जब पृथ्वीराज चौहान मुहम्मद गोरी से तराएन का युद्ध में पराजित हो गये थे, तब गोरी ने अपने एक गुलाम को यहां का शासन संभालने हेतु नियुक्त किया। वह गुलाम कुतुब-उद-दीन ऐबक था, जिसने 1206ईं से दिल्ली सल्तनत में दास वंश का आरम्भ किया।

दिल्ली सल्तनत का उदय

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1206ईं से 1526ईं तक भारत पर शासन करने वाले पांच वंश के सुल्तानों के शासनकाल को दिल्ली सल्तनत या सल्तनत-ए-हिन्द कहा जाता है। ये पांच वंश थे- गुलाम वंश (1206-1290), खिलजी वंश (1290-1320), तुगलक वंश (1320-1414), सैयद वंश (1414-1451) और लोधी वंश (1451-1526)। इनमें से चार वंश मूलतः तुर्क थे जबकि अंतिम वंश अफगान था। दिल्ली सल्तनत मुस्लिम इतिहास कुछ कालखंडों में है। 1526 में मुगल सल्तनत द्वारा इस इस साम्राज्य का अंत हुआ।

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लौह स्तंभ, प्राचीन भारत की हाईटेक साइंस का जीता जागता सबूत

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भारती की राजधानी दिल्ली में विष्णु स्तंभ (कुतुबमीनार) के परिसर में खड़ा लौह स्तंभ आज के विज्ञान के लिए एक बहुत बड़ा आश्चर्य है। वैज्ञानिक हैरान है कि 6 हज़ार किलो का यह लौहे का स्तंभ 98 प्रतीशत लौहे से बना होने का बावजूद 1600 वर्षों से बिना जंग लगे खुले आसमान के नीचे खड़ा है।

  • किसने बनवाया था लौह स्तंभ को- इस स्तंभ का निर्माण गुप्त वंश के महान राजा चंद्रगुप्त विक्रमादित्य की याद में करवाया गया था। महाराज चंद्रगुप्त विक्रमादित्य ने 380 ईसवी से 413 ईसवी तक राज किया था। यह लौह स्तंभ संभवता उनके पुत्र और गुप्त वंश के अगले राजा कुमारगुप्त ने बनवाया होगा। महाराज कुमारगुप्त ने 413 ईसवी से 455 ईसवी तक राज किया था तो जरूर इस स्तंभ का निर्माण आज से 1604 साल पहले 413 ईसवी में हुआ होगा। स्तंभ पर लिखे शिलालेख के अनुसार यह स्तंभ विष्णुपद पहाड़ी के ऊपर बनाया गया था जिसे शायद 1050 ईसवी में दिल्ली के शासक अनंगपाल जा किसी और द्वारा दिल्ली में लाकर खड़ा किया गया। विष्णुवद पहाड़ी वाला क्षेत्र अब मध्यप्रदेश के उदयगिरी शहर के पास स्थित है जो कि लगभग कर्क रेखा पर स्थित है।
  • इस स्तंभ के निर्माण को लेकर हालाँकि विद्वान एकमत नहीं है। कुछ का मानना है कि इस स्तंभ का निर्माण राजा चन्द्रगुप्त विक्रमादित्य (375 – 413 ई।) ने कराया तो वहीं कुछ मानते हैं कि इसका निर्माण इससे बहुत पहले किया गया, लगभग 912 ई।पू। में।
  • लौहे के इस विशाल स्तंभ की उँचाई 7.21 मीटर (23 फुट 8 इंच) है और 1.12 मीटर (3फुट 8 इंच) यह जमीन में गड़ा हुआ है। इसके आधार का व्यास 17 इंच है जबकि ऊपर को जाते हुए यह पतला होता जाता है और उसके ऊपर का व्यास 12 इंच है।
  • पुरातत्व विशेषज्ञ बीबी लाल के अनुसार इस स्तंभ का निर्माण गर्म लोहे के 20-30 किलो के टुकड़ों को जोड़ने से हुआ है। आज से 1600 साल पहले गर्म लोहे के टुकड़ों को जोड़ने की तकनीक भी आश्चर्य का विषय है, क्योंकि पूरे लौह स्तम्भ में एक भी जोड़ कहीं भी दिखाई नहीं देता।
  • राबर्ट हैडफील्ड ने धातु का विश्लेषण करके बताया कि आमतौर पर इस्पात को किसी निश्चित आकार में ढालने के लिए 1300-1400 डिग्री सेंटीग्रेट तापमान की आवश्यकता होती है। पर जो इस्पात इस स्तंभ में लगा है वो राट आइरन कहलाता है जिसे गलने के लिए 2000 डिग्री सेंटीग्रेट से अधिक तापमान की आवशयक्ता होती है। आश्चर्य है कि उस काल में आज की आज की तरह की उच्च ताप भट्ठियां नही थी तो ये कैसे ढाला गया?
  • इस लिए नही लगी जंग- IIT कानपुर के विशेषज्ञ डॉक्टर आर बालासुब्रमन्यम ने काफी रिसर्च के बाद पता लगाया है कि इस स्तंभ पर लोहे, ऑक्सीज़न और हाईड्रोजन की एक पतली परत है जिसने इसे जंग लगने से बचा रखा है। डॉक्टर आर बालासुब्रमन्यम आगे कहते है कि इसके लोहे में फास्फोरस की मात्रा ज्यादा जो इसे खुरने से बचाने के लिए एक महत्वपूर्ण तत्व है। वर्तमान समय जो लोहा उपयोग किया जाता है उसमें फास्फोरस की मात्रा 0.05 प्रतीशत होती है परंतु इस स्तंभ में फास्फोरस की मात्रा 0.10 प्रतीशत है।
  • शिलालेख स्तंभ पर गुप्तकाल की ब्राह्मी लिपि में लिखा शिलालेख है, जिसमें बताया गया है कि इसे किस राजा की याद में बनवाया गया था। स्तंभ पर लिखी लिपि को साल 1903 में पंडित बाकें राय जी ने पहले देवनागरी लिपि में बदला और फिर उसका अंग्रेज़ी में अनुवाद किया।
  • शिलालेख पर लिखा है – ” संगठित होकर आये शत्रुओ को बंगाल की लड़ाई में खदेड़ देने वाले जिस राजा की भुजाओ पर यश का लेख तलवार से लिखा गया हो जिसने सिंधु नदी में सात मुहानों को पार कर बहिलको को जीता जिसकी शक्ति के झोको की सुरभि आज भी दक्षिण समुद्र में बसी है जिसके शांत हो चुके महादावानल की आंच जैसे प्रताप ने शत्रुओ का नाश कर दिया वह राजा खिन्न होकर पृथ्वी छोड़ गया और अपने कार्यो से अर्जित लोक में विचरण करता है उसका यश पृथ्वी पर कायम है। अपने बाहुबल से दुनिया में एकछत्र राज्य स्थापित कर बहुत दिनों तक उपभोग करने वाले पूर्ण चन्द्र का मन विष्णु में रम गया और विष्णु पद पहाड़ी पर विष्णु ध्वज की स्थापना की। ”
  • लौह स्तंभ का एक भाग थोड़ा सा उखड़ा हुआ है जो साफ़ – साफ़ दर्शाता है कि इसे किसी तोप द्वारा बिलकुल पास से उड़ाने की कोशिश की गई है। हालांकि इसका कोई स्पष्ट प्रमाण नही है कि किसने इस पर तोप चलवाई थी, पर ज्यादातर इतिहासकार मानते है कि सन 1739 में नादिर शाह ने दिल्ली पर अपने हमले के दौरान इस पर तोप चलाने का आदेश दिया था।
  • नादिर शाह को जब पता चला कि यह स्तंभ किसी हिंदु राजा से संबंधित है तो उसने फौरन इसे उड़ाने का आदेश दे दिया। गोला चलाने पर स्तंभ पर तो सिर्फ खरोच आई पर पास में स्थित मस्जिद के एक हिस्से को नुकसान पहुँच गया जिसके बाद नादिर शाह ने स्तंभ को उड़ाने का इरादा बदल दिया।
  • किवदंती और लौहे की बाड़- कहते हैं कि इस स्तंभ को पीछे की ओर दोनों हाथों से छूने पर मुरादें पूरी हो जाती है पर अब आप ऐसा नही कर पाएंगे क्योंकि साल 1997 में पर्यटकों द्वारा इस स्तंभ को नुकसान पहुँचा देने के बाद इसके ईर्द – गिर्द लौहे की बाड़ लगा दी गई थी।

कुतुबमीनार

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दिल्‍ली के अंतिम हिन्‍दू शासक की पराजय के तत्‍काल बाद 1193 में कुतुबुद्धीन ऐबक द्वारा इसे 73 मीटर ऊंची विजय मीनार के रूप में निर्मित कराया गया। इस इमारत की पांच मंजिलें हैं। प्रत्‍येक मंजिल में एक बालकनी है और इसका आधार 1.5 मी. व्‍यास का है जो धीरे-धीरे कम होते हुए शीर्ष पर 2.5 मीटर का व्‍यास रह जाता है और पहली तीन मंजिलें लाल बलुआ पत्‍थर से निर्मित है और चौथी तथा पांचवीं मंजिलें मार्बल और बलुआ पत्‍थरों से निर्मित हैं। मीनार के निकट भारत की पहली क्‍वातुल-इस्‍लाम मस्जिद है। यह 27 हिन्‍दू मंदिरों को तोड़कर इसके अवशेषों से निर्मित की गई है।”इस मस्जिद के प्रांगण में एक 7 मीटर ऊँचा लौह-स्‍तंभ है। यह कहा जाता है कि यदि आप इसके पीछे पीठ लगाकर इसे घेराबंद करते हो जो आपकी इच्‍छा होगी पूरी हो जाएगी।

  • कुतुबमीनार का निर्माण विवादपूर्ण है कुछ मानते है कि इसे विजय की मीनार के रूप में भारत में मुस्लिम शासन की शुरूआत के रूप में देखा जाता है। कुछ मानते है कि इसका निर्माण मुअज्जिन के लिए अजान देने के लिए किया गया है।
  • बहरहाल इस बारे में लगभग सभी एकमत है। कि यह मीनार भारत में ही नहीं बल्कि विश्‍व की बेहतरीन स्‍मारक है। दिल्‍ली के पहले मुस्लिम शासक कुतुबुद्धीन ऐबक ने 1200 ई. में इसके निर्माण कार्य शुरु कराया किन्‍तु वे केवल इसका आधार ही पूरा कर पाए थे। इनके उत्‍तराधिकारी अल्तमश ने इसकी तीन मंजिलें बनाई और 1368 में फिरोजशाह तुगलक ने पांचवीं और अंतिम मंजिल बनवाई थी।
  • ऐबक से तुगलक काल तक की वास्‍तुकला शैली का विकास इस मीनार में स्‍पष्‍ट झलकता है। प्रयोग की गई निर्माण सामग्री और अनुरक्षण सामग्री में भी विभेद है । 238 फीट कुतुबमीनार का आधार 17 फीट और इसका शीर्ष 9 फीट का है । मीनार को शिलालेख से सजाया गया है और इसकी चार बालकनी हैं। जिसमें अलंकृत कोष्‍ठक बनाए गए हैं। कुतुब परिसर के खंड़हरों में भी कुव्‍वत-ए-इस्‍लाम (इस्‍लाम का नूर) मस्जिद विश्‍व का एक भव्‍य मस्जिद मानी जाती है। कुतुबुद्धीन-ऐबक ने 1193 में इसका निर्माण शुरू कराया और 1197 में मस्जिद पूरी हो गई।
  • वर्ष 1230 में अल्‍तमश ने और 1315 में अलाउद्दीन खिलजी ने इस भवन का विस्तार कराया। इस मस्जिद के आंतरिक और बाहरी प्रागंण स्‍तंभ श्रेणियों में है आंतरिक सुसज्जित लाटों के आसपास भव्‍य स्‍तम्‍भ स्‍थापित है। इसमें से अधिकतर लाट 27 हिन्‍दू मंदिरों के अवशेषों से बनाए गए हैं। मस्जिद के निर्माण हेतु इनकी लूटपाट की गई थी अतएव यह आचरण की बात नहीं है कि यह मस्जिद पारंपरिक रूप से हिन्‍दू स्थापत्‍य–अवशेषों का ही रूप है। मस्जिद के समीप दिल्‍ली का आश्चर्यचकित करने वाला पुरातन लौह-स्‍तंभ स्थित है।

 

दूसरी दिल्ली- सिरी (1303 A.D)

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खिलजी वंश के विभिन्न शासकों में, अलाउद्दीन खिलजी सबसे योग्य और शक्तिशाली शासक था। उसने 14वीं शताब्दी के आरंभ में दिल्ली के दूसरे नगर “सिरी” का निर्माण करवाया था। मंगोल आक्रमण से बचाने के लिए खिलजी ने 1303ईं में इस नगर का निर्माण कराया था। शहर की वास्तुकला पर सल्जूक शैली का प्रभाव था। यह शैली पश्चिम एशिया के मंगोलों से जूझ रहे सल्जुकी राजवंश से दिल्ली दरबार में शरण लेने वाले लोगों के साथ आई और इसने दिल्ली की वास्तुकला में योगदान दिया। वर्तमान समय में बड़े जलाशयों वाले भाग, जिसे हौजखास कहा जाता है, सिरी के किले का प्रतिनिधित्व करते हैं।

हौजखास किला- हौजखास किला भी भारत की ऐतिहासिक स्मारकों और धरोहरों में से एक है, जो कि भारत की राजधानी दिल्ली के हौज खास में स्थित है। इस किले को स्थानीय लोगों द्धारा काफी पसंद किया जाता है, इस किले में लोग अपने खाली वक्त में सैर करने और समय बिताने के लिए आते हैं और आकर्षक गतिविधियों का आनंद लेते हैं।

  • मध्ययुगीन इतिहास के युग में निर्मित (साल 1284) यह किला दिल्ली के सबसे प्राचीन इमारतों में से एक है। अलाउद्दीन खिलजी द्धारा स्थापित हौज खास किला भारत में मुस्लिम शासकों की पहली राजधानी और दिल्ली के शासन के शुरुआत का प्रतीक है। आपको बता दें कि हौज खास किला परिसर को बनाने की शुरुआत अलाउद्दीन खिलजी द्वारा जलाशय और रॉयल टैंक के साथ की गई थी (वहीं अब हौज खास झील के रूप में जाना जाता है)।
  • हौज शब्द एक उर्दू शब्द से लिया गया है, जिसका मतलब है – तालाब। दरअसल इस किले का निर्माण एक पानी के टैंक और तालाब के पास किया गया था, इसलिए इसका नाम हौज खास पड़ा। अलाउद्दीन खिलजी ने दिल्ली के सिरी के निवासियों को पानी की आपूर्ति के लिए इस क्षेत्र में बहुत बड़े तालाब का निर्माण करवाया था। सम्राट के नाम पर शुरुआत में इस किले को हौज-ए-अलाई (Hauz-I-Alai) नाम दिया गया था।
  • हालांकि बाद में फिरोज शाह तुगलक (1351-88) ने अपने शासनकाल के दौरान शाही स्नान के लिए इस टैंक को फिर से बनाने का आदेश दिया, इसके बाद इसे हौज-खास नाम दिया गया। आपको बता दें कि इस पानी के टैंक का क्षेत्रफल करीब 50 हेक्टेयर (123.6 एकड़) है, जिसकी चौड़ाई 600 मीटर और लंबाई 700 मीटर है वहीं यह करीब 4 मीटर गहरा है, हालांकि बाद में गाद और अतिक्रमण की वजह से इसका आकार काफी कम हो गया।
  • आपको यह भी बता दें कि फिरोजशाह तुगलक के शासन काल में 1352 से 1354 के बीच हौज-खास परिसर में मदरसा, मंडप, मस्जिद, मजार, इस्लामिक स्कूल ऑफ़ लर्निंग – एक धार्मिक विश्वविद्यालय जैसे कई स्मारकों का निर्माण इस जलाशय की अनदेखी के लिए किया गया था। वहीं फ़िरोज़ शाह तुगलक का मकबरा इस हौज-खास परिसर के अंदर बने मुख्य ऐतिहासिक संरचनाओं में से एक है। इस किले में प्रवेश करने के बाद एक टी-आकार का मंडप पत्थरों और गिट्टी से ढका हुआ है। यह पूरा परिसर एल आकार का है।
  • फिरोजशाह तुगलक का मकबरा काफी शानदार तरीके से बनाया गया है, इतिहास के तथ्यों के मुताबिक इसका निर्माण सम्राट द्वारा करवाया गया था, हालांकि अनदेखी के चलते अब इस ऐतिहास धरोहर की हालत काफी दयनीय हो गई है। वहीं हौज-खास परिसर में मदरसा का निर्माण साल 1352 में किया गया था, यह मदरसा दिल्ली सल्तनत में इस्लामी शिक्षा के अच्छे शिक्षण संस्थानों में शुमार था, इसके साथ ही यह उस समय विश्व का सबसे बड़ा और सबसे अच्छा इस्लामी मदरसा माना जाता था।
  • हौज खास परिसर की खासियत- हौज खास परिसर में एक मदरसा, एक झील, मस्जिद और फिरोजशाह तुगलक के मकबरे और 6 मंडप होने से साथ-साथ यहां आर्ट गैलरी, रेस्त्रा और आवासीय क्षेत्र भी हैं। जिनकी खूबसूरती को निहारने दूर-दूर से लोग आते हैं, वहीं इसका ऐतिहासिक महत्व होने के साथ-साथ यह खाफी सुंदर भी है, इसलिए हौज खास किला आज पर्यटकों की लोकप्रिय जगहों में से एक है।

 

तीसरी दिल्ली- तुगलकाबाद

(1320 A.D)

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ग्यास-उद-दीन तुगलक ने 1320ईं में राजसी और भव्य ‘तुगलकाबाद’ की स्थापना की थी जो दिल्ली का तीसरा नगर था। उसने यहां एक किला बनवाया था। गयासुद्दीन तुगलक की मुत्यु के बाद 1325ईं में उसके पुत्र मुहम्मद-बिन-तुगलक ने ‘आदिलाबाद’ किले का निर्माण  कराया, जिसके अवशेष आज भी दिखाई देते हैं|

तुगलकाबाद किला- दिल्ली में एक बर्बाद किले है। जिसे तुगलक वंश के संस्थापक ग्यास-उद-दीन तुगलक द्वारा 1321 में बनवाया गया था। इस किले के निर्माण के एक रोचक इतिहास है। गाजी मलिक (जिन्होंने बाद ग्यास – उद – दीन तुगलक का शीर्षक ग्रहण) दिल्ली के खिलजी किंग्स का एक प्रमुख सामन्ती था एक बार राजाओं ने गाजी मलिक को छेड़ते हुए कहा की जब तुम राजा बनना तो एक किले का निर्माण कराना। गाजी ने इस बात को बहुत ही गंभीरता से लिया और राजा बनने के बाद इस किले का निर्माण कराया। बाद में उसने 1321 के दौर में सभी खिलजी शासकों को पराजित किया और  राजा बना , और इसी के साथ उसने ग्यास – उद – दीन तुगलक का शीर्षक ग्रहण किया। तुगलक चाहता था की ये किला अपनी तरह का एक अनोखा किला हो और इसी सोच के साथ उसने इस किले का निर्माण शुरू कर दिया। हालांकि, बाद में किला उस तरह नहीं बन पाया जिस तरह तुगलक उसे बनाना चाहता था। ऐसा माना जाता है की तुगलक को एक संत से ये शाप मिला था की वो इस किले को कभी भी पूरा नहीं कर पाएगा। इस किले पूरी दिल्ली में सबसे बड़ा किला है और इसकी वास्तुकला  अपने आप में बेमिसाल है अगर आपको इसकी वास्तुकला का अवलोकन करना हो तो आप यहाँ बनी मस्जिदों, महलों, टावरों, इमारतों और टैंक में इस वास्तुकला को देख सकते है। इस किले के निर्माण का मुख्य उद्देश्य सम्राट तुगलक की रक्षा करना था।  कहा जाता है की इस किले की दीवारें भारत में बने अन्य किलों से कहीं ज्यादा मोती हैं। तुगलकाबाद, जो दिल्ली के तीसरे शहर के रूप में जाना जाता था आज एक खंडहर में तब्दील हो चुका है। इस शहर का लेआउट आज भी आप यहाँ की सड़कों और शहर की अन्य सड़कों से देख सकते हैं। ये किला वर्तमान में कुतुब परिसर के पास स्थित है।

.. क्यों कभी आबाद नहीं हो सका तुगलकाबाद

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दिल्ली में 1321 ईस्वी में मुबारक शाह का शासन था। यह वह समय था मंगोल बहुत सक्रिय थे और उनसे बचने के लिए पंजाब सूबे के गवर्नर गाजी मलिक ने पहाड़ी पर किला बनाकर राजधानी स्थापित करने का सुझाव मुबारकशाह को दिया। उस समय राजधानी का संचालन हौजखास सीरीफोर्ट के प्रसिद्ध सीरी किला से होता था। इस पर मुबारक शाह ने उसका मजाक बनाया और ऐसा करने से मना कर दिया। मगर वक्त में ऐसा पलटा खाया कि मुबारक शाह की मौत के बाद यही गाजी मलिक दिल्ली का सुल्तान बना और गयासुद्दीन तुगलक के नाम से मशहूर हुआ।

  • बावली के काम में डाली रुकावट- इतिहासकार आसिफ ख्रान देहलवी बताते हैं कि गयासुद्दीन तुगलक ने तुगलकाबाद में स्थित पहाड़ी पर किला बनवाना शुरू किया। किला बनवाने के लिए उसनेभारी संख्या में मजदूर लगा दिए। उसी समय सूफी संत हजरत निजामुद्दीन औलिया अपने लिए बावली बनवा रहे थे। मजदूरों के किला निर्माण में लग जाने से बावली का काम ठप हो गया तो उन्होंने उन मजदूरों को रात में काम करने के लिए राजी कर लिया। मजदूर दिन में किला बनाते और रात में बावली। ऐसा कहा जाता है कि सुल्तान औलिया से चिढ़ता था। उसने निजामुद्दीन (उस समय इसका नाम गयासपुर था) बस्ती से मिलने वाला तेल बंद कर दिया। रोशनी की व्यवस्था न होने से काम ठप हो गया। उस वक्त औलिया ने नाराज होकर कहा था, सुल्तान यह जो किला बनवा रहा है इसमें या तो सियार बसेंगे या गूजर (या बसे हिसर, या बसे गुज्जर)।
  • चैन से नहीं बैठ पाया तुगलक- भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण के आधिकारिक दस्तावेज के रूप में उपयोग में लाई जा रही पुस्तक ‘दिल्ली का आंचल’ में इस बात का जिक्र है कि तेल नहीं मिलने पर औलिया ने अपने शिष्य नसीमुद्दीन महमूद को निर्देश दिया कि चिराग में तेल की जगह बनाई जा रही बावली का पानी डाल दिया जाए और महमूद उस पानी को अपनी अंगुली डाल कर छू लें। ऐसा किया गया। बताया जाता है कि 9 दिन तक चिराग जलते रहे और काम पूरा हुआ। दूसरी ओर किले का काम भी पूरा हुआ था और गयासुद्दीन तुगलक अपनी राजधानी को इस किले में ले आया था। कुछ दिन ही बीते थे कि बंगाल में विद्रोह हो गया जिसे शांत करने के लिए से बंगाल कूच करना पड़ा। वहां उसे सूचना मिली कि औलिया ने बावली बनवा ली है। उसने वहां से अपने दरबारी कवि व औलिया के शिष्य अमीर खुसरो से उनको (औलिया) संदेश भिजवाया कि राजधानी तुरंत छोड़ दें अन्यथा दिल्ली पहुंचने पर उनका सिर कलम कर दिया जाएगा।
  • चार साल में उजड़ गया किला- यह संदेश औलिया को उस समय मिला जब औलिया अपनी मां के पास अधचीनी गांव गए हुए थे। उनके शिष्य इस धमकी से भयभीत हो गए और विलाप करने लगे। जिस पर औलिया ने कहा कि सुल्तान दिल्ली नहीं देखेगा। उसके लिए दिल्ली दूर है (दिल्ली दूर अस्त)। एएसआइ के दस्तावेजों में वर्णित है कि अपने किले में लौटने से छह मील दूर रह जाने पर एक लकड़ी के मचान में दबकर उसकी मौत हो गई। बताया जाता है कि उसके किले और आसपास का पानी जहरीला हो गया था। एक तरफ लोग बस रहे थे और दूसरी ओर छोड़ कर जा रहे थे। चार साल में ही किला उजाड़ हो गया। गयासुद्दीन न ही किले से शासन चला सका और न ही इसे आबाद कर सका।

चौथी दिल्ली- जहांपनाह

(1325 A.D)

 

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गयासुद्दीन तुगलक के बेटे मुहम्मद-बिन-तुगलक ने 1325ईं में “आदिलाबाद” किले का निर्माण  के बाद ‘जहांपनाह’ नगर की स्थापना की थी। जहांपनाह, किला राय पिथौरा और सिरी के बीच बसाया गया। इसे दिल्ली का चौथा नगर कहा जाता है।

आदिलाबाद किला- इतिहास में दिल्ली का चौथा किला माना जाता है। बाकी लाल किला, पुराना किला और तुगलकाबाद किला है। भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण (एएसआई) के संरक्षण में होने के बावजूद लोगों को आदिलाबाद किले के बारे में बहुत कम जानकारी है। जबकि इस किले का भी अपना एक दुर्लभ अतीत रहा है। मुहम्मद तुगलक ने तुगलकाबाद के दक्षिण में आदिलाबाद नाम का छोटा किला बनवाया था।

  • वास्तुकला की दृष्टि से यह तुगलकाबाद से अधिक भिन्न नहीं है। इसे तुगलकाबाद से जोड़ने वाले बांध की दीवारें इस शहर की बाहरी दीवारों के रूप में पहाड़ियों के ऊपर तक चली गई है और इसमें दो फाटक दिए गए है जिसमें से एक दक्षिण-पूर्व और दो बुर्जों के बीच एक अतिरिक्त किलेबंद द्वार से युक्त और दूसरा दक्षिण-पश्चिम की ओर है। इसके अंदर, एक प्राचीर द्वार अलग किया गया एक नगर दुर्ग है जो दीवारों में बुर्ज और द्वारों से युक्त है और उसके भीतर महल है। यह किला मोहम्मदाबाद के नाम से भी विख्यात है और सम्भवतः शायद इसे जहांपनाह के बाद बनाया गया था। आज इसके अवशेष खंडहर ही हैं।
  • तुगलक वंश के दौरान आदिलाबाद किले का इस्तेमाल जहांपनाह शहर को सुरक्षा प्रदान करने के लिए किया जाता था। यह राजधानी में विभिन्न दौर में बने कई किलों में से एक होने के बावजूद उतना प्रसिद्व नहीं है। इतिहासकारों के अनुसार, एक छोटे किले के रूप में बना आदिलाबाद की रक्षा के लिए भारी प्राचीरें बनाई गई थी। अगर निर्माण में के उपयोग और बनावट के हिसाब से आदिलाबाद की तुलना विशाल तुगलकाबाद किले से की जाए तो यह एक छोटा किला लगेगा। हालांकि जहांपनाह शहर की बाहरी परिधि में रक्षात्मक किलेबंदी के निर्माण के साथ इस किले की उपयोगिता बढ़ी क्योंकि इसकी सीमा में रहने वाले लोगों को सुरक्षा मिली। इस किलेबंदी वाले इलाके में एक महलनुमा गढ़ था, जिसमें शाही महल सहित महत्वपूर्ण प्रशासनिक भवन थे।
  • विदेशी यात्री इब्नबतूता ने सुल्तान मुहम्मद बिन तुगलक के चरित्र का गहन अध्ययन किया था। सुल्तान द्वारा उसे विशेष प्रोत्साहन प्राप्त होता रहता था। इब्ने बत्तूता ने देहली का हाल बड़े विस्तार से लिखा है। नगर की चहार दीवारी, विभिन्न द्वार, देहली की जामा मस्जिद, देहली की कब्रों, तथा देहली के बाहर दो बड़े हौजों का बड़ा ही विशद वर्णन किया है।

पांचवीं दिल्ली- फिरोजाबाद

(1354 A.D)

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मुहम्मद-बिन-तुगलक के चचेरे भाई फिरोज-शाह-तुगलक ने 1354ईं फिरोजाबाद या फिरोज शाह कोटला नामक दिल्ली के पांचवें नगर का निर्माण करवाया था। इसे यमुना नदी के किनारे में बनवाया गया था| यह नगर महलों, स्तम्भों वाले हॉल, मस्जिदों, पिजन टावर (कबूतर मीनार) और पानी की टंकियों से सुसज्जित था। इसके अलावा इस नगर में सीढ़ीदार कुआं और आखेट गृह का भी निर्माण करवाया गया था। फिरोजाबाद में ज्यादातर मस्जिदें वर्तमान खिड़की और बेगमपुर के बीच बनाई गई थीं।

तैमूर ने दिल्ली को तीन दिन-तीन रात तक लूटा- तैमूर लंग ने 1398 में दिल्ली पर हमला किया। तीन दिन-तीन रात तक लूटपाट हुई। फिरोजशाह के शानदार शहर को खंडहर बना दिया गया। हजारों लोगों के सिर कलम कर दिए गए। लेकिन तैमूर ज्यादा वक्त नहीं टिक पाया। लाेदियों ने उसे खदेड़ दिया। बहलोल और सिकंदर के बाद इब्राहिम लोदी ने दिल्ली को बसाया और खूबसूरत बनाया। लेकिन शहर फिरोजशाह के आसपास का ही रहा

फिरोज शाह कोटला किला

तुगलक वंश के तीसरे शासक फिरोजशाह तुगलक (1351-1388) ने दिल्ली में एक नया शहर बसाया। इसका नाम था-फिरोजाबाद। अभी जो कोटला फिरोजशाह है, यह उसके दुर्ग का काम करता था। इसे कुश्के-फिरोज यानी फिरोज का महल कहा जाता था। ऐसा माना जाता है कि फिरोजाबाद, हौज खास से पीर गायब (हिंदूराव हॉस्पटिल तक) तक फैला हुआ था। मगर, इतनी लंबी दीवार के होने की निशानी नहीं मिली है। इतिहासकार फिरोज़ाबाद को दिल्ली का पांचवां शहर मानते हैं।

  • फिलहाल इस दुर्ग के अंदर बची कुछ इमारतों में एक मस्जिद है। इसके साथ ही इसमें अशोक स्तंभ है, जो एक पिरामिड जैसी इमारत पर खड़ा है। किले में एक गोलाकार बावली भी है। इतिहासकारों का मानना है कि कोटला फिरोजशाह में कई महल थे। हालांकि, इनमें से किसी की पहचान नहीं हो पाई है। तीन-चार इमारतों को छोड़ दें तो अंदर कुछ बचा नहीं है। केवल इमारतों के अवशेष हैं।
  • किले में तीन मंजिला पिरामिडीय इमारत है। यह पत्थरों से बनाई गई है। इसकी हर मंजिल की ऊंचाई कम होती गई है। इमारत की छत पर फिरोजशाह ने अंबाला के टोपरा से स्तंभ लाकर लगवाया था। इस पर अशोक की राजाज्ञा अंकित हैं। यह ब्राह्मी लिपि में है। मौर्य शासक अशोक के इस स्तंभ की ऊंचाई करीब 13 मीटर है। इसे सबसे पहले 1837 में जेम्स प्रिंसेप ने पढ़ा था। ऐसा ही दूसरा स्तंभ फिरोजशाह ने मेरठ के आसपास से मंगवाया था। उसे हिंदूराव अस्पताल के पास लगवाया। इतिहासकारों का कहना है कि इन दोनों स्तंभों को नदी के जरिए लाया गया था।
  • कोटला फिरोजशाह के अंदर की मस्जिद ऊंचाई वाले आधार पर खड़ी है। इसका नाम जामी मस्जिद है। मस्जिद की एक दीवार ही बची है। तुगलक काल में यह सबसे बड़ी मस्जिद थी। तैमूर ने 1398 में इस मस्जिद में इबादत की थी। यह मस्जिद तैमूर को इतनी अच्छी लगी कि इसकी जैसी ही मस्जिद समरकंद में बनवाई। इतिहासकार मानते हैं कि मस्जिद रॉयल महिलाओं के लिए बनवाई गई थी। किले में मौजूद बावली में आज भी पानी है। इसका इस्तेमाल नहाने और गर्मी से बचने के लिए किया जाता था।
  • फिरोजशाह तुगलक को इतिहास, शिकार, सिंचाई और वास्तुकला में काफी रुचि थी। उन्होंने कई शिकारगाह जैसे- मालचा महल, भूली भटियारी का महल और पीर गायब बनवाए। कई शहरों की बुनियाद डाली। कुतुब मीनार, सूरज कुंड की मरम्मत करवाई। हौज खास के तालाब की भी मरम्मत फिरोजशाह ने करवाई थी। वहीं उनका मकबरा भी है। फिरोजशाह के शासन में दिल्ली में कई मस्जिदें भी बनाई गईं।

छठी दिल्ली- दीनपनाह

(1533 A.D)

और शेरगढ़

(1540 A.D)

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दिल्ली का एतिहासिक पुराना किले जिसका निर्माण शेरशाह सूरी द्वारा 1540ईं में करवाया गया थ। इस स्थान पर हुमायूं ने “दीनपनाह” नामक नगर का निर्माण करवाया था। दीनपनाह से शेरगढ़ की कहानी काफी उतार-चढ़ाव वाली है। 1530 में मुगल साम्राज्य की गद्दी पर बैठने के बाद हुमायूँ ने 1533 में “दीनपनाह” नगर की नींव रखी। अभी नगर का निर्माण चल ही रहा था इसी बीच हुमायूँ, शेरशाह सूरी से 1539 में Battle of Chausa में हार गए लेकिन शेरशाह दिल्ली तक नहीं पहुंच पाया था। उसके लिए शेरशाह ने एक साल का इंतजार किया और 1540 में Battle of Bilgram में मुगल साम्राज्य को हरा दिल्ली की गद्दी पर कब्जा किया और दीनपनाह नगर में बनाई जा रही कई इमारतों और मकबरों को नष्ट कर इसका नया नाम दिल्ली शेरशाही या शेरगढ़ रखा और दिल्ली का छठवां नगर बनाया।

पुराना किला- यह किला प्रगति मैदान से ज्‍यादा दूर नहीं है यह किला काफी निर्जन स्‍थान पर चारों तरफ बहुधा हरियाली है। दिल्‍ली इन्‍द्रप्रस्‍थ के कई अति प्राचीन शहरों के अवशेष पर निर्मित पुराना किला लगभग दो किलामीटर की परिधि में लगभग आयताकार में है। इसकी मोटी प्राचीरों को कंगूरों द्वारा सुसज्जित किया गया इसमें तीन मार्ग है जिसके दोनों ओर बुर्ज लगाए गए हैं। इसके चारों तरफ खंदक है जो यमुना नदी से जुड़ी है जो किला के पूर्वी ओर बहती है। उत्‍तरी द्वार को तलाकी दरवाजा या परित्‍यक्‍त द्वार कहते हैं। जो पारंपरिक इस्‍लामिक उत्‍कीर्ण मेहराब के साथ हिन्‍दू छतरियों और ब्रेकटों का समिश्रण है जबकि दक्षिणी दरवाजे को हुमायूँ दरवाजा कहते हैं ये भी इसी तरह बना है। पुराने किले के बड़े दरवाजे और दीवारें हुमायूँ द्वारा निर्मित कराए गए थे जिसे 1534 ई. में नई राजधानी दीनपनाह नाम दिया गया था। शेरशाह सूरी जिसने हुमायूँ को पराजित किया था, ने पुराने किले में कुछ नई इमारतें बनवाईं। यहां प्रत्‍येक सायंकाल में भव्‍य साउंड एन्‍ड लाइट शो का आयोजन किया जाता है।

  • पुराना किले को इंद्रप्रस्थ किला भी कहा जाता है… मान्यता है कि महाभारत काल में  उल्लेखित पांडवों की राजधानी यही थी। हालांकि पांडवों की राजधानी इंद्रप्रस्थ कहां थी? इस बात को लेकर लोगों में बहस होती रही है। हालांकि पुराने किले की पूर्वी दीवार के पास 1969 से 1973 के बीच Archaeological Survey of India द्वारा की गई खुदाई में महाभारत कालीन मानव बसासत के कोई प्रमाण तो नहीं मिले लेकिन मौर्य काल (300 वर्ष ईसापूर्व) के प्रमाण जरूर मिले हैं। जिनमे काल विशेष के सिक्के, मनके, मिटटी के बर्तन, पकी मिटटी की (टेराकोटा) यक्ष यक्षियों की छोटी छोटी प्रतिमाएँ, लिपि युक्त मुद्राएँ (सील) आदि प्रमुख हैं जो किले के संग्रहालय में प्रर्दशित हैं।
  • तीन हजार साल पुराने राज छिपे हैं, दिल्ली के इस किले में… प्रगति मैदान के पास मौजूद इस जगह से 3 हजार साल से भी ज्यादा समय पहले दिल्ली पर राज किया गया था। इसके बाद से यह लगातार आबाद रही है। पुराने किले को 16वीं शताब्दी में शेरशाह सूरी ने बनवाया था। मगर, इससे ढाई हजार साल पहले से लोग यहां रहते थे। ऐसा कहा जाता है कि पांडवों की राजधानी इंद्रप्रस्थ यहीं थी। उन्होंने सोने के पिलर और कीमती पत्थरों से अपने महल बनवाए थे। चित्र वाले भूरे रंग के बर्तनों के अवशेष करीब-करीब हर खुदाई में पुराने किले से मिले हैं। ऐसे बर्तन महाभारत की कहानी से जुड़े कई और जगह भी मिले हैं। ये करीब 1000 ईसा पूर्व के थे। इससे पुराने किले से पांडवों का संबंध मजबूत होता है। इसके अलावा 7-8 शासकों के समय की निशानी इस किले से मिली है।
  • पांडवों की राजधानी का पता लगाने के लिए कई बार किले में खुदाई की गई। सबसे पहले सन् 1955 में पुराने किले के दक्षिण पूर्वी हिस्से में खुदाई की गई थी। इसमें चित्र वाले भूरे रंग के बर्तनों के टुकड़े मिले थे। इसके बाद 1969 में दोबारा खुदाई शुरू की गई। यह 1973 तक चलती रही। हालांकि, चित्रित बर्तनों वाले लोगों की बस्ती का पता नहीं चला। मौर्य काल से शुरुआत से मुगल काल तक के कुछ न कुछ अवशेष जरूर मिले। इसके बाद साल 2014 में फिर से उसी हिस्से के आसपास खुदाई एएसआई ने की। इसमें भी चित्रित भूरे रंग के बर्तनों के कुछ टुकड़े मिले। कोई स्ट्रक्चर सामने नहीं आया। मगर, मौर्य, शुंग, कुषाण, गुप्त, राजपूत शासन और मुगल सल्तनत के अवशेष मिलते रहे। इसमें मौर्यकालीन कुआं (करीब 2 हजार साल पुराना) सामने आया। गुप्त काल के घरों की निशानी भी खुदाई में मिली।
  • 2017-18 में भी पांडवों की राजधानी इंद्रप्रस्थ का पता लगाने को कोशिश हुई। करीब 7 महीने की खुदाई की गई। यहां 30 फुट नीचे तक जाने पर भी छिटपुट चित्रित भूरे रंग के बर्तनों के टुकड़े मिलते रहे। महाभारत कालीन इमारत होने की कोई निशानी नहीं मिली। शुंग और कुषाण काल की मूर्तियां और सिक्के भी मिले।
  • इतिहासकारों का मानना है कि शेरशाह सूरी (1538-45) ने दीनपनाह नगर में तोड़फोड़ की, जिसे मुगल बादशाह हुमायूं ने बनवाया था। इसी जगह उन्होंने किला बनवाया जो पुराना किला के नाम से जाना जाता है। इस किले में उत्तर, दक्षिण और पश्चिम में तीन गेट हैं। अभी पश्चिमी गेट से किले में एंट्री होती है। ऐसा माना जाता है कि शेरशाह सूरी पुराना किला बनाने का काम पूरा नहीं कर पाए थे और इसे हुमायूं ने ही कंप्लीट करवाया। यह किला यमुना नदी के किनारे था।
  • किले में आज मौजूद इमारतों में 1541 में बनाई गई किला-ए-कुहना मस्जिद है। इसके आंगन में एक तालाब भी था, जिसमें फव्वारा लगा था। इस मस्जिद को लोदी शैली से मुगल शैली में परिवर्तन की मिसाल के तौर पर देखा जाता है। मस्जिद के पास ही लाल बलुआ पत्थर से बनी दोमंजिली इमारत है, जिसे शेर मंडल कहते हैं। यह कहा जाता है कि मुगल बादशाह हुमायूं इसका इस्तेमाल लाइब्रेरी के रूप में करते थे। इसकी सीढ़ियों से गिरकर ही उनकी मौत हुई थी। इसके अलावा, शेर मंडल के पास एक बावली भी है, जिसमें पानी है। दिल्ली की ऐतिहासिक बावलियों में से गिनी-चुनी में ही आज पानी है। किले में घुसते ही दाईं ओर म्यूजियम है। इसमें खुदाई में निकले अवशेषों को लोगों के देखने के लिए रखा गया है। पुराने किले में कुछ आधुनिक स्ट्रक्चर भी हैं। इनमें आजादी के बाद पाकिस्तान जाने वाले शरणार्थियों को रखा गया था।

हुमायुं का मकबरा- मथुरा रोड और लोधी रोड की क्रासिंग के समीप स्थित, बागीचे के बीच बना यह शानदार मकबरा भारत में मुग़ल वास्तुकला का पहला महत्वपूर्ण उदाहरण है। इसका निर्माण हुमायूं की मृत्यु के बाद 1565 ई. में उसकी ज्येष्ठ विधवा बेगा बेगम ने करवाया था। चाहरदीवारी के भीतर बने चौरस बागीचे (चाहरबाग) सर्वाधिक देखने योग्य हैं नहरों के साथ बने पैदल मार्ग और बीचों-बीच स्थापित एकदम सटीक अनुपात वाले मकबरे के ऊपर दोहरे गुम्बद शोभायमान हैं। चाहरदीवारी के भीतर मुग़ल शासकों की कई कब्रें हैं और यहीं वर्ष 1857 ई. में लेफ्टिनेंट हडसन ने अंतिम मुग़ल बादशाह बहादुर शाह II को गिरफ्तार किया था।

सातवीं दिल्ली- शाहजहांनाबाद

(1642 A.D)

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शहंशाह 1628 में पांचवे मुगल बादशाह बने। शुरु के काल में उन्होंने अपनी राजधानी आगरा बनाए रखी लेकिन 1638 में दिल्ली को अपनी राजधानी बनाना तय किया और दिल्ली में एक किले औए नए नगर का निर्माण करवाया और उसका नाम शाहजहांनाबाद रखा। वर्ष 1642 में नवरोज के दिनशाह जहांनाबाद का उद्घाटन किया गया था। शाहजहांनाबाद का क्षेत्र अब पुरानी दिल्ली के रूप में जाना जाता है, जहां लालकिला, जामा मस्जिद जैसे भव्य स्मारक मौजूद हैं।

3 मार्च 1707 को मुगल बादशाह औरंगजेब की मृत्यु के बाद भारतीय इतिहास मेँ एक नए युग का पदार्पण हुआ, जिसे ‘उत्तर मुगल काल’ कहा जाता है। औरंगजेब की मृत्यु के बाद मुगल साम्राज्य का पतन भारतीय इतिहास की एक महत्वपूर्ण घटना है। इस घटना ने मध्यकाल का अंत कर आधुनिक भारत की नींव रखी। औरंगजेब की मृत्यु के बाद मुगल गद्दी पर 13 शासकों ने राज किया। जिसमें बहादुर शाह प्रथम(1707-1712), फरूखसियर(1713- 1719), मुहम्मद शाह(1719- 1748), अहमद शाह(1748-1754), शाहआलम द्वितीय(1759-1806), अकबर शाह द्वितीय(1806-1837) और बहादुरशाह द्वितीय (1837-1857) प्रमुख थे।

लाल किला

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वैसे तो दिल्ली में घूमने के लिए कई सारी जगहें हैं, लेकिन लाल किला बात ही कुछ और है। हर साल स्वतंत्रता दिवस के मौके पर भारत के प्रधानमंत्री लाल किले पर झंडा फहराते हैं और देश को संबोधित करते हैं। ऐतिहासिक दृष्टि से महत्वपूर्ण लाल किले का निर्माण शाहजहां ने करवाया था। लाल रंग के बलूआ पत्थर से बने होने के कारण इसका नाम लाल किला पड़ा। इसके अंदर मौजूद दीवान-ए-आम, दीवान-ए-खास, रंग महल, खास महल, हमाम, नौबतखाना, हीरा महल और शाही बुर्ज यादगार इमारतें हैं।

शाहजहां ने “शाहजहांनाबाद” में एक किला बनवाया, जिसे किला-ए-मुबारक कहा जाता है। क्योंकि किला लाल पत्थर से बनाया गया था जो बाद में लाल किला के नाम से प्रसिद्ध हुआ। यह किला एक विशाल संरचना थी, जिसमें नौ साल लगे थे। फ्रांसीसी यात्री बर्नियर के अनुसार, यह सबसे शानदार महल था जो शायद दुनिया में अकेला था। यह अपनी तरह के किसी भी प्रकार से अधिक बड़े और व्यापक पैमाने पर बनाया गया है। यह शाहजहां का निवास स्थान था । साथ ही सांस्कृतिक गतिविधियों का केंद्र और शासकीय सीट भी थी। किले में कई प्रकार की इमारतें थीं, कुल 32 इमारतें थीं। महल-किले की दीवार की सीमा लगभग 3 किलोमीटर है, और यह लगभग 124 एकड़ के क्षेत्र में फैली हुई है, जो आगरा में किले के आकार का दोगुना है। 23 मीटर चौड़ी और 9 मीटर गहरी एक पत्थर की दीवार किले को घेरे हुए है। महल के किले को शहर से तीन बाग बुलंद बाग, गुलाबी बाग और अंगूरी बाग द्वारा अलग किया गया था। महल के किले में चार विशाल द्वार हैं: जिसमें चांदनी चौक का सामने लाहौरी गेट प्रमुख द्वार है। शाहजहांनाबाद के 14 प्रमुख द्वारों में से मोरी, लाहौरी, अजमेरी, तुर्कोमनी, कश्मीरी और अकबराबादी (जिन्हें बाद में दिल्ली गेट के नाम से जाना जाता है) महत्वपूर्ण हैं। महल-किला लगभग एक करोड़ रुपये की लागत से बनाया गया था।

महल के अंदर प्रवेश करते ही गलियारा था। जिसके दोनों ओर दुकानें बनाई गई थीं जिसमें लग्जरी आइटम उपलब्ध थे। इसके आगे बाहर की तरफ मुगल सेना के लिए क्वार्टर और हथियारों के गोदाम थे। गलियारे से सीधा आगे जाकर 61 बटा 24 मीटर का दीवान-ए-आम था। किले के आंतरिक भाग को दो आयतों में विभाजित किया गया था। हरम और निजी हवेली। प्राचीर के ऊपर कम से कम 6 संगमरमर की संरचनाएं थीं और इसे अपनी विशालकाय दीवारों, ओरीएल खिड़कियों और बुर्जों के माध्यम से सामने की ओर खूबसूरत रूप प्रदान करती थी। इसके सामने सबसे बड़ी संरचना रंग महल थी। उत्तर में आरमगाह स्थित था। रंग महल के निकट दीवान-ए-खास था। यह निश्चित रूप से शाहजहांनाबाद की सबसे खूबसूरत इमारत थी। इसे कीमती पत्थरों से सजाया गया था। इस भवन में केवल चुने हुए लोग ही प्रवेश कर सकते थे। शाही किले में हजारों लोग रहते थे। महल में वर्कशॉप, अस्तबल, स्टोर, ट्रेजरी, मिंट और हथियार भी शामिल थे। इस प्रकार, महल एक प्राचीन शहर था, क्योंकि इसमें एक शहर या शहर के सभी तत्व समाहित थे।

शाहजहां ने क्यों बदली राजधानी- शाहजहां 1638 में आगरा से दिल्ली को अपनी राजधानी में बदलना तय किया। फ्रांसीसी यात्री फ्रेंकोइस बर्नियर ने कहा कि आगरा की चिलचिलाती गर्मी ने शाहजहां को नई राजधानी की तलाश करने के लिए मजबूर कर दिया। लेकिन स्पष्ट रूप से अन्य कारण महत्वपूर्ण थे। मुगल साम्राज्य के नियंत्रण के लिए दिल्ली की भौगोलिक स्थिति अधिक रणनीतिक थी। इसके अलावा, 19 वीं शताब्दी की जीवनी रचना के लेखक के रूप में मासीर अल-उमरा ने कहा: “सुल्तानों के मन में हमेशा से यह था कि दुनिया को एक स्थायी स्मारक द्वारा [उन्हें] याद रखने का कारण बने।” आगरा का किला छोटा था। शाहजहां की भव्य और महत्वाकांक्षी इमारत की योजना थी। 1639 में, शाहजहां ने अपने वास्तुकारों, इंजीनियरों और ज्योतिषियों को आगरा और लाहौर के बीच कहीं हल्की जलवायु में एक नई साइट का चयन करने का निर्देश दिया।

शाहजहां के लिए दिल्ली के विकल्प के पीछे कई कारण थे। कुतुबुद्दीन ऐबक के समय से 1506ईं तक राजधानी और मुस्लिम शासन का केंद्र दिल्ली था। लेकिन अफगान शासक सिकंदर लोदी (1489-1517) ने अपनी राजधानी को आगरा स्थानांतरित कर दिया था। बाद में, शाहजहां के दादा मुगल सम्राट हुमायूँ ने पुराना किला क्षेत्र में दीनपनाह नामक एक नई राजधानी की नींव रखी। दिल्ली में एक महत्वपूर्ण धार्मिक-आध्यात्मिक और तीर्थयात्रा केंद्र, मकबरे और कई महत्पूर्ण मजारें भी थीं, जिनमें निजामुद्दीन औलिया, कुतुबुद्दीन बख्तियार काकी और नसीरुद्दीन चिराग देहलवी शामिल थे। 18वीं शताब्दी के शुरुआती दिनों में लिखते हुए हकीम महारत खान इसफ़हानी कहते हैं: “यह हमेशा महान सुल्तानों का साम्राज्य [साम्राज्य की सीट] था और इस्लाम के निशान [इस्लाम-दार इस्लाम] के केंद्र का केंद्र था।” इतिहासकार स्वप्ना लिडल का तर्क है कि विशिष्ट स्थान- यमुना के दाहिने किनारे और सलीमगढ़ किले के दक्षिण में, 1546 में शाह सूरी ने किला बनवाया- जिसे हिंदू पौराणिक कथाओं में शुभ माना जाता है। ऐसा माना जाता है कि विष्णु द्वारा आशीर्वाद दिया गया था, जहां वेदों का ज्ञान केवल पानी में डुबकी लगाने से हो सकता है। इसे निंबोधक कहा जाता था, जिसका अर्थ है कि वेदों के ज्ञान को ज्ञात करता है। निगमबोध घाट को हिंदुओं द्वारा एक पवित्र स्थल माना जाता है।

29 अप्रैल, 1639 को शाही ज्योतिषियों द्वारा निर्धारित समय पर, दिल्ली के सूबेदार (राज्यपाल) ने आर्किटेक्ट उस्ताद अहमद और उस्ताद हामिद को नई राजधानी के लिए खुदाई शुरू करने का आदेश दिया। नौ वर्षों के बाद, 19 अप्रैल, 1648 को, शाहजहाँ ने नदी के द्वार के माध्यम से दौलतखाना-ए-ख़ास / दीवान-ए-ख़ास (हॉल ऑफ़ स्पेशल ऑडियंस) में प्रवेश किया।

मुगल शासक, शाहजहां ने 1618 में लाल किले की नींव रखी गई। वर्ष 1647 में इसके उद्घाटन के बाद महल के मुख्‍य कक्ष भारी पर्दों से सजाए गए और चीन से रेशम और टर्की से मखमल ला कर इसकी सजावट की गई। लगभग डेढ़ मील के दायरे में यह किला अनियमित अष्‍टभुजाकार आकार में बना है और इसके दो प्रवेश द्वार हैं, लाहौर और दिल्‍ली गेट।

2007 में यूनेस्को विश्व विरासत सूची में शामिल- 17वीं सदी से 21वीं सदी का साक्षी दिल्ली का लाल किला, देश की एक ऐसी बुजुर्ग इमारत है जिसकी जवानी और रौनक लौटाने की कोशिश हो रही है। 2007 में यूनेस्को ने इसे विश्व विरासत की सूची में शामिल किया। हाल ही में सरकार की ‘एडॉप्ट ए हेरिटेज’ स्कीम के तहत डालमिया ग्रुप ने पांच साल के कॉन्ट्रेक्ट पर इसे गोद लिया है। यहां जमी हजारों क्विंटल और कई फीट धूल हटाने और इसे संवारने के लिए डालमिया ग्रुप हर साल करीब 5 करोड़ रुपए खर्च कर रहा है। लाल किले का इतिहास भी इसी की तरह भव्य और अनूठा है। मुगल काल में इसे किला-ए-मुबारक के नाम से जाना जाता था। लाल किला मुगल बादशाह शाहजहां की नई राजधानी, शाहजहांनाबाद का महल था। यह दिल्ली शहर की सातवीं मुस्लिम नगरी थी। जिस मुगल साम्राज्‍य की नींव मुगल बादशाह बाबर ने 16वीं सदी में रखी थी, उसका अंत भी इसके दीवान-ए-खास से अंतिम सम्राट बहादुरशाह जफर की रुखसती के साथ हुआ। लाल किले की प्राचीर से ही पहली बार प्रथम प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू ने घोषणा की थी कि, अब भारत एक स्‍वतंत्र देश है।

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लाल किला इतना खास क्यों है…

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  • उद्घाटन पर चीन के रेशम और टर्की के मखमल से हुई थी सजावट- मुगल शासक शाहजहां ने 11 वर्ष तक आगरा से शासन करने के बाद तय किया कि राजधानी को दिल्‍ली लाया जाए और यहां 1618 में लाल किले की नींव रखी गई। यहां अपने शासन की प्रतिष्ठा बढ़ाने के साथ ही नए-नए निर्माण कराने की महत्वकांक्षा को नए मौके देने के लिए 1647 में इसके उद्घाटन के बाद महल के मुख्‍य कक्ष भारी पर्दों से सजाए गए और चीन के रेशम और टर्की के मखमल से इसकी सजावट की गई।
  • दिन में पांच बार बजाया जाता था शाही बैंड- लगभग डेढ़ मील के दायरे में यह किला अनियमित अष्‍टभुजाकार आकार में बना है और इसके दो प्रवेश द्वार हैं, लाहौर और दिल्‍ली गेट। लाहौर गेट से दर्शक छत्ता चौक में पहुंचते हैं, जो एक समय शाही बाजार हुआ करता था और इसमें दरबारी जौहरी, लघु चित्र बनाने वाले चित्रकार, कालीनों के निर्माता, रेशम के बुनकर और विशेष प्रकार के दस्‍तकारों के परिवार रहा करते थे। शाही बाजार से एक सड़क नवाबखाने की ओर जाती है, जहां दिन में पांच बार शाही बैंड बजाया जाता था। यह बैंड हाउस मुख्‍य महल में प्रवेश का संकेत भी देता है और शाही परिवार के अलावा अन्य सभी अतिथियों को यहां झुक कर जाना होता है।
  • वास्तुकला से समृद्ध कई इमारते हैं यहां- लाल किले में कई प्रमुख इमारते हैं जिनमें दीवान-ए-आम, दीवान-ए-खास के अलावा मोती मस्जिद, हीरा महल, रंग महल, खास महल और हयात बख्श बाग समेत 15 प्रमुख स्थल हैं। खास वास्तुकला को दर्शाती ये इमारतें दर्शकों को आकर्षित करती हैं। लाल किला का निर्माण कार्य निर्माण कार्य उस्‍ताद अहमद और उस्‍ताद हामिद ने किया था। इस किले में करीब 200 साल तक मुगल परिवार के वंशज रहे।
  • जनता की तकलीफें सुनने के लिए बना था दीवान-ए-आम- दीवान-ए-आम लाल किले का सार्वजनिक प्रेक्षागृह है। मुगल शासक यहां दरबार लगाकर लोगों की तकलीफें सुनते थे और विशिष्ट अतिथियों तथा विदेशी व्‍यक्तियों से मुलाकात करते थे। दीवान-ए-आम की सबसे प्रमुख विशेषता यह है कि इसकी पिछली दीवार में लता मंडप बना हुआ है जहां बादशाह समृद्ध पच्‍चीकारी और संगमरमर के बने मंच पर बैठते थे। इस मंच के पीछे इटालियन पिएट्रा ड्यूरा कार्य के उत्‍कृष्‍ट नमूने बने हुए हैं।
  • मेहमानों की खातिरदारी के लिए जाना जाता था दीवान-ए-खास – किले का दीवान-ए-खास निजी मेहमानों के लिए था। शाहजहां के सभी भवनों में सबसे अधिक सजावट वाला 90 X 67 फीट का दीवान-ए-खास सफेद संगमरमर का बना हुआ मंडप है जिसके चारों ओर बारीक तराशे गए खम्‍भे हैं। इस मंडप की सुंदरता से अभिभूत होकर बादशाह ने यह कहा था ”यदि इस पृथ्‍वी पर कहीं स्‍वर्ग है तो यहीं हैं, यहीं हैं”। कार्नेलियन तथा अन्‍य पत्‍थरों के पच्‍चीकारी मोज़ेक कार्य के फूलों से सजा दीवान-ए- खास एक समय प्रसिद्ध मयूर सिहांसन के लिए भी जाना जाता था, जिसे 1739 में नादिरशाह द्वारा हथिया लिया गया, जिसकी कीमत 6 मिलियन स्‍टर्लिंग थी।
  • ब्रिटिश काल में छावनी के रूप में प्रयोग होता था लाल किला- लाल किले की योजना, व्यवस्था एवं सौन्दर्य मुगल सृजनात्मकता का अहम बिन्दु है जो शाहजहां के काल में अपने चरम उत्कर्ष पर पहुंची। इस किले के निर्माण के बाद कई विकास कार्य शाहजहां ने करवाए। विकास के कई बड़े पहलू औरंगजेब एवं अंतिम मुगल शासकों द्वारा किए गए। इसमें कई बड़े बदलाव ब्रिटिश काल में 1857 का प्रथम स्वतंत्रता संग्राम के बाद किये गये थे। ब्रिटिश काल में यह किला छावनी रूप में प्रयोग किया गया था और स्वतंत्रता के बाद भी इसके कई महत्वपूर्ण भाग सेना के नियंत्रण में 2003 तक रहे।
  • ताजमहल और लाल किले में एक समानता है यमुना नदी का किनारा- किले में बने हमाम के पश्चिम में मोती मस्जिद बनी है। ये औरंगजेब की निजी मस्जिद थी। तीन गुम्बद वाली ये मस्जिद तराशे हुए सफेद संगमरमर से बनी है। आगरा के ताजमहल और किले की तरह लाल किला भी यमुना नदी के किनारे पर बना है। इसी नदी का पानी किले को घेरकर आसपास बनी खाई को भरता था। लाल किले के पूर्व-उत्तर की ओर एक पुराना किला भी है, जिसे सलीमगढ़ का किला भी कहते हैं। सलीमगढ़ का किला इस्लाम शाह सूरी ने 1546 में बनवाया था। कुछ मत ये भी हैं कि लालकोट का किला राजा पृथ्वीराज चौहान का बनवाया हुआ है। जो उनकी राजधानी हुआ करती थी। बाद में इस पर शाहजहां ने कब्जा करके इसमें हेरफेर करा दिया।
  • इसी किले में रखा था कोहिनूर हीरा- मुगल सल्तनत के पतन और 1857 के पहले स्वतंत्रता संग्राम के बाद अंग्रेजों ने इस किले में आर्मी हेड क्वार्टर बना लिया। अंग्रेज यहां रखे सभी कीमती सामानों को लूटकर ले गए। यहां तक कि उन्होंने यहां बने ज्यादातर महलों, इमारतों और बगीचों को नष्ट कर दिया। दुनिया का सबसे बड़ा कोहिनूर हीरा भी एक वक्त पर इसी इमारत में रखा हुआ था। दरअसल शाहजहां जिस तख्त पर बैठा करते थे ये हीरा उसी में लगा हुआ था। ये सिंहासन सोने से बना था और उस पर बेहद कीमती पत्थर लगे हुए थे। कोहिनूर लगा ये तख्त दीवान-ए-खास में रखा रहता था।
  • इसलिए कहलाया लाल किला- लाल रंग के कारण इसे लाल किला कहा गया है। ज्यादातर लोगों को यही लगता है कि लाल किले का असली रंग लाल है। इसी वजह से इसे ये नाम मिला है। लेकिन असलियत इससे अलग है। लाल किले को भले ही इसके वर्तमान रंग की वजह से लाल किला कहा जाता हो, लेकिन ये बनते वक्त ऐसा नहीं था। भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग के मुताबिक इस इमारत के कई हिस्से चूना पत्थर से बनाए गए थे, जिसकी वजह से इसका रंग सफेद था। लेकिन वक्त के साथ जब वो खराब होकर गिरने लगे, तो अंग्रेजो ने उस पर लाल रंग करा दिया। इसी वजह से बाद में इसे ‘लाल किला’ कहा जाने लगा।
  • 2003 में पर्यटन विभाग को सौंपा गया – 1947 में भारत के आजाद होने पर ब्रिटिश सरकार ने यह परिसर भारतीय सेना के हवाले कर दिया था, तब से यहां सेना का कार्यालय बना हुआ था। 22 दिसम्बर 2003 को भारतीय सेना ने 56 साल पुराने अपने कार्यालय को हटाकर लाल किला खाली किया और एक समारोह में पर्यटन विभाग को सौंप दिया।

 

 

 

आठवीं दिल्ली- लुट्यन्स दिल्ली या नई दिल्ली

(1911 A.D)

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समय के साथ ये इलाके दिल्ली के सात शहरों के नाम से मशहूर हुए और आठवां शहर बना नई दिल्ली। लेकिन इस क्रम में ये शहर कई बार गुलज़ार हुआ तो कई बरस गुमनामी की गर्त में भी बीत गए। लाल कोट, महरौली, सिरी, तुग़लकाबाद, फिरोजाबाद, दीन पनाह और शाहजहानाबाद नाम के ये सात शहर आज भी खंडहर बन चुकी अपनी निशानियों की जबानी दिल्ली के बसने और उजड़ने की कहानियां कहते हैं। दिल्ली भले ही हमारे दिलो-दिमाग़ पर राजधानी के रुप में छाई हो लेकिन इतिहास गवाह है कि मुग़लों के दौर में भी जो रुतबा आगरा और लाहौर का रहा वो दिल्ली को कम ही नसीब हुआ। ये सिलसिला आखिरकार 1911 में ख़त्म हुआ जब अंग्रेज़ प्रशासित भारत की राजधानी को कलकत्ता से दिल्ली स्थानांतरित करने की घोषणा हुई। इसी के साथ शुरु हुई ‘शाहजहानाबाद’ यानि पुरानी दिल्ली को ‘नई दिल्ली’ का रुप देने की कवायद। पुरानी दिल्ली के लिए क्या कुछ बदलने वाला था इसकी आहट दिल्ली दरबार की तैयारियों पर एक नज़र से मिलती है।

सन 1803 में दिल्ली पर अंग्रेजों के कब्जे से पहले मराठों का वर्चस्व था। अब सवाल उठता है कि जब देश में मुगल साम्राज्य था को दिल्ली पर कैसे मराठों का वर्चस्व हुआ। इसके लिए जाना हो 31 साल पहले यानि 1772 में जब अपनी राजधानी में स्वयं प्रवेश करने में असमर्थ निर्वासित मुगल सम्राट शाह आलम द्वितीय को वर्ष 1772 में मराठा सेनाएं, मराठा संगीनों के साये में, इलाहाबाद से दिल्ली लाईं और उसे दिल्ली की गद्दी पर फिर से बिठाया। उसने लगभग सब अधिकार मराठों को दे दिए। मुगल दरबार का एक बड़ा पद था, वजीरे-मुतलक। वजीरे-मुतलक को वजीरे-आलम को छोड़कर दरबार के शेष सब पदों पर नियुक्तियां करने का अधिकार होता था। शाह आलम ने पेशवा को वजीरे-मुतलक बनाया और पेशवा के प्रतिनिधि के रूप में महादजी सिन्धिया वजीरे-मुतलक के अधिकारों का उपयोग करने लगे।

दिल्ली की जंग- 216 साल पहले 11 सितंबर 1803 को अंग्रेजों और मराठों के बीच दिल्ली के कब्जे को लेकर जंग हुई थी। दस्तावेजों से पता चलता है कि अंग्रेजों ने अपना साम्राज्य बढ़ाने के लिए दिल्ली की तरफ कूच किया था। अलीगढ़ में जीत हासिल करने के बाद लॉर्ड लेक की सेना दिल्ली रवाना हुई। लगभग 18 मील का रास्ता तय करने के बाद छलेरा गांव (नोएडा का एक गांव) के पास सेना ने अपना डेरा डाला। उस वक्त मराठों की सेना का कैंप यमुना नदी के किनारे (पटपड़गंज) के पास लगा था। उस वक्त मराठे दिल्ली के चारों तरफ सुरक्षा कवच का काम करते थे। 11 सितंबर के युद्ध के बारे में लेक ने लिखा है कि दुश्मन के बारे में हमारा आंकलन गलत था। हमारी तादाद केवल साढे़ 4 हजार थी, जबकि दिल्ली के बाहर यमुना किनारे जनरल लुइस बार्किन के सैनिक लाव लश्कर के साथ लगभग 19 हजार के करीब थे। इस दिन से पहले हमारे कई वरिष्ठ सैन्य अफसर मारे जा चुके थे। इनमें मेजर मिडिल्टन, कार्नेट सेंजुई, कैप्टन रॉबर्ट मेकग्रेजर, लेफ्टिनेंट हिल, लेफ्टिनेंट प्रेस्टन और लेफ्टिनेंट एल्डन आदि शामिल हैं। 

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दिल्ली युद्ध में अहम रोल निभाने वाले अंग्रेज कमांडर जनरल ग्रेरार्ड लेक ने अपनी डायरी में लिखा है कि इस युद्ध में मराठों की सेना का नेतृत्व फ्रांस के जनरल लुइस बार्किन कर रहे थे। अंग्रेजों की सेना में लगभग साढे़ चार हजार और मराठों की सेना में 19 हजार सैनिक शामिल थे। एक बार मराठों की सेना ने उनके सैनिकों को पीछे हटने को मजबूर कर दिया था। युद्ध में लगभग 197 यूरोपियन और मराठों की सेना में लड़ते हुए लगभग 288 भारतीय सैनिक मारे गए थे। मरने वालों का उल्लेख उन्होंने तत्कालीन गवर्नर जनरल मार्कोस वैल्सले को लिखे पत्र में किया है।

लॉर्ड वेलेज़ली की झूठी ज़बान- परसिवल स्पीयर अपनी किताब ‘ट्वाइलाइट इन दिल्ली’ में लिखते हैं, ”ब्रिटिश गवर्नर जनरल लॉर्ड वेलेज़ली का लक्ष्य मुग़ल सम्मान की रक्षा करना था और वह भी अपने उच्चाधिकारियों को बिना बताए. वहीं, शाह आलम अपने शाही अभिमान को किसी भी कीमत पर बरकरार रखना चाहते थे.”

लॉर्ड वेलेज़ली के एजेंट ब्रिटिश कमांडर इन चीफ़ लॉर्ड लेक थे और उनके दिल्ली में एजेंट सैयद रज़ा ख़ान थे. जुलाई और अगस्त के बीच शाह आलम ने मराठों को मदद और शिकायत के पत्र लिखे जिसमें उन्होंने ब्रितानी व्यवहार और युद्ध के भविष्य पर बात की थी. दरअसल, शाह आलम एक तरह से आभासी तौर पर मराठों के कैदी बने हुए थे.

27 जुलाई 1803 को वेलेज़ली ने निजी पत्र में शाह आलम को आश्वासन दिया कि अगर वह उनकी शरण स्वीकार कर लेते हैं तो उन्हें हर सम्मान दिया जाएगा, उनके और उनके परिवार के लिए ब्रिटिश सरकार पूरा समर्थन देगी और उनको पर्याप्त सुविधाएं दी जाएंगी.

स्पीयर ऐसा भी कहते हैं कि गवर्नर जनरल ने जो भरोसा दिलाया था वह झूठी ज़बान थी. सम्मान और व्यक्तिगत सुरक्षा देने के अलावा वह चाहते थे कि लेक शाह आलम से आग्रह करें और उनके उत्तराधिकार अकबर-द्वितीय को बंगाल के मुंगेर (अब बिहार में) भेजें. हालांकि, सिंध के विजेता सर चार्ल्स नेपियर का कहना था कि सम्राट को माफ़ी देकर अकबर द्वारा बसाई गई राजधानी फ़तेहपुर सीकरी भेज दिया जाए जो वहां वह एक ग़ुमनाम सम्राट की तरह रहें.

अंग्रेज़ों के ख़िलाफ़ ही लड़ाई छेड़ दी- शाह आलम ने 29 अगस्त 1803 को अंग्रेज़ों से समर्थन मांगा, लेकिन 1 सितंबर 1803 को फ़्रांस के पत्र के आधार पर अंग्रेज़ों के ख़िलाफ़ लड़ाई का एलान कर दिया. इसके बाद युद्ध शुरू हुआ और गुरिल्ला युद्ध भी लड़ा गया. इसमें फ्रेंच कमांडर और दिल्ली के स्थानीय सैनिक थे जिन्होंने जंग में हिस्सा लिया. गलियों और मोहल्लों में भाले और तलवारों के साथ जंग लड़ी गई.

दिल्ली के लोग और यहां तक लाल किले में मौजूद सम्राट और उनका परिवार किसी जादू की कल्पना कर रहे थे, लेकिन तब तक दिल्ली पर अंग्रेज़ों का कब्ज़ा हो चुका था जो अगस्त 1947 तक रहा. यह एक घटना है जिसे दिल्ली के इतिहास में कई सालों तक याद नहीं किया गया.

नोएडा में आज भी मौजूद है उस जीत का स्तंभ- अगर आप कभी नोएडा गोल्फ कोर्स गए हैं तो यहां स्थित ऐतिहासिक स्तंभ आपने जरूर देखा होगा। यह स्तंभ  युद्ध में जीत हासिल करने के बाद अंग्रेजों ने यादगार के तौर पर अप्रैल 1915 में यह स्तंभ स्थापित किया था। इसे जीत गढ़ के नाम से जाना जाता रहा है। स्तंभ की स्टडी से पता चला है कि इसे दिल्ली युद्ध में अहम रोल निभाने वाले अंग्रेज कमांडर जनरल ग्रेरार्ड लेक को समर्पित किया गया है।

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कैसे कलकत्ता से दिल्ली शिफ्ट हुई भारत की राजधानी

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दिल्ली का आठवां शहर’ किताब के लेखक मदन थपलियाल के मुताबिक 12 दिसंबर 1911 को किंग जॉर्ज पंचम और क्वीन मेरी ने दिल्ली दरबार में आधारशिलाएं रखकर नई राजधानी का शिलान्यास किया। 12 दिसंबर की रात को दरबार का समापन हुआ। इस मौके पर जॉर्ज पंचम ने दो ऐलान किए। बंगाल सूबे के विभाजन को खत्म करना और कलकत्ता की जगह पर दिल्ली को राजधानी बनाना।

दिल्ली को क्यों बनाया राजधानी- भारत के तत्कालीन वायसराय लॉर्ड हार्डिंग ने कोई 100 साल पहले एक पत्र में बताया था कि ग्रेट ब्रिटेन को अपने साम्राज्य की राजधानी कलकत्ता की बजाय दिल्ली को क्यों बनाना चाहिए। यह पत्र 25 अगस्त, 1911 को शिमला से लंदन भेजा गया था और सेक्रटरी ऑफ स्टेट फॉर इंडिया को संबोधित था। हार्डिंग ने दलील दी थी कि दिल्ली केंद्र में स्थित है, इसलिए यह ज्यादा फायदेमंद होगी। 16 अक्टूबर, 1905 को ब्रिटिश ने बंगाल को मुस्लिम पूर्वी क्षेत्र और हिंदू पश्चिमी क्षेत्रों में बांट दिया। राज्य का बंटवारा ‘फूट डालो और राज करो’ की नीति के तहत राज्य पर नियंत्रण स्थापित करने के लिए किया गया था। लेकिन इससे राष्ट्रवादी ताकतें आहत हुईं और विदेशी सामानों का बहिष्कार शुरू कर दिया। लोगों ने अपना आक्रोश दिखाना शुरू कर दिया और कलकत्ता में बमबारी एवं राजनीतिक हत्याएं होने लगी। इससे अंग्रेज घबरा गए और उनको कलकत्ता सुरक्षित नहीं लगा इसलिए वे जल्द से जल्द कलकत्ता छोड़ देना चाहते थे।

गुप्त रखी गई थी योजना1911 में अंग्रेज़ों का विरोध व्यापक हो चुका था और कलकत्ता इन गतिविधियों का गढ़ बन रहा था। स्वराज की सुगबुगाहट के बीच किंग जॉर्ज पंचम ने भारत की जनता से सीधा रिश्ता कायम करने की नजर से अपने राज्याभिषेक के लिए दिल्ली दरबार सजाया। लेकिन एक तीर से दो निशाने साधते हुए इस अवसर पर दिल्ली को भारत की राजधानी घोषित करने का निर्णय अंतिम समय तक एक राज रखा गया।”अंग्रेज़ों ने जब दिल्ली के बारे में सोचा तो उन्हें लगा कि ये बेहद सुंदर शहर है और इसका इतिहास इतना पुराना है कि इसे राजधानी बनाने के जरिए वो भी इस इतिहास से जुड़ जाएंगे। किसी ने उन्हें यह भी याद दिलाया कि दिल्ली में जो राज करता है बहुत दिन तक उसका राज्य टिकता नहीं लेकिन अंग्रेज़ अपना मन बना चुके थे।”  अंग्रेज़ी सरकार नहीं चाहती थी इस महत्वपूर्ण आयोजन में कोई भी चूक रंग में भंग डाले। ये आयोजन जिस शानो-शौकत और सटीक योजनाबद्ध तरीके से किया गया उसका आज भी कोई सानी नहीं। आयोजन इतना भव्य था कि इसके लिए शहर से दूर बुराड़ी इलाके को चुना गया और अलग-अलग राज्यों से आए राजा-रजवाड़े, उनकी रानियां, नवाब और उनके कारिंदों सहित भारतभर से ‘अतिविशिष्ट’ निमंत्रित थे।

राजधानी बनाने के लिए जमीन अधिग्रहण- जब दिल्ली को राजधानी बनाने का ऐलान किया गया, उस वक्त दिल्ली पंजाब प्रांत की तहसील थी। दिल्ली को राजधानी बनाने के लिए जमीन अधिग्रहण का आदेश दिया गया। कई गांवों की जमीन ली गई। नई राजधानी बनाने के लिए पंजाब के उपराज्यपाल ने दिल्ली और बल्लभगढ़ जिले के 128 गांवों की एक लाख 15 हजार एकड़ जमीन अधिग्रहित करने का आदेश दिया। मेरठ जिले के 65 गांवों को भी दिल्ली में शामिल किया गया। यह सभी गांव यमुनापार एरिया के थे और बाद में शाहदरा तहसील के अंदर आए।

लुटियन और बेकर का प्लान- राजधानी दिल्ली का ज्यादातर हिस्सा ब्रिटिश आर्किटेक्ट एडविन लुटियन और हर्बर्ट बेकर ने प्लान किया था। इसलिए, इसे लुटिनंस दिल्ली भी बोलते हैं। लुटियंस ने यह भी सुझाव दिया था कि राजधानी में कोई भी इमारत 45 फीट से ऊंची न हो। चारों ओर पेड़ हों और ऊपर से देखने में यह हरा-भरा शहर लगे। नई राजधानी बनाने के लिए नई दिल्ली नगर योजना समिति बनाई गई। इसमें एडविन लुटियंस भी थे। लुटियंस ने नॉर्थ इलाके को बहुत छोटा, तंग, मलेरिया ग्रस्त और हेल्थ के लिए खतरनाक कह कर रद्द कर दिया। साउथ दिल्ली में यमुना के किनारे नई जगह का सुझाव दिया गया। यह सुझाव भी वाइसराय को पसंद नहीं आया। आखिरकार मालचा गांव के पास की जगह रायसीना पहाड़ी नई राजधानी के निर्माण के लिए चुनी गई। भले ही दिल्ली को राजधानी बनाने का ऐलान 1911 में किया गया था लेकिन इसके लिए निर्माण कार्य प्रथम विश्व युद्ध के खत्म होने के बाद गति ले सका। 13 फरवरी 1931 लॉर्ड इरविन की मौजूदगी में इसका राजधानी के रूप में उद्घाटन हुआ।

यूं हुआ था राजधानी बनाने का ऐलान-  दिल्ली को राजधानी बनाने का ऐलान 12 दिसंबर 1911 को हुआ था। ब्रिटिश राज के सबसे बड़े तमाशे दिल्ली दरबार में पहली बार किंग जॉर्ज पंचम अपनी रानी क्वीन मैरी के साथ मौजूद थे। उन्होंने अस्सी हजार लोगों की मौजूदगी में घोषणा की, हमें भारत की जनता को यह बताते हुए बेहद हर्ष होता है कि सरकार और उसके मंत्रियों की सलाह पर देश को बेहतर ढंग से प्रशासित करने के लिए ब्रिटिश सरकार भारत की राजधानी को कलकत्ता से दिल्ली स्थानांतरित करती है।

  • 1921-1927 : संसद भवन का निर्माण कार्य चला।
  • 1922 : तीन कॉलेज, सेंट स्‍टीफन्‍स, हिंदू और राजमस के साथ यूनिवर्सिटी ऑफ दिल्‍ली की स्थापना।
  • 1931: दिल्ली के राजपथ पर स्थित 43 मीटर ऊंचा इंडिया गेट बना।
  • 1931: राष्‍ट्रपति भवन का आधिकारिक उद्धाटन।

बहुत पिछड़ी थी दिल्ली – तब दिल्ली बहुत पिछड़ी थी। बॉम्बे, कलकत्ता और मद्रास जैसे महानगर हर बात में काफी आगे थे। यहां तक कि लखनऊ और हैदराबाद भी दिल्ली से बेहतर माने जाते थे। दिल्ली की महज तीन फीसदी आबादी अंग्रेजी पढ़ पाती थी। यही कारण है कि विदेशी भी बहुत कम आते थे। मेरठ (2161 विदेशी) की तुलना में दिल्ली में महज 992 विदेशी ही आते थे। हालात इतने खराब थे कि कोई बड़ा आदमी वहां पैसा लगाने को तैयार नहीं था, लेकिन भौगोलिक दृष्टि से देश के मध्य में होने के कारण दिल्ली को राजधानी बनाने का ऐलान हुआ। दो दशक तक इसे विकसित किया गया।

पेट्रोल 30 पैसे लीटर, तेज गति से वाहन चलाने का फाइन 100 रुपए – तब दिल्ली में पेट्रोल तीस पैसे लीटर था। लेकिन वाहन तेजी से चलाने पर सौ रुपए तक अर्थदंड वसूला जाता था। यह तेज गति थी 19 किमी प्रति घंटा। दिल्ली में बर्मा ऑइल कंपनी पेट्रोल बांटती थी।

घड़ी देखकर होते थे फोन कॉल्स – किंग जॉर्ज पंचम के उस दौरे के बाद से पोस्ट ऑफिस से फोन कॉल करने की सुविधा मिली थी। हालांकि चुनिंदा रईस लोग ही फोन लगाते थे, लेकिन खास बात यह थी कि तब फोन कॉल्स घड़ी देखकर होते थे। बातचीत का तीसरा मिनट शुरू होने का मतलब था कि अगले 60 सेकंड में बात खत्म करके कॉल कट करना होगा। तीन मिनट के कॉल के चार आने यानी 25 लगते थे।

  • 1961 : देश का पहला 70 एमएम थिएटर खुला।
  • 1966 : देश का पहला सुपरमार्केट ‘सुपरबाजार’ कनॉट पैलेस के पास खुला।
  • 1969 : जवाहर लाल यूनिवर्सिटीज स्‍थापित हुई।
  • 1980 : प्रगति मैदान बना।
  • 1982: पहला बड़ा अवसर मिला। दिल्‍ली में एशियन गेम्‍स आयोजित किया गया।
  • 1984 : शहर का पहला अम्‍यूजमेंट पार्क अप्‍पू घर खुला।
  • 1986 : लोटस टेम्‍पल का उद्घाटन हुआ।
  • 1993 : दिल्‍ली में विधान सभा स्‍थापित हुई।

परकोटे वाली दिल्ली से बाहर बसे अंग्रेज

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  • शाहजहांनाबाद दीवार को ध्वस्त करने का आदेश- फरवरी 1858 में अंग्रेज सैनिक अधिकारियों ने शहर की दीवार को ध्वस्त करने का आदेश दिया। तत्कालीन कमिश्नर जॉन लॉरेंस इस को पूरी तरह एक गलत फैसला मानता था। उसने दिल्ली में सात मील लंबी दीवार को उड़ाने के लिए अपर्याप्त बारूद होने की बात कही। फिर आदेश को पूरा करने के लिए मजदूरों ने एक-एक करके हाथ से दीवार के पत्थरों को हटाया। यह एक तरह से जानबूझकर देरी के लिए अपनाई रणनीति हो सकती है, क्योंकि वर्ष के अंत में सुप्रीम गर्वनमेंट ने उसकी बातों को स्वीकार कर लिया और दीवार को कायम रखने का फैसला किया।
  • पुरानी इमारतों को संरक्षित करने के आदेश तक काफी नुकसान हो चुका था- उल्लेखनीय है कि मार्च 1859 में “दिल्ली गजट” नामक अखबार ने इस बात की ओर ध्यान दिलाया कि महल यानी लालकिला के भीतर इमारतों को गोला-बारूद से नेस्तानाबूद करने का काम हो रहा है। इसके एक साल बाद, जब लार्ड कैनिंग ने वास्तुकला या ऐतिहासिक महत्व की पुरानी इमारतों को संरक्षित किए जाने का आदेश दिया तो तब तक काफी नुकसान हो चुका था। इतना ही नहीं, अंग्रेजों ने 1861 में, रेलवे लाइन के निर्माण के हिसाब से लाल किले के कलकत्ता गेट सहित कश्मीरी गेट और मोरी गेट के बीच के क्षेत्र को ध्वस्त कर दिया। इसके पीछे उनका मकसद साफ था कि अगर भविष्य में भारतीयों की ओर से दोबारा ऐसा प्रयास होता है तो ब्रितानी सेना उसे जल्दी और आसानी से दबा सकें।
  • 1857 के बाद अंग्रेज शासकों ने शाहजहानाबाद से दूरी बना ली- उन्होंने जानबूझकर इसकी अनदेखी की। कश्मीरी गेट क्षेत्र में परकोटे वाले शहर में कुछ समय रहने के बाद वे सिविल लाइन्स के इलाके में स्थानांतरित हो गए। इस तरह, उन्होंने पुराने शहर और नए बस्तियों के बीच यानी कुदसिया और निकोलसन बागों की काफी जगह छोड़ दी। न केवल भौगोलिक बल्कि सामाजिक और सांस्कृतिक रूप से शाहजहानाबाद पृथक ही बना रहा और दीवार पुराने तथा परिवर्तन की नई हवाओं के बीच एक अवरोध के रूप में कायम रही।
  • वर्ष 1872 में दिल्ली को एक सुंदर शहर बनाने की चाहत रखने वाला अंग्रेज कमीश्नर कर्नल क्रेक्रॉफ्ट पुराने शहर की दीवार को अराजकतावाद की निशानी मानता था। वर्ष 1881 में नगर पालिका ने लाहौरी दरवाजे की दोनों ओर रास्ते बनाते हुए दिल्ली गेट को नष्ट करने का इरादा बनाया। तत्कालीन अंग्रेज कमांडर-इन-चीफ ने इस पर आपत्ति व्यक्त की क्योंकि वह कश्मीरी गेट और उससे सटी दीवारों को ऐतिहासिक महत्व की वजह से बचाना चाहता था। वहीं वर्ष 1905 में, एक मेजर पार्सन ने शाहजहानाबाद के भीड़भाड़ का हवाला देते हुए कुछ हद तक इस बात की वकालत करी कि शहर के फैलाव की जगह होनी चाहिए, अन्यथा यह खत्म हो जाएगा। उसने साफगोई से यह बात कही कि दीवार को तोड़कर शहर का पश्चिम की दिशा की तरफ विस्तार करना चाहिए। ब्रितानी राज में 1857-1911 की अवधि में दिल्ली में पूरा शहर विध्वंस का गवाह बना। इस अवधि में ब्रितानी सरकार ने अपनी सेना और प्रशासन में काम करने वाले गोरों के लिए घर, कार्यालय, चर्च, बाजार बनाए और इस तरह गोरों की आबादी शहर यानि शाहजहांनाबाद के परकोटे की दीवार से बाहर बस गई।
  • यामिनी नारायणन की पुस्तक “रिलीजन, हैरिटेज एंड द सस्टेनेबल सिटी हिंदुइज्म एंड अर्बनाइजेशन इन जयपुर” के अनुसार, भारत में अंग्रेजी उपनिवेशवाद के बाद बने शहरों के साथ ही पुराने परकोटे वाले शहरों का महत्व घटना शुरू हुआ। वर्ष 1857 के पहले भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के बाद अंग्रेज़ शासकों ने ब्रितानिया साम्राज्य में नए बड़े शहरों को बनाने की शुरूआत की और वे पुराने परकोटे वाले शहरों से बाहर निकलने लगे। उल्लेखनीय है कि शाहजहाँनाबाद की पश्चिम और उत्तर दिशा की दीवारों के विपरीत दक्षिण-पश्चिमी तरफ की दीवार को असलियत में एक रूकावट माना गया था तथा वर्ष 1820 के दशक में इसके कुछ हिस्सों को ध्वस्त कर दिया गया।
  • द ट्रेडिशन ऑफ़ इंडियन आर्किटेक्चरपुस्तक में जीएचआर तिलोटसन लिखते हैं कि वर्ष 1911 में, अंग्रेज राजा जॉर्ज पंचम ने भारत की राजनीति से संबंधित व्यक्तियों को दिल्ली को एक बार फिर भारत की राजधानी बनाने की घोषणा करके अचंभे में डाल दिया। उल्लेखनीय है कि अंग्रेज राजा ने अपने भाषण में दिल्ली को प्राचीन राजधानी बताया। उस समय तक कलकत्ता ब्रिटिश भारत की राजधानी थी। वर्ष 1911 में अंग्रेजों के अपनी राजधानी को कलकत्ता से दिल्ली लाने के साथ ही एडवर्ड लुटियन को शाहजहांनाबाद के बाहर नई दिल्ली बनाने का दायित्व सौंपा गया। वह (लुटियन) तो वायसराय भवन से लेकर जामिया मस्जिद तक एक सीधी सड़क निकालना चाहता था, जो पुरानी दिल्ली की दीवार और बाजारों से होते हुई गुजरती। लेकिन उसकी इस योजना को अंग्रेज राजा की स्वीकृति नहीं मिलने के कारण ऐसा नहीं हो सका।
  • सिटी वॉलः द अर्बन एनसीइन्ट इन ग्लोबल पर्सपेक्टिवशीर्षक वाली पुस्तक के अनुसार, हर्बर्ट बेकर और एडविन लुटियंस दोनों को एक और दिल्ली की योजना बनाने की जिम्मेदारी दी गई थी। लुटियन का शहर आधुनिकता और प्रगति की एक निशानी के रूप में तैयार होना था, जहां पर चारदीवारी या परकोटे का कोई स्थान नहीं था।

अंग्रेजों की मौज-मस्ती

  • कनॉट प्‍लेस- दिल्ली का प्रमुख व्‍यवसायिक केंद्र है। इसका नाम ब्रिटेन के शाही परिवार के सदस्‍य Prince Arthur, 1st Duke of Connaught and Strathearn के नाम पर रखा गया था। इसका निर्माण 1929 में शुरू हुआ और 1933 में पूरा हुआ। इस बाज़ार का डिजाइन डब्‍ल्‍यू. एच. निकोलस और टॉर रसेल ने बनाया था। कनॉट प्लेस के निर्माण से पहले यह क्षेत्र एक रिज था, जो किकर के पेड़ों से पटा पड़ा था और गीदड़ों और जंगली सूअरों से आबाद था। कश्मीरी गेट, सिविल लाइन्स में रहने वाले अंग्रेज अफसर और कर्मचारी वीकेंड में शिकार के लिए आया करते थे। बनने के बाद कनॉट प्‍लेस भारत का सबसे बड़ा बाज़ार था। कनॉट प्लेस की बनावट घोड़े की नाल की बनावट से मेल खाती है और इसके ढ़ांचे की प्रेरणा ब्रिटेन में स्थित रॉयल क्रीसेंट से ली गई थी। कनॉट प्लेस बसाने की योजना वास्तुविद एच निकोलस की थी, लेकिन अंजाम दिया वास्तुविद राबर्ट टॉर रसल ने। यह इलाका माधोगंज गाँव के नाम से जाना जाता था, जहाँ चारों ओर जंगल था। माधोगंज गाँव जयपुर के महाराजा जयसिंह की रियासत का हिस्सा था। उन्होंने यह जगह अंग्रेज़ों को भेंट की। बाकी कुछ जगह दो रुपये प्रति वर्ग मीटर की दर से स्थानीय लोगों से ख़रीदी गई। ड्यूक ऑफ कनॉट के नाम पर अंग्रेज़ बहादुरों की गोरी मेमों के सैर-सपाटे के लिए बसाए गए इस बाज़ार की शक्ल बिल्कुल अलग थी। जब अंग्रेज़ों ने इस जगह को अपने ज़िला केंद्र के तौर पर चुना तो गाँवों के बसने वाले लोगों को उजाड़ने की नौबत आई। तब उन्हें करोल बाग़ इलाक़े में बसाया गया। नई दिल्ली के ड्राइंग रूम की तरफ कनॉट प्लेस को सजाया-संवारा।
  • नई दिल्ली का पहला सिनेमाघर था रीगल- नई दिल्ली के देश की नई राजधानी बनने के बाद यह 1931 का दशक था जब देश में सिनेमाघरों ने अपनी जगह बनानी शुरू की और 40 का दशक आते आते लोग फिल्मों के दीवाने हो गए। इसी दौर में नई दिल्ली के कनाट प्लेस में पहले सिनेमाघर रीगल ने अपना अस्तित्व बनाया। 1940 के दशक में कनाट प्लेस में प्लाजा, रीगल, रिवोली, ओडियन जैसे सिनेमाघर स्थापित किए गए जो आज भी अपनी लोकप्रियता बरकरार रखे हुए हैं। इसी दौरान इंडियन टाकी हाउस भी बनाया गया था लेकिन यह थोड़े समय बाद ही बंद हो गया। इन सिनेमाघरों की बदौलत ही कनाट प्लेस मनोरंजन का केन्द्र बन गया और इन्होंने सिनेमाघरों की चहल पहल में चार चांद लगा दिए। रीगल सिनेमाघर में पिछले 34 साल से प्रबंधन का कामकाज देख रहे पी वर्मा ने इस ऐतिहासिक सिनेमाघर के इतिहास के बारे में जानकारी देते हुए भाषा को बताया कि 1932 में खुला रीगल सिनेमाघर कनाट प्लेस का पहला सिनेमाघर था जिसे सर सोभा सिंह ने खोला था और वास्तुशिल्पी वाल्टर स्काइज जार्ज ने इसका डिजाइन तैयार किया था। शुरूआत में इसकी स्थापना मंचीय कार्यक्रमों के लिए की गयी थी। समय बीतते बीतते रीगल में पश्चिमी शास्त्रीय संगीतकारों ने अपनी प्रस्तुतियां यहां देनी शुरू की और रीगल रशियन बैले तथा ब्रिटिश नाटकों के मंचन को लेकर लोकप्रिय हो गया। काफी समय बाद जाकर रीगल में सुबह के शो और मैटिनी शो में फिल्में दिखायी जाने लगीं। रीगल सिनेमाघर में संभ्रांत लोगों के लिए लॉबी में एक बार होता था तथा महिलाओं के लिए विशेष मैटिनी शो संचालित किया जाता था। उस जमाने में गॉन विद दी विंड ने कई आस्कर पुरस्कार जीते थे और एक साल बाद ही अमेरिका के बाद भारत में इसका प्रीमियर 1940 में रीगल थियेटर में हुआ था और दुनिया के अन्य थियेटरों की तरह यहां भी इसने सफलता के सारे रिकार्ड तोड़ दिए थे। शाही परिवारों के लोग और ब्रिटिश अधिकारी तथा जानी मानी हस्तियां इस फिल्म को देखने के उमड़ पड़ी थीं। इतिहासकार आर वी स्मिथ ने बताया कि उस जमाने में कनाट प्लेस के सिनेमाघरों में ब्रिटिश अधिकारियों और राजघरानों के लोगों के लिए हालीवुड की फिल्में ही लगायी जाती थीं। उन्हें 1960 से पहले खुद याद नहीं कि कभी कनाट प्लेस के सिनेमाघरों में कोई हिंदी फिल्म लगी हो। स्मिथ ने बताया कि रीगल के बाद दूसरे नंबर पर कनाट प्लेस में प्लाजा सिनेमाघर 1940 में खुला जिसे खुद कनाट प्लेस के शिल्पकार सर राबर्ट रसेल ने डिजाइन किया था। आज शायद ही कोई इस बात को जानता हो कि प्लाजा सिनेमाघर के मालिक और कोई नहीं बल्कि अपने जमाने के प्रतिष्ठित और लोकप्रिय अभिनेता निर्देशक सोहराब मोदी थे। 1950 के दशक के शुरूआत तक वह इसके मालिक रहे। रिवोली उस समय रीगल के बगल में इलाके का सबसे छोटा सिनेमाघर होता था। आधी सदी बीत जाने के बावजूद ये सिनेमाघर आज भी अपना अस्तित्व बनाए हुए हैं। हालांकि इनका रंगरूप और मालिकाना हक जरूर बदल गए हैं।

लुटियंस दिल्ली में रजवाड़ों के भवन

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An aerial view of New Delhi in India, circa 1930. At the top left is the Rashtrapati Bhavan (the presidential palace) and top right is the Lok Sabha, the lower house of the Parliament of India. In the centre is the India Gate hexagon. (Photo by Keystone/Hulton)
  • अंग्रेज वास्तुकारों एडवर्ड लुटियन और हरबर्ट बेकर ने अंग्रेजी हुकूमत की नई राजधानी नई दिल्ली के लिए भवन निर्माण के डिजाइन पर काम शुरू किया, उस समय ब्रितानी भारत में करीब 600 रजवाड़े-रियासतें थीं। इन रियासतों के शासक दिखाने के लिए तो भारतीय राजा-महाराजा थे पर असली ताकत इन दरबारों में मौजूद अंग्रेज रेजिडेंट के हाथ में थी। अंग्रेज सरकार के इन प्रतिनिधियों के बिना रियासतों में कुछ नहीं होता था।
  • वर्ष 1877 में लॉर्ड लिटन के समय में अंग्रेज हुकूमत और देसी रियासतों में सहयोग का विचार पैदा हुआ था। अंत में, इस बीज विचार का परिणाम देशी रजवाड़ों की एकमात्र प्रतिनिधि संस्था प्रिंसेस के चैंबर के गठन के रूप में सामने आया। इस चैंबर में शामिल 120 राजा-महाराजाओं का मुख्य काम रियासतों-रजवाड़ों से जुड़े विभिन्न मामलों पर अंग्रेज वाइसराय को अंग्रेजी साम्राज्य के हित के लिए सलाह देना था।
  • इन राजाओं को अंग्रेजी राज का स्वामिभक्त बनाए रखने के लिहाज से भारत सरकार अधिनियम 1919 को शाही स्वीकृति देने के बाद 23 दिसंबर 1919 को अंग्रेज सम्राट जॉर्ज पंचम ने चैंबर ऑफ प्रिंसेस की स्थापना की घोषणा की। 8 फरवरी 1921 को दिल्ली में चैंबर की पहली बैठक हुई। इस अवसर पर लालकिले के दीवान-ए-आम में आयोजित उद्घाटन समारोह में ड्यूक ऑफ़ कनाट ने अंग्रेज राजा के प्रतिनिधि के रूप में भाग लिया।
  • प्रिंसेस के चैंबर की आंरभिक बैठक में देसी रियासतों के 120 राजप्रमुख सदस्य थे। इनमें से 108 राजा अति महत्वपूर्ण राज्यों के थे जो स्वयं ही सदस्य थे। जबकि शेष 12 सीटों के लिए अन्य 127 रियासतों में से प्रतिनिधित्व था। जबकि 327 छोटी रियासतों का चैंबर में कोई प्रतिनिधित्व नहीं था।
  • प्रिंसेस के चैंबर में अंग्रेज सरकार के सर्वाधिक करीबी राजा-महाराजाओं को लगभग 8 एकड़ आकार के 36 भूखंड पट्टे पर दिए गए। अंग्रेजों की दृष्टि में राजभक्त राज्यों- हैदराबाद, बड़ौदा, बीकानेर, पटियाला और जयपुर को इंडिया गेट की छतरी के किंग्स वे (अब राजपथ) के चारों ओर स्थान आवंटित हुए। जबकि उनसे कम महत्व रखने वाले जैसलमेर, त्रावणकोर, धौलपुर और फरीदकोट के शासकों को केंद्रीय षट्भुज (सेंट्रल हैक्सागन) से निकलने वाली सड़कों पर निर्माण के लिए भूमि दी गई।
  • एक अनुमान के अनुसार, 384 एकड़ में फैले इस इलाके में 55 भूखंड थे, जिनमें से 34 आवंटित किए गए जबकि 1934 तक 21 खाली रहे। आश्चर्यजनक रूप से, इस वर्ष तक 48 एकड़ में फैले केवल 6 भूखंडों का निर्माण हुआ। वर्ष 1936 में अंग्रेज सरकार ने इन रजवाड़ों को सूचित किया कि अगर वे 15 अप्रैल 1938 तक अपने भूखंडों पर भवनों का निर्माण नहीं करते हैं तो सरकार उन्हें फिर से वापिस ले लेगी। इस घोषणा के तुरंत बाद 10 राज्यों ने सरकार के पास जमीन जाने के डर से निर्माण करवाया।
  • देश की आजादी तक कायम रहे चैंबर ऑफ प्रिंसेस के चार चांसलर यानी प्रमुख हुए। ये बीकानेर के महाराज के सर गंगा सिंह (1921-1926) महाराजा पटियाला सरदार भूपिंदर सिंह (1926-1931) नवानगर के महाराज रंजीतसिंह (1931-1933) नवानगर के ही महाराज दिग्विजय सिंह (1933-1944) और भोपाल के नवाब हमदुल्लाह खान (1944-1947) थे।

राष्ट्रपति भवन (आजादी से पहले वाइसरॉय हाउस)

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कैसे शुरुआत हुई- 1911 में जब अंग्रेजों ने कोलकाता की जगह दिल्ली को राजधानी बनाने का फैसला किया, तो वो एक ऐसी इमारत बनाना चाहते थे, जो आने वाले कई सालों तक एक मिसाल बने। रायसीना हिल्स पर वायसराय के लिए एक शानदार इमारत बनाने का फैसला किया गया । इस इमारत का नक्शा बनाया एडविन लुटियंस ने। लुटियंस ने हर्बट बेकर को 14 जून, 1912 को इस आलीशान इमारत का नक्शा बनाकर भेजा। राष्ट्रपति भवन यानी उस समय के वायसराय हाउस को बनाने के लिए 1911 से 1916 के बीच रायसीना और मालचा गांवों के 300 लोगों की करीब 4 हजार हेक्टेयर जमीन का अधिग्रहण किया गया। लुटियंस की यही तमन्ना थी कि ये इमारत दुनिया भर में मशहूर हो और भारत में अंग्रेजी राज्य का गौरव बढ़ाए।

17 साल में बना राष्ट्रपति भवन- इस इमारत को कुछ इस तरह से बनाने का फैसला किया गया कि दूर से ही पहाड़ी पर ये महल की तरह नजर आए। राष्ट्रपति भवन को बनने में 17 साल लग गए।1912 में शुरू हुआ निर्माण का काम 1929 में खत्म हुआ।इमारत बनाने में करीब 70 करोड़ ईंटों और 30 लाख पत्थरों का इस्तेमाल किया गया। उस वक्त इसके निर्माण में 1 करोड़ 40 लाख रुपये खर्च हुए थे। राष्ट्रपति भवन में प्राचीन भारतीय शैली, मुगल शैली और पश्चिमी शैली की झलक देखने को मिलती है। राष्ट्रपति भवन का गुंबद इस तरह से बनाया गया कि ये दूर से ही नजर आता है।

  • राष्ट्रपति भवन ऑस्ट्रिया और तुर्की के बाद दुनिया का तीसरा सबसे बड़ा Presidential Complex का निवास स्थान है।
  • इसे तैयार होने में पूरे 17 वर्षों का समय लगा था. इसका निर्माण कार्य 1912 में शुरू हुआ था और 1929 में यह बन कर तैयार हुआ था.
  • राष्ट्रपति भवन के वास्तुकार सर एड्विन लैंडसियर लूट्यन्स जबकि चीफ इंजीनियर ह्यूज कीलिंग थे.
  • इस प्रोजेक्ट के चीफ इंजीनियर सर तेजा सिंह थे. चार ठेकेदारों में जाने-माने पत्रकार खुशवंत सिंह के पिता सरदार सोबा सिंह भी शामिल थे.
  • राष्ट्रपति भवन के निर्माण कार्य में करीब 29,000 लोग लगाए गए थे.
  • राष्ट्रपति भवन 330 एकड़ में फैला है यह H आकार की इमारत.
  • इस 4 मंजिला इमारत में 340 कमरे हैं जो 227 कॉलम पर टिके हुए हैं
  • राष्ट्रपति भवन में 63 बेडरूम और 63 लिविंग रुम्स है.
  • राष्ट्रपति भवन का कॉरिडोर 2.5 किलोमीटर का है.
  • राष्ट्रपति भवन के 190 एकड़ के हिस्से में सिर्फ बगीचे हैं.
  • इसे बनाने में कुल 140 लाख रुपए की लागत आई थी
  • 70 करोड़ ईंटें, 30 लाख वर्ग फीट पत्थर और स्टील इसमें लगा है.
  • भवन में राष्ट्रपति कार्यालय, अतिथि कक्षों और कर्मचारी कक्षों समेत 300 से भी अधिक कमरे हैं.
  • 750 कर्मचारी काम करते हैं, जिनमें से 245 राष्ट्रपति के सचिवालय में कार्यरत हैं.
  • इसे रायसीना हिल पर बनाया गया है, जिसे (Raisina और Malcha) दो गांवों के नाम पर नाम दिया गया था और इस महल के निर्माण के लिए इन गांवों को हटा दिया गया था.
  • उस जमाने में रायसीना जयपुर रियासत का हिस्सा हुआ करता था और जयपुर रियासत ने ही वायसराय के रहने के लिए बनाये जा रहे इस भवन के लिए जमीन दी थी.
  • स्वतंत्रता से पहले इसे वायसरॉय हाउस के नाम से जाना जाता था और यह भारत का सबसे बड़ा निवास स्थान था।
  • गौतम बुद्ध की प्रतिमा जो चौथी–पांचवीं शताब्दी के आस–पास गुप्त काल के दौरान कला एवं संस्कृति के स्वर्ण युग से सम्बंधित है. यह प्रतिमा राष्ट्रपति भवन के दरबार हॉल के पीछे है. प्रतिमा जिस स्थान पर रखी गई है उसकी उंचाई इंडिया गेट के बराबर है.
  • राष्ट्रपति भवन के उपहार संग्रहालय में किंग जॉर्ज पंचम की चांदी की 640 किलोग्राम की कुर्सी रखी है. इस कुर्सी पर दिल्ली दरबार में वे 1911 में बैठे थे.
  • राष्ट्रपति एस्टेट में एक ड्राइंग रूम, एक खाने के कमरे, एक बैंक्वेट हॉल, एक टेनिस कोर्ट, एक पोलो ग्राउंड और एक क्रिकेट का मैदान और एक संग्रहालय शामिल है जो इस स्थान के दूसरे आकर्षण हैं।
  • राष्ट्रपति भवन के बैंक्वेट हॉल में एक साथ 104 अतिथि बैठ सकते हैं। इतना ही नहीं इसमें न सिर्फ संगीतकारों के लिए गुप्त दीर्घा है लेकिन इसमें प्रकाश की व्यवस्था भी अद्भुत है
  • राष्ट्रपति भवन के पीछे मुगल गार्डन है जो मुगल और ब्रिटिश शैली का एक अनूठा मिश्रण है. यह 13 एकड़ क्षेत्र में फैला हुआ है और यहां फूलों की कुछ विदेशी किस्में भी शामिल हैं. यह हर वर्ष लोगों के लिए केवल फरवरी-मार्च के मध्य महीने में खुलता है.
  • 26 जनवरी, 1950 को जब डॉ. राजेंद्र प्रसाद भारत के पहले राष्ट्रपति बने और उन्होंने इस भवन में निवास करना शुरू किया, उसी दिन से इस भवन का नाम बदलकर राष्ट्रपति भवन कर दिया गया.

सचिवालय के दो हिस्सों (नॉर्थ एवं साउथ ब्लॉक)- भारत की राजधानी दिल्ली में स्थानांतरित होने के बाद, कुछ महीनों में 1912 में उत्तरी दिल्ली में एक अस्थायी सचिवालय भवन का निर्माण किया गया। 1931 में नई राजधानी के उद्घाटन से एक दशक पहले पुरानी दिल्ली के ‘पुराने सचिवालय’ से यहां नई राजधानी के अधिकांश सरकारी कार्यालय चले गए। कई कर्मचारियों को बंगाल सहित ब्रिटिश भारत के सुदूर हिस्सों से नई राजधानी में लाया गया। प्रेसीडेंसी और मद्रास प्रेसीडेंसी। इसके बाद गोले मार्केट क्षेत्र के आसपास उनके लिए आवास विकसित किया गया। पुराना सचिवालय भवन में अब दिल्ली विधानसभा है।

संसद भवन (आजादी से पहले (Central Legislative Assembly)

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  • निर्माण: भवन का शिलान्यास 12 फरवरी 1921 को ड्यूक आफ कनाट ने किया था। इस महती काम को अंजाम देने में छह वर्षो का लंबा समय लगा। इसका उद्घाटन तत्कालीन वायसराय लार्ड इरविन ने 18 जनवरी 1927 को किया था। संपूर्ण भवन के निर्माण कार्य में कुल 83 लाख रुपये की लागत आई।
  • आकार: गोलाकार आवृत्ति में निर्मित संसद भवन का व्यास 170.69 मीटर का है तथा इसकी परिधि आधा किलोमीटर से अधिक (536.33 मीटर) है जो करीब छह एकड़ (24281.16 वर्ग मीटर)भू-भाग पर स्थित है। दो अर्धवृत्ताकार भवन केंद्रीय हाल को खूबसूरत गुंबदों से घेरे हुए हैं। भवन के पहले तल का गलियारा 144 मजबूत खंभों पर टिका है। प्रत्येक खंभे की लम्बाई 27 फीट (8.23 मीटर) है। बाहरी दीवार ज्यामितीय ढंग से बनी है तथा इसके बीच में मुगलकालीन जालियां लगी हैं। भवन करीब छह एकड़ में फैला है तथा इसमें 12 द्वार हैं जिसमें गेट नम्बर 1 मुख्य द्वार है।
  • स्थापत्य: संसद का स्थापत्य नमूना अद्भुत है। मशहूर वास्तुविद लुटियंस ने भवन का डिजाइन तैयार किया था। सर हर्बर्ट बेकर के निरीक्षण में निर्माण कार्य संपन्न हुआ था। खंबों तथा गोलाकार बरामदों से निर्मित यह पुर्तगाली स्थापत्यकला का अदभुत नमूना पेश करता है। गोलाकार गलियारों के कारण इसको शुरू में सर्कलुर हाउस कहा जाता था। संसद भवन के निर्माण में भारतीय शैली के स्पष्ट दर्शन मिलते हैं। प्राचीन भारतीय स्मारकों की तरह दीवारों तथा खिड़कियों पर छज्जों का इस्तेमाल किया गया है।
  • संस्था: संसद भवन देश की सर्वोच्च विधि निर्मात्री संस्था है। इसके प्रमुख रूप से तीन भाग हैं- लोकसभा, राज्यसभा और केंद्रीय हाल।
  • लोकसभा कक्ष: लोकसभा कक्ष अर्धवृत्ताकार है। यह करीब 4800 वर्ग फीट में स्थित है। इसके व्यास के मध्य में ऊंचे स्थान पर स्पीकर की कुर्सी स्थित है। लोकसभा के अध्यक्ष को स्पीकर कहा जाता है। सर रिचर्ड बेकर ने वास्तुकला का सुन्दर नमूना पेश करते हुए काष्ठ से सदन की दीवारों तथा सीटों का डिजाइन तैयार किया। स्पीकर की कुर्सी के विपरीत दिशा में पहले भारतीय विधायी सभा के अध्यक्ष विट्ठल भाई पटेल का चित्र स्थित है। अध्यक्ष की कुर्सी के नीचे की ओर पीठासीन अधिकारी की कुर्सी होती है जिस पर सेक्रेटी-जनरल (महासचिव) बैठता है। इसके पटल पर सदन में होने वाली कार्यवाई का ब्यौरा लिखा जाता है। मंत्री और सदन के अधिकारी भी अपनी रिपोर्ट सदन के पटल पर रखते हैं। पटल के एक ओर सरकारी पत्रकार बैठते हैं। सदन में 550 सदस्यों के बैठने की व्यवस्था है। सीटें 6 भागों में विभाजित हैं। प्रत्येक भाग में 11 पंक्तियां हैं। दाहिनी तरफ की 1 तथा बायीं तरफ की 6 भाग में 97 सीटें हैं। बाकी के चार भागों में से प्रत्येक में 89 सीटें हैं। स्पीकर की कुर्सी के दाहिनी ओर सत्ता पक्ष के लोग बैठते हैं और बायीं ओर विपक्ष के लोग बैठते हैं।
  • राज्य सभा: इसको उच्च सदन कहा जाता है। इसमें सदस्यों की संख्या 250 तक हो सकती है। उप राष्ट्रपति राज्य सभा का पदेन सभापति होता है। राज्य सभा के सदस्यों का चुनाव मतदान द्वारा जनता नहीं करती है,बल्कि राज्यों की विधानसभाओं के द्वारा सदस्यों का निर्वाचन होता है। यह स्थायी सदन है। यह कभी भंग नहीं होती। 12 सदस्यों का चुनाव राष्ट्रपति द्वारा किया जाता है। ये सदस्य क ला, विज्ञान, साहित्य आदि क्षेत्रों की प्रमुख हस्तियां होती हैं। इस सदन की सारी कार्यप्रणाली का संचालन भी लोकसभा की तरह होता है।
  • केंद्रीय हाल: केंद्रीय कक्ष गोलाकार है। इसके गुंबद का व्यास 98 फीट (29.87 मीटर) है। यह विश्व के सबसे महत्वपूर्ण गुम्बद में से एक है। केंद्रीय हाल का इतिहास में विशेष महत्व है। 15 अगस्त 1947 को अंग्रेजों से भारतीय हाथों में सत्ता हस्तांतरण इसी कक्ष में हुआ था। भारतीय संविधान का प्रारूप भी इसी हाल में तैयार किया गया था। आजादी से पहले केंद्रीय हाल का उपयोग केंद्रीय विधायिका और राज्यों की परिषदों के द्वारा लाइब्रेरी के तौर पर किया जाता था। 1946 में इसका स्वरूप बदल दिया गया और यहां संविधान सभा की बैठकें होने लगी। ये बैठकें 9 दिसम्बर 1946 से 24 जनवरी 1950 तक हुई। वर्तमान में केंद्रीय हाल का उपयोग दोनों सदनों की संयुक्त बैठकों के लिए होता है, जिसको राष्ट्रपति संबोधित करते हैं।

दिल्ली की शान इंडिया गेट’

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नई दिल्‍ली के बीचों बीच मौजूद है 42 मीटर ऊंचा दिल्ली की शान ‘इंडिया गेट’ है। अखिल भारतीय युद्ध स्मारक के रूप में प्रसिद्ध इंडिया गेट देश की राजधानी दिल्ली में राजपथ के नजदीक स्थित है। यह करीब 70 हजार ऐसे भारतीय सैनिकों का स्मारक है, जो पहले विश्व युद्ध के दौरान शहीद हो गए थे। ‘इंडिया गेट’ पेरिस के “आर्क-द ट्रायम्फ” के जैसे बनाया गया था। इस स्‍मारक में अफगान युद्ध-1919 के दौरान पश्चिमोत्‍तर सीमांत (अब उत्‍तर-पश्चिम पाकिस्‍तान) में मारे गए 13516 से अधिक ब्रिटिश और भारतीय सैनिकों के नाम अंकित है। इंडिया गेट की आधारशिला 1921 में माननीय डयूक ऑफ कनॉट ने रखी थी और इसे एडविन ल्‍यूटन ने डिजाइन किया था। इस स्‍मारक को 10 साल बाद तत्‍कालीन वायसराय लार्ड इर्विन ने राष्‍ट्र को समर्पित किया था। अन्‍य स्‍मारक अमर ज्‍योति भारत स्‍वतंत्रता के काफी बाद स्‍थापित की गई थी। मेहराब के नीचे यह अमर-ज्‍योति दिन-रात जलती रहती है, जो दिसंबर 1971 के भारत पाक युद्ध में शहीद हुए सैनिकों की याद दिलाती है।

इसका सम्‍पूर्ण मेहराब भरतपुर के लाल पत्‍थरों के लो-बेस पर स्‍थापित किया गया है और चरणबद्ध रूप से विशाल स्‍मारक बनाया गया। इसके कोने के मेहराबों पर ब्रितानिया-सूर्य अंकित है जबकि महराब के दोनों ओर INDIA अंकित है इसके नीचे MCMX। (1914 बाई तरफ) और MCMXIX(1919 दाई तरफ) अंकित है। सबसे ऊपर में गहरा गुम्‍बदनुमा कटोरा जयंतियों पर तेल जलाकर प्रकाशित करने के लिए बनाया गया था किन्‍तु इसका उपयोग ही यदा-कदा किया जाता है।

दिल्ली दरबार

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सन 1877 से 1911 के बीच तीन दरबार लगे थे। 1911 का दरबार एकमात्र ऐसा था, कि जिसमें सम्राट स्वयं, जॉर्ज पंचम पधारे थे

1877 का दरबार

  • 1877 का दरबार, 1 जनवरी 1877 को महारानी विक्टोरिया को भारत की साम्राज्ञी घोषित और राजतिलक करने हेतु लगा था।
  • 1877 का दरबार, मुख्यतः एक आधिकारिक घटना मात्र थी.
  • इस दरबार का मुख्य बिन्दु था- ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी से अधिकांश सत्ता परिवर्तन ब्रिटिश सरकार को होना था।

1903 का दरबार

  • एडवर्ड सप्तम एवं महारानी एलेक्जैंड्रा को भारत के सम्राट एवं सम्राज्ञी घोषित करने हेतु लगा था।
  • लॉर्ड कर्ज़न द्वारा दो पूरे सप्ताहों के कार्यक्रम आयोजित करवाये गये थे।
  • इस धूम धाम का मुकाबला ना तो 1877 का, ना ही 1911 का दरबार कर पाया।

1911 का दरबार (दिल्ली का कोरोनेशन पार्क)

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  • 1911में ब्रिटेन के महाराजा जॉर्ज पंचम के राज्याभिषेक के लिए दिल्ली में एक दरबार सजाया गया. दरबार के लिए दिल्ली के एक सुदूर इलाके बुराड़ी को चुना गया जो आज शहर का हिस्सा है।
  • दिल्ली दरबार के लिए बुराड़ी की ओर प्रस्थान करते अधिकारियों और सैन्य दलों का काफ़िला. इससे पहले 1877 और 1903 में भी दिल्ली दरबार आयोजित हो चुके थे, लेकिन 1911 का ये आयोजन इतना भव्य और योजनाबद्ध था कि ब्रितानी सरकार ने इस आयोजन पर 1000 पन्नों की एक विशिष्ट किताब प्रकाशित की।
  • दिल्ली दरबार के आयोजन के लिए लगभग 20,000 कामगारों की मदद ली गई. अतिथियों और इन लोगों रहने के लिए हज़ारों की संख्या में शिविर लगाए गए. दिल्ली दरबार की अपनी रेलवे व्यवस्था थी और शाही जोड़ा जिस शिविर में ठहरा उससे सभागार तक आने के लिए एक अलग रेलवे लाइन बिछाई गई।
  • आयोजन इतना भव्य और महत्वपूर्ण था कि दरबार के दौरान ख़बरें, प्रचार सामग्री और प्रशासनिक दस्तावेज़ प्रकाशित करने के लिए अलग से छापा-खाना लगाया गया।
  • 15 दिसंबर 1911 को पुरानी दिल्ली के पास नई दिल्ली की नींव रखी गई लेकिन बाद में एडवर्ड लुटियन्स ने नई दिल्ली बसाने के लिए रायसीना हिल को चुना. कहते हैं भारतीय ठेकेदार सोभा सिंह ने अपनी साइकिल पर नींव का पत्थर लादकर रातों रात उसे रायसीना हिल स्थानांतरित किया था।
  • व्यवहारिक रूप से प्रत्येक शासक राजकुमार, महाराजा एवं नवाब तथा अन्य गणमान्य व्यक्ति, सभापतियों को अपना आदर व्यक्त करने पहुंचे। सम्राट्गण अपनी शाही राजतिलक वेशभूषा में आये थे।
  • सम्राट ने आठ मेहराबों युक्त भारत का इम्पीरियल मुकुट पहना, जिसमें 6170 उत्कृष्ट तराशे हीरे, जिनके साथ नीलम, पन्ना और माणिक्य जड़े थे। साथ ही एक शनील और मिनिवर टोपी भी थी, जिनका भार 965 ग्राम था।
  • पटियाला की महारानी की ओर से गले का खूबसूरत हार भेंट किया गया था।
  • दिल्ली दरबार 1911 में लगभग 26,800 पदक दिये गये, जो कि अधिकांशतः ब्रिटिश रेजिमेंट के अधिकारी एवं सैनिकों को दिये गये थे। भारतीय रजवाड़ों के शासकों और उच्च पदस्थ अधिकारियों को भी एक छोटी संख्या में स्वर्ण पदक दिये गये थे।
  • 1911 की घोषणा के बाद नई दिल्ली का उदघाटन 1931 में हुआ, लेकिन कई बरस तक ये नया शहर रात होते ही वीरान हो जाता था. नई दिल्ली में बने दफ़्तरों में काम के बाद सरकारी कार्मचारी पुरानी दिल्ली के अपने घरों में लौट आते थे।
  • दिल्ली के बुराड़ी इलाके में आज भी वो कॉरोनेशन पार्क मौजूद है जहां नई दिल्ली की नींव रखी गई।

दिल्ली दरबार- इतिहासकार आरवी स्मिथ कहते हैं कि पूरे शहर को सजाया गया था। उस समय तक नई दिल्ली का नामों निशान नहीं था। चांदनी चौक, जामा मस्जिद, सीताराम बाजार सरीखे बाजार प्रसिद्ध थे। अंग्रेजों ने पुरानी दिल्ली से सदर बाजार, पहाडग़ंज व सुदूर उत्तर की तरफ कैंप लगाए। जबकि आयोजन शांति स्वरूप त्यागी मार्ग माडन टाउन के पास के पास कारनेशन पार्क था। देश भर की रियासतों के महाराज आए थे। न्यू साउथ वेल्स के स्टैकी वैडी ने तब लिखा था कि करीब 25 स्कवायर मील एरिया पर कैंप बनाए गए थे। जबकि यह जमीन करीब एक साल पहले तक निर्जन थी। पूरे शहर को लाइटों से सजाया गया था। शहर की नाकेबंदी की गई थी। सोने, चांदी से लदे हाथी, आकर्षक परिधानों में महाराज दिल्ली दरबार में देश भर की रियासतों के महाराजा, रानियों को आमंत्रित किया गया था।

1911के दिल्ली दरबार में राजा-महाराजा हुए शामिल- हैदराबाद, नेपाल, राजस्थान, मध्य प्रदेश, ग्वालियर, कपूरथला, भूटान, मैसूर समेत अन्य रियासतों के राजा आए थे। आयोजन इतना भव्य था कि इसके लिए शहर से दूर बुराड़ी इलाके को चुना गया और अलग-अलग राच्यों से आए राजा-रजवाड़े, उनकी रानियां, नवाब और उनके कारिंदों सहित भारतभर से अतिविशिष्ट निमंत्रित थे। लोगों के ठहरने के लिए हज़ारों की संख्या में लगाए गए अस्थाई शिविरों के अलावा दूध की डेरियों, सब्जियों और गोश्त की दुकानों के रुप में चंद दिनों के लिए शहर से दूर मानो एक पूरा शहर खड़ा किया गया था। कैंप तीन लाख लोगों की क्षमता वाले थे लेकिन कहा जाता है कि साढ़े सात लाख लोगों से ज्यादा लोग दिल्ली दरबार देखने दिल्ली पहुंचे थे।

12 दिसंबर 1911 को लगा था दिल्ली दरबार- इतिहासकार कहते हैं कि राजा महाराजा हाथी,घोड़े,पालकी,रथ पर सवार होकर गुजरते थे। लोग देखने के लिए दोनों तरफ लाइन लगाए हुए थे। सोने,चांदी से लदे राजाओं को देखना लोगों के लिए एक नया अनुभव था। राजा अपने अपने क्षेत्र अंतर्गत परिधान पहने हुए थे। दरबार में महत्वपूर्ण निर्णय आरवी स्मिथ कहते हैं कि 12 दिसंबर को दिल्ली दरबार लगा था। उस दिन सुबह से ही पूरी दिल्ली में चहल पहल थी। जॉर्ज पंचम और क्वीन मैरी हाथी पर बैठकर दरबार पहुंची। उन्होंने विशेष रूप से बनी मुगल डिजाइन में मुकुट पहनी थी। उनकी सवारी चांदनी चौक, जामा मस्जिद से गुजरी। जिस रास्ते से किंग जॉर्ज और क्वीन मैरी का काफि़ला गुजऱा वो आज भी उन्हीं के कारण किंग्सवे कैंप के रूप में जाना जाता है। किंग के लिए विशेष रूप से यहां रेलवे लाइन तक बिछायी गई थी। बकौल स्मिथ जिस ट्रेन पर किंग बैठे थे, उसका इस्तेमाल पंडित जवाहर लाल नेहरू की शादी के दौरान बारातियों को ले आने के लिए किया गया था।

12 दिसंबर 1911 की सुबह करीब एक लाख लोग दरबार में मौजूद थे। राबर्ट ग्रांट ने अपनी पुस्तक द इंडियन समर में द मेकिंग आफ न्यू दिल्ली की व्याख्या करते हुए लिखा है कि उस समय दिल्ली की जनसंख्या 4 लाख थी जबकि दरबार में इससे ज्यादा लोग शरीक हुए थे। दिल्ली की गलियों में उस दिन घुमने का अपना अनुभव बयां करते हुए मिस्टर वैडी ने लिखा है कि एक साथ एक समय में सड़कों पर इतनी विविधता वाले लोगों को देखना अद्भूत था। बादशाह जॉर्ज पंचम और उसकी महारानी मुख्य स्टेज पर बैठी थी। दरबार के अंत में भीड़ के सामने ब्रिटेन के किंग जॉर्ज पंचम ने जब ये घोषणा की,तब लोग एकाएक यह समझ भी नहीं पाए कि चंद लम्हों में वो भारत के इतिहास में जुडऩे वाले एक नए अध्याय का साक्ष्य बन चुके हैं।

दिल्ली में महल निर्माण के लिए राजाओं ने मांगी अनुमति- आरवी स्मिथ कहते हैं कि दरबार के बाद किंग और महारानी लाल किले के पीछे झरोखों पर आए। उन्हें देखने के लिए रिंग रोड की तरफ लाखों की संख्या में लोग इक्टठा थे। रियासतों को मिला महल बनाने की अनुमति सुुमंत कुमार भौमिक लिखते हैं कि दिल्ली दरबार के बाद ही नई दिल्ली की संरचना गढ़ी गई। रियासतों के राजाओं को यहां महल बनाने की इजाजत दी गई। ऐसा नहीं था कि इसके पहले राजा यहां महल बनाने के इच्छुक नहीं थे। सन 1905 में सबसे पहले त्रिपुरा के राजा ने जमीन का एक टुुकड़ा खरीदने की इच्छा जताई थी। हालांकि अनुमति नहीं मिल पायी थी। लेेकिन दिल्ली दरबार में अनुमति मिलने के बाद ऐसे प्रस्तावों की बाढ़ सी आ गई। जून 2012 तक तो सिरोही, ओरछा, भरतपुर,जोधपुर,धौलपुर, देवास, जींद, कपूरथला, मिराज सीनियर, बीकानेर,कोल्हापुर, कश्मीर और बहावलपुर रियासतों ने आवेदन किया। महल निर्माण की अनुमति के साथ ही लुटियंस दिल्ली की संकल्पना साकार लेने लगी थी।

सिविल लाइंस में नई दिल्ली बसाने की थी चाह- आरवी स्मिथ बताते हैं कि अंग्रेज पहले सिविल लाइंस में नई दिल्ली बसाना चाहते थे। किंग्सवे कैंप में भी योजना बनाई गई थी। इसीलिए तो किंग की ताजपोशी यहीं हुई थी। हालांकि बाद में रायसीना हिल्स चुना गया। लाइटों से जगमगा उठी दिल्ली दरबार के पहले और बाद में सार्वजनिक अवकाश घोषित हुआ और हर तरफ पुलिस की नाकेबंदी ने आम लोगों को खास लोगों के स्वागत के लिए पहले ही सावधान कर दिया। दरबार के अगले दिन राजधानी दिल्ली बनी। जश्न के रुप में लाइटों से जगमगा उठी और इस मौके पर अंग्रेज प्रशासन ने आम लोगों से भी अपने घरों को रौशन करने का आग्रह किया। इसके लिए शहर में अतिरिक्त बिजली का विशेष इंतजाम किया गया था।

दिल्ली की जान पुरानी दिल्ली’

मुगल बादशाह शाहजहां ने 1639 में दिल्ली में एक नया शहर “शाहजहांनाबाद” बसाया था। साथ ही बसी आज की “पुरानी दिल्ली”। पुरानी दिल्ली दिल्ली का दिल है। 7 मील यानि 11 किमी के दायरे में फैले हुए इस नए शहर की तीन तरफ एक मोटी और मजबूत दीवार बनी थी और पूर्व में लाल किला बनाया। इसी कारण “शाहजहांनाबाद” को “Walled City” कहा जाता है। शहर की उत्तरी दीवार को पूर्व में Water Bastion आज का कश्मीरी गेट से महज तीन मील की दूरी पर बढ़ाया गया था। पश्चिम में Mori Bastion आज का मोरीगेट। उत्तरी दीवार 8 मीटर से अधिक ऊंची और 3.5 मीटर चौड़ी थी। दीवारों की कुल लंबाई 9 किलोमीटर से अधिक थी। दीवार पर 27 टावर बनाए गए थे। शाहजहांनाबाद के प्रमुख मार्ग साम्राज्य के महत्वपूर्ण स्थानों और क्षेत्रों की ओर इशारा करते हैं, जैसे लाहोरी गेट, कश्मीरी गेट, अजमेरी गेट, अकबराबादी गेट, आदि। यमुना नदी की ओर, जहां आज राजघाट और निगमबोध घाट स्थित हैं, शहर के हिंदू धर्मगुरुओं को उनके पूजा स्थलों पर जाने और समारोह करने के लिए छोटे-छोटे द्वार और रास्ते प्रदान किए गए थे। इन फाटकों को देखने के लिए पोस्ट और क्वार्टर थे। एक जगह पर, जिसे भुजलाल पहाड़ी के नाम से जाना जाता है, को जामी मस्जिद का निर्माण किया गया था। यह किले से लगभग 500 मीटर दक्षिण पश्चिम में है। लाला महेश्वर दयाल  की पुस्तक “दिल्ली जो एक शहर है” के अनुसार, शाहजहानाबाद की दीवार 1650 में पत्थर और मिट्टी की बनाई गई थी, जिस पर तब पचास हजार रूपए का खर्चा आया। यह 1664 गज चौड़ी और नौ गज ऊंची थी और इसमें तीस फुट ऊंचे 27 बुर्ज थे।

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शाहजहांनाबाद में कुल 13 द्वार (दरवाजे) और 16 ख़िड़की थी

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13 द्वार (दरवाजे)- दिल्ली दरवाजा (दिल्ली गेट), काबुली दरवाजा, राज घाट दरवाजा, खिजरी दरवाजा, निगमबोध दरवाजा, कैला के घाट का दरवाजा, लाल दरवाजा, कश्मीरी दरवाजा, बदर दरवाजा, पत्थर खाती दरवाजा, लाहौरी दरवाजा, अजमेरी दरवाजा और तुर्कमान दरवाजा।

16 ख़िड़की- ज़ीन्नतुल मस्जिद ख़िड़की, नवाब अहमद बख्श की ख़िड़की, नवाब गाज़ीउद्दीन की ख़िड़की, मुसम्मन बुर्ज की ख़िड़की, मुस्लिम गढ़ की ख़िड़की, नसीर गंज की ख़िड़की, नई ख़िड़की, शाहगंज ख़िड़की, अजमेरी दरवाजा की ख़िड़की, सैय्यद भोले की ख़िड़की, बुलंद बाग की ख़िड़की, फ़ारस ख़ान की ख़िड़की, अमीर ख़ान की ख़िड़की, ख़लील ख़ान की ख़िड़की, बहादुर अली ख़ान की ख़िड़की और निगमबोध की ख़िड़की ।

  • खूनी दरवाजा- ऐतिहासिक रूप से महत्वपूर्ण कश्मीरी गेट दिल्ली का एकमात्र द्वार है जिसके माध्यम से यातायात अभी भी जारी है। यह उत्तर-पश्चिमी दीवार में स्थित है जिसमें दोहरी मार्ग है। इस द्वार से एक मार्ग गुजरता था जो कश्मीर तक जाता था, इसलिए इसे कश्मीरी गेट के नाम से जाना जाने लगा। 1857 में स्वतंत्रता के पहले युद्ध के बाद गेट का महत्व बढ़ गया। स्वतंत्रता सेनानियों ने इस गेट की प्राचीर से लुडलो कैसल तक तोप के गोले दागे, जो ब्रिटिश सेना का एक बड़ा और महत्वपूर्ण युद्ध था। पास में सेंट जेम्स चर्च था जहां स्वतंत्रता सेनानी युद्ध की रणनीतियों को इकट्ठा करने और उन पर चर्चा करते थे। सैनिकों ने देश की आजादी के लिए अपने प्राण न्योछावर करने की कसम खाई थी। खूनी दरवाजे का यह नाम तब पड़ा जब यहाँ मुग़ल सल्तनत के तीन शहजादों- बहादुरशाह ज़फ़र के बेटों मिर्ज़ा मुगल और किज़्र सुल्तान और पोते अबू बकर- को ब्रिटिश जनरल विलियम हॉडसन ने 1857 के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम के दौरान गोली मार कर हत्या कर दी।
  • अजमेरी गेट- आज भी यह द्वार पुराने शहर को ओल्ड सचिवालय और दिल्ली विश्वविद्यालय से जोड़ता है। आजादी के पहले युद्ध के दौरान गेट बुरी तरह क्षतिग्रस्त हो गया था।
  • मोरी गेट- यह कश्मीरी गेट से थोड़ी दूरी पर स्थित है। यह द्वार लगभग पूरी तरह से नष्ट हो गया है लेकिन शहर की दीवार अभी भी वहाँ दिखाई दे रही है जो कि गेट के अस्तित्व का संकेत है। इस गेट से भी लुडलो कैसल में तोपों को दागा गया। 17 सितंबर 1857 को अलेक्जेंडर टेलर की कमान के तहत गेट को उड़ा दिया गया था। शहर का गंदा पानी और सीवेज यहां इकट्ठा होता था और बाहर निकल जाता था। पास में स्थित ‘गंडा नाला’ के रूप में जाना जाने वाला इलाका। अपने गंदे वातावरण के कारण मोरी गेट का नाम शायद इसलिए रखा गया था।
  • काबुली गेट- गेट अब अपना नाम और अस्तित्व खो चुका है। यह पश्चिमी दीवार के अंदर स्थित था जहाँ आज ‘मिथाई का पुल’ खड़ा है। रेलवे लाइनों को बिछाने के लिए रेलवे विभाग द्वारा गेट और दीवार को तोड़ दिया गया था। इस इलाके में कई ऐतिहासिक इमारतें जिनमें नवाब ज़ीबुन निसा (जिनकी मृत्यु 1752 में हुई थी) के मकबरे को अब रेलवे ने कर दिया है। इस गेट को 1857 में स्वतंत्रता सेनानियों ने खुद को दुश्मन की घुसपैठ से बचाने के लिए बंद कर दिया था।
  • लाहौरी गेट- गेट ने अपना अस्तित्व खो दिया है, हालांकि इसका नाम अभी भी बना हुआ है। कश्मीरी गेट की तरह, यह भी दृढ़ता से बनाया गया था और इसका दोहरा मार्ग था। 1857 के स्वतंत्रता संग्राम के दौरान यहां भारी लड़ाई हुई थी। जनरल रीड ने इस गेट के माध्यम से शहर में प्रवेश करने की बहुत कोशिश की लेकिन वह असफल रहे। कहानी यह बताती है कि एक पुराने तोपची को यहाँ तैनात किया गया था और वह गेट की प्राचीर से तोप चलाता था। जब तोप के गोले का उसका स्टॉक खत्म हो गया, तो उसने पत्थर फेंकना शुरू कर दिया, जिससे ब्रिटिश सैनिकों के मार्च को रोक दिया। कुछ अनाज व्यापारियों ने पिछले दरवाजे से शहर में प्रवेश करने में अंग्रेजों की मदद की। पुराने तोपची को गिरफ्तार कर तोप से उड़ा दिया गया।
  • अजमेरी गेट- 1644 में निर्मित, यह द्वार आज भी मौजूद है, हालांकि पुरानी दीवारें ध्वस्त हो चुकी हैं और आसपास में आवासीय और व्यावसायिक इमारतें आ गई हैं। यह प्रसिद्ध है क्योंकि गेट के ठीक बाहर नवाब गाजीउद्दीन बहादुर का मदरसा था। इस मदरसे का आधुनिक संस्करण दिल्ली कॉलेज और एंग्लो-अरबी स्कूल था। दिल्ली कॉलेज भी अब इस जगह से स्थानांतरित हो गया है, लेकिन एंग्लो-अरबी स्कूल अभी भी एक विशाल क्षेत्र में फैला हुआ है। पुराने दिनों में रईसों और अभिजात वर्ग के बेटे यहां शिक्षा प्राप्त करते थे। इस आउटलेट से अजमेर की सड़क शुरू हुई। उन दिनों यह नगरपालिका के मजदूरों और सफाईकर्मियों की बैठक का मैदान था।
  • तुर्कमान गेट- 1658 में निर्मित, यह दिल्ली की दक्षिण-पश्चिमी दीवार में था। संत तुर्कमान का मकबरा, पास में ही स्थित है और संभवत: इसी द्वार का नाम उनके नाम पर रखा गया है। इस गेट के पीछे रजिया सुल्तान और काली मस्जिद या कलां मस्जिद का मकबरा है।
  • दिल्ली गेट- 1638 में निर्मित, यह दीवार के दक्षिणी भाग में है। अपने विशाल आकार के कारण, इसे डिलि गेट नाम दिया गया था। यह साधारण और साधारण पत्थरों से बना है। उन दिनों में यह जिस सड़क से होकर गुजरती थी उसे ‘थांडी सार’ (कूल रोड) के नाम से जाना जाता था क्योंकि यह शहर की सबसे ठंडी सड़क थी। अब इसे दरियागंज के नाम से जाना जाता है जो बाहरी सड़क से होते हुए कश्मीरी गेट की ओर जाता है

दरियागंज– दरिया का अर्थ नदी और गंज का मतलब बाजार, यानी नदी के किनारे का बाजार. यहां के तुगलक बाजार में एक स्थान पर नावें अपना सामान उतारा करती थी. आज नहरें सूख कर नाला बन चुकी है और रख-रखाव के अभाव में उनका उपयोग कचरे और प्लास्टिक को ठिकाने लगाने के लिए होता है। दरियागंज में दिल्ली की मूल छावनी थी, 1803 के बाद, जहां दिल्ली की जेल की एक देशी रेजिमेंट तैनात थी, जिसे बाद में रिज क्षेत्र में स्थानांतरित कर दिया गया। दरियागंज के पूर्व में यमुना नदी पर राजघाट पर खुलने वाली चारदीवारी शहर का राजघाट द्वार था। पुरानी दिल्ली का पहला थोक बाजार 1840 में चावड़ी बाजार में हार्डवेयर बाजार के रूप में खोला गया था, अगला थोक बाजार खारी बावली में सूखे फल, मसाले और जड़ी-बूटियों का था, जो 1850 में खुला। दातागंज के फूल मंडी (फूल बाजार) में स्थापित किया गया था। 1869 से लेकर आजतक एक छोटे से भौगोलिक क्षेत्र की सेवा के बावजूद, घनी आबादी के कारण इसका बहुत महत्व है।

चांदनी चौक- पुरानी दिल्ली के मध्य में लाल किले के लाहौरी गेट से शुरू होकर फतेहपुरी मस्जिद तक विस्तृत है। इसी बाजार के नाम पर आस पास के क्षेत्र को भी चांदनी चौक कहा जाता है। एक नहर किसी समय में सड़क के बीच में बहती थी, और चौक के तालाब में जल भरा करती थी। आरंभिक काल में इसे तीन खंडों में बांटा गया था। 1- लाहोरी गेट से चौक कोटवली (गुरुद्वारा शीशगंज के पास): शाही निवास के निकट, यह खंड उर्दू बाजार या शिविर बाजार भी कहा जाता था। उर्दू भाषा को इस बाजार से अपना नाम मिला। गालिब ने 1857 के विद्रोह और इसके बाद के विद्रोहों के दौरान इस बाजार की तबाही का उल्लेख किया है। 2- चौक कोटवली से चांदनी चौक: चांदनी चौक शब्द मूल रूप से इसी खंड को संदर्भित करता है, जिसमें एक तालाब स्थित था। इस खंड को मूल रूप से जोहरी बाजार कहा जाता था। 3- चांदनी चौक से फतेहपुरी मस्जिद: इसे फतेहपुरी बाजार कहा जाता था।

चांदनी चौक को 1650ईं में शाहजहां की बड़ी बेटी जहांआरा बेगम ने डिजाइन किया था। 1560 दुकानों वाला यह बाजार मूल रूप से 40 गज चौड़ा और 1520 गज लम्बा था। बाजार आकृति में चौकोर था, तथा इसके केंद्र में एक ताल उपस्थित था, जो चांदनी रात में चमकता था, और इसी कारण बाजार का नाम चांदनी चौक पड़ा था। सभी दुकानों को उस समय आधे चंद्रमा के आकार के पैटर्न में बनाया गया था, जो अब विलुप्त हो गया था। यह बाजार अपने चांदी के व्यापारियों के लिए प्रसिद्ध था, जिस कारण इसे “सिल्वर स्ट्रीट” के नाम से भी पहचाना गया है। चांदनी चौक एक समय में भारत का सबसे बड़ा बाजार था। मुगल शाही जुलूस चांदनी चौक से गुजरते थे। 1903 में दिल्ली दरबार के आयोजन के समय इस परंपरा को पुनर्स्थापित किया गया था। 1863 में ब्रिटिश सरकार द्वारा चौक के पास दिल्ली टाउन हॉल बनाया गया था। चौक के तालाब को 1950 के दशक तक एक घंटाघर से प्रतिस्थापित कर दिया गया था। इसी कारण बाजार का केंद्र अभी भी घंटाघर के नाम से जाना जाता है।

फैज बाजार, खास बाजार- लाल किले का आधा हिस्सा यमुना को ढकता है और बाकी दोनों ओर शाहजहांनाबाद बसा है। लाल किले के पश्चिमी गेट या कहें लाहौर दरवाजे के सामने आज दिल्ली की शान चांदनी चौक है। और दक्षिण गेट या कहें दिल्ली दरवाजे के सामने दरियागंज तक फैज बाजार। शाहजहांनाबाद का सबसे बड़ा लैंडमार्क जामा मस्जिद कुदतरी भोजला पहाड़ पर बनी है। इसकी नींव 6 अक्टूबर 1650 को रखी गई और बनने में 6 साल का वक्त लगा। जामा मस्जिद को आर्किटेक्चर की बेमिसाल रचना कह सकते हैं। जामा मस्जिद का पूर्वी द्वार लाल किले के दिल्ली दरवाजा की ओर खुलता है। इसी के जरिए बादशाह शाहजहां लाल किले से जामा मस्जिद नमाज अदा करने आता-जाता था। बीच में, करीब एक किलोमीटर से कम रास्ता था, जिस पर कई दुकानें थीं। यह खास बाजार कहलाता था। जामा मस्जिद के उत्तरी दरवाजे के नजदीक हवेली धर्मपुरा को जाती गली में, बाईं तरफ पहला फाटक नुमा रास्ता गली चाह राहत है। गली के ज़रा अंदर पुरानी-सी दीवार और पुराने दरवाजे पर ताला लटक रहा है। ऊपर पत्थर लगा है, जिसपर फारसी से कुछ यूं लिखा है- ‘चाह राहत’। यानी फारसी पहिए वाला कुआं। स्थानीय लोग बताते हैं कि इसकी चाबी जामा मस्जिद के शाही इमाम के पास रहती है। इंडियन नेशनल ट्रस्ट फॉर आर्ट एंड कल्चरल हेरिटेज की वॉक एक्सप्लोरर स्वप्ना लिडल अपनी किताब ‘दिल्ली 14 हिस्टोरिक वॉक्स’ में बताती है कि मुगल काल में, इस कुएं का पानी जामा मस्जिद को सप्लाई किया जाता था। केवल इतना ही इस पत्थर पर भी लिखा है।

कूचा उस्ताद हामिद- लाल किले के पास पैदल की दूरी पर ही कूचा उस्ताद हामिद है। गली के मुंहाने पर ही ऊपर से झांकता खंडहरनुमा घर है। गली का नक्काशीदार दरवाजा हाल के सालों में लगा बताते हैं। उल्लेखनीय है कि लाल किले के निर्माण के प्रमुख कारीगर या बिल्डर उस्ताद हामिद ही थे। उन्हीं की देखरेख में लाल किले का निर्माण हुआ। उस्ताद हामिद का नाम इस गली के नाम के रूप में आज भी जिन्दा है। वैसे, कुछ लोग कूचा उस्ताद हामिद को अब कृष्णा गली के नाम से ज्यादा जानते है।

श्री दिगम्बर जैन नया मन्दिर- आगे बाजार गुलियान से धर्मपुरा होते हुए, संकरी गलियां आभूषणी अंदाज से सजे-धजे दो मंजिला श्री दिगम्बर जैन नया मन्दिर तक जाती है। मन्दिर के साथ बेशक ‘नया’ जुड़ा है, लेकिन है 1807 का। मन्दिर लाल हरसुखराय ने बनवाया था। इसकी नींव 1800 में रखी गई और 7 साल में बना। मुगलकाल के दौरान, जैन समुदाय की अहम भूमिका रही है। जैन समुदाय के लोग ज्यादातर सौदागर और साहूकार थे। उन्हीं के पैसे से शाही फौज का खर्च चलता था। जैनियों की दौलत का कुछ हिस्सा मन्दिरों के निर्माण में भी खर्च होता था।

कटरा कुशाल राय- में शीश महल नाम की हवेली भी इतिहास संजोए है। ड्योढ़ी से भीतर जाएं, तो खुले बरामदे में कदम रखते हैं। आसपास चकौर आकार में बालकनी वाले गलियारे है और कमरों की कतार है। शुरूआती दिनों में, शीश महल दो मंजिला ही थी। वहां लगा पत्थर बताता है कि फरवरी 1881 में, शीश महल से सेंट स्टीफंस कॉलेज का शुभारम्भ हुआ। यहीं इसी नाम से स्कूल भी 1853-54 में चालू हुआ था। पहले प्रिंसिपल सेम्यूल स्कॉट थे और केवल दो टीचरों का स्टाफ था। सन् 1891 आते-आते छात्रों की तादाद बढ़ कर 52 हो गई। सो, कॉलेज को कश्मीरी गेट की नई इमारत में शिफ्ट किया गया। कटरा कुशाल राय से किनारी बाजार में निकल कर, गली परांठे वाली का रूख करें, तो पहली बाईं मुगलाकालीन गली नौघरा है। मतलब- नौ घर। घरों का रंग-बिरंगा रूप खासा आकर्षित करता है। रंगीन फूल-पत्ती की सजावट के भी क्या कहने। आखिरी छोर पर जौहरी मन्दिर है, जो बादशाह शाहजहां के जमाने का बताया जाता है।

दिल्ली रिज दिल्ली रिज का जंगल आज तीन छोटे-छोटे हिस्सों में बंट गया है। पर एक समय में यह पहाड़ियों की एक विशिष्ट श्रृंखला थी। आज के वसंत विहार में मुरादाबाद पहाड़ी, मध्य दिल्ली में पहाड़गंज और पहाड़ी धीरज, राष्ट्रपति भवन की रायसीना पहाड़ी और जामा मस्जिद का आधार भोजला पहाड़ी सहित आनंद पर्वत की स्मृति ही शेष है। अंडरहिल रोड नाम बेशक इंग्लैंड के किसी काउंटी (अंग्रेज गांव) की गली का नाम लगता हो पर असलियत में यह उत्तरी दिल्ली में रिज से जुड़ी है। गुलाम वंश के सुल्तान बलबन के मकबरे के सामने की चट्टानों पर बना रहस्यमय अमीर खान का मकबरा होने के कारण रिज के जंगल के टुकड़े सुरक्षित हैं। वहीं पहाड़ी की चोटी पर प्राचीन कालका देवी का मंदिर और मलय मंदिर (मलय का संस्कृत में अर्थ पहाड़) हैं।

चौदहवीं सदी की दिल्ली में रिज एक घना जंगल होती थी, जिसे अंग्रेजों के जमाने में साफ करके बगीचों में बदला गया। मध्यकालीन दिल्ली में जंगली शिकार के लिए जहान-नुमा रिज के जंगल का क्षेत्र पालम से मालचा तक दो हिस्सों में बंटा हुआ था। आज़ादी के बाद जवाहरलाल नेहरू की पत्नी के नाम पर कमला नेहरू रिज रखा गया। सुल्तान फिरोजशाह तुगलक के कुशक (शिकारगाह-आरामगाह) से अंग्रेज़ वास्तुकार लुटियन की नयी दिल्ली में कुश्क रोड का नाम पड़ा। दिल्ली के अंतिम हिन्दू सम्राट पृथ्वीराज चौहान राय किला पिथौरा के पूर्वी हिस्से के जंगल में किसी समय में कोई शिकारगाह होगी, जिससे तुगलककालीन कुशक नाला को उसका नाम मिला। आज भी इसे रिज के पश्चिमी भाग से दक्षिण की ओर आते हुए और फिर सतपुला से उत्तर की ओर निजामुद्दीन की ओर बढ़ते हुए देखा जा सकता है।

क्या दिल्ली के बारे में आप ये जानते हैं…

दिल्ली के हौज और झीलें- 1883 के अंत तक दिल्ली में असमान भूमि, जलधाराओं और यमुना नदी में उफनकर गिरने वाले नालों का वर्णन है। दिल्ली के भूदृश्य में गड्डे और निचली जमीन थी जहां पानी झील के रूप में जमा हो जाता था, जहां पशु-पक्षी एकत्र होते थे तो महिलाएं घड़ों में तो भिश्ती अपनी मश्क़ों में अपनी-अपनी जरूरत का पानी भरते थे। ऐसी ही एक झील, नजफगढ़ की झील थी जबकि पानी का एक बड़ा स्त्रोत कटोरे के आकार का तालाब था तो वही फ़रीदाबाद के पास एक सूरजकुंड भी था। बाद के दौर में दिल्ली की पानी की बढ़ती जरूरत के लिए बड़े तालाब खोदे गए और पानी को सहेजने के लिए हौद-हौज शम्सी, हौजखास और हौजरानी बनवाए गए। आधुनिक दौर में, पानी के इन पुराने स्रोतों को जमीन की गरज से समतल करने के लिए मनमाने ढंग से भरा गया है। शायद इसी का नतीजा है कि इनमें से दो हौज सूख गए।

  • हौज़-ए-शम्शी- चौहानों की पराजय के बाद कुतुबुद्दीन ऐबक ने दिल्ली की गद्दी संभाली तो उसने किला राय पिथौरा और लाल कोट में ही अपना डेरा जमाया। इस वंश के शम्शुद्दीन इल्तुतमिश के शासन 1211-1236 ई. के दौरान महरौली के दक्षिणी हिस्से में एक हौज़ बनाया गया। इसे ‘हौज़-ऐ-शम्शी’ का नाम दिया गया। इल्तुतमिश का शम्शी परिवार का होने के कारण इस हौज़ को यह नाम मिला। सन् 1324 और 1354 के बीच अफ्रीका से चीन की करीब 75 हजार मील का यात्रा करने वाले बहुचर्चित यात्री इब्नबतूता ने अपनी दिल्ली-यात्रा के विवरण में ‘हौज़-ए-शम्शी’ का उल्लेख किया है। इब्नबतूता ने लिखा है कि हौज़ इतना बड़ा था उसके आकार ने ही मुझे बहुत प्रभावित किया। इस हौज़ के बीच में एक दुमंजिला इमारत थी। उस इमारत में आने जाने के लिए नाव इस्तेमाल किया जाता था।
  • हौज़ खास- सन् 1300 के आस-पास खिलजी शासकों ने ‘सीरी’ के नाम से एक नया शहर बसाया। सही मामलों में यह पहला मौका था, जबकि शहर को अरावली की पहाड़ियों से हटाकर समतल इलाके में लाने का प्रयास किया गया। इसका एक कारण उस समय के पुराने शहर में आबादी के बढ़ते जाने के कारण पानी की कमी रही। ‘सीरी’ बसाए जाते समय जिस ज़मीन का चुनाव किया गया था, उसके आस-पास पानी के अनेक स्रोत थे। इसमें से कुछ तो पानी की धाराएं थीं, जो इस शहर से होकर यमुना की ओर बहा करती थीं। इस शहर के बसाए जाते समय बनाया गया हौज़ खास आज भी रेनवाटर हार्वेस्टिंग करने के काम में लाए जा सकने की स्थिति में है। इस पर कुछ काम भी किया गया है। रख-रखाव के अभाव में उसकी पूरी क्षमता के एक हिस्से का भी वास्तविक इस्तेमाल नहीं किया जा रहा है। इस हौज़ का निर्माण अलाउद्दीन खिलजी के शासन काल के दौरान सन् 1296-1316 के बीच किया गया था। अलाउद्दीन के शासन के बाद यह हौज़ सूख गया था। फिरोजशाह तुगलक के शासन काल 1351-1388 के दौरान इसको फिर से साफ और मरम्मत करके इस्तेमाल के लायक बनाया गया। फिरोजशाह तुगलक के कार्यकाल में अनेक स्थानों पर बरसाती पानी के बहाव को बांध बनाकर रोकने की व्यवस्था की गई। इसके बाद के 700 सालों में जल संरक्षण के इस परंपरागत स्रोत हौज़ खास की ओर किसी की खास नजर नहीं पड़ी।
  • हौज़ काजी- शाहजहां द्वारा बसाई गई दिल्ली में एक इलाके को ‘हौज़ काजी’ के नाम से जाना जाता है। आज के भीड़-भाड़ वाले इस इलाके में कभी रहा काजी का हौज़ यहां के निवासियों की पानी की जरूरतें पूरी करता रहा। अब कहां खो गया, इसका पता लगा पाना एक अच्छा प्रयास होगा लेकिन अब इसकी ज्यादा संभावनाएं नहीं रह गई हैं। इसी प्रकार सुईवालान मुहल्ले में सुईवालों का हौज़ और उसके पास ही हौज़वाली मस्जिद होने का उल्लेख मिलता है। यह हौज़ कहां गया, पता नहीं। इस मुहल्ले के पास नवाब आजम खान द्वारा बारादरी और हौज़ बनाए जाने की भी चर्चा मिलती है। इस हौज़ को ‘नवाब आजम खान हौज़’ के नाम से पुकारा जाता है। अब इस हौज़ का भी पता नहीं चलता।
  • लाल डिग्गी- अंग्रेजी राज के दौरान लाल किले के सामने क हौज़ बनाया गया था। यह वह समय था, जबकि मुगल बादशाह के नाम पर दिल्ली पर अंग्रेजों का शासन चलता था। उस समय के दिल्ली के लोग इसे ‘लाल डिग्गी’ के नाम से पुकारते थे। तालाब और हौज़ को ‘डिग्गी’ कहे जाने की परंपरा हरियाणा और राजस्थान में आज भी कई बार सुनाई पड़ जाती है। यह हौज़ कितना बड़ा रहा होगा, इसका अनुमान इस बात से लगाया जा सकता है कि इसके पानी का इस्तेमाल हाथियों को नहलाने और पानी पिलाने के लिए किया जाता था। यह तालाब वर्ष 1846 के आस-पास बनवाया गया था। इस तालाब का निर्माण एक अंग्रेज अधिकारी सर एलेनबरो ने कराया था। सरकारी दस्तावेज़ इस तालाब को ‘एलेनबरो टैंक’ के नाम से जानते हैं। यह तालाब 500 फीट लंबा और 150 पीट चौड़ा था। इसे लाल किले को बनाने के लिए इस्तेमाल किए गए पत्थरों की तर्ज पर लाल पत्थरों से बनाया गया था। इस तालाब में पानी चांदनी चौक से होकर गुजरने वाली नहर से लाया जाता था। इस तालाब के चारों कोनों पर पत्थर के खंभे बने हुए थे। इस तालाब में पानी तक पहुंचने के लिए दो किनारों पर सीढ़ियां बनाई गई थीं। यह तालाब लाल किले के लाहौरी गेट के दक्षिण में और दिल्ली गेट के बीच बनाया गया था।
  • महरौली का झरना- मध्य एशिया से सैकड़ों मील की दूरी तय करके लड़ते-झगड़ते दिल्ली पहुंचने और उस पर कब्ज़ा करने वालों ने संभवतः शुरू में अपनी पानी की ज़रूरतों को पूरा करने के लिए यहां पहले से उपलब्ध तौर-तरीकों को आज़माना बेहतर समझा होगा। इसलिए उन्होंने पहले तालाब बनवाने का फैसला किया। उस हौज़ का नाम ‘हौज़ शम्शी’ रखा। उसका निर्माण 1230 के आस-पास किया गया माना जाता है। इस हौज़ के पानी को तब खासा पवित्र माना जाता था। इस हौज़ के चारों ओर अनेक प्रमुख संतों की दरगाहें थीं। उनमें से कुछ तो आज भी उतनी ही पवित्र और लोकप्रिय मानी जाती हैं। अमीर खुसरो ने ‘तारीख – ए – अलाई’ में लिखा है कि अलाउद्दीन खिलजी के शासन काल के दौरान इस हौज़ की सफाई और मरम्मत की गई थी। अलाउद्दीन खिलजी ने अब से करीब 700 साल पहले दिल्ली पर शासन किया था। उस समय में भी इस हौज़ का पानी अक्सर सूख जाया करता था, इसलिए इसमें फिर से पानी भरे जाने की व्यवस्था की गई थी। आज भी ‘फूल वालों की सैर’ के नाम से विख्यात दिल्ली के सबसे पुराने मेलों में से एक ‘सैर ए गुलफिरोशां’ की शुरुआत इसी हौज़ के पास ही होती है। इस मेले की शुरुआत तालाब के उस हिस्से के पास से होती है, जहां शम्शी तालाब का पानी एक झरने के रूप में नीचे गिरा करता था। इस स्थान को अब भी झरने के नाम से ही पहचाना जाता है। पानी नहीं होने के कारण ‘झरने’ का अब तो केवल नाम ही रह गया है।

दिल्ली की बावलियां और कुएं- कुदरती पानी को सहेजने और आबादी की प्यास बुझाने के लिए दिल्ली में बावलियां बनाई गईं। दिल्ली में लोग सूखी, गंधक और उग्रसेन की बावली जैसे पानी के ठंडे ठिकानों पर जुटते थे। खारी बावली (खारे पानी की बावली) से एक स्थान का नाम हुआ। तो कुंओं के नाम पर लालकुंआ और धौला कुंआ तो विकासपुरी के नजदीक धौली प्याऊ के नाम पर जगह बनी। राजस्थानी में धौला का मतलब सफ़ेद होता है। यानि साफ पानी वाला कुंआ, धौला कुंआ तो प्याऊ, धौली प्याऊ।

  • दिल्ली में 24 से अधिक बावलियां हैं। यहां भूमिगत जल स्तर लगातार नीचे जा रहा है। इससे दिल्ली की अधिकतर बावलियां सूख चुकी हैं। जिसमें से केवल महरौली स्थित गंधक की बावली, काकी की दरगाह वाली बावली और निजामुद्दीन औलिया की बावली में पानी लाने के प्रयास ही सफल हुए हैं। वहीं अग्रसेन की बावली व लालकिला व पुराना किला की बावली में आज भी पानी नहीं लाया जा सका है। लालकिला में बावली के साथ साथ पानी के कुएं भी सूख चुके हैं। अग्रसेन की बावली और लालकिला की बावली के सूख जाने का कारण मेट्रो स्टेशनों का निर्माण बताया जा रहा है। विशेषज्ञ मान रहे हैं कि वर्षा जल संचयन के तहत बारिश का पानी कई बावलियों में डाला जा सकता है। मगर इस पर एएसआइ का ध्यान ही नहीं है।
  • दिल्ली की सबसे पुरानी बावली, गंधक-बावली- भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण की पुस्तक “दिल्ली और उसका अंचल” के अनुसार, महरौली में और उसके आसपास अनगढ़े पत्थरों से अनेक सीढ़ीयुक्त बावलियां बनवाई गईं, जिनमें दूसरों की तुलना में दो अधिक प्रसिद्व हैं। तथा-कथित गंधक की बावली, जिसके पानी में गंधक की गंध है, अधम खां के मकबरे से लगभग 100 मीटर दक्षिण में स्थित हैं। गंधक की बावली पानी प्रचुर मात्रा में सल्फर पाए जाने के कारण गंधक की बावली कहलाती है। यह विश्वास किया जाता है कि इसे गुलाम वंश के सुल्तान इल्तुमिश (1211-36) के शासनकाल में बनवाया गया था। आदित्य अवस्थी की पुस्तक “नीली दिल्ली प्यासी दिल्ली” के अनुसार, यह बावड़ी उत्तर से दक्षिण की ओर 133 फीट लंबी और करीब 35 फीट चौड़ी है। इस इमारत में पानी तक पहुंचने के लिए 105 सीढ़ियां हैं। बावड़ी के ऊपरी हिस्से में सजावटी पत्थर लगे हुए हैं। सरकारी दस्तावेज बताते हैं कि इस बावड़ी के तहत करीब 2,200 वर्गमीटर का क्षेत्र आता है। अब यह क्षेत्र कितना बचा है, यह तो इसे देखनेवाले ही जान-समझ सकते हैं। यह गंधक की बावली वर्श 1975 में सूख गई थी।

दिल्ली की नहरें- आज के कनाट प्लेस के नजदीक पंचकुइयां (पांच कुइयां, कुएं से छोटी कुई होती है) रोड में पानी के प्रवाह को नियंत्रित करने वाला एक तंत्र था। तेरहवीं सदी के अंत में राजधानी में नहरों का जाल बिछाया गया। इसी योजना से दो नहरें, नजफगढ़ नहर और बारापूला नहर, बनीं जबकि सत्रहवीं सदी में मुगल शहर शाहजहांनाबाद में अली मर्दन नहर, सदात खान नहर और महल यानी लाल किला में नहर-ए-बहिश्त जोड़ी गई। इतना ही नहीं, पुलों के नाम पर स्थानों के नाम रखे गए। तुगलक कालीन सतपुला, मुगल कालीन अठपुला और बारापुला का नामकरण उनके मेहराबों की गिनती पर किया गया।

  • जब अंग्रेजों ने 1857 की पहली आजादी की लड़ाई के बाद दिल्ली पर दोबारा कब्जा जमाया तो उन्होनें शाहजहांनाबाद के चारों ओर दीवार का निर्माण करवाया तब बद्रू गेट का नाम मोरी गेट (जहां पानी की निकासी के लिए मोरी होती थी, यानी छेद था) हो गया क्योंकि शहर में नहर यही से घुसती थी। यमुना के किनारे बनाए गए घाटों में निगम बोध घाट और राजघाट से प्रमुख थे। दरियागंज, दरिया का अर्थ नदी और गंज का मतलब बाजार यानी नदी के किनारे का बाजार के तुगलक बाजार में एक स्थान पर नावें अपना सामान उतारा करती थी।
  • आज नहरें सूख कर नाला बन चुकी है और रख-रखाव के अभाव में उनका उपयोग कचरे और प्लास्टिक को ठिकाने लगाने वाले भराव स्थलों के रूप में होने लगा है जबकि पुल (जैसे तीस हजारी अदालत के पीछे पुल-मिठाई) सिर्फ नाम के रह गए हैं जो किसी मंजिल तक नहीं पहुंचते। अगर शहर से हटकर दिल्ली देहात को देंखे तो वहां के अनेक गांवों के नाम जैसे महरौली, होलंबी, कोंडली, मुंडेला, ओखला, जसोला, झड़ौदा, मालचा, मुनिरका, करकरी, कड़कड़डूमा, कराड़ी, धूलसिरस, पालम और हस्ताल का स्थानीय बोली में अपना विशेष अर्थ है।

दिल्ली की सराय पुराने जमाने में दिल्ली में यात्रियों और व्यापारियों की सुविधा के लिए अनेक सराय बनी थीं, जहां वे अपने जानवरों को बांधकर रात में आराम करते थे। शाहजहांनाबाद में इस तरह की सरायों के नाम थे जैसे युसूफ, शेख, बेर, काले खान, बदरपुर, जुलैना (औरंगजेब के बेटों की यूरोपीय शिक्षिका के नाम) रूहेला और बादली। शहर में चांदनी चौक के करीब एक खूबसूरत ढंग की इमारत में बनी सराय मुगल शहजादी रोशनआरां के नाम पर थी। इस सराय का नाम लोकस्मृति से इसलिए मिट गया क्योंकि सन् 1857 में आजादी की पहली लड़ाई के बाद अंग्रेजों ने दिल्ली पर दोबारा कब्जे के बाद उस जगह टाउन हॉल बनाया।

दिल्ली के कटरे इसी तरह, आज शाहजहांनाबाद में 4 हजार या उससे अधिक कटरों (सटे हुए बाजार) की कहानी भी मजेदार है क्योंकि इनमें से अधिकांश सरकार के स्वामित्व में हैं। देश विभाजन से पहले इनकी संख्या कम ही थी जैसे कश्मीरी कटरा और नील कटरा दो जाने-पहचाने नाम हैं। तो फिर इनकी संख्या में यकायक इतना इजाफा कैसे हुआ? सन् 1947 के बाद पाकिस्तान जाने वाले मुसलमान परिवारों की हवेलियों में पाकिस्तान से निकाले गए हिंदू परिवारों ने आकर डेरा जमाया। इन्होंने अपने नए ठिकानों का घर के साथ कामकाजी यानी दोहरा प्रयोग किया। आजादी के तुरंत बाद भारत सेवक समाज की ओर से किए गए एक सर्वेक्षण के अनुसार, इनका कटरों के रूप में वर्गीकरण किया गया और तब से उन्हें इसी नाम से पुकारा जा रहा है।

अंग्रेजों ने कई नाम बदले और कई नाम नहीं बदले- जब अंग्रेजों ने सन् 1911 में कलकत्ता से दिल्ली अपनी राजधानी को स्थानांतरित किया तो उसे उन्होंने साम्राज्यों की नई राजधानी के रूप में प्रचारित किया था। वैसे विंडसर प्लेस का नाम दिया गया और किसी ने उसे आठवीं दिल्ली यानी शाहजहांनाबाद की उत्तराधिकारी राजधानी अथवा जार्जटाउन का नाम नहीं दिया। इसी तरह, इंगलैंड की तर्ज पर किंग जॉर्ज एवेन्यू और क्वींस एवेन्यू की नकल करते हुए किंग्स-वे और क्वींस-वे का नाम रखा गया। जिन्हें आजादी के बाद राजपथ और जनपथ का नाम दिया गया।

मुगल और भारतीय शासकों के नाम पर सड़कें- अंग्रेजों ने अपने साम्राज्य की वैधता को साबित करने के लिए नई दिल्ली के सड़क मार्गों के नाम पूर्व भारतीय शासकों जैसे अशोक, पृथ्वीराज, फिरोजशाह, तुगलक, अकबर और औरंगजेब के नाम रखें। यहां तक कि अंग्रेजों ने फ्रांसिसी डुप्लेक्स और पुर्तगाली अलबुकर क्यू के नाम भी सड़कों के नाम हैं। नई दिल्ली के लिए जयपुर के राजा ने अंग्रेजों को जमीन (जयसिंहपुरा और रायसीना) दी थी इसलिए दो सड़कों के नाम जयपुर के कछवाह वंश के राजा मानसिंह और जयसिंह के नाम पर भी रखे गए। इसी तरह, अंग्रेज वास्तुकार, इंजीनियर और अधिकारियों के नाम पर भी सड़कों के नाम रखें गए, जिनमें हैली, राउज और कीलिंग सहित लुटियन के शामिल हैं। मजेदार बात है कि जहां हैली, राउज और कीलिंग के नाम चौड़ी सडकें हैं वहीं उनकी तुलना में लुटियन के नाम संकरी सड़क है।

गांव या बसावट- दिल्ली में अधिकतर मामलों में आबादी की बसावटों को नाम और पहचान, किसी राजा या सुल्तान के जमीन के टुकड़े को दान या खैरात में देने के बाद मिली। इनमें से अधिकतर पंद्रहवीं सदी के बाद के हैं जब लोदी वंश के सुल्तानों ने दिल्ली में खालसा (शाही जमीन) की जमीनों को अपने सरदारों का सर्मथन हासिल करने के लिए बांटा। ये इनामी जमीनें सुल्तान के लिए अलग से मालगुजारी का साधन थीं। इनकी ज़मीनों की पहचान संस्कृत भाषा के शब्द ’पुर‘ के प्रत्यय से की जा सकती थीं। ’पुर‘ का शाब्दिक अर्थ बसावट होता है। इस तरह, आबादी वाली इन बसावटों के नाम किसी एक व्यक्ति विशेष के नाम पर रखे गए थे जैसे बदर, मोहम्मद, महिपाल, मसूद, बाबर, हुमायूं, अली, बेगम, जयसिंह। यहाँ तक की नई दिल्ली का जंगपुरा, जहां एक मेट्रो स्टेशन भी है, भी बीसवीं सदी का एक ‘पुर’ है। यह एक अंग्रेज उपायुक्त श्री यंग के नाम पर है, जिनके कार्यकाल में रायसीना गांव में राष्ट्रपति भवन के बनने की वजह से गांव के विस्थापित लोगों को जहां पुर्नवासित किया गया, उस जगह का नाम गांववालों ने श्री यंग के नाम पर रख दिया। इसी तरह, दिल्ली देहात के कुछ गांवों का नाम अधिकारियों के नामों पर थे जैसे शाहपुर या वजीरपुर। राजपूत वीर राय सीना के नाम पर बसा गांव, बाहरवीं सदी के राय पिथौरा की याद दिलाता है। दिल्ली के मशहूर सूफी संत निजामुद्दीन औलिया की खानकाह गियासपुर गांव में थी, जिसका नाम सुल्तान गयासुद्दीन तुगलक के नाम पर था। गयासुद्दीन तुगलक का औलिया का छत्तीस का आंकड़ा था।

नाम के पीछे पुरशब्द का मतलब- आधुनिक नयी दिल्ली में कम से कम एक सौ गांव ऐसे होंगे जिनके नाम के पीछे ‘पुर’ शब्द लगा है। ऐसे गांवों की संख्या इससे अधिक भी हो सकती थीं पर शहरीकृत गांव बनने के बाद दिल्ली विकास प्राधिकरण और दिल्ली नगर निगम के कारण अब ऐसे गांवों के नाम बदल गए हैं। इसी तरह, देहात में मुख्य गांव को कलां (मतलब बड़ा) और नए बसे हुए गांव को खुर्द (मतलब छोटा) कहा जाता था। जैसे दरीबाकलां और दरीबाखुर्द। इसी तरह, समाज में जातियों के अस्तित्व का भी गाँव के नाम से पता चलता था जैसे सादतपुर मुसलमान और सादतपुर गुर्जरान। इसी तरह, ‘आबाद’ फारसी प्रत्यय है, जिसका मतलब होता है जो जगह लोगों से आबाद हो। जैसे, गाजियाबाद, फरीदाबाद, मुरादाबाद और शाहजहांनाबाद। इनके उपसर्ग व्यक्तियों के नामों पर थे।

नाम के पीछे कोटशब्द का मतलब- ‘कोट’ संस्कृत का शब्द है, जिसका अर्थ होता है किला और उसमें ‘ला’ शब्द का प्रत्यय लगने से उसका मतलब हो जाता है शहर या किलेबंदी वाला शहर। सभी राजपूत किलों की तरह, तोमरों का लालकोट दिल्ली की दक्षिण रिज की ऊंचाई पर बना था। सुल्तान फिरोजशाह तुगलक के विशाल शहर के उत्तरी सिरे पर किलेबंदी वाला शहर कोटला फिरोजशाह बना हुआ था। यह शहर यमुना नदी से महरौली तक फैला हुआ था। तुगलक वंश के बाद दिल्ली पर काबिज हुए सैयद वंश के शासकों ने उनके किले को मध्य में कोटला मुबारकपुर के रूप में स्थापित किया। दिल्ली के इतिहास में अरबी शब्द किला का पहला संदर्भ हिन्दू सम्राट पृथ्वीराज चौहान के किले, किला राय पिथौरा के रूप में मिलता है। हुमायूं का दीनपनाह (दीन के लोगों की पनाहगाह) उन्नीसवीं सदी में पुराना किला हो गया वहीं शाहजहां का किला मुबारक, लालकिला बन गया। गढ़ या गढ़ी, किले के लिए संस्कृत शब्द, का प्रत्यय किशनगढ़, वल्लभगढ़, नजफगढ़, हिम्मतगढ़, मैदानगढ़ी में दिखाई देता है।

नाम के पीछे गंजशब्द का मतलब- अपवादस्वरूप कुछ मामलों में गंज का मतलब बाजार नहीं भी होता था जैसे ट्रीविलयन गंज और किशनगंज। उन्नीसवीं सदी के आरंभ में, ट्रीविलयन नामक एक अंग्रेज ने ट्रीविलयन गंज तो दीवान किशनलाल ने किशनगंज को बसाया था। शाहजहांनाबाद का दक्षिणी भाग अलीगंज कहलाता था जो कि सफदरजंग की जागीर था और राजा का बाजार (शिवाजी स्टेडियम और हनुमान मंदिर के बीच में) जयपुर राजपरिवार की संपत्ति था यह हिस्सा बाद में अंग्रेजों की नई दिल्ली का हिस्सा बना। शहर की दीवार से बाहर बने थोक की वस्तुओं के बाजार बेशक मुहल्ले बन गए पर उनके नाम बदस्तूर जारी रहें जैसे रकाबगंज, मलका गंज, पहाड़ गंज और सब्जी मंडी।

जब पहली बार दिल्ली में दौड़ी रेलगाड़ी

सन् 1848 में, भारत के गवर्नर जनरल बने लॉर्ड डलहौजी ने कलकत्ता से दिल्ली तक रेलवे लाइन की सिफारिश की क्योंकि काबुल और नेपाल से आसन्न सैन्य खतरा था। उसका मानना था कि यह प्रस्तावित रेलवे लाइन सरकार की सत्ता के केंद्र, उस समय कलकत्ता ब्रिटिश भारत की राजधानी थी। जब ईस्ट इंडिया कंपनी ने 1857 में देश की पहली आजादी की लड़ाई के बाद दिल्ली पर दोबारा कब्जा किया तब अंग्रेजों ने शहर में रेलवे लाइन के बिछाने की योजना को अमली जमा पहनाने की ठानी। जिसका मकसद शाहजहांनाबाद के भीतर अंग्रेजी सेना को जल्द से जल्द भेजा जा सके। दूसरा 1857 का एक सीमांत शहर दिल्ली अब पाँच प्रमुख रेल लाइनों का जंक्शन बनने के कारण महत्वपूर्ण बन चुका था। जहां कई उद्योग और व्यावसायिक उद्यम शुरू हो गए थे। यही कारण है कि सन् 1863 में गठित समिति ने तत्कालीन ब्रिटिश सरकार से दिल्ली को रेलवे लाइन से जोड़ने की दरखास्त की थी। इसके लिए शहर के एक बड़े हिस्से से आबादी को उजाड़ा गया।

  • सलीमगढ़ और लाल किले पर अंग्रेजी सेना के कब्जे के बाद इन दोनों किलों पर से रेल पटरी को गुजारा गया। लेकिन एक समस्या थी कि यमुना नदी। यमुना के पार रेल को कैसे ले जाया जाए। इसके लिए 1863 में युमना पर लोहे के पुल का निर्माण शुरू किया गया। लोहे के पुल का डिजाइन ऐसा था कि नीचे गाड़ियां चल सकें और ऊपर ट्रेन चल सके। अंग्रेजी हुकूमत ने सिंध, पंजाब और दिल्ली रेलवे का दो रेलवे कपंनियों इंडस वैली एंड पंजाब नार्दन लाइनों के साथ मिलाकर उत्तर पश्चिम रेलवे बनाया गया, जिसका संचालन का जिम्मा भारत सरकार पर था। सरकार ने इस रेलवे लाइन के सामरिक महत्व वाले स्थान में होने के कारण इसका प्रबंधन सीधे अपने हाथ में ले लिया था।
  • दूसरी तरफ 1864 में दिल्ली जंक्शन (पुराना दिल्ली रेलवे स्टेशन) भी बनकर तैयार हो चुका था। स्टेशन की शुरुआत कलकत्ता से ब्रॉड गेज ट्रेन के साथ हुई थी। 1873 में दिल्ली से रेवाड़ी और आगे अजमेर तक मीटर गेज ट्रैक बिछाया गया था और इस गेज पर ट्रेनें 1876 में शुरू हुई थीं। स्टेशन का वर्तमान भवन 1900 में बनाया गया था और 1903 में जनता के लिए खोला गया था। सिर्फ 2 प्लेटफार्मों और 1000 यात्रियों के साथ शुरू हुआ, दिल्ली रेलवे स्टेशन अब 180,000 से अधिक यात्रियों को संभालता है और लगभग 250 ट्रेनें प्रतिदिन स्टेशन से शुरू होती हैं, समाप्त होती हैं, या गुजरती हैं।

150 साल पहले अंग्रेजों ने बनाया था पुराना लोहा पुल’… अंग्रेजों ने किया था इसका निर्माण- दिल्ली को कोलकाता से जोड़ने के लिए अंग्रेजी हुकूमत ने ईस्ट इंडिया रेलवे द्वारा वर्ष 1866 में 16,16,335 पौंड की लागत से इस पुल को बनवाया था। इस समय एक पौंड की कीमत 90.13 रुपया है। इस हिसाब से इसकी लागत भारतीय मुद्रा में करीब साढ़े 14 करोड़ रुपये होगी। पुल का निर्माण 1863 में शुरू हुआ और पूर्ण 1866 में हुआ था। तकनीकी भाषा में लोहे के पुल के “bridge no 249” कहा जाता था। उस समय सिर्फ एक लाइन (जिसे नॉर्थ लाइन कहते हैं) बनी थी। उसके बाद 1913 में 14,24,900 पौंड (वर्तमान में करीब 13 करोड़ रुपये) मूल्य की लागत से दूसरी लाइन (साउथ लाइन) बनाई गई। इसमें 202.5 फीट के 12 स्पैन तथा अंतिम दो स्पैन 34.5 फीट के हैं। इसकी लंबाई 700 मीटर है। इसकी क्षमता बढ़ाने के लिए ब्रेवेट एंड कंपनी (इंडिया) लिमिटेड ने वर्ष 1933-34 में 23,31,396 पौंड (वर्तमान में लगभग 21 करोड़ रुपये) की लागत से इस पुल के स्टील गार्डर को बदला था। पुल का ढांचा ब्रिटेन में तैयार करने के बाद इसे यहां लाकर स्थापित किया गया था।

  • इस पुल का डिजाइन यमुना नदी में आने वाली बाढ़ को ध्यान में रखकर तैयार की गई थी उस समय खतरे के निशान का स्तर 672 फीट माना गया था। इसमें कुल 11 पिलर हैं तथा इन सभी के फाउंडेशन का स्तर अलग-अलग है। सबसे निचला फाउंडेशन (पिलर नंबर छह का) 615 फीट पर है।
  • बाढ़ की वजह से 1956 में पहली बार बंद हुआ था पुल- बाढ़ की वजह से इस पुल को कई बार बंद करना पड़ा है। पहली बार वर्ष 1956 में इसे बंद किया गया था, जब यमुना में जलस्तर 677 फीट दर्ज किया गया था। इसके बाद पुल को 1978 में बंद किया गया था उस वर्ष जलस्तर 681 फीट तक पहुंच गया था। उसके बाद वर्ष 1988, 1995, 1997, 1998, 2000, 2001, 2002, 2008, 2010 एवं 2013 में जलस्तर खतरे के निशान से ऊपर पहुंचने पर कुछ दिनों के लिए बंद किया गया था।
  • बदला जा रहा है पुराना लोहा- इस पुल में कुल 3500 टन लोहा लगा हुआ है। 2011-12 में 240 टन लोहा बदला गया था। लगभग 11 करोड़ रुपये की लागत से इसके जर्जर हिस्से को बदलने का फिर से काम चल रहा है अब तक लगभग 900 टन लोहा बदला जा चुका है। काम पूरा होने के बाद ट्रेन की रफ्तार कम नहीं करनी पड़ेगी। अधिकारियों का कहना है कि मरम्मत कार्य पूरा होने के बाद इससे 80 किलोमीटर प्रति घंटे के रफ्तार से ट्रेनें गुजर सकेंगी।
  • विरासत के रूप में संरक्षित किया जाएगा, 15 किलोमीटर की रफ्तार से गुजरती हैं ट्रेनें- पुराना होने के कारण इस पुल से ईएमयू 15 किलोमीटर प्रति घंटे, मेल व एक्सप्रेस ट्रेनें 20 किलोमीटर प्रति घंटे और मालगाड़ी 10 किलोमीटर प्रति घंटे की रफ्तार से गुजरती है। दिल्ली के मंडल रेल प्रबंधक आरएन सिंह का कहना है कि नया पुल तैयार होने के बाद इस पुल को विरासत के रूप में संरक्षित किया जाएगा।

दिल्ली का पहला हवाई अड्डा(Airport)

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सफदरजंग हवाई अड्डा (Airport) दिल्ली का पहला हवाई अड्डा था। जिसकी हवाई पट्टी 1378 मीटर लम्बी थी। नई दिल्ली के दक्षिणी भाग में ब्रिटिश राज के समय स्थापित यह हवाई अड्डा तब विलिंग्डन एयरफील्ड के नाम से शुरू हुआ था। लूट्यन्स दिल्ली के दक्षिणी छोर पर बसा यह हवाई अड्डा अब पूरे नयी दिल्ली शहर के लगभग बीच में आ गया है। 1929 में यहां से विमानन सेवा शुरू की गई थीं। यह दिल्ली का पहला एवं भारत का दूसरा हवाई अड्डा बना। द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान इसका बड़े पैमाने पर इस्तेमाल किया गया। यह South Atlantic air ferry route का हिस्सा था, जिसके जरिए सेना और हथियारों को भेजा जा रहा था। 1928 में यहीं दिल्ली फ़्लाइंग क्लब की स्थापना हुई। तब यहां देल्ही एवं रोशनारा नामक 2 de Havilland Moths, light aircraft हुआ करते थे। हवाई अड्डे पर प्रचालन 2001 तक चला, किन्तु जनवरी 2002 से सरकार ने 9/11 की घटना को देखते हुए हवाई अड्डे पर प्रचालन पूरी तरह से बंद कर दिया।

‘दिल्ली मेट्रो’

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‘दिल्ली मेट्रो’ 16 बरस की हो चुकी है। 25 दिसंबर, 2002 को सिर्फ 8 किलोमीटर से अपना पहला सफर शुरू करने वाली दिल्ली मेट्रो आज देश की नंबर वन तो वर्ष 2022 तक दुनिया की तीसरी सबसे लंबे नेटवर्क वाली मेट्रो रेल हो जाएगी। फिलहाल यह विश्व की चौथी सबसे लंबे नेटवर्क वाली रेल है। बता दें कि 25 दिसंबर 2002 को क्रिसमस के दिन पहली बार दिल्ली मेट्रो ने शाहदरा से तीस हजारी तक रेड लाइन मेट्रो शुरू की थी। यह एक एतिहासिक लम्हा था, जिसमें हजारों लोगों ने शिरकत की थी। तब दिल्ली मेट्रो का इस कदर क्रेज था कि लोग बिना मकसद दिल्ली मेट्रो में सफर करते थे, क्योंकि उन्हें इसके सफर का तजुर्बा लेना होता था। मेट्रो का क्रेज अब भी बरकरार है। यह भी कम उपलब्धि नहीं है कि 16 साल पहले कुछ हजार यात्रियों को उनके गंतव्य तक पहुंचाने वाली मेट्रो में अब रोजाना तकरीबन 30 लाख लोग सफर करते हैं।

दिल्ली मेट्रो 3 मई, 1995 को चर्चा में आई थी और तब से लगातार इस पर काम हो रहा है। दो दशक यानी 23 वर्षों के दौरान दिल्ली मेट्रो रेल कॉरपोरेशन (DMRC) ने 300 किलोमीटर से अधिक लंबा नेटवर्क स्थापित कर लिया है। इन रूटों पर रोजाना लगभग 30 लाख लोगों के आवागमन को सुगम बनाया है। दिल्ली मेट्रो ने 24 दिसंबर 2002 को 8.4 किलोमीटर लंबे शाहदरा–तीसहजारी कॉरीडोर पर रफ्तार भरी थी। फेज वन के पहले कॉरीडोर में महज छह स्टेशन थे। फिर चार साल बाद 11 नवंबर, 2006 में पहले फेज के अंतिम कॉरीडोर (बाराखंभा से इंद्रप्रस्थ) के बीच मेट्रो ट्रेन का परिचालन शुरू हुआ। इस दौरान 65.1 किलोमीटर के दायरे में 59 मेट्रो स्टेशन के जरिए लोगों को विश्वस्तरीय आवागमन का साधन उपलब्ध कराया गया। डीएमआरसी के फेज दो की शुरुआत 3 जून 2008 को हुई, जो 27 अगस्त 2011 में पूरा हुआ। इस फेज में 125.07 किलोमीटर में मेट्रो का विस्तार कर 82 स्टेशनों का निर्माण किया गया।

ये हैं दिल्ली मेट्रो की आठ रंग की लाइनें- लाल, पीला, नीला, बैंगनी, नारंगी, हरा, मैजेंटा और गुलाबी। डीएमआरसी के प्रबंध निदेशक मंगू सिंह की मानें तो दिल्ली मेट्रो के फेज-1, फेज-2 और फेज-3 को तैयार में आई चुनौतियों से डीएमआरसी ने जो अनुभव हासिल किया है, उसका प्रयोग मेट्रो के फेज-4 को बनाने में किया जाएगा। उन्होंने कहा कि सरकार के औपचारिकताएं पूरी करने के साथ ही डीएमआरसी इसका निर्माण शुरू कर सकती है।

दिल्ली से निकल यूपी पहुंची मेट्रो- नोएडा और दिल्ली के बीच मेट्रो की पहली कनेक्टिविटी 12 नवंबर, 2009 से शुरू हुई थी। इसका उद्घाटन तत्कालीन मुख्यमंत्री मायावती ने किया था और यह भी ऐलान किया था कि जल्द ही इसका विस्तार जेवर तक किया जाएगा। खैर इसका विस्तार जेवर तक न सही, ग्रेटर नोएडा तक जरूर हो चुका है और जनवरी 2019 में नोएडा-ग्रेटर नोएडा (AQUA LINE) के उद्घाटन के साथ संचालन कभी भी हो सकता है। सबकुछ ठीक रहा तो यूपी में मेट्रो जेवर तक पहुंच सकती है, क्योंकि यहां पर जेवर इंटरनेशनल एयरपोर्ट बनना प्रस्तावित है। बता दें कि दिल्ली मेट्रो की ब्लू लाइन मूल रूप से इंद्रप्रस्थ से द्वारका तक शुरू हुई थी। 12 नवंबर 2009 को, इस लाइन को यमुना बैंक से नोएडा सिटी सेंटर तक विस्तारित किया गया, जिसकी कुल लंबाई 13.1 किलोमीटर है। मेट्रो के विस्तार की बात करें तो दिल्ली के आनंद विहार से जुलाई 2011 में 2.57 किमी का एक छोटा सा विस्तार किया गया था, जो दो स्टेशनों गाजियाबाद में आनंद विहार और वैशाली अर्थात गाजियाबाद में वैशाली मेट्रो स्टेशन से ब्लू लाइन शाखा के आनंद विहार मेट्रो स्टेशन को जोड़कर किया गया था। 27 जनवरी 2010 को आनंद विहार आईएसबीटी-वैशाली मार्ग को जनता के लिए खोल दिया गया था। गाजियाबाद में मेट्रो एक और रूट पर तैयार है और जनवरी 2019 में चलनी शुरू हो जाएगी। दिलशाद गार्डन टु नया बस अड्डा मेट्रो अब जनवरी 2019 में चलेगी, क्योंकि डीएमआरसी ने इस प्रोजेक्ट को दिसंबर अंत तक कंप्लीट किए जाने का दावा अपनी वेबसाइट पर किया है। वहीं, जीडीए के अधिकारियों का कहना है कि प्रोजेक्ट के पूरा होने पर दस से बीस दिन के बाद ही प्रॉजेक्ट को शुरू करवाया जा सकेगा। इसके लिए कैबिनेट की मंजूरी सबसे अधिक जरूरी है।

दिल्ली से सटे हरियाणा में मेट्रो का प्रवेश- एनसीआर में हरियाणा के शहरों में सबसे ज्यादा मेट्रो रेल का विस्तार हुआ है। हरियाणा में गुरुग्राम, फरीदाबाद और बहादुरगढ़ के बाद मेट्रो से बल्लभगढ़ भी जुड़ गया है, जो प्रदेश का चौथा शहर है। इसी के साथ सोनीपत में मेट्रो जाने की तैयारी मे हैं। वर्तमान में हरियाणा में मेट्रो लाइन की कुल लंबाई 29 किलोमीटर है, जिसका भविष्य में इजाफा हो होगा।

2022 तक इसके 400 किलोमीटर से अधिक विस्तार होगा मेट्रो का- मेट्रो का विस्तार जिस गति से चल रहा है। ऐसे में जाहिर है दिल्ली मेट्रो शंघाई और बीजिंग के बाद दुनिया के सबसे बड़े मेट्रो नेटवर्क में से एक होगी। उम्मीद की जा रही है कि यह लंदन अंडरग्राउंड को भी ओवरशेड करेगी। तीन चरणों में इसके निर्माण के दौरान, मेट्रो ने शहर और उसके उपनगरों के 317 किमी में अपना नेटवर्क फैलाया है। अगले वर्ष तक फेज- 3 का विस्तार होने तक, यह 349 किलोमीटर तक विस्तारित हो जाएगी और फेज- 4 के साथ, जिसे अभी हरी झंडी दी गई है 2022 तक इसके 400 किलोमीटर तक विस्तार होने की उम्मीद है। इसके साथ भारत दुनिया का तीसरा ऐसा देश होगा, जहां मेट्रो रेल नेटवर्क सबसे ज्यादा होगा। सिर्फ दो देश ही उससे आगे होंगे।

दिल्ली के दो शायर

मिर्ज़ा ग़ालिब की दिल्ली

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 “हैं और भी दुनिया में सुख़न्वर बहुत अच्छे

कहते हैं कि ग़ालिब का है अन्दाज़-ए बयां और”

‘मिर्ज़ा ग़ालिब’  का जन्म 27 दिसंबर 1797 को आगरा में हुआ था। लेकिन दिल्ली से उनका नाता तेरह साल की उम्र में जुड़ा। जब उनके पिता चल बसे और वे अपने भाई के साथ दिल्ली आए। इस असाधारण व्यक्ति, गालिब का पूरा नाम असदुल्लाह था और उनका तखल्लुस पहले ‘असद’ था बाद में ‘गालिब’ रखा। मिर्ज़ा गालिब ने अपने फारसी के 6600 शेर और उर्दू के 1100 शेर वाले दीवान पूरे किए थे। उनका संग्रह ‘दीवान’ कहलाता है। दीवान का सीधा सा अर्थ है शेरों का संग्रह।

बल्ली मारां की वो पेचीदा दलीलों की-सी गलियाँ

एक कुरआने सुखन का सफ्हा खुलता है

असद उल्लाह खाँ गालिब का पता मिलता है

उस अजीम शायर हवेली, बल्लीमारान के कासिम अली जान की गली में आज भी मौजूद है। हमको मालूम है जन्नत की हकीकत। दिल को खुश रखने को गालिब ये ख्याल अच्छा है। हवेली गालिब के किस्सों को संजोये हुए है। हवेली के हर कोने में गालिब के होने का अहसास है। उग रहा दर-ओ-दीवार पे सब्जा गालिब, हम बयाबा में हैं और घर में बहार आई है।

है अब इस मामूरे में कहत-ऍ-ग़म-ऍ-उल्फ़त असद

हमने ये माना कि दिल्ली में रहें खावेंगे क्या

अब पुरानी दिल्ली बहुत बदल चुकी है। यहां के बाशिदों का अब भीड़भाड़ से यहां मन नहीं लगता है। वो गलिया छोड़ने का दर्द तो है, लेकिन उनका इसके व्यावसायीकरण ने सास लेना भी मुश्किल किया है। कुछ मेरी तरह गालिब की तलाश में लगते हैं। उनकी तलाश एक कतार में लगे जूती और चश्मों पर नहीं ठहर रही है। वह भी दिल्ली के दूसरे किनारे से आए हुए हैं। वैसे, पूछता कौन है, जब जिंदगी रफ्तार से भागे जा रही हो तो फिर कहां गम-ए-सुकून का दौर। चलिए अच्छा है, कुछ हैं जिनके दिलों में नज्म-ए-चराग जल रहा है।

अपनी गली में मुझ को न कर दफ्न बाद-ए-कत्ल,

मेरे पते से खल्क को क्यूं तेरा घर मिले।’

गालिब ने 1858 में अपने शागिर्द मुंशी हरगोपाल तफ्ता के नाम लिखी चिट्ठी में ग़ालिब ने 1857 के गदर का हाल बयान किया है…

“अंग्रेज की कौम से जो इन रूसियाह कालों के हाथ से कत्ल हुए,

उसमें कोई मेरा उम्मीदगाह था और कोई मेरा शागिर्द।

हाय, इतने यार मरे कि जो अब मैं मरूँगा

तो मेरा कोई रोने वाला भी न होगा।”

मिर्ज़ा ग़ालिब ये सिर्फ़ एक नाम नहीं, बल्कि समूचे हिंदुस्तान के साथ दक्षिण एशिया की भी विरासत है, जो 200 साल बाद भी वही रवानी लिए हुए है। ये शायर ग़ालिब की कलम का ही जादू है कि आज भी लोग उनकी शायरी के कायल हैं और दो सदी बाद भी उनकी रुहानी शख्सियत का जादू बरकरार है। ग़ालिब के समकालीन और भी कई शायर थे, जिन्होंने उम्दा नज़्म-ग़ज़ल लिखी, लेकिन ग़ालिब की ऊंचाई को कोई दूसरा शायर नहीं पा सका। इस शायर ने ग़ज़ल को वो पहचान दी कि ग़ज़ल नाम हर आम-ओ-खास की ज़बान पर आ गया। यह अलग बात है कि ‘दीवान-ए-ग़ालिब’ पढ़ने और समझने के लिए उर्दू की समझ होनी जरूरी है। वरना, आपको डिक्शनरी देखनी पड़ेगी और गालिब ने भी समय रहते इसे महसूस किया और सादा ज़बान इस्तेमाल की। बाद के दिनों में ग़ालिब ने वही अशआर लोगों ने सराहे जो लोगों की ज़बान में कहे गए।

मिर्ज़ा ग़ालिब को उर्दू, फारसी और तुर्की समेत कई भाषाओं का ज्ञान था। उन्होंने फारसी और उर्दू रहस्यमय-रोमांटिक अंदाज में अनगिनत गजलें लिखीं, जो शायरी की मिसाल बन गईं।  15 फरवरी 1869 को ग़ालिब की मौत हो गई। उनका मकबरा दिल्‍ली के हजरत निजामुद्दीन इलाके में बनी निज़ामुद्दीन औलिया की दरगाह के पास ही है।

हमने माना के तगाफुल न करोगे लेकिन,

खाक हो जायेंगे हम तुमको खबर होने तक’

ज़ौक़’ की दिल्ली

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इन दिनों गरचे दकन में है बड़ी क़द्र-ए-सुख़न

कौन जाए ‘ज़ौक़’ पर दिल्ली की गलियाँ छोड़ कर

शेर-ओ-शायरी की बात आती है तो सभी कुछ गालिब पर आकर ही अटक जाता है, मगर यहां जौक भी ऐसे शायर हुए हैं जिन्होंने देश और दुनिया में दिल्ली का नाम रोशन किया है। ज़ौक़ का पूरा नाम शेख़ मुहम्मद इब्राहिम ज़ौक था। ज़ौक़ (1789-1854) उर्दू अदब के एक मशहूर शायर थे। इनका असली नाम शेख़ इब्राहिम था। ग़ालिब के समकालीन शायरों में ज़ौक़ बहुत ऊपर का दर्जा रखते हैं। उनका जन्म 1789 को हुआ था। जौक अंतिम मुगल बादशाह बहादुर शाह जफर के दरबारी शायर थे। मगर जौक को शायद पता नहीं था कि उनके मरने के बाद दिल्ली उन्हें इस तरह भुला देगी। अब शेख इब्राहिम जौक की मजार पर वीरानी छाई है।

हम जब आए थे रोते हुए आए थे,

जब जाएंगे औरों को रुला जाएंगे

जौक की मजार नबी करीम की चिन्नौर बस्ती में है। पहाड़गंज स्थित होटल टुडे के पास से एक तंग गली से होते हुए इस स्मारक तक पहुंचा जा सकता है। 1996 में यहां पहले से बने शौचालय को हटाया गया और उच्च न्यायालय के दखल से जौक की मजार को फिर से सम्मानित तरीके से स्थापित किया। इस मजार को स्थापित करने की लड़ाई लड़ने वाले पुरानी दिल्ली के बाशिंदे फिरोज बख्त अहमद ने यहां पर समारोह आदि आयोजन करने की स्वीकृति देने के लिए आवाज उठाई है। उनका कहना है कि हम चाहते हैं कि यहां समारोह आदि हों जिससे लोग यहां के बारे में जानें। मगर स्मारक पर पिछले 16 साल से ताला लगा है और यहां पर मुशायरा आदि कराने तक की इजाजत नहीं है। जो ठीक नहीं है। आपको बता दें कि यह स्मारक भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण (एएसआइ) का स्मारक है। एएसआइ के दिल्ली मंडल के अधीक्षण पुरात्वविद डॉ. केके मोहम्मद कहते हैं कि यह स्मारक पुराना किला, कुतुबमीनार जैसे उन स्मारकों में शामिल नहीं है, जहां समारोह आदि होते हैं। उनका कहना है कि इस स्मारक के अंदर और बाहर जगह की बहुत कमी है ऐसे में समारोह आदि की स्वीकृति नहीं दी जा सकती है। मगर स्मारक का पूरा ख्याल रखा जा रहा है।

जब तक मिले न थे जुदाई का मलाल था,

अब ये मलाल है कि तमन्ना निकल गई

शेख इब्राहिम जौक का जन्म 1789 में दिल्ली के काबुली दरवाजा निवासी एक सिपाही शेख रमजान के घर हुआ था। इसमें शुरू से ही शायरी के प्रति दीवानगी थी और बड़े होकर मात्र 19 साल की उम्र में बहादुर शाह जफर के दरबार में उस्ताद की पदवी मिली। इनका 1854 में इंतकाल हो गया।

ऐ शम्मा तेरी उम्र तवाई है एक रात

रोकर गुजार दे या हंस कर गुजार दे

 

दिल्ली की संस्‍कृति और विरासत

दिल्ली के प्राचीन मंदिर

  • जोगमाया का मंदिर- अगर प्राचीनता की दृष्टि से देखा जाए तो ये दिल्ली का सबसे पुराना मंदिर माना जाता है. इसकी स्थापना पांडवों के काल में हुई थी. योगमाया या योगकन्या श्रीकृष्ण की बहन थी जिसे कंस ने मारने की कोशिश की थी समय समय पर इस मंदिर को हिन्दू राजाओं का संरक्षण मिलता रहा. यह मंदिर पृथ्वीराज के महल के नजदीक था. पृथ्वीराज रासो के अनुसार दिल्ली का नाम ही जोगिनिपुर या योगिनिपुर था. पृथ्वीराज रासो में चाँद बरदाई ने कई बार पृथ्वीराज को जोगिनिपुर का स्वामी (योगिनीपुरेश्वर) कहा है, यह मंदिर महरौली के निकट स्थित है।

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  • भैरव मंदिर- परंपरा के अनुसार भैरव को नगर, कोट या क्षेत्र का रक्षक माना जाता है और इसकी स्थापना सामान्यत: बीहड़ स्थान में देवी के मंदिर के निकट की जाती है. भैरव शिव का एक गण है जो शंकर का अवतार माना जाता है. यह शिव का उग्र रूप है जिसमे वह तांडव नृत्य करता है. पुरानो के अनुसार इनकी संख्या 8 मानी गयी है, दिल्ली में भी अष्टभैरव किसी ना किसी रूप में मिलते हैं। तीसहजारी के विश्राम भैरव, पचकुईया के काल भैरव, कूचा घासीराम का बाल भैरव, अशोक होटल के पास खापरा भैरव, पालम के पास उन्मत्त भैरव,नेहरु पार्क के पास का महाकाल भैरव तथा प्रगति मैदान के पास पुराने किले (पांडवों का किला) के पास दुधिया भैरव तथा काल भैरव स्थित है. इसे किलकारी भैरव भी कहते हैं। एक किंवदन्ती के अनुसार युधिष्ठिर के कहने पर भीम इसे माँ कालिका से मांग कर नगर रक्षा के लिए लाये थे यह इसी स्थान पर भीम के कंधे से उतरा और यहीं जम गया और अपने प्रताप से यह हजारों वर्षों से यहीं विराजमान है

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  • गौरीशंकर मंदिर- चाँदनी चौक के गौरीशंकर मंदिर की कहानी अद्भुत है. इसे शिवालय अप्पा गंगाधर के नाम से जाना जाता है शाहजहाँ के काल में अप्पा गंगाधर नाम का एक मराठा ब्राह्मण उसकी सेना में उच्च पद पर था. अब चूँकि वो ब्राह्मण था तो रोज पूजा करता था. उस काल में वर्तमान गौरीशंकर मंदिर के स्थान पर एक पीपल का पेड़ था. अप्पा गंगाधर वही एकांत में पीपल पेड़ के नीचे शिव पार्वती की पिंडी का पूजन कर लिया करते थे. धीरे धीरे अन्य हिन्दू सैनिक भी यहाँ जल चढाने लगे. एक बार अप्पा गंगाधर ने एक बड़ा युद्ध जीता. बादशाह ने मुँहमाँगा इनाम देने का वचन दिया. अप्पा गंगाधर ने इन पिंडियों के स्थान पर अपने आराध्य भगवान के लिए मंदिर निर्माण का प्रस्ताव रखा. भक्त की कल्पना साकार हुई और वही आज चाँदनी चौक का भव्य गौरीशंकर मंदिर है।

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  • प्राचीन हनुमान मंदिर- कनाट प्लेस का प्राचीन हनुमान मंदिर किसी समय खेतों के बीच बीहड़ स्थान में था. इसे स्वयंभू मूर्ति कहा जाता है. जनश्रुति के अनुसार गोस्वामी तुलसीदास यहाँ अपने आराध्य के पास पधारे थे. एक अन्य श्रुति के अनुसार अकबर ने गोस्वामी तुलसीदास को कोई चमत्कार दिखाने को कहा और अवज्ञा के कारण उन्हें जेल में बंद करवा दिया. उसी दिन बंदरों ने दिल्ली में भारी संख्या में प्रवेश कर उत्पात मचा दिया. अकबर ने इसे महात्मा का चमत्कार समझ कर मुक्त कर दिया. एक अनुमान के अनुसार यह मंदिर सन 1625-26 के आसपास बना यह भी एक चमत्कार ही है कि बाद में अंग्रेजों ने दिल्ली में कनाट प्लेस पर भारी बदलाव किये लेकिन इस मंदिर को छुवा तक नहीं. यह मंदिर आज भी वहीँ का वहीँ स्थित है और हजारों की संख्या में रोजाना दर्शनार्थी आते हैं।

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  • यमुना तट का हनुमान मंदिर- यमुना तट यमुना बाजार या बेला रोड का हनुमान मंदिर दिल्ली के हजारों वर्षों के उत्थान पतन का साक्षी है. एक श्रुति के अनुसार महाभारत के युद्ध की समाप्ति पर जब अर्जुन का रथ कुरुक्षेत्र से इन्द्रप्रस्थ लौटा तो यही रुका. हनुमान अर्जुन के रथ से उतरकर यहीं स्थापित हुए।

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  • कालका मंदिर- कालका मंदिर का इतिहास भी बहुत पुराना है. यहाँ माँ काली की पूजा राय पिथौरा के काल से चली आ रही है लेकिन वर्तमान मंदिर का निर्माण 1764 ई में हुआ था. सन 1816 ई में अकबर द्वितीय के पेशकार मिर्जा राजा केदारनाथ ने मंदिर के बाहर 12 कमरों का निर्माण संपन्न कराया. मंदिर के मध्य भाग में देवी की पिंडी आकर की प्रतिमा है और बाहर द्वार पर 2 सिंह सुशोभित हैं. स्थानीय मान्यता के अनुसार रक्षों का वध करके देवी यहाँ स्थिर हुई और क्षेत्र को अभयदान दिया. इसी मान्यता के अनुसार दिल्ली के किले पर विजय प्राप्त करने से पूर्व मराठा सरदार सदाशिवराव भाऊ ने 1760 ई में यहाँ लंगर डाल कर विजय के लिए पूजा की. कालान्तर में वैष्णव प्रभाव के कारण यह एक प्रकार से वैष्णवी देवी हैं क्योंकि अब यहाँ पर बलि नही दी जाती।

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  • झंडेवालान मंदिर- सेंट्रल दिल्ली स्थित झंडेवाला देवी मंदिर का अपना ही एक ऐतिहासिक महत्व है। इस समय जिस स्थान पर ये मंदिर स्थापित है पहले वह स्थान अरावली पर्वत श्रृंखलाओं में एक श्रृंखला थी। इस मंदिर की स्थापना को लेकर मान्यता है कि इस स्थान की खूबसूरती देखकर अक्सर लगो यहां साधना के लिए आते थे। जिनमें से बद्री दास नामक एक व्यापारी भी शामिल था। एक दिन व्यापारी साधना में लीन था तो उसे लगा मानों यहां कोई मंदिर जो पहाड़ों में दबा हुआ है। तब व्यापारी ने जमीन की खुदाई करवाने का निर्णय लिया। खुदाई दौरान व्यापारी को यहां मंदिर के कुछ अवशेष मिलेष अवशेषों में उसे एक झंडा लगा हुआ मिला जिसके बाद से ही इसका नाम झंडेवाला रख दिया गया।

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  • छत्तरपुर मंदिर- साउथ दिल्ली स्थित श्री आद्या कात्यायनी शक्तिपीठ मन्दिर दिल्ली के सबसे बड़े और प्रसिद्ध मंदिरों में से एक है। इतना ही नहीं यह भारत का दूसरा सबसे बड़ा मन्दिर परिसर है। मंदिर की स्थापना  1974 में हुई थी। यह मंदिर गुंड़गांव-महरौली मार्ग के निकट छतरपुर में स्थित है। यहां जाने के लिए आप दिल्ली मैट्रो का भी इस्तेमाल कर सकते हैं। येल्लो लाइन से हुड्डा सिटी सेंटर की ओर जाने वाली मेट्रो में छत्तरपुर स्टेशन है। बता दें कि यह मंदिर सफेद संगमरमर से बना हुआ है और इसकी सजावट बहुत की आकर्षक है। दक्षिण भारतीय शैली में बना यह मंदिर विशाल क्षेत्र में फैला है। मंदिर परिसर में खूबसूरत लॉन और बगीचे हैं।

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दिल्ली की प्रमुख मस्जिदें

  • जामा मस्जिद- जामा मस्जिद भारत की सबसे बड़ी मस्जिद है, जिसे “मस्जिद-ए-जहाँ नुमा” के नाम से भी जाना जाता है। इसका अर्थ है पृथ्वी का दृश्य। जामा मस्जिद भारत की सबसे पुरानी और सबसे बड़ी मस्जिदों में से एक है। इस मस्जिद को सम्राट शाहजहां द्वारा बनवाया गया था। इस मस्जिद का निर्माण 1650 में शुरू किया गया था जो 1656 में पूरा हुआ। ये मस्जिद चोवरी बाज़ार रोड पर स्थित है। मस्जिद पुरानी दिल्ली के मुख्य आकर्षणों में से एक है। ज्ञात हो कि इस विशाल मस्जिद में 25,000 लोग एक साथ प्रार्थना कर सकते हैं। इसमें तीन राजसी द्वार हैं, 40 मीटर ऊंची चार मीनारें हैं जो लाल बलुआ पत्थरों एवं सफ़ेद संगमरमर से बनी हुई हैं। इस मस्जिद में सुंदरता से नक्काशी किये गए लगभग 260 स्तंभ हैं जिनमें हिन्दू एवं जैन वास्तुकला की छाप दिखाई देती है। आइये कुछ चुनिंदा तस्वीरों के माध्यम से निहारें खूबसूरत जामा मस्जिद को।

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  • निजामुद्दीन दरगाह- दक्षिणी दिल्ली में स्थित हजरत निजामुद्दीन औलिया (1236-1325) का मकबरा सूफी काल की एक पवित्र दरगाह है। हजरत निज़ामुद्दीन चिश्ती घराने के चौथे संत थे। इस सूफी संत ने वैराग्य और सहनशीलता की मिसाल पेश की, कहा जाता है कि 1303 में इनके कहने पर मुगल सेना ने हमला रोक दिया था, इस प्रकार ये सभी धर्मों के लोगों में लोकप्रिय बन गए। हजरत साहब ने 92 वर्ष की आयु में प्राण त्यागे और उसी वर्ष उनके मकबरे का निर्माण आरंभ हो गया, किंतु इसका नवीनीकरण 1562 तक होता रहा।

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  • फतेपुरी मस्जिद- फतेहपुरी मस्जिद का निर्माण 1650 में फतेहपुरी बेगम ने किया था, जो शाहजहाँ की पत्नियों में से एक थी। यह मस्जिद मुगल वास्तुकला की भव्यता का एक सुंदर नमूना है और मूक दर्शक के रूप में खड़ा है, जो आज तक मुगल और ब्रिटिश काल से सभी ऐतिहासिक घटनाओं का गवाह है। मस्जिद लाल बलुआ पत्थर का उपयोग करके बनाई गई है और इसमें एक गुंबददार गुंबद है।

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  • खिड़की मस्जिद- खिड़की मस्जिद का निर्माण फ़िरोज़ शाह तुग़लक़ के प्रधानमंत्री खान-ई-जहान जुनैन शाह ने 1380 में करवाया था। मस्जिद के अंदर बनी खूबसूरत खिड़कियों के कारण इसका नाम खिड़की मस्जिद पड़ा। यह मस्जिद दो मंजिला है। मस्जिद के चारों कोनों पर बुर्ज बने हैं जो इसे किले का रूप देते हैं। तीन दरवाजों पर मीनारें बनी हैं। पुराने समय में पूर्वी द्वार से प्रवेश किया जाता था लेकिन अब दक्षिण द्वार पर्यटकों और श्रद्धालुओं के लिए खुला रहता है। यह मस्जिद दक्षिण दिल्ली के खिड़की गांव में बनी हुई है।

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  • मोठ की मस्जिद- मोठ की मस्जिद या मस्जिद मोठ जिसका वस्तुतः अर्थ “दाल मस्जिद” है। इसे 1505 में वज़ीर मियां भोइया ने बनवाया था, जो सुल्तान सिकंदर लोदी के शासनकाल में प्रधान मंत्री थे। यहाँ के विस्तृत क्षेत्र में दाल की खेती से हुई आय द्वारा इस मस्जिद का निर्माण हुआ था। इसीलिए इस मस्जिद का नाम मोठ की मस्जिद पड़ा। दाल के बीज प्रधानमंत्री को सुलतान सिकंदर लोदी ने प्रदान किये थे। इस मस्जिद की नींव स्वयं सिकंदर लोदी ने रखी थी और कहा जाता है कि यह मस्जिद मियाँ भोइया की निजी मस्जिद थी। यह मस्जिद अपनी भारतीय – इस्लामिक वास्तुकला के लिए जानी जाती है। लाल पत्थरों से बनी इस मस्जिद में जालीदार नक्काशी वाली खिड़कियाँ, अष्टकोणीय स्मारक, एक छोटा अर्धवृत्ताकार गुंबद, खुले मेहराब एवं दो मंजिला बुर्ज हैं। फूलों की अद्भुत एवं जटिल नक्काशियां सुंदर दृश्य उपस्थित करती हैं।

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दिल्ली के ऐतिहासिक गुरूद्वारे

  • गुरुद्वारा शीशगंज- गुरु तेग बहादुर सिखों के नौवें गुरु को समर्पित दिल्ली के चांदनी चौक का गुरुद्वारा शीशगंज गुरुद्वारा साहिब के नाम से जाना जाता है. इसका निर्माण की नींव बघेल सिंह ने 1783 में डाली थी. इसी जगह पर मुगल बादशाह औरंगजेब के आदेश पर गुरु तेग बहादुर का सिर काट दिया गया था. उस समय कई लोग ने औरंगजेब के खौफ में अपना धर्म परिवर्तित किया था. औरंगजेब ने गुरु तेग बहादुर को भी धर्म परिवर्तन का आदेश दिया था, लेकिन सिखों के गुरु ने इस आदेश को नहीं माना और 11 नवंबर 1675 को इस्लाम में परिवर्तित होने के लिए मना कर दिया. इसी स्थान पर शीशगंज गुरुद्वारा गुरुद्वारा बनाया गया. औरंगजेब के आदेश से गुरु तेग बहादुर का सिर काट दिया गया और उसके बाद शहीद गुरु तेग बहादुर का पार्थिव शरीर अनुयायियों के दर्शन के लिए रखा जाता उससे पहले ही उनके एक अनुयायी लखी शाह वंजारा ने चुरा लिया और गुरु जी के शरीर का संस्कार करने के लिए अपना घर तक जला दिया और उस जगह पर रकाब गंज साहिब गुरुद्वारा स्थापित हुआ. गुरु तेग बहादुर का शीश आनंदपुर साहिब लेकर उनके अनुयायी भाई जैटा पहुंचे और शीश के संस्कार से पहले उसे एक रात के लिए तरोरी ले जाया गया और उस स्थान पर शीश गंज साहिब नाम से तारोरी, करनाल में गुरुद्वारा बनाया गया। इसके बाद गोविंद राय सिखों के दसवें गुरु बने. 1 मार्च 1783 में सिख मिलट्री के लीडर बघेल सिंह(1730-1802) अपनी सेना के साथ दिल्ली आए. वहां उन्होनें दिवान-ए-आम पर कब्जा कर लिया. इसके बाद मुगल बादशाह शाह अलाम द्वितीय ने सिखों के एतिहासिक स्थान पर गुरुद्वारा बनाने की बात मान ली और उन्हें गुरुद्वारा बनाने के लिए रकम दी. 8 महीने के समय के बाद 1783 में शीश गंज गुरुद्वारा बना। इसके बाद कई बार मुस्लिमों और सिखों में इस बात का झगड़ा रहा कि इस स्थान पर किसका अधिकार है. लेकिन ब्रिटिश राज ने सिखों के पक्ष में निर्णय दिया। गुरुद्वारा शीश गंज 1930 में पुर्नव्यवस्थित हुआ.

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  • गुरुद्वारा रकाबगंज- कुछ बंजारा परिवार रायसीना गाँव की पहाड़ी के पास रकाबगंज मोहल्ले में मुग़ल बादशाहों के घोड़ों की नाल या रकाबें बनाते थे. भाई लखीशाह यही का निवासी था. जिस समय वह अपनी गाड़ी में सामान लादे चांदनी चौक से इधर आ रहा था तो उसे गुरु तेग बहादुर की शहादत का पता लगा. उसने मुगलों से आँख बचाकर आंधी-तूफ़ान के बीच गुरूजी का धड़ गाडी में छुपा लिया और घर जाकर उसे चारपाई पर स्थापित कर घर में आग लगाकर उनका अंतिम संस्कार कर दिया. बाद में उसने गुरूजी की अस्थियों का कलश यही गाड़ दिया. जब मुगलों को इस बात का पता लगा तो वहाँ मस्जिद बनवा दी. सिखों ने आलमगीर द्वितीय के सामने अपना दावा पेश किया कि वो स्थान उनका है. बादशाह ने निर्णय दिया कि अगर उस स्थान पर अस्थि कलश निकले तो उस मस्जिद के स्थान पर गुरुद्वारा बनवा दिया जाय. बाद में सत्य सिद्ध होने पर 1763 ई में सरदार बघेल सिंह ने यहाँ गुरुद्वारा बनवाया जो इस समय अपने भव्य रूप में है।

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  • गुरुद्वारा बंगला साहिब- सिखों के सातवें गुरु हर राय ने 6 अक्टूबर 1661 ई में अपनी ज्योति में लीन होने से पहले गुरु हरिकिशन को अपना उत्तराधिकारी बनाया जो उस समय 5 वर्ष के थे उत्तराधिकार के विवाद को निपटाने के लिए औरंगजेब ने बालक गुरु हरिकिशन को दिल्ली बुलवाया. गुरु आम्बेर (जयपुर) के शासक जयसिंह के रायसीना पहाड़ी के नीचे बने सुरम्य बंगले में उनके अतिथि के रूप में ठहरे. उन दिनों दिल्ली में चेचक और हैजे की महामारी फैली थी. गुरूजी का चेचक के कारण देहांत हो गया. वर्तमान बंगला साहिब गुरुद्वारा उसी बंगले के स्थान पर है. प्राचीन कुंवे के स्थान पर एक सुन्दर सरोवर बनाया गया।

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  • गुरुद्वारा माता सुंदरी- माता सुंदरी दसवें गुरु गुरु गोविन्द सिंह की धर्मपत्नी थी. जिस समय गुरूजी दक्षिण भारत में थे तो ये यहाँ एक हवेली में निवास करती थी. इनका देहांत 1747 ई में हुआ. इस समय यहाँ इनके नाम पर भव्य गुरुद्वारा है जो लोकनायक जयप्रकाश (इरविन अस्पताल) के पीछे है।

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  • गुरुद्वारा मोतीबाग- वर्तमान मोतीबाग में पहले एक मोचियों की बस्ती थी जहाँ सहजादे मुआज्जम (औरंगजेब के पुत्र) के कहने पर उनकी सहायतार्थ सिखों के दसवे गुरु गुरु गोविन्द सिंह आकर ठहरे थे. यहीं से उन्होंने तीर चलाकर शहजादे को अपनी उपस्थिति का सन्देश भेजा हा. इसी स्थान पर एक गुरुद्वारा है. गुरु गोविन्द सिंह का आखिरी सन्देश था. “सब सिक्खन को हुक्म है, गुरु मानियो ग्रंथ” और “जो गुरु को मिलबो चाहे खोज शब्द में ले”।

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  • गुरुद्वारा दमदमा साहिब- गुरु गोविन्द सिंह शहजादे मुआज्जम से मिलने मोतीबाग से चलकर हुमायूँ के मकबरे के पास जंगलों में गुप्त रूप से आये थे. इसी स्थान पर यहाँ गुरु ने तम्बू लगाया था वहाँ 1783 में सरदार बघेल सिंह ने एक गुरूद्वारे का निर्माण कराया था 1984 में यहाँ नया भवन बनवाया गया।

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  • गुरुद्वारा नानक प्याऊ- एक मान्यता के अनुसार गुरु नानक देव 1505 ई में सुलतान सिकंदर शाह लोदी के समय दिल्ली आये और वर्तमान स्थान, जो जंगल में मुख्य मार्ग पर था (GT road) निवास किया. सेवा के रूप में उन्होंने यहाँ यात्रियों को पानी पिलाया था।

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  • गुरुद्वारा मजनूं का टीला- किसी समय खैबर पास के पूर्व में यमुना तट पर रमणीक पहाड़ी थी जो अब टीला मात्र है. यहाँ बादशाह सिकंदर लोदी के समय में एक मुसलमान फ़कीर रहता था. वो भक्ति में उसी प्रकार उन्मत्त था जैसे मजनू अपने उद्देश में था. गुरुनानक जी उसके पास गए. गुरु हरगोबिन्द भी एकबार इधर पधारे थे. गुरु हरराय भी इधर आये थे. यहाँ पहले छोटा सा गुरुद्वारा था. 1950 में यहाँ नया भवन निर्मित हुआ, जो मजनू के टीला गुरुद्वारा के नाम से जाना जाता है।

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दिल्ली के ऐतिहासिक गिरजाघर (चर्च)

  • सेंट जेम्स गिरजाघर’- (जिसे स्किनर्स चर्च भी कहते हैं) दिल्ली में स्थित एक ऍंग्लिकन गिरजाघर है। यह दिल्ली के कश्मीरी दरवाजा क्षेत्र के निकट ही स्थित है। इसकी स्थापना कर्नल जेम्स स्किनर कैवैलरी रेजिमेण्ट- स्किनर्स हॉर्स के एक प्रसिद्ध एंग्लो-इण्डियन सैन्य अधिकारी ने करवायी थी। इसकी अभिकल्पना मेजर रॉबर्ट स्मिथ ने की थी एवं निर्माण 1826-36 के बीच हुआ था। यह भारत के प्राचीनतम गिरजाभरों में से एक है। यह चर्च ऑफ़ नॉर्थ इण्डिया-डायोसीज़ ऑफ़ देल्ही का भाग है। यह गिरजाघर दिल्ली के कश्मीरी गेट क्षेत्र में चर्च मार्ग एवं लोथियन मार्ग के संयोजन पर स्थित है। इसी गिरजागर में दिल्ली के वाइसरॉय तब तक आते रहे थे, जब तक कि 1931 में गुरुद्वारा रकाबगंज के निकट कॅथेड्रल चर्च ऑफ़ रिडेम्पशन, नहीं बन गया। उसके समकालीन एकमात्र गिरजाघर सेंट स्टीफ़न्स चर्च, चांदनी चौक के निकट फ़तेहपुरी में 1867 में बना था।

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  • कैथेड्रल चर्च ऑफ द रिडेम्पशन (नई दिल्ली)- नई दिल्ली में स्थित यह चर्च वायसराय चर्च के नाम से भी जाना जाता है. कैथेड्रल चर्च ऑफ द रिडेम्पशन का निर्माण कार्य वर्ष 1927 में शुरू हुआ था और यह वर्ष 1935 में बनकर तैयार हो गया था. वर्ष 1936 में यह चर्च आम लोगों के लिए खोला गया था. इस चर्च को इस तरीके से बनाया गया है कि भीषण गर्मी के दिनों में भी यह ठंडा रहता है.

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लोटस टेंपल

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दिल्‍ली के प्रमुख आकर्षणों में से एक है और वह है लोटस टेंपल। दिल्‍ली के नेहरू प्‍लेस में स्थित लोटस टेंपल एक बहाई उपासना मंदिर है, जहां न ही कोई मूर्ति है और न ही किसी प्रकार की पूजा पाठ की जाती है। लोग यहां आते हैं शांति और सुकून का अनुभव करने। कमल के समान बनी इस मंदिर की आकृति के कारण इसे लोटस टेंपल कहा जाता है। इसका निर्माण सन 1986 में किया गया था। यही वजह है कि इसे 20वीं सदी का ताजमहल भी कहा जाता है।

यह मंदिर लगभग 25 एकड़ क्षेत्र में फैला हुआ है. इस मंदिर के निर्माण में कमल की 27 पंखुडियां बनी हुई हैं. यह मंदिर बहाई धर्म से संबंधित है. यह मंदिर जनता के लिए 1 जनवरी 1987 को खोला गया था. इसके अलावा यह मंदिर चारों तरफ से तालाबों और सुंदर बगीचों से घिरा हुआ है, जिसकी वजह से ऐसा लगता है कि एक कमल पानी में खिला हुआ है. मंदिर को कमल के आकार का बनाने का मुख्य उदेश्य ये था कि कमल का फूल कीचड़ में रहकर पवित्रता तथा शांति का उदेश्य देता है. रोजाना इस मंदिर में 10 से 12 हजार पर्यटक दर्शन करने के लिए आते हैं.

भारतीय परंपराओं में कमल को शांति और पवित्रता के सूचक और ईश्‍वर के अवतार के रूप में देखा जाता है। मंदिर का वास्‍तु पर्शियन आर्किटेक्ट फरीबर्ज सहबा द्वारा तैयार किया गया था। दुनिया भर में आधुनिक वास्‍तु कला के नमूनों में से एक लोटस टेंपल भी है। इसका निर्माण बहा उल्‍लाह ने करवाया था, जो कि बहाई धर्म के संस्‍थापक थे। इसलिए इस मंदिर को बहाई मंदिर भी कहा जाता है। बावजूद इसके यह मंदिर किसी एक धर्म के दायरे में सिमटकर नहीं रह गया। यहां सभी धर्म के लोग आते हैं और शांति और सूकून का लाभ प्राप्‍त करते हैं। इसके निर्माण में करीब 1 करोड़ डॉलर की लागत आई थी। मंदिर आधे खिले कमल की आ‍कृति में संगमरमर की 27 पंखुड़ियों से बनाया गया है, जो कि 3 चक्रों में व्‍यवस्थित हैं। मंदिर चारों ओर से 9 दरवाजों से घिरा है और बीचोंबीच एक बहुत बड़ा हॉल स्थित है। जिसकी ऊंचाई 40 मीटर है इस हॉल में करीब 2500 लोग एक साथ बैठ सकते हैं। वर्ष 2001 की एक रिपोर्ट के मुताबिक इसे दुनिया की सबसे ज्‍यादा देखी जाने वाली जगह बताया गया था।

अक्षरधाम मंदिर

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देश की राजधानी दिल्ली में बना अक्षरधाम का मंदिर संस्कृति और शिल्पकला का सुंदर नमूना है। एक आंकड़े के मुताबिक इस मंदिर में हर साल करीब दस लाख से ज्यादा पर्यटक दर्शन करने आते हैं। इस मंदिर में आध्यात्मिकता की झलक देखने को मिलती है। मंदिर को बनाते समय वास्तु शास्त्र की बारीकियों का ध्यान रखा है। स्वामीनारायण का ये मंदिर भारत की 10 हजार साल पुरानी संस्कृति की खूबसूरती को बयां करता है।

अक्षरधाम मंदिर को गुलाबी, सफेद संगमरमर और बलुआ पत्थरों के मिश्रण से बनाया गया है। इस मंदिर को बनाने में स्टील, लोहे और कंक्रीट का इस्तेमाल नहीं किया गया। मंदिर को बनाने में लगभग पांच साल का समय लगा था। श्री अक्षर पुरुषोत्तम स्वामीनारायण संस्था के प्रमुख स्वामी महाराज के नेतृत्व में इस मंदिर को बनाया गया था। करीब 100 एकड़ भूमि में फैले इस मंदिर को 11 हजार से ज्यादा कारीगरों की मदद से बनाया गया। पूरे मंदिर को पांच प्रमुख भागों में विभाजित किया गया है। मंदिर में उच्च संरचना में 234 नक्काशीदार खंभे, 9 अलंकृत गुंबदों, 20 शिखर होने के साथ 20,000 मूर्तियां भी शामिल हैं। मंदिर में ऋषियों और संतों की प्रतिमाओं को भी स्थापित किया गया है।

मंदिर में रोजाना शाम को दर्शनीय फव्वारा शो का आयोजन किया जाता है। इस शो में जन्म, मृत्यु चक्र का उल्लेख किया जाता है। फव्वारे में कई कहानियों का बयां किया जाता है। यह मंदिर सोमवार को बंद रहता है। मंदिर में प्रवेश फ्री है लेकिन अंदर जाने के अलग-अलग चार्ज हैं। अक्षरधाम मंदिर में 2870 सीढियां बनी हुई हैं। मंदिर में एक कुंड भी है, जिसमें भारत के महान गणितज्ञों की महानता को दर्शाया गया है। इस मंदिर की स्थापना 6 नवंबर 2005 में की गई थी। दुनिया का सबसे विशाल हिन्दू मंदिर मंदिर होने के कारण इसे ‘गिनीज बुक ऑफ व‌र्ल्ड रिका‌र्ड्स’ में शामिल किया गया है।

दिल्ली के इतिहास के हिस्से आज भी मौजूद हैं…

List of Centrally Protected Monuments- Archaeological Survey of India (ASI)

Sl. No. Name of Monument Location
Locality District
1. Bastion, where a wall of Jahan panah meets the wall of Rai Pithora’s fort, Adchini Adchini South
2. Ramp and gateways of Rai Pithora’s Fort, Adchini Adchini South
3. Begumpuri Masjid Begumpur South
4. Lal Gumbad, Chirag Delhi Chirag Delhi South
5. Tomb of Bahlol Lodi Chirag Delhi South
6. Delhi fort or Lal Qila, Naubat Khana, Diwan-i-am, Mumtaz Mahal’ Rang Mahal, Baithak,Maseu Burj, diwan-i-Khas’ Moti Masjid, sawan Bhadon ,Shah Burj, Hammam with all surrounding including the gardens, paths, terraces and water courses. Red Fort North
7. Baoli Nizamuddin South East
8. Tomb of Mirza Muzaffer, Chota Batasha Nizamuddin South East
9. Tomb of Amir Khusro Nizamuddin South East
10. Tomb of Mirza Muzaffer, Bara Batasha Nizamuddin South East
11. Tomb of Nizamuddin Olia Nizamuddin South East
12. Unknown tomb Nizamuddin South East
13. Hauz Khas:- Group of Building at Hauz Khas consisting of the following

i. The tomb of Ferozshah ii. Domed Building to the west of No.1 iii. Dalan between 1&2 iv. Domed Building & its court to the south of No. 3, v. Dalans and all ruined Buildings to the north of no. 1 and existing upto No.10 vi. Five Chhatris to the East of No. 1& No.5 vii. Old Gate to the north of No.6 viii. Three Chhatris to the north-west of No.7

ix. Ruined courtyard and its Dalans with the Domed building to the north-west to the No.8

x. Old wall running east from No.4 xi. 2.23 Acres of land surrounding the above monuments and bouded on the North by house of Chhange and Mehra Chand sons of Hansram and house of Udairam, son of Kushla South Ghairmumkan Rasta East By village site belonging to village community. Others West By field no. 185 & 186.

Hauz Khas South
14. Bagh-i-Alam Gumbad with a Mosque Humayunpur Village (Hauz Khas) South
15. Kali Gumti Hauz Khas South
16. Tohfewala Gumbad Humayunpur Village (Hauz Khas), Shahpur Jat South
17. Arab Sarai Near Humayun’s Tomb South East
18. The Gate way of Arab Sarai facing North towards Purana Qila Near Humayun’s Tomb South East
19. The Gate way of Arab Sarai facing East towards the tomb of Humayun Near Humayun’s Tomb South East
20. Remaining Gateways of Arab Sarai and of Abadi-Bagh-Buhalima Near Humayun’s Tomb South East
21. Lakhar wal Gumbad (Tomb) Near Humayun’s Tomb South East
22. Sunderwala Burj Near Humayun’s Tomb South East
23. Sunderwala Mahal Near Humayun’s Tomb South East
24. Bijay Mandal, neighbouring domes, buildings and dalan to north of Begumpur Malviya Nagar South
25. Bandi or Poti ka Gumbad III-280 Hauz Khas South
26. Bara Khamba-285 Hauz Khas South
27. Biran-Ka-Gumbad-282 Hauz Khas South
28. Biwi or Dadi-ka-Gumbad-281 Hauz Khas South
29. Chor Minar No. 289 Vol III Hauz Khas South
30. Choti Gumti Hauz Khas South
31. Idgah of Kharehra Hauz Khas Enclave South
32. Nili Mosque Hauz Khas Enclave South
33. Sakri Gumti-284 Hauz Khas Enclave near Green Park South
34. Khirkee Masjid Khirki Village near Malviya Nagar South
35. Satpula-III –216 Khirki Village near Malviya Nagar South
36. Tomb of Usuf-Quttal situated at Khirki Khirki Village near Malviya Nagar South
37. Jahaz Mahal in Mehrauli Mehrauli Village South
38. Mosque known by the name of Shamsi Tallab together with both platform entrance gates. Mehrauli Village South
39. Moti Masjid Mehrauli Village South
40. Old Palace of Bahadur Shah II alias Lal Mahal in Mehrauli Mehrauli Village South
41. The Qutab Archaeological area as now fenced in, including the Mosque, Iron Pillar, Minar of Qutbud-din, unfinished Minar, all colonnades, screen arches, tomb of Altamash, college, buildings of Alaud-Din, Tomb of Imam Zamin and all carved stones in the above area with gardens, paths and water channels, and all gateways including the Alai-Darwaza , also all graves in the above area Mehrauli Village South
42. Tomb of Adham Khan (Rest House) Mehrauli South
43. Tomb and Mosque of Maulana Jamali Kamali Mehrauli South
44. Wall mosque at Mehrauli Mehrauli South
45. Walls of Lal Kot and Rai Pithora’s fort from Sohan Gate to Adham Khan’s tomb including the ditch where there is an outer wall Mehrauli South
46. Walls of Lal Kot and Rai Pithora’s fort at the point where they meet together, near Jamali Kamali Mehrauli South
47. Wall of Rai Pithora’s fort including gateways and bastions, near Bagh Nazir to a bastions immediately to North of Qutb-Tughlaqabad Road. Mehrauli South
48. Gate and walls of Mubarakpur, Kotla in village Mubarakpur, Kotla Kotla Mubrakpur Village South
49. Moth-ki-Masjid Behind South Extension-II South
50. Inchla Wali Gumti Kotla Mubrakpur Village South
51. Kala Gumbad Kotla Mubrakpur Village South
52. Tombs of Bade-Khan, and Mubarakpur Kotla, Kotla Kotla Mubrakpur Village South
53. Tombs of Chote Khan, Mubarakpur, Kotla Kotla Mubrakpur Village South
54. Tomb of Mubarik Shah in Mubarikpur, Kotla Kotla Mubrakpur Village South
55. Mosque attached to Mubarak shah Tomb Kotla Mubrakpur Village South
56. Tomb of Bhura Khan Kotla Mubrakpur Village South
57. Tin Burji Wala Gumbad, Mommad Pur Village Mohammad Pur Village South
58. Unnamed tomb, Mohammad Pur Village Mohammad Pur Village South
59. Baoli, Munirka Munirka South
60. Munda Gumbad, Munirka Munirka South
61. Unnamed Mosque, Munirka, 314 Munirka South
62. Unnamed Tomb, Munirka 313 Munirka South
63. Unnamed Tomb, Munirka 315 Munirka South
64. Unnamed Tomb, Munirka 316 Munirka South
65. Unnamed Tomb, Munirka 317 Munirka South
66. Unnamed Mosque, Munirka 321

Unnamed Mosque, Munirka 322

Munirka South
67. Wazir Pur-ki-Gumbad, Munirka 312 Munirka South
68. The Afsah-wala-ki-Masjid situated outside the west gate of Humayun’s tomb with its dalans and paved court. Nizamuddin South East
69. Bara Khamba outside north entrance to shrine Nizamuddin South East
70. Bara Pulah bridge near Nizammudin Nizamuddin South East
71. The Chausath Khamba and tomb of Mirza Aziz Kokaltash Nizamuddin South East
72. The Grave of Jahanara Begum Nizamuddin South East
73. The Grave of Muhammad Shah Nizamuddin South East
74. The Grave of Mirza Jahangir Nizamuddin South East
75. Humayun’s tomb, its platforms, garden, enclosure walls and gateways Khasra No. 258 bounded on the east by Khasra No.180&181&244 of Miri Singh and on west by Kh. No. 268&253 on the north by Khasra No. 266, on the south by Kh No. 245 of Miri Singh & Kh. No. 248 & 249 of Sayyed Mohummad Nizamuddin South East
76. Nila Gumbaz outside the south corner of the enclosure of Humayun’s tomb. Nizamuddin South East
77. The Nila Chhatri or Subaz Burj, once used as a Police Station at Nizam-ud-Din. Nizamuddin South East
78. The Tomb of Afsah-wala immediately near and to the south of Afsah-wala-ki-Masjid Nizamuddin South East
79. Tomb of Tagah or Atgah Khan Nizamuddin South East
80. The tomb of Isa Khan with its surrounding enclosure walls and turret, garden, gateways and mosque. Nizamuddin South East
81. Tomb of Khan-i-Khana Nizamuddin South East
82. Tomb with three domes near Rly.Station Nizamuddin South East
83. Tomb of Sheikh Kaburuddin also known as Rakabwala Gumbad in field no.84 min. situated at sarai Shah 31 property of Thoks Shahpur and Adhehini Malviya Nagar South
84. Ruined line of walls, bastions & gateways of siri Kh. No. 88, 265 &447 pf village Shahpur Jat Shahpur Jat Village South
85. Internal buildings of:

Siri Mohammadi wali-Kh. No. 14 Shahpur Jat

Makhdum ki Kh. No. 255 Shahpur Jat

Thana wala Shahpur Jat

Shahpur Jat Village South
86. Nai-ka-kot in Tughlaqabad Tughlaqabad South East
87. Tomb of Ghiyasuddin Tughlakabad. walls and bastions, gates and cause way including the tomb of Dad Khan Tughlaqabad South East
88. Tomb of Mohammad Tughlak Shah at Tughlakabad Tughlaqabad South East
89. Walls of old City of Tughlakabad. Tughlaqabad South East
90. Walls, gateways bastions and internal buildings of both inner and outer citadels of Tughlakabad Fort Tughlaqabad South East
91. Walls, gate and bastions of Adilabad (Mohammadabad) and causeway leading there to from Tughlakabad. Tughlaqabad South East
92. Mound known as Joga Bai Jamia Nagar South East
93. Ashokan Rock Edict at Bahapur East of Kailash South East
94. Mandi Mosque Lado Sarai Village South
95. Rajon-ki-Bain with Mosque and Chatri Lado Sarai Village South
96. Badaun Gates, Lado Sarai Village South
97. A Gateway of Lal kot, Lado Sarai Village South
98. Gateways of Rai Pithoria’s Fort Lado Sarai Village south
99. Wall of Rai Pithora’s Fort and Jahan panah at the point where they meet together Hauz Rani Village South
100. Tomb of Sultan Ghari Malikpur Kothi opposite Vasant Kunj South
101. Old Baoli known as Diving Wall in Mouza locally known as (Gandak-ki-baoli), Mehrauli Mehrauli South
102. Enlosure containing the tomb of Shah Alam Bahadur Shah, Shah Alam II and Akbar Shah II Mehrauli South
103. Hauz Shamsi, with central red stone pavilion situated at Mehrauli in field Nos. 1574-81, 1588-97, 1614, 1623 & 1624, owner Government Mehrauli South
104. Iron Pillar, Hindu remains Mehrauli (Qutb Complex) South
105. Ancient Mosque (Babur’s Period) together with adjacent area comprised in part of Survey plot No. 177 Palam Village South West
106. Group of monuments at Sarai Shahji Malviya Nagar South
107. Unknown tomb said to be of Azim Khan Lado Sarai Village South
108. Salimgarh Fort, comprising the main gate on North, Ancient structure near the main gate and the entire fortification wall Red Fort Central
109. Fortification Wall Asad Burj, Water gate, Delhi Gate, Lahori Gate, Jahangiri Gate, Chhattra Bazar, Baoli Red Fort Central
110. Mazar of Mirza Ghalib Nizamuddin South East
111. Area between Balban Khan’s Tomb & Jamli Kamali Lado Sarai South

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Time Travelling in Delhi

Delhi in 1909

Delhi in 1910

Delhi Durbar

Delhi Durbar

Delhi in 1930

Delhi in 1935

Delhi in 1938 Rare Historic Color Video of Old Delhi

Connaught place

New Delhi: Hunting & Racing (1947)

Delhi in 1947

India’s Independence Day in 1947

India Celebrates Republic Day (1950)

Yamuna River

Delhi Refugees- Various Scenes (1948)

Observance Of Moharram In Delhi (1955)

Protests in Delhi 1959

Delhi in 1960

Heavy Flood in Delhi (1964)

Delhi in 1978

Delhi in 1980

Old Delhi in 1986

 

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आयुर्वेद- एक वरदान

आयुर्वेद के मार्ग पर चलें…

ना होगी डाइटिंग की जरूरत…

और ना होगी कोई शारीरिक कमजोरी…

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आयुर्वेद (आयुः+वेद = आयुर्वेद) विश्व की प्राचीनतम चिकित्सा प्रणालियों में से एक है। यह विज्ञान, कला और दर्शन का मिश्रण है। ‘आयुर्वेद’ नाम का अर्थ है, ‘जीवन का ज्ञान’ और यही संक्षेप में आयुर्वेद का सार है।

“आयुर्वेद ” शब्द दो शब्दों से मिलकर बना है – “आयुष” और “वेद”।

हिताहितं सुखं दुःखमायुस्तस्य हिताहितम्।

मानं च तच्च यत्रोक्तमायुर्वेदः स उच्यते॥ -(चरक संहिता १/४०)

अर्थात- जिस ग्रंथ में हित आयु (जीवन के अनुकूल), अहित आयु (जीवन के प्रतिकूल), सुख आयु (स्वस्थ जीवन), एवं दुःख आयु (रोग अवस्था)- इनका वर्णन हो उसे आयुर्वेद कहते हैं।

आयुर्वेद भारतीय आयुर्विज्ञान है- आयुर्विज्ञान, विज्ञान की वह शाखा है जिसका संबंध मानव शरीर को निरोग रखने, रोग हो जाने पर रोग से मुक्त करने अथवा उसका शमन करने तथा आयु बढ़ाने से है।

आयुर्वेद विश्व में विद्यमान वह साहित्य है, जिसके अध्ययन पश्चात हम अपने ही जीवन शैली का विश्लेषण कर सकते है।

आयुर्वेदयति बोधयति इति आयुर्वेदः

अर्थात जो शास्त्र (विज्ञान) आयु (जीवन) का ज्ञान कराता है उसे आयुर्वेद कहते हैं। स्वस्थ व्यक्ति एवं आतुर (रोगी) के लिए उत्तम मार्ग बताने वाला विज्ञान को आयुर्वेद कहते हैं। जिस शास्त्र में आयु शाखा (उम्र का विभाजन), आयु विद्या, आयुसूत्र, आयु ज्ञान, आयु लक्षण (प्राण होने के चिन्ह), आयु तंत्र (शारीरिक रचना शारीरिक क्रियाएं) – इन सम्पूर्ण विषयों की जानकारी मिलती है वह आयुर्वेद है।

इस शास्त्र के आदि आचार्य अश्विनी कुमार (पौराणिक पात्र हैं- ऋग्वेद और महाभारत में इनका वर्णन है) माने जाते हैं। अश्विनी कुमार से इंद्र ने यह विद्या प्राप्त की। इंद्र ने धन्वंतरि को सिखाया।

अत्रि और भारद्वाज भी इस शास्त्र के प्रवर्तक माने जाते हैं। आयुर्वेद के आचार्य ये हैं— अश्विनीकुमार, धन्वंतरि, दिवोदास (काशिराज), नकुल, सहदेव, अर्कि, च्यवन, जनक, बुध, जावाल, जाजलि, पैल, करथ, अगस्त्य, अत्रि तथा उनके छः शिष्य (अग्निवेश, भेड़, जतुकर्ण, पराशर, सीरपाणि, हारीत), सुश्रुत और चरक। ब्रह्मा ने आयुर्वेद को आठ भागों में बांटकर प्रत्येक भाग का नाम ‘तन्त्र’ रखा । ये आठ भाग निम्नलिखित हैं :

  1. कायचिकित्सा (Medicine): ऐसी बीमारियां जिनमें अमूमन दवाई से इलाज मुमकिन है, जैसे विभिन्न तरह के बुखार, खांसी, पाचन संबंधी बीमारियां।
  2. शल्य (Surgery): वे बीमारियां जिनमें सर्जरी की जरूरत होती है, जैसे फिस्टुला, पाइल्स आदि।
  3. शालाक्य (Opthal-mology, Otology, Rhinology, Dentistry, Orophry-ngology etc): आंख, कान, नाक, मुंह और गले के रोग।
  4. कौमारभृत्य (Pediatrics): स्त्री रोग, प्रसव विज्ञान, बच्चों को होने वाली बीमारियां।
  5. अगदतंत्र (Toxicology,Medical Jurisprudence): ये सभी प्रकार के विषों, जैसे सांप का जहर, धतूरा आदि जैसे जहरीले पौधे का शरीर पर पड़ने वाले असर और उनकी चिकित्सा का विज्ञान है।
  6. रसायन (Science of Rejuvenation, Immunology): इंसानों को स्वस्थ कैसे रखा जाए और उम्र का असर कैसे कम हो।
  7. वाजीकरण (Science of Aphrodisiac): लंबे समय तक काम शक्ति (सेक्स पावर) को कैसे संजोकर रखा जाए।
  8. भूतविद्या (Psychiatry, Microbiology): मनोरोग से संबंधित।

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इस अष्टांग- आयुर्वेद को काशिराज दिवोदास धन्वतरि ने जन-जन तक पहुंचाया।

आयुर्वेद की उत्पत्ति को ब्रह्मा द्वारा माना गया है। ब्रह्मा द्वारा प्रणीत ‘ब्रह्मसंहिता’ जिसमें एक हजार अध्याय और दस लाख श्लोक थे, आज उपलब्ध नहीं है। देवलोक से मृत्युलोक में आयुर्वेद को अवतारित करने का श्रेय महर्षि भारद्वाज को जाता है। आयुर्वेद की विषयवस्तु चतुर्विध वेदों में प्राप्त होती है। परन्तु, सर्वाधिक साम्य अथर्ववेद से होने के कारण आचार्य सुश्रुत ने आयुर्वेद को अथर्ववेद का उपाङ्ग (सु० सू० 1/6) और वाग्भट. ने अथर्ववेद का उपवेद (अ० सू० 8/6) कहा है। आचार्य चरक ने भी इसकी सर्वाधिक घनिष्ठता अथर्ववेद से बतायी है और इसे पुण्यतम वेद कहा है (च० सू० 1/43) । महाभारत (सभापर्व 11/33 पर नीलकण्ठ की व्याख्या) में भी आयुर्वेद को उपवेद कहा गया है। काश्यप संहिता (आयुर्वेद का बाल रोग से संबंन्धित ग्रंथ) एवं ब्रम्हावैवर्तपुराण में आयुर्वेद को पचंम वेद कहा गया है। आयुर्वेद शब्द नामत: वैदिक साहित्य में कहीं पर भी  नहीं होता है। आयुर्वेदोत्तर ग्रंथों में सर्वप्रथम इसका नाम पाणिनिकृत अष्टाध्यायी (क्रतूक्थादिसूत्रान्ता- 4/2/60) आदि में प्राप्त होता है।

सुश्रुत संहिता के अनुसार-

ब्रह्मा प्रोवाच ततः प्रजापतिरधिजगे,

तस्मादश्विनौअश्विभ्यामिन्द्रः इन्द्रादहमया

त्विह प्रदेपमर्थिभ्यः प्रजाहितहेतोः

अर्थात् – सुश्रुत संहिता के अनुसार ब्रह्माजी ने एक लाख श्लोक का आयुर्वेद रचा जिसमें एक हजारअध्याय थे। उनसे प्रजापति नेप्रजापति से अश्विनी कुमारों नेअश्विनी कुमारों से इन्द्र ने और इन्द्र से घन्वन्तरि ने पढ़ा। धन्वन्तरि से सुनकर सुश्रुत मुनि ने आयुर्वेद की रचना की।

आयुर्वेदीक संहिताओं में निम्नांकित सारणियों के अनुसार अवतरण संबन्धी जो परम्परा प्राप्त होती हैं-

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आयुर्वेद और धन्वन्तरि

धन्वन्तरि हिन्दू धर्म में मान्य देवताओं में से एक हैं। भगवान धन्वन्तरि आयुर्वेद जगत् के प्रणेता तथा वैद्यक शास्त्र के देवता माने जाते हैं। वेदों में भगवान धन्वंतरि का कोई उल्लेख नहीं है, किंतु महाभारत, श्रीमदभागवत, अग्निपुराण, वायुपुराण, विष्णपुराण तथा ब्रह्मपुराण में उनका वर्णन दिया गया है। धन्वंतरि को भगवान विष्णु का अंशावतार माना a9गया है।

श्रीमदभागवत महापुराण में वर्णित विष्णु के 24 अवतारों में भगवान धन्वंतरि 12वें अवतार हैं। इनका पृथ्वी लोक में अवतरण समुद्र मंथन के समय हुआ था। शरद पूर्णिमा को चंद्रमा, कार्तिक द्वादशी को कामधेनु गाय, त्रयोदशी को धन्वंतरी, चतुर्दशी को काली माता और अमावस्या को भगवती लक्ष्मी जी का सागर से प्रादुर्भाव हुआ था। इसीलिये दीपावली के दो दिन पूर्व धनतेरस को भगवान धन्वंतरी का जन्म धनतेरस के रूप में मनाया जाता है। इसी दिन इन्होंने आयुर्वेद का भी प्रादुर्भाव किया था।

भगवान विष्णु के रूप की तरह धन्वन्तरि की भी चार भुजायें हैं। उपर की दोंनों भुजाओं में शंख और चक्र धारण किये हुये हैं। जबकि दो अन्य भुजाओं मे से एक में जलूका और औषध तथा दूसरे मे अमृत कलश लिये हुये हैं। इनका प्रिय धातु पीतल माना जाता है। इसीलिये धनतेरस को पीतल आदि के बर्तन खरीदने की परंपरा भी है।

नालन्दा विशाल शब्दसागर के अनुसार तो- ” धन्वन्तरि प्रणीत चिकित्सा शास्त्र,वैद्य विद्या ही आयुर्वेद है।”

वायु तथा ब्रह्माण पुराणों में धन्वन्तरि को आयुर्वेद का उद्धारक बताया गया है

पौराणिक काल में धन्वन्तरि भगवान के रुप में पूजनीय थे- ‘धन्वन्तरिभगवान् पात्वपथ्यात्’। चरक संहिता में भी धन्वन्तरि को आहुति देने का विधान है।

सुश्रुत संहिता- शल्य चिकित्सा के जनक- सुश्रुत संहिता के उपदेष्टा काशिराज धन्वन्तरि है।  सुश्रुत ने शल्यशास्त्र के अध्ययन की इच्छा प्रकट की थी, इसलिए धन्वन्तरि ने इसी अंग का उपदेश दिया।

सुश्रुत के पांच स्थानों में (सूत्र, निदान, शरीर चिकित्सा और कल्प में) शल्य विषय ही प्रधान है इसीलिए कुछ लोगों ने धन्वन्तरि शब्द का अर्थ ही शल्य में पारंगत किया है। (धनुः शल्यं तस्य अन्तं पारमियर्ति गच्छतीति धन्वन्तरिः)

धन्वन्तरि एक सम्प्रदाय है, जिसका संबंध शल्य शास्त्र से है। जो भी शल्य शास्त्र में निपुण होते थे, उन सबको धन्वन्तरि कहा जाता था। इसी से चरक संहिता में धन्वन्तरीयाणां बहुवचन मिलता है। स्पष्ट है, आदि उपदेष्टा धन्वन्तरि थे। इन्हीं के नाम से यह अंग चल पड़ा।

पुराणों के अनुसार भगवान धन्वन्तरि

गरुण और मार्कंडेय पुराणों के अनुसार :- ‘गरुड़पुराण’ और ‘मार्कण्डेयपुराण’ के अनुसार वेद मंत्रों से अभिमंत्रित होने के कारण ही धन्वंतरि वैद्य कहलाए थे।

विष्णु पुराण के अनुसार :- धन्वन्तरि दीर्घतथा के पुत्र बताए गए हैं। इसमें बताया गया है वह धन्वन्तरि जरा विकारों से रहित देह और इंद्रियों वाला तथा सभी जन्मों में सर्वशास्त्र ज्ञाता है। भगवान नारायण ने उन्हें पूर्व जन्म में यह वरदान दिया था कि काशिराज के वंश में उत्पन्न होकर आयुर्वेद के आठ भाग करोगे और यज्ञ भाग के भोक्ता बनोगे।

ब्रह्म पुराण के अनुसार :- काशी के संस्थापक ‘काश’ के प्रपौत्र, काशिराज ‘धन्व’ के पुत्र, धन्वंतरि महान चिकित्सक थे जिन्हें देव पद प्राप्त हुआ। राजा धन्व ने अज्ज देवता की उपासना की और उनको प्रसन्न किया और उनसे वरदान मांगा कि हे भगवन आप हमारे घर पुत्र रूप में अवतीर्ण हों उन्होंने उनकी उपासना से संतुष्ट होकर उनके मनोरथ को पूरा किया जो संभवतः धन्व पुत्र तथा धन्वन्तरि अवतार होने के कारण धन्वन्तरि कहलाए। जिन्हें देव पद प्राप्त हुआ। 

इनके वंश में दिवोदास हुए जिन्होंने ‘शल्य चिकित्सा’ का विश्व का पहला विद्यालय काशी में स्थापित किया जिसके प्रधानाचार्य, दिवोदास के शिष्य और ॠषि विश्वामित्र के पुत्र ‘सुश्रुत संहिता’ के प्रणेता, सुश्रुत विश्व के पहले सर्जन (शल्य चिकित्सक) थे।  काशी में दीपावली के अवसर पर कार्तिक त्रयोदशी-धनतेरस को भगवान धन्वंतरि की पूजा करते हैं।  शंकर ने विषपान किया, धन्वंतरि ने अमृत प्रदान किया और इस प्रकार काशी कालजयी नगरी बन गयी।

इस प्रकार धन्वन्तरि की तीन रूपों में उल्लेख मिलता है।

– समुद्र मन्थन से उत्पन्न धन्वन्तरि प्रथम।

– धन्व के पुत्र धन्वंतरि द्वितीय।

– काशिराज दिवोदास धन्वन्तरि तृतीय।

इस तरह भगवान धन्वन्तरि प्रथम तथा द्वितीय का वर्णन पुराणों के अतिरिक्त आयुर्वेद ग्रंथों में भी मिलता है- जिसमें आयुर्वेद के आदि ग्रंथों सुश्रुत्र संहिता चरक संहिता, काश्यप संहिता तथा अष्टांग हृदय में विभिन्न रूपों में उल्लेख मिलता है। इसके अतिरिक्त अन्य आयुर्वेदिक ग्रंथों भाव प्रकाश, शार्गधर तथा उनके ही समकालीन अन्य ग्रंथों में आयुर्वेदावतरण का प्रसंग उधृत है। इसमें भगवान धन्वन्तरि के संबंध में भी प्रकाश डाला गया है।

वैदिक काल में जो महत्व और स्थान अश्विनी को प्राप्त था वही पौराणिक काल में धन्वंतरि को प्राप्त हुआ-  जहाँ अश्विनी के हाथ में मधुकलश था वहाँ धन्वंतरि को अमृत कलश मिला।  क्योंकि विष्णु संसार की रक्षा करते हैं अत: रोगों से रक्षा करने वाले धन्वंतरि को विष्णु का अंश माना गया।  विषविद्या के संबंध में कश्यप और तक्षक का जो संवाद महाभारत में आया है, वैसा ही धन्वंतरि और नागदेवी मनसा का ब्रह्मवैवर्त पुराण (३.५१) में आया है।  उन्हें गरुड़ का शिष्य कहा गया  है –

सर्ववेदेषु निष्णातो मन्त्रतन्त्र विशारद:।

शिष्यो हि वैनतेयस्य शंकरोस्योपशिष्यक:।। (ब्र.वै.३.५१)

मंत्र- भगवाण धन्वन्तरि की साधना के लिये एक साधारण मंत्र है:

ॐ धन्वंतरये नमः॥

आरोग्य प्राप्ति हेतु धन्वंतरि देव का पौराणिक मंत्र

ॐ नमो भगवते महासुदर्शनाय वासुदेवाय धन्वंतराये:

अमृतकलश हस्ताय सर्व भयविनाशाय सर्व रोगनिवारणाय

त्रिलोकपथाय त्रिलोकनाथाय श्री महाविष्णुस्वरूप

श्री धनवंतरी स्वरूप श्री श्री श्री औषधचक्र नारायणाय नमः॥

 

अर्थात् परम भगवन को, जिन्हें सुदर्शन वासुदेव धन्वंतरि कहते हैं, जो अमृत कलश लिए हैं, सर्व भयनाशक हैं, सर्व रोग नाश करते हैं, तीनों लोकों के स्वामी हैं और उनका निर्वाह करने वाले हैं; उन विष्णु स्वरूप धन्वंतरि को सादर नमन है।

धन्वन्तरि स्तोत्रम- प्रचलि धन्वंतरी स्तोत्र इस प्रकार से है

ॐ शंखं चक्रं जलौकां दधदमृतघटं चारुदोर्भिश्चतुर्मिः।

सूक्ष्मस्वच्छातिहृद्यांशुक परिविलसन्मौलिमंभोजनेत्रम॥

कालाम्भोदोज्ज्वलांगं कटितटविलसच्चारूपीतांबराढ्यम।

वन्दे धन्वंतरिं तं निखिलगदवनप्रौढदावाग्निलीलम॥ ॥१॥ (धन्वन्तरिस्तोत्रम्)

धनतेरस का महत्व: ऐसा माना जाता है कि इस दिन नए उपहार, सिक्का, बर्तन व गहनों की खरीदारी करना शुभ रहता है. शुभ मुहूर्त समय में पूजन करने के साथ सात धान्यों की पूजा की जाती है. सात धान्य गेहूं, उडद, मूंग, चना, जौ, चावल और मसूर है. सात धान्यों के साथ ही पूजन सामग्री में विशेष रुप से स्वर्णपुष्पा के पुष्प से भगवती का पूजन करना लाभकारी रहता है. इस दिन पूजा में भोग लगाने के लिये नैवेद्य के रुप में श्वेत मिष्ठान्न का प्रयोग किया जाता है. साथ ही इस दिन स्थिर लक्ष्मी का पूजन करने का विशेष महत्व है.

धन्वंतरि के मंदिर

धन्वंतरि की पूजा सम्पूर्ण भारत में की जाती है, लेकिन उत्तर भारत में इनके बहुत कम मन्दिर देखने को मिलते हैं। वहीं दक्षिण भारत के तमिलनाडु एवं केरल में इनके कई मन्दिर हैं। केरल के नेल्लुवायि में धन्वंतरि भगवान का सर्वाधिक सुन्दर व विशाल मन्दिर है। केरल के अष्टवैद्यों के वंश में आज भी भगवान धन्वंतरि की पूजा का विशेष महत्व है। इनके अलावा अन्नकाल धन्वंतरि मंदिर( त्रिशूर) धन्वंतरि मंदिर, रामनाथपुरम (कोयम्बटूर), श्रीकृष्ण धन्वंतरि मंदिर(उडुपी) आदि भी प्रसिद्ध हैं। गुजरात के जामनगर व मध्य प्रदेश में भी इनके  मंदिर हैं। 

धन्वंतरि मंदिरवालाजपततमिलनाडु- तमिलनाडु के वालाजपत में श्री धन्वंतरि आरोग्यपीदम मंदिर स्थापित है। इस आरोग्य मंदिर का निर्माण श्रीमुरलीधर स्वामिगल ने करवाया था।  बीमारी के कारण अपने माता-पिता को खो चुके स्वामिगल ने जनसेवा के लिए इस मंदिर की स्थापना की। यहां स्थापित भगवान धन्वंतरि की मूर्ति ग्रेनाइट कला की एक अनुपम कृति है। आरोग्यपीदम की साइट पर लाइव पूजा देख सकते हैं।

तक्षकेश्वर मंदिरमंदसौरमध्य प्रदेश- यहां नागराज तक्षक और आरोग्य देव धन्वंतरि की मूर्ति स्थापित है। इस मंदिर के निर्माण के पीछे महाराज परीक्षित की सर्प काटने से मृत्यु और फिर उनके पुत्र जन्मेजय द्वारा नागों से प्रतिशोध की पौराणिक कथा जुड़ी है। माना जाता है कि यहां के स्थानीय वैद्य यहां स्थापित धन्वंतरि देव की प्रतिमा के दर्शन के बाद ही जड़ी-बूटी इकट्ठा करते हैं और इलाज शुरू करते हैं।

वेदों में आयुर्वेद

वेद प्राचीन काल से ही मानव-सभ्यता के प्रकाश-स्तम्भ रहे हैं। वेद की परम्परा में रुद्र को प्रथम वैद्य स्वीकार किया गया है। ‘यजुर्वेद’ में कहा गया है कि ‘प्रथमो दैव्यों भिषक’।  तथा इसी प्रकार ऋग्वेद में भी उल्लिखित है कि ‘भिषक्तमं त्वां भिषजां शृणोमि’। और आयुर्वेद ग्रन्थो की परम्परा में ब्रह्मा आयुर्वेद का प्रथम उपदेष्टा है। वेदों में अश्विनों और रुद्रदेवता के अतिरिक्त अग्नि, वरुण, इन्द्र, अप् तथा मरुत् को भी ‘भिषक्’ शब्द से अभिनिहित किया गया है। परन्तु मुख्य रूप से इस शब्द का सम्बन्ध रुद्र और अश्विनौ के साथ ही है। अतः वेद आयुर्वेदशास्त्र के लिए एक महत्त्वपूर्ण संकेतक तथा स्रोत हैं।

ऋग्वेद में आयुर्वेद- वेदों में सर्वप्रथम ऋग्वेद का निर्माण हुआ। यह पद्यात्मक है। यजुर्वेद गद्यमय है और सामवेद गीतात्मक है।

ऋग्वेद में मण्डल 10 हैं, 1028 सूक्त हैं और 11 हजार मन्त्र हैं। इसमें 5 शाखायें हैं-शाकल्प, वास्कल, अश्वलायन, शांखायन, मंडूकायन। ऋग्वेद के दशम मण्डल में औषधि सूक्त हैं। इसके प्रणेता अर्थशास्त्र ऋषि है। इसमें औषधियों की संख्या 125 के लगभग निर्दिष्ट की गई है जो कि 107 स्थानों पर पायी जाती है। औषधि में सोम का विशेष वर्णन है।

ऋग्वेद में आयुर्वेद का उद्देश्य, वैद्य के गुण-कर्म, विविध औषधियों के लाभ तथा शरीर के अंग और अग्निचिकित्सा, जलचिकित्सा, सूर्यचिकित्सा, शल्यचिकित्सा, विषचिकित्सा, वशीकरण आदि का विस्तृत विवरण प्राप्त होता है। ऋग्वेद में 67 औषधियों का उल्लेख मिलता हैं। अतः आयुर्वेद की दृष्टि से ऋग्वेद बहुत उपयोगी है।

ऋग्वेग में च्यवन ऋषि को पुनः युवा करने का कथानक भी उद्धृत है और औषधियों से रोगों का नाश करना भी समाविष्ट है। इसमें जल चिकित्सा, वायु चिकित्सा, सौर चिकित्सा, मानस चिकित्सा एवं हवन द्वारा चिकित्सा का समावेश है।

यजुर्वेद में आयुर्वेद- यजुर्वेद के दो भाग हैं-कृष्ण एवं शुक्ल। वैशम्पायन ऋषि का सम्बन्ध कृष्ण से है और याज्ञवल्क्य ऋषि का सम्बन्ध शुक्ल से है।

कृष्ण की चार शाखायें है जबकि शुक्ल की दो शाखायें हैं। इसमें 40 अध्याय हैं। यजुर्वेद के एक मन्त्र में ‘ब्रीहिधान्यों’ का वर्णन प्राप्त होता है। इसके अलावा औषधि सूक्त, दिव्य वैद्य एवं कृषि विज्ञान का भी विषय समाहित है।

यजुर्वेद में आयुर्वेद से सम्बन्धित निम्नांकित विषयों का वर्णन प्राप्त होता है : विभिन्न औषधियों के नाम, शरीर के विभिन्न अंग, वैद्यक गुण-कर्म चिकित्सा, नीरोगता, तेज वर्चस् आदि। इसमें 82 औषधियों का उल्लेख दिया गया है।

सामवेद में आयुर्वेद- इसमें मुख्य 3 शाखायें हैं, 75 ऋचायें हैं और विशेषकर संगीतशास्त्र का समावेश किया गया है।

आयुर्वेद के अध्ययन के रूप में सामवेद का योगदान कम है। इसमें मुख्यतया आयुर्वेद से सम्बन्धित कुछ मन्त्रा में वैद्य, तथा अत्यल्प रोगों की चिकित्सा का वर्णन प्राप्त होता है।

अथर्ववेद में आयुर्वेद- इसमें 20 काण्ड हैं। अथर्ववेद में आठ खण्ड आते हैं जिनमें भेषज वेद एवं धातु वेद ये दो नाम स्पष्ट प्राप्त हैं।

आयुर्वेद की दृष्टि से अथर्ववेद का स्थान अत्यन्त महत्वपूर्ण है। इसमें आयुर्वेद के प्रायः सभी अंगों एवं उपांगों का विस्तृत विवरण मिलता है। अथर्ववेद ही आयुर्वेद का मूल आधार है। अथर्ववेद में आयुर्वेद से सम्बन्धित विभिन्न विषयों का वर्णन उपलब्ध है जिनमें से मुख्य है- ‘वैद्य के गुण, कर्म या भिषज, भैषज्य, दीर्घायुष्य, बाजीकरण, रोगनाशक विभिन्न मणियां, प्राणचिकित्सा, शल्यचिकित्सा, वशीकरण, जलचिकित्सा, सूर्यचिकित्सा तथा विविध औषधियों के नाम, गुण, कर्म आदि।

आयुर्वेद को अर्थवेद में ‘भेषज’ या ‘भिषग्वेद’ नाम से जाना जाता है। गोपथ ब्राह्मण में भी अथर्ववेद के मंत्रों को आयुर्वेद से सम्बन्धित बताया गया है। शतपथ ब्राह्मण में यजुर्वेद के एक मंत्र की व्याख्या में प्राण को ‘अथर्वा’ कहा गया है। इसका अर्थ यह है कि प्राणविद्या या जीवनविद्या आथर्वण विद्या ही है। गोपथ ब्राह्मण के अनुसार ‘‘अंगिरस् का सीधा सम्बन्ध आयुर्वेद तथा शरीर विज्ञान से है। अंगों के रसों अर्थात तत्त्वों का वर्णन जिसमें प्राप्त होता है वह अंगिरस् कहा जाता है। अंगों से जो रस निकलता है वह अंगरस है और उसी को अंगिरस् कहा जाता है।अथर्ववेद को वैदिक जगत् में क्षत्रवेद, ब्रह्मवेद, भिषग्वेद तथा अर्घिंरोवेद इत्यदि नामों से भी जाना जाता है।

स्पष्ट है कि वेदों में आयुर्वेद से सम्बन्धित सैकड़ों मन्त्रों का वर्णन है, जिसमें विभिन्न रोगों की चिकित्सा का उल्लेख है। ऋग्वेद, सामवेद, यजुर्वेद और अथर्ववेद – इन चारों वेदों में अथर्ववेद को ही आयुर्वेद की आत्मा माना गया है। अथर्ववेद में स्वस्त्ययन मंगलकर्म, उपवास, बलिदान, होम, नियम, प्रायश्चित और मन्त्र आदि से भी चिकित्सा करने को कहा गया है। अथर्ववेद में सर्वाधिक 289 औषधियों का उल्लेख किया गया है। इस प्रकार ज्ञात होता है कि आयुर्विषययक औषधियों का विस्तृत विवरण अथर्ववेद में ही पाया जाता है ।

आयुर्वेद की दार्शनिक पृष्ठभूमि

आयुर्वेद में योगशास्त्र की तरह आध्यात्मिक विषयों की व्यापकता दृष्टिगोचर होती है। महर्षि चरक ने आत्मा के साथ मन को वश में करना योग का लक्षण माना है और यही मान्यता महर्षि पतञ्जलि की है कि मन के व्यवहारों का रोकना योग है। केवल शब्दों का अन्तर है अर्थ दोनों आचार्यों काएक ही है।

आयुर्वेदाचार्यों ने सभी वस्तुएं दो भागों में विभाजित की हैं सत् और असत्। इन दोनों की परीक्षा चार प्रमाणों-आप्तोपदेश, प्रत्यक्ष, अनुमान और युक्ति से स्वीकार की है तथा इन्हीं चारों प्रमाणों से पुनर्जन्म की सिद्धि भी स्वीकार की है। महर्षि चरक ने आत्मा को नित्य तथा द्रष्टा बतलाया है। आत्मा की उत्पत्ति और विनाश न होने से इसका नित्यत्वस्वतः सिद्ध होता है।

आयुर्वेद में चतुर्विंशति तत्त्वों का संयोग सृष्टि उत्पत्ति में कारण माना है। प्रकृति और पुरुष दोनों का अनादि, नित्य होने से साध्ययं तथा पुरुष अनेक, चेतन तथाप्रकृति एक और जड़ होने से वैधर्म्य स्वीकार किया गया है। आत्मा के लक्षण के विषय में आयुर्वेद में प्राण अपानादि लक्षण जीवित प्राणियों में ही प्राप्त होने से इन्हें आत्मा कालक्षण स्वीकार किया है। आत्मा का शरीर से पृथक् होने पर शरीर पञ्चतत्त्व को प्राप्त होगया ऐसा व्यवहार होता है। आत्मा ही ज्ञानी है क्योंकि समस्त कार्य आत्मा की साक्षी मेंहोते हैं। आयुर्वेदानुसार आत्मा को सुख-दुःख का अनुभव प्रकृति से निर्मित तत्त्वों के संयोग से होता है।

यावन्तो मूर्तमन्त भाव विशेषा लोके,

तावन्तो देहे, यावन्तो देहे तावन्तो लोके।

इस वचन के अनुसार प्राणिमात्र की देह में पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और आकाश से पाँच तत्त्व विद्यमान रहते हैं, जो सृष्टि में समाहित हैं।

ये पंच भौतिक मानव शरीर, ज्ञानेन्द्रिय, कर्मेन्द्रिय, मन, बुद्धि, अहंकार आदि चौबीस तत्त्वों से युक्त होते हुए भी जीवात्मा के कारण अपना अस्तित्व रखता है। इसीलिए हमारे संसार में समाहित प्रभु का वह अंश विभिन्न ज्ञानेन्द्रिय, कर्मेन्द्रिय एवं मन, बुद्धि, अहंकार आदि के संयोग से संसार की विभिन्न लीलाओं में प्रवृत्त होता है। इन्द्रियों का विषय ग्रहण करना, मन का विषयों की ओर आकृष्ट होना, बुद्धि का विकास करना आदि समस्त कार्य किसी विशिष्ट प्रेरणा के परिणामस्वरूप ही होते हैं।

इस समस्त सृष्टि का ज्ञान जिसमें प्रकाशित किया गया है, उसे वेद कहते हैं। ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद, और अथर्ववेद ये चार वेद हैं। समस्त सृष्टि की आयु का ज्ञान जिस शास्त्र के अन्दर समाहित किया गया है और जन्म से लेकर मृत्युपर्यन्त जीवन की उत्पत्ति अथवा स्थिति और नाश का सर्वज्ञान जिसमें समाहित है, उसे आयुर्वेद कहा गया है।

इसे पंचम वेद का रूप दिया गया है। संसार में अनेक ज्ञान-विज्ञान होते हुए भी वेद को आयुर्वेद की ही संज्ञा दी गयी है। आयुर्वेद के अनुसार यह शरीर पंचतत्त्वों के प्रभाव से वायु, पित्त और कफ तीनों प्रकृतियों में विभाजित है और मन सत्व, रज एवं तम इन तीन प्रकृतियों में विभाजित है। मन इस प्रकृति के अनुसार ही इन्द्रियों के विभिन्न कार्यों में प्रवृत्त रहता है।

शरीर और आत्मा के सम्बन्ध को आयुर्वेद में जिस रूप में प्रतिपादित किया गया है, उसी का सामंजस्य गीता की निम्न पंक्तियों से स्पष्ट होता है

नैनं छिन्दन्ति शस्त्राणी नैनं दहति पावकः

न चैनं क्लेदयन्त्यापो न शोषयति मारुतः।।

अर्थात् आत्मा को किसी शस्त्र से काटा नहीं जा सकता। अग्नि जला नहीं सकती, जल गीला नहीं कर सकता, वायु सुखा नहीं सकती, ऐसी परमात्मा की शक्ति इस आकाश में सर्वदा सर्वत्र विद्यमान है।

इसीलिए आयुर्वेद में कहा गया है कि जो मूर्तमान पाँच तत्त्व इस संसार में हैं, वही हमारे शरीर में हैं और जो हमारे शरीर में हैं, वही संसार में हैं। शरीर में इन पाँच तत्त्वों से ही शारीरिक प्रकृति का निर्माण होता है। जो वायु एवं आकाश की प्रधानता से ‘वातज’ अग्नि की अधिकता से ‘पित्तज’ और पृथ्वी एवं जल की अधिकता से ‘कफज’ बनती है। इस शरीर में पंच ज्ञानेन्द्रिय एवं पंच कर्मेन्द्रियों को कार्यरत करने वाला मन और मन की भी तीन प्रकृतियाँ होती हैं—सात्विक, राजस और तामस। इनमें सात्विक श्रेष्ठ है और राजस एवं तामस विकारयुक्त मानी गयी हैं। इसीलिए अष्टांग हृदय में कहा गया है।

रजसः तमस्यः दौच दोषो उदादद्दो

हमारी समस्त क्रियाएँ इन शारीरिक एवं मानसिक प्रकृति के अनरुप ही रहती हैं और जब इन्द्रियों का हीन योग, मिथ्या योग और अतियोग मन में संचारित होता है तो विकारों की उत्पत्ति होती है जो रोग रूप में प्रस्फुटित होता है। प्राणियों की प्रवृत्तियों पर अंकुश लगाने हेतु स्वयं कालरूप भगवान ऋतुचक्र में भी परिवर्तन पैदा कर देते हैं। इस ऋतुचक्र के हीन, मिथ्या और अतियोग से भी संसार के समस्त प्राणिमात्र में जनोपध्वंस के रूप में विकार पैदा होते हैं। इसीलिए चरक में प्राकृतिक विकारों का वर्णन करते हुए अनेक प्रकार के पाप कर्मों का अतियोग मूल कारण निर्दिष्ट किया गया है। आयुर्वेद में मुख्य 10 पाप माने गये हैं।

हिंसास्त्रेय अन्यथा काम, पैशून्य पुरुषामृते समभिन्नलापद

अविद्यायं दृग विपर्यम्, पाप कर्मेति दशदः काम वाक् मनसे—व्यजते।

अर्थात् हत्या, चोरी अन्यथा काम ये शरीर से; झूठ बोलना, चुगली करना, कठोर वचन बोलना ये वाणी से और हत्या का संकल्प करना, गुणों के अन्दर भी अवगुणों का देखना और कुदृष्टि से मन से होने वाले पाप हैं।

जब हम सत्कर्मों पर विचार करते हैं। तो आयुर्वेद में कहा गया है

रोगी की वेदना का त्रैकालिक (वर्तमान, भूत, भविष्य) विमर्श आयुर्वेद की विशेषता है जबकि अन्य चिकित्सा पद्धतियां उपस्थित रोग की ही चिकित्सा करती हैं। वेदनाओं का कारण धी, धृति और स्मृति का भ्रष्ट होना है।

धी धृति स्मृति विभ्रंशः…दुःखहेतवः । च.शा. 1.98

आयुर्वेद में सर्ववेदनाओं की निवृत्ति का उपाय योग और मोक्ष को माना है। क्योंकि योग मोक्ष प्रवर्तक है।

योगे मोक्षे च….मोक्षप्रवर्तकः । च.शा. 1.138।

योग की सिद्धि होने पर आयुर्वेद में योग बल को आठ प्रकार का माना है, यथा-आवेश (परकाया प्रवेश), चेतसो ज्ञानम् (दूसरे के मन को जानने वाला), अर्थानां छन्दतःक्रिया (शब्दादि अर्थोंकी स्वेच्छा प्रवृत्ति), दृष्टि, श्रोत्र, स्मृति, कान्ति और इष्टश्चाप्यदर्शन (अपनी इच्छा से शरीरप्रकट करना और गोपनीय करना)। यह योगबल योगियों की स्वाभाविक शक्ति के रूप मेंमाना गया है। मोक्ष की परिभाषा के विषय में आयुर्वेद में कहा है कि कर्मजन्य बन्धनोंसे मुक्त होने पर मोक्ष होता है,

बलवतकर्मसंक्षयाद्….मोक्षोऽच्यते । च.शा. 1.42

जिसके होने पर पुनः जन्म नहीं होता है। मोक्ष साधन के लिए आयुर्वेदोक्त सद्वृत्त का पालन करना करना चाहिए तथा अपने ज्ञान की वृद्धि करनी चाहिए। आत्मा और शरीर दोनों का पृथक्-पृथक् ज्ञान ही सत्याबुद्धि का परिणाम है। मुक्तात्मा लक्षण के विषय में आयुर्वेद ने माना है

नि:सृतः सर्वभावेभ्यश्चिह्नं यस्य न विद्यते….  च.शा. 1.155

आत्मा का कर्मफलभोगने से रहित होने पर परमात्मा से सम्बन्ध होता है यही मुक्तावस्था है। इस प्रकार आयुर्वेद में चिकित्सा विज्ञान के अतिरिक्त आध्यात्मिकता एवं दार्शनिकता के सूत्र प्राप्त होते हैं, जो पुरुषार्थ चतुष्टय की सिद्धि के लिए आवश्यक प्रतीत होते हैं। इसलिए आयुर्वेद ने योग को महत्त्वपूर्ण विषय मानकर अपने विज्ञान में स्थान दिया है।

आयुर्वेद ग्रन्थ एवं उनके रचनाकार

आयुर्वेद के मूल ग्रन्थों में काश्यप संहिता, चरक संहिता, सुश्रुत संहिता, भेलसंहिता तथा भारद्वाज संहिता में से काश्यप संहिता को अति प्राचीन माना गया है। इसमें महर्षि कश्यप ने शंका समाधान की शैली में दुःखात्मक रोग, उनके निदान, रोगों का पश्रिहार तथा रोग परिहार के साधन (औषध) इन चारों विषयों का भी प्रकार प्रतिपादन किया गया है। इसके पश्चात जीवक ने काश्यप संहिता को संक्षिप्त कर ‘वृद्ध जीवकीय तंत्र‘ नाम से प्रकाशित है। इसके 8 भाग हैं- 1. कौमार भृत्य, 2. शल्य क्रिया प्रधान शल्य, 3. शालाक्य, 4. वाजीकरण, 5. प्रधार रसायन, 6. शारीरिक-मानसिक चिकित्सा, 7. विष प्रशमन तथा 8. भूत विद्या। इसी से यह ‘अष्टांग आयुर्वेद’ कहताला है। पुनः इन विषयों को प्रतिपादन के अनुसार आठ स्थानों में विभक्त किया गया। इनमें सूत्र स्थान में 30, निदान स्थान में 12, चिकित्सा स्थान में 30, सिद्धि में 12, कल्प स्थान में 12, तथा खिल स्थान में 80 अध्याय है। इस प्रकार आचार्य जीवक ने कुल 200 अध्यायों में वृद्ध जीवकीय तंत्र को संग्रहीत कर आर्युविज्ञान का प्रचार प्रसार किया। वृद्ध जीवकीय तंत्र नेपाल के राजकीय पुस्तकालय में उपलब्ध है। ईसा पूर्व 2350-1200 के लगभग शालिहोत्र नामक अश्व विशेषज्ञ हुए है जिन्हें पशु चिकित्सा का ज्ञान था। इन्होने हेय आयुर्वेद, अश्व प्राशन तथा अश्व लक्षण शास्त्र की रचना की। इसे ‘शालिहोत्र संहिता‘ भी कहा जाता है। इसमें 12000 श्लोक है। इन्हें विश्व का प्रथम पशु चिकित्सक माना जाता है।

आयुर्वेद के प्रमुख आचार्य एवं उनका परिचय

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आयुर्वेद के मार्ग पर चलें- डाइटिंग की जरूरत नहीं

आयुर्वेद आयु का विज्ञान है, जो जीवन के प्रत्येक पहलू से जुड़ा है। आयुर्वेद के अनुसार, शरीर के शारीरिक एवं मानसिक क्रिया-कलाप वात्पित्त और कफ पर निर्भर करते हैं। इन्हें त्रिदोष भी कहा जाता है। आयुर्वेद के अनुसार शरीर का मोटापन और दुबलापन “रस” के कारण से होता है, जो लोग कफ कारक और क्षार रहित पदार्थ सेवन करते है; एक भोजन के बिना पचे दूसरा भोजन कर लेते है, दिन रात सो कर या बैठ कर गुजारते हैं; मेहनत नही करते– ऐसे लोग मोटे हो जाते हैं।Big_waight-diet-mistake.jpg

  • वात्, पित्त और कफ इन तीनों में संतुलन रहने से उत्तम स्वास्थ्य प्राप्त होता है और असंतुलन होने से शक्ति का क्षय, रुग्णता एवं बीमारियां होती है। इन तीनों के संतुलन को सतत् प्रभावित करने वाले तत्व हैं-भोजन, मौसम, जलवायु, स्थान, आयु और मानसिक अवस्था। 

आयुर्वेद की रचना- असुरों और देवताओं के बीच समुद्र मंथन हुआ तब स्वयं भगवान विष्णु ही धनवंतरि का रूप लेकर समुद्र में से निकले और उन्होंने ही आयुर्वेद की रचना की। माना जाता है कि सर्वप्रथम ब्रह्मा ने आयुर्वेद का ज्ञान अपने पुत्र प्रजापति को प्रदान किया और प्रजापति से यह ज्ञान अश्विन कुमारों तक पहुंचा और अश्विन कुमारों ने आयुर्वेद के ज्ञान को इन्द्र देव को प्रदान किया। इन्द्र से यह ज्ञान धरती पर ऋषि-मुनियों को मिला।    

चरक संहिता में जीवन का रहस्य- भारतीय चिकित्सा विज्ञान के तीन बड़े नाम हैं – चरक, सुश्रुत और वाग्भट। चरक संहिता, सुश्रुतसंहिता तथा वाग्भट का अष्टांगसंग्रह आज भी भारतीय चिकित्सा विज्ञान (आयुर्वेद) के मानक ग्रन्थ हैं। लगभग तीन हजार साल पहले चरक और सुश्रुत जैसे महान ऋषियों द्वारा सम्पूर्ण चिकित्सा शास्त्रों को लिपिबद्ध किया गया। चरक संहिता आयुर्वेद का एक प्रसिद्ध ग्रन्थ है। इसके उपदेशक अत्रिपुत्र पुनर्वसु, ग्रंथकर्ता अग्निवेश और प्रतिसंस्कारक चरक हैं। चरक संहिता के इन्द्रिय स्थान में किसी रोगी के ठीक होने के लक्षणों से लेकर मृत्यु सूचक लक्षणों को देखकर पहचानने का वर्णन है।

महर्षि चरक ने बताया निरोगी रहने के उपाय- महर्षि चरक ने बताया था कि “मित भुक्” अर्थात् भूख से कम खाना, “हित भुक्” अर्थात् सात्विक खाना  और “ ऋत् भुक्” अर्थात् मौसम के अनुसार भोजन या फलाहार करे

  • जो व्यक्ति शरीर को लगने वाला आहार ले, भूख से थोड़ा कम खाए और मौसम के अनुसार भोजन या फलाहार करे वही स्वस्थ रह सकता है। अगर हम नियमित इसका पालन करें तो शरीर में रोक हो ही नहीं और गलती से कुछ हो ही गया तो चरक संहिता में उपचार की विधियों का वर्णन किया ही गया है।

चरक ने अन्न को सबसे श्रेष्ठ आहार- “अन्नं वृत्तिकारणं श्रेष्ठम, क्षीरं जीवनीयांम , माँसं ब्रहणीयाँनंम “ (चरक संहिता-सूत्र स्थान-अध्याय 25-यज्जपुरुषीय अध्याय-श्लोक 40)

आयुर्वेद अनुसार भोजन के तीन प्रकार- प्राचीनकाल में वैद्यों ने आहार को मुख्य रूप से तीन प्रकारों में बाँटा था-

  1. सात्विक भोजन- यह ताजा, रसयुक्त, हल्की चिकनाईयुक्त और पौष्टिक होना चाहिए। इसमें अन्ना, दूध, मक्खन, घी, मट्ठा, दही, हरी-पत्तेदार सब्जियाँ, फल-मेवा आदि शामिल हैं। भोजन में ये पदार्थ शामिल होने पर विभिन्न रोग एवं स्वास्थ्य संबंधी परेशानियों से काफी बचाव रहता है।
  2. राजसी भोजन- इसमें सभी प्रकार के पकवान, व्यंजन, मिठाइयाँ, अधिक मिर्च-मसालेदार वस्तुएँ, नाश्ते में शामिल आधुनिक सभी पदार्थ, शक्तिवर्धक दवाएँ, चाय, कॉफी, कोको, सोडा, पान, तंबाकू, मदिरा एवं व्यसन की सभी वस्तुएँ शामिल हैं। हालाँकि इससे पूरी तरह बचना तो किसी के लिए भी संभव नहींकिंतु इनका जितना कम से कम प्रयोग किया जाए।
  3. तामसी भोजन- इसमें प्रमुख मांसाहार माना जाता है, लेकिन बासी एवं विषम आहार भी इसमें शामिल हैं। तामसी भोजन व्यक्ति को क्रोधी एवं आलसी बनाता है, साथ ही कई प्रकार से तन और मन दोनों के लिए प्रतिकूल होता है।

चरक सहिंता के अनुसार भोजन करने के दस अनमोल नियम:

  1. उष्ण आहार लें – गर्म भोजन से जठराग्नि तेज होती है, भोजन शीघ्र पच जाता है।
  2. स्निग्ध आहार लें- स्निग्ध भोजन शरीर का पोषण, इन्द्रियों को दृढ़ और बलवान बनाता है।
  3. मात्रा पूर्वक आहार लें- पाचन शक्ति के अनुकूल उचित मात्रा में भोजन स्वास्थ्यवर्धक होता है।
  4. पचने पर आहार लें- पहले खाया पचने के बाद भूख लगने पर ही दूसरा भोजन करें।
  5. अविरूद्ध वीर्य वाले आहार लें- परस्पर विरूद्धवीर्य (गुण व शक्ति) का भोजन रोग उत्पन्न करता है।
  6. अनुकूल स्थान में आहार लें- मन के अनुकूल स्थान में मन के प्रिय पदार्थो का सेवन करें।
  7. जल्दी- जल्दी आहार न लें- जल्दी भोजन करने से लालारस ठीक से न मिलने के कारण भोजन के पाचन में विलम्ब होता है।
  8. बहुत धीरे- धीरे आहार न लें- धीरे- धीरे, रूक रूक कर भोजन करने से तृप्ति नहीं होती, आहार ठंडा तथा पाक विषम हो जाता है।
  9. एकाग्रचित्त हो आहार लें- ऐसा करने से भोजन भली भाँति पचता है और अंग लगता है।
  10. आत्म शक्ति के अनुसार आहार लें- यह आहार मेरे लिए लाभकारी है या हानिकारक है, विचार करके अपनी शक्ति के अनुकूल मात्रा में लिया भोजन हितकारी होता है।

मोटापा कितना खतरनाक

आयुर्वेद की दृष्टि से देखें तो माधवनिदान (माधवनिदानम् आयुर्वेद का प्रसिद्ध प्राचीन ग्रन्थ है, इसका मूल नाम रोगविनिश्चय‘ है) के अनुसार: 

अव्यायामदिवास्वप्नश्लेष्मलाहारसेविनः मधुरोऽन्नरसः प्रायः स्नेहान्मेदं प्रवर्धयेत्

मेदसाऽवृतमार्गत्वात् पुष्यन्त्यन्ये न धातवः मेदस्तु चीयते तस्मादशक्तः सर्वकर्मसु

क्षुद्र श्वासतृषा मोहस्वप्नक्रथनसादनैः युक्तः क्षुत्स्वेददौर्गन्ध्यैरल्पप्राणोऽल्पमैथुनः

मेदस्तु सर्वभूतानामुदरेष्वस्थिषु स्थितम् अत एवोदरे वृद्धिः प्रायो मेदस्विनो भवेत्

मेदसाऽवृतमार्गत्वाद्वायुः कोष्ठे विशेषतः चरन् सन्धुक्षयत्यग्निमाहारं शोषयत्यपि

तस्मात् स शीघ्रं जरयत्याहारमभिकाङ्क्षति विकारांश्चाप्नुते घोरान् कांश्चित् कालव्यतिक्रमात्

एतावुपद्र वकरौ विशेषादग्निमारुतौ एतौ तु दहतः स्थूलं वनदावो वनं यथा

मेदस्यतीव संवृद्धे सहसैवानिलादयः विकारान् दारुणान् कृत्वा नाशयन्त्याशु जीवितम्

मेदोमांशाति वृद्धत्वाच्चलस्फिगुदरस्तनः अयथोपचयोत्साहो नरोऽतिस्थूल उच्यते

संक्षेप में इसका अर्थ व्यायाम का अभाव + दिन में सोना + श्लेष्मवर्धक आहार = मधुर अन्नरस + स्नेह = मेद की उत्पत्ति = स्रोतोवरोध = {मेद से आवृत वात का आंत में घूमना > प्रदीप्त अग्नि > भोजन का शीघ्र परिपाक > भूखवृद्धि > भोजन में कमी किया तो अति दुखद} = मेदा के अलावा अन्य छ: धातुओं का कुपोषण = निरंतर मेदवृद्धि = हांफते रहना, प्यास, अज्ञान, निद्रा, श्वासावरोध, शिथिल अंग, अति भूख, स्वेद, शरीर में दुर्गंध, जीवनी शक्ति का अभाव = उदर, नितंब, सौष्ठव और उत्साह समाप्ति = अतिस्थूल अवस्था =अति मेद से वात दोष की भयंकर स्थिति = वातजनित भयंकर उपद्रव = जीवन नाश।

  • व्यायाम का अभावदिन में सोना और श्लेष्मवर्धक आहार से शुरू हुआ मोटापा एक विश्वव्यापी समस्या है।

दुनियाभर में बढ़ता मोटापा कितना खतरनाक, जानें- मेडिकल जर्नल ‘द लैंसेट’ में प्रकाशित एक शोध के मुताबिक वर्ष 1975 से 2014 के बीच दुनिया में मोटे पुरुषों का प्रतिशत तीन गुना बढ़ा है। वर्ष 1975 में यह 3.2 प्रतिशत था। वर्ष 2014 में 10.8 प्रतिशत हो गया। इस दौरान मोटी महिलाओं का प्रतिशत हालांकि लगभग दोगुना ही बढ़ा, पर उनका वैश्विक प्रतिशत 6.4 से बढ़कर 14.9 हो गया। विश्व में अब 2.3 प्रतिशत पुरुष और 5 प्रतिशत महिलायें अति मोटापा-ग्रस्त हैं। दुनिया में आज 1.6 प्रतिशत महिलायें और 0.6प्रतिशत पुरुष भयंकर मोटे हैं। विश्व में पहली बार मोटे लोगों की संख्या दुबले लोगों से ज्यादा हो गयी है।

वर्ष 2014 में 18 वर्ष या उससे ऊपर के 1.9 अरब, अर्थात 39 प्रतिशत लोगों का वजन अधिक था। इनमें से 60 करोड़ या 13 प्रतिशत से अधिक मोटापा-ग्रस्त थे। वर्ष 2025 तक वैश्विक मोटापे का प्रसार पुरुषों में 18 प्रतिशत और महिलाओं में 21 प्रतिशत हो जाने की आशंका है। पुरुषों में गंभीर मोटापा 6 प्रतिशत और महिलाओं में 9 प्रतिशत तक जा सकता है। चिंतित करने वाली बात यह है कि दुनिया भर में 2.7 अरब वयस्क वर्ष 2025 में भारी शरीर ढोने वाले होंगे।

बिना Gym या डाइटिंग किए वजन काबू में रखना है तो अपनाएं ये अच्छी आदतें

अपना वजन घटाने की कोशिश में लोग कई तरह के नुस्खे आजमाते हैं। जिम जाने से लेकर दवाइयों के इस्तेमाल तक, लोग कुछ न कुछ तरीके अपनाकर वजन घटाने की कोशिश करते हैं लेकिन कोई असर नहीं होता। मगर आपको शायद ही इसकी जानकारी हो कि आप कुछ आसान उपाय से अपना वजन कम कक सकते हैं। इन्हें करने के लिए आपको न ही पैसे खर्चने की जरूरत है और न ही अलग से समय निकालने की। इन अच्छी आदतों को अपनाकर आप आसानी ने अपना वजन कम कर सकते हैं।

  1. खाना चबाकर खाएं  कई शोधों में यह साबित किया जा चुका है कि खाना चबा-चबाकर खाने से कम कैलोरी कंज्यूम होती है। इसके अलावा यह ओवरईटिंग रोकने का भी सफल फॉर्मूला है। इसके अलावा इससे पाचन सही रहता है और वजन कम रहने में मदद मिलती है।
  1. पर्याप्त मात्रा में प्रोटीन लें  प्रोटीन का आपकी भूख पर काफी प्रभाव पड़ता है। इससे आपको बार-बार भूख लगने की समस्या से छुटकारा मिल जाता है। इसके अलावा इससे आप कम कैलोरी कंज्यूम करते हैं। लेकिन ध्यान रहे कि बहुत ज्यादा मात्रा में प्रोटीन नुकसानदेह हो सकता है।
  1. ज्यादा न पकाएं खाना  अगर आप खाना ज्यादा पका देते हैं तो इससे भोजन के जरूरी पोषक तत्व नष्ट हो जाते हैं। ऐसे में जब आप इस फूड को खाते हैं तो बार बार भूख लगती है। ऐसे में ज्यादा से ज्यादा कच्चे फल खाना सही होता है।
  1. फलों का सेवन करें  फलों में काफी मात्रा में पानी होता है। वजन कम करने के दौरान इसका सेवन काफी फायदेमंद होता है। इससे जरूरी पोषक तत्व शरीर को मिलते हैं। ऐसे में आप सेब, तरबूज इत्यादि फलों का सेवन कर सकते हैं।
  1. हरी पत्तेदार सब्जियां  खाने के साथ सलाद का सेवन जरूर करें। इससे आपकी भूख नियंत्रित रहती है। ध्यान रहे, पनीर या क्रीमी सलाद से दूरी बनी रहे।
  1. पानी ज्यादा पीएं- शरीर को हाइड्रेटिड रखने के कई फायदे होते हैं और यह मेटाबोलिज्म को भी ठीक रखता है। वहीं खाने से पहले एक ग्लास पानी पीने से आप वजन कम कर सकते हैं। ऐसा करना आपके पाचन को मजबूत करता है और आपको ज्यादा खाने से बचाता है।
  1. नाश्ता करना न भूलें- वजन घटाने की कोशिश में आप कभी भी अपना नाश्ता न छोड़ें। नाश्ते में प्रोटीन युक्त चीजें जैसे अंडा, दही या पीनट बटर का सेवन करें। इनमें फैट कम होता है। वहीं नाश्ते के बाद ध्यान रखें कि आपकी अगली डाइट लेने में 3घंटे से ज्यादा का गैप न हो।
  1. कम खाएं- अपनी डाइट को कम करके भी आप अपना वजन आसानी से घटा सकते हैं। दरअसल जब आप कम कैलरीज लेते हैं तो शरीर में फैट भी कम बनता है। वहीं इससे आप ज्यादा खाने से भी बचेंगे। हालांकि ध्यान रहे कि आप खाना बिल्कुल भी बंद न कर दे या शरीर को ताकत देने के लिए जरूरी मात्रा में भोजन ही न लें।
  1. लिफ्ट की जगह सीढ़ियां चुनें- बिना एक्सरसाइज या फिर डाइटिंग किए वजन कम करने के लिए यह एक बेहतरीन उपाय है। एक्सपर्ट्स के मुताबिक एक घंटे में महज सीढ़ियों का रास्ता लेकर आप 40 कैलरीज तक जला सकते हैं। वहीं यह आपके लंग्स,घुटने और हार्ट को भी स्वस्थ रखने के लिए एक कारगर उपाय है।
  2. अच्छी नींद लें-शरीर को रीचार्ज होने के लिए जिस पर्याप्त नींद की जरूरत होती है उसे जरूर लें। इससे आपका मेटाबोलिज्म ठीक रहेगा जो फैट बर्न करने में सहायता करता है। वहीं अगली सुबह आप ज्यादा फ्रेश रहते हैं। 

दिमाग की बत्ती जलाएं वजन खुद ही घट जाएगा- फिट रहना कौन नहीं चाहता, और जैसे ही आप फाइनली ये तय कर लेते हैं कि अब तो वजन कम करके ही रहेंगे तो चाहने वालों के मुफ्त के ज्ञान की बाढ़ आ जाती है. जिम इंस्ट्रक्टर के साथ-साथ वो दोस्त भी जिसे खुद जिम जाते एक हफ्ता ही पूरा हुआ है,मतलब ये की सारी दुनिया आपको तंदरूस्त करने में जोर-शोर से भिड़ जाएगी.

ये सेल्फ-प्रोक्लेम्ड फिटनेस “नाजी” आपको संतुलित आहार लेने या फिर सिर्फ लिक्विड डायट पर रहने की सलाह देंगे, कार्डिओ एक्सरसाइज करने और हेवी वेट उठाने की सलाह देंगे. लेकिन यकीन मानिए इन सबसे इतना फायदा नहीं होगा. वजन घटाने के लिए शरीर से ज्यादा दिमाग की जरुरत है.

ब्रिटिश अखबार डेली मेल की एक रिपोर्ट के मुताबिक, हमारा दिमाग किसी भी तरह के कैलोरी प्रतिबंध या खाने में बदलाव के खिलाफ रिएक्ट करता है. इससे वजन कम करने का हमारा लक्ष्य पाने में मुश्किल हुई है. हमारा दिमाग ऐसा शरीर के प्राकृतिक वजन को बनाए रखने के लिए करता है. हमारे शरीर का प्राकृतिक वजन हमारे आनुवंशिक इतिहास और जीवन के अनुभवों से निर्धारित होता है. इसलिए अगर आप आलसी, लालची हैं या फिर आप में मोटिवेशन की कमी है, तो वो इसलिए क्योंकि हमारा दिमाग शरीर के प्राकृतिक वजन को बनाकर रखने की मशक्कत में लगा है. और हमारे इस तरह के व्यवहार के पीछे का असली कारण यही है.

लंदन के सिराकस विश्वविद्यालय के शोध के मुताबिक आप अपने शरीर से जितने ज्यादा असंतुष्ट रहते हैं कसरत करने की संभावना उतनी ही घट जाती है. कसरत का दिल नहीं दिमाग कनेक्शन लेकिन इस आलस के चादर को हटाने के लिए सिर्फ पांच मिनट की जरुरत होती. जी हां सिर्फ पांच मिनट. पांच मिनट के लिए आलस के मोड से बाहर निकल जिम तक खुद को धकेलिए, फिर देखिए एक घंटे के एक्सरसाइज के बाद आप कैसे खुशी-खुशी वापस आएंगे.

पतले होने और वजन घटाने के चक्कर में आप कहीं एनोरेक्सिया नामक बीमारी का शिकार ना हो जाएं- कम खाना या ज्यादा खाना दोनों ही बातें ठीक नहीं होती, हर चीज में संतुलन जरूरी है और जब यह संतुलन बिगड़ता है तो जन्म लेती है बीमारी। इस चक्कर में लोग मोटापा रोकने के लिए खाना भी कम कर देते हैं लेकिन हर बार की एक लिमिट होती है, जब लोग इतना कम खाने लगते हैं तो एक और बीमारी पैदा होती है जिसका नाम है एनोरेक्सिया। यह एक ईटिंग डिसऑर्डर है, जिसमें रोगी अपने वजन को बढ़ने को लेकर काफी चिंतित रहता है और इस चिंता की वजह से भोजन करना कम कर देता है। एनोरेक्सिया से पीड़ित व्यक्ति बहुत अधिक मात्रा में एक्सरसाइज करता है और अत्यधिक डाइटिंग की वजह से अंदर से बहुत कमजोर होता रहता है।

साइकोलॉजिकल डिस्ऑर्डर – इंटरनेट, टीवी और फिल्मी हीरो-हीरोइन से प्रेरित युवा इससे सबसे ज्यादा प्रभावित हैं। उन्हें लगता है कि खाना नहीं खाएगें, तो स्लिम हो जाएंगें, लेकिन ये गलत है। ये एक साइकोलॉजिकल डिसऑर्डर है। अंडरवेट रहने पर कई समस्याएं हो सकती हैं। एनोरेक्सिया के ज्यादातर मरीजों को मनोचिकित्सक(साइकेट्रिस्ट) या कांउसलर तक का सहारा लेना पड़ता है।

लक्षण

  1. एनोरेक्सिया होने पर वजन तेजी से घटने लगता है। तेजी से स्वास्थ्य में गिरावट आने लगती है।
  2. शरीर में कैल्शियम और फॉस्फोरस की कमी के कारण मासिक धर्म अनियमित हो जाता है।
  3. कम उम्र में ही हड्डियों से संबंधित ऑस्टियोपोरोसिस जैसी बीमारी हो जाती है।
  4. फर्टिलिटी पर इसका सबसे ज्यादा असर दिखता है।
  5. दिल से संबंधित कई प्रकार की बीमारियों की संभावना बढ़ जाती है।
  6. अंधापन,पैरेलिटिक अटैक जैसे लक्षण दिखने लगते हैं।

इन सबका कारण है खाने से एलर्जी। खाने से ही तो शरीर सही तरीके से अपना काम करता रहता है। सारे विटामिन, प्रोटीन, कैल्शियम, मिनरल्स, कैलोरी खाने से ही मिलती है। इस बीमारी के होने पर व्यक्ति चाहकर भी खा नहीं पाता। खाने की गंध भूख भड़काने के बजाय उबकाई देने लगती है। मनपसंद खाना सामने होते हुए भी एनोरेक्सिया के मरीज उसे खा नहीं पाते।

अगर डाइटिंग के चक्कर में नहीं करते हैं नाश्ता तो हो जाएं सतर्क, हो सकती हैं ये 3 बीमारियां

एक नामी अस्पताल के न्यूरोलॉजिस्ट बताते हैं कि मेटाबॉल्जिम धीमे होने से वजन बढ़ता है। वहीं शुगर का लेवल कम होने की परेशानी भी रहती है। जब लंच करते हैं तो जरूरत से ज्यादा खा लेते हैं। इससे वजन तेजी से बढ़ता है।

अमेरिकन स्टडी के अनुसार नाश्ता न करने वाले लोगों में 27 फीसदी हार्ट अटैक का खतरा ज्यादा होता है। वहीं एक अन्य चिकित्सक के अनुसार नाश्ता न करने से वजन के साथ टाइप 2 मधुमेह बढने की आशंका भी कई गुना बढ़ जाती है।

डॉक्टरों की मानें तो रातभर पेट खाली रहने के कारण उसमें एसिड की मात्रा बढ़ जाती है। ऐसे में सुबह कुछ भी न खाने पर एसिडिटी की परेशानी हो सकती है।

वजन घटाने के चक्कर में कर रही हैं क्रैश डाइटिंगतो झेलना पड़ सकता ये खतरनाक नुकसान

बार्सिलोना में इंडोक्राइनोलॉजी की ईयरली सेमिनार में जो रिपोर्ट पेश हुई उससे यही बात सामने आई कि भूखे रहकर फैट कम करने वालों में दीर्घकालिक हानिकारक असर पड़ता है।

  1. बढ़ता है टाइप-2 डायबिटीज का खतरा
  2. लंबे समय तक भूखे रहने से धीरे-धीरे गैस और एसिडिटी की प्रॉब्लम शुरू हो जाती है
  3. भूखे पेट रहने के कारण नींद में भी खलल पड़ती है। स्लीपिंग डिसऑर्डर भी हो जाता है।
  4. बैलेंस डाइट न होने और न्यूट्रीएंट्स की कमी से स्किन में रफनेस, डलनेस और ड्राइनेस हो जाता है।
  5. लम्बे समय तक भूखे रहने वाले लोग थके और चिड़चिड़े हो जाते हैं। उनका मूड स्विंग बार-बार होता रहता है।
  6. क्रैश डाइट का नुकसान आपके बालों पर भी दिखाई पड़ने लगता है। आवश्यक प्रोटीन की कमी से बालों का विकास रूक जाता है और धीरे धीरे वे पतले होने और टूटने लगते हैं
  7. लंबे समय तक कुछ न खाने से मुंह के अंदर बनने वाला नैचरल स्लाइन बनना कम हो जाता है इससे मुंह बंद रहने से सांस की बदबू की प्रॉब्लम भी शुरू हो जाती है।

मोटापा कम करने के बेहद खास प्राचीन नुस्खे

शहद का सेवन- शहद एक काम्पलेक्स शर्करा की तरह है, जो मोटापा कम करने में काफी हद तक मदद करता है। गर्म पानी में एक चम्मच शहद डालकर प्रतिदिन सुबह खाली पेट पीने से कुछ ही समय में परिणाम दिखने लगते हैं, कुछ जगहों पर लोग इसी मिश्रण में एक चम्मच नींबू रस भी डाल देते है, दोनों फार्मूले हितकर हैं। कई लोग दिन भर सिर्फ नींबू पानी और शहद का मिश्रण पीकर उपवास भी करते है। माना जाता है कि यह एक कारगर देसी फार्मूला है।

चूर्ण का कमाल- सोंठ, दालचीनी की छाल और काली मिर्च (3 ग्राम प्रत्येक) लेकर कुचल लिया जाए और चूर्ण बनाया जाए। इस पूरे चूर्ण को दो हिस्सों में बांटकर एक हिस्सा सुबह खाली पेट और दूसरा रात सोने से पहले लिया जाना चाहिए। चूर्ण को एक पानी में डालकर, घोलकर पिया जा सकता है।

पुदीना की चाय- पुदीना की ताजी हरी पत्तियों की चटनी बनाई जाए और चपाती के साथ सेवन किया जाए, असरकारक होती है। आदिवासी पुदीना की चाय भी पीने की सलाह देते हैं।

करेले के गुण- करेले की अध कच्ची सब्जी भी वजन कम करने में काफी मदद करती है, उत्तर मध्यप्रदेश के आदिवासी सहजन या मुनगा की फलियों की सब्जी को मोटापा कम करने में असरकारक मानते हैं

पत्ता गोभी का रस- ताजी पत्ता गोभी का रस भी वजन कम करने में काफी मदद करता है। आदिवासियों के अनुसार प्रतिदिन रोज सुबह ताजी हरी पत्ता गोभी को पीसकर रस तैयार किया जाए और पिया जाए तो यह शरीर की चर्बी को गलाने में मदद करता है। रोचक बात यह भी है कि आधुनिक विज्ञान भी इस बात की पैरवी करता है कि कच्ची पत्ता गोभी शर्करा और अन्य कार्बोहाइड्रेट को वसा में बदलने से रोकती है और यह वजन कम करने में सहायक है

सौंफ का इस्तेमाल- आधा चम्मच सौंफ लेकर एक कप खौलते पानी में डाल दी जाए और 10 मिनिट तक इसे ढांककर रखा जाए और बाद में ठंडा होने पर पी लिया जाए। ऐसा तीन माह तक लगातार किया जाना चाहिए, वजन कम होने लगता है।

चबा के खाना है ज़रूरी- खाना खाने के 20 मिनट बाद दिमाग को पेट भरे होने का मेसेज मिलता है और उसके बाद ही भूख शांत होने का अहसास होता है, इसलिए धीरे-धीरे और चबा-चबा कर खाना चाहिए।

सोयाबीन खाएं- सेयाबीन में मौजूद लेसिथिन केमिकल सेल्स पर फैट जमा होने से रोकता है। हफ्ते में कम से कम तीन बार सोयाबीन खाने से शरीर में फैट से लड़ने की क्षमता बढ़ती है। सब्जी या चावल आदि में डालकर खा सकते हैं। सोयाबीन क्रंच से उपमा या भूर्जी भी बना सकते हैं।

शकरकंदी- फाइबर और कॉम्पलैक्स कार्बोहाइड्रेट होने की वजह से शकरकंदी वजन कम करने के अलावा डायबिटीज भी कंट्रोल में रखती है।डायबिटीज के मरीज ज्यादातर मोटे होते हैं। शकरकंदी खाने से उन्हें बार-बार भूख नहीं लगती और वह जल्द वजन पर नियंत्रण पा लेते हैं।

गाजर खाएं- गाजर का भरपूर सेवन किया जाना चाहिए खास तौर से खाना खाने से पहले। आधुनिक विज्ञान भी गाजर को मोटापा कम करने में कारगर मानता है।

खाने के बाद ऐसे पियें पानी- आयुर्वेद के जानकारों की माने तो खाना खाने के एक घंटे के बाद एक ग्लास गर्म पानी पीने से मोटापा कम होता है। गर्म पानी का मतलब यह कि जितना आप आसानी से सिप कर सके। धीरे-धीरे यह प्रक्रिया करने से शरीर में जमा अतिरिक्त कैलोरी और वसा नष्ट होती है जिससे मोटापा कम करने में मदद मिलती है।

पेट की सिकाई- इस हेतु एक तपेली पानी में एक मुट्ठी अजवायन और एक चम्मच नमक डालकर उबलने रख दें। जब भाप उठने लगे, तब इस पर जाली या आटा छानने की छन्नी रख दें। दो छोटे नैपकिन या कपड़े ठण्डे पानी में गीले कर निचोड़ लें और तह करके एक-एक कर जाली पर रख गरम करें और पेट पर रखकर सेंकें। प्रतिदिन 10 मिनट सेंक करना पर्याप्त है। कुछ दिनो में पेट का आकार घटने लगेगा।

ना छोड़ें दूध, घी- दुबले होने के लिए दूध और शुद्ध घी का सेवन करना बन्द न करें। वरना शरीर में कमजोरी, रूखापन, वातविकार, जोड़ों में दर्द, गैस ट्रबल आदि होने की शिकायतें पैदा होने लगेंगी।

पानी पीयें- एक दिन में लगभग २ से 3 लीटर पानी पीने की कोशिश करें। अध्ययन से पता चलता है कि खूप पानी पीने से इन्सान स्वस्थ रहता है। यह आपको मोटापा कम करने में भी मदद करता है। हमेशा, आप के साथ एक पानी की बोतल रखें।

योगा करें- भुजंगासन, शलभासन, उत्तानपादासन, सर्वागासऩ, हलासन, सूर्य नमस्कार। इनमें शुरू के पाँच आसनों में 2-2 मिनट और सूर्य नमस्कार पांच बार करें तो पांच मिनट यानी कुल 15 मिनट लगेंगे।

आटा बदलें- यदि आप मोटापे को कम करना चाहते है तो भोजन में गेहूं के आटे की चपाती लेना बन्द करके जौ.चने के आटे की चपाती लेना शुरू कर दें। इसका अनुपात है 10 किलो चना व 2 किलो जौ। इन्हें मिलाकर पिसवा लें और इ सी आटे की चपाती खाएं। इससे सिर्फ पेट और कमर ही नहीं सारे शरीर का मोटापा कम हो जाएगा।

डाइयेटिंग से बचें- अगर आप वजन कम करने के लिए डाइटिंग कर रहे हैं तो इससे वनज कम होने की संभावना तो नहीं होती है, हाँ मगर इससे आपको अन्य समस्याओं का सामना करना पड़ सकता है। जैसे आंखों के नीचे काले घेरे, स्किन का बेजान और ढीला होना, बालों का झड़ना, याददाशत् कम होना जैसी समस्याएं हो सकती है। इसलिए सही वक्त पर सही खाना ही वनज कम करने का सही उपाय है इसके लिए आप जितना भी खाएं पर हेल्दी खाना खांए।

शारीरिक कमजोरी और आयुर्वेद

सोते समय स्वप्न में यौन क्रीड़ा संबंधी दृश्य देखने पर जननेन्द्रिय में उत्तेजना आती है और शुक्राशय में एकत्रित हुआ शुक्र (वीर्य) निकल जाता है। इसे स्वप्नदोष (वैज्ञानिक भाषा में नॉकटर्नल एमिशन- Nocturnal Emission) होना 5bb04dd3492d0d0001a455d4कहते हैं।

प्राचीन हिंदू पौराणिक मान्यताओं के अनुसार “धर्म”, “अर्थ”, “काम”, और “मोक्ष” जीवन के मूल आधार हैं… “काम” शब्द यौन जीवन से जुड़ा है। चरक संहिता के अनुसार, यौन गतिविधियों में अत्यधिक लिप्तता, वीर्य का स्खलन या स्खलन में बाधा, असावधान महिलाओं के साथ संभोग और अत्यधिक यौन उत्तेजनाओं के कारण यौन प्रदर्शन में गिरावट आ सकती है।

  • वात्स्यायन के कामसूत्र, रतिशास्त्र और कल्याणमाला के अनंगा रंग आदि जैसे कुछ साहित्य विशेष रूप से कामुकता पर केंद्रित हैं। आयुर्वेद, चरक संहिता,और सुश्रुत संहिता भी वीर्य के मूल्य और वीर्य के नुकसान के परिणामों का वर्णन किया गया हैं। आयुर्वेद में कामुकता संबंधित मुद्दों के उपचार को “वजीकरण” के रूप में एक अलग उप-संस्करण के रूप में उल्लेख किया गया है। अधिकांश प्राचीन साहित्य में वीर्य के महत्व का वर्णन है। वीर्य के नुकसान (स्वप्नदोष, हस्तमैथुन और वेश्यावृत्ति) को अपव्यय के रूप में माना जाता था। इसको रोकने के लिए कम उम्र में शादी को बड़े पैमाने पर बढ़ावा दिया गया था।

आयुर्वेद के द्वारा यौन रोग, यौन दुर्बलता, आंशिक व नपुंसकता का सही रूप से इलाज किया जा सकता है। आयुर्वेद के अंदर मुख्य चिकित्सा ग्रंथ चरक संहिता,सुश्रुत संहिता में संभोग शक्ति को बढ़ाने जैसे कार्य करने के अंदर आने वाला यौन विकार व यौन दुर्बलता से संबंध रखने वाले सभी कारण तथा अलग-अलग परिस्थितियों में अलग-अलग तरह की औषधि से इलाज करना बताया गया है।

वजीकरण- आयुर्वेद में कामुकता और संबंधित मुद्दों के उपचार का उल्लेख “वजीकरण” में किया गया है। वाजीकरण आयुर्वेद के आठ अंगों (अष्टांग आयुर्वेद) में से एक अंग है। संस्कृत में, वाजी का अर्थ है घोड़ा। घोड़ा यौन शक्ति और प्रदर्शन का प्रतीक। इस प्रकार वजीकरण का अर्थ है घोड़े की शक्ति पैदा करना।

वाजीकरणतंत्रं नाम अल्पदुष्ट क्षीणविशुष्करेतसामाप्यायन 

प्रसादोपचय जनननिमित्तं प्रहर्षं जननार्थंच। (सुश्रुत संहिता 1/8)।

अर्थ- वजीकरण के अन्तर्गत शुक्र (वीर्य) की उत्पत्ति, पुष्टता एवं उसमें उत्पन्न दोषों एवं उसके क्षय, वृद्धि आदि कारणों से उत्पन्न लक्षणों की चिकित्सा आदि विषयों के साथ उत्तम स्वस्थ संतोनोत्पत्ति संबंधी ज्ञान का वर्णन आते हैं।

महर्षि चरक के अनुसार –

स्वपनं मनसः कामासक्तत्वात् शुक्र स्रावमयो दोषाख्यः रोगोरव्यो यः सो हिं स्वपनदोषो भवति।।

अर्थात– स्वपन देखते समय मन के कामासक्त हो जाने पर वीर्य का स्राव हो जाना ही स्वपन दोष नामक व्याधि है।

आयुर्वेदज्ञों ने स्वपन दोष के अनेकों कारण बतलाए हैं। सबसे प्रमुख कारण जो बतलाया गया है वह है स्त्री चिन्तन और भोग लालसा की अधिकता का होना। अतः इस रोग की समाप्ति के लिए मन की सुचिता सबसे प्रमुख दवा है। इस रोग के अन्य कारणों में है हस्त मैथुन और कौष्ठबद्धता (कब्ज), दूषित विचार, अजीर्ण तथा गुदा कृमि की उपस्थिति आदि बहुत से कारण हो सकते हैं। वैसे यह रोग प्रमेह के अन्तर्गत ही आता है इसे ‘स्वपन मेह’ भी कहा जाता है। और खास बात यह भी है कि प्रमेह चिकित्सा के ज्यादातर योग स्वपन दोष का सार्थक इलाज करते हैं।

चरक सहिंता के अनुसार-

वाजीकरणमन्विच्छेत्सततं विषयी पुमान् ।

तुष्टिः पुष्टिरपत्यं च गुणवत्तत्र संश्रितम् ॥ १ ॥

अपत्यसंतानकरं यत्सद्यः संप्रहर्षणम् ।

वाजीवातिबलो येन यात्यप्रतिहतोऽङ्गनाः ॥ २ ॥

भवत्यतिप्रियः स्त्रीणां येन येनोपचीयते ।

तद्वाजीकरणं तद्धि देहस्योर्जस्करं परम् ॥ ३ ॥

अर्थात- जो आदमी खुशी चाहता है, उसे नियमित रूप से वजीकरणका सहारा लेना चाहिए, यानी वैलीफिकेशन थेरेपी (vilification therapy)। वजीकरण संतोष,पोषण, संतान की निरंतरता और महान खुशी प्रदान करता है। वजीकरण में दवाइयां या थैरेपी के जरिए आदमी घोड़े जैसी बड़ी ताकत प्राप्त करता है। जो व्यक्ति के शरीर का पोषण करता है उसे वजीकरण के रूप में जाना जाता है। यह शक्ति और शक्ति का सबसे अच्छा प्रवर्तक है। 

स्निगधं धनं पिच्छिलं च मधुरं चाविदाहि च। रेत: शुद्धं विजानीयाच्छ्वेतं स्फटिकसत्रिभम्।। (चरक संहिता 30/184)

स्फटिकाभं द्रवं स्निगधं मधुरं मधुगन्धि च। शुक्र मिच्छन्तिस केचित् तु तैलक्षौ द्रनिभं तथा।। (सुश्रुत संहिता 2/11)

अर्थात- सामान्य वीर्य क्रिस्टल जैसे तैलीय, चिपचिपा, गाढ़ा, गैर-संक्षारक होता है और शहद जैसी गंध के साथ होता है

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Source: काम-भाव की नयी व्याख्या, By Dayanand Verma

स्वप्नदोष कोई बहुत बड़ी समस्या नहीं है किन्तु इसका नियमित होने से शरीर पर बहुत ही बुरा प्रभाव पड़ता है… स्वप्नदोष खुद में कोई रोग न होकर एक प्राकृतिक क्रिया है। किशोरावस्था से युवावस्था की और बढ़ते हुए नवयुवक अनेक कारणों से स्वप्नदोष की समस्या के शिकार हो जाते है। स्वप्नदोष से परेशान युवको की यौन रूचि, अश्लील विचार, अश्लील किताबों के पढ़ने से या ऐसी कोई फिल्म देखने से उत्तेजीत हो जाते हैं और ऐसे में दिन या रात में सोते समय स्वप्नदोष हो जाता है। यौन रोग विशेषज्ञों के मुताबिक़ स्वप्नदोष अनेक कारणों से होता है जैसे हस्तमैतुन, मानसिक मैथुन, प्राकृतिक विरुद्ध मैथुन, उष्ण आहार, अश्लील वातावरण और मादक चीज़ो का अधिक सेवन से स्वप्नदोष हो जाता है। अगर महीने में 1 या 2 बार हो जाये तो घबराना नहीं चाहिए। वैसे तो स्वप्नदोष की बीमारी विवाह के पश्चात् लगभग समाप्त हो जाती है, लेकिन फिर भी समस्या रहे तो इलाज अवश्य ही कराना चाहिए।

स्वप्नदोष के कारण –

  • अश्लील कल्पनाएं- स्वप्नदोष के प्रमुख कारण अश्लील चिंतन  अश्लील फिल्म देखना व नारी स्मरण हैं। मन में भोग-विलास के वासनात्मक ख्याल या मन में काम-वासना के स्वलप्नीदोष का कारण बनते हें। हालांकि कई बार बिना सेक्स के बारे में सोचे भी स्वप्नदोष हो सकता है।
  • खराब खान-पान और पेट में कब्ज- पेट मे कब्ज रहना व नाड़ी तन्त्र की दुर्बलता भी इस समस्या के होने का कारण बन सकती है। साथ ही ज्यादा मिर्च मसालों का प्रयोग, सुस्वादु व गरिष्ठ भोजन तथा विलासता पूर्ण रहन सहन भी इस समस्या के लिए उत्तरदायी हैं। सोने से पहले जररूत से ज्यादा भोजन भी इसका कारण हो सकता है।
  • मिल्क प्रोडक्ट्स का अधिक सेवन- अधिक मात्रा में घी-दूध मेवे-मिठाई, या कई बार रात को अधिक गर्म दूध पी कर सोने के कारण पुरुषों में स्वप्नदोष हो सकता है। खाना खाने के तुरंत बाद सो जाने से भी यह हो सकता है।
  • मानसिक दबाव के कारण- कभी-कभी अचानक भय लगने के कारण भी शरीर बहुत शिथिल हो जाता है, जिस कारण शरीर के अंग प्रत्यंगो की कार्यप्रणाली पर दिमाग का कंट्रोल कम हो जाता है, फलस्वरुप ऐसे में भी स्वप्नदोष हो सकता है।

सावधानी

  • मन को पवित्र रखें।
  • ठंडे पानी से नहायें
  • रात्रि को गर्म दूध न पियें।
  • रात्रि को सोने से पूर्व अपने पांव घुटनों तक ठंडे पानी से धोकर सोएं।
  • उत्तेजना पैदा करने वाले साहित्य को न पढ़े।
  • सोने से तीन घंटे पहले खाना-पीना आदि कर ले।
  • हाथ पैर धोकर और सीधे कमर के बल सोयें।
  • सोते समय कोई अच्छी पुस्तक पढ़ सकते है, जिससे सोते समय केवल अच्छे विचार ही मष्तिष्क में रहें।
  • नियमित त्रिबंध प्राणायाम, योगासन, ब्रह्ममुहूर्त में उठने से लाभ मिलता है।
  • कब्ज होने पर तुरंत इलाज करवाएं।
  • डिनर के बाद पेशाब जरुर करें।
  • गुप्तांग की स्किन को रोजाना साफ करना चाहिए।
  • रात्रि के सोते समय ढीला वस्त्र पहनें।

आयुर्वेदिक उपाय

  • ताजी शतावर की जड़ का चूर्ण 250 ग्राम, मिश्री 250 ग्राम, दोनों को कूट-पीस लें तथा 6-11 ग्राम की मात्रा 250 ग्राम दूध के साथ सुबह-सायं लेने से स्वप्नदोष दूर होता है तथा शरीर बलवान् होता है।
  • प्याज का रस 6 ग्राम, गाय का घी 4 ग्राम और शहद 3 ग्राम प्रातः सायं चाटने से स्वप्नदोष से निजात मिलती है।
  • वीर्य को गाढ़ा करने के लिए शिरीष के बीजों का 2 ग्राम चूर्ण, 4 ग्राम शक्कर मिलाकर प्रतिदिन गरम दूध के साथ प्रातः-सायं लेने से बहुत लाभ होता है।
  • कसौंदी की मूलवक के चूर्ण को महीन पीसकर 1-4 ग्राम की मात्रा में 5-10 ग्राम मधु के साथ मिलाकर सुबह-शाम एक गिलास दूध के साथ लेने से वीर्य का पतलापन दूर होकर वीर्य पुष्ट होता है। धातु क्षय भी ठीक होता है।
  • इमली को पानी में भिगोकर इसके छिलके उतार लें। सफेद बीजों को सुखाकर बारीक चूर्ण बनाएं तथा इसे एक शीशी में बंद करके रख दें। एक चम्मच की मात्रा में दिन में तीन बार दूध के साथ सेवन करने से स्वप्न दोष नहीं होता। वीर्य का पतलापन भी दूर होता है।
  • मुंडी की ताजी जड़ों के पीसे हुए कल्क, कलईदार पीतल की कड़ाही में रखकर चैगुना काले तिल का तेल और सोलह गुना पानी डालकर पकाएं। तेल केवल शेष रहने पर छान लें। इस तेल को कामेन्द्रियों पर मालिश करने से तथा 10-30 बूंद तक पान में लगाकर दिन में 2-3 बार खाने से स्वप्नदोष में विशेष लाभ होता है। इसके साथ-साथ नपुंसकता भी दूर होती है।
  • आंवले के 20 मिलीलीटर रस में 1 ग्राम इलायची के दाने और ईसबगोल बराबर-बराबर की मात्रा में मिलाकर एक-एक चम्मच सुबह-शाम नियमित रूप से जल के साथ सेवन करने से स्वप्नदोष नहीं होता,साथ ही वीर्य भी गाढ़ा होता है।
  • बबूल की पफलियों को छाया में सुखाकर पीस लें और बराबर की मात्रा में मिश्री मिला लें। एक चम्मच की मात्रा में सुबह-शाम नियमित रूप से जल के साथ सेवन करने से स्वप्नदोष नहीं होता। साथ ही वीर्य भी गाढ़ा होता है।
  • अखरोट के छिलकों की भस्म बना लें। इसमें बराबर की मात्रा में खांड मिलाकर 10 ग्राम तक की मात्रा में जल के साथ 10 दिन प्रातः सायं सेवन करने से स्वप्नदोष दूर होता है।
  • 3 ग्राम अजवाइन को सपफेद प्याज के रस में (लगभग 10 मिलीलीटर) 3 बार 10-10 ग्राम शक्कर मिलाकर सेवन करें। 21 दिनों में पूर्ण लाभ होगा। इस प्रयोग से स्वप्नदोष के अलावा नपुंसकता, शीघ्रपतन व शुक्राणु अल्पता के रोग में भी लाभ होता है।

चरक संहिता के अनुसार उपचार

वंश लोचन और सत गिलोय 20-20 गरमा, वंग भष्म, प्रवाल भष्म और मुक्ताशुक्ति भष्म 1-1 ग्राम लेकर खरल में अत्यंत महीन करके रख लें

मात्रा – 500 मिली ग्राम तक शहद से प्रातः शाय सेबन करने से स्वपन दोष में उष्णता के कारण शु्क्र क्षय, मूत्र की गड़बड़ी आदि विकार दूर हो जाते हैं।

आयुर्वेद के अनुसार दिन का रहन-सहन, मौसम के अनुसार रहन-सहन (कौन-कौन से मौसम में क्या-क्या खाना-पीना करना चाहिए), रस वाले फलों का सेवन, संभोग क्रिया को बढ़ाने वाले पदार्थों का इस्तेमाल करने से यौन बीमारियां समाप्त हो जाती हैं और काफी लंबे समय तक ठीक यौन जीवन का भरपूर आनन्द लिया जा सकता है।

आयुर्वेद की चरक संहिता के अनुसार मनुष्य की यौन शक्ति को वाजी (घोड़े) की तरह ही बनाने की प्रक्रिया ही काम शक्ति को बढ़ाने वाली होती है। इसका इस्तेमाल करने के बाद पुरुष काम से संबंधित सभी सुखों को प्राप्त कर सकता है। काम शक्ति को बढ़ाने वाले पदार्थ तीन तरह के होते हैं- 

  • जैसे किसी अति सुंदर स्त्री को देखने व स्पर्श करने मात्र से ही वीर्य का निकलना शुरू हो जाता है।
  • अश्वगंधा, सफेद मूसली, दूध तथा घी, ये कुछ ऐसे पदार्थ होते हैं जिनका इस्तेमाल करने से ही वीर्य की बहुत अधिक बढ़ोत्तरी होती है।
  • उड़द जैसे कुछ पदार्थ ऐसे होते हैं जिसके सेवन करने पर वीर्य की बढ़ोत्तरी व वीर्य का बहना दोनों ही क्रियाएं एक साथ होती हैं।

आचार्य चरक के अनुसार सबसे ज्यादा सेक्स क्षमता को बढ़ाने वाली सबसे सुंदर स्त्री ही होती है। जिस स्त्री की उम्र, आवाज, उसका रंग-रूप, उसके शरीर की हरकतें और वह आपके विचारों के काबिल हो, ऐसी स्त्री अधिक सेक्स क्षमता को बढ़ाने वाली होती है।

यौगिक उपचार

1- अश्विनी मुद्रा और उसका फल

आकुश्चयेद् गुद्द्वारं प्रकाशयेत् पुनः पुनः।

सा भवेदश्विनी मुद्रा शक्ति प्रबोधकारिणी॥ (उप. 3 श्लोक 82 घे सं.)

अर्थ- बार बार गुह्य द्वार का आकुँचल प्रसारण करने को अश्विनी मुद्रा कहते हैं। यह मुद्रा शक्ति प्रबोधकारिणी कही जाती है।

अश्विनी परमा मुद्रा गुह्यरोग विनाशिनी।

बल पुष्टि करी चैव अकाल मरणं हरेत। (घे सं 3/83)

अर्थ- इस सर्वोत्कृष्ट अश्विनी मुद्रा साधन के प्रभाव से गुह्यरोग नष्ट होते हैं। यह बल और पुष्टि साधन करने वाली है और इसके प्रसाद से अकाल मृत्यु नहीं होती।

2- शक्तिचालन मुद्रा और उसका फल

मूलाधार पक्ष में कुण्डलिनी शक्ति दृढ़ रूप से स्वयम्भूलिंग से॥ लपेट लगाये सोती है, धीमान् योगी अपनी वायु के सहयोग से शक्तिपूर्वक इस कुण्डलिनी देवी को आकर्षण करके ऊपर को चलावें, इसको शक्ति चालन मुद्रा कहते हैं। इसके द्वारा शक्ति प्राप्त होती है। (शिव संहिता 3।105)

जो योगी (साधक) प्रतिदिन इसका अभ्यास करेंगे, उनके शरीर में धातु सम्बन्धी रोग न होगा और परमायु बढ़ेगी। (शिव संहिता 3।106)

सिंहासन पर बैठ कर दो घड़ी रोज अभ्यास करें। इस विषय में अधिक जानना हो तो घेरंड संहिता और शिव-संहिता देखिये।

पशुओं से शिक्षा

  1. अश्विनी मुद्रा क्या? अश्विनी का अर्थ है घोड़ी। घोड़ी जब पेशाब कर चुकती है, तब अपनी योनि का आकुँचन प्रसारण करती है। उसी प्रकार साधक अपने गुह्यद्वार का आकुँचन प्रसारण साधन करे।
  2. पेशाब करने का साधन-भैंसा जिस प्रकार रुक-रुक कर पेशाब करता है, उस तरह रुक-रुक कर पेशाब करे। दो सेकेंड पेशाब किया, एक सेकेंड रुक गये। फिर किया, फिर रोका इससे दुर्बल नसों में शक्ति आती है।
  3. आप ध्यान देकर विचार कीजिये कि कोई पशु दस्त और पेशाब साथ-साथ नहीं करता। यदि साथ-साथ करे तो वह रोगी समझा जाता है, परन्तु मनुष्य प्रायः ऐसा ही करते हैं। जो साधन मनुष्यों को सीखने से आते हैं, पशुओं में प्राकृतिक हैं। इसी प्रकार धातु दौर्बल्य वाला मनुष्य यदि शौच जाने से 4/6मिनट पहले पेशाब करके पीछे शौच जाया करे तो उसका स्वप्नदोष, धातुदौर्बल्य दूर हो।

आयुर्वेद- सूखे मेवे और मिठाइयां

करीब 7.8 लाख साल से इंसानी सेहत में सूखे मेवों की भूमिका अहम रही हैलेकिन आधुनिक जीवनशैली में इनके सेवन के सही तरीकों का महत्व बढ़ गया है। दीपावली के मौके पर तंदुरुस्ती का उपहार बनने वाले चुनिंदा मेवे

सूखे मेवे में बादाम, अखरोट, काजू, किशमिश, अंजीर, पिस्ता, खारिक (छुहारे), चारोली, नारियल आदि का समावेशMaster.jpg होता है। सूखे मेवे अर्थात् ताजे फलों के उत्तम भागों को सुखाकर बनाया गया पदार्थ। ताजे फलों का बारह महीनों मिलना मुश्किल है। सूखे मेवों से दूसरी ऋतु में भी फलों के उत्तम गुणों का लाभ लिया जा सकता है और उनके बिगड़ने की संभावना भी ताजे फलों की अपेक्षा कम होती है। कम मात्रा में लेने पर भी ये फलों की अपेक्षा ज्यादा लाभकारी सिद्ध होते हैं। सूखा मेवा पचने में भारी होता है। इसीलिए इसका उपयोग शीत ऋतु में किया जा सकता है क्योंकि शीत ऋतु में अन्य ऋतुओं की अपेक्षा व्यक्ति की जठराग्नि प्रबल होती है। सूखा मेवा उष्ण, स्निग्ध, मधुर, बलप्रद, वातनाशक, पौष्टिक एवं वीर्यवर्धक होता है। सूखे मेवे कोलेस्ट्रोल बढ़ाते हैं, अतः बिमारी के समय नहीं खाने चाहिए। इन सूखे मेवों में कैलोरी बहुत अधिक होती है जो शरीर को पुष्ट करने के लिए बहुत उपयोगी है। शरीर को हृष्ट पुष्ट रखने के लिए रासायनिक दवाओं की जगह सूखे मेवों का उपयोग करना ज्यादा उचित है। इनसे क्षारतत्त्व की पूर्ति भी की जा सकती है। सूखे मेवे में विटामिन ताजे फलों की अपेक्षा कम होते हैं।

  • जबरदस्त ऊर्जा और भरपूर पोषक तत्वों के कारण हमेशा से ही हमारे खानपान में मेवों की खासी अहमियत रही है। मशहूर स्वास्थ्य पत्रिका साइकोलॉजी टुडे की रिसर्च रिपोर्ट के मुताबिक मध्य-पूर्वी देशों के पाषाणकालीन अवशेषों में भी सूखे मेवों के इस्तेमाल के स्पष्ट प्रमाण मिले हैं।
  • भारत में सर्दी के मौसम के आगाज से ठीक पहले, त्योहारी मौसम में तोहफे के रूप में सूखे मेवों के लेन-देन का चलन तेजी से बढ़ रहा है क्योंकि कई लोग अब मिठाई के विकल्प के रूप में सेहतमंद मेवों पर जोर देने लगे हैं। त्योहारों के अलावा भी सेहत के प्रति बढ़ती जागरुकता की वजह से सूखे मेवे रोजमर्रा के खानपान का हिस्सा बन रहे हैं।
  • डाइटीशियन के मुताबिक, ‘पिछले कुछ वर्षो में हुई हर नई रिसर्च में सेहत के लिए मेवों के फायदे ज्यादा स्पष्ट होने की वजह से इनका उपयोग काफी बढ़ा है। दिमागी तंदुरुस्ती में मददगार होने की वजह से बादाम और अखरोट का इस्तेमाल सबसे ज्यादा होता है।
  • ओमेगा-3 की मौजूदगी और इसके फायदे मालूम होने के बाद लोग इनका काफी मात्रा में सेवन करने लगे हैं।’ इसके अलावा, मेवों के सेवन के तरीकों पर भी काफी शोध हुए हैं।
  • न्यूट्रिशियन बताते हैं, ‘सूखे मेवों का सही इस्तेमाल ही इन्हें हमारे शरीर के लिए उपयोगी बनाता है। इनकी कई किस्में हैं और तासीर अलग-अलग है, इसलिए अपनी क्षमता और जरूरत का सही आकलन करते हुए इनका उपयोग जरूरी है।’
  • खुश्क मेवे वह खाद्य श्रेणी है, जिसमें फलों की गिरी (नट्स) और सूखे हुए फल (ड्राई फ्रूट्स) होते हैं। गिरी, फलों का तैलीय बीज होती है, जैसे बादाम या अखरोट। वहीं सूखे हुए फलों, जैसे किशमिश या अंजीर को प्राकृतिक रूप से या मशीनों के जरिए सुखाकर तैयार किया जाता है।

मेवे क्यों खाने चाहिए

  • सेहतमंद आहार में मेवे शामिल करने की वजह है, इनमें एनर्जी और न्यूट्रिएंट्स के अलावा ओमेगा-थ्री फैटी एसिड का होना। जटिल इन्सानी दिमाग की रचना और विकास में ऐसे तत्वों की भूमिका महत्वपूर्ण होती है।
  • आहार विशेषज्ञों के मुताबिक, ‘नई रिसर्च में पाया गया है कि मेवों में फैट (वसा) बहुत ज्यादा होने के बावजूद ये हृदय रोग, मोटापा, डायबिटीज, कैंसर और पार्किंसन्स जैसी कई गंभीर बीमारियों का जोखिम कम करने में मददगार हैं।
  • मेवों के आहार से सोचने और समझने की ताकत में कई तरह से इजाफा होता है।’ प्रोटीन से भरपूर मेवों में फाइबर, न्यूट्रियंट्स, एंटीऑक्सिडेंट, विटामिन आदि की बहुलता होती है। मेवों में वसा या चर्बी भी अधिक होती है, लेकिन इनमें ज्यादातर ओमेगा-3 फैटी एसिड होने की वजह से यह बुरे कोलेस्ट्रॉल एलडीएल को कम करता है।
  • आयुर्वेद विशेषज्ञोंके मुताबिक, ‘मेवे मस्तिष्क एवं शरीर के टॉनिक हैं, जो उन्हें स्वस्थ एवं पुष्ट बनाते हैं। ये कई रोगों के उपचार में भी मददगार होते हैं।’ मेवे को रोजाना आहार में शामिल किया जाए, तो हृदय रोग का खतरा कम हो सकता है।
  • ताजे फलों की ही भांति, मेवों में भी विटामिन (ए, बी1, बी2, बी3, बी6 और फॉलिक एसिड), पैंटोथेनिक एसिड और मिनरल (कैल्शियम, लौह, मैग्नीशियम, फास्फोरस, पोटैशियम, सोडियम, ताम्र, मैगनीज, सेलेनियम) होते हैं।
  • ‘मेवे खाने के बाद पूरे दिन आपको अतिरिक्त कैलोरी लेने की जरूरत नहीं पड़ती।’ हानिकारक मिठास नहीं होने की वजह से मेवे मधुमेह के रोगी और डाइटिंग कर रहे लोगों के लिए भी अच्छे हैं। ये धीरे-धीरे ऊर्जा उत्पन्न करते हैं,जिससे खाना पचाने में शरीर पर भार नहीं पड़ता और खून में ग्लूकोज का स्तर भी सामान्य रहता है।

कितना खाएंकैसे पचाएं

  • आहार विशेषज्ञ यह सलाह देते रहे हैं कि प्रतिदिन मुट्ठी भर या एक-तिहाई कप विभिन्न प्रकार के मेवे लेने चाहिए। सब की मुठ्ठी का आकार अलग है। इसके अलावा, कम शारीरिक मेहनत वाली आधुनिक जीवन शैली में मेवों में मौजूद फैट्स को पूरी तरह पचा पाना कई लोगों के लिए संभव नहीं है।
  • ऐसे में हम एक दिन में मेवों के ज्यादा से ज्यादा 10 दाने खाने की सलाह देते हैं।’ विशेषज्ञों का कहना है कि सुबह नाश्ते में तले हुए स्नैक्स, बिस्कुट, केक, नमकीन पदार्थ की जगह सादे मेवे खाने चाहिए।
  • भोजन के वक्त भी सलाद में कुछ मेवे डालकर खा सकते हैं। दाल, सूप या सब्जियों में कटे हुए मेवों का इस्तेमाल कर सकते हैं। अपनी उम्र के मुताबिक रात में भिगो कर 1 से 5 बादाम, 2-3 अंजीर और कुछ किशमिश या मुनक्के दूसरे दिन सुबह खाना सेहत के लिए अच्छा है।
  • 2 से 5 अखरोट, 8-10 काजू और इतने ही पिस्ते भुन कर खाने चाहिए, लेकिन इन्हें तलना या इनमें ज्यादा नमक ठीक नहीं है। मेवों को तलने या भूनने से उनके गुण नष्ट हो जाते हैं, इसलिए इनका इस्तेमाल बिना तले करें। तवे पर फ्राइंग पेन में एक-दो मिनट के लिए गरम कर लेने से भी ये करारे हो जाते हैं।

मेवों का सेवन करते समय सावधानी भी बरतें

  • मेवे खाना अच्छा है, लेकिन बढ़िया सेहत के लिए शरीर की मशक्कत भी जरूरी है। ज्यादातर सूखे मेवों की प्रकृति गरम होती है और ठंडे मौसम में ही इनका सेवन फायदेमंद है। ज्यादा मेवा खाने से पाचन क्रिया भी बिगड़ सकती है।
  • मेवे के सेवन के तुरंत बाद पानी नहीं पीना चाहिए क्योंकि गरम-ठंडी प्रकृति का गलत मेल शरीर के लिए अच्छा नहीं होता। इसके अलावा इनमें नमक मिलाकर प्रयोग करने से इनकी कैलोरी की मात्रा बढ़ती है इसलिए इन्हें बिना नमक के ही प्रयोग करें।’
  • कुछ बच्चों को मेवे खाने से एलर्जी की समस्या होती है और इनमें से अधिकतर की वजह अखरोट या काजू होते हैं। इनके इलाज में अक्सर देर हो जाती है, इसलिए डॉक्टर से परामर्श जरूरी है। इसके अलावा, सेवन से पहले अच्छे और सेहतमंद मेवों की पहचान करना भी जरूरी है।
  • तैलीय रंग चढ़ने पर मेवा सेहतमंद नहीं रह जाता। स्वाद बिगड़ने पर भी मेवे का सेवन नहीं करना चाहिए।’ मेवे अब समृद्घि की निशानी नहीं, सेहत की जरूरत हैं, आप भी आजमाइए।

आयुर्वेद के अनुसार मेवे का महत्व

बादाम- बादाम गरम, स्निग्ध, वायु को दूर करने वाला, वीर्य को बढ़ाने वाला है। बादाम बलप्रद एवं पौष्टिक है किंतु पित्त एवं कफ को बढ़ाने वाला, पचने में भारी तथा रक्तपित्त के विकारवालों के लिए अच्छा नहीं है।

औषधि-प्रयोगः

  • शरीर पुष्टिः रात्रि को 4-5 बादाम पानी में भिगोकर, सुबह छिलके निकालकर पीस लें फिर दूध में उबालकर, उसमें मिश्री एवं घी डालकर ठंडा होने पर पियें। इस प्रयोग से शरीर हृष्ट पुष्ट होता है एवं दिमाग का विकास होता है। पढ़ने वाले विद्यार्थियों के लिए तथा नेत्रज्योति बढ़ाने के लिए भी यह एक उत्तम प्रयोग है। बच्चों को 2-3 बादाम दी जा सकती हैं। इस दूध में अश्वगंधा चूर्ण भी डाला जा सकता है।
  • बादाम का तेलः इस तेल से मालिश करने से त्वचा का सौंदर्य खिल उठता है व शरीर की पुष्टि भी होती है। जिन युवतियों के स्तनों के विकास नहीं हुआ है उन्हें रोज इस तेल से मालिश करनी चाहिए। नाक में इस तेल की 3-4 बूँदें डालने से मानसिक दुर्बलता दूर होकर सिरदर्द मिटता है और गर्म करके कान में 3-4 बूँदें डालने से कान का बहरापन दूर होता है।
  • नोटः पिस्ते के गुणधर्म बादाम जैसे ही हैं।

अखरोट- अखरोट बादाम के समान कफ व पित्त बढ़ाने वाली है। स्वाद में मधुर, स्निग्ध, शीतल, रुचिकर, भारी तथा धातु को पुष्ट करने वाली है।

औषधि प्रयोगः

  • दूध बढ़ाने के लिएः गेहूँ के आटे में अखरोट का चूर्ण मिलाकर हलवा बनाकर खाने से स्तनपान कराने वाली माताओं का दूध बढ़ता है। इस दूध में शतावरी चूर्ण भी डाला जा सकता है।
  • धातुस्रावः अखरोट की छाल के काढ़े में पुराना गुड़ मिलाकर पीने से मासिक साफ आता है और बंद हुआ मासिक भी शुरु हो जाता है।
  • दाँत साफ करने हेतुः अखरोट की छाल के चूर्ण को तिल के तेल में मिलाकर सावधानीपूर्वक दाँतों पर घिसने से दाँत सफेद होते हैं।
  • दंतमंजनः अखरोट की छाल को जलाकर उसका 100 ग्राम चूर्ण, कंटीला 10 ग्राम, मुलहठी का चूर्ण 50 ग्राम, कच्ची फिटकरी का चूर्ण 5 ग्राम एवं वायवडिंग का चूर्ण 10 ग्राम लें। इस चूर्ण में सुगन्धित कपूर मिला लें। इस मंजन से दाँतों का सड़ना रुकता है एवं दाँतों से खून निकलता हो तो बंद हो जाता है।
  • अखरोट का तेलः चेहरे पर अखरोट के तेल की मालिश करने से चेहरे का लकवा मिटता है।
  • इस तेल के प्रयोग से कृमि नष्ट होते हैं। दिमाग की कमजोरी, चक्कर आना आदि दूर होते हैं। चश्मा हटाने के लिए आँखों के बाहर इस तेल की मालिश करें।

काजू- काजू पचने में हलका होने के कारण अन्य सूखे मेवों से अलग है। यह स्वाद में मधुर एवं गुण में गरम है अतः इसे किशमिश के साथ मिलाकर खायें। कफ तथा वातशामक, शरीर को पुष्ट करने वाला, पेशाब साफ लाने वाला, हृदय के लिए हितकारी तथा मानसिक दुर्बलता को दूर करने वाला है।

औषधि-प्रयोगः

  • मानसिक दुर्बलताः 5-7 काजू सुबह शहद के साथ खायें। बच्चों को 2-3 काजू खिलाने से उनकी मानसिक दुर्बलता दूर होती है।
  • वायुः घी में भुने हुए काजू पर काली मिर्च, नमक डालकर खाने से पेट की वायु नष्ट होती है।
  • काजू का तेलः यह तेल खूब पौष्टिक होता है। यह कृमि, कोढ़, शरीर के काले मस्से, पैर की बिवाइयों एवं जख्म में उपयोगी है।
  • मात्राः 4 से 5 ग्राम तेल लिया जा सकता है।
  • मात्राः काजू गरम होने से 7 से ज्यादा न खायें। गर्मी में एवं पित्त प्रकृतिवालों को इसका उपयोग सावधानीपूर्वक करना चाहिए।

अंजीर- अंजीर की लाल, काली, सफेद और पीली– ये चार प्रकार की जातियाँ पायी जाती हैं। इसके कच्चे फलों की सब्जी बनती है। पके अंजीर का मुरब्बा बनता है। अधिक मात्रा में अंजीर खाने से यकृत एवं जठर को नुकसान होता है। बादाम खाने से अंजीर के दोषों का शमन होता है।

अंजीर में विटामिन ए होता है जिससे वह आँख के कुदरती गीलेपन को बनाये रखता है। सूखे अंजीर में उपर्युक्त गुणों के अलावा शरीर को स्निग्ध करने, वायु की गति को ठीक करने एवं श्वास रोग का नाश करने के गुण भी विद्यमान होते हैं। अंजीर के बादाम एवं पिस्ता के साथ खाने से बुद्धि बढ़ती है और अखरोट के साथ खाने से विष-विकार नष्ट होता है। किसी बालक ने काँच, पत्थर अथवा ऐसी अन्य कोई अखाद्य ठोस वस्तु निगल ली हो तो उसे रोज एक से दो अंजीर खिलायें। इससे वह वस्तु मल के साथ बाहर निकल जायेगी। अंजीर चबाकर खाना चाहिए। सभी सूखे मेवों में देह को सबसे ज्यादा पोषण देने वाला मेवा अंजीर है। इसके अलावा यह देह की कांति तथा सौंदर्य बढ़ाने वाला है। पसीना उत्पन्न करता है एवं गर्मी का शमन करता है।

औषधि-प्रयोगः

  • रक्त की शुद्धि व वृद्धिः 3-4 नग अंजीर को 200 ग्राम दूध में उबालकर रोज पीने से रक्त की वृद्धि एवं शुद्धि, दोनों होती है। इससे कब्जियत भी मिटती है।
  • रक्तस्रावः कान, नाक, मुँह आदि से रक्तस्राव होता हो तो 5-6 घंटे तक 2 अंजीर भिगोकर रखें और पीसकर उसमें दुर्वा का 20-25 ग्राम रस और 10 ग्राम मिश्री डालकर सुबह-शाम पियें। ज्यादा रक्तस्राव हो तो खस एवं धनिया के चूर्ण को पानी में पीसकर ललाट पर एवं हाथ-पैर के तलवों पर लेप करें। इससे लाभ होता है।
  • मंदाग्नि एवं उदररोगः जिनकी पाचनशक्ति मंद हो, दूध न पचता हो उन्हें 2 से 4 अंजीर रात्रि में पानी में भिगोकर सुबह चबाकर खाने चाहिए एवं वही पानी पी लेना चाहिए
  • कब्जियतः प्रतिदिन 5 से 6 अंजीर के टुकड़े करके 250 मि.ली. पानी में भिगो दें। सुबह उस पानी को उबालकर आधा कर दें और पी जायें। पीने के बाद अंजीर चबाकर खायें तो थोड़े ही दिनों में कब्जियत दूर होकर पाचनशक्ति बलवान होगी। बच्चों के लिए 1 से 3 अंजीर पर्याप्त हैं। आधुनिक विज्ञान के मतानुसार अंजीर बालकों की कब्जियत मिटाने के लिए विशेष उपयोगी है। कब्जियत के कारण जब मल आँतों में सड़ने लगता है, तब उसके जहरीले तत्त्व रक्त में मिल जाते हैं और रक्तवाही धमनियों में रुकावट डालते हैं, जिससे शरीर के सभी अंगों में रक्त नहीं पहुँचता। इसके फलस्वरूप शरीर कमजोर हो जाता है तथा दिमाग, नेत्र, हृदय, जठर, बड़ी आँत आदि अंगों में रोग उत्पन्न हो जाते हैं। शरीर दुबला-पतला होकर जवानी में ही वृद्धत्व नज़र आने लगता है। ऐसी स्थिति में अंजीर का उपयोग अत्यंत लाभदायी होता है। यह आँतों की शुद्धि करके रक्त बढ़ाता है एवं रक्त परिभ्रमण को सामान्य बनाता है।
  • बवासीरः 2 से 4 अंजीर रात को पानी में भिगोकर सुबह खायें और सुबह भिगोकर शाम को खायें। इस प्रकार प्रतिदिन खाने से खूनी बवासीर में लाभ होता है। अथवा अंजीर, काली द्राक्ष (सूखी), हरड़ एवं मिश्री को समान मात्रा में लें। फिर उन्हें कूटकर सुपारी जितनी बड़ी गोली बना लें। प्रतिदिन सुबह-शाम 1-1 गोली का सेवन करने से भी लाभ होता है।
  • बहुमूत्रताः जिन्हें बार-बार ज्यादा मात्रा में ठंडी व सफेद रंग का पेशाब आता हो, कंठ सूखता हो, शरीर दुर्बल होता जा रहा हो तो रोज प्रातः काल 2 से 4 अंजीर खाने के बाद ऊपर से 10 से 15 ग्राम काले तिल चबाकर खायें। इससे आराम मिलता है।
  • मूत्राल्पताः 1 या 2 अंजीर में 1 या 2 ग्राम कलमी सोडा मिलाकर प्रतिदिन सुबह खाने से मूत्राल्पता में लाभ होता है।
  • श्वास (गर्मी का दमा)- 6 ग्राम अंजीर एवं 3 ग्राम गोरख इमली का चूर्ण सुबह-शाम खाने से लाभ होता है। श्वास के साथ खाँसी भी हो तो इसमें 2 ग्राम जीरे का चूर्ण मिलाकर लेने से ज्यादा लाभ होगा।
  • कृमिः अंजीर रात को भिगो दें, सुबह खिलायें। इससे 2-3 दिन में ही लाभ होता है।

गुणधर्मः पके, ताजे अंजीर गुण में शीतल, स्वाद में मधुर, स्वादिष्ट एवं पचने में भारी होते हैं। ये वायु एवं पित्तदोष का शमन एवं रक्त की वृद्धि करते हैं। ये रस एवं विपाक में मधुर एवं शीतवीर्य होते हैं। भारी होने के कारण कफ,मंदाग्नि एवं आमवात के रोगों की वृद्धि करते हैं। ये कृमि, हृदयपीड़ा, रक्तपित्त, दाह एवं रक्तविकारनाशक हैं। ठंडे होने के कारण नकसीर फूटने में, पित्त के रोगों में एवं मस्तक के रोगों में विशेष लाभप्रद होते हैं।

मात्राः 2 से 4 अंजीर खाये जा सकते हैं। भारी होने से इन्हें ज्यादा खाने पर सर्दी, कफ एवं मंदाग्नि हो सकती है।

चारोली- चारोली बादाम की प्रतिनिधि मानी जाती है। जहाँ बादाम न मिल सकें वहाँ चारोली का प्रयोग किया जा सकता है। चारोली स्वाद में मधुर, स्निग्ध, भारी, शीतल एवं हृद्य (हृदय को रुचने वाली) है। देह का रंग सुधारने वाली, बलवर्धक,वायु-दर्दनाशक एवं शिरःशूल को मिटाने वाली है।

औषधि-प्रयोगः

  • सौंदर्य वृद्धिः चारोली को दूध में पीसकर मुँह पर लगाने से काले दाग दूर होकर त्वचा कांतिमान बनती है।
  • खूनी दस्तः 5-10 ग्राम चारोली को पीसकर दूध के साथ लेने से रक्तातिसार (खूनी दस्त) में लाभ होता है।
  • शीतपित्तः चारोली को दूध में पीसकर शीतपित्त (त्वचा पर लाल चकते) पर लगायें।
  • नपुंसकताः गेहूँ के आटे के हलुए में 5-10 चारोली डालकर खाने से नपुंसकता में लाभ होता है।
  • चारोली का तेलः बालों को काला करने के लिए उपयोगी है।

खजूर- पकी हुई खजूर मधुर, पौष्टिक, वीर्यवर्धक, पचने में भारी होती है। यह वातयुक्त पित्त के विकारों में लाभदायक है। खारिक के गुणधर्म खजूर जैसे ही हैं। आधुनिक मतानुसार 100 ग्राम खजूर में 10.6 मि.ग्रा. लौह तत्त्व, 600 यूनिट कैरोटीन, 800 यूनिट कैलोरी के अलावा विटामिन बी-1, फास्फोरस एवं कैल्शियम भी पाया जाता है।

औषधि प्रयोगः

  • अरुचिः अदरक, मिर्च एवं सेंधा नमक आदि डालकर बनायी गयी खजूर की चटनी खाने से भूख खुलकर लगती है। पाचन ठीक से होता है और भोजन के बाद होने वाली गैस की तकलीफ भी दूर होती है।
  • कृशताः गुठली निकाली हुई 4-5 खजूर को मक्खन, घी या दूध के साथ रोज लेने से कृशता दूर होती है, शरीर में शक्ति आती है और शरीर की गर्मी दूर होती है। बच्चों को खजूर न खिलाकर खजूर को पानी में पीसकर तरल करके दिन में 2-3 बार देने से वे हृष्ट-पुष्ट होते हैं।
  • रक्ताल्पता (पांडू)- घी युक्त दूध के साथ रोज योग्य मात्रा में खजूर का उपयोग करने से खून की कमी दूर होती है।
  • शराब का नशाः ज्यादा शराब पिये हुए व्यक्ति को पानी में भिगोयी हुई खजूर मसलकर पिलानी चाहिए।
  • मात्राः एक दिन में 5 से 10 खजूर ही खानी चाहिए।
  • सावधानीः खजूर पचने में भारी और अधिक खाने पर गर्म पड़ती है। अतः उसका उपयोग दूध-घी अथवा मक्खन के साथ करना चाहिए। पित्त के रोगियों को खजूर घी में सेंककर खानी चाहिए। शरीर में अधिक गर्मी होने पर वैद्य की सलाह के अनुसार ही खजूर खावें।

आयुर्वेद के अनुसार किस ऋतु में क्या खाना चाहिए और क्या नहीं…

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सभारAyurveda Aur Swastha Jeevan By T L Devraj

आयुर्वेद के अनुसार किस ऋतु में कौन सा पकवान और मिष्ठान लाभदायक होता है…

वसंत ऋतु

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वसंत का असली आनंद जब वन में से गुजरते हैं तब उठाया जा सकता है। रंग-बिरंगे पुष्पों से आच्छादित वृक्ष….. शीतल एवं मंद-मंद बहती वायु….. प्रकृति मानों, पूरी बहार में होती है। ऐसे में सहज ही प्रभु का स्मरण हो आता है, सहज ही में ध्यानावस्था में पहुँचा जा सकता है। ऐसी सुंदर वसंत ऋतु में आयुर्वेद ने खान-पान में संयम की बात कहकर व्यक्ति एवं समाज की नीरोगता का ध्यान रखा है।

जिस प्रकार पानी अग्नि को बुझा देता है वैसे ही वसंत ऋतु में पिघला हुआ कफ जठराग्नि को मंद कर देता है। इसीलिए इस ऋतु में लाई, भूने हुए चने, ताजी हल्दी, ताजी मूली, अदरक, पुरानी जौ, पुराने गेहूँ की चीजें खाने के लिए कहा गया है। इसके अलावा मूँग बनाकर खाना भी उत्तम है। नागरमोथ अथवा सोंठ डालकर उबाला हुआ पानी पीने से कफ का नाश होता है। देखो, आयुर्वेद विज्ञान की दृष्टि कितनी सूक्ष्म है !

मन को प्रसन्न करें एवं हृदय के लिए हितकारी हों ऐसे आसव, अरिष्ट जैसे कि मध्वारिष्ट, द्राक्षारिष्ट, गन्ने का रस, सिरका आदि पीना इस ऋतु में लाभदायक है।

वसंत में आने वाला होली का त्यौहार पर मुख्य मिठाईयां- गुजिया, गुलाब जामुनतिल के लड्डूशकरपारेकलाकंद बालूशाही, कांजी बड़े

ठंडाई- ठंडाई ऐसा पेय पदार्थ है जो कि होली का मजा दुगुना कर देता हैं। ठंडाई को कई तरह से बनाया जा सकता हैं। इसमें बादाम, पिस्ताह, केसर, गुलाब की पत्तियों और कई मसालों को आराम से मिक्सा किया जा सकता है। ठंडाई में खरबूजे के बीज भी मिलाए जा सकते हैं ये ठंडाई का मजा दुगुना कर देते हैं। ठंडाई को बनाने में विशष बात है कि आप चाहे तो ठंडाई के पाउडर को पहले ही तैयार कर सकते हैं और जब भी ठंडाई बनानी हो तो ठंडे दूध में इसे मिलाकर सर्व किया जा सकता है

ग्रीष्म ऋतु

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वसंत ऋतु की समाप्ति के बाद ग्रीष्म ऋतु का आगमन होता है। अप्रैल, मई तथा जून के प्रारंभिक दिनों का समावेश ग्रीष्म ऋतु में होता है। इन दिनों में सूर्य की किरणें अत्यंत उष्ण होती हैं। इनके सम्पर्क से हवा रूक्ष बन जाती है और यह रूक्ष-उष्ण हवा अन्नद्रव्यों को सुखाकर शुष्क बना देती है तथा स्थिर चर सृष्टि में से आर्द्रता, चिकनाई का शोषण करती है। इस अत्यंत रूक्ष बनी हुई वायु के कारण, पैदा होने वाले अन्न-पदार्थों में कटु, तिक्त, कषाय रसों का प्राबल्य बढ़ता है और इनके सेवन से मनुष्यों में दुर्बलता आने लगती है। शरीर में वातदोष का संचय होने लगता है। अगर इन दिनों में वातप्रकोपक आहार-विहार करते रहे तो यही संचित वात ग्रीष्म के बाद आने वाली वर्षा ऋतु में अत्यंत प्रकुपित होकर विविध व्याधियों को आमंत्रण देता है। आयुर्वेद चिकित्सा-शास्त्र के अनुसार ‘चय एव जयेत् दोषं।’ अर्थात् दोष जब शरीर में संचित होने लगते हैं तभी उनका शमन करना चाहिए। अतः इस ऋतु में मधुर, तरल, सुपाच्य, हलके,जलीय, ताजे, स्निग्ध, शीत गुणयुक्त पदार्थों का सेवन करना चाहिए। जैसे कम मात्रा में श्रीखंड, घी से बनी मिठाइयाँ, आम, मक्खन, मिश्री आदि खानी चाहिए। इस ऋतु में प्राणियों के शरीर का जलीयांश कम होता है जिससे प्यास ज्यादा लगती है। शरीर में जलीयांश कम होने से पेट की बीमारियाँ, दस्त, उलटी, कमजोरी, बेचैनी आदि परेशानियाँ उत्पन्न होती हैं। इसलिए ग्रीष्म ऋतु में कम आहार लेकर शीतल जल बार-बार पीना हितकर है।

आहारः ग्रीष्म ऋतु में साठी के पुराने चावलगेहूँदूधमक्खनगुलाब का शरबत, आमपन्ना से शरीर में शीतलतास्फूर्ति तथा शक्ति आती है। सब्जियों में लौकीगिल्कीपरवलनींबूकरेलाकेले के फूलचौलाईहरी ककड़ीहरा धनिया,पुदीना और फलों में द्राक्षतरबूजखरबूजाएक-दो-केलेनारियलमौसमीआमसेबअनारअंगूर का सेवन लाभदायी है। इस ऋतु में तीखे, खट्टे, कसैले एवं कड़वे रसवाले पदार्थ नहीं खाने चाहिए। नमकीन, रूखा, तेज मिर्च-मसालेदार तथा तले हुए पदार्थ, बासी एवं दुर्गन्धयुक्त पदार्थ, दही, अमचूर, आचार, इमली आदि न खायें। गरमी से बचने के लिए बाजारू शीत पेय (कोल्ड ड्रिंक्स), आइस क्रीम, आइसफ्रूट, डिब्बाबंद फलों के रस का सेवन कदापि न करें। इनके सेवन से शरीर में कुछ समय के लिए शीतलता का आभास होता है परंतु ये पदार्थ पित्तवर्धक होने के कारण आंतरिक गर्मी बढ़ाते हैं। इनकी जगह कच्चे आम को भूनकर बनाया गया मीठा पनापानी में नींबू का रस तथा मिश्री मिलाकर बनाया गया शरबतजीरे की शिकंजीठंडाईहरे नारियल का पानीफलों का ताजा रसदूध और चावल की खीरगुलकंद आदि शीत तथा जलीय पदार्थों का सेवन करें। इससे सूर्य की अत्यंत उष्ण किरणों के दुष्प्रभाव से शरीर का रक्षण किया जा सकता है।

वर्षा ऋतु

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वर्षा ऋतु में वायु का विशेष प्रकोप तथा पित्त का संचय होता है। वर्षा ऋतु में वातावरण के प्रभाव के कारण स्वाभाविक ही जठराग्नि मंद रहती है, जिसके कारण पाचनशक्ति कम हो जाने से अजीर्ण, बुखार, वायुदोष का प्रकोप, सर्दी,खाँसी, पेट के रोग, कब्जियत, अतिसार, प्रवाहिका, आमवात, संधिवात आदि रोग होने की संभावना रहती है। इन रोगों से बचने के लिए तथा पेट की पाचक अग्नि को सँभालने के लिए आयुर्वेद के अनुसार उपवास तथा लघु भोजन हितकर है। इसलिए हमारे आर्षदृष्टा ऋषि-मुनियों ने इस ऋतु में अधिक-से-अधिक उपवास का संकेत कर धर्म के द्वारा शरीर के स्वास्थ्य का ध्यान रखा है। इस ऋतु में जल की स्वच्छता पर विशेष ध्यान दें। जल द्वारा उत्पन्न होने वाले उदर-विकार, अतिसार, प्रवाहिका एवं हैजा जैसी बीमारियों से बचने के लिए पानी को उबालें, आधा जल जाने पर उतार कर ठंडा होने दें, तत्पश्चात् हिलाये बिना ही ऊपर का पानी दूसरे बर्तन में भर दें एवं उसी पानी का सेवन करें। जल को उबालकर ठंडा करके पीना सर्वश्रेष्ठ उपाय है। आजकल पानी को शुद्ध करने हेतु विविध फिल्टर भी प्रयुक्त किये जाते हैं। उनका भी उपयोग कर सकते हैं। पीने के लिए और स्नान के लिए गंदे पानी का प्रयोग बिल्कुल न करें क्योंकि गंदे पानी के सेवन से उदर व त्वचा सम्बन्धी व्याधियाँ पैदा हो जाती हैं।

आहारः इस ऋतु में वात की वृद्धि होने के कारण उसे शांत करने के लिए मधुर, अम्ल व लवण रसयुक्त, हलके व शीघ्र पचने वाले तथा वात का शमन करने वाले पदार्थों एवं व्यंजनों से युक्त आहार लेना चाहिए। सब्जियों में मेथी, सहिजन, परवल,लौकी, सरगवा, बथुआ, पालक एवं सूरन हितकर हैं।

सेवफलमूँगगरम दूधलहसुनअदरकसोंठअजवायनसाठी के चावलपुराना अनाजगेहूँचावलजौखट्टे एवं खारे पदार्थदलियाशहदप्याजगाय का घीतिल एवं सरसों का तेलमहुए का अरिष्टअनारद्राक्ष का सेवन लाभदायी है।

मालपूएगुलगुलेकसार जैसे स्वादिस्ट पकवान विशेष रूप से त्यौहारोंवर्षा ऋतु अथवा सावन के महीनों में बनाए जाते थे

शरद ऋतु

भाद्रपद एवं आश्विन ये शरद ऋतु के दो महीने हैं। शरद ऋतु स्वच्छता के बारे में सावधान रहने की ऋतु है अर्थात् इस मौसम में स्वच्छता रखने की खास जरूरत है। रोगाणाम् शारदी माताः। अर्थात् शरद ऋतु रोगों की माता है। शरद ऋतु में स्वाभाविक रूप से ही पित्तप्रकोप होता है। इससे इन दो महीनों में ऐसा ही आहार एवं औषधी लेनी चाहिए जो पित्त का शमन करे। मध्याह्न के समय पित्त बढ़ता है। तीखे नमकीन, खट्टे, गरम एवं दाह उत्पन्न करने वाले द्रव्यों का सेवन, मद्यपान, क्रोध अथवा भय, धूप में घूमना, रात्रि-जागरण एवं अधिक उपवास – इनसे पित्त बढ़ता है। दही, खट्टी छाछ, इमली, टमाटर, नींबू, कच्चे आम, मिर्ची, लहसुन, राई, खमीर लाकर बनाये गये व्यंजन एवं उड़द जैसी चीजें भी पित्त की वृद्धि करती हैं। इस ऋतु में पित्तदोष की शांति के लिए ही शास्त्रकारों द्वारा खीर खाने, घी का हलवा खाने तथा श्राद्धकर्म करने का आयोजन किया गया है। इसी उद्देश्य से चन्द्रविहार, गरबा नृत्य तथा शरद पूर्णिमा के उत्सव के आयोजन का विधान है। गुड़ एवं घूघरी (उबाली हुई ज्वार-बाजरा आदि) के सेवन से तथा निर्मल, स्वच्छ वस्त्र पहन कर फूल, कपूर, चंदन द्वारा पूजन करने से मन प्रफुल्लित एवं शांत होकर पित्तदोष के शमन में सहायता मिलती है।

गुड़ का शीराधृतकुमारी (एलोए वेरा) या तिल की मिठाइयां शरद ऋतु में लाभदायक हैं।

शरदपूनम की शीतल रात्रि छत पर चन्द्रमा की किरणों में रखी हुई दूध-पोहे अथवा दूध-चावल की खीर सर्वप्रियपित्तशामकशीतल एवं सात्त्विक आहार है। इस रात्रि में ध्यानभजनसत्संगकीर्तनचन्द्रदर्शन आदि शारीरिक व मानसिक आरोग्यता के लिए अत्यंत लाभदायक है।

शीत ऋतु

शीत ऋतु (दिसंबर-जनवरी) में उपयुक्त आहार

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शीत ऋतु के अंतर्गत हेमंत और शिशिर ऋतु आते हैं। यह ऋतु विसर्गकाल अर्थात् दक्षिणायन काअंतकाल कहलाती है। इस काल में चन्द्रमा की शक्ति सूर्य की अपेक्षा अधिक प्रभावशाली होती है। इसलिए इस ऋतु में औषधियाँ, वृक्ष, पृथ्वी की पौष्टिकता में भरपूर वृद्धि होती है व जीव जंतुभी पुष्ट होते हैं। इस ऋतु में शरीर में कफ का संचय होता है तथा पित्तदोष का नाश होता है। शीत ऋतु में स्वाभाविक रूप से जठराग्नि तीव्र रहती है, अतः पाचन शक्ति प्रबल रहती है। ऐसाइसलिए होता है कि हमारे शरीर की त्वचा पर ठंडी हवा और हवा और ठंडे वातावरण का प्रभावबारंबारपड़ते रहने से शरीर के अंदर की उष्णता बाहर नहीं निकल पाती और अंदर ही अंदर इकट्ठी होकर जठराग्नि को प्रबल करती है। अतः इस समय लिया गया पौष्टिक और बलवर्धक आहार वर्षभर शरीर को तेज, बल और पुष्टि प्रदान करता है। इस ऋतु में एक स्वस्थ व्यक्ति को अपनी सेहतकी तंदरूस्ती के लिए किस प्रकार का आहार लेना चाहिए ? शरीर की रक्षा कैसे करनी चाहिए ? आइये, उसे हम जानें-

शीत ऋतु में खारा तथा मधु रसप्रधान आहार लेना चाहिए।पचने में भारी, पौष्टिकता से भरपूर, गरम व स्निग्ध प्रकृति के घी से बने पदार्थों का यथायोग्य सेवन करना चाहिए। वर्षभर शरीर की स्वास्थ्य-रक्षा हेतु शक्ति का भंडार एकत्रित करने के लिए उड़दपाक, सालमपाक, सोंठपाक जैसेवाजीकारक पदार्थों अथवा च्यवनप्राश आदि का उपयोग करना चाहिए।

मौसमी फल व शाक, दूध, रबड़ी, घी, मक्खन, मट्ठा, शहद, उड़द, खजूर, तिल, खोपरा, मेथी, पीपर, सूखा मेवा तथा चरबी बढ़ाने वाले अन्य पौष्टिक पदार्थ इस ऋतु में सेवन योग्य माने जाते हैं। प्रातः सेवन हेतु रात को भिगोये हुए कच्चे चने (खूब चबाकर खाये), मूँगफली, गुड़, गाजर, केला, शकरकंद, सिंघाड़ा, आँवला आदि कम खर्च में सेवन किये जाने वाले पौष्टिक पदार्थ हैं।

शीत ऋतु में उपयोगी पाक- अदरक पाकखजूर पाकबादाम पाकमेथी पाकसूंठी पाकअंजीर पाकअश्वगंधा पाक

शीतकाल में पाक का सेवन अत्यंत लाभदायक होता है। पाक के सेवन से रोगों को दूर करने में एवं शरीर में शक्ति लाने में मदद मिलती है। स्वादिष्ट एवं मधुर होने के कारण रोगी को भी पाक का सेवन करने में उबान नहीं आती। पाक में डाली जाने वाली काष्ठ-औषधियों एवं सुगंधित औषधियों का चूर्ण अलग-अलग करके उन्हें कपड़छान कर लेना चाहिए। किशमिश, बादाम, चारोली, खसखस, पिस्ता, अखरोट, नारियल जैसी वस्तुओं के चूर्ण को कपड़छन करने की जरूरत नहीं है। उन्हें तो थोड़ा-थोड़ा कूटकर ही पाक में मिला सकते हैं।

भारत में मिठाइयों की भरमार है। उनमें से कुछ प्रसिद्ध मिठाइयां –

  • अनरसा
  • अनरसे
  • इमरती
  • कलाकंद
  • काजू कतली
  • कालाजाम
  • केसरी छेना किशमिश वाला
  • खाजा
  • गज़क
  • गुझिया
  • गुलाब जामुन
  • घेवर
  • चमचम
  • जलेबी
  • तिरंगी बर्फ़ी
  • तिलकुट
  • दाल हलवा
  • दूधपाक
  • नारियल बर्फ़ी
  • परवल की मिठाई
  • पुआ
  • पेठा (मिठाई)
  • पेड़ा
  • फीरनी
  • बर्फ़ी
  • बसुंडी
  • बादाम की बर्फ़ी
  • बालूशाही
  • मगदल
  • मलाईपान
  • मालपुआ
  • मिठाई
  • मैसूर पाक
  • मोतीचूर
  • मोदक
  • रबड़ी
  • रसखीर
  • रसगुल्ला
  • रसमलाई
  • राजभोग
  • लड्डू
  • लापसी
  • शकरपारे
  • श्रीखंड
  • संदेश-मिठाई
  • सिंगोरी
  • सोहन पापड़ी
  • सोहन हलवा

आ अब लौट चलें जड़ों की ओर

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आयुर्वेद के साथ बड़ा हुआ हूं मैं. मेरे पिता वैद्य चंद्र प्रकाश अपना दवाखाना चलाते थे और मेरी माता शशि मुखी के सक्रिय सहयोग से धातुओं पर आधारित आयुर्वेदिक दवाइयां घर पर ही तैयार करते थे. घर पर भोजन विविधतापूर्ण और मौसम के अनुरूप होता थाः  गर्मियों के पर्व बुद्ध पूर्णिमा के बाद गेहूं, जौ और चने की बनी चपातियां; गर्मियों में गुड़ के साथ छाछ; वर्षा ऋतु में पत्तियों या जड़ों वाली सब्जी बिल्कुल नहीं; शरद ऋतु में मक्का और चावल, और सर्दियों के चार महीनों में बाजरा-ज्‍वार-चावल, गुड़ का शीरा, धृतकुमारी (एलोए वेरा) या तिल की मिठाइयां, हरी पत्तेदार सब्जियां और मेवे.

आयुर्वेद के शास्त्र मेरे सबसे पसंदीदा मित्र थे. मैं भाव प्रकाश पर मोहित था, जिसने मनुष्य के स्वास्थ्य के लिए भोजन की ओर इशारा किया था. मुझे मद्य या एल्कोहल के बारे में पता चला कि अगर उसे सीमित मात्रा में, समय पर, आयु और मौसम के अनुरूप लिया जाए, तो वह लाभकारी हो सकता है. मैं उन प्राचीन गुरुओं को नमन करता हूं, जिन्होंने अपने ज्ञान को संकलित किया.

लेकिन कॉलेज पहुंचने पर मैंने पाया कि आयुर्वेद में किसी की भी रुचि शायद ही रही हो. छात्रों और शिक्षकों का ध्यान पूरी तरह पश्चिमी दवाइयों पर था. चूंकि मैंने अपने पिता के दवाखाने में असाध्य रोगों का चमत्कारी उपचार होते हुए कई बार देखा था, इसलिए विज्ञान में ग्रेजुएशन करने के बाद मैं आयुर्वेद की ओर बढ़ा. मेरा लक्ष्य आयुर्वेद को मुख्यधारा की दवाइयों के साथ जोड़ना था. यह जरूर कहना चाहूंगा कि यह एक मुश्किल और एकाकी सफर था.

हमारा प्राचीन चिकित्सा विज्ञान आयुर्वेद तीन मूलभूत सिद्धांतों पर जोर देता है-आहार या खुराक, विहार या लाइफस्टाइल और औषध या दवाई. आपको असंगत या विरुद्ध भोजन लेने से बचना चाहिए. अतः भोजन देश विरुद्ध या क्षेत्र के विपरीत हो सकता है. अगर आप शुष्क क्षेत्र में रहते हैं, तो शुष्क या तीखा भोजन न लें, या अगर दलदली इलाके में रहते हैं, तो चिकनाई वाला भोजन न लें.

काल या मौसम के विपरीत न जाएं. हिमालय की तलहटियों के सेब अगर गर्मियों के चरम दिनों में दक्षिण या मध्य भारत में खाए जाएंगे, तो उसका कोई लाभ नहीं होगा. अधेड़ और बुजुर्ग अवस्था में वसा और प्रोटीन से भरपूर आहार लेना आयु विरुद्ध होगा.

भोजन की मात्रा भी महत्वपूर्ण है. आपके भोजन का 25 फीसदी ठोस, 25 फीसदी जल और शेष वायु होनी चाहिए. अगर ज्‍यादा कैलोरी वाला भोजन है, तो यह प्रत्येक का एक-तिहाई होना चाहिए.

आयुर्वेद कहता है कि मात्रा विरुद्ध भोजन के विपरीत प्रभाव हो सकतेहैं. बेमेल या संयोग विरुद्ध भोजन न करें. जैसे मूली, नमक, दही और दूध के साथ मछली के संयोग से शरीर को नुकसान होने की संभावना होती है. इसी तरह स्वभाव विरुद्ध भोजन न लें, जिससे एलर्जी पैदा हो सकती है. जैसे आंवला भोजन और दवाइयों में व्यापक तौर पर प्रयुक्त होता है, लेकिन उससे कुछ लोगों को एलर्जी हो सकती है.

आयुर्वेद में उस उन्मुक्त और लापरवाह भोजन के प्रति आगाह किया गया है, जिसे अब आधुनिक भारत ने अपना लिया है. असमय भोजन की आदत, जैसे दो बार के भोजन के बीच काफी लंबा अंतराल होना अनशन कहलाता है, लगातार खाते जाने को अध्याशन कहते हैं. किसी के भी साथ कुछ भी, किसी भी समय, और बेमेल मात्रा में,डीप-फ्राइड और बार-बार गर्म किया गया भोजन-जो शरीर में अम्ल और क्षार का संतुलन बिगाड़ता है और बीमारियां पैदा करता है-मिथ्या आहार कहलाता है.

दुनियाभर में संस्कृति और धार्मिक विश्वास भोजन के तरीकों को प्रभावित करते हैं और विभिन्न प्रकार के आहारों के विकसित होने में मददगार होते हैं. सदियों से चली आ रही भोजन प्रणालियों से परे जाने के कारण लोगों के सामने जीवन शैली संबंधी खतरनाक परेशानियां पैदा

हो रही हैं. परंपरागत पद्धतियों को अपनाना कठिन हो सकता है, लेकिन अपनी भोजन संबंधी विरासत को भूल जाने से कोई लाभ नहीं हो सकता है. हमें विरासत में भोजन की जो भारतीय संस्कृति मिली है, उसका पालन करते हुए अपनी जीवन शैली और भोजन की आदतों को बदलने की जरूरत है.

देहरादून में वैद्य चंद्र प्रकाश कैंसर रिसर्च फाउंडेशन के संस्थापक-निदेशक  हैं. पश्चिमी विज्ञान के साथ तालमेल से आयुर्वेद आधारित नए नुस्खों के शोध और विकास में सक्रिय तौर पर शामिल हैं. उन्होंने लीवर की गड़बड़ियों के लिए एक नुस्खा प्राक-20विकसित किया है. दिल्ली स्थित धर्मशिला कैंसर हॉस्पिटल ऐंड रिसर्च सेंटर में कंसल्टेंट वैद्य बालेंदु प्रकाश कैंसर के क्षेत्र में भी अपने काम के लिए जाने जाते हैं.

आयुर्वेद अनुसार भोजन के तीन प्रकार

इसमें सभी प्रकार के पकवान, व्यंजन, मिठाइयाँ, अधिक मिर्च-मसालेदार वस्तुएँ, नाश्ते में शामिल आधुनिक सभी पदार्थ, शक्तिवर्धक दवाएँ, चाय, कॉफी, कोको, सोडा, पान, तंबाकू, मदिरा एवं व्यसन की सभी वस्तुएँ शामिल हैं।  हर व्यक्ति का खान-पानउसके संस्कार और संस्कृति के अनुसार होता है। खान-पान में युगों से जो पदार्थ प्रयोग किए जाते रहे हैं, आज भी उन्हीं पदार्थों का इस्तेमाल किया जाता है। यह अवश्य है कि इन विभिन्न खाद्य पदार्थों में कुछ ऐसे हैं जो बहुत फायदेमंद होते हैं, तो कुछ ऐसेजो बेहद नुकसानदायक होते हैं। इसी आधार पर प्राचीनकाल में वैद्यों ने आहार को मुख्य रूप से तीन प्रकारों में बाँटा था-

सात्विक भोजन- यह ताजा, रसयुक्त, हल्की चिकनाईयुक्त और पौष्टिक होना चाहिए। इसमें अन्ना, दूध, मक्खन, घी, मट्ठा, दही, हरी-पत्तेदार सब्जियाँ, फल-मेवा आदि शामिल हैं। सात्विक भोजन शीघ्र पचने वाला होता है। इन्हीं के साथ नींबू,नारंगी और मिश्री का शरबत, लस्सी जैसे तरल पदार्थ बहुत लाभप्रद हैं। इनसे चित्त एकाग्र तथा पित्त शांत रहता है। भोजन में ये पदार्थ शामिल होने पर विभिन्न रोग एवं स्वास्थ्य संबंधी परेशानियों से काफी बचाव रहता है।

राजसी भोजन- इसमें सभी प्रकार के पकवान, व्यंजन, मिठाइयाँ, अधिक मिर्च-मसालेदार वस्तुएँ, नाश्ते में शामिल आधुनिक सभी पदार्थ, शक्तिवर्धक दवाएँ, चाय, कॉफी, कोको, सोडा, पान, तंबाकू, मदिरा एवं व्यसन की सभी वस्तुएँ शामिल हैं। राजसी भोज्य पदार्थों केगलत या अधिक इस्तेमाल से कब, क्या तकलीफें हो जाएँ या कोई बीमारी हो जाए, कहा नहीं जा सकता। इनसे हालाँकि पूरी तरह बचना तो किसी के लिए भी संभव नहीं, किंतु इनका जितना कम से कम प्रयोग किया जाए, यह किसी भी उम्र और स्थिति के व्यक्ति के लिए लाभदायक रहेगा। वर्तमान में होनेवाली अनेक बीमारियों का कारण इसी तरह का खानपानहै, इसलिए बीमार होने से पहले इनसे बचा जाए, वही बेहतर है।

तामसी भोजन- इसमें प्रमुख मांसाहार माना जाता है, लेकिन बासी एवं विषम आहार भी इसमें शामिल हैं। तामसी भोजन व्यक्ति को क्रोधी एवं आलसी बनाता है, साथ ही कई प्रकार से तन और मन दोनों के लिए प्रतिकूल होता है।

खान-पान की खास बातें

  • जब जल्दी में हों, तनाव में हों, अशांत हों, क्रोध में हों तो ऐसी स्थिति में भोजन न किया जाए, यही बेहतर है।
  • आयुर्वेद के अनुसार जो मनुष्य खाना खाता है, शरीर के प्रति उसका कर्तव्य है कि वह व्यायाम अवश्य करें।
  • बुजुर्गों के लिए टहलना ही पाचन के लिए पर्याप्त व्यायाम है।
  • भोजन ऋतु, स्थान और समय के अनुसार ही करें। बार-बार न खाएँ। यदि समय अधिक निकल जाए तो भोजन न करना ज्यादा अच्छा है।
  • भोजन के साथ पानी न पीएँ। आधे घंटे पहले और एक घंटे बाद पीएँ।
  • भूख को टालना ठीक नहीं। यह शरीर के लिए नुकसानदायक है।
  • दिनभर में इतना काम अवश्य करें कि शाम को थकावट महसूस हो। इससे भूख लगेगी और नींद भी अच्छी आएगी।

सर्दियों में स्वस्थ रखे आयुर्वेद

प्रायः शरद के प्रारंभ में पित्त प्रकुपित हो जाया करता है।अतः सौम्य एवं पित्त शामक विरेचन द्वारा बड़े दोषों को शांत कर देना चाहिए।समान भाग में निशोध, धमासा, नागरमोथा, श्वेत चंदन और मुलेठी को कूट-पीसकर मनुक्का में मिलाकर गोलियाँ बनालें। दो गोली रात को सोते समय लेने से शरीर में हल्कापन महसूस होता है। इस औषधि से ब़ूढे, बच्चे सभी अपना पेट साफ कर सकते हैं।

आयुर्वेद के अनुसार ब्रह्म मुहूर्त में बिस्तर छोड़कर उषापान करना चाहिए। महर्षि वाग्भट्ट के अनुसार शरद में जल अमृत के समान हो जाता है। मल-मूत्र परित्याग आदि आवश्यक कार्यों से निवृत्त होकर व्यायाम करना चाहिए।प्रातःकाल का भ्रमण स्वास्थ्यवर्द्धक है। व्यायाम के पश्चात तेल मालिश करना चाहिए। जाड़े में नहाने के लिए गरम जल का उपयोग करना चाहिए।

आयुर्वेद की जड़ी-बूटियों का वाष्प स्नान बहुत फायदेमंद रहता है। जो हमेशा ठंडे पानी का उपयोग नहाने में करते हैं, उन्हें ठंडे पानी से ही नहाना चाहिए। जाड़ों में रात बड़ी होने से सुबह जल्दी ही भूख लग जाती है। सुबह का नाश्तातंदुरुस्ती के लिए ज्यादा फायदेमंद है। नाश्ते में हलुआ, शुद्ध घी से बनी जलेबी, लड्डूा, सूखे मेवे, दूध आदि पौष्टिक एवं गरिष्ठ पदार्थों का सेवन करना चाहिए।

शकर की अपेक्षा गुड़ सर्दी में अधिक गुणकारी होता है। शहद का उपयोग भी स्वास्थ्यवर्द्धक रहता है। जाड़े में ऊष्णता के लिए शुद्ध घी का सेवन करना चाहिए। मूँग, तुवर, उड़द की दालों का उपयोगअच्छा रहता है। दाल छिलके वाली एवं बिना पॉलिश की होना चाहिए।

अचार पाचनकर्ता है, लेकिन अधिक खाने से यह नुकसान करता है। बीमारी में केवल नींबू का अचार रोग के अनुसार दिया जा सकता है।

सूखे मेवे का सेवन भी लाभदायक रहता है। इन्हें उबालना नहीं चाहिए। मेवों की मिठाई गरिष्ठ एवं हानिकारक होती है, जबकि सभी मेवे स्वादिष्ट रुचिकर, तृप्तिकर होते हैं। सर्दी में बादाम, पिस्ता, काजू, छुआरे, पिंड खजूर,अंजीर, केसर का उपयोग करना चाहिए।

शरद में जुकाम और इन्फलूएंजा की शिकायत हो जाया करती है। ऐसी हालत में दालचीनी का तेल मिश्री के साथ थोड़ा खाने से तथा रुमाल पर कुछ बूँदें छिड़ककर सूँघने से लाभ मिलता है। नए जुकाम में दाल चीनी की छाल का चूर्ण डेढ़ माशा को गरम चाय सेलेने से विशेष लाभ होता है।

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ग्रीष्म ऋतु

image001परिवर्तनशीलता प्रकृति का स्वभाव है। यदि यह परिवर्तनशीलता न हो तो वसन्त की सुषमा का कोई मूल्य न रहे और शिशिर का तुषारापात निर्रथक हो जाए। क्योंकि दुख़ के बिना सुख़ भी निस्सार  है-

बिन  दुख  के   है  सुख  निस्सार।

बिना  आँसू  के  जीवन  भार।।

मादक वसन्त का अन्त होते ही ग्रीष्म की प्रचंडता आरम्भ हो जाती है। वसन्त ऋतु काम से, ग्रीष्म क्रोध से सम्बन्धित है। ग्रीष्म ऋतु, भारतवर्ष की छह ऋतओं में से एक ऋतु है, जिसमें वातावरण का तापमान प्रायः उच्च रहता है। दिन बड़े हो जाते हैं रातें छोटी।  शीतल सुंगधित पवन के स्थान पर गरम-गरम लू चलने लगती है। धरती जलने लगती है। नदी-तलाब सूखने लगते हैं। कमल कुसुम मुरझा जाते हैं। दिन बड़े होने लगते हैं। सर्वत्र अग्नि की वर्षा होती-सी प्रतीत होती है। शरद ऋतु का बाल सूर्य ग्रीष्म ऋतु को प्राप्त होते ही भगवान शंकर की क्रोधाग्नि-सी बरसाने लगा है। ज्येष्ठ मास में तो ग्रीष्म की अखंडता और भी प्रखर हो जाती है। छाया भी छाया ढूंढने लगती है।–

बैठी रही अति सघन वन पैठी सदन तन माँह

देखी दुपहरी जेठ की छाँहों चाहती छाँह।।

ग्रीष्म की प्रचंडता का प्रभाव प्राणियों पर पड़े बिना नहीं रहता। शरीर में स्फूर्ति का स्थान आलस्य ले लेता है। तनिक-सा श्रम करते ही शरीर पसीने से सराबोर हो जाता है। कण्ठ सूखने लगता है। अधिक श्रम करने पर बहुत थकान हो जाती है। इस मौसम में यात्रा करना भी दूभर हो जाता है। यह ऋतु प्रकृति के सर्वाधिक उग्र रुप की द्योतक है।

भारत में सामान्यतया 15 मार्च से 15 जून तक ग्रीष्म मानी जाती है। इस समय तक सूर्य भूमध्य रेखा से कर्क रेखा की ओर बढ़ता है, जिससे सम्पूर्ण देश में तापमान में वृद्धि होने लगती है। इस समय सूर्य के कर्क रेखा की ओर अग्रसर होने के साथ ही तापमान का अधिकतम बिन्दु भी क्रमशः दक्षिण से उत्तर की ओर बढ़ता जाता है और मई के अन्त में देश के उत्तरी-पश्चिमी भाग में 48डिग्री सेल्सियस तक पहुंच जाता है। उत्तर पश्चिमी भारत के शुष्क भागों में इस समय चलने वाली गर्म एवं शुष्क हवाओं को ‘लू’ कहा जाता है। राजस्थान, पंजाब, हरियाणा तथा पश्चिमी उत्तर प्रदेश में प्रायः शाम के समय धूल भरी आँधियाँ आती है, जिनके कारण दृश्यता तक कम हो जाती है। धूल की प्रकृति एवं रंग के आधार पर इन्हें काली अथवा पीली आंधियां कहा जाता है। सामुद्रिक प्रभाव के कारण दक्षिण भारत में इन गर्म पवनों तथा आंधियों का अभाव पाया जाता है।

रीतिकालीन कवियों में सेनापति का ग्रीष्म ऋतु वर्णन अत्यन्त प्रसिद्ध है।–

वृष को तरनि तेज सहसौं किरन करि

ज्वालन के जाल बिकराल बरखत हैं।

तचति धरनि, जग जरत झरनि, सीरी

छाँह को पकरि पंथी पंछी बिरमत हैं॥

सेनापति नैकु दुपहरी के ढरत, होत

धमका विषम, जो नपात खरकत हैं।

मेरे जान पौनों सीरी ठौर कौ पकरि कोनों

घरी एक बैठी कहूँ घामैं बितवत हैं॥

रासो काव्य रचनाकार ‘अब्दुल रहमान’ द्वारा लिखी गई सन्देश रासक में षड्ऋतुवर्णन ग्रीष्म से प्रारम्भ होता है…

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ग्रीष्म शब्द ग्रसन से बना है। ग्रीष्म ऋतु में सूर्य अपनी किरणों द्वारा पृथ्वी के रस को ग्रस लेता है।

भागवत पुराण में ग्रीष्म ऋतु में कृष्ण द्वारा कालिया नाग के दमन की कथा आती है जिसको उपरोक्त आधार पर समझा जा सकता है । भागवत पुराण का द्वितीय स्कन्ध सृष्टि से सम्बन्धित है जिसकी व्याख्या अपेक्षित है।

शतपथ ब्राह्मण में ग्रीष्म का स्तनयन/गर्जन से तादात्म्य कहा गया है जिसकी व्याख्या अपेक्षित है।

जैमिनीय ब्राह्मण 2.51 में वाक् या अग्नि को ग्रीष्म कहा गया है ।

तैत्तिरीय संहिता में ग्रीष्म ऋतु यव प्राप्त करती है। तैत्तिरीय ब्राह्मण में ग्रीष्म में रुद्रों की स्तुति का निर्देश है। तैत्तरीय संहिता में ऋतुओं एवं मासों के नाम बताये गये है,जैसे :- बसंत ऋतु के दो मास- मधु माधव, ग्रीष्म ऋतु के शुक्र-शुचि, वर्षा के नभ और नभस्य, शरद के इष ऊर्ज, हेमन्त के सह सहस्य और शिशिर ऋतु के दो माह तपस और तपस्य बताये गये हैं।

चरक संहिता में कहा गया हैः …… शिशिर ऋतु उत्तम बलवाली, वसन्त ऋतु मध्यम बलवाली और ग्रीष्म ऋतु दौर्बल्यवाली होती है। ग्रीष्म ऋतु में गरम जलवायु पित्त एकत्र करती है। प्रकृति में होने वाले परिवर्तन शरीर को प्रभावित करते हैं। इसलिए व्यक्ति को साधारण रूप से भोजन तथा आचार-व्यवहार के साथ प्रकृति और उसके परिवर्तनों के साथ सामंजस्य स्थापित करना चाहिए । तापमान बढ़ने पर पित्त उत्तेजित होता है तथा शरीर में जमा हो जाता है। व्याधियों से बचाव के लिए ऋतु के अनुकूल आहार तथा गतिविधियों का पालन जरूरी है।

होलिकोत्सव में सरसों के चूर्ण से उबटन लगाने की परंपरा है, ताकि ग्रीष्म ऋतु में त्वचा की सुरक्षा रहे। आदिकाल से उत्तर भारत में जहाँ तेज गर्मी होती है, गरम हवाएँ चलती हैं वहाँ पर त्वाचा की लाली के शमन के लिए प्राय: लोग सरसों के बीजों के उबटन का प्रयोग करते हैं।

नवरात्री दुर्गा पूजा वर्ष में दो बार आती है। यह जलवायु प्रधान पर्व है। अतः एक बार यह पर्व ग्रीष्म काल आगमन में राम नवरात्रि चैत्र (अप्रैल मई) के नाम से जाना जाता है। दूसरी बार इसे दुर्गा नवरात्रि अश्विन(सितम्बर-अकतूबर) मास में मनाया जाता है। यह समय शीतकाल के आरम्भ का होता है। यह दोनो समय ऋतु परिवर्तन के है।

प्रकृति-चित्रण में बिहारी किसी से पीछे नहीं रहे हैं। षट ॠतुओं का उन्होंने बड़ा ही सुंदर वर्णन किया है। ग्रीष्म ॠतु का चित्र देखिए –

कहलाने एकत बसत अहि मयूर मृग बाघ।

जगत तपोतन से कियो, दरिघ दाघ निदाघ।।

कालिदास ने अभिज्ञानशाकुन्तलम् और ऋतुसंहार में ग्रीष्म ऋतु का वर्णन किया है-

अभिज्ञानशाकुन्तलम्- नाटक के प्रारम्भ में ही ग्रीष्म-वर्णन करते हुए लिखा कि वन-वायु के पाटल की सुगंधि से मिलकर सुगंधित हो उठने और छाया में लेटते ही नींद आने लगने और दिवस का अन्त रमणीय होने के द्वारा नाटक की कथा-वस्तु की मोटे तौर पर सूचना दे दी गई है, जो क्रमशः पहले शकुन्तला और दुष्यन्त के मिलन, उसके बाद नींद-प्रभाव से शकुन्तला को भूल जाने और नाटक का अन्त सुखद होने की सूचक है।

ऋतुसंहार- में छ: सर्ग हैं। इन सर्गों में क्रमश: छ: ऋतुओं- ग्रीष्म, वर्षा, शरद, हेमंत, शिशिर तथा बसंत का चित्रण किया गया है। ‘ऋतु-संहार’ में वर्ष का प्रारंभ ग्रीष्म ऋतु से माना गया जो कि बंग देश की प्रथा रही। पहला ही पद्य ग्रीष्म की प्रखरता तथा संताप के वर्णन से आरम्भ होता है। इसके आगे कवि कहता है कि धूल के बवंडर उठ रहे हैं, कड़ी धूप से धरती दरक रही है, प्रिया के वियोग से दग्थ मानस वाले प्रवासी तो इस दृश्य को देख तक नहीं पा रहे हैं प्यास से चटकते कण्ठ वाले मृग एक जंगल से दूसरे जंगल की ओर भाग रहे हैं। ग्रीष्म ने वन के प्राणियों को ऐसा आकुल कर दिया है कि सांप मयूर के पिच्छ के नीचे धूप से बचने को आ बैठा है और मयूर को उसकी खबर नहीं। प्यास से सिंह का मृगया का उद्यम ठंडा पड़ गया है, जीभ लटकाये हाँफता हुआ वह पास से निकलते हिरणों पर भी आक्रमण नहीं कर रहा। तृषा से व्याकुल हाथियों ने भी सिंह से भय खाना छोड़ दिया है। शूकर भद्रमुस्ता से युक्त सूखते कीचड़ मात्र बचे सरोवर की धरती में धँसे से जा रहे हैं ग्रीष्मवर्णन के इस पहले सर्ग में वनप्रांत की भीषणता का वास्तविक चित्र कवि ने अत्यंत विशद रूप में अंकित कर दिया है। दावाग्नि से जल कर काष्ठ मात्र बचे वृक्ष, सूखते पत्तों का जहाँ-तहाँ ढेर और सूखे हुए सरोवर-इन सबका विस्तार देखने पर चित्त को भयभीत कर डालना है  दावाग्नि का वर्णन भी कालिदास ने इसी यथार्थ दृष्टि से किया है।

प्रिये ! आया ग्रीष्म खरतर !

सूर्य भीषण हो गया अब,चन्द्रमा स्पृहणीय सुन्दर

कर दिये हैं रिक्त सारे वारिसंचय स्नान कर-कर

रम्य सुखकर सांध्यवेला शांति देती मनोहर ।

शान्त मन्मथ का हुआ वेग अपने आप बुझकर

दीर्घ तप्त निदाघ देखो, छा गया कैसा अवनि पर

ज्येष्ठ की गर्मी- ज्येष्ठ हिन्दू पंचांग का तीसरा मास है। ज्येष्ठ या जेठ माह गर्मी का माह है। इस महीने में बहुत गर्मी पडती है। फाल्गुन माह में होली के त्योहार के बाद से ही गर्मियाँ प्रारम्भ हो जाती हैं। चैत्र और बैशाख माह में अपनी गर्मी दिखाते हुए ज्येष्ठ माह में वह अपने चरम पर होती है। ज्येष्ठ गर्मी का माह है। इस माह जल का महत्त्व बढ जाता है। इस माह जल की पूजा की जाती है और जल को बचाने का प्रयास किया जाता है। प्राचीन समय में ऋषि मुनियों ने पानी से जुड़े दो त्योहारों का विधान इस माह में किया है-

ज्येष्ठ शुक्ल दशमी को गंगा दशहरा

ज्येष्ठ शुक्ल एकादशी को निर्जला एकादशी

इन त्योहारों से ऋषियों ने संदेश दिया कि गंगा नदी का पूजन करें और जल के महत्त्व को समझें। गंगा दशहरे के अगले दिन ही निर्जला एकादशी के व्रत का विधान रखा है जिससे संदेश मिलता है कि वर्ष में एक दिन ऐसा उपवास करें जिसमें जल ना ग्रहण करें और जल का महत्त्व समझें। ईश्वर की पूजा करें। गंगा नदी को ज्येष्ठ भी कहा जाता है क्योंकि गंगा नदी अपने गुणों में अन्य नदियों से ज्येष्ठ(बडी) है। ऐसी मान्यता है कि नर्मदा और यमुना नदी गंगा नदी से बडी और विस्तार में ब्रह्मपुत्र बड़ी है किंतु गुणों, गरिमा और महत्त्व की दृष्टि से गंगा नदी बड़ी है। गंगा की विशेषता बताता है ज्येष्ठ और ज्येष्ठ के शुक्ल पक्ष की दशमी गंगा दशहरा के रूप में गंगा की आराधना का महापर्व है।

निर्जला एकादशी- भीषण गर्मी के बीच तप की पराकाष्टा को दर्शाता है यह व्रत। इसमें दान-पुण्य एवं सेवा भाव का भी बहुत बड़ा महत्व शास्त्रों में बताया गया है।  ज्येष्ठ मास के शुक्ल पक्ष की एकादशी निर्जला एकादशी कहलाती है। अन्य महीनों की एकादशी को फलाहार किया जाता है, परंतु इस एकादशी को फल तो क्या जल भी ग्रहण नहीं किया जाता। यह एकादशी ग्रीष्म ऋतु में बड़े कष्ट और तपस्या से की जाती है। अतः अन्य एकादशियों से इसका महत्व सर्वोपरि है। इस एकादशी के करने से आयु और आरोग्य की वृद्धि तथा उत्तम लोकों की प्राप्ति होती है। महाभारत के अनुसार अधिक माससहित एक वर्ष की छब्बीसों एकादशियां न की जा सकें तो केवल निर्जला एकादशी का ही व्रत कर लेने से पूरा फल प्राप्त हो जाता है।

वृषस्थे मिथुनस्थेऽर्के शुक्ला ह्येकादशी भवेत्‌

ज्येष्ठे मासि प्रयत्रेन सोपाष्या जलवर्जिता।

नवतपा- नवतपा को ज्येष्ठ महीने के ग्रीष्म ऋतु में तपन की अधिकता का द्योतक माना जाता है। सूर्य के रोहिणी नक्षत्र में प्रवेश करने के साथ नवतपा शुरू हो जाता है। शुक्ल पक्ष में आर्द्रा नक्षत्र से लेकर 9 नक्षत्रों में 9 दिनों तक नवतपा रहता है। नवतपा में तपा देने वाली भीषण गर्मी पड़ती है। नवतपा में सूर्यदेव लोगों के पसीने छुड़ा देते हैं। पारा एक दम से 48 डिग्री पर पहुंच जाता है। जबकि न्यूनतम तापमान 32 डिग्री तक रहता है। लेकिन नवतपा के बाद एक अच्छी खबर आती है आर्द्रा के 10 नक्षत्रों तक जिस नक्षत्र में सबसे अधिक गर्मी पड़ती है, आगे चलकर उस नक्षत्र में 15 दिनों तक सूर्य रहते हैं और अच्छी वर्षा होती है।

राग दीपक- ग्रीष्म की जलविहीन शुष्क ऋतु में भी कलाकार की रचनाधर्मिता जागृत रहती है। संगीतकार इस उष्ण वातावरण को राग दीपक के स्वरों में प्रदर्शित करता है तो चित्रकार रंग तथा तूलिका के माध्यम से राग दीपक को चित्र में साकार करता है। भारतीय मान्यताओं के अनुसार राग के गायन के ऋतु निर्धारित है । सही समय पर गाया जाने वाला राग अधिक प्रभावी होता है । राग और उनकी ऋतु इस प्रकार है –

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तानसेन और राग दीपक- परिवर्तन ही प्रकृति का नियम है। ग्रीष्म की तपन के पश्चात आकाश में छाने लगते हैं – श्वेत-श्याम बादलों के समूह तथा संदेश देते हैं, जन-जन में प्राणों का संचार करने वाली बर्षा ऋतु के आगमन का। आकाश में छायी श्यामल घटाओं तथा ठंडी-ठंडी बयार के साथ झूमती आती है जन-जन को रससिक्त करती, जीवन दायिनी वर्षा की प्रथम फुहार। वर्षा की सहभागिनी ग्रीष्म की उष्णता आकाश से जल बिंदुओं के रूप में पुन: धरती पर अवतरित होती है किंतु अपने नवीन मनमोहक रूप में। उष्ण वातावरण के कारण घिर आये मेघ तत्पश्चात जीवनदान करती वर्षा का प्रसंग एक किवदंती में प्राप्त होता है जिसके अनुसार बादशाह अकबर ने दरबार में गायक तानसेन से ग्रीष्म ऋतु का राग दीपकसुनने का अनुरोध किया। तानसेन के स्वरों के साथ वातावरण में ऊष्णता व्याप्त होती गयी। सभी दरबारीगण तथा स्वयं तानसेन भी बढ़ती गरमी को सहन नहीं कर पा रहे थे। लगता था, जैसे सूर्य देव स्वयं धरती पर अवतरित होते जा रहे हैं। तभी कहीं दूर से राग मेघ के स्वरों के साथ मेघ को आमंत्रित किया जाने लगा। जल वर्षा के कारण ही गायक तानसेन की जीवन रक्षा हुई। 

नारवेस्टर या काल वैशाखी- ग्रीष्म ऋतु में मानूसन के आगमन के पूर्व पश्चिमी तटीय मैदानी भागों में भी कुछ वर्षा प्राप्त होती है, जिसे ‘मैंगों शावर’ कहा जाता है। इसके अतिरिक्त असम तथा पश्चिम बंगाल राज्यों में भी तीव्र एवं आर्द्र हवाएं चलने लगती हैं, जिनसे गरज के साथ वर्षा हो जाती है। यह वर्षा असम में ‘चाय वर्षा’ कहलाती है। इन हवाओं को ‘नारवेस्टर’ अथवा ‘काल वैशाखी’ के नाम से जाना जाता है। यह वर्षा पूर्व-मानसून वर्षा कहलाती है।

इंसान के शरीर कितनी गर्मी सहन कर सकता है…

  • इंसान के शरीर का सामान्य तापमान 4 फेरनहाइट या 37 डिग्री सेल्सियस होता है.
  • शरीर का तापमान 95 डिग्री फेरनहाइट या 35 डिग्री सेल्सियस से कम हो जाता है तो इसे’हाइपोथर्मिया’ कहते हैं.
  • अगर बॉडी का टेम्प्रेचर नार्मल से थोड़ा ऊपर हो जाए 38 डिग्री सेल्सियस या ऊपर तो बुखार हो जाता है.
  • 104 फारेनहाइट या 40 डिग्री सेल्सियस से ज्यादा तापमान पर इंसान के कोमा में जाने का खतरा हो जाता है.

‘लू’ (हीट स्ट्रोक)

  • गर्मी के मौसम में गर्म हवाएं के चलने को‘लू’ (हीट स्ट्रोक) कहते हैं.
  • युवाओं की तुलना में बच्चे और वृद्ध इसकी चपेट में ज्यादा आते हैं
  • मधुमेह, उच्च रक्तचाप और हृदय रोग से पीड़ित व्यक्ति को ज्यादा दिक्कत होती है
  • किसी व्यक्ति को लू लगी है या नहीं, इसका पता उसके शरीर में हुए परिवर्तनों को देख कर लगाया जा सकता है
  • लू लगने से चक्कर आने लगते हैं, श्वास लेने में कठिनाई उत्पन्न होने लगती है, नब्ज की गति बढ़ जाती है, तीव्र सिर दर्द, बदन दर्द और सम्पूर्ण शरीर में कमजोरी का एहसास होने लगता है,
  • शरीर में पसीना नहीं आता और त्वचा खुश्क हो जाती है । कई बार लू से पीड़ित व्यक्ति बेहोश हो जाता है।

According to the NDMA, heat waves in India have accounted for over 22,000 deaths since 1992. In 2015, 2,040 Indians died in shocking heat waves.  Recent years have seen declines, to 1,111 in 2016 and 222 in 2017.

ग्रीष्म से बचाव के उपाय-मनुष्य जिस प्रकार अपनी अन्य समस्याओं से निजात पाने के उपाय ढूंढ़ता है उसी प्रकार आतप की प्रचण्डता से बचने के लिए भी कुछ-न-कुछ व्यवस्था करता ही है। धनी लोग पर्वतीय स्थानों पर चले जाते हैं। घरों को वातानुकूलित बनवा लेते हैं, कूलर लगवा लेते हैं। प्यास बुझाने के लिए शीतल पेयों का प्रयोग करते हैं। गरीब लोग घड़े के शीतल जल और बर्फ के सहारे ही आतप की प्रचण्डता को शांत करते हैं।

ग्रीष्म ऋतु में सूर्य अपनी किरणों द्वारा शरीर के द्रव तथा स्निग्ध अंश का शोषण करता है, जिससे दुर्बलता, अनुत्साह, थकान, बेचैनी आदि उपद्रव उत्पन्न होते हैं। उस समय शीघ्र बल प्राप्त करने के लिए मधुर, स्निग्ध, जलीय, शीत गुणयुक्त सुपाच्य पदार्थों की आवश्यकता होती है। नींबू का शरबत, आम का पना, जीरे की शिकंजी, ठंडाई, हरे नारियल का पानी, फलों का ताजा रस, दूध आदि शीतल, जलीय पदार्थों का सेवन करना चाहिए

ग्रीष्म ऋतु में तेज मिर्च मसालेदार, खट्टे, उष्ण प्रकृति के पदार्थों का, मांसाहारी भोजन व अंडों का तथा शराब का सेवन करने से अम्लता (एसिडिटी), अम्ल पित्त, अल्सर, उच्चरक्तचाप, पेशाब में रुकावट और जलन आदि अनेक व्याधियां उत्पन्न होती हैं। अत: इन सबके सेवन का त्याग करना चहिये।

ग्रीष्म से बचने के लिए सत्तू भी अत्युत्तम है। जौ को भूनकर चक्की में पीसकर सत्तू बनाया जाता है। चने को भूनकर, छिलके अलग करके चौथाई भाग भूने हुए जौ उसमें मिलाकर बनाया गया सत्तू विशेष लाभदायक होता है। सत्तू मधुर, शीतल, बलदायक, कफ-पित्तनाशक, भूख व प्यास मिटानेवाला तथा धूप, श्रम, चलने के कारण आयी हुई थकान को मिटाने वाला है।

ग्रीष्म-ऋतु प्रकृति के सर्वाधिक उग्र रूप की द्योतक है। किन्तु इसकी उग्रता भी मानव के लिए वरदान ही है। आतप की प्रचण्डता के कारण ही फसल पकती है और भविष्य में वर्षा होती है। दरअसल आतप की यह प्रचण्डता वर्षा की भूमिका तैयार करती है। नारियल के फल की तरह ग्रीष्म का तन कठोर होते हुए भी मन अत्यन्त कोमल होता है। इसकी शुष्कता में ही रसाल की सरसता उत्पन्न होती है। ककड़ी, खरबूजे, तरबूजे, अलूचे, आलूबुखारे, और फालसों में इसकी सरसता समा जाती है।

ग्रीष्म-ऋतु हमें शक्ति एंव प्रचण्डता का सन्देश देती है। अमलतास एवं गुलमोहर के फूल सूर्य की प्रचण्डता में भी नहीं झुलसते वरन् और अधिक खिल जाते हैं। दरअसल तप से ही तेज की वृद्धी होती है। संस्कृत में कहा गया है- “न साहसं अनारुभ्य नरो भद्राणि पश्यति।”

जिस प्रकार बिना श्रम के उपभोग का आनन्द प्राप्त नहीं होता उसी प्रकार आतप की प्रचण्डता के बिना वर्षा का भी वास्तविक आनन्द नही प्राप्त होता। अतएव हमें धरती के समान ही सहनशील होकर प्रचण्डता को सहना चाहिए। समय मनुष्य को सब कुछ सहने पर मजबूर कर देता है।

  • शरीर में पानी की कमी नहीं होनी चाहिए.
  • रोज 5 से 6 लीटर पानी आपको पीना चाहिए.
  • धूप में खाली पेट बिलकुल न निकलें.
  • तरल पदार्थ का सेवन ज्यादा करें.
  • मांस, मछली, अंडे का सेवन कम करें.
  • घी और ज्यादा मसालेदार खाने से बचें.
  • फुटपॉथ पर खाने से परहेज करें.
  • बेहद जरूरी होने पर ही दोपहर के वक्त घर से निकलें
  • ढीले सूती कपड़े पहनें. हल्के रंग के कपड़े पहनें.
  • शरीर को कपड़ों से पूरी तरह से ढक कर रखें.
  • धूप में ज्यादा निकलने से बचें. धूप में सनस्क्रीन का इस्तेमाल जरूर करें.
  • आंखों की सावधानी के लिए अच्छी क्वालिटी के सनग्लास पहनें.
  • अगर खुले में बाहर जा रहे हैं तो गीला तौलिए साथ रखें, छाते का इस्तेमाल भी बेहतर रहेगा.
  • बाहर से आकर सीधे कूलर और एसी के सामने न जाएं
  • इसी तरह सीधे कूलर और एसी से धूप में ना जाएं.

ग्रीष्म ऋतु में कैसे होनी चाहिए दिनचर्या और खान-पान

ग्रीष्म ऋतु में सुबह सूर्योदय से पहले उठ कर सभी क्रिया से निवृत्त हो जाने से शरीर में अतिरिक्त उष्णता नहीं बढ़ पाती। कुछ महिलाएँ रसोई घर के काम से निवृत्त होकर दोपहर को स्नान करती हैं। इससे शरीर में उष्णता बढ़ती जाती है। ग्रीष्म ऋतु में ऐसा न करके सूर्योदय से पहले ही स्नान कर लें, फिर रसोई घर में काम करें।

दिन में 1-1 गिलास करके बार-बार ठंडा पानी पीते रहना चाहिए। विशेषकर घर से बाहर निकलते समय एक गिलास ठंडा पानी, बिना प्यास के भी, पीकर ही बाहर निकलना चाहिए। इस उपाय से लू नहीं लगती। इसी तरह रात को 10 बजे के बाद जागना पड़े तो हर घण्टे 1-1 गिलास पानी तब तक पीते रहें जब तक सो न जाएँ। इस उपाय से वात और पित्त का प्रकोप नहीं होता।

ग्रीष्म ऋतु में साठी के पुराने चावल, गेहूँ, दूध, मक्खन, गौघृत के सेवन से शरीर में शीतलता, स्फूर्ति तथा शक्ति आती है।

सब्जियों में लौकी, गिल्की, परवल, नींबू, करेला, केले के फूल, चौलाई, हरी ककड़ी, हरा धनिया, पुदीना और फलों में तरबूज, खरबूजा, एक-दो-केले, नारियल, मौसमी, आम, सेब, अनार, अंगूर का सेवन लाभदायी है।

इस ऋतु में दिन बड़े और रात्रियाँ छोटी होती हैं। अतः दोपहर के समय थोड़ा सा विश्राम करना चाहिए। इससे इस ऋतु में धूप के कारण होने वाले रोग उत्पन्न नहीं हो पाते।वात पैदा करने वाले आहार-विहार के कारण शरीर में वायु की वृद्धि होने लगती है।

रात को देर तक जागना और सुबह देर तक सोये रहना त्याग दें। अधिक व्यायाम, अधिक परिश्रम, धूप में टहलना, अधिक उपवास, भूख-प्यास सहना ये सभी वर्जित हैं।

इस ऋतु में मुलतानी मिट्टी से स्नान करना वरदान स्वरूप है। इससे जो लाभ होता है, साबुन से नहाने से उसका 1 प्रतिशत लाभ भी नहीं होता। जापानी लोग इसका खूब लाभ उठाते हैं। गर्मी को खींचने वाली, पित्तदोष का शमन करने वाली, रोमकूपों को खोलने वाली मुलतानी मिट्टी से स्नान करें और इसके लाभों का अनुभव करें। चन्दन का टिका , इसका लेप लाभकारी है.

इन दिनों में आहार कम लेकर बार-बार जल पीना हितकर है परंतु गर्मी से बचने के लिए बाजारू शीत पदार्थ एवं फलों के डिब्बाबंद रस हानिकारक हैं। उनसे लाभ की जगह हानि अधिक होती है। उनकी जगह नींबू का शरबत, आम का पना, जीरे की शिकंजी, ठंडाई, हरे नारियल का पानी, फलों का ताजा रस, दूध आदि शीतल, जलीय पदार्थों का सेवन करें। ग्रीष्म ऋतु में स्वाभाविक उत्पन्न होने वाली कमजोरी, बेचैनी आदि परेशानियों से बचने के लिए धनिया पंचक , ठंडाई ,गुलाब शरबत , बेल शरबत आदि ले।

ग्रीष्म के शीतल मनोरंजन-(प्राचीन साहित्य के पन्नों से)

भारत में ग्रीष्म ऋतु अपने कदम बढ़ा रही होती है। सूरज गरमा रहा होता है। मुहल्लों की गलियाँ सन्नाटों से भर उठती हैं। देर रात की भीड़-भाड़ बढ़ जाती है। मौसम अनमना होने लगता है। इसी समय प्रारंभ होते हैं ग्रीष्मकाल के अनेक आयोजन और मनोरंजन। वातानुकूलन, तरह तरह के ठंडे-मीठे व्यंजनों और मानव निर्मित तरणतालों ने गरमी के मौसम का मज़ा बनाए रखा है पर प्राचीनकाल में जब तकनीकी विकास आज जैसा नहीं था, तब गरमी के लंबे दिन कैसे कटते होंगे?

हज़ारों साल पहले भारतीय गरमी के मौसम का आनंद कैसे उठाते थे इसके रोचक प्रसंग साहित्य में मिलते हैं। हड़प्पा काल के लोगों ने अपने घरों में एक फ्रिज बना रखा था। वे मिट्टी के संदूक का आकार बनाते जिसके एक भाग में जल को वाष्पीकृत किया जाता। इस प्रक्रिया द्वारा जब एक ग्राम पानी सूख कर वाष्प बनता तो साढ़े पाँच सौ कैलरी गरमी सोख लेता और मिट्टी के इस संदूक में पानी आठ अंश दस अंश सेंटीग्रेट तापमान तक ठंडा रहता। खाने पीने के अन्य सामान भी इसमें रखे जाते थे।

संस्कृत पाली तथा प्राकृत के लगभग सभी ग्रंथों में जलक्रीडा का अत्यंत मनोरंजक वर्णन मिलता है। जिससे पता लगता है कि ग्रीष्मकाल में इस क्रीडा द्वारा कितना अधिक मनोरंजन किया जाता था। माघ के ‘शिशुपाल वध’ महाकाव्य में यादवों के जलविहार का सजीव वर्णन मिलता है- संक्षेप में सभी अपनी अपनी पत्नियों के साथ तालाब में उतरे। पानी से डरने वालों पर खूब पानी फेंका गया और उन्हें पानी में ढकेल दिया गया। कुछ तालाब के ऊँचे किनारों से पानी में कूदे। जलक्रीडा करते हुए उनकी आंखों में लाली आगई और काजल व ओंठों का लाल रंग भी धुल गया।

आदिपुराणमें धारागृह का वर्णन करते हुए कहा गया है कि वहाँ हर समय वर्षा ऋतु बनी रहती है। (आज के रेन डांस आयोजनों की तरह)

आखेट, जलक्रीडा, उद्यान यात्रा, नृत्यसंगीत तथा नाटक प्राचीन काल के प्रमुख ग्रीष्मकालीन मनोरंजन थे। आमोद प्रमोद के ये साधन वहाँ की भौगोलिक स्थिति पर निर्भर करते थे। जंगल के समीपवर्ती स्थानों में वन विहार की आकर्षक परंपरा थी। घूमने-घूमते लोग जंगल के भीतर चले जाते और ‘उत्तालक’, ‘पुष्प भंजिका’, ‘शाल भंजिका’ तथा ‘ताल भंजिका’ नामक खेलों का मज़ा लेते। इन खेलों में फूल पत्तियों को तोड़ कर एक दूसरे पर फेंकने की प्रतियोगिता सी होती थी। साखू, अशोख और ताड़ के पेड़ों के नीचे एकत्र होकर लोग हज़ारों की संख्या में फूल एक दूसरे पर फेंकते। महिलाएँ पुरुषों पर फूल फेंकतीं जिसे अत्यंत आनंददायक खेल समझा जाता था।

रामायण में कहा गया है कि अयोध्या की महिलाएँ हवा खाने के लिए नगर के बाहर बने सार्वजनिक उद्यानों में जाती थीं। हनुमान जी ने नंदी ग्राम पहुँचने पर ढेर से स्त्री पुरुषों को उद्यान में टहलते देखा।

महाभारत में अर्जुन ने एक बार कृष्ण से प्रस्ताव किया कि आइए शीतल बयार का आनंद लेने यमुना के किनारे चलें। सपरिवार सारा दिन वहाँ बिता कर संध्या होने पर वापस लौट आएँगे।

प्राचीन काल के ग्रीष्मकालीन मनबहलावों का कर्पूर मंजरीनामक नाटक में विस्तृत और सजीव वर्णन मिलता है। लोग पूरे शरीर में चंदन का लेप लगाते और शाम तक भीगे वस्त्र पहने रहते। रात के पहले पहर तक वे जलक्रीडा में मग्न रहते। इसके बाद वे शीतल सुरा का पान करते। एक स्थान पर यह भी कहा गया है कि बाँसुरी पर पंचम राग अलापने से कानों को शांति मिलती है।

वृक्षों झुरमुटों और पुष्पों की शीतल छाया में पहेलियाँ, शतरंज और समस्यापूर्ति के सुंदर खेल हुआ करते थे। जिनमें उलझे हुए गर्मी की दोपहर शीघ्र ही बीत जाती। प्राचीन काल में स्नान की परिपाटी भी किसी मनोरंजन से कम न थी। राजाओं और धनिकों के स्नान करने के अत्यंत रोचक वर्णन प्राप्त होते हैं। प्राकृत साहित्य में लिखा है कि प्रात:कालीन व्यायाम के पश्चात लोग स्नानागार में जाते जहाँ खूब कुशल मालिश करने वाले शतपाकऔर सहस्रपाकतेलों द्वारा शरीर की मालिश करते थे। ये तेल विशेष रीति से बना कर तैयार किए जाते थे। मालिश के बाद वे रंग बिरंगी चौकियों पर बैठते जहाँ सुगंधित जल का छिड़काव किया जाता था। इस सुगंधिक जलों के ‘सुखोदक’, ‘पुष्पोदक’, ‘शुद्धोदक’ आदि मनोरंजक नाम मिलते हैं। इन्हें बारी बारी से छिड़का जाता। स्नान के अवसर पर हंसी मज़ाक भी होता।

हिन्दी काव्य साहित्य में ग्रीष्म ऋतु

ग्रीष्म का आतप बढ़ते ही चहलपहल कम हो जाती है।वृक्षों के साथ हमारी निकटता बढ़ जाती हैवृक्ष हमें जीवनदाता से प्रतीत होने लगते हैं।लोग घरों में कैद होने लगते हैं। ऐसे में ग्रीष्म की अनुभूति का एक बड़ा हिस्सा तो पसीना बनकर ही निकल जाता है फिर भी कुछ रह जाता है जिसे कविताओं के माध्यम से अभिव्यक्त किया जाता रहा है।वसन्त और पावस की तुलना में ग्रीष्म पर कम कविताएँ लिखी गई हैं।ग्रीष्म की अभिव्यक्ति सभी प्रकार की कविताओं में मिलती है चाहे वे बाल कविताएँ हो या प्रौढ़ कविताएँ।अधिकांशतः ग्रीष्म से उत्पन्न सभी स्थितियों को प्रतीकों में प्रयुक्त किया है परन्तु अनेक कविताओं में अभिधा में भी इनका प्रयोग देखने को मिलता है। रीतिकाल में तो ऋतु वर्णन पर जाने कितना श्रेष्ठ और विषद साहित्य लिखा गया है। आधुनिक साहित्य में भी ग्रीष्म पर केन्द्रित कविताएँ खूब लिखी जा रही हैं। कुछ कविताएँ जिनमें ग्रीष्म के विविध क्षणों की अनुभूति कवियों ने की है

सूरज हमारी पृथ्वी पर जीवन बनाए रखने के लिए अनिवार्य है परन्तु उसका अतिशय ताप हमारे मन में झुँझलाहट ही पैदा करता है। डॉ0 रामदरश मिश्र की कविताओं में ग्रीष्म के सूर्य को कष्टों को प्रतीक बनाकर प्रस्तुत किया गया है—
किसने बैठा दिया है मेरे कंधे पर सूरज
एक जलता हुआ असह्य बोझ कब से ढो रहा हूँ

ग्रीष्म की अनेक स्थितियाँ हमें जीवन की अन्य तल्ख सच्चाइयों को उकेरने की भाषायी शक्ति और ऊर्जा दे जाती हैं। हम अपनी मनःस्थितियों के लिए जब ग्रीष्मानुभूति का सहारा लेते हैं तो कविता प्रभावशाली हो जाती है—
कंठ प्यासा ओंठ सूखे
प्यास ही अपनी कहानी
रेत के सैलाब पाए
पर‚ न पाया बूँद पानी
प्यास की है रिक्त गागर‚ आस का जल–स्रोत गहरा
चिलचिलाती धूप है‚ और हम खड़े हैं बीच सहरा।
आत्म प्रकाश नंदवानी चक्रवर्ती

यह सच है कि प्रत्येक व्यक्ति प्यासा है‚ कष्टों और चिन्ताओं की असहनीय घाम ने उसे व्याकुल कर दिया है।सिर पर जलती घाम‚ गहन बन‚ प्यास से व्याकुल हिरनी का दृश्य हमारे अन्दर करुणा या दया का भाव ही नहीं जगाते बल्कि इस दग्ध अनुभूति के भीतर हमें ले जाकर खड़ा कर देते हैं।सबकी अपनी–अपनी प्यास है अपनी–अपनी व्याकुलता है—
प्यासी हिरनी गहन वन‚ सिर पर जलती घाम।
भटके मेरी विकलता कब तक मेरे राम।।
भ्रमते हैं रवि शशि नखत‚ भरा गगन परिमाण।
अपनी–अपनी प्यास से‚ सबके व्याकुल प्राण।।
डॉ0 रामसनेहीलाल शर्मा यायावर

जीवन का जब रास्ता लम्बा हो और कठिनाइयों के पड़ाव हों तो परेशानी तो होती ही है पर यह भी सच है कि कष्टों का सामना करने से ही व्यक्तित्व में निखार आता है।इस मायने में धूप हमारे जीवन की कुट सच्चाई है इसका आदर करना ही उचित होगा—
सूना लम्बा रास्ता‚ पग–पग रेत पहाड़।
तिल–तिल जलती धूप है‚ ऊँचे–ऊँचे ताड़।।
धूप नये तेवर लिये‚ आई मेरे द्वार।
मैंने सर माथे लिया‚ तेरा यह उपहार।।
डॉ0 शैल रस्तोगी

हमारे जीवन में दुख और सुख आते जाते रहते हैं यही जीवन है‚ दुख के समय हम घबराएँ नहीं और सुख के समय अभिमानी न हो जाएँ इसलिए यह परिवर्तन होता रहता है।ग्रीष्म के आतप के उपरान्त तप्त व्योम के हृदय पर मेघों की माला सुशोभित हो जाती है।यह आशावादी दृष्टि ग्रीष्म का आतप हमें भी दे जाता है कि हम आशावादी रहें।महाप्राण निराला के शब्दों में—
जला है जीवन यह
आतप में दीर्घकाल
सूखी भूमि‚ सूखे तरु
सूखे सिक्त आल बाल
बन्द हुआ गुंज‚ धूलि
धूसर हो गए कुंज
किन्तु पड़ी व्योम–उर
बन्धु‚ नील मेघ–माल।
सूर्यकान्त त्रिपाठी निराला

बच्चों के लिए लिखी गई ग्रीष्म पर केन्द्रित कविताओं में गर्मी का अभिधेय अर्थ ही देखने को मिलता है।क्योंकि ये कविताएँ बालकों के मन की तरह सीधी‚ सरल‚ सहज और लयात्मक होती हैं जो ग्रीष्म का चित्र प्रस्तुत करती हैं—
कटते न लम्बे दिन काटे
जड़ती है गालों पर चाँटे
धरती पर दौड़ रही सरपट
गर्मी की धूप बड़ी नट–खट।
— — — —
फिर नभ से अंगारे बरसे
गर्मी के दिन आये हैं
मुश्किल हुआ निकलना घर से
गर्मी के दिन आये हैं ।
लम्बे–लम्बे ज्यों अजगर से
गर्मी के दिन आये हैं ।
रामानुज त्रिपाठी

ग्रीष्म ऋतु का सबसे गरम समय होता है जेठ का महीना।जेठ दोपहरी में लू चल रही है‚ मार्ग पर चलना मुश्किल हो रहा है‚ पैरों में फफोले पड़ जाते हैं।ऐसा लगता है मानों आग अपने गोले छोड़ रही हो‚ यही सब कुछ जेठ में हमें दिखाई देता है।तभी तो कवि कह उठता है—
जेठ तपी धरनी मरु सी अरु लूह चली करि बंजरु टोला
छोड़ती छाँव ठिया अपनी उत पाँजरि होय हरो तन चोला
बाढ़तु ताय तमोगुन सो अरु पाँव परें मग माँहि फफोला
व्याकुल होंय चरा चरह इत आगि छुड़ावति आपन गोला।।
रघुवीर सिंह अरविन्द

गर्मी के प्रभाव से वृक्ष भी झुलस से गए हैं और सूर्य की किरणें तप कर लाल हो गई हैं—
“प्यासे प्यासे से खड़े‚ रूखे सूखे रूख
जेठ मास के तरनि से‚ तापी मयूख मयूख।।”
जगदीश प्रसाद सारस्वत विकल

ग्रीष्म कितनी भी कष्टदायक क्यों न हो पर हम अच्छी तरह जानते हैं कि ग्रीष्म के कारण ही पानी बरसता है और हरियाली लौटकर आती है—
यह सब कुछ याद रहे
मौसम का साथ रहे
ग्रीष्म ऋतु भी जाएगी
फिर रहेगी प्रतीक्षा
अगले मौसम की
बहार की।
अश्विन गांधी

गरीब मजदूर गरमी से दूसरों को बचाने के ल्एि दोपहरी में भी काम करते हैं।काश हम उनकी ओर भी ध्यान दे पाते। उषा चौधरी एक ऐसे ही दृश्य का चित्रण करते हुए कहती हैं—
ज़रा सी खिड़की खोल कर देखा
नीम के पेड़ के नीचे
दुबला पतला
आबनूसी रंग वाला बच्चा
तपती धरती में
नंगा पड़ा रो रहा है।
और
मां बाप औरों को
गरमी से बचाने के लिये
ख़स के पर्दे गूंथ रहे हैं।
उषा चौधरी

धूप का वृक्षों की टहनियों और पत्तियों के बीच से छन–छनकर धरती पर आना दृष्टि का उत्सव है।ग्रीष्म की धूप का ऐसा ही एक मनभावन चित्रण करते हुए पूर्णिमा वर्मन कहती हैं—
झर रही है
ताड़ की इन उंगलियों से धूप
करतलों की
छांह बैठा
दिन फटकता सूप
बन रहे हैं ग्रीष्म के स्तूप।
पूर्णिमा वर्मन

धूप कितनी ही तेज क्यों न हो कोई काम नहीं रुकेगा‚ यही संसार का नियम है।लोग धूप में बाहर निकलेंगे भी और पाँव के छालों को भी सहलाएँगे—
तेज धूप में आना जाना लगा रहेगा
पैरों के छाले सहलाना लगा रहेगा।
ज्ञानप्रकाश विवेक

ग्रीष्म का सुरेन्द्र सुकुमार ने बहुत ही जीवन्त चित्र खींचा है—
ज्यों ही आंगन में पड़े जेठ धूप के पांव।
कोठे भीतर घुस गयी छोटी दुल्हन छांव।।
बड़ी दूर सब हो गये पानी पनघट छांव।
झुलस गये हैं दूब के नन्हें नन्हें पांव।।
सुरेन्द्र सुकुमार

ग्रीष्म का यह आतप थोड़े दिन के लिए ही सही परन्तु सभी जीव जन्तुओं के लिए घोर तपस्या का काल खण्ड होता है।कहते हैं कि ग्रीष्म जितनी ताप छोड़ेगी पावस उतनी ही हरियाली बिखरायेगी।

डॉ0 जगदीश व्योम