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सोमरस- क्या है? शराब या चमत्कारिक औषधि

डॉ. संदीप कोहली… कीबोर्ड के पत्रकारsoma_rasa

वैदिक साहित्य में वनस्पतियों के उल्लेख है-किंशुक, करञ्ज, खदिर, दूर्वा, पिप्पल, कमल,आँवला, सेमल, गोधूम मसूर, बेर, अपामार्ग, अर्क, अश्वत्थ, तिल, अर्जुन, तिलपिप्पली, पृश्नपर्णी, विल्ब, उदुम्बर, इक्षु, ल्णक्षा सहदेवी, सोम, मुञ्ज, गुग्गुल आदि- वैदिक काल में वनस्पतियों का विशेष महत्व था। वनस्पतियां जीवनदायिनी मानी जाती थी। शरीर में हुए रोगों को दूर करती थीं। यजुर्वेद- औषधियों और वनस्पतियों से शान्ति-प्राप्ति की कामना करता है। इससे यही सिद्ध होता है कि मानव जीवन वनस्पतियों पर आधारित रहा है। वेदों में जिन प्रमुख वनस्पतियों का उल्लेख है उसमें से एक है ‘सोम’। और इसी सोम से बनाया जाता था ‘सोमरस’। वही सोमरस जिसका सेवन देवता किया करते थे। देवताओं से जुड़े हर ग्रंथ, कथा, संदर्भ में देवगणों को सोमरस का पान करते हुए बताया जाता है। इन समस्त वर्णनों में जिस तरह सोमरस का वर्णन किया जाता है। अब प्रश्न उठता है- क्या सोमरस मदिरा (शराब) थी या औषधि । 

क्या है सोमरस- सबसे पहली और महत्वपूर्ण बात यह है कि सोमरस मदिरा (शराब) की तरह कोई मादक पदार्थ नहीं है। हमारे वेदों में सोमरस का विस्तृत विवरण मिलता है। विशेष रूप से ऋग्वेद में तो कई ऋचाएं विस्तार से सोमरस बनाने और पीने की विधि का वर्णन करती हैं।Somras

सोम एक रस है- रस शब्द का सर्वप्रथम व्यवहार वेदों में हुआ। ऋग्वेद में रस  शब्द का प्रयोग कभी मधु, कभी गौ-क्षीर और कभी सोमरस को प्रकट करने के लिए हुआ है। एक स्थल पर रस को उदक के पर्याय के रूप में ग्रहण किया गया है। इस प्रकार कहा जा सकता है कि वेदों में “रस” शब्द से तात्पर्य किसी भी तरलपदार्थ से है और वह “जल” भी हो सकता है।

अथर्ववेद में रस शब्द से तात्पर्य वनस्पतियों के रस से है । वहाँ वनस्पतियों के रस में जलों के रस के मिलने की कामना की गयी है । इसी संहिता के एक अन्य मन्त्र में जलों के रसको वनस्पतियों के रस से पहले उत्पन्न माना गया है। परन्तु सभी वनस्पतियों की अपेक्षा अधिक महत्त्वपूर्ण है “सोमरस के अर्थ में रस का प्रयोग।”

सोम हिमालय पर्वत पर प्राप्त होने वाली एक लता है जिसको कूटने के बाद निचोड़कर उसका रस निकाला जाता हे और देवतागण उसका पान करते हैं। यह सोम रस वैदिक देवताओं कासबसे प्रिय पेय था। ऋग्वेद में सोमरस का अत्यधिक उत्कृष्ट वाणी में स्तवन (स्तुति) किया गया है।

सोम संसार को धारण करने वाला, इन्द्रिय पोषक रस को धारण करता हुआ, उत्तम वीरता प्रदान करने वाला और हिंसा से रक्षा करने वाला है । यह सोम अग्नि, वायु और सूर्य इन तीनों रूपों को धारण करने वाला है। सोम की सामर्थ्य इसकी इस विशेषता से ही है कि संसार का प्रत्येक जीव सोम के तेज से उत्पन्न होता है और यह जगत् इसके आश्रित है। यह सोम रस आरम्भिक काल में देवताओं के द्वारा स्फूर्तिदायक पेय के रूप में ग्रहण किया जाता रहा होगा क्योंकि वेद में कुछ ऐसे उद्धरण प्राप्त होते हैं जिनमें देवता लोग सोम को पाने के लिए प्रायः उनकी मंत्रों और स्तुतियों से प्रार्थना करते थे जिस प्रकार मल्लाह नाव चलाता है उसी प्रकार यह सोम यज्ञ में यथार्थ वचन रूप स्तुतियों को प्रेरित करता है। यह सोम चेतना को आत्मसात् कर लेता है । जिस प्रकार रथी अपने अश्व को चलाता है उसी प्रकार यह सोम अपनी तरंगों को चलाता है। सोम को कहीं विश्वस्रष्टा, क्रान्तकर्मा, रक्षक एवं आनन्ददायक के रूप में वर्णित किया गया है।

इस प्रकार सोम के अर्थ में रस का प्रयोग विशिष्ट हो गया। सोमरस का आस्वाद अपूर्व था। इसमें कुछ ऐसी विशेषतायें थीं, जिनके कारण उसके पान करने से विचित्र आनन्द की प्राप्ति होती थी, साथ ही शरीर और मन में स्फूर्ति तथा मद का संचार होता था। ऋग्वेद की अनेक ऋचाओं में वाणी के लिए प्रयुक्त स्वादु, मधु आदि विशेषणों का प्रयोग इस विचार को प्रमाणित करता है कि रस के लिये वाक् शब्द के प्रयोग का भी वैदिक साहित्य में विवरण उपलब्ध होता है-

वचः स्वादो स्वादीयो रुद्राय वर्धनम् ।। ‘अर्थात् रुद्र को प्रसन्न करने के लिये स्वादु से भी स्वादु वचन। इसके अतिरिक्त ‘पिबत्वस्य गिर्वणः’, ‘मध्व ऊषु मधुयुवा रुद्रा सिषक्तिं पिप्युषी, वाचा वदामि’मधुमद् भूयासं मधुसन्दृशः’,’ तथा ‘वाचों मधु पृथिवि! छेहि मह्यम्” आदि से यहस्पष्ट हो जाता है कि रस के अर्थ में ‘वाक्’ का प्रयोग किया जाता है

ऋग्वेद में उल्लेखित है- “जो पुरुष पवमान ऋचाओं (सोमयुक्त) के रूप में ऋषियों द्वारा सम्भृत रस का पान करता है, वह पवित्र और स्वादिष्ट अन्न का आनन्द लेता है उस वेद वाणी के लिए देवी सरस्वती दूध, घृत और सोम का दोहन करती हैं। यहाँ ‘पावमान’ शब्द सोम के लिए प्रयुक्त है ।

भौतिक गुणों के साथ आध्यात्मिकता का समावेश- सोम एक प्रकार का भौतिक रस है। परन्तु जब इसका प्रयोग आध्यात्मिक रूप में किया जाता है तो यह विश्वव्यापक और अमरता को प्राप्त कर लेता है। जहां भौतिक रस के रूप में यह केवल मानवीय है, वहीं अध्यात्म के रूप में दैवीय स्पर्श से अलंकृत हो जाता है। रस के इन दोनों ही रूपों से सम्बन्धित मन्त्र ऋग्वेद में सोम की स्तुतियों में प्राप्त होते हैं ।

उपनिषदों में जिस प्रकार वेदों की अनेक भौतिक कल्पनाओं को सूक्ष्म आध्यात्मिक रूप दे दिया गया उसी प्रकार रस का भी आध्यात्मिक रूपान्तर हुआ। जहां वेदों में रस केवल मधु या सोमरस अथवा दुग्ध का ही अर्थ देता रहा। वहीं उपनिषदों में इनके मूल स्थित स्वाद की भावना का आधार लेकर यही रस मुख्यार्थ का बाधक होकर प्राणस्वरूपमाना जाने लगा। दूसरे शब्दों में उपनिषदों में रस द्रव्य के अर्थ में तो नहीं परन्तु द्रव्य-जनितशक्ति और आनन्द के रूप में प्रयुक्त हुआ । इसके अतिरिक्त न केवल द्रव्य-जनितशक्ति के रूप में बल्कि इससे भी सूक्ष्मतर रूप में तन्मात्राओं के अर्थ में प्रयुक्त हुआ है।

वृहदारण्यक उपनिषद् में ‘प्राणो वा अंगानां रसः” कहकर रस को सार भूततत्त्व कहा गया है । तैत्तिरीय उपनिषद् में स्वयं ब्रह्म को ही रस स्वरूप कहा गया है ।वह अर्थात् ब्रह्म रस स्वरूप है ।

शक्ति, तन्मयता और आनन्द का समावेश- उपर्युक्त विवरण के अतिरिक्त ‘आनन्द’ तथा ‘काम’ के रूप में भी रस के अर्थका विकास वैदिक युग में ही हुआ । आनन्द शब्द सम्पूर्ण ऋग्वेद में दो बार प्राप्त होताहै । वह भी सोम की स्तुति में ही।एक मन्त्र के अनुसार ऋत्विज जन सोम की स्तुतिमें छन्दोबद्ध वर्णन करते हुये सोम लता को पत्थर पर पीसने से उत्पन्न ध्वनि से आनन्द काअनुभव करते थे । इसका अभिप्रायः यह हो सकता है कि जब ऋत्विज् जन सोम लताको पत्थर पर पीसते थे और साथ-साथ सोम की स्तुति में मंत्रों का पाठ भी करते थे तबपीसने से उत्पन्न ध्वनि और मंत्रों के उच्चारण से एक आनन्द प्राप्त होता था ।

आनन्द की प्रकृति को समझने से “कामस्य यत्राप्ताः कामाः इस विचार कोभी स्थान प्राप्त होता है । इसके अनुसार व्यक्ति की सभी इच्छाओं के पूर्ण होने सेअथवा सभी इच्छाओं से रहित हो जाने से परम आनन्द की प्राप्ति होती है 12 काम(इच्छा) और रस की इस दशा का वर्णन अर्थर्ववेद में इस प्रकार प्राप्त होता है –

“अकामोधीरो अमृतः स्वयंभू रसेन तृप्तो न कुतश्च नोनः”

अर्थात् वह आत्मा अकाम् अर्थात्इच्छाओं से रहित, धीर, अमृत, स्वयं उत्पन्न; अपने रस से स्वतः तृप्त रहता है।  अतः कहा जा सकता है कि सोम रस के संसर्ग से रस की अर्थ परिधि में क्रमशः शक्ति, तन्मयता और अन्त में आनन्द का समावेश हो गया ।

सोम और सुरा में अंतर

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हमारे धर्मग्रंथों में मदिरा के लिए मद्यपान शब्द का उपयोग हुआ है, जिसमें मद का अर्थ अहंकार या नशे से जुड़ा है। इससे ठीक अलग सोमरस के लिए सोमपान शब्द का उपयोग हुआ है, जहां सोम का अर्थ शीतल अमृत बताया गया है।

वैदिककाल में मद्यपान का प्रचलन- वैदिक कालीन समाज कृषि प्रधान था। और वैदिक काल में सोम और सुरा का प्रचलन था। सोमयज्ञो में सोम एवं सोत्रामणी में सुरापान किया जाता था। वैदिक आर्य अपने इष्ट देवता इन्द्र को सोम व सुरा अर्पित करने के बाद पीते थे।

ऋग्वेद में दो प्रकार के मादक पेयों सोम और सुरा का उल्लेख है- सोम पुरोहितों और देवताओं द्वारा ग्रहण करने वाला पेय पदार्थ था। सुरा जन-साधारण द्वारा उपयोग किया जाने वाला पेय पदार्थ था। ऋग्वेद‘ में मद्य का एक नाम मत्सर भी है। इसका प्रसिद्ध अर्थ लोभ है।

ऋग्वेद में सोम और सुरा में फर्क बताया गया है ऋग्वेद में सुरा की घोर निंदा करते हुए कहा गया है-

हृत्सु पीतासो युध्यन्ते दुर्मदासो न सुरायाम्।।

अर्थात: सुरापान करने या नशीले पदार्थों को पीने वाले अक्सर युद्ध, मार-पिटाई या उत्पात मचाया करते हैं।

तैत्तिरीय ब्राह्मण‘ (1-3-3-3) का कहना है:

एतद् वै देवानां परममन्नं यत्सोम:एतन्मनुष्याणां यत्सुरा.

अर्थात: सोम देवताओं का परम अन्न है और सुरा मनुष्यों का परम अन्न है.

शतपथब्राह्मण‘ (12-7-3-94) कहता है:

यशो हि सुरा.

अर्थात: सुरा से यश फैलता/मिलता है

तैत्तिरीय ब्राह्मण‘ ( 1-3-3-4) कहता है:

पुमान् वै सोम: स्त्री सुरा (तैत्तिरीय ब्राह्मण 1-3-3-4)

अर्थात: सोम को पुंलिंग (पुरुष) और सुरा (स्त्री) को उस की पत्नी कहा गया है।

सौत्रामणी नामक यज्ञ में तो सुरापान का विधान है

सौत्रामण्यां सुरां पिबेत्. शतपथब्राह्मण (12-8-1-2)

इसीलिए सौत्रामणी यज्ञ को सुरावाला (सुरावान्) यज्ञ कहा है

सुरावान् वा एष बहिंषद् यज्ञो यत् सौत्रामणी।

देवताओं के लिए सुर‘ शब्द का प्रयोग होता है, जो उन के सुरापान करने के कारण ही अस्तित्व में आया है. आप्टे ने अपने कोश में ‘सुर’ शब्द का अर्थ बताते हुए ‘रामचरितम्’ का उद्धरण दिया है

सुराप्रतिग्रहाद् देवा: सुरा इत्यभिविश्रुता:.

अर्थात: सुरा ग्रहण करते रहने के कारण देवता ‘सुर’ नाम से प्रसिद्ध हुए।

सोमरस और सुरा में फर्क है ऋग्वेद में शराब की घोर निंदा करते हुए कहा गया है-

हृत्सु पीतासो युध्यन्ते दुर्मदासो न सुरायाम्।।

अर्थात: सुरापान करने या नशीले पदार्थों को पीने वाले अक्सर युद्ध, मार-पिटाई या उत्पात मचाया करते हैं।

सुरा कैसे सोमरस से अलग है… सुरा बनाने की विधि

यजुर्वेद के एक मन्त्र में सुराकार अर्थात्सुरा बनाने वाले की ओर सङ्केत किया गया है – कीलालाय सुराकारम् । इस मन्त्र का कथन है कि सुराबनाने वाला सुराकार है। यजुर्वेद के अन्य मन्त्रों में सुरा निर्माण की प्रक्रिया का भी वर्णन किया गया है-

शष्पाणि… तोक्मानि… सोमस्य लाजा.

सोमांशवो मधु।

मासरं… नग्नहुः । रूपमेतद् उपसदाम्

एतत् तिस्त्रो रात्री: सुराऽऽसुता।

अर्थात: इन मन्त्रों में कहा गया है कि अङ्कुरित चाँवल, अङ्कुरित जौ और खील का चूरा, सोमरस में डालकर तीन रात तक रखने से सुरा तैयार हो जाती है। 

वेदों में दी गई इन ऋचाओं में सोमरस का विस्तृत वर्णन किया गया है… ऋग्वेद की एक ऋचा में लिखा गया है कि ‘यह निचोड़ा हुआ शुद्ध दधिमिश्रित सोमरस, सोमपान की प्रबल इच्छा रखने वाले इन्द्रदेव को प्राप्त हो।। (ऋग्वेद-1/5/5) …हे वायुदेव! यह निचोड़ा हुआ सोमरस तीखा होने के कारण दुग्ध में मिश्रित करके तैयार किया गया है। आइए और इसका पान कीजिए।। (ऋग्वेद-1/23/1)

शतं वा य: शुचीनां सहस्रं वा समाशिराम्। एदुनिम्नं न रीयते।। (ऋग्वेद-1/30/2)

अर्थात: नीचे की ओर बहते हुए जल के समान प्रवाहित होते सैकड़ों घड़े सोमरस में मिले हुए हजारों घड़े दुग्ध मिल करके इन्द्रदेव को प्राप्त हों।

इन सभी मंत्रों में सोम में दही और दूध को मिलाने की बात कही गई है, जबकि यह सभी जानते हैं कि शराब में दूध और दही नहीं मिलाया जा सकता। भांग में दूध तो मिलाया जा सकता है लेकिन दही नहीं, लेकिन यहां यह एक ऐसे पदार्थ का वर्णन किया जा रहा है जिसमें दही भी मिलाया जा सकता है। अत: यह बात का स्पष्ट हो जाती है कि सोमरस जो भी हो लेकिन वह शराब या भांग तो कतई नहीं थी और जिससे नशा भी नहीं होता था अर्थात वह हानिकारक वस्तु तो नहीं थी। देवताओं के लिए समर्पण का यह मुख्य पदार्थ था और अनेक यज्ञों में इसका बहुविध उपयोग होता था। सबसे अधिक सोमरस पीने वाले इन्द्र और वायु हैं। पूषा आदि को भी यदा-कदा सोम अर्पित किया जाता है, जैसे वर्तमान में पंचामृत अर्पण किया जाता है।

ऋग्वेद में रस शब्द का प्रयोग कभी मधुकभी गौ-क्षीरकभी सोमरस अथवा कभी रस युक्तता को प्रकट करनेके लिए हुआ है ।

ऋग्वेद के मन्त्रों में द्यावापृथिवी में हाइड्रोजन की उपस्थिति सोम के रूप में कही गयी है –

यं सोममिन्द्र पृथिवीद्यावा गर्भं न माता बिभृतस्त्वाया।

धृतेन द्यावापृथिवी अभीवृते धृतश्रिया धृतपचा धृतावधा।

अर्थात: उपर्युक्त मन्त्रों में हाइड्रोजन की उपस्थिति पृथिवी और आकाश में सर्वत्र बताते हुए हाइड्रोजन को ही द्यावापृथिवी में वृद्धि, विस्तार और प्रकाश का कारण कहा है साथ ही मन्त्र में यह भी कहा गया है किसोम को द्यावापृथिवी ने गर्भस्थ बालक की तरह अपने अन्दर धारण किया हुआ है।

ऋग्वेद के एक मन्त्र का कथन है कि सोम देवों का पेय पदार्थ है –

अश्नवत् सोमसुत्वा।

अर्थात: सोम का अर्क निकालने की प्रक्रिया को सोम सुति और सोमसुत्या कहते थे और इस प्रकिया सेरस निकालने वाले सोमसुत् और सोमसुत्वन् कहलाते हैं। इस कार्य को पवित्र माना गया है। ऋग्वेद कापूर्ण नवम् मण्डल (११०८ मन्त्र) सोम के विषय में हैं। द्राक्षासव के समान ही सोम का भी आसव तैयारकिया जाता था जिसे देवता पेय पदार्थ के रूप में ग्रहण करते थे।

ऋग्वेद में कहा गया है कि जल में सोम आदि रसों को मिलाकर सेवन करने से मनुष्य दीर्घायु होता है-

यद् देवा अदः सलिलेसुसंरब्धा अतिष्ठत।

मन्त्र में कहा गया है कि जल में हमेशा देव तैयार होते हैं तथा जल में कोई भी कभी भी इच्छानुसार परीक्षण कर सकता है

इस मन्त्र का कथन है कि सोम के मिश्रण से तीन प्रकार के पेय बनाये जाते हैं जिन्हें सामूहिक रूप से त्र्याशिर: कहते हैं।

सोमा इव त्र्याशिरः।

दही के मिश्रण से बना पेय दध्याशिर्, सत्तू के मिश्रण से बना पेय यवाशिर् एवं दूधआदि के मिश्रण से बना पेय गवाशिर् कहलाता है। ऋग्वेद के एक मन्त्र में मध्वो रसम् कहकर मधुरसायन का भी वर्णन किया गया है। इसमें सोम के तुल्य ही मधु (शहद) का आसव और रसायन तैयारकिये जाने का वर्णन है

एक मन्त्र में सुरा निर्माण करने वाले को सुरावत् कहा गया है। ऋग्वेद के ही एक अन्य मन्त्र मेंसुरा रखने के पात्र, पीने के पात्र एवं उससे उत्पन्न होने वाली बीमारी का सङ्केत किया गया है। इस मन्त्र मेंसुरा रखने के पात्र को सुराधान, सुरा पीने के पात्र को सुराकंस एवं सुरा से उत्पन्न होने वाली बीमारी कोसुराम कहा गया है।

सुरा को समझने के लिए इन दो शब्दों सौत्रामणी’ और किण्वीकरण‘ को समझना होगा-

  • सौत्रामणी यज्ञ क्या है जिसमें सुरा का प्रयोग होता था- सौत्रामणि = सु त्रमण = अर्थात उत्तम प्रकार से रक्षा करना।  तैत्तरीय संहिता में इन्द्र कि बिखरी हुई शक्तियों को एकत्रित करने के लिए सौत्रामणि यज्ञ का वर्णन है।
  • सुरा में किण्वीकरण‘ होना आवश्यक- सोम और सुरा में एक मुख्य अंतर यह भी है कि सोमरस सोमलता को कूटकर निकाला हुआ रस है। जबकि सुरा में ‘किण्वीकरण’ होना आवश्यक है। किण्वीकरण एक विधि है इसके द्वारा किसी भी शक्करमय पदार्थ या स्टार्चमय पदार्थ से ऐल्कोहल व्यापारिक मात्रा में बनाई जाती है। इस अभिक्रिया को आज की साइंटिफिक भाषा में लिखा जा सकता है- C6H12O6 → 2 C2H5OH + 2 CO2

सौत्रामणि यज्ञ- इन्द्र के निमित्त जो यज्ञ किया जाता हैउसे सौत्रामणि यज्ञ कहते हैं। वह दो प्रकार का होता है- प्रथम स्वतन्त्र और द्वितीय अंगभूत। स्वतन्त्र भूत केवल ब्राह्मणों के लिये विधेय है और अँगभूत, क्षत्रिय और वैश्यों के लिये।

  • इस यज्ञ के दो भेद हैं – 1- कौकिली 2- चरक सौत्रामणि। कौकिली सौत्रामणि में साम मन्त्रों का गायन किया जाता है। चरक सौत्रामणि साधारण सौत्रामणि है जिसका सम्पादन प्रायः राजसूय यज्ञ के एक माह बाद किया जाता है। इस यज्ञ में तीन दिनों तक भिन्न-भिन्न प्रकार की सुरा बनाई जाती है। आजकल सुरा कीजगह दूध का प्रयोग किया जाता है।
  • तैत्तिरीय संहिता (2.5.1) तथा शतपथ ब्रह्माण (1.6.3, 5.5.4) में त्वष्टा के पुत्र विश्वरूप की गाथा आयी है। विश्वरूप के तीन सिर थे, एक से वह सोम पीता था, दूसरे से सुरा और तीसरे से भोजन करता था। इन्द्र में विश्वरूप के सिर काट डाले, इस पर त्वष्टा बहुत क्रोधित हुआ और उसने सोमयज्ञ किया जिसमें इन्द्र को आमन्त्रित नहीं किया। इन्द्र ने बिना निमन्त्रित हुए सारा सोम पी लिया। इतना पीने से इन्द्र को महान कष्ट हुआ, अत: देवताओं ने सौत्रामणी नामक इष्टि द्वारा उसे अच्छा किया। सौत्रामणि यज्ञ उस पुरोहित के लिए भी किया जाता था जो अधिक सोम पी जाता था। इससे मदमत्त व्यक्ति वरम या विरेचन करता था। (देखिए कात्यायन श्रौतसूत्र 19.1.14) शतपथ ब्राह्मण (12.7.3.5) एवं कात्यायन श्रौतसूत्र (191.20-27) में सुरा बनाने की विधि बतायी गयी है। जैमिनि (3.5.14-15) में सौत्रामणी यज्ञ के विषय में चर्चा है। इस यज्ञ में कोई ब्राह्मण बुलाया जाता था और उसे सुरा का तलछट पीना पड़ता था।

सुरा के प्रकार

बौधायन ग्रन्थ में सुरा के अलावा वारूणी और शीघ्र का भी वर्णन है।

पचित्तिय में पिठ-सुरा, पूव-सुरा, ओदन सुरा (किण्वयाकिखत्ता संभारसंयुत्ता) तथा मैरेय का उल्लेख है।

कौटिल्य ने बेदक, प्रसन्ना, आसव, अरिष्ठ, मरैय व मधु के अलावा कापिशायन और हारहूरक आदि मद्य का वर्णन है।

रामायण में भी मैरेय, सुरा और वारूणी का उल्लेख है। शर्करासव, माध्वीक, पुष्पासव और फलासवका भी रामायण में वर्णन है।

चरक ने सुरा, मदिरा, अरिष्ट, शार्कर, गौड़, मद्य, मधु आदि को मद्यपेय माना है।

सुश्रुत सूत्र में सामान्य सुरा, श्वेतसुरा यवसुरा, शीधु, नरैया और आसव का वर्णन है।

वाणभट्ट ने सुरा वारूणी, अरिष्ट, मार्दीक, खार्जूर, शर्करा, शीधु, आसव, मध्वासव आदि मद्यों का वर्णन है।

कालीदास ने नारिकेलासव, शीधु, पुष्पासव, मधु, द्राक्षासव, वारूणी व हाला आदि मद्य बताया है।

मादक पेय के रूप में सुरा‘ और मैरेय‘ के उल्लेख मिलते हैं- जातकों में मधुशाला के वर्णन उपलब्ध होते हैं। महावग्ग में मज्जा का उल्लेख है। यह एक प्रकार की सुरा थी जिसका प्रयोग औषधि के रूप में होता था। जातकों से ज्ञात होता है कि लोग उत्सव के दिन जी भरकर खाते पीते और आनन्द मनाते थे जिसमें मद्यपान का प्रमुख स्थान रहताथा। इनमें एक उत्सव का नाम ही सुरानक्षत्र पड़ गया, अनियन्त्रित सुरापान, नृत्य, संगीत और भोजन इसकी प्रमुख विशेषताएँ थी। विनयपिटक के अनुसार श्रमण तथा भिक्षु के लिए सुरापान वर्जित था।

वैदिक काल में मद्यपान का प्रचलन 

सोम का प्रयोग केवल देवगण एवं पुरोहित लोग कर सकते थे, किन्तु सुरा का प्रयोग अन्य कोई भी कर सकता था, और वह बहुधा देवगणों को समर्पित नहीं होती थी। 

सोम के अलावा 13 प्रकार के अन्य मद्यों का उल्लेख आता है- सुरा, हलिप्रिया, हाला, परिसुत, वरूणात्मजा, गन्धोत्तमा, प्रसन्ना, इरा, कादम्बरी, परिसुता, मदिरा, कश्यम् और मद्यम।a-6-abc

मद्य पान का उल्लेख

  • मदिरा पान के समय खाने वाले नमकीन का ‘नाम अवदश बताए गया है।
  • मदिरा पीने की अवसर के भी दो नाम बताए गये हैं – मधुवार, मधुक्रम।
  • महुए की शराब के चार नाम बताए गए हैं- मध्वासन, माधवक, मधु, मार्दीकम।
  • ईख से निर्मित शराब के तीन नाम- मेरेयम, आसव एवं शीधु बताए गए हैं।
  • मदिरा निर्माण के दो नाम- सन्धानम् एवं अभिषव बताए गए हैं।
  • मदिरा पीने के स्थानों के नाम शुण्डा, पानम्, मदस्थानम्, आपानम्पान गोष्ठिका बताए गए हैं।
  • मदिरा के काढ़े के लिए पिसे हुए पदार्थ का नाम मेदक, जगल बताए गया है।
  • मदिरा पीने के चषक के दो नाम – चषक एवं पानपात्रम् बताए गए हैं।
  • शराब पीने या परोसने का नाम सरक अनुतर्षणम् बताया गया है।

याज्ञवल्क्य में रंगरेज, वधिक, रजक, बंदीजन, मद्य बेचने वाले कुलाल, तेलीया गाड़ीवान के घर अन्न ग्रहण करने का निषेध है।

भागवतमहापुराण (स्कन्ध 8, अध्याय 5) के अनुसार चाक्षुष-मन्वन्तर (पौराणिक कालगणनानुसार लगभग 42.89 करोड़ वर्ष पूर्व) भगवान् विष्णु का कच्छप-अवतार हुआ एवं क्षीरसागर के मन्थन से 14 रत्नों में से नौवे क्रम में निकली सुरा लिए हुए वारुणी देवी। भगवान की अनुमति के बाद वारुणी देवी ने सुरा को असुरों को सौंप दिया गया।

ऋग्वेद (7.86.6) में वसिष्ठ ऋषि ने वरिण से प्रार्थना भरे शब्दों में कहा है कि मनुष्य स्वयं अपनी वृत्ति या शक्ति से पाप नहीं करता, प्रत्युत भाग्य, सुरा, क्रोध जुआ एंव असावधानी के कारण वह ऐसा करता है। सोम एवं सुरा के विषय में अन्य संकेत देखिए ऋग्वेद (8.2.12, 1.116.7, 1.191.10, 10.107.9, 10.13.4 एंव 5)।

अथर्ववेद (4.34.6) में ऐसा आया है कि यज्ञ करने वाले को स्वर्ग में घृत एवं मधु की झीलें एवं जल की भांति बहती हुई सुरा मिलती है। ऋग्वेद (10.131.4) में सोम-मिश्रित सुरा को सुराम कहते हैं और इसका प्रयोग इन्द्र ने असुर नमुचि के युद्ध में किया था। अथर्ववेद में सुरा का वर्णन कई स्थानों पर हुआ है, यथा 14.1.35-36, 15.9.2-3। वाजसनेयी संहिता (19.7) में भी सुरा एंव सोम का अन्तर स्पष्ट किया गया है।

शतपथ ब्राह्मण (5.5.4.28) में सोम को ‘सत्य, समृद्धि एंव प्रकाश’ तथा सुरा को ‘असत्य, क्लेश एंव अंधकार’ कहा है। इसी ब्राह्मण (5.5.4.21) ने सोम और सुरा के मिश्रण के भयानक रुप का वर्णन किया है।

काठकसंहिता (12.12) में मनोरंजक वर्णन आया है; प्रौढ़, युवक, वधुएं और श्वशुर सुरा पीते हैं, साथ-साथ प्रलाप करते हैं; मूखर्ता (विचारहीनता) सचमुच अपराध है। इसलिए ब्राह्मण यह सोचकर कि यदि मैं पीऊंगा तो अपराध करूंगा, सुरा नहीं पीता, अत: यह क्षत्रिय के लिए है; ब्राह्मण से कहना चाहिए- यदि क्षत्रिय सुरा पीये तो उसकी हानि नहीं होगी”। इस कथन से स्पष्ट है कि काठकसहिंता के काल में सामान्यत: ब्राह्मण लोग सुरा पीना छोड़ चुके थे। सौत्रामणी यज्ञ में सुरा का तलछट पीने के लिए भी ब्राह्मण का मिलना कठिन हो गया था।

तैत्तिरीय ब्राह्मण 1.8.6) ऐतरेय ब्राह्मण (37.4) में अभिषेक के समय पुरोहित द्वारा राजा के हाथ में सुरापात्र का रखा जाना वर्णित है। छान्दोग्योपनिषद् (5.10.9) में सुरापान करने वाले को पांच पापियों में परिगणित किया गया है। इसी उपनिषद् (5.11.5) में केकय के राजा अश्वपति ने कहा है कि उसके राज्य में मद्यप नहीं पाये जाते।

कुछ गृह्यसूत्रों में एक विचित्र बात पायी जाती है- अन्वष्टका के दिन जब पुरुष पितरों को पिण्ड दिया जाता है तो माता, पितामही (दादी) एवं प्रपितामही को पिण्डमान के साथ सुरा भी दी जाती है। उदाहरणार्थ, आश्व- लायनगृह्यसूत्रों (2.5.5) में आया है- “पितरों की पत्नियों को सुरा दी जाती है और पके हुए चावल का अवशेष भी”। यही बात पारस्करगृह्यसूत्रों (3.3) में भी पायी जाती है।

काठकगृह्यसूत्र (65.7-8) में आया है कि अन्वष्टका में नारी पितरों के पिण्डों पर चमस से सुरा छिड़की जानी चाहिए और वे पिण्ड नौकरों या निषादों द्वारा खाए जाने चाहिए, या उन्हें पानी या अग्नि में फेंक देना चाहिए या ब्राह्मणों को खाने के लिए दे देना चाहिए। इस विचित्र बात का कारण बताना कठिन है। यदि अंदाजा लगाए तो कहा जा सकता है कि (1) उन दिनों नारियां सुरापान किया करती थीं (सम्भवत: लुक-छिपकर), या (2) गृह्यसूत्रों के काल में अंतर्जातीय विवाह चलते थे और घर में क्षत्रिय और वैश्य पत्नियां सुरापान किया करती थीं।

मनु (11.15) ने ब्राह्मणों के लिए सुरापान वर्जित माना है, किन्तु कुल्लूक का कथन है कि कुछ टीकाकारों के मत से यह प्रतिबन्ध नारियों पर लागू नहीं होता था। गृह्यसूत्रों की दृष्टि में उपर्युक्त छूट के लिए जो भी कारण रहे हों, किन्तु यह बात काठकसंहिता एंव ब्राह्मण ग्रन्थों के लिए ही नहीं प्रत्युत अकमत से धर्मसूत्रों एंव स्मृतियों के लिए पूर्णरूपेण अमान्य रही है।

गौतम (2.25), आपस्तम्बधर्मसूत्र (1.5.17.21), मनु (11.14)  ने एक स्वर से ब्राह्मणों के लिए सभी अवस्थाओं में सभी प्रकार की नशीली वस्तुओं को वर्जित जाना है। सुरा या मद्य का पान एक महापातक कहा गया है (आपस्तम्बधर्मसूत्र 1.7.21.8, वसिष्ठधर्मसूत्र 1.20, विष्णुधर्मसूत्र 15.1, मनु 11.54, याज्ञवल्क्य 3.227)। यह सब होते हुए भी बौधायनधर्मसूत्र (1.2.4) ने लिखा है कि उत्तर के ब्राह्मणों के व्यवहार में लायी जाने वाली विचित्र पांच वस्तुओं में सीधु (आसब) भी है। इस धर्मसूत्र ने उन सभी विलक्षण पांचों वस्तुओं की भर्त्सना की है।

मनु (11.13-14) की ये बातें निबन्धों एंव टीकाकारों ने उद्धत की हैं- “सुरा भोजन का मल है, और पाप को मल कहते हैं, अंत: ब्राह्मणों, राजन्यों (क्षत्रियों) एंव वैश्यों को चाहिए कि वे सुरा का पान न करें। सुरा तीन प्रकार की होती है- गुड़ वाली, आटे वाली तथा मधूक (महुआ) के फूलों वाली (गौड़ी, पैष्टी एंव माध्वी), इनमें किसी को भी ब्राह्मण ने पीये”।

महाभारत (उद्योगपर्व 55.5) में वासुदेव एवं अर्जुन मदिरा (सुरा) पीकर मत्त हुए कह गये हैं। यह मदिरा मधु से बनी थी। तन्त्रवार्तिक (पृ. 209-210) ने लिखा है कि क्षत्रियों को यह वर्जित नहीं थी अत: वासुदेव एवं अर्जुन क्षत्रिय होने के नाते पापी नहीं हुए।

मनु (11.93-94) एवं गौतम (2.25) ने ब्राह्मणों के लिए सभी प्रकार की सुरा वर्जित मानी है, किन्तु क्षत्रियों एवं वैश्यों के लिए केवल पैष्टी वर्जित है। शूद्रों के लिए मद्यपान वर्जित नहीं था, यद्यपि वृद्ध हारीत (9.277-278) ने लिखा है कि कुछ लोगों के मत से सत्-शूद्रों को सुरापान नहीं करना चाहिए। मनु की बात करते हुए वृद्ध हारीत ने कहा है कि झूठ बोलने, मांस- भक्षण करने, मद्यपान करने, चोरी करने या दूसरे की पत्नी चुराने से शूद्र भी पतित हो जाता है। प्रत्येक वर्ण के ब्रह्मचारी को सुरापान से दूर रहना पड़ता था- (आपस्तम्बधर्मसूत्र 1.1.2.23, मनु 2.177 एवं याज्ञवल्क्य 1.33)।

महाभारत (आदिपर्व 76.77) ने शुक्र, उनकी पुत्री देवयानी एवं शिष्य कच की गाथा कही है और लिखा है कि शुक्र ने सबसे पहले ब्राह्मणों के लिए सुरापान वर्जित माना और व्यवस्था दी जी उसके उपरान्त सुरापान करने वाला ब्राह्मण ब्रह्महत्या का अपराधी माना जायेगा। मौशलपर्व (1.29-30) में आया है कि बलराम ने उस दिन से जब कि यादवों के सर्वनाश के लिए मूसल उत्पन्न किया गया, सुरापान वर्जित कर दिया और आज्ञा दी कि अनुशासन का पालन न करने से लोग सूली पर चढ़ा दिए जाएंगे।

शान्तिपर्व (34.20) ने यह भी लिखा है कि यदि कोई भय या अज्ञान से सुरापान करता है तो उसे पुन: उपनयन करना चाहिए। विष्णुधर्मसूत्र (22.83-84) के अनुसार ब्राह्मणों के लिए वर्जित मद्य 10 प्रकार की हैं- माधूक (महुआ वाली) , ऐक्षव (ईख वाली), टांक (टंक या कपित्थ फल वाली) कौल (कोल या बदर या उन्नाव नामक बेर वाली), खार्जूर (खजूर वाली), पानस (कटहर वाली) अंगूर, माध्वी (मधु वाली), मैरेय (एक पौधे के फूलों वाली) एवं नारिकेलज (नारिकेल वाली) किन्तु ये दसों क्षत्रियों एवं वैश्यों के लिए वर्जित नहीं है। सुरा नामक मदिरा चावल के आटे से बनती थी।

मनु (9.80) एवं याज्ञवल्क्य (1.73) के मतानुसार मद्यपान करन वाली पत्नी (चाहे वह शूद्र ही क्यों न हो और ब्राह्मण को ही क्यों न ब्याही गयी हो) त्याज्य है। मिताक्षरा ने उपर्युक्त याज्ञवल्क्य के कथन की टीका में पराशर (10.26) एंव वसिष्ठधर्मसूत्र का हवाला देते हुए कहा है कि मद्यपान करने वाली स्त्री के पति का अर्ध शरीर बड़े भारी पाप का भागी होता है।

धर्मसूत्रों में मद्य के प्रकार 

गौतम धर्मसूत्र में सुरा का ही वर्णन मिलता है। आपस्तम्ब (प्रमुख धर्मसूत्रों एवं स्मृतियों में प्रायश्चित विधान- शिखा शर्मा) ने भी सुरा शब्द का ही प्रयोग किया है। आपस्तम्ब धर्मसूत्र के अनुसार सुरापान करने वाला व्यक्ति अग्नि पर खौलाई गयी सुरा पिये।  बौधायन (बौधायन धर्मसुत्र) ने सुरा के अलावा वारूणी और शीघ्र का भी वर्णन किया है।

ऋग्वेद के वर्णन से लगता है कि मधु भी मादक पेय था, मधु का प्रयोग रस के संदर्भ में किया गया है। ऋग्वेद के एक श्लोक “स्वादु रसो मधुपेयो वराय” (6.44.21) में इससे राजा के मस्त होने का उल्लेख है।

बौद्ध साहित्य संयुक्त निकाय में सुरा और मैरेय का वर्णन मिलता है। धम्मपद में भी इन्हीं का वर्णन मिलता है। धम्मपद , 22/4,5(5) सुरा – मैरेय – मद्य – विरमणम् – “बौद्धभिक्षवे गृहस्थाय च सुरापानम् , मद्यपानम् , मादक वस्तु सेवनं च वर्जितमस्ति”। महावग्ग (89-223) में मज्जा का उल्लेख है। यह एक प्रकार की सुरा थी जिसका प्रयोग औषधि के रूप में होता था।

पाचित्तिय (भाग-6) में सुरा के अनेक प्रकारों का वर्णन मिलता है- मैरेय एक प्रकार की सुरा है जिसे फूलों के आसव से बनाया जाता था। इसके भी कई प्रकारों का वर्णन मिलता है जैसे – पुष्पों से बना पुष्पासव, फलों से बना फलासव और मधु से बना मध्वासव। पाचवें उपदेश में सूरा, मैरेय और मज्जा (मद्य) के सेवन पर प्रतिबंध की बात की गई है। कई और सुरा का वर्णन भी मिलता है- पिठ-सुरा, पूव-सुरा, ओदन सुरा, जो किण्वयक्खित्ता यानी फर्मेंटेशन के जरिए बनाई जाती थी।

कौटिल्य ने अर्थशास्त्र (अध्यायः25, 02.25.16) में मद्य के कई प्रकारों का वर्णन किया है – मेदक, प्रसन्ना,आसव, अरिष्ट, मैरेय और मधु। कौटिल्य ने कापिशायन और हारहूरक नामक मद्य का भी वर्णन किया है। सुरा के प्रकारों का वर्णन करते हुए कौटिल्य ने इसके चार प्रकार बताये हैं –सहकारसुरा, रसोत्तरा,बीजोत्तरा और सम्भारिका।

रामायण (बालकाण्ड- 1/45-23&25) में मद्य निम्न प्रकार मैरेय, सुरा और वारूणी का वर्णन मिलता है। वरुणस्य ततः कन्या वारुणी रघुनन्दन।। उत्पपात महाभागा मार्गमाणा परिग्रहम्। दितेः पुत्रा न तां राम जगृहुवरुणात्मजाम्।। अदितेस्तु सुता वीर जगृहुस्तामनिन्दिताम् ।असुरास्तेन दैतेयाः सुरास्तेनादितेः सुताः।। इसके अलावा शर्करासव, माध्वीक, पुष्पासव और फलासव का भी वर्णन मिलता है।

रामायण (सुंदरकाण्ड- 5/1120) में रावण की पानशाला के बारे में कहा गया है- दिव्याः प्रसन्ना विविधाः सुराः कृत सुरा अपि। शर्कर आसव माध्वीकाः पुष्प आसव फल आसवाः। वास चूर्णैः च विविधैर् मृष्टाः तैः तैः पृथक् पृथक्।। सदैव मधु-आसव (5/11/23), शर्करासव (2/94/24), पुष्पासव (5/11/23), फलासव(5/11/23), से भरी रहती थी। रामायण में रावण के रनिवास में स्थित पानशाला का विशद वर्णन हैं।

महाभारत काल में अधिकतर सुरा का ही प्रचलन था। परन्तु माध्वीक, कैलावत आदि का भी वर्णन मिलता है। कर्णपर्व- अध्याय:61- सतन्यस्य मातुर मधुसर्पिषॊ वा; माध्वीक पानस्य च सत्कृतस्य। स्त्रीपर्व- अध्याय:20- लज्ज माना पुरैवैनं माध्वीक मदमूर्छिता।

मनु ने मद्य के निम्न प्रकार वारुणी, सुरा और आसव का वर्णन किया है तथा सुरा अधिक बल दिया गया है। मनुस्मृति के श्लोक 11/95 ‘‘यक्षरक्षः पिशाचान्नं मद्यं मांस सुरा ऽऽ सवम्। सद् ब्राह्मणेन नात्तव्यं देवानामश्नता हविः।” में कहा गया है कि ‘‘मद्य, मांस, सुरा और आसव ये चारों यक्ष, राक्षसों तथा पिशाचों के अन्न (भक्ष्य पदार्थ) हैं, अतएव देवताओं के हविष्य खाने वाले ब्राह्मणों को उनका भोजन (पान) नहीं करना चाहिये।”

हरिवंश पुराण (विष्णु पर्व अध्याय 89 श्लोक 36-52) में मैरेय, माध्‍वीक, सुरा और आसव नाम मधु से भरे हुए कलश का उल्लेख है।

चरक (चरक संहिता, सूत्रस्थान- 27.180) ने निम्न प्रकार के मद्यों का वर्णन किया है – “हिक्काश्वासप्रतिश्यायकासवर्षोंग्रहारुचौं। वम्यानाह विबन्धेषु वातघ्नी मदिरा हिता।।“ आचार्य चरक ने मद्य को अनेक नाम यथा- मदिरा, जगल, अरिष्ट, शार्कर, धातकी (धाय के फूलों से निर्मित)मधुमद्य, सुरा, जौ की सुरा, तुषोदक अम्लकजिक, मैरेय, हाला, आदि से उल्लेख किया है। स्वभाव से सभी प्रकार केमद्य रस में अम्ल उष्णवीर्य आदि विपाक में भी अम्ल होते हैं मदिरा पीने से होने वाले लाभ का भी वर्णन किया है।

सुश्रुत (सुश्रुत संहिता- 174-206) ने भी मद्य के निम्न प्रकारों कावर्णन किया है – द्राक्षा मद्य, खार्जूर, प्रसन्ना, सुरा, इसके कई प्रकार है – सामान्य सुरा, श्वेतसुरा, यवसुरा,शीध्रु, मैरेय और आसव आदि।

वाणभट्ट ने निम्न प्रकार के मद्यों का वर्णन किया है सुरा, वारूणी, अरिष्ट, मार्दीक.खार्जूर, शार्केरा, शीधु, आसव, मध्वासव आदि ।

कालिदास की रचनाओं में मद्य के नारिकेलासव, शीधु, पुष्पासव, मधु, द्राक्षासव, वारूणीऔर हाला आदि प्रकारों का वर्णन मिलता है।’ कालिदास की रचनाओं में मघ के लिये मद्य आसव’ ‘मधामदिरा, कादम्बरी’ आदि पदों का प्रयोग हुआ है। कालिदास विशेषकर मद्य के तीन प्रकारों का उल्लेख करते हैं नारियल से बना हुआ नारिकेलासव, गन्ने के रस से बना हुआ शीघु और पुष्पों से निकाला हुआ पुष्पासव’। बहुधा धनिक वर्ग के लोग सुगंधित मद्य का ही प्रयोग करते थे। मृच्छकटिक में मदिरापान एवं मदिरालय के उल्लेख मिलते हैं।

चतुर्भाणी में आये धूर्तविट संवाद से लगता है कि शराब को सुगन्धित और रूचिकर बनाने के लिए उसमें कमल की पंखड़ियां तथा सहकार तैल डाला जाता था।

सुबन्धु के “वासवदत्ता” में निम्न प्रकार के मद्यों का वर्णन मिलता है यथा – मधु,वारूणी और सुरा ।

बाण के “हर्षचरित’ में कई प्रकार के मद्यों का वर्णन मिलता है – सोम, मधु,मदिरा, प्रसन्ना, सुरा, सीधु, वारूणी और आसव आदि ।

मद्यनिषेध- सुरा-त्याग

उपरोक्त संदर्भों से साफ है कि अलग अलग काल में मद्य का प्रचलन था। लेकिन इसका सेवन सीमित था। ग्रन्थों में स्थान-स्थान पर सुरा-त्याग का उल्लेख किया गया है। मदिरा पान को पाप की ओर प्रवृत्ति तक कहा गया है।

ऋग्वेद (7.86.6) और अथर्ववेद (6.70.1; 14.1.35-36) में स्पष्ट उल्लेख है कि वैदिक युग में आरम्भिक काल से लोग सुरा के गुणों और अवगुणों से परिचित थे। वैदिक साहित्य में स्थान-स्थान पर सुरा की भरपूर निन्दा की गई है। मांस और जुआ के समकक्ष ही इसे बुरा माना गया है।

ऋग्वेद (8.2.12; 8.21.14) में कहा गया है कि मनोरंजन के लिए जो सभायें जुटती थीं, उनमें मदिरा पान करने वाले लोग लड़-झगड़ पड़ते थे। ऋग्वेद (10.131.5) के मुताबिक अधिक मदिरा पान करने वाले लोग सुराग रोग से पीड़ित होते थे। मदिरा पान से पाप की ओर प्रवृत्ति होती थी।

ऋग्वेद (7.86.6) शतपथ ब्राह्मण (5.1.5.28) के अनुसार सुरा का वैदिक काल से ही ऋषियों ने कभी आदर का स्थान नहीं दिया, क्योंकि इसके पीने से मानव की असत्प्रवृत्तियों को उत्तेजना मिलती है।

रघुवंश (4.42), कुमारसंभव (6.42), नैषधीयचरित (16.98) के अनुसार उपनिषद् युग में किसी राजा के लिए गौरव की बात थी कि उसके राज्य में एक भी सुरापायी न था। मदिरापान पांच महापातकों में गिना गया है। मनु ने तो ब्राह्मण, क्षत्रियऔर वैश्य किसी के लिए भी मदिरा पान उचित नहीं माना।

महाभारत, शान्तिपर्व (111.29)- महाभारत के अनुसार सुरा का सिद्धान्त रूप में निषेध किया गया, यद्यपि स्थान-स्थान पर सुरा पीने वालों का उल्लेख मिलता है। मधु, मांस और मद्य का परित्याग करने वाला सभी कठिनाइयों को पार कर जाता है। यदि औषधि रूप में अथवाभूल से भी मद्य पी लिया तो पुन: उपनयन करना पड़ता था

महर्षि वाल्मीकि ने रामायण (4.33.46) में लिखा है कि धर्म और अर्थ की सिद्धि के लिए मदिरा पान हानिकारक है। मदिरा पान करने में धर्म, अर्थ और काम सभी नष्ट हो जाते है। जो ब्राह्मण सुरापायी होते थे, उन्हें सड़कों पर लोग धिक्कारते चलते थे।

विष्णुपुराण (2.6-9) में विहित है कि मदिरापान करने वाले तथा ऐसे व्यक्ति के साथ सम्बन्ध रखने वाले व्यक्ति नरक में जाते हैं। कतिपय उद्धरणों में मदिरा बनाने वाले व्यक्ति को भी निन्द्य बताया गया है।

वायु पुराण (18.33) और ब्रह्माण्ड पुराण (2.12.133) में निरूपित है कि मदिरा बनाने वाला व्यक्ति पूयवह नामक नरक में जाता है।

ऋग्वेद (7.86.6) में एक स्थल पर मदिरा पानको पाप का कारण बताया गया है।

शतपथ ब्राह्मण (5.1.5.28) “अमृतं पाप्मा तमः सुरा” में सुरा की उपमा असत्य, दुःख और अन्धकार से दी गई है।

मनुस्मृति (9.235) में भी मदिरा पान करने वालों को महापापी की संज्ञा दी गई है।

ब्रह्माण्डपुराण (4.7.78) में वर्णित है कि ब्राह्मण को मोह, स्नेह अथवा इच्छा से मदिरापान नहीं करना चाहिए। एक अन्य स्थल पर वर्णन आता है कि आसवपान केवल क्षत्रिय आदि तीन वर्ण कर सकते हैं। ब्राह्मण की भांति ब्राह्मणी के लिए भी इसे वर्जित किया गया है।

मत्स्य पुराण (25.62) के अनुसार मोहवश मदिरा पान करने वाला ब्राह्मण अधार्मिक है। उसे ब्रह्महत्या का दोष लगता है। लोक तथा परलोकमें उसे गर्हित स्थान मिलता है। इन उद्धरणों से व्यक्त होता है कि ब्राह्मणार्थ मदिरापान आज्ञप्त नहीं था। इस सामान्य नियम के अन्तर्गत क्षत्रियादि तीन वर्ण नहीं आते थे।

विष्णुस्मृति (54.7) में भी मदिरापान करने वाले ब्राह्मण को नारकीय बताया गया है। इसी प्रकार महाभारत ने भी ब्राह्मणार्थ मदिरापान वर्जित किया है। इस सम्बन्ध में महाभारत का उद्धरण बिना किसी अन्तर के मत्स्यपुराण के तद्विषक स्थल के साम्य रखता है।

मदिरापान के दुर्गुणों एवं अव्यवस्थित कृत्यों से राज्यों में प्रतिबंध लगाये जाते रहे हैं। ये प्रतिबंध धार्मिक और सामाजिक आचार के स्वरूप थे। गुजरात में चालुक्य कुमारपाल ने मदिरापा नहीं नहीं बल्कि मदिरा-निर्माणशाला भी बन्द करा दी थी। (मोहराजपराजय, अंक 4, पृ. 83)

हेमचन्द्र के एक विवरण से स्पष्ट है कि चौलुक्य-कुल में मद्यपान वैसा ही वर्जित था, जैसा कि ब्राह्मणों से वर्जित था। (मुनिजिनविजय, राजर्षिकुमार पाल, पृ. 19)

सोमलता

सोम नाम से एक “लता” होती थी- सोम पर्वतों पर उगने वाला पौधा है। यह लता या पौध हिमवन्त से मूजवन्त पर्वत श्रृंखला तक मिलता था। ऋग्वेद के सूक्तों में हिमवन्त (एलबुर्ज पर्वत श्रृंखला, अर्थात ईरान) img_3475तथा मूजवन्त (गान्धार-कम्बोज प्रदेश, अर्थात अफगानिस्तान) पर्वत का उल्लेख मिलता है। ऋग्वेद में सोम को पर्वतों पर रहने वाला (गिरिष्ठा) तथा अनेक बार पर्वतों पर उगने वाला (पर्वतावृधः) कहा गया है। अथर्ववेद में पर्वतों को सोमन्तो पृष्ठ कहा गया है। ये बातें संकेत करती हैं कि सोमपर्वतों पर उगता था।

इसके अलावा कहां-कहां उल्लेख है- राजस्थान के अर्बुद, उड़ीसा के महेन्द्र गिरी, हिमाचल की पहाड़ियों, विंध्याचल, मलय आदि अनेक पर्वतीय क्षेत्रों में इसकी लताओं के पाए जाने का उल्लेख भी मिलता है। 

यद्यपि सोम को पर्वतों पर उगने वाला एक पौधा कहा गया है फिर भी इसके उत्पत्ति और आवास को स्वर्गीय ही माना गया है। इसके बारे में ऐसी अवधारणा है कि स्वर्ग से इस पौधे को पृथ्वी पर लाया गया है।

ऋग्वेद में इससे सम्बन्धित एक कथा वर्णित है- जिसके अनुसार उत्क्रोश पक्षी द्वाराइस पौधे को स्वर्ग से लाया गया है। कथानुसार उत्क्रोश पक्षी सोम-पौधे के पास उड़ कर गया और इस पौधे के मधुर काण्ड को तोड़ कर, अपने पैरों के बीच दबाकर, तीव्र गति से उड़ता हुआ वज्रधर अर्थात् इन्द्र के लिए सोम लाया।

सोम का रंग– विद्वानों का मत है कि अफगानिस्तान की पहाड़ियों पर पाया जाने वाली यह सोमलता बिना पत्तियों का गहरे बादामी रंग का पौधा है। वहीं जब इससे सोमरस बनाया जाता था तक यह अरूण वर्ण का होता था। ऋग्वेद के एक मन्त्र में इसे अरूण वृक्ष की शाखाभी कहा गया है। कहीं इसके वर्ण के लिए भूरा तथा कहीं हरित शब्द का प्रयोग किया गया है। ब्राह्ममण ग्रन्थों में सोम लता के अभाव में जिस पौधे को सोमलता का स्थानापन्न किया गया है उसका वर्णभी लाल या अरूण होता था।

ईरान में कुछ वर्ष पहले इफेड्रा नामक पौधे की पहचान कुछ लोग सोम से करते थे इफेड्रा की छोटी-छोटी टहनियां बर्तनों में दक्षिण-पूर्वी तुर्कमेनिस्तान में तोगोलोक-21 नामक मंदिर परिसर में पाई गई हैं। इन बर्तनों का व्यवहार सोमपान के अनुष्ठान में होता था। यद्यपि इस निर्णायक साक्ष्य के लिए खोज जारी है। हलांकि लोग इसका इस्तेमाल यौन वर्धक दवाई के रूप में करते हैं।

ईरान और आर्यावर्त: माना जाता है कि सोमपान की प्रथा केवल ईरान और भारत के वह इलाके जिन्हें अब पाकिस्तान और अफगानिस्तान कहा जाता है यहीं के लोगों में ही प्रचलित थी। इसका मतलब पारसी और वैदिक लोगों में ही इसके रसपान करने का प्रचलन था। इस समूचे इलाके में वैदिक धर्म का पालन करने वाले लोग ही रहते थे। ‘स’ का उच्चारण ‘ह’ में बदल जाने के कारण अवेस्ता में सोम के बदले होम शब्द का प्रयोग होता था और इधर भारत में सोम का।

  • कुछ वर्ष पहले ईरान में इंफेड्रा नामक पौधे की पहचान कुछ लोग सोम से करते थे। इफेड्रा की छोटी-छोटी टहनियां बर्तनों में दक्षिण-पूर्वी तुर्कमेनिस्तान में तोगोलोक-21 नामक मंदिर परिसर में पाई गई हैं। इन बर्तनों का व्यवहार सोमपान के अनुष्ठान में होता था। यद्यपि इस निर्णायक साक्ष्य के लिए खोज जारी है।

सोम को 1. स्वर्ग की लता का रस और 2. आकाशीय चन्द्रमा का रस भी माना जाता है... सोम की उत्पत्ति के दो स्थान हैं- ऋग्वेद अनुसार सोम की उत्पत्ति के दो प्रमुख स्थान हैं- 1.स्वर्ग और 2.पार्थिव पर्वत।

वेदों में सोमलता का विशेष महत्व प्रतिपादित किया गया है। ब्राह्मण ग्रन्थों में सोमविषयक अनेक उपाख्यान मिलते हैं। एक उपाख्यान के अनुसार गायत्री नेबाज पक्षी का रूप धारण कर धुलोक से सोम का आहरण किया था। वस्तुतःसोमलता विशेष प्रकार की औषधि है जो पर्वतों पर पायी जाती है। शतपथब्राह्मण इसकी उत्पत्ति की चर्चा करता है। आयुर्वेद में सोमलता को सोमवल्ली,सोमक्षीरी और द्विज प्रिया कहा जाता है। यह सोमलता त्रिदोष – कफ, वात औरपित्त को नष्ट करती है। यह कटु और तिक्त होती है। इसमें रसायन की क्षमता है। इसलिए देवता इसे अधिक चाहते रहे। इसीलिए वेदों में सोम की विशेष प्रशंसा की गयी है। सोम को औषधियों में सर्वश्रेष्ठ माना जाता रहा। इसे औषधियों का राजा कहा गया है।

अग्नि की भांति सोम भी स्वर्ग से पृथ्वी पर आया ‘मातरिश्वा ने तुम में से एक को स्वर्ग से पृथ्वी पर उतारा; गरुत्मान ने दूसरे को मेघशिलाओं से।’ हे सोम, तुम्हारा जन्म उच्च स्थानीय है; तुम स्वर्ग में रहते हो, यद्यपि पृथ्वी तुम्हारा स्वागत करती है। सोम की उत्पत्ति का पार्थिव स्थान मूजवंत पर्वत (गांधार-कम्बोज प्रदेश) है’। -(ऋग्वेद अध्याय सोम मंडल- 4, 5, 6)

  • स्वर्गीय सोम की कल्पना चंद्रमा के रूप में की गई है। छांदोग्य उपनिषद में सोम राजा को देवताओं में भोज्य कहा गया है। कौषितकि ब्राह्मण में सोम और चन्द्र के अभेद की व्याख्या इस प्रकार की गई है : ‘दृश्य चन्द्रमा ही सोम है। सोमलता जब लाई जाती है तो चन्द्रमा उसमें प्रवेश करता है। जब कोई सोम खरीदता है तो इस विचार से कि ‘दृश्य चन्द्रमा ही सोम है; उसी का रस पेरा जाए।’

वेदों के अनुसार सोम का संबंध अमरत्व से भी है वह पितरों से मिलता है और उनको अमर बनाता है। सोम का नैतिक स्वरूप उस समय अधिक निखर जाता है, जब वह वरुण और आदित्य से संयुक्त होता है- ‘हे सोम, तुम राजा वरुण के सनातन विधान हो; तुम्हारा स्वभाव उच्च और गंभीर है; प्रिय मित्र के समान तुम सर्वांग पवित्र हो; तुम अर्यमा के समान वंदनीय हो।’

त्रित प्राचीन देवताओं में से थे। उन्होंने सोम बनाया था तथा इंद्रादि अनेक देवताओं की स्तुतियां समय-समय पर की थीं। महात्मा गौतम के तीन पुत्र थे। तीनों ही मुनि थे। उनके नाम एकत, द्वित और त्रित थे। उन तीनों में सर्वाधिक यश के भागी तथा संभावित मुनि त्रित ही थे। कालांतर में महात्मा गौतम के स्वर्गवास के उपरांत उनके समस्त यजमान तीनों पुत्रों का आदर-सत्कार करने लगे। उन तीनों में से त्रित सबसे अधिक लोकप्रिय हो गए।

कुछ विद्वान इसे ही ‘संजीवनी बूटी’ कहते हैं- सोम को न पहचान पाने की विवशता का वर्णन रामायण में मिलता है। हनुमान दो बार हिमालय जाते हैं, एक बार राम और लक्ष्मण दोनों की मूर्छा पर और एक बार केवल लक्ष्मण की मूर्छा पर, मगर ‘सोम’ की पहचान न होने पर पूरा पर्वत ही उखाड़ लाते हैं। दोनों बार लंका के वैद्य सुषेण ही असली सोम की पहचान कर पाते हैं।

  • यदि हम ऋग्वेद के नौवें ‘सोम मंडल’ में वर्णित सोम के गुणों को पढ़ें तो यह संजीवनी बूटी के गुणों से मिलते हैं इससे यह सिद्ध होता है कि सोम ही संजीवनी बूटी रही होगी। ऋग्वेद में सोमरस के बारे में कई जगह वर्णन है। एक जगह पर सोम की इतनी उपलब्धता और प्रचलन दिखाया गया है कि इंसानों के साथ-साथ गायों तक को सोमरस भरपेट खिलाए और पिलाए जाने की बात कही गई है।

सोमरस बनाने की विधि

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उच्छिष्टं चम्वोर्भर सोमं पवित्र आ सृज। नि धेहि गोरधि त्वचि।। (ऋग्वेद सूक्त 28 श्लोक 9)

अर्थात : उलूखल और मूसल द्वारा निष्पादित सोम को पात्र से निकालकर पवित्र कुशा के आसन पर रखें और अवशिष्ट को छानने के लिए पवित्र चर्म पर रखें।

औषधि: सोम: सुनोते: पदेनमभिशुण्वन्ति।- निरुक्त शास्त्र (11-2-2)

अर्थात : सोम एक औषधि है जिसको कूट-पीसकर इसका रस निकालते हैं।

  • सोम को गाय के दूध में मिलाने पर ‘गवशिरम्’ दही में ‘दध्यशिरम्’ बनता है। शहद अथवा घी के साथ भी मिश्रण किया जाता था। सोम रस बनाने की प्रक्रिया वैदिक यज्ञों में बड़े महत्व की है। इसकी तीन अवस्थाएं हैं- पेरना, छानना और मिलाना। वैदिक साहित्य में इसका विस्तृत और सजीव वर्णन उपलब्ध है।
  • सोम के डंठलों को पत्थरों से कूट-पीसकर तथा भेड़ के ऊन की छलनी से छानकर प्राप्त किए जाने वाले सोमरस के लिए इंद्र, अग्नि ही नहीं और भी वैदिक देवता लालायित रहते हैं, तभी तो पूरे विधान से होम (सोम) अनुष्ठान में पुरोहित सबसे पहले इन देवताओं को सोमरस अर्पित करते थे।
  • बाद में प्रसाद के तौर पर लेकर खुद भी तृप्त हो जाते थे। आजकल सोमरस की जगह पंचामृत ने ले ली है, जो सोम की प्रतीति-भर है। कुछ परवर्ती प्राचीन धर्मग्रंथों में देवताओं को सोम न अर्पित कर पाने की विवशतास्वरूप वैकल्पिक पदार्थ अर्पित करने की ग्लानि और क्षमा- याचना की सूक्तियां भी हैं।

सोम को दिन में तीन बार सवन अर्थात् दबाया जाता था… सन्ध्याकालीन दबाने के कृत्य को ऋभुओं से’ तथा मध्याहून और प्रातः का सम्बन्ध इन्दरे से किया गया है, किन्तु यज्ञों से प्रसंग में प्राप्त वर्णनों से पता चलता है कि अनेक देव सोम-पान करते थे। सोम यज्ञों के लिए आपस में प्रतिद्वन्द्विता होती थी। इसका वर्णन ऋग्वेद में इस प्रकार किया गया है वसिष्ठ लोग इन्द्र को पाशघुग्न वायत के सोम-यज्ञ से सुदास् के यहां उठा ले आये थे।

सोमरस पीने के फायदे

वैदिक ऋषियों का चमत्कारी आविष्कार- सोमरस एक ऐसा पदार्थ है, जो संजीवनी की तरह कार्य करता है। यह जहां व्यक्ति की जवानी बरकरार रखता है वहीं यह पूर्ण सात्विक, अत्यंत बलवर्धक, आयुवर्धक व भोजन-विष के प्रभाव को नष्ट करने वाली औषधि है।lord-indra

स्वादुष्किलायं मधुमां उतायम्तीव्र: किलायं रसवां उतायम।

उतोन्वस्य पपिवांसमिन्द्रमन कश्चन सहत आहवेषु।।- ऋग्वेद (6-47-1)

अर्थात: सोम बड़ी स्वादिष्ट है, मधुर है, रसीली है। इसका पान करने वाला बलशाली हो जाता है। वह अपराजेय बन जाता है।

शास्त्रों में सोमरस लौकिक अर्थ में एक बलवर्धक पेय माना गया है, परंतु इसका एक पारलौकिक अर्थ भी देखने को मिलता है। साधना की ऊंची अवस्था में व्यक्ति के भीतर एक प्रकार का रस उत्पन्न होता है जिसको केवल ज्ञानीजन ही जान सकते हैं।

सोमं मन्यते पपिवान् यत् संविषन्त्योषधिम्।

सोमं यं ब्रह्माणो विदुर्न तस्याश्नाति कश्चन।। (ऋग्वेद-10-85-3)

अर्थात: बहुत से लोग मानते हैं कि मात्र औषधि रूप में जो लेते हैं, वही सोम है ऐसा नहीं है। एक सोमरस हमारे भीतर भी है, जो अमृतस्वरूप परम तत्व है जिसको खाया-पिया नहीं जाता केवल ज्ञानियों द्वारा ही प्राप्त किया जा सकता है।

इसके पीने से शरीर एक विचित्र उत्साह से भर जाता था। ऋग्वेद में इसके उल्लासित और कामनीय गुणों का वर्णन करते हुए कल्पना का भी सहारा लियागया है। सोम-पान से इन्द्र के आनन्दोल्लास का कामनीय वर्णन ऋग्वेद के एक समूचे सूक्त (१०.११६) मेंकिया गया है। इस सूक्त में एक जगह उल्लिखित है कि जिस प्रकार वेग से चलने वाले घोड़े रथ को दूरतक खींच ले जाते हैं, उसी प्रकार ये सोम की घूटें मुझे दूर तक खींच ले जाती है, क्या मैंने सोम का पाननहीं किया है। हन्त! मैं पृथ्वी को यहाँ रखूगा । मैं बड़ों में बड़ा हूँ (महामहः); मैं संसार को नाभि (अन्तरिक्ष)तक उठाये हूँ, क्योंकि मैंने सोम-रस का पान किया है। आर्य भी इसके उल्लासित गुणों से परिचित । प्रगाथ काण्व ऋषि सोम-पान के प्रभाव से आनन्दित होकर कह रहे हैं – “हमने सोम पान किया है, अमरत्व पा लिया है; ज्योर्तिमय स्वर्ग की प्राप्ति कर ली है तथा हमने देवताओं को जान लिया है।’ सामवेदके एक मन्त्र में इसे बुद्धि का विकास करने वाला बताते हुए कहा गया है कि “बुद्धि को बढ़ाने वाला तथास्वयं ज्ञानवान् सोम, सोम-रस निकालने के लिए दो तख्तों के बीच रखा गया। इससे उत्साह और स्फूर्तिदोनों आती थी। सामवेद के एक मन्त्र में इसका वर्णन इस प्रकार किया गया है – “बल बढ़ाने वाला औरउत्साह बढ़ाने वाला तथा चमकने वाला सोम-रस गाय और वीर पुत्रों की इच्छा करने वालों के द्वारा निचोड़ाजाता है। इसके पीने से सम्भवतः विष का भी प्रभाव समाप्त हो जाता है।

कण्व ऋषियों ने मानवों पर सोम का प्रभाव इस प्रकार बतलाया है- ‘यह शरीर की रक्षा करता है, दुर्घटना से बचाता है, रोग दूर करता है, विपत्तियों को भगाता है, आनंद और आराम देता है, आयु बढ़ाता है और संपत्ति का संवर्द्धन करता है। इसके अलावा यह विद्वेषों से बचाता है, शत्रुओं के क्रोध और द्वेष से रक्षा करता है, उल्लासपूर्ण विचार उत्पन्न करता है, पाप करने वाले को समृद्धि का अनुभव कराता है, देवताओं के क्रोध को शांत करता है और अमर बनाता है’।

सोम विप्रत्व और ऋषित्व का सहायक है। सोम अद्भुत स्फूर्तिदायक, ओजवर्द्धक तथा घावों को पलक झपकते ही भरने की क्षमता वाला है, साथ ही अनिर्वचनीय आनंद की अनुभूति कराने वाला है।

सोमयज्ञ- सोमरस हवन में इस्तमाल होता था

जिन यज्ञों में ‘सोम लता’ से निकाले हुए सोमरस की आहुति प्रदान की जाती है, उन यागों कोसोमयाग कहा जाता है। इसमें सोम नामक लता को कूटकर उसका रस निकालकर उसे हवि के रूप में देवताओं को समर्पित Soma-Yagaकिया जाता है। “यज्ञं व्याख्यास्यामः”, “स त्रिभिदैविधीयते” श्रौतसूत्रकारों का यहकथन सोमयाग के विषय में ही सिद्ध होता है, क्योंकि यह याग तीनों वेदों की सहायता से सम्पन्न होता है। सोमयज्ञ का हवन करने वाले ऋषियों में कण्व,अंगिरा आदि ऋषि हैं।

पूर्ववर्णित अग्निहोत्र आदि यज्ञ केवल यजुर्वेद से तथा दर्शपौर्णमासादि यज्ञ ऋग्वेद एवं यजुर्वेद से सम्पन्न हो जाते हैं। इस प्रकार सोमयज्ञ में तीनों वेदों से सम्बन्धित ऋत्विजों का वरण किया जाता है। सोमयज्ञ के चार प्रकार कहे गए हैं – एकाह, अहीन, साद्यस्क एवं सत्र। दीक्षा और उपसद् आदि के अनेक दिनों में सम्पन्न होने पर भी एक दिन में सम्पन्न होने वाले सोम याग को एकाह कहते हैं। दो सेलेकर बारह दिनों में सम्पादित होने वाले याग को अहीन याग कहते हैं। बारह से अधिक दिनों में सम्पादित सोमयज्ञ की संज्ञा सत्रयाग है। एक दिन में ही दीक्षा से आरम्भ कर अवभृथ पर्यन्त सारे कार्य सम्पन्न हों वह सोमयज्ञ साद्यस्क्र याग कहलाता है।

सोम रस बनाने की प्रक्रिया वैदिक यज्ञों में बड़े महत्व की है। इसकी तीन अवस्थाएं हैं- पेरना, छानना और मिलाना। वैदिक साहित्य में इसका पूरा वर्णन लिखा हुआ है। सोम के डंठलों को पत्थरों से कूट-पीसकर तथा भेड़ के ऊन की छलनी से छानकर प्राप्त किए जाने वाले सोमरस के लिए इंद्र, अग्नि ही नहीं और भी वैदिक देवता लालायित रहते हैं, तभी तो पूरे विधान से होम (सोम) अनुष्ठान में पण्डित सबसे पहले इन देवताओं को सोमरस अर्पित करते थे। बाद में प्रसाद के तौर पर लेकर खुद भी खुश हो जाते थे।

यद्यपि सोमयज्ञ के अङ्गरूप में बहुत सी इष्टियों का सम्पादन किया जाता है फिर भी इसका प्रधान द्रव्य सोम होने के कारण इसके लिए सोमयज्ञ शब्द प्रयोग किया जाता है। सोमयज्ञ की सात संस्थाएं हैं- अग्निष्टोम, अत्याग्निष्टोम, उक्थ्य, षोडशी, वाजपेय, अतिरात्र एवं आप्तोर्याम (वाजपेय)13 सोमयाग मेंजिस स्तोम से याग की समाप्ति होती है, उसी के आधार पर उस याग का नामकरण किया जाता है। अग्निष्टोमस्तोम के द्वारा समाप्ति होने के कारण अग्निष्टोम सोमयज्ञ कहलाता है। इसी प्रकार उक्थ्य, षोडशी और अतिरात्र संज्ञक स्तोमों की समाप्ति पर उक्थ्य आदि सोम संस्थाओं का नामकरण हुआ है।

सोमयज्ञ में मुख्य रूप से चार ऋत्विज्होते हैं (ब्रह्मा, उद्गाता, होता, अध्वर्यु) इन चारों ऋत्विजों के तीन-तीन सहायक पुरोहित होते हैं। इस प्रकार सोम याग में कुल सोलह ऋत्विज होते हैं।

सोमरस की जगह पंचामृत

आजकल सोमरस की जगह पंचामृत ने ले ली है, जो सोम की प्रतीति-भर है। कुछ प्राचीन धर्मग्रंथों में देवताओं को सोम न अर्पित कर पाने की स्तिथि में कोई और चीज अर्पित करने पर क्षमा- याचना करने के मंत्र भी लिखे हैं।

मुश्किल होती गई सोम की पहचान

अध्ययनों से पता चलता है कि वैदिक काल के बाद यानी ईसा के काफी पहले ही इस वनस्पति की पहचान मुश्किल होती गई। ऐसा भी कहा जाता है कि सोम (होम) अनुष्ठान करने वाले लोगों ने इसकी जानकारी आम लोगों को नहीं दी, उसे अपने तक ही सीमित रखा और आजकल ऐसे अनुष्ठानी लोगों की पीढ़ी/परंपरा के लुप्त होने के साथ ही सोम की पहचान भी मुश्किल होती गई।

सोमरस का उल्लेख- शास्त्रों में लिखे हैं सोम के कई चमत्कारी गुण

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अनेक स्थलों पर मिलता है। सोमरस की औषधियों को श्रेष्ठ माना गया है। ऋग्वेद में सोमरस के बारे में कई जगह लिखा है। एक जगह पर सोम की इतनी उपलब्धता और प्रचलन दिखाया गया है कि इंसानों के साथ-साथ गायों तक को सोमरस भरपेट खिलाए और पिलाए जाने की बात कही गई है।

वैदिक ऋषियों का चमत्कारी आविष्कार सोमरस एक ऐसा पदार्थ है, जो संजीवनी की तरह कार्य करता है। यह जहां व्यक्ति की जवानी बरकरार रखता है वहीं यह पूर्ण सात्विक, अत्यंत बलवर्धक, आयुवर्धक व भोजन-विष के प्रभाव को नष्ट करने वाली औषधि है।

ऋग्वेद में लिखा है-

“स्वादुष्किलायं मधुमां उतायम्तीव्र: किलायं रसवां उतायम।

उतोन्वस्य पपिवांसमिन्द्रमन कश्चन सहत आहवेषु”

यानी की : सोम बड़ी स्वादिष्ट है, मधुर है, रसीली है। इसका पान करने वाला बलशाली हो जाता है। वह अपराजेय बन जाता है।

श्रीमद् भगवद्गीता में स्वयं भगवान कृष्ण ने कहा है,

त्रैविद्या मां सोमपाः पूतपापा यज्ञैरिष्ट्वा स्वर्गतिं प्रार्थयन्ते |

ते पुण्यमासाद्य सुरेन्द्रलोकमश्र्नन्ति दिव्यान्दिवि देवभोगान् || ।।9.20।।

“जो वेदों का अध्ययन करते तथा सोमरस का पान करते हैं, वे स्वर्ग प्राप्ति की गवेषणा करते हुए अप्रत्यक्ष रूप से मेरी पूजा करते हैं | वे पापकर्मों से शुद्ध होकर, इन्द्र के पवित्र स्वर्गिक धाम में जन्म लेते हैं, जहाँ वे देवताओं का सा आनन्द भोगते हैं |”

शास्त्रों में सोमरस लौकिक अर्थ में एक बलवर्धक पेय माना गया है, परंतु इसका एक पारलौकिक अर्थ भी देखने को मिलता है। साधना की ऊंची अवस्था में व्यक्ति के भीतर एक प्रकार का रस उत्पन्न होता है जिसको केवल ज्ञानीजन ही जान सकते हैं।

ब्राह्मण ग्रन्थों में इसकी निर्माण विधि बताई गई है। सोमरस बनाने हेतु इसे धोकर कटा पीसा जाता था तथा रस निचौड लिया जाता था। सोम को कटते समय मंत्र उच्चारण का उल्लेख भी था।

कल्कि कृत सोमरस को मिट्टी या धातु के पात्र में रखते थे। बाद में जल मिलाकर वस्त्र से छानने के बाद इसको बूंद-बूंद के रूप में लोगों कोऔषध के रूप में दिया जाता था।

सोम का सम्बन्ध अमरत्व से भी है । वह स्वयं अमर तथा अमरत्व प्रदान करने वाला है । वह पितरों से मिलता है और उनको अमर बनाता है। कहीं-कहीं उसको देवों का पिता कहा गया है, जिसका अर्थ यह है कि वह उनको अमरत्व प्रदान करता है। अमरत्व का सम्बन्ध नैतिकता से भी है । वह विधि का अधिष्ठान और ॠत की धारा है वह सत्य का मित्र है।

आयुर्वेदिक ग्रंथ सोमरस के बारे में सूचना देते हैं- धन्वन्तरी सोमरस

रसेंद्रचूड़ामणि 6।6-9 में कहा है,

पञ्चांगयुक्पञ्चदशच्छदाढ्या सर्पाकृतिः शोणितपर्वदेशा।

सा सोमवल्ली रसबन्धकर्म करोति एकादिवसोपनीता।।

करोति सोमवृक्षोऽपि रसबन्धवधादिकम्।

पूर्णिमादिवसानीतस्तयोर्वल्ली गुणाधिका।।

कृष्ण पक्षे प्रगलति दलं प्रत्यहं चैकमेकं शुक्लेऽप्येकं प्रभवति पुनर्लम्बमाना लताः स्युः।

तस्याः कन्द: कलयतितरां पूर्णिमायां गृहीतो बद्ध्वा सूतं कनकसहितं देहलोहं विधत्ते।।

इयं सोमकला नाम वल्ली परमदुर्लभा।

अनया बद्धसूतेन्द्रो लक्षवेधी प्रजायते।

जिसके पंद्रह पत्ते होते हैं, जिसकी आकृति सर्प की तरह होती है। जहाँ से पत्ते निकलते हैं- वे गठिं जिसकी लाल होती है, ऐसी वह पूर्णिमा के दिन लायी हुई पञ्चांग (मूल, डण्डी, पत्ते, फूल और फल) से युक्त सोमवल्ली पारद को वद्ध कर देती है। पूर्णिमा के दिन लाए हुआ पञ्चांग से युक्त सोमवृक्ष भी पारद को बधिना, पारद की भस्म बनाना आदि कार्य कर देता है। परंतु सोमवल्ली और सोमवृक्ष, इन दोनों में सोमवल्ली अधिक गुणों वाली है।

इस सोमवल्ली का कृष्ण पक्ष में प्रतिदिन एक-एक पत्ता झड़ जाता है। और शुक्ल पक्ष में पुनः प्रतिदिन एक-एक पत्ता निकल आता है। इस तरह यह लता बढ़ती रहती है। पूर्णिमा के दिन इस लता का कंद निकाला जाए तो वह बहुत श्रेष्ठ होता है। धतूरे के सहित इस कन्द में बँधा हुआ पारद देह को लोहे की तरह दृढ़ बना देता है। और इससे बँधा हुआ पारद लक्षवेधी हो जाता है अर्थात एक गुणाबद्ध पारद लाख गुणा लोहे को सोना बना देता है। यह सोम नाम की लता अत्यन्त ही दुर्लभ है। कम से कम आज के समय में सोमवल्ली किसी सोमलता से कम नहीं।

कण्व ऋषियों ने मानवों पर सोम का प्रभाव इस प्रकार बतलाया है- ‘यह शरीर की रक्षा करता है, दुर्घटना से बचाता है, रोग दूर करता है, विपत्तियों को भगाता है, आनंद और आराम देता है, आयु बढ़ाता है और संपत्ति का संवर्द्धन करता है। इसके अलावा यह विद्वेषों से बचाता है, शत्रुओं के क्रोध और द्वेष से रक्षा करता है,

कण्व ऋषियों के अनुसार सोमरस उल्लासपूर्ण विचार उत्पन्न करता है, पाप करने वाले को समृद्धि का अनुभव कराता है, देवताओं के क्रोध को शांत करता है और अमर बनाता है’। सोम विप्रत्व और ऋषित्व का सहायक है। सोम अद्भुत स्फूर्तिदायक, ओजवर्द्धक तथा घावों को पलक झपकते ही भरने की क्षमता वाला है, साथ ही आनंद की अनुभूति कराने वाला है।

सोमरस देव और मानव दोनों को यह रस स्फुर्ति और प्रेरणा देने वाला था । देवता सोम पीकर प्रसन्न होते थे; इन्द्र अपना पराक्रम सोम पीकर ही दिखलाते थे । कण्व ॠषियों ने मानवों पर सोम का प्रभाव इस प्रकार बतलाया है: ‘ यह शरीर की रक्षा करता है, दुर्घटना से बचाता है; रोग दूर करता है; विपत्तियों को भगाता है; आनन्द और आराम देता है; आयु बढ़ाता है।

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संस्कार… हिन्दू धर्म में 16 संस्कारों का महत्व

डॉ. संदीप कोहली… कीबोर्ड के पत्रकार

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‘संस्कार’ किसी भी धर्म या सम्प्रदाय के महत्त्वूपर्ण अंग है। अध्यात्म प्रधान भारतीय संस्कृति में संस्कारों का तो विशेष महत्त्व रहा है। इतिहास के प्रारम्भ से ही संस्कार धार्मिक एंव सामाजिक एकता के प्रभावकारी माध्यम रहे है। उनका उदय निःसंदेह अतीत में हुआ था लेकिन कालक्रम से अनेक परिवर्तनों के साथ वे आज भी जीवित है। संस्कार का अभिप्राय उन धार्मिक कृत्यों से है जो किसी व्यक्ति को अपने समाज का पूर्ण रुप से योग्य सदस्य बनाने के उद्देश्य से उसके शरीर, मन और मस्तिष्क को पवित्र करने के लिए किए जाते थे। हिंदू संस्कारों का उद्देश्य भी व्यक्ति में अभीष्ट गुणों को जन्म देना होता है। प्राचीन भारत में संस्कारों का मनुष्य के जीवन में विशेष महत्व था। संस्कारों के द्वारा मनुष्य अपनी सहज प्रवृतियों का पूर्ण विकास करके अपना और समाज दोनों का कल्याण करता था। ये संस्कार इस जीवन में ही मनुष्य को पवित्र नहीं करते थे, उसके पारलौकिक जीवन को भी पवित्र बनाते थे।

भारतीय मानव जीवन में संस्कारों का महत्त्व वैदिक काल से चला आ रहा है। मानव जीवन को परिष्कृत करने के लिये हमारे ऋषियों ने अनेक प्रयत्न किये हैं उन्होंने जन्म के पूर्व से लेकर मृत्यु पर्यन्त समग्र जीवन को वैज्ञानिक प्रक्रिया के साथ अविच्छिन्न रूप से समन्वित किया है। संस्कारों से परिपूर्ण मानव-जीवन हमारी भारतीय संस्कृति का मेरूदण्ड है। प्रत्येक संस्कार याज्ञिक-प्रक्रिया द्वारा सम्पन्न हो कर जीवन में उदात्ता के अवतरण का एक माध्यम बनता है, क्योंकि संस्कारों का सम्बन्ध धार्मिक-विश्वास, आस्थाएवं सामाजिक परम्पराओं से हैं, जो बातें समाज में पहले प्राकृत रूप में विद्यमानथीं, वहीं क्रमशः धीरे-धीरे सांस्कृतिक रूप में परिवर्तित हो गई।

वास्तव में संस्कार मानव जीवन को परिष्कृत करने वाली एक आध्यात्मिक विधा है। संस्कारों से सम्पन्न होने वाला मानव सुसंस्कृत, चरित्रवान, सदाचारी और प्रभुपरायण हो सकता है अन्यथा कुसंस्कार जन्य चारित्रिक पतन ही मनुष्य और समाज को विनाश की ओर ले जाता है। वही संस्कार युक्त होने पर सबका लौकिक और पारलौकिक अभ्युदय सहज सिद्ध हो जाता है। संस्कार सदाचरण और शाश्त्रीय आचार के घटक होते हैं। संस्कार, सद्विचार और सदाचार के नियामक होते हैं। इन्हीं तीनों की सुसम्पéता से मानव जीवन को अभिष्ट लक्ष्य की प्राप्ति होती है। भारतीय संस्कृति में संस्कारों का महत्व सर्वोपरि माना गया है, इसी कारण गर्भाधान से मृत्यु पर्यन्त मनुष्य पर सांस्कारिक प्रयोग चलते ही रहते हैं। इसलिए भारतीय संस्कृति सदाचार से अनुप्रमाणित रही है।

प्राकृतिक पदार्थ भी जब बिना सुसंस्कृत किए प्रयोग के योग्य नहीं बन पाते हैं तो मानव के लिए संस्कार कितना आवश्यक है यह समझ लेना चाहिए। जब तक मानव बीज रूप में है तभी से उसके दोषों का अहरण नहीं कर लिया जाता तब तक वह व्यक्ति आर्य नहीं बन पाता है और वह मानव जीवन से राष्ट्रीय जीवन में कहीं भी हव्य कव्य देने का अधिकारी भी नहीं बन पाता। मानव जीवन को पवित्र चमत्कारपूर्ण एवं उत्कृष्ट बनाने के लिए संस्कार अत्यावश्यक है।

आयुर्वेद के जनक महर्षि आचार्य चरक (च.स.वि.1/2) कहते हैं कि-

संस्कारोहि गुणान्तराधानम् उच्चते ।

अर्थात- यह असर अलग है। मनुष्य के दुर्गुणों को निकाल कर उसमें सद्गुण आरोपित करने की प्रक्रिया का नाम संस्कार है।

अंगिरा ऋषि (वीर मित्रोदयसंस्कार प्रकाश- भाग-1, पृष्ठ 139) कहते हैं कि-

चित्रकर्म यथाडेनेकैरंगैसन्मील्यते षनैः।

ब्राह्ण्यमपि तद्वास्थात्संस्कारैर्विधिपूर्व कैः।।

अर्थात- जिसके प्रकार किसी चित्र में विविध रंगों के योग से धीरे-धीरे निखार लाया जाता है, उसी प्रकार विधिपूर्वक संस्कारों के सम्पादन से ब्रह्ण्यता प्राप्त होती है।

मानवीय संस्कारों के महत्वपूर्ण तत्वों की ओर इंगित करते हुए भगवान वेद व्यास कहते हैं-

न चात्मानं प्रशंसेद्वा परनिन्दां च वर्जयेत्।

वेदनिन्दां देवनिन्दां प्रयन विवर्जयेत्।। (पद्मपुराण )

हिन्दू संस्कारों का वर्णन वेदों में कुछ सूक्तों, कुछ ब्राह्मणों, ग्रन्थों, गृह्य तथा धार्मिक सूक्तों, स्मृतियों, एवं परवर्ती निबन्ध ग्रन्थों में पाया जाता है। ये ग्रन्थ विभिन्न युगों तथा स्थानों में उद्गार, विधि, अथवा पद्धति के रूप में लिखे गये।

गृह्यसूत्रों में संस्कारों का अत्यंत विस्तृत रूप में विवेचन हुआ है-

  • पारस्कर गृह्यसूत्र- गर्भाधान’, पुंसवन, सीमन्तोन्नयन’, जातकर्म’, नामकरण,उपनयन’, समावर्तन’ संस्कारों का विस्तारपूर्वक वर्णन मिलता है।
  • गोभिलगृह्यसूत्र- अत्यन्त विस्तृत रूप में संस्कारों का विवेचन किया गया है। गर्भाधान, पुंसवन’, सीमन्तोन्नयन” जातकर्म’, निष्क्रमण, नामकरण’, चूड़ाकरण’, उपनयन, गोदान संस्कारों की चर्चा की गई है।

उपनिषदों में भी संस्कारों का वर्णन मिलता है-

  • छान्दोग्य-उपनिषद् में ब्रह्मचर्य के साधारण काल का वर्णन किया गया है।’
  • बृहदारण्यक-उपनिषद् मेंपवित्र गायत्री मन्त्र का वर्णन मिलता है।

मनुस्मृति में अनेक बहुमूल्य व्यावहारिक निर्देश प्राप्त होते हैं-‘ अनेक स्थलों पर धर्मसूत्रों तथा गृह्यसूत्रों के वर्ण्य-विषय एक-दूसरे में समाविष्ट हो जाते हैं।

धर्म-सूत्र वर्ण और आश्रम का निरूपण करते हैं- आश्रम-धर्म के अन्तर्गत उपनयन और विवाह से सम्बद्ध नियमों का विशद् वर्णन वर्णित है। यह संस्कारों के सामाजिक अंगों का सविस्तार निरूपण करते हैं।

स्मृतियां, धर्म-सूत्रों के परवर्ती तथा सुव्यवस्थिति विकास का प्रतिनिधित्व करती हैं- धर्मसूत्रों के समान वह भी मुख्यतः कर्मकाण्डों की अपेक्षा मनुष्य के सामाजिकव्यवहार से सम्बन्धित हैं। उनके वर्ण्य-विषयों का वर्गीकरण आचार, व्यवहार औरप्रायश्चित-इन तीन शीर्षकों के अन्तर्गत किया जा सकता है। प्रथम शीर्षक के अन्तर्गत संस्कार तथा उनकी नियामक विधियां दी गई हैं। उपनयन और विवाह कासर्वाधिक और पूर्ण वर्णन किया गया है, क्योंकि इन संस्कारों से वैयक्तिक जीवन केप्रथम और द्वितीय सोपान प्रारम्भ होते हैं। पञ्च महायज्ञों को भी स्मृतियों में मुख्यस्थान प्राप्त है। मनुस्मृति इन्हें अत्यन्त महत्त्वपूर्ण स्थान देती है और इसका विस्तृतनिरूपण करती है।

महाकाव्य भी संस्कारों के विषय में कुछ जानकारी देते हैं- ब्राह्मणों ने जो कि साहित्य के संरक्षक थे, अपने धर्म और संस्कृति के प्रचार के लिए महाकाव्योंका उपयोग किया, क्योंकि वह वर्तमान समय में लोकप्रिय हो चुके थे।

  • रामायण, महाभारत में अनेक संस्कार-सम्बन्धी तत्त्वों का समावेश है। रामायण तो आचारशास्त्र ही है।
  • रघुवंश तथा कुमारसम्भव जैसे महाकाव्य और उत्तररामचरित आदि नाटक ऐसे उदाहरण प्रस्तुत करते हैं, जिनसे संस्कार से सम्बद्ध अनेक जटिलविषयों का स्पष्टीकरण हो जाता है।
  • इसके पश्चात् महाकवि कालिदास ने अपनीरचनाओं में एवं भवभूति विरचित उत्तरामचरित आदि नाटकों में ऐसे उदाहरण प्रस्तुतकिये हैं, जिनसे संस्कार से सम्बन्धित अनेक जटिल विषयों का स्पष्टीकरण हो जाता है।

संस्कार : अर्थ एवं परिभाषा

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धर्मशास्त्रों में संस्कारों का अर्थ परिभाषा एवं स्वरूप का वर्णन किया गया है। प्रकृति से उत्पन्न होने वाली वस्तु प्राकृत कहलाती है।

“गुणदोषमयं सर्व स्रष्टा सृजति कौतुकी”

इसके अनुसार सर्वत्र गुण-दोषों का सम्मिश्रण देखा जाता है। व्यक्ति को परिष्कृत करने के लिए संस्कारित करने के लिये जो पद्धति  अपनाई जाती है, उसे ही संक्षेप में संस्कार कहते हैं। (पुस्तक: वेदों में भारतीय संस्कृति- पं. आद्यादत्त ठाकुर)

संस्कार शब्द की व्युत्पत्ति संस्कृत की सम्पूर्वक कृञ् धातु से घञ् प्रत्यय करके की गई है। (सम्+कृ+घञ्= संस्कार) औरइसका प्रयोग अनेक अर्थों में किया जाता है। मीमांसक विद्वान् यज्ञांगभूत पुरोडाशआदि की विधिवत् शुद्धि से इसका आशय समझते है। अद्वैतवेदान्ती जीव परशारीरिक क्रियाओं के मिथ्या आरोप को संस्कार मानते है। नैयायिक भावों को व्यक्तकरने की आत्मव्यञ्जक शक्ति को संस्कार मानते है। जिसका परिगणन वैशेषिकदर्शन में चौबीस गुणों के अन्तर्गत किया गया है।

संस्कृत साहित्य में इसका प्रयोग शिक्षा, संस्कृति, प्रशिक्षण, सौजन्य, पूर्णता,व्याकरण सम्बन्धी, शुद्धि, संस्करण, परिष्करण, शोभा, आभूषण, प्रभाव, स्वरूप,स्वभाव, क्रिया, छाप, स्मरण शक्ति, स्मरण शक्ति पर पड़ने वाला प्रभाव, शुद्धि क्रिया, धार्मिक विधि-विधान, अभिषेक, विचार, भावना, धारणा, कार्य का परिणाम्,क्रिया की विशेषता आदि अर्थो में हुआ है। इस प्रकार यह स्पष्ट है कि संस्कारशब्द के साथ विलक्षण अर्थो का योग हो गया है। जो इसके दीर्घ इतिहास क्रम मेंइसके साथ संयुक्त हो गये है। इसका अभिप्राय शुद्धि ही धार्मिक क्रियाओं तथाव्यक्ति के दैहिक, मानसिक, तथा बौद्धिक परिष्कार के लिये किये जाने वालेअनुष्ठानों में से है। जिनसे वह समाज का पूर्ण विकसित सदस्य हो सके। किन्तुहिन्दु संस्कारों में अनेक आरम्भिक विचार, अनुष्ठान भी समाविष्ट है, जिनकाउद्देश्य केवल औपचारिक दैहिक संस्कार ही न होकर संस्कार्य व्यक्ति के सम्पूर्णव्यक्तित्व का परिष्कार, शुद्धि तथा पूर्णता भी है। साधारणतया यह समझा जाता थाकि सविधि, संस्कारों के अनुष्ठान से संस्कृत व्यक्ति में विलक्षण तथा अवर्णनीयगुणों का प्रादुर्भाव हो जाता’ संस्कार शब्द का प्रयोग इस सामूहिक अर्थ में होता था

संस्कारों का उदय वैदिक काल या उससे पूर्व हो चुका था, जैसा कि वेदों के विशेष कर्मकाण्डीय मंत्रों से विदित होता है। किन्तु वैदिक साहित्य में संस्कार शब्द का प्रयोग प्राप्त नहीं होता। ब्राह्मण साहित्य में भी इसका उल्लेख नहीं है। यद्यपि इसके विशेष प्रकरणों में उपनयनः अन्त्येष्टि, आदि कुछ संस्कारों के अंगों का वर्णन किया गया है। मीमांसक विद्वान् इस शब्द का प्रयोग वैयक्तिक शुद्धि के लिये कियेजाने वाले अनुष्ठानों के लिये न कर अग्नि में आहुति देने के पूर्व यज्ञीय सामग्री के परिष्कार के लिये करते थे। संस्कारों के अंगभूत विधि-विधान, कर्मकाण्ड, आचार,प्रथाये आदि प्रायः सार्वभौम है, और संसार के विविध देशों में पायी जाती है।प्राचीन संस्कृतियों में उनका प्रतिष्ठित स्थान है और आधुनिक धर्मो में भी उनकापर्याप्त प्रतिनिधित्व है। अतः संस्कारो के ऐतिहासिक विकास को ठीक-ठीक समझनेके लिये हिन्दु संस्कारों का अन्य धर्मों में प्रचलित संस्कारों तथा विधि-विधान केसाथ तुलनात्मक अध्ययन भी आवश्यक है। आधुनिक उपयोगितावादी दृष्टि सेदेखने पर संस्कारों के कई अंग असंगत तथा उपसहनीय जान पडेंगे। किन्तु जिन्हेंअतीत, प्राचीन, जीवन और संस्कृति के सामान्य सिद्धान्तों को समझने की क्षमता,धैर्य तथा रूचि है, उन्हें ऐसा प्रतीत नहीं होगा। उनको आभास होगा कि मानव ज्ञानभण्डार को समृद्ध बनाने हेतु उनका परिचय आवश्यक है। संस्कार सम्बन्धी विश्वासतथा प्रथायें अन्धविश्वास मूलक जादू-टोना तथा पौरोहित्य कला पर अवलम्बितनहीं है। वे पर्याप्त मात्रा में परस्पर सुसंगत तथा युक्ति युक्त है, तथापि उनका उदयआज से भिन्न मनोवैज्ञानिक वातावरण में हुआ था।

संस्कार दो प्रकार से समाज को प्रभावित करते है- (1) सिद्धान्तीकरण,(2) अभ्यास। पहले से धीरे-धीरे विचारों तथा विश्वासों का स्वरूप स्थिर होता है।सभी नियामक विधियों से यह प्रभाव शक्तिमान होता है। औचित्य और कर्त्तव्य कीधारणा मनुष्य को अपने पथ से विचलित नहीं होने देती। संस्कार इसकी चेतावनीजीवन के सभी मोडों पर देते है। यह प्रक्रिया शैशवावस्था से आरम्भ होती है।

‘संस्कृति’ शब्द सम् उपसर्ग पूर्वक डुकृञ धातु के योग से बना है। अंग्रेजी में संस्कृति शब्द के लिए ‘कल्चर’ शब्द का प्रयोग किया जाता है। संस्कृति का सम्बन्ध संस्कार से है।

  • डॉ० सत्यव्रत सिद्धान्तालंकार संस्कारों की वैज्ञानिक विधि से व्याख्या करते हुए अपने ग्रन्थ ‘संस्कार चन्द्रिका (पृष्ठ – 22)’ में लिखते हैं कि बालक के उत्पन्न होते ही उसे संस्कारों की भट्ठी में डालना ही संस्कार कहलाता है। संस्कार समुच्चय की भूमिका में ज्ञानमय प्रगतिशील और सफल बनाने का नाम साधन संस्कार है।
  • स्कन्धपुराण (नागर खण्ड अ० 239 श्लो० 31) में कहा गया है कि “जन्मना जायते शूद्रः संस्काराद्द्विज उच्यते”॥ अर्थात्-  जन्म से सभी शूद्र होते हैं संस्कारों से द्विज बनते हैं।
  • आचार्य चरक कहते है-‘संस्कारो हि गुणान्तराधानामुच्यते’ (चरक संहिता,विमान 1/27),“दुर्गुनों एवं दोषों का परिहार तथा गुणों का परिवर्तन करके भिन्न एक नवीन गुणों का आधान करने का नाम संस्कार है।” निर्गुण को सगुण बनाना,विकारों एवं अशुद्धियों का निवारण करना तथा मूल्यवान गुणोंको सम्प्रेषित अथवा संक्रमित करना संस्कारों का कार्य है।
  • मीमांसा दर्शन के (3/1/3) सुत्र की व्याख्या में शबरस्वामी ने ‘संस्कार’ शब्द का अर्थ इस प्रकार किया है -‘संस्कारों नाम स भवति यस्मिञजाते पदार्थो भवति योग्यः’कस्यचिदर्थरय अर्थात् सस्कार वह है, जिसके होने से पदार्थ याव्यक्ति किसी कार्य के योग्य हो जाता है।
  • तन्त्रवार्तिक (पृ. 1078) के अनुसार – ‘योग्यतां चाद्धानाः क्रिया:संस्कारा इत्युच्यन्ते’ अर्थात संस्कार वे क्रियांए तथा रीतियां हैं,जो योग्यता प्रदान करती है। वह योग्यता दो प्रकार की होती है- (1) पापमोचन से उत्पन्न योग्यता तथा (2) नवीन गुणों सेउत्पन्न योग्यता।
  • मानवधर्मशास्त्र के प्रवर्तक महर्षि मनु ने लिखा है —-निकादिश्मशानान्तो मन्त्रस्यिोदितो विधिः ।तस्य शास्तेडधिकारोऽस्मिञज्ञेयो नान्यस्य कस्यचित् ।।(मनु. 2/26)मनुष्यों के शरीर और आत्मा को उन्नत करने के लियेमन्त्रोच्चारण पूर्वक यथाविधि निषेक से लेकर श्मशान अर्थात्गर्भाधान से लेकर अन्त्येष्टिपर्यन्त जिसके संस्कार होते हैं, वहींशास्त्र का अधिकारी होता है।
  • मीमांसा दर्शन के (3/1/3) सुत्र की व्याख्या में शबरस्वामी ने ‘संस्कार’ शब्द का अर्थ इस प्रकार किया है -‘संस्कारों नाम स भवति यस्मिञजाते पदार्थो भवति योग्यः’कस्यचिदर्थरय अर्थात् सस्कार वह है, जिसके होने से पदार्थ याव्यक्ति किसी कार्य के योग्य हो जाता है। मीमांसा दर्शन संस्कार का आशय यज्ञीय पुरोडाश आदिकी सविधि शुद्धि मानता है – ‘प्रोक्षणादिजन्यसंस्कारों यज्ञड्पुरोडशिषु।’
  • वीरमित्रोदेय संस्कार प्रकाश (भाग-1 , पृ.132) के अनुसार संस्कृत की परिभाषा है – ‘आत्मशरीरान्यतरनिष्ठो विहितक्रियाजन्योडतिशय विशेष: संस्कारः। संस्कार का अर्थ होता है- परिशुद्धि या सफाई।
  • महर्षि जैमिनी (जैमिनी सूत्र, 3.1.3)  के अनुसार संस्कार वह है, जिससे कोई व्यक्तिया वस्तु किसी कार्य के योग्य हो जाते हैं, संस्कारों नाम सभवति यस्मिञजाते पदार्थो भवति योग्यः कस्यचिदर्थस्या”संस्कारों के द्वारा वस्तु या प्राणी को और अधिक संस्कृत परिमार्जित एंव उपादेय बनाना ही इसका मुख्य उद्देश्य हैअर्थात् संस्कार पात्रता पैदा करते हैं।

संस्कारों का विवेचन मुख्य रुप से गृह्यसूत्रों में ही मिलता है, किन्तु इनमें भी संस्कार शब्द का प्रयोग यज्ञ सामग्री के पवित्रीकरण के अर्थ में किया गया है। वैखानस स्मृति सूत्र (200-500 ई.) में सबसे पहले शरीर संबंधी संस्कारों और यज्ञों में स्पष्ट अन्तर मिलता है। 

मनु और याज्ञवल्क्य के अनुसार संस्कारों से द्विजों के गर्भ और बीज के दोषादि की शुद्धि होती है। कुमारिल भट्ट (8वीं ई.) ने तन्त्रवार्तिक ग्रंथ में इसके कुछ भिन्न विचार प्रकट किए हैं। उनके अनुसार मनुष्य दो प्रकार से योग्य बनता है – पूर्व- कर्म के दोषों को दूर करने से और नए गुणों के उत्पादन से। संस्कार ये दोनों ही काम करते हैं।

संस्कारों की संख्या

संस्कारों की संख्या के सम्बन्ध में भी विचारक एक मत नहीं हैं-

ऋग्वेद में संस्कारों का उल्लेख नहीं है, किन्तु इस ग्रंथ के कुछ सूक्तों में विवाह, गर्भाधान और अंत्येष्टि से संबंधित कुछ धार्मिक कृत्यों का वर्णन मिलता है।

दशमासाञ्छशयान: कुमारो अधि मातरि!

निरैतु जीवो अक्षतों जीवन्त्या अधि!!  (ऋग्वेद- 5/75/9)

अर्थात्- हे परमात्मन, दस माह तक माता के गर्भ में रहने वाला सुकुमार जीव प्राण धारण करता हुआ अपनी प्राण शक्ति सम्पन्न माता के शरीर से सुखपूर्वक बाहर निकले।

ऋग्वेद में भी गर्भाधान संस्कार का उल्लेख हुआ है-

अहं गर्भमदधामोषधीष्वहं विश्वेषु भुवनेष्वन्त।

अहं प्रजा अजनयं पृथिव्यामहं जनिभ्यो अपरीषुपुत्रान्।। (ऋग्वेद- 10.183.3)

यजुर्वेद में केवल श्रौत यज्ञों का उल्लेख है, इसलिए इस ग्रंथ के संस्कारों की विशेष जानकारी नहीं मिलती।

गोपथ और शतपथ ब्राह्मणों में उपनयन गोदान संस्कारों के धार्मिक कृत्यों का उल्लेख मिलता है।

तैत्तिरीय उपनिषद् में शिक्षा समाप्ति पर आचार्य की दीक्षांत शिक्षा मिलती है।

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अथर्ववेद में विवाह, अंत्येष्टि, उपनयन और गर्भाधान संस्कारों का पहले से अधिक विस्तृत वर्णन मिलता है। अथर्ववेद का 5.25वां सूक्त गर्भाधान संस्कार से संबधित है। अथर्ववेद के इस सूक्त के तीसरे व पांचवें मंत्र में जो कि वृहदारण्यक उपनिषद (6.4.21) में उदृधृत है, गर्भाधान संस्कार का उद्घाटन करता प्रतीत होता है-

अथास्याउरू विहापयति विजिहीथां द्यावापृथिवी इति तस्यामर्थं निष्ठाय मुखेन मुखं संधाय त्रिरेनामनुलोमामनुमाष्टि ।

विष्णुर्योनि कल्पयतु त्वष्टा रूपाणि पिंषतु।

आसिंचतु प्रजापतिर्धाता गर्भं दधातु ते।।

गर्भ धेहि सिनीवालि गर्भ धेहि पृथुष्टुके।

गर्भ अश्विनौ देवावाधत्तां पुष्कर:जौ।। (वृहदारण्यक उपनिषद्- 6/4/21)

उपयुर्क्त मंत्र अथर्ववेद 5.25.3 और 5.25.5 से उदृधृत है।

अर्थात् गृह्यसूत्रों से पूर्व संस्कारों के पूरे नियम नहीं मिलते। ऐसा प्रतीत होता है कि गृहसूत्रों से पूर्व पारम्परिक प्रथाओं के आधार पर ही संस्कार होते थे। सबसे पहले गृहसूत्रों में ही संस्कारों की पूरी पद्धति का वर्णन मिलता है। गृह्यसूत्रों में संस्कारों के वर्णन में सबसे पहले विवाह संस्कार का उल्लेख है। इसके बाद गर्भाधान, पुंसवन, सीमंतोन्नयन, जात- कर्म, नामकरण, निष्क्रमण, अन्न- प्राशन, चूड़ा- कर्म, उपनयन और समावर्तन संस्कारों का वर्णन किया गया है। अधिकतर गृह्यसूत्रों में अंत्येष्टि संस्कार का वर्णन नहीं मिलता, क्योंकि ऐसा करना अशुभ समझा जाता था। स्मृतियों के आचार प्रकरणों में संस्कारों का उल्लेख है और तत्संबंधी नियम दिए गए हैं। इनमें उपनयन और विवाह संस्कारों का वर्णन विस्तार के साथ दिया गया है, क्योंकि उपनयन संस्कार के द्वारा व्यक्ति ब्रह्मचर्य आश्रम में और विवाह संस्कार के द्वारा गृहस्थ आश्रम में प्रवेश करता था।

आश्वलायन गृह्यसूत्र ऋग्वेद से सम्बद्ध हैं। इसमें 4 अध्याय हैं, जिनमें संस्कारों, कृषि कर्मों एवं पितृमेघ आदि धार्मिक कृत्यों का प्रधानरूप से वर्णन मिलता है। आश्वलायन गृह्यसूत्र (1.22.1) में 11 संस्कारों का वर्णन मिलता है जो निम्नलिखित हैं- 1. विवाह, 2. गर्भाधान, 3. पुंसवन, 4. सीमन्तोन्नयन, 5. जातकर्म, 6. नामकरण, 7.चूडाकरण, 8. अन्नप्राशन, 9. उपनयन, 10. समावर्तन, 11. अन्त्येष्टि।

मनु (मनु.स्मृ- 16,26,29,3-14) के अनुसार गर्भाधान से लेकर मृत्यु पर्यन्त 13 स्मार्त संस्कार हैं- गर्भाधान, पुंसवन,सीमन्तोन्नयन, जातकर्म, नामधेय, निष्क्रमण, अन्नप्राशन, चूडाकर्म, उपनयन,मौजीबन्धन, केशान्त समावर्तन अन्त्येष्टि।

बौधायन गृह्यसूत्र (यह गृह्यसूत्र कृष्णयजुर्वेद की तैत्तिरीय शाखा से सम्बद्ध हैं) में 13 संस्कारों का वर्णन किया गया है- विवाह, गर्भाधान, पुंसवन, सीमन्तोन्नयन, जातकर्म, नामकरण, निष्क्रमण, अन्नप्राशन, चूडाकर्म, उपनयन, कर्णवेध, समावर्तन तथा पितृमेध।

पारस्कर गृह्यसूत्र (1/4/13) में 13 संस्कारों की चर्चा की गई है-विवाह, गर्भाधान, पुंसवन, सीमन्तोन्नयन, जातकर्म, नामकरण,निष्क्रमण, अन्नप्राशन, चूड़ाकरण, उपनयन, केशान्त, समावर्तन, अन्त्येष्टि।

आश्वलायन, पाररकर, बौधायन गृह्यसूत्रों से हटकर सामवेदीय गृह्यसूत्रों में गोभिल गृह्यसूत्र, खादिर गृह्यसूत्र तथा द्रारायण गृह्यसूत्र में दस संस्कारों के ही वर्णन प्राप्त होते हैं। प्रायः सभी गृह्यसूत्र विवाह से ही संस्कारों का वर्णन प्रारम्भ करते हैं, लेकिन जैमिनि गृह्यसूत्र में सर्वप्रथम पुंसवन संस्कार का वर्णन किया गया है। इस गृह्यसूत्र में गर्भाधान का तो वर्णन ही नहीं किया गया है।

गौतम धर्मसूत्रों (‘चत्वारिंशत् संस्कारा अष्टौ आत्मगुण’:- 3.1-4) में संस्कारों की संख्या को बढ़ाकर 40 तक पहुंचाया गया है, जिनका क्रमिक उल्लेख निम्न है-

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वर्तमान समय में षोडश (16) संस्कारों को स्वीकृत किया गया है

संस्कार विधि के प्रारम्भ में षोडश यानी सोलह संस्कारों का उल्लेख मिलता है, किन्तु व्याख्या भाग में सत्रह संस्कारों का वर्णन हुआ है। यह संस्कार इस प्रकारहैं-गर्भाधान, पुंसवनम्, सीमन्तोन्नयन, जातकर्म, नामकरण, निष्क्रमण, अन्नप्राशन चूडाकर्ण, कर्णवेधन, उपनयन, वेदारम्भ, समावर्तन, विवाह, वानप्रस्थ, संन्यास अन्त्येष्टि संस्कार।

महर्षि वेदव्यास स्मृति शास्त्र के अनुसार, 16 संस्कार प्रचलित हैं:-

गर्भाधानं पुंसवनं सीमंतो जातकर्म च। नामक्रियानिष्क्रमणेअन्नाशनं वपनक्रिया:।।

कर्णवेधो व्रतादेशो वेदारंभक्रियाविधि:। केशांत स्नानमुद्वाहो विवाहाग्निपरिग्रह:।।

त्रेताग्निसंग्रहश्चेति संस्कारा: षोडश स्मृता:। (व्यासस्मृति – 1/13-15)

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1- गर्भाधान संस्कार

हिंदू धर्म में जिन सोलह संस्कारों का वर्णन आता है, उनमें पहला संस्कार है गर्भाधान। इस संस्कार के जरिए आत्मा कोख में आती है और जीवन-मृत्यु का चक्र आरंभ होता है।

जन्मना जायते शुद्रऽसंस्काराद्द्विज उच्यते।

अर्थात: जन्म से सभी शुद्र होते हैं और संस्कारों द्वारा व्यक्ति को द्विज बनाया जाता है।

गर्भाधान के संबध में स्मृतिसंग्रह में लिखा है:-

निषेकाद् बैजिकं चैनो गार्भिकं चापमृज्यते।

क्षेत्रसंस्कारसिद्धिश्च गर्भाधानफलं स्मृतम्।।

अर्थात: अर्थात् विधिपूर्वक संस्कार से युक्त गर्भाधान से अच्छी और सुयोग्य संतान उत्पन्न होती है। इस संस्कार से वीर्यसंबधी पाप का नाश होता है, दोष का मार्जन तथा क्षेत्र का संस्कार होता है। यही गर्भाधान-संस्कार का फल है।

हिन्दू धर्म के अनुसार गृह्स्थ जीवन का एक मुख्य उद्देश्य संतान प्राप्ति भी है, ताकि यह संसार बिना किसी व्यवधान के आगे बढ़ता रहे। जिन विवाहित दंपत्तियों को माता-पिता बनने का सुख प्राप्त होता है, उनके लिए यह ईश्वर के आशीर्वाद जैसा ही है। हर जीव जो इस दुनियां में आता है वह माता-पिता बनने का सुख प्राप्त करता है लेकिन श्रेष्ठ संतान की उत्पत्ति के लिये हिंदू धर्म ग्रंथों में कुछ नियम निर्धारित किए गए हैं। जिनका पालन करना गर्भधान संस्कार कहलाता है। कहते हैं महिला और पुरुष के मिलन से जीव स्त्री के गर्भ में अपना स्थान बना लेता है। गर्भाधान संस्कार के माध्यम से जीव के पूर्वजन्म के बुरे प्रभाव को नष्ट कर अच्छे गुणों को डाला जाता है।

संस्कारों हि नाम संस्कार्यस्य गुणाधानेन वा स्याद्योषाप नयनेन वा॥ -ब्रह्मसूत्र भाष्य 1/1/4

अर्थात: व्यक्ति में गुणों का आरोपण करने के लिए जो कर्म किया जाता है, उसे संस्कार कहते हैं।

उत्तम संतान प्राप्त करने के लिए इसीलिए सबसे पहले गर्भाधान-संस्कार करना होता है जिससे पवित्र भावना का विकास होता है। तब माता-पिता के रज एवं वीर्य के संयोग से संतानोत्पत्ति होती है। यह संयोग ही गर्भाधान कहलाता है। स्त्री और पुरुष के शारीरिक मिलन को गर्भाधान-संस्कार कहा जाता है। गर्भस्थापन के बाद अनेक प्रकार के प्राकृतिक दोषों के आक्रमण होते हैं, जिनसे बचने के लिए यह संस्कार किया जाता है। जिससे गर्भ सुरक्षित रहता है। विधिपूर्वक संस्कार से युक्त गर्भाधान से अच्छी और सुयोग्य संतान उत्पन्न होती है। शास्त्रों में लिखा भी है-

आहाराचारचेष्टाभिर्यादृशोभिः समन्वितौ।

स्त्रीपुंसौ समुपेयातां तयोः पुतोडपि तादृशः।।

अर्थात : स्त्री और पुरुष जैसे आहार-व्यवहार तथा चेष्टा से संयुक्त होकर परस्पर समागम करते हैं, उनकी संतान भी वैसे ही स्वभाव का होता है।

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श्रेष्ठ संतान के जन्म के लिए आवश्यक है कि ‘गर्भाधान’ संस्कार श्रेष्ठ मुहूर्त में किया जाए। ‘गर्भाधान’ कभी भी क्रूर ग्रहों के नक्षत्र में नहीं किया जाना चाहिए। ‘गर्भाधान’ व्रत, श्राद्धपक्ष, ग्रहणकाल, पूर्णिमा व अमावस्या को नहीं किया जाना चाहिए। जब दंपति के गोचर में चन्द्र, पंचमेश व शुक्र अशुभ भावगत हों तो ‘गर्भाधान’ करना उचित नहीं होता, आवश्यकतानुसार अनिष्ट ग्रहों की शांति-पूजा कराकर गर्भाधान संस्कार को संपन्न करना चाहिए। शास्त्रानुसार रजोदर्शन की प्रथम 4 रात्रि के अतिरिक्त 11वीं और 13वीं रात्रि को भी ‘गर्भाधान’ नहीं करना चाहिए। ‘गर्भाधान’ सदैव सूर्यास्त के पश्चात ही करना चाहिए। ‘गर्भाधान’ दक्षिणाभिमुख होकर नहीं करना चाहिए। ‘गर्भाधान’ वाले कक्ष का वातावरण पूर्ण शुद्ध होना चाहिए। ‘गर्भाधान’ के समय दंपति के आचार-विचार पूर्णतया विशुद्ध होने चाहिए।

2- पुंसवन संस्कार

16 हिन्दू धर्म संस्कारों में पुंसवन संस्कार द्वितीय संस्कार है। पुंसवन संस्कार जन्म के तीन माह के पश्चात किया जाता है। पुंसवन संस्कार तीन महीने के पश्चात इसलिए आयोजित किया जाता है क्योंकि तीसरे माह से गर्भ में आकार और संस्कार दोनों अपना स्वरूप पकड़ने लगते हैं। उनके लिए आध्यात्मिक उपचार समय पर ही कर दिया जाना चाहिए। इस संस्कार के नीचे लिखे प्रयोजनों को ध्यान में रखा जाए।  गर्भिणी सूत्र दुहरायें-

ॐ दिव्यचेतनां स्वात्मीयां करोमि।

हम दिव्य चेतना को आत्मसात् कर रहे हैं।

ॐ भूयो भूयो विधास्यामि।

यह क्रम आगे भी बनायें रखेंगे। गर्भिणी औषधि को निम्न मन्त्र के साथ सूँघे।

ॐ अद्भ्यः सम्भृतः पृथिव्यै रसाच्च विश्वकर्मणः समवर्त्तताग्रे।

तस्य त्वष्टा विदधद्रूपमेति तन्मर्त्यस्य देवत्वमाजानमग्रे॥ -३१.१७  ॥ गर्भ पूजन॥

गर्भ- पूजन के लिए गर्भिणी के घर परिवार के सभी वयस्क परिजनों के हाथ में अक्षत, पुष्प आदि दिये जाएँ। मन्त्र बोला जाए। मन्त्र समाप्ति पर एक तश्तरी में एकत्रित करके गर्भिणी को दिया जाए। वह उसे पेट से स्पर्श करके रख दे। भावना की जाए, गर्भस्थ शिशु को सद्भाव और देव- अनुग्रह का लाभ देने के लिए पूजन किया जा रहा है। गर्भिणी उसे स्वीकार करके गर्भ को वह लाभ पहुँचाने में सहयोग कर रही है।

क्यों कहते हैं पुंसवन संस्कार- पुंसवन संस्कार एक हष्ट पुष्ट संतान के लिये किया जाने वाला संस्कार है। कहते हैं कि जिस कर्म से वह गर्भस्थ जीव पुरुष बनता है, वही पुंसवन-संस्कार है। शास्त्रों अनुसार चार महीने तक गर्भ का लिंग-भेद नहीं होता है। इसलिए लड़का या लड़की के चिह्न की उत्पत्ति से पूर्व ही इस संस्कार को किया जाता है।

धर्मग्रथों में पुंसवन-संस्कार करने के दो प्रमुख उद्देश्य मिलते हैं। पहला उद्देश्य पुत्र प्राप्ति और दूसरा स्वस्थ, सुंदर तथा गुणवान संतान पाने का है। मूलत: यह संस्कार वे लोग करते हैं जिन्हें पुत्र की कामना होती है। दूसरा पुंसवन-संस्कार का उद्देश्य बलवान, शक्तिशाली एवं स्वस्थ संतान को जन्म देना है। इस संस्कार से गर्भस्थ शिशु की रक्षा होती है तथा उसे उत्तम संस्कारों से पूर्ण बनाया जाता है।

हिंदू धार्मिक ग्रंथों में सुश्रुतसंहिता, यजुर्वेद आदि में तो पुंसवन संस्कार को पुत्र प्राप्ति से भी जोड़ा गया है। स्मृतिसंग्रह में यह लिखा है – गर्भाद् भवेच्च पुंसूते पुंस्त्वस्य प्रतिपादनम् अर्थात गर्भस्थ शिशु पुत्र रूप में जन्म ले इसलिए पुंसवन संस्कार किया जाता है।

कैसे करते हैं पुंसवन संस्कार- इस संस्कार में एक विशेष औषधि को गर्भवती स्त्री की नासिका के छिद्र से भीतर पहुंचाया जाता है। हालांकि औषधि विशेष ग्रहण करना जरूरी नहीं। विशेष पूजा और मंत्र के माध्यम से भी यह संस्कार किया जाता है। कहते हैं कि तीन माह तक शिशु का लिंग निर्धारण नहीं होता है। इस संस्कार से लिंग को परिवर्तित भी किया जा सकता है।

जब तीन माह का गर्भ हो, तो लगातार 9 दिन तक सुबह या रात्रि में सोते समय स्त्री को एक विशेष मंत्र अर्थसहित पढ़कर सुनाया जाता है तथा मन में पुत्र ही होगा ऐसा बार-बार दृढ़ निश्चय एवं पूर्ण श्रद्धा के साथा संकल्प कराया जाता है, तो पुत्र ही उत्पन्न होता है।

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3- सीमन्तोन्नयन संस्कार

सीमन्तोन्नयन संस्कार हिन्दू धर्म संस्कारों में तृतीय संस्कार है। यह संस्कार पुंसवन का ही विस्तार है। इसका शाब्दिक अर्थ है- “सीमन्त” अर्थात ‘केश और उन्नयन’ अर्थात ‘ऊपर उठाना’। संस्कार विधि के समय पति अपनी पत्नी के केशों को संवारते हुए ऊपर की ओर उठाता था, इसलिए इस संस्कार का नाम ‘सीमंतोन्नयन’ पड़ गया।

इस संस्कार का उद्देश्य गर्भवती स्त्री को मानसिक बल प्रदान करते हुए सकारात्मक विचारों से पूर्ण रखना था। शिशु के विकास के साथ माता के हृदय में नई-नई इच्छाएँ पैदा होती हैं। शिशु के मानसिक विकास में इन इच्छाओं की पूर्ति महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाती है।

पुंसवन संस्कार जहां गर्भाधारण के तीसरे महीने में किये जाने का विधान है वहीं सीमन्तोन्नयन संस्कार चौथे, छठे या आठवें माह में किया जाता है। अधिकतर विद्वान इस संस्कार को आठवें महीने में किये जाने के पक्ष में हैं। आइये जानते हैं सीमन्तोन्नयन संस्कार के बारे में।

सीमन्तोन्नयन संस्कार का महत्व- जैसा कि नाम से ही जाहिर होता है कि यह सीमन्तोन्नयन सीमन्त और उन्नयन से मिलकर बना है। सीमन्त बालों को कहा जाता है और उन्नयन का अर्थ होता है ऊपर उठाना। मान्यता है कि जब स्त्री गर्भधारण करती है तो समय के साथ-साथ उसके अंदर बहुत सारे परिवर्तन आते हैं। सीमन्तोन्नयन संस्कार आठवें महीने में किया जाता है। इस समय स्त्री की पीड़ा और उसके स्वभाव में परिवर्तन बहुत बढ़ जाते हैं ऐसे में उसे मानसिक रूप से तैयार करने की जरूरत होती है। इस संस्कार के बहाने पति पत्नी के केश संवारता है ताकि उसे मानसिक शक्ति प्राप्त हो। इस संस्कार की यह मान्यता भी काफी प्रबल है कि इससे गर्भ सुरक्षित रहता है। माना जाता है कि चौथे, छठे या आठवें माह में गर्भपात हो जाये तो गर्भ के जीवित रहने की संभावनाएं नहीं होती बल्कि माता के जीवन को भी कई बार संकट हो जाता है। इसलिये यह संस्कार छठे या आठवें माह में अवश्य करने की सलाह दी जाती है। इस संस्कार का एक महत्व यह भी माना जाता है कि इससे शिशु का भी मानसिक विकास होता है। क्योंकि आठवें माह में वह माता को सुनने व समझने लगता है। इसलिये मां का मानसिक स्वास्थ्य यदि बेहतर होगा तो शिशु का भी बेहतर बना रहता है।

सीमन्तोन्नयन संस्कार की विधि- शास्त्र सम्मत मान्यता है कि गूलर की टहनी से पति पत्नी की मांग निकाले व साथ में ॐ भूर्विनयामि, ॐ भूर्विनयामि, ॐ भूर्विनयामि का जाप करें। इसके पश्चात पति इस मंत्र का उच्चारण करे-

येनादिते: सीमानं नयाति प्रजापतिर्महते सौभगाय।

तेनाहमस्यौ सीमानं नयामि प्रजामस्यै जरदष्टिं कृणोमि।।

इसका अर्थ है कि देवताओं की माता अदिति का सीमंतोन्नयन जिस प्रकार उनके पति प्रजापति ने किया था उसी प्रकार अपनी संतान के जरावस्था के पश्चात तक दीर्घजीवी होने की कामना करते हुए अपनी गर्भिणी पत्नी का सीमंतोन्नयन संस्कार करता हूं। इस विधि को पूरा करने के पश्चात गर्भिणी स्त्री को किसी वृद्धा ब्राह्मणी या फिर परिवार या आस-पड़ोस में किसी बुजूर्ग महिला का आशीर्वाद लेना चाहिये। आशीर्वाद के पश्चात गर्भवती महिला को खिचड़ी में अच्छे से घी मिलाकर खिलाये जाने का विधान भी है। इस बारे में एक उल्लेख भी शास्त्रों में मिलता है-

किं पश्यास्सीत्युक्तवा प्रजामिति वाचयेत् तं सा स्वयं।

भुज्जीत वीरसूर्जीवपत्नीति ब्राह्मण्यों मंगलाभिर्वाग्भि पासीरन्।।

इसका अर्थ है कि खिचड़ी खिलाते समय स्त्री से सवाल किया गया कि क्या देखती हो तो वह जवाब देते हुए कहती है कि संतान को देखती हूं इसके पश्चात वह खिचड़ी का सेवन करती है। संस्कार में उपस्थित स्त्रियां भी फिर आशीर्वाद देती हैं कि तुम्हारा कल्याण हो, तुम्हें सुंदर स्वस्थ संतान की प्राप्ति हो व तुम सौभाग्यवती बनी रहो।

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4- जातकर्म संस्कार

हिन्दू धर्म संस्कारों में जातकर्म संस्कार चतुर्थ संस्कार है। गर्भस्थ बालक के जन्म होने पर यह संस्कार किया जाता है। इस बारे में कहा भी गया है कि “जाते जातक्रिया भवेत्”। गर्भस्थ बालक के जन्म के समय जो भी कर्म किये जाते हैं उन्हें जातकर्म कहा जाता है। इनमें बच्चे को स्नान कराना, मुख आदि साफ करना, मधु व घी चटाना, स्तनपान, आयुप्यकरण आदि कर्म किये जाते हैं। क्योंकि जातक के जन्म लेते ही घर में सूतक माना जाता है इस कारण इन कर्मों को संस्कार का रूप दिया जाता है। मान्यता है कि इस संस्कार से माता के गर्भ में रस पान संबंधी दोष, सुवर्ण वातदोष, मूत्र दोष, रक्त दोष आदि दूर हो जाते हैं व जातक मेधावी व बलशाली बनता है।

दशमासाञ्छशयान: कुमारो अधि मातरि!

निरैतु जीवो अक्षतों जीवन्त्या अधि!!  (ऋग्वेद ५/७५/९)

हे परमात्मन, दस माह तक माता के गर्भ में रहने वाला सुकुमार जीव प्राण धारण करता हुआ अपनी प्राण शक्ति सम्पन्न माता के शरीर से सुखपूर्वक बाहर निकले.

वृहदारण्यकोपनिषद् ( 6.4.24-28 ) के अनुसार-

“पुत्रोत्पत्ति के उपरांत पिता प्रसूतिकाग्नि को प्रज्वलित करके एक कांस्य पात्र में दधि- घृत को मिश्रण करके वैदिक मंत्रों का पाठ करता था तथा शिशु के कान के पास अपने मुंह को ले जाकर तीन बार “वाक्’ शब्द का उच्चारण करता था। तदनंतर उसकी जीभ में सोने की शलाका ( चम्मच से ) दधि- घृत- मधु का मिश्रण लगाता था। इस समय उपर्युक्त मंत्र का पाठ करता था, जिसमें कहा गया है “मैं तुझमें “भू’ रखता हूँ, “भूवः’ रखता हूँ, “स्वः’ रखता हूँ, “भूर्भुवः स्वः’ सभी को एक साथ रखता हूँ। इसके बाद शिशु को सम्बोधित करते हुए कहता था “तू वेद है।”” और उसका एक गुप्त नाम भी रखता था।

मान्यता यह भी है कि यदि शिशु का जन्म मूल-ज्येष्ठा या फिर किसी अन्य अशुभ मुहूर्त में हुआ हो तो पिता को शिशु का मुख देखे बिना ही स्नान करना चाहिये।

शिशु के जन्म के पश्चात बच्चे के शरीर पर उबटन लगाया जाता है। उबटन में चने का बारीक आटा यानि बेसन की बजाय मसूर या मूंग का बारीक आटा सही रहता है। इसके पश्चात शिशु का स्नान किया जाता है। मान्यता है कि गर्भ में शिसु श्वास नहीं लेता और न ही मुख खुला होता है।

प्राकृतिक रूप से ये बंद रहते हैं और इनमें कफ भरी होती है। लेकिन जैसे ही शिशु का जन्म होता है तो कफ को निकाल कर मुख साफ करना बहुत आवश्यक होता है। इसके लिये मुख को ऊंगली से साफ कर शिशु को वमन कराया जाता है ताकि कफ बाहर निकले इसके लिये सैंधव नमक बढ़िया माना जाता है। इसे घी में मिलाकर दिया जाता है।

तालु की मज़बूती के लिये नवजात क तालु पर घी या तेल लगाया जाता है। मान्यता है कि जिस तरह कमल के पत्ते पर पानी नहीं ठहरता उसी प्रकार स्वर्ण खाने वाले को विष प्रभावित नहीं करता। अर्थात संस्कार से शिशु की बुद्धि, स्मृति, आयु, वीर्य, नेत्रों की रोशनी या कहें कुल मिलाकर शिशु को संपूर्ण पोषण मिलता है व शिशु सुकुमार होता है।

उत्पन्न हुए बालक के जो कर्म किए जाते हैं, उनको जातकर्म कहा जाता है। इन कर्मों में बच्चे को स्नान कराना, मुख आदि साफ़ करना, मधु और घी आदि चटाया जाता है।, स्तनपान तथा आयुप्यकरण है। इतने कर्म सूतिका घर में बच्चे के करने होते हैं। इसलिये इनको संस्कार का रुप दिया गया है।

शिशु के उत्पन्न हो जाने पर अपने कुल देवता और वृद्ध पुरुषों को नमस्कार कर पुत्र का मुख देखकर नदी-तालाब आदि में शीतल जल से उत्तराभिमुख हो, स्नान करें। यदि मूल-ज्येष्ठा आदि अनिष्ट काल में शिशु उत्पन्न हुआ हो तो मुख देखे बिना स्नान कर लें।

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5- नामकरण संस्कार

नामकरण संस्कार हिन्दू धर्म संस्कारों में पंचम संस्कार है। यह संस्कार बच्चे के जन्म होने के ग्यारहवें दिन में कर लेना चाहिये। बच्चे का नाम उसकी पहचान के लिए नहीं रखा जाता। गोभिल गह्यसूत्रकार के अनुसार 100 दिन या 1 वर्ष बीत जाते के बाद भी नामकरण संस्कार कराने का प्रचलन है।

गोभिल गृह्यसुत्र के अनुसार

“जननादृशरात्रे व्युष्टे शतरात्रे संवत्सरे वा नामधेयकरणम्”

अर्थात- जन्म के 10 वें दिन में 100 वें दिन में या 1 वर्ष के अंदर जातक का नामकरण संस्कार कर देना चाहिए।

नामकरण-संस्कार के संबंध में स्मृति-संग्रह में निम्नलिखित श्लोक उक्त है-

आयुर्वेडभिवृद्धिश्च सिद्धिर्व्यवहतेस्तथा ।

नामकर्मफलं त्वेतत् समुद्दिष्टं मनीषिभिः ।।

अर्थात- नामकरण-संस्कार से तेज़ तथा आयु की वृद्धि होती है। लौकिक व्यवहार में नाम की प्रसिद्धि से व्यक्ति का अस्तित्व बनता है। इसके पश्चात् प्रजापति, तिथि, नक्षत्र तथा उनके देवताओं, अग्नि तथा सोम की आहुतियां दी जाती हैं। तत्पश्चात् पिता, बुआ या दादी शिशु के दाहिने कान की ओर उसके नाम का उच्चारण करते हैं। इस संस्कार में बच्चे को शहद चटाकर और प्यार-दुलार के साथ सूर्यदेव के दर्शन कराए जाते हैं।

मनोविज्ञान एवं अक्षर-विज्ञान के जानकारों का मत है कि नाम का प्रभाव व्यक्ति के स्थूल-सूक्ष्म व्यक्तित्व पर गहराई से पड़ता रहता है। नाम सोच-समझकर तो रखा ही जाय, उसके साथ नाम रोशन करने वाले गुणों के विकास के प्रति जागरूक रहा जाय, यह जरूरी है। हिन्दू धर्म में नामकरण संस्कार में इस उद्देश्य का बोध कराने वाले श्रेष्ठ सूत्र समाहित रहते हैं।

नाम प्रायः दो होते हैं- एक गुप्त नाम दूसरा प्रचलित नाम- जैसे कहा है कि- दो नाम निश्चित करें, एक नाम नक्षत्र-सम्बन्धी हो और दूसरा नाम रुचि के अनुसार रखा गया हो।

गुप्त नाम- जिसे सिर्फ जातक के माता पिता जानते हों तथा दूसरा प्रचलित नाम जो लोक व्यवहार में उपयोग में लाया जाये। नाम गुप्त रखने का कारण जातक को मारक , उच्चाटन आदि तांत्रिक क्रियाओं से बचाना है। प्रचलित नाम पर इन सभी क्रियाओं का असर नहीं होता विफल हो जाती हैं। गुप्त नाम बालक के जन्म के समय ग्रहों की खगोलीय स्थिति के अनुसार नक्षत्र राशि का विवेचन कर के रख जाता है। इसे राशि नाम भी कहा जाता है। बालक की ग्रह दशा भविष्य फल आदि इसी नाम से देखे जाते हैं। विवाह के समय जातक जातिकवों के कुंडली का मिलाप भी राशि नाम के अनुसार होता है। सही और सार्थक नामकरण के लिए बालक के जन्म का समय, जनक स्थान, और जन्म तिथि का सही होना अति आवश्यक है।

दूसरा नाम लोक प्रचलित नाम- योग्य ब्राह्मण या ऋषि बालक के गुणों के अनुरुप बालक का नामकरण करते हैं। जैसे राम, लक्षमण, भरत और शत्रुघ्न का गुण और स्वभाव देख कर ही महर्षि वशिष्ठ ने उनका नामकरण किया था। लेकिन आजकल यह लोक प्रचलित नाम सामान्यतः माता पिता नाना नानी के रूचि के अनुसार रख जाता है। इस नाम से बालक के व्यवसाय, व्यवसाय में किसी पुरुष से शत्रुता और मित्रता के ज्ञान के लिए किया जाता है

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6- निष्क्रमण संस्कार

हिन्दू धर्म संस्कारों में निष्क्रमण संस्कार षष्ठम संस्कार है। निष्क्रमण का अर्थ हैं- बाहर निकलना । इस संस्कार के द्वारा बच्चे को पहली वार सूर्यदेव का दर्शन कराया जाता हैं। बच्चे के पैदा होते ही उसे सूर्य के प्रकाश में नहीं लाना चाहिये। इससे बच्चे की आंखों पर बुरा प्रभाव पड़ सकता है। इसलिये जब बालक की आँखें तथा शरीर कुछ पुष्ट बन जाये, तब इस संस्कार को करना चाहिये।

इस संस्कार का फल विद्धानों ने शिशु के स्वास्थ्य और आयु की वृद्धि करना बताया है –

निष्क्रमणादायुषो वृद्धिरप्युद्दिष्टा मनीषिभिः

जन्मे के चौथे मास में निष्क्रमण-संस्कार होता है। जब बच्चे का ज्ञान और कर्मेंन्द्रियों सशक्त होकर धूप, वायु आदि को सहने योग्य बन जाती है। सूर्य तथा चंद्रादि देवताओ का पूजन करके बच्चे को सूर्य, चंद्र आदि के दर्शन कराना इस संस्कार की मुख्य प्रक्रिया है। चूंकि बच्चे का शरीर पृथ्वी, जल, तेज, वायु तथा आकश से बनता है, इसलिए बच्चे के कल्याण की कामना करते हुए रहता है –

शिवे ते स्तां द्यावापृथिवी असंतापे अभिश्रियौ। शं ते सूर्य

आ तपतुशं वातो ते हदे। शिवा अभि क्षरन्तु त्वापो दिव्यः पयस्वतीः ।।

अर्थात् हे बालक! तेरे निष्क्रमण के समय द्युलोक तथा पृथिवीलोक कल्याणकारी सुखद एवं शोभास्पद हों। सूर्य तेरे लिए कल्याणकारी प्रकाश करे। तेरे हदय में स्वच्छ कल्याणकारी वायु का संचरण हो। दिव्य जल वाली गंगा-यमुना नदियाँ तेरे लिए निर्मल स्वादिष्ट जल का वहन करें।

मनुस्मृति में लिखा हैं , यह संस्कार जन्म के चौथे महीने में करना चाहिए। यह संस्कार को शुभ महुरत में करना चाहिए। इस संस्कार किये बिना बच्चे को बाहर निकालना नहीं चाहिए। घर के बाहर के दुनिया में कई तरह के शक्ति भरपूर होते हैं। यहां दैवी और दैत्य शक्ति का समागम होता हैं । निष्पाप शिशु को इन सारी दुष्प्रभाव से रक्षा करने के लिए , बच्चे का पिता प्रार्थना करते हैं। मनुष्य का शरीर पंच महाभूत से बना होता हैं , इस दिन इन देवताऔं का प्रार्थना और पूजा किया जाता हैं।

इस संस्कार से संबंधित निम्न मंत्र भी अथर्ववेद में मिलता है –

शिवे ते स्तां द्यावापृथिवी असंतापे अभिश्रियौ।

शं ते सूर्य आ तपतुशं वातो वातु ते हृदे।

शिवा अभि क्षरन्तु त्वापो दिव्या: पयस्वती:।।

अर्थात् बालक के निष्क्रमण के समय देवलोक से लेकर भू लोक तक कल्याणकारी, सुखद व शोभा देने वाला रहे। सूर्य का प्रकाश शिशु के लिये कल्याणकारी हो व शिशु के हृद्य में स्वच्छ वायु का संचार हो। पवित्र गंगा यमुना आदि नदियों का जल भी तुम्हारा कल्याण करें।

कब किया जाता है- निष्क्रमण संस्कार जातक के जन्म के चौथे मास में किया जाता है। मान्यता है कि जातक के जन्म लेते ही घर में सूतक लग जाता है। जन्म के ग्याहरवें दिन नामकरण संस्कार किया जाता है हालांकि यह कुछ लोग 100वें दिन या जातक के जन्म के एक वर्ष के उपरांत भी करते हैं। लेकिन जन्म के कुछ दिनों तक बालक को घर के बाहर नहीं निकाला जाता। माना जाता है कि इस समय जातक को सूर्य के प्रकाश में नहीं लाना चाहिये क्योंकि इससे जातक के स्वास्थ्य पर कुप्रभाव पड़ सकता है, विशेषकर आंखों को नुक्सान पंहुचने की संभावनाएं अधिक होती हैं। इसलिये जब जातक शारीरिक रूप से स्वस्थ हो जाये तो ही उसे घर से बाहर निकालना चाहिये यानि निष्क्रमण संस्कार करना चाहिये।

निष्क्रण संस्कार के दिन प्रात:काल उठकर तांबे के एक पात्र में जल लेकर उसमें रोली, गुड़, लालपुष्प की पंखुड़ियां आदि का मिश्रण करें व इस जल से सूर्यदेवता को अर्घ्य देते हुए बालक को आशीर्वाद देने के लिये उनका आह्वान करें। 

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7- अन्नप्राशन संस्कार

हिन्दू धर्म संस्कारों में अन्नप्राशन संस्कार सप्तम संस्कार है। इस संस्कार में बालक को अन्न ग्रहण कराया जाता है। एक कहावत बहुत ही प्रचलित है कि “जैसा खाये अन्न वैसा होगा मन” यानि हम जिस प्रकार का अन्न (भोजन) ग्रहण करते हैं हमारे विचार हमारा व्यवहार भी उसी प्रकार का हो जाता है। सात्विक भोजन से सात्विक गुण और तामसिक भोजन से तामसी प्रवृति हमारे अंदर आ जाती हैं। खान-पान संबंधी दोषों को दूर करने के लिये ही जातक के जन्म के छह-सात मास बाद ही सप्तम संस्कार किया जाता है जिसका नाम है अन्नप्राशन।

छठे माह में बालक का अन्नप्राशन संस्कार किया जाता है। शास्त्रों में अन्न को प्राणियों का प्राण कहा गया है। गीता में कहा गया है कि अन्न से ही प्राणी जीवित रहते हैं। अन्न से ही मन बनता है। इसलिए अन्न का जीवन में सर्वाधिक महत्व है।

अन्नाशनान्मातृगर्भे मलाशाद्यपि शुद्धयति

अर्थात- माता के गर्भ में मलिन भोजन के जो दोष शिशु में आ जाते हैं, उनके निवारण और शिशु को शुद्ध भोजन कराने की प्रक्रिया को अन्नप्राशन-संस्कार कहा जाता है।

शिशु को जब 6-7 माह की अवस्था में पेय पदार्थ, दूध आदि के अतिरिक्त प्रथम बार यज्ञ आदि करके अन्न खिलाना प्रारंभ किया जाता है, तो यह कार्य अन्नप्रशन-संस्कार के नाम से जाना जाता है। इस संस्कार का उद्देश्य यह होता है शिशु सुसंस्कारी अन्न ग्रहण करे।

शुद्ध एवं सात्त्विक, पौष्टिक अन्न से ही शरीर व मन स्वस्थ रहते हैं तथा स्वस्थ मन ही ईश्वरानुभुति का एक मात्र साधन है। आहार शुद्ध होने पर ही अंतःकरण शुद्ध होता है।

आहारशुद्धौ सत्त्वशुद्धिः

अर्थात्- शुद्ध आहार से शरीर में सत्त्वगुण की वृद्धि होती है।

हिंदू धर्म के सोलह संस्कारों में अन्नप्राशन संस्कार का भी खास महत्व है। मान्यता है कि छह मास तक शिशु माता के दुध पर ही निर्भर रहता है लेकिन इसके पश्चात उसे अन्न ग्रहण करवाया जाता है ताकि उसका पोषण और भी अच्छे से हो सके। शिशु को पहली बार माता के दुध के अलावा अन्य अन्न दुध आदि पिलाये जाने की क्रिया को अन्नप्राशन कहा जाता है।

अब तक तो शिशु माता का दुग्धपान करके ही वृद्धि को प्राप्त होता था, अब आगे स्वयं अन्न ग्रहण करके ही शरीर को पुष्ट करना होगा, क्योंकि प्राकृतिक नियम सबके लिये यही है। अब बालक को परावलम्बी न रहकर धीरे-धीरे स्वावलम्बी बनना पड़ेगा। केवल यही नहीं, आगे चलकर अपना तथा अपने परिवार के सदस्यों के भी भरण-पोषण का दायित्व संम्भालना होगा। यही इस संस्कार का तात्पर्य है।

कब किया जाता है- अन्नप्राशन संस्कार से पहले निष्क्रमण संस्कार किया जाता है जो कि जन्म के पश्चात चतुर्थ मास में किया जाता है। अन्नप्राशन संस्कार छठे या सातवें मास में किया जाता है। चूंकि छह मास तक जातक को माता का दुध ही दिया जाना चाहिये इस कारण यह संस्कार सातवें माह में किया जाना चाहिये। इसका कारण यह भी है कि इस अवस्था तक शिशु हल्का भोजन पचाने में सक्षम हो जाता है। इस समय शिशु को ऐसा अन्न दिया जाना चाहिये जो पचाने में आसान व पौष्टिक हो। इसी समय शिशु के दांत भी निकल रहे होते हैं जिससे उसका पाचनतंत्र मजबूत होने लगता है। ऐसे में पौष्टिक भोजन के सेवन से शिशु तंदुरुस्त होने लगता है।

शास्त्रों में देवों को खाद्य पदार्थ निवेदित करके अन्न खिलाने का विधान बताया गया है। इस संस्कार में शुभमुहूर्त में देवताओं का पूजन करने के पश्चात् माता-पिता चांदी के चम्मच से खीर आदि पवित्र और पुष्टिकारक अन्न शिशु को चटाते हैं और निम्नलिखित मंत्र बोलते हैं-

शिवौ ते स्तां व्रीहियवावबलासावदोमधौ।

एतौ यक्ष्मं वि बाधेते एतौ मुंचतो अंहसः।।

अर्थात्- हे बालक! जौ और चावल तुम्हारे लिए बलदायक तथा पुष्टिकारक हों, क्योंकि ये दोनों वस्तुएं यक्ष्मानाशक हैं तथा देवान्न होने से पापनाशक हैं।

कैसे किया जाता है- अन्न न सिर्फ शारीरिक पोषण बल्कि मन, बुद्धि, तेज़ व आत्मिक पोषण के लिये भी आवश्यक होता है। इससे जातक तेजस्वी व बलशाली होता है। इस संस्कार के दौरान शिशु को भात, दही, शहद और घी आदि को मिश्रित कर खिलाया जाता है। अन्न से जातक का शारीरिक व आत्मिक विकास होता है। संस्कार के लिये शुभमुहूर्त देखकर उसमें देवताओं का पूजन करना चाहिये। देवपूजा के पश्चात चांदी के चम्मच से खीर आदि का पवित्र प्रसाद शिशु को मंत्रोच्चारण के साथ माता-पिता द्वारा चटाया जाता है। इस दौरान माता-पिता को निम्न मंत्र का उच्चारण करना चाहिये-

ॐ याऽ ओषधीः पूर्वा जाता देवेभ्यस्त्रियुगं पुरा।

मनै नु बभ्रूणामह* शतं धामानि सप्त च॥

गंगाजल की कुछ बूंदें पात्र में डालकर मिलाएँ। पतितपावनी गङ्गा खाद्य की पापवृत्तियों का हनन करके उसमें पुण्य संवर्द्धन के संस्कार पैदा    कर रही हैं। ऐसी भावना के साथ उसे चम्मच से मिलाकर एक दिल कर दें। जैसे यह सब भिन्न-भिन्न वस्तुएँ एक हो गयीं, उसी प्रकार भिन्न- भिन्न श्रेष्ठ संस्कार बालक को एक समग्र श्रेष्ठ व्यक्तित्व प्रदान करें।

ॐ पञ्च नद्यः सरस्वतीमपि यन्ति सस्रोतसः।

सरस्वती तु पञ्चधा सो देशेभवत्सरित्॥

सभी वस्तुएँ मिलाकर वह मिश्रण पूजा वेदी के सामने संस्कारित होने के लिए रख दिया जाए। इसके बाद अग्नि स्थापन से लेकर गायत्री मन्त्र की आहुतियाँ पूरी करने तक का क्रम चलाया जाए।

गायत्री मन्त्र की आहुतियाँ पूरी हो जाने पर पहले तैयार की गयी खीर से ५ आहुतियाँ नीचे लिखे मन्त्र के साथ दी जाएँ। भावना की जाए कि वह    खीर इस प्रकार यज्ञ भगवान् का प्रसाद बन रही है।

ॐ देवीं वाचमजनयन्त देवाः तां विश्वरूपाः पशवो वदन्ति।

सा नो मन्द्रेषमूर्जं दुहाना धेनुर्वागस्मानुप सुष्टुतैतु स्वाहा॥

इदं वाचे इदं न मम। -ऋ० ८.१००.११

आहुतियाँ पूरी होने पर शेष खीर से बच्चे को अन्नप्राशन कराया जाए।

क्रिया और भावना-  खीर का थोड़ा- सा अंश चम्मच से मन्त्र के साथ बालक को चटा दिया जाए। भावना की जाए कि वह यज्ञावशिष्ट खीर अमृतोपम गुणयुक्त है और बालक के शारीरिक स्वास्थ्य, मानसिक सन्तुलन, वैचारिक उत्कृष्टता तथा चारित्रिक प्रामाणिकता का पथ प्रशस्त करेगी।

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8- मुंडन (चूड़ाकर्म) संस्कार विधि

चूड़ाकर्म संस्कार – हिंदू धर्म में आठवां संस्कार मुंडन संस्कार होता है। यह संस्कार पहले या तीसरे साल में किया जाता है। चूड़ाकर्म संस्कार, जिसे “चौलकर्म’ भी कहा जाता है, केवल पुत्र संतति के लिए किया जाता है। इसका अर्थ है “शिशु का मुण्डन पूर्वक “शिखा’ ( चूड़ा ) का निर्धारण करना’। सभी हिंदू शास्रकारों ने इसका वर्णन किया है।

माना जाता है कि शिशु जब माता के गर्भ से बाहर आता है तो उस समय उसके केश अशुद्ध होते हैं। शिशु के केशों की अशुद्धि दूर करने की क्रिया ही चूड़ाकर्म संस्कार कही जाती है। दरअसल हमारा सिर में ही मस्तिष्क भी होता है इसलिये इस संस्कार को मस्तिष्क की पूजा करने का संस्कार भी माना जाता है। जातक का मानसिक स्वास्थ्य अच्छा रहे व वह अपने दिमाग को सकारात्मकता के साथ सार्थक रुप से उसका सदुपयोग कर सके यही चूड़ाकर्म संस्कार का उद्देश्य भी है। इस संस्कार से शिशु के तेज में भी वृद्धि होती है।

बाल कटवाने से शरीर की अनावश्यक गर्मी निकल जाती है, दिमाग व सिर ठंडा रहता है व बच्चों में दांत निकलते समय होने वाला सिर दर्द व तालु का कांपना बंद हो जाता है। शरीर पर और विशेषकर सिर पर विटामिन-डी (धूप के रूप) में पड़ने से कोशिकाएं जाग्रत होकर खून का प्रसारण अच्छी तरह कर पाती हैं जिनसे भविष्य में आने वाले केश बेहतर होते हैं।

कब करें- मनुस्मृति के अनुसार द्विजातियों को प्रथम अथवा तृतीय वर्ष में यह संस्कार करना चाहिये। अन्नप्राशन संस्कार के कुछ समय पश्चात प्रथम वर्ष के अंत में इस संस्कार को किया जा सकता है। लेकिन तीसरे वर्ष यह संस्कार किया जाये तो बेहतर रहता है। इसका कारण यह है कि शिशु का कपाल शुरु में कोमल रहता है जो कि दो-तीन साल की अवस्था के पश्चात कठोर होने लगता है। ऐसे में सिर के कुछ रोमछिद्र तो गर्भावस्था से ही बंद हुए होते हैं। चूड़ाकर्म यानि मुंडन संस्कार द्वारा शिशु के सिर की गंदगी, कीटाणु आदि दूर हो जाते हैं। इससे रोमछिद्र खुल जाते हैं और नये व घने मजबूत बाल आने लगते हैं। यह मस्तिष्क की रक्षा के लिये भी आवश्यक होता है। कुछ परिवारों में अपनी कुल परंपरा के अनुसार शिशु के जन्म के पांचवे या सातवें साल भी इस संस्कार को किया जाता है।

  • अधिकतर धर्मशास्रकारों ने इसे जन्म से तीसरे वर्ष में किये जाने का प्रस्ताव किया है, किंतु बौधा० ( 2/8 ), पार० गृ० सू० ( 2.1.1- 2 ) तथा मनु० (2.35 ) के अनुसार उसे जन्म के प्रथम या तृतीय वर्ष में संपन्न किया जाना चाहिए
  • लेकिन आश्व० गृ० सू० (1/17/1 पर नारायणी टीका ) तथा अन्य उत्तरकालीन “संस्कारप्रकाश’ आदि संस्कार पद्धतियों में कहा गया है कि चौल कर्म के लिए यद्यपि प्रथम, तृतीय या पंचम वर्षों को सर्वाधिक उपयुक्त समझा गया है
  • असुविधा होने पर इसे इससे पूर्व या बाद में अथवा उपनयन संस्कार के साथ भी किया जा सकता है। इसीलिए कई सामाजिक वर्गों में इसे उपनयन के साथ ही किये जाने की परिपाटी पायी जाती है।

कहां करें- उत्तर भारत में अधिकतर गंगा तट पर, दुर्गा मंदिरों के प्रांगण में तथा दक्षिण भारत में तिरुपति बालाजी मंदिर तथा गुरुजन देवता के मंदिरों में मुंडन संस्कार किया जाता है। संस्कार के बाद केशों को दो पुड़ियों के बीच रखकर जल में प्रवाहित कर दिया जाता है। कहीं-कहीं केश वैसे ही विसर्जित कर दिए जाते हैं। जब सूर्य मकर, कुंभ, मेष, वृष तथा मिथुन राशियों में हो, तब मुंडन शुभ माना जाता है। परंतु बड़े लड़के का मुंडन जब सूर्य वृष राशि पर हो और मां 5 माह की गर्भवती हो, तब उस वर्ष नहीं करना चाहिए।

गर्भाधान मतश्र्च पुंसवनकं सीमंत जातामिधे नामारण्यं सह निष्क्रमेण च तथा अन्नप्राशनं कर्म च।

चूड़ारण्यं व्रतबन्ध कोप्यथ चतुर्वेद व्रतानां पुरः, केशांतः सविसिर्गकः परिणयः स्यात षोडशी कर्मणाम्‌”॥

जन्म के पश्चात्‌ प्रथम वर्ष के अंत या फिर तीसरे, पांचवें या सातवें वर्ष की समाप्ति के पूर्व शिशु का मुंडन संस्कार करना आमतौर पर प्रचलित है क्योंकि हिंदू धर्म शास्त्र के अनुसार एक वर्ष से कम उम्र में मुंडन करने से शिशु के स्वास्थ्य पर बुरा प्रभाव पड़ता है। साथ ही अमंगल होने का भय बना रहता है।

कुल परंपरा के अनुसार मुंडन संस्कार- कुल परंपरा के अनुसार प्रथम, तृतीय, पंचम या सप्तम वर्ष में भी मुंडन संस्कार करने का विधान है। शास्त्रीय एवं पौराणिक मान्यताएं यह हैं कि शिशु के मस्तिष्क को पुष्ट करने, बुद्धि में वृद्धि करने तथा गर्भावस्था की अशुचियों को दूर कर मानवतावादी आदर्शों हेतु मुंडन संस्कार किया जाता है। इसका उद्देश्य बुद्धि, विद्या, बल, आयु और तेज की वृद्धि करना है।

देवस्थान और तीर्थ स्थल पर मुंडन का महत्व- मुंडन संस्कार किसी देवस्थल या तीर्थ स्थल पर इसलिए कराया जाता है कि उस स्थल के दिव्य वातावरण का लाभ शिशु को मिले तथा उसके मन में सुविचारों की उत्पत्ति हो।

मुंडन संस्कार से दीर्घ आयु की प्राप्ति होती है। शिशु सुंदर तथा कल्याणकारी कार्यों की ओर प्रवृत्त होने वाला बनता है।

तेन ते आयुषे वयामि सुश्लोकाय स्वस्तये”। आश्वलायन गृह्यसूत्र 1/17/12

जिस शिशु का मुंडन संस्कार सही समय एवं शुभ मुहूर्त में नहीं किया जाता है उसमें बौद्धिक विकास एवं तेज शक्ति का अभाव पाया जाता है। इसलिए शिशु का मुंडन शास्त्रीय विधि से अवश्य किया जाना चाहिए।Picture9

विधि- चूड़ाकर्म संस्कार किसी शुभ मुहूर्त को देखकर किया जाना चाहिये। इस संस्कार को को किसी पवित्र धार्मिक तीर्थ स्थल पर किया जाता है। इसके पिछे मान्यता है कि जातक पर धार्मिक स्थल के दिव्य वातावरण का लाभ मिले। एक वर्ष की आयु में जातक के स्वास्थ्य पर इसका दुष्प्रभाव पड़ने के आसार होते हैं इस कारण इसे पहले साल के अंत में या तीसरे साल के अंत से पहले करना चाहिये। मान्यता है कि शिशु के मुंडन के साथ ही उसके बालों के साथ कुसंस्कारों का शमन भी हो जाता है व जातक में सुसंस्कारों का संचरण होने लगता है। शास्त्रों में लिखा भी मिलता है-

“तेन ते आयुषे वपामि सुश्लोकाय स्वस्त्ये”

इसका तात्पर्य है कि मुंडन संस्कार से जातक दीर्घायु होता है। यजुर्वेद तो यहां तक कहता है कि दीर्घायु के लिये, अन्न ग्रहण करने में सक्षम करने, उत्पादकता के लिये, ऐश्वर्य के लिये, सुंदर संतान, शक्ति व पराक्रम के लिये चूड़ाकर्म अर्थात मुंडन संस्कार करना चाहिये।

9- कर्णवेध संस्कार

हिन्दू धर्म संस्कारों में कर्णवेध संस्कार नवम संस्कार है। यह संस्कार कर्णेन्दिय में श्रवण शक्ति की वृद्धि, कर्ण में आभूषण पहनने तथा स्वास्थ्य रक्षा के लिये किया जाता है। विशेषकर कन्याओं के लिये तो कर्णवेध नितान्त आवश्यक माना गया है। इसमें दोनों कानों को वेध करके उसकी नस को ठीक रखने के लिए उसमें सुवर्ण कुण्डल धारण कराया जाता है। इससे शारीरिक लाभ होता है।

मान्यता यह भी है कि कर्णभेद संस्कार से बौद्धिक विकास के साथ साथ अच्छी सेहत सहित और भी बहुत सारे लाभ होते हैं। इस संस्कार को उपनयन संस्कार से पहले ही करवाये जाने की सलाह दी जाती है ताकि जातक की बुद्धि प्रखर हो व वह अच्छे से शिक्षा ग्रहण कर सके। शास्त्रानुसार तो जिस जातक का कर्णभेद संस्कार नहीं हुआ हो वह अपने प्रियजन के अंतिम संस्कार तक का अधिकारी नहीं माना जाता था। आरंभ में यह संस्कार बालक व बालिका दोनों का समान रूप से होता था। कन्या के लिये कर्णभेद के साथ-साथ नाक छेदन भी होता था। वर्तमान में लड़कों के लिये इस संस्कार को बहुत कम किया जाता है लेकिन अपनी इच्छानुसार कुछ लोग फैशन के तौर पर कर्णभेद जरूर करवाते हैं।

कर्णवेध संस्कार उपनयन के पूर्व ही कर दिया जाना चाहिए। इस संस्कार को 6 माह से लेकर 16वें माह तक अथवा 3.5 आदि विषम वर्षों में या कुल की पंरपरा के अनुसार उचित आयु में किया जाता है। इसे स्त्री-पुरुषों में पूर्ण स्त्रीत्व एवं पुरुषत्व की प्राप्ति के उद्देश्य से कराया जाता है। मान्यता यह भी है कि सूर्य की किरणें कानों के छिद्र से प्रवेश पाकर बालक-बालिका को तेज़ संपन्न बनाती है। बालिकाओं के आभुषण धारण हेतु तथा रोगों से बचाव हेतु यह संस्कार आधुनिक एक्युपंचर पद्धति के अनुरुप एक सशक्त माध्यम भी है। हमारे शास्त्रों में कर्णवेध रहित पुरुष को श्राद्ध का अधिकारी नहीं माना गया है।

कर्णवेध-संस्कार द्धिजों (ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य) का साही के कांटे से भी करने का विधान है। शुभ समय में, पवित्र स्थान पर बैठकर देवताओं का पूजन करने के पश्चात सूर्य के सम्मुख बाल्क या बालिका के कानों को निम्नलिखित मंत्र द्धारा अभिंमत्रित करना चाहिए –

भद्रं कर्णेभिः क्षृणुयाम देवा भद्रं पश्येमाक्षभिर्यजत्राः।

स्थिरैरंगैस्तुष्टुवां सस्तनूभिर्व्यशेमहि देवहितं यदायुः।।

भद्रं कर्णेभिः क्षृणुयाम देवा भद्रं पश्येमाक्षभिर्यजत्राः।

स्थिरैरंगैस्तुष्टुवां सस्तनूभिर्व्यशेमहि देवहितं यदायुः।।

इसके बाद बालक के दाहिने कान में पहले और बाएं कान में बाद में सुई से छेद करें। उनमें कुडंल आदि पहनाएं। बालिका के पहले बाएं कान में, फिर दाहिने कान में छेद करके तथा बाएं नाक में भी छेद करके आभुषण पहनाने का विधान है। मस्तिष्क के दोनों भागों को विद्युत के प्रभावों से प्रभावशील बनाने के लिए नाक और कान में छिद्र करके सोना पहनना लाभकारी माना गया है। नाक में नथुनी पहनने से नासिका-संबधी रोग नहीं होते और सर्दी-खांसी में राहत मिलती है।[क्या ये तथ्य है या केवल एक राय है?] कानों में सोने की बालियं या झुमकें आदि पहनने से स्त्रीयों में मासिकधर्म नियमित रहता है, इससे हिस्टीरिया रोग में भी लाभ मिलता है।

कब करें- ज्योतिषाचार्यों के अनुसार कर्णवेध संस्कार चतुर्मास (हिंदू पंचाग के अनुसार आषाढ़ शुक्ल एकादशी से कार्तिक शुक्ल एकादशी तक) में करवाया जाने का विधान है। जातक के जन्म के 12वें या 16वें दिन भी यह संस्कार किया जा सकता है। इसके अलावा छठे, सातवें या आठवें मास में भी किया जा सकता है। यदि जातक के जन्म के एक वर्ष पश्चात कर्णवेध संस्कार न किया जाये तो इसके पश्चात इसे विषम वर्ष यानि तीसरे, पांचवे, सातवें इत्यादि में संपन्न करना चाहिये। कर्णछेदन संस्कार के समय वृषभ, तुला, धनु एवं मीन आदि लग्न में बृहस्पति हो तो यह अवसर इस संस्कार के लिये श्रेष्ठ माना जाता है।

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10- विद्यारंभ संस्कार

हिन्दू धर्म संस्कारों में विद्यारंभ संस्कार दशम संस्कार है। विद्यारंभ संस्कार का संबंध उप नयन संस्कार की भांति गुरूकुल प्रथा से था, जब गुरूकुल का आचार्य बालक को यज्ञोपवीत धारण कराकर, वेदाध्ययन करता था। गुरूजनों से वेदों और उपनिषदों का अध्ययन कर तत्वज्ञान की प्राप्ति करना ही इस संस्कार का परम प्रयोजन है। जब बालक-बालिका का मस्तिष्क शिक्षा ग्रहण करने योग्य हो जाता है, तब यह संस्कार किया जाता है। आमतौर पर 5 वर्ष का बच्चा इसके लिए उपयुक्त होता है।

मंगल के देवता गणेश और कला की देवी सरस्वती को नमन करके उनसे प्रेरणा ग्रहण करने की मूल भावना इस संस्कार में निहित होती है। बालक विद्या देने वाले गुरू का पूर्ण श्रद्धा से अभिवादन व प्रणाम इसलिए करता है कि गुरू उसे एक श्रेष्ठ मानव बनाए। ज्ञानस्वरूप वेदों का विस्तृत अध्ययन करने के पूर्व मेधाजनन नामक एक उपांग संस्कार करने का विधान भी शास्त्रों में वर्णित है।

इसके करने से बालक में मेधा, प्रज्ञा, विद्या, तथा श्रद्धा की अभिवृद्धि होती है। इससे वेदाध्ययन आदि में न केवल सुविधा होती है, बल्कि विद्याध्ययन में कोई बाधा उत्पन्न नहीं होती।

ज्योतिर्निबंध में लिखा हैं-

विद्यया लुप्यते पापं विद्ययाअयु: प्रवर्धते।

विद्यया सर्वसिद्धि: स्याद्विद्ययामृतमश्नुते।।

अर्थात- वेदविद्या के अध्ययन से सारे पापों का लोप होता है, आयु की वृद्धि होती है, सारी सिद्धियां प्राप्त होती हैं, यहां तक कि विद्यार्थी के समक्ष साक्षात अमृतरस अशन पान के रूप में उपलब्ध हो जाता है।

शास्त्रवचन है कि जिसे विद्या नहीं आती, उसे धर्म, अर्थ,ख्काम, मोक्ष के चारों फलों से वंचित रहना पडता है। इसलिए विद्या की आवश्यकता अनिवार्य है।

सामजिक परिप्रेक्ष्य में विद्यारंभ संस्कार की आवश्यकता- विद्या और ज्ञान का इंसान के जीवन में क्या महत्व है इसको हर कोई भली-भांति जानता है। हर इंसान का शिक्षित होना समाज को भी सुधारता है। जिस समाज में शिक्षित लोगों की संख्या जितनी ज्यादा होती है वहां उपद्रव उतने ही कम होते हैं। हालांकि सिर्फ किताबों से ली गई जानकारी को ज्ञान नहीं कहा जा सकता असली ज्ञान या विद्या वो है जो इंसान में विवेक बुद्धि का विकास कर सके। जब इंसान में विवेक का उदय हो जाता है तो वो अच्छे-बुरे में सही तरीके से फर्क कर पाता है और समाज में सही मूल्यों का सूत्रपात होता है। इसी बात को ध्यान में रखते हुए विद्यारंभ संस्कार का सामजिक परिप्रेक्ष्य में ये महत्व और ज्यादा बढ़ जाता है ताकि आने वाले समय में बच्चा अपनी विद्या और अपने ज्ञान को विवेक के साथ इस्तेमाल कर सके।

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विद्यारम्भ संस्कार– कर्मकांड

  1. विद्या, ज्ञान और शिक्षा का प्रतीक माँ सरस्वती और भगवान गणेश को माना जाता है इसलिए विद्यारंभ के दौरान पूजा स्थल पर इन दोनों की प्रतिमाएं या चित्र होने चाहिए।
  2. पूजन स्थल में पट्टी, दवात, लेखनी, स्लेट और खड़िया भी रखी जानी चाहिए।
  3. गुरु पूजन के लिए यदि बच्चे के गुरु उपस्थित हों तो उनकी पूजा की जानी चाहिए नहीं तो प्रतीक रूप में नारियल की पूजा की जानी चाहिए।
  4. उपर्युक्त तैयारियाँ करने के बाद भगवान गणेश और माँ सरस्वती का श्रद्धापूर्वक पूजन किया जाता है। इसमें सर्वप्रथम गणेश जी की पूजा की जाती है उसके बाद माँ सरस्वती की पूजा की जाती है।
गणेश पूजन सरस्वती पूजन
क्रिया बच्चे के हाथ में फूल, अक्षत, रोली देकर मंत्र जाप के साथ-साथ भगवान गणेश की मूर्ति या चित्र के सामने अर्पित करें। बच्चे के हाथ में फूल, अक्षत, रोली देकर मंत्र जाप के साथ-साथ माँ सरस्वती की मूर्ति या चित्र के सामने अर्पित करें।
भावना पूजन के दौरान अपने मन में प्रार्थना करें कि विवेक के अधिष्ठाता गणपति बालक पर अपनी कृपा रखें और उनके आशीर्वाद से बालक के विवेक में निरंतर वृद्धि हो। साथ ही बालक/बालिका की बुद्धि भी प्रखर हो। पूजा के दौरान मन में प्रार्थना करें कि बालक/बालिका को ज्ञान, कला और संवेदना की देवी माँ सरस्वती का आशीर्वाद मिले और, माँ सरस्वती के आशीर्वाद से ज्ञान और कला के प्रति बालक/बालिका का रुझान हमेशा बना रहे।
मंत्र “गणानां त्वा गणपतिं हवामहे प्रियाणां त्वा प्रियपतिं हवामहे |

निधीनां त्वा निधिपतिं हवामहे वसो मम आहमजानि गर्भधमा त्वमजासि गर्भधम्||”

“ॐ गणपतये नमः। आवाहयामि, स्थापयामि ध्यायामि||”

“ॐ पावका नः सरस्वती, वाजेभिवार्जिनीवती। यज्ञं वष्टुधियावसुः।”

“ॐ सरस्वत्यै नमः। आवाहयामि, स्थापयामि, ध्यायामि।”

भगवान गणेश और माँ सरस्वती के पूजन के बाद शिक्षा ग्रहण करने के लिए इस्तेमाल किये जाने वाले उपकरणों (दवात, कलम और पट्टी) का पूजन करें।

विद्या प्राप्ति में इन उपकरणों के महत्व को देखते हुए इन्हें विद्यारंभ संस्कार के दौरान वेदमंत्रों से अभिमंत्रित किया जाता है ताकि इनका शुरूआती प्रभाव मंगलकारी हो सके।

अधिष्ठात्री देवी पूजन

  • उपासना विज्ञान की मान्यताओं के अनुसार कलम की अधिष्ठात्री देवी ‘धृति’ हैं, पट्टी या स्लेट की अधिष्ठात्री देवी ‘तुष्टि’ हैं और दवात की अधिष्ठात्री देवी पुष्टि हैं।
  • षोडश मातृकाओं में तीनों देवियां धृति, पुष्टि और तुष्टि उन तीन भावनाओं का प्रतिनिधित्व करती हैं जो ज्ञान और विद्या हासिल करने के लिए बहुत जरुरी और आधारभूत हैं।
  • अतः विद्यारंभ संस्कार के दौरान कलम, दवात और पट्टी का पूजन करते समय इनसे संबंधित अधिष्ठात्री देवियों का पूजन किया जाता है।
  1. लेखनी पूजन

विद्यारंभ संस्कार के दौरान बालक/बालिका के हाथ में कलम दी जाती है। चूकि कलम की देवी धृति को माना जाता है जिनका भाव ‘अभिरुचि’ है। विद्या प्राप्त करने वाले के मन में यदि विद्या पाने की अभिरुचि होगी तो जीवन में वो हमेशा आगे बढ़ता जाएगा। अगर ऐसा नहीं होता तो जीवन के कई क्षेत्रों में इंसान पीछे रह जाता है। अतः कलम पूजन के दौरान धृति देवी से प्रार्थना करनी चाहिए कि शिक्षार्थी की अभिरुचि निरंतर अध्ययन में बढ़ती ही जाए और वो शिक्षा के क्षेत्र में अच्छे परिणाम हासिल करे।

क्रिया- कलम पूजन के लिए बालक/बालिका के हाथ में पुष्प, अक्षत और रोली देकर पूजा स्थल पर स्थापित कलम पर मंत्र को उच्चारित करते हुए चढ़ाएं।

मंत्र-   “ॐ पुरुदस्मो विषुरूपऽ इन्दुः अन्तमर्हिमानमानंजधीरः।

एकपदीं द्विपदीं त्रिपदीं चतुष्पदीम्अष्टापदीं भुवनानु प्रथन्ता स्वाहा। ….-८.३०

भावना- पूजन के दौरान अभिभावकों को यह भावना रखनी चाहिए कि धृति शक्ति भविष्य में शिक्षार्थी की रूचि ज्ञान और विद्या में लगाए रखेगी।

  1. दवात पूजन

कलम का इस्तेमाल बिना दवात के नहीं किया जाता। कलम स्याही या खड़िया के सहारे ही लिख पाने में समर्थ होती है। इसी वजह से कलम के बाद दवात पूजन किया जाता है। दवात की अधिष्ठात्री देवी ‘पुष्टि’ को माना गया है। पुष्टि का भाव एकाग्रता होता है, इंसान के अंदर यदि एकाग्रता है तो वो कठिन से कठिन विषय को भी वे आसानी से समझ सकता है। इसलिए पुष्टि देवी की आराधना करना अति आवश्यक है। इसके लिए पूजा स्थल में राखी दवात के कंठ पर कलावा बांधा जाता है और रोल, धूप, अक्षत और पुष्प से दवात का पूजन किया जाता है।

क्रिया- पूजा स्थल पर रखी दवात पर मंत्र का जाप करते हुए बालक/बालिका के हाथों से पूजन सामग्री चढ़ाएं।

मंत्र-  “ॐ देवीस्तिस्रस्तिस्रो देवीवर्योधसंपतिमिन्द्रमवद्धर्यन्।

जगत्या छन्दसेन्दि्रय शूषमिन्द्रेवयो दधद्वसुवने वसुधेयस्य व्यन्तु यज॥   …. -२८.४१

भावना- माता-पिता को मन में यह भावना रखनी चाहिए कि पुष्टि शक्ति के सान्निध्य से बालक/बालिका में तीव्र बुद्धि का विकास हो और उनके अंदर एकाग्रता का गुण आए।

  1. पट्टी पूजन

कलम और दवात के बाद पट्टी का पूजन किया जाता है। कलम और दवात का उपयोग तभी हो पाता है जब पट्टी या कागज़ उपलब्ध हों, इनकी अधिष्ठात्री देवी ‘तुष्टि’ हैं। तुष्टि का भाव है मेहनत और श्रमशीलता। अच्छा ज्ञान प्राप्त करने के लिए श्रम की भी आवश्यकता होती है। कई लोग ऐसे होते हैं जिनमें पढ़ने के प्रति रूचि भी होती है और मन एकाग्र भी हो जाता है लेकिन उनके अंदर सुस्ती होने के कारण वो जीवन में कुछ नहीं कर पाते इसलिए तुष्टि देवी से कामना की जाती है कि वो शिक्षार्थी को श्रमशील बनाएं।

क्रिया- पट्टी पूजन के दौरान मंत्रोच्चारण के साथ बालक/बालिका के हाथों से पूजा-स्थल पर स्थापित पट्टी पर पूजन सामग्री अर्पित कराए।

मंत्र-  ॐ सरस्वती योन्यां गर्भमन्तरश्विभ्यांपतनी सुकृतं बिभर्ति।

अपारसेन वरुणो न साम्नेन्द्रश्रियै जनयन्नप्सु राजा॥” …. – १९.९४

भावना- अभिभावक मन में यह भावना रखें कि तुष्टि शक्ति शिक्षार्थी को श्रमशील बनाए और वह जीवन के हर मोड़ पर मेहनत कर सके।

  1. गुरु पूजन

शिक्षा प्राप्त करने के लिए अध्यापक का होना अनिवार्य है। जैसे अंधकार में एक दिया उजाला कर देता है उसी प्रकार गुरु भी शिष्य में छिपे अँधेरे को ज्ञान रुपी दिए से दूर कर देता है। विद्यारंभ संस्कार के दौरान बालक/बालिका द्वारा गुरु की भी पूजा की जाती है। इससे शिक्षार्थी के मन में अपने गुरु के प्रति सम्मान में वृद्धि होती है और शिक्षक भी शिक्षार्थी को उचित ज्ञान देने के लिए प्रतिबद्ध होता है। हमारे शास्त्रों में गुरु को ब्रह्मा से भी ऊपर माना गया है क्योंकि गुरु के द्वारा ही हमें संसार का ज्ञान होता है।

क्रिया- पूजन प्रक्रिया के दौरान अगर बालक/बालिका के गुरु समक्ष न हों तो गुरु के प्रतीक स्वरूप नारियल का मंत्रोच्चारण के द्वारा पूजन करें।

मंत्र- ॐ बृहस्पते अति यदयोर्ऽअहार्द्द्युमद्विभाति क्रतुमज्ज्जनेषु,

यद्दीदयच्छवसऽ ऋतप्रजाततदस्मासु द्रविणं धेहि चित्रम्।

उपयामगृहीतोऽसि बृहस्पतयेत्वैष ते योनिबृर्हस्पतये त्वा॥

ॐ श्री गुरवे नमः। आवाहयामिस्थापयामिध्यायामि।   …..-२६.३, तैत्ति०सं० १.८.२२.१२।

भावना- बालक में शिष्योचित गुण विकसित हों और वो अपने शिक्षक की बातों को भली भाँती समझ पाए यह भावना मन में होनी चाहिए। इसके साथ ही यह भावना भी मन में बनी रहनी चाहिए कि शिक्षार्थी गुरु का कृपा पात्र बना रहे।

  1. अक्षर लेखन और पूजन

पट्टी या कागज़ पर बालक/बालिका द्वारा ‘ॐ भूर्भुवः स्वः’ लिखा जाए। ऐसा भी किया जा सकता है कि खड़िया के द्वारा शिक्षक स्लेट पर ये शब्द लिख दे और उसके बाद माता पिता के हाथों की सहायता से बालक उन शब्दों के ऊपर लिखे। या शिक्षार्थी का हाथ पकड़कर गुरु स्लेट या कागज पर  ‘ॐ भूर्भुवः स्वः’ लिखवाए। ॐ भूर्भुवः स्वः में ॐ परमात्मा का सर्वश्रेष्ठ नाम है, भू: का अर्थ है श्रम, भुवः का अर्थ है संयम और स्वः का अर्थ है विवेक। ये सारे गुण शिक्षा प्राप्ति के लिए बहुत जरुरी हैं इसलिए विद्याआरंभ संस्कार के दौरान शिक्षार्थी द्वारा यह शब्द लिखवाए जाते हैं। यह काम अगर गुरु द्वारा करवाया जाए तो बहुत शुभ होता है।

क्रिया- अभिभावक अक्षर लेखन करवाने के बाद बालक के हाथों से मंत्र का जाप करते हुए उनपर फूल, अक्षत चढ़वाएं।

मंत्र- “ॐ नमः शम्भवाय च मयोभवाय च,

नमः शंकराय च मयस्कराय चनमः शिवाय च शिवतराय च।”  ….- १६.४१

भावना- ज्योतिषियों अनुसार अगर ज्ञान को अभिव्यक्त न किया जा सके तो उस ज्ञान का कोई महत्व नहीं रह जाता इसलिए अक्षर पूजन के द्वारा बालक/बालिका में अभिव्यक्ति के गुण डालने की कोशिश की जाती है। ज्ञान के प्रथम चरण में अभिभावकों को अक्षर पूजन कर बालक/बालिका के अंदर खुद को अभियक्त करने की जिज्ञासा डालने का प्रयास किया जाता है।

विशेष आहुति

विद्यारंभ संस्कार के अंतिम चरण में हवन सामग्री में कुछ मिष्ठान मिलाकर पांच बार निम्न मंत्र के उच्चारण के साथ पांच आहुतियां  बालक/बालिका से डलवाएं। मन में भावना करें कि यज्ञ से आयी ऊर्जा से बालक/बालिका में अच्छे संस्कार आए और मानसिक रूप से शिक्षार्थी बलिष्ठ हो।

मंत्र- “ॐ सरस्वती मनसा पेशलंवसु नासत्याभ्यां वयति दशर्तं वपुः।

      रसं परिस्रुता न रोहितंनग्नहुधीर्रस्तसरं न वेम स्वाहा। इदं सरस्वत्यै इदं न मम।” …..-१९.८३

विशेष आहुति होने के बाद यज्ञ के बाकी कर्म पूरे कर लेने चाहिए और उसके बाद आशीर्वचन, विसर्जन और जयघोष किया जाना चाहिए। अंत में प्रसाद वितरण करने के बाद विद्यारंभ संस्कार का समापन किया जाना चाहिए।

11- उपनयन संस्कार

‘उपनयन संस्कार’ हिन्दू धर्म में एकादशम संस्कार माना गया है। मनुष्य जीवन के लिए यह संस्कार विशेष महत्त्वपूर्ण है। इस संस्कार के अनन्तर ही बालक के जीवन में भौतिक तथा आध्यात्मिक उन्नति का मार्ग प्रशस्त होता है। उपनयन संस्कार, जिसे जनेऊ संस्कार और यज्ञोपवीत के नाम से भी जाना जाता है। ऐसी मान्यता है कि इस संस्कार को करने से बच्चे की न केवल भौतिक, बल्कि आध्यात्मिक प्रगति भी अच्छी तरह से होती है। इस संस्कार में शिष्य को गायत्री मंत्र की दीक्षा मिलती है। इसके बाद उसे यज्ञोपवीत धारण करना होता है। अपनी-अपनी शाखा के मुताबिक वह वेदों का अध्ययन भी करता है।

इस संस्कार में वेदारम्भ-संस्कार का भी समावेश है। इसी को यज्ञोपवीत-संस्कार भी कहते हैं। इस संस्कार में वटुक को गायत्री मंत्र की दीक्षा दी जाती है और यज्ञोपवीत धारण कराया जाता है। विशेषकर अपनी-अपनी शाखा के अनुसार वेदाध्ययन किया जाता है।

यह संस्कार असल में दीक्षा पाने यानी कि शिक्षा ग्रहण करने से जुड़ा हुआ है। यह तब होता है, जब शिष्य अपने गुरु के समीप ही रहकर उनसे दीक्षा लेता है। देखा जाए तो उपनयन शब्द का अर्थ ही होता है समीप होना। इस तरह से जब बच्चे के बारे में यह मान लिया जाता है कि अब वह शिक्षा प्राप्त करने योग्य हो गया है, तो उसका उपनयन संस्कार कर दिया जाता है। दरअसल ऐसी मान्यता है कि जन्म से हर कोई  निम्न स्तर का माना जाता है। शिक्षा प्राप्त करके ही कोई द्विज हो सकता है यानी कि ज्ञानी बन सकता है। यही वजह है कि उपनयन संस्कार हर किसी के जीवन के लिए बहुत ही जरूरी होता है।

गृह्यसूत्रों के अनुसार ब्राह्मण बालक का उपनयन संस्कार आठ वर्ष की क्षत्रिय का ग्यारह वर्ष की और वैश्य का बारह वर्ष की अवस्था में किया जाता था। तीव्र बुद्धि वाले ब्राह्मण का पाँच, बलवान क्षत्रिय का छः और कृषि आदि करने की इच्छा वाले वैश्य का आठ वर्ष की अवस्था में भी यह संस्कार किया जा सकता था। अधिकतम निर्धारित आयु तक जिन उच्च वर्ण के बालकों का उपनयन नहीं जाता था।

अधिकतम निर्धारण आयु तक जिन उच्च वर्ण के बालकों का उपनयन नहीं होता था, उन्हें व्रात्य कहा जाता था और शिष्ट समाज में उनको निंदनीय समझा जाता था। मनु ने ब्राह्मण बालक के लिए चौबीस वर्ष लिखी है। तीनों वणाç के बालकों की अवस्थाओं में अंतर का कारण यह प्रतीत होता है कि ब्राह्मण बालक के घर में सदा ही पढ़ने- पढ़ाने का वातावरण रहता था। क्षत्रिय के परिवार में इससे कुछ कम और वैश्य के परिवार में उससे भी कम। ब्राह्मण को वैसे भी क्षत्रिय और वैश्य की अपेक्षा अध्ययन में कम समय लगाना पड़ता था।

इस संस्कार के बाद बालक “द्विज’ कहलाता था, क्योंकि इस संस्कार को बालक का दूसरा जन्म समझा जाता था। इस संस्कार के बाद बालक का उत्तरदायित्व बहुत बढ़ जाता था। इसी कारण इस संस्कार का बहुत महत्व था। बालक को इस बात की अनुभूति कराई जाती थी कि वह अपने परिवार और समुदाय के प्रति अपने कर्तव्य को भली- भांति समझने के लिए ब्रह्मचर्य आश्रम में रहकर अभीष्ट योग्यता प्राप्त करें।

इसके बाद बालक भिक्षा माँगता था, जिससे कि उसमें अहम्यन्यता न रहे। भिक्षा में प्राप्त भोजन वह गुरु को देता था और गुरु के भोजन कर लेने के बाद उसमें से जो भोजन शेष बचता था, उसे वह स्वयं खाता था।

विधि- बच्चा जब अपने गुरु के पास पहुंचता है और उनसे शिक्षा प्राप्त करना शुरू करता है, तो उसी दौरान उसका उपनयन संस्कार शुरू हो जाता है। इसी क्रम में बच्चे को वेद पढ़ने का अधिकारी होने से पहले उसे यज्ञोपवीत धारण करवाया जाता है। गृह्यसूत्र एवं स्मृति ग्रंथों में उपनयन संस्कार की विधि के बारे में बड़े विस्तार से बताया गया है। प्राचीन समय में तो शिष्यों को भिक्षा भी मांग कर लानी पड़ती थी। माना जाता था कि इस संस्कार को करने से शिष्य के अंदर से अहंकार भी समाप्त होने लगता है। इस संस्कार के दौरान बच्चे के पिता उसे लेकर गुरु के पास जाते हैं, जहां बच्चा गुरु को प्रणाम करके उनसे उसे शिक्षा देने की विनती करता है। फिर गुरु वैदिक मंत्रों का जाप कर शिष्य को नये कपड़े पहनने के लिए देते हैं। गुरु बच्चे से उसका नाम पूछते हैं और वह अपना नाम बताता है। वह उससे पूछते हैं कि वह किसका शिष्य है, तो इस पर शिष्य कहता है कि वह उन्हीं का शिष्य है। इसके बाद गुरु उसका उपनयन संस्कार पूरा करते हैं।

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12- वेदारंभ संस्कार

‘वेदारंभ संस्कार’ हिन्दू धर्म में द्वादश संस्कार माना गया है। ज्ञानार्जन से सम्बन्धित है यह संस्कार। वेद का अर्थ होता है ज्ञान और वेदारम्भ के माध्यम से बालक अब ज्ञान को अपने अन्दर समाविष्ट करना शुरू करे यही अभिप्राय है इस संस्कार का। शास्त्रों में ज्ञान से बढ़कर दूसरा कोई प्रकाश नहीं समझा गया है। स्पष्ट है कि प्राचीन काल में यह संस्कार मनुष्य के जीवन में विशेष महत्व रखता था। यज्ञोपवीत के बाद बालकों को वेदों का अध्ययन एवं विशिष्ट ज्ञान से परिचित होने के लिये योग्य आचार्यो के पास गुरुकुलों में भेजा जाता था। वेदारम्भ से पहले आचार्य अपने शिष्यों को ब्रह्मचर्य व्रत कापालन करने एवं संयमित जीवन जीने की प्रतिज्ञा कराते थे तथा उसकी परीक्षा लेने के बाद ही वेदाध्ययन कराते थे। असंयमित जीवन जीने वाले वेदाध्ययन के अधिकारी नहीं माने जाते थे। हमारे चारों वेद ज्ञान के अक्षुण्ण भंडार हैं।

वेदारंभ संस्कार को वास्तव में विद्यारंभ संस्कार माना जाना चाहिये क्योंकि विद्या प्राप्ति के पश्चात ही व्यक्ति वेदों अथवा अन्य धर्मग्रंथों का अध्ययन करने में सक्षम हो पाता था। तब शिक्षा का महत्त्व वेदाध्ययन की दृष्टि से अधिक था। इस कारण इस संस्कार को विद्यारंभ संस्कार अथवा वेदारंभ संस्कार के रूप में जाना जाता है। वेदों तथा अन्य धर्मग्रंथों के अध्ययन से हमें इनके बारे में पूर्ण जानकारी प्राप्त होती थी। इस दृष्टि से इसे वेदारंभ संस्कार के नाम से ही अधिक जाना गया है। वेदाध्ययन के महत्त्व को इस प्रकार से व्यक्त किया गया है-

विद्यया लुप्यते पापं विद्यायाऽयुः प्रवर्धते।

विद्याया सर्वसिद्धिः स्याद्विद्ययाऽमृतमश्रुते।।

अर्थात- वेद विद्या के अध्ययन से सारे पापों का लोप होता है अर्थात् पाप समाप्त हो जाते हैं, आयु की वृद्धि होती है, समस्त सिद्धियां प्राप्त होती हैं, यहां तक कि उसके समक्ष अमृत-रस अक्षनपान के रूप में उपलब्ध हो जाता है।

अनेक विद्वान वेदारंभ संस्कार को अक्षरज्ञान संस्कार के साथ जोड़कर देखते हैं। उनके अनुसार अक्षरों का ज्ञान प्राप्त किये बिना न तो वेदों का अध्ययन किया जा सकता है और न शास्त्रों का लेखन कार्य संभव है। इसलिये वे वेदारंभ संस्कार से पूर्व अक्षरारंभ संस्कार पर बल देते हैं। इस बारे में अनेक विद्वानों का विचार है कि प्रारंभ में तो व्यक्ति को अक्षर (लिपि) का ज्ञान नहीं था। इसलिये तब गुरुमुख द्वारा ही वेदों का अध्ययन किया जाता था। इसके पश्चात धीरे-धीरे व्यक्ति ने लिपि का ज्ञान प्राप्त करना प्रारंभ किया और कालांतर में इसमें विकास होता चला गया। विद्वानों के मतानुसार भगवान बुद्ध के समय में अनेक लिपियां प्रचलित थीं और मनुष्य को लिपि का अच्छा ज्ञान प्राप्त था।

भगवान श्रीकृष्ण ने श्रीमद्भागवत गीता में लिखे अक्षरों को श्रेष्ठ माना है।

ऐसा माना जाता है कि वेदों का सारभूत एकाक्षर ऊँ प्रथम अक्षर था जिससे सबसे पहले मनुष्य का परिचय हुआ। ऊँ अक्षर मंत्र न होकर इसमें बहुत अधिक व्यापकता का संचार दिखाई देता है। ऊँ का उच्चारण मात्र करने से ध्वनियों के स्पंदन का अनुभव होता है। महाभारत के लेखन का काम प्रथम देव श्रीगणेश द्वारा संपूर्ण हुआ था। तांत्रिकों द्वारा अक्षरों की पूजा की जाती है। इसलिये विद्याध्ययन के लिये अक्षर का ज्ञान होना अत्यंत आवश्यक है।

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13- केशांत संस्कार

हिन्दू धर्म संस्कारों में ‘केशान्त संस्कार’ त्रयोदश संस्कार है। जैसा कि नाम से ज्ञात होता है केशांत का तात्पर्य है केश यानि बालों का अंत लेकिन इससे यह भ्रम होना स्वाभाविक है कि यदि यह केशांत संस्कार में मुंडन ही किया जाता है तो फिर चूड़ाकर्म संस्कार यानि मुंडन संस्कार भिन्न कैसे है? तो इसमें अंतर यह है कि मुंडन संस्कार जातक के जन्म के समय से जो केश उसके सिर पर होते हैं उन्हें पहली बार उतरवाने का संस्कार है जबकि केशांत संस्कार में किशोरावस्था के दौरान जब जातक की दाड़ी आती है तो पहली बार उन केशों को उतारा जाता है यानि जातक की दाड़ी बनवाई जाती है इस दौरान भी जातक के सिर के बाल भी पुन: उतारे जाते हैं। दरअसल गुरु शिष्य परंपरा के दौरान जो कि उपनयन संस्कार के पश्चात आरंभ होती है। जातक ब्रह्मचर्य का पालन करते हुए गुरु के सानिध्य में रहते हुए ज्ञानार्जन करता है। गुरु से शिक्षा दीक्षा प्राप्त करने के दौरान जातक ब्रह्मचर्य का पालन करते हुए अपने केश भी नहीं कटवाता है। जब जातक युवावस्था की दहलीज़ पर आता है तो उसके श्मश्रु यानि दाड़ी भी उग आती है। इन्हीं केशों का जब विधि-विधान से अंत होता है तो इसे केशांत संस्कार कहा जाता है। इसी संस्कार के दौरान जातक द्वारा उपनयन संस्कार के दौरान धारण की गई मौजी मेखला आदि का भी परित्याग किया जाता है।

यह इस पर निर्भर करता है कि जातक द्वारा गुरुकुल या कहें वेदाध्ययन कब पूर्ण किया जाता है। असल में इस संस्कार के साथ ही जातक को गुरुकुल से विदाई देकर ब्रह्मचर्य की अवस्था से गृहस्थाश्रम में प्रवेश करने के लिये प्रेरित किया जाता है। वेद-पुराणों सहित विभिन्न विषयों में पारंगत होने के पश्चात समावर्तन संस्कार से पहले बालों की सफाई करवाकर स्नानोपरांत जातक को स्नातक की उपाधि दी जाती है।

इसके बारे में संस्कार दीपक में उल्लेख मिलता है-

केशानाम् अन्तः समीपस्थितः श्मश्रुभाग इति व्युत्पत्त्या

केशान्तशब्देन श्मश्रुणामभिधानात् श्मश्रुसंस्कार एवं केशान्तशब्देन प्रतिपाद्यते।

अत एवाश्वलायनेनापि ‘श्मश्रुणीहोन्दति’। इति श्मश्रुणां संस्कार एवात्रोपदिष्टः।

इस संस्कार के बारे में कहीं-कहीं पर गोदान संस्कार का नाम भी आया है। केश (बालों) को गौ के नाम से भी जाना जाता है।

गोदान संस्कार के बारे में कहा गया है-

गावो लोमानि केशा दीयन्ते खंडयन्तेऽस्मिन्निति व्युत्पत्त्या

गोदानं नाम ब्राह्मणादीनां षोडशादिषु वर्षेयु कर्तव्यं केशान्ताख्यं कर्मोच्यते।

अर्थात्- यह है कि गौ अर्थात् लोम-केश जिसमें काट दिये जाते हैं। इस व्युत्पत्ति के अनुसार ब्राह्मण आदि वर्णों के लिये गोदान पद का यहां उल्लेख हुआ है।

इन वर्णों के द्वारा सोलहवें वर्ष में करने योग्य केशान्त नामक कर्म का वाचक है। विद्वानों के अनुसार यह संस्कार केवल उत्तरायण में किया जाता है। इस संस्कार को सोलहवें वर्ष में करने का विधान बताया गया है। इस आयु से पूर्व यह संस्कार प्रायः नहीं होता है। इसके पश्चात् ब्रह्मचारी शिक्षार्थी को वापिस अपने घर जाने की आज्ञा मिल जाती है। इसके पश्चात् ही उसे विवाह संस्कार करने का अधिकार भी प्राप्त हो जाता है। इस संस्कार का प्रतीकात्मक महत्त्व ही अधिक है अर्थात् ब्रह्मचारी जब अपनी शिक्षा पूर्ण कर लेता था तो उसे एक नया स्वरूप देने के लिये उसके दाढ़ी के बाल काट दिये जाते थे। विद्वान इसका तात्पर्य इस बात से भी लेते हैं कि अब यह व्यक्ति अपने जीवन की दूसरी जिम्मेदारियों को पूरा करने के लिये पूर्ण रूप से तत्पर है। जब यह व्यक्ति अपने घर लौटता है तो समावर्तन संस्कार के माध्यम से यह निश्चित कर लिया जाता था कि इस व्यक्ति की शिक्षा पूर्ण हो गई है, इसलिये इसे विवाह करके गृहस्थ जीवन जीने की आज्ञा दी जाती है। वर्तमान में इस संस्कार का विशेष महत्त्व नहीं देखा जाता है। संस्कारों के संदर्भ में इसका उल्लेख करना आवश्यक था, इसलिये यहां इस संस्कार का संक्षिप्त परिचय ही दिया गया है।

विधि- अन्य संस्कारों की तरह केशांत संस्कार भी किसी शुभ मुहूर्त में संपन्न किया जाता है। यह संस्कार गुरुकुल में ही करवाया जाता है। शास्त्रानुसार विधि विधान से व्रतों का पालन करने वाला ब्रह्मचारी यानि शिष्य इस संस्कार में गुरु की आज्ञानुसार गणेश आदि देवताओं की पूजा अर्चना के पश्चात अपने सिर एवं श्मश्रु के केशों को कटवाता है। तत्पश्चात स्नान करने के पश्चात जातक को गुरु द्वारा स्नातक की उपाधि दी जाती है।

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14- समावर्तन संस्कार

हिन्दू धर्म संस्कारों में समावर्तन संस्कार द्वादश संस्कार है। यह संस्कार विद्याध्ययनं पूर्ण हो जाने पर किया जाता है। प्राचीन परम्परा में बारह वर्ष तक आचार्यकुल या गुरुकुल में रहकर विद्याध्ययन परिसमाप्त हो जाने पर आचार्य स्वयं शिष्यों का समावर्तन-संस्कार करते थे। उस समय वे अपने शिष्यों को गृहस्थ-सम्बन्धी श्रुतिसम्मत कुछ आदर्शपूर्ण उपदेश देकर गृहस्थाश्रम में प्रवेश के लिए प्रेरित करते थे।

  • जिन विद्याओं का अध्ययन करना पड़ता था, वे चारों वेद हैं –
  • वेदान्त में शिक्षा, कल्प, व्याकरण, निरुक्त, छन्द और ज्योतिषशास्त्रं।
  • उपवेद में अथर्ववेद, धनुर्वेद, गान्धर्ववेद, आयुर्वेद आदि।
  • ब्राह्मणग्रन्थों में शतपथब्राह्मण, ऐतरेयब्राह्मण, ताण्ड्यब्राह्मण और गोपथब्राह्मण आदि।
  • उपागों में पूर्वमीमांसा, वैशेषिकशास्त्र, न्याय (तर्कशास्त्र), योगशास्त्र, सांख्यशास्त्र और वेदान्तशास्त्र आदि।

ब्रह्मचर्यव्रत के समापन व विद्यार्थीजीवन के अंत के सूचक के रुप में समावर्तन (उपदेश)-संस्कार किया जाता है, जो साधारणतया 25 वर्ष की आयु में होता है। इस संस्कार के माध्यम से गुरु-शिष्य को इंद्रिय निग्रहदान, दया और मानवकल्याण की शिक्षा देता है। ऋग्वेद में लिखा है –

युवा सुवासाः परिवीत आगात् स उ श्रेयान् भवति जायमानः।

तं धीरासः कवय उन्नयन्ति स्वाध्यों 3 मनसा देवयन्तः।।

अर्थात युवा पुरुष उत्तम वस्त्रों को धारण किए हुए, उपवीत (ब्रह्मचारी) सब विद्या से प्रकाशित जब गृहाश्रम में आता है, तब वह प्रसिद्ध होकर श्रेय मंगलकारी शोभायुक्त होता है। उसको धीर, बुद्धिमान, विद्धान, अच्छे ध्यानयुक्त मन से विद्या के प्रकाश की कामना करते हुए, ऊंचे पद पर बैठाते हैं।

25 वर्ष की अवस्था तक ब्रह्मचर्यपूर्वज गुरुकुल में रहकर, गुरु से समस्त वेद-वेदागों की शिक्षा प्राप्त करके, शिष्य जब गुरु की कसौटी पर खरा उतर जाता थ, तब गुरु उसकी शिक्षा पूर्ण होने के प्रतीकस्वरूप उसका समावर्तन-संस्कार करते थे। यह संस्कार एक या अनेक शिष्यों का एक साथ भी होता था। वर्तमान युग में भी यह संस्कार विश्वविद्यालयों में होता है, किंतु उसका रुप व उद्देश्य बदल गया है। प्राचीनकाल में समावर्तन-संस्कार द्वारा गुरु अपने शिष्य को इंद्रियनिग्रह, दान, दया और मानवकल्याण की शिक्षा देकर उसे गृहस्थ-आश्रम में प्रवेश करने की अनुमति प्रदान करते थे। वे कहते थे। उत्तिष्ठ, जाग्रत, प्राप्य वरान्निबोधक….। अर्थात उठो, जागो और छुरे कि धार से भी तीखे जीवन के श्रेष्ठ पथ को पार करो। अथर्ववेद 11/7/26 में कहा गया है कि-ब्रह्मचारी समस्त धातुओं को धारण कर समुद्र के समान ज्ञान में गंभीर सलिल जीवनाधार प्रभु के आनंद रस में विभोर होकर तपस्वी होता है। वह स्नातक होकर नम्र, शाक्तिमान और पिंगल दीप्तिमान बनकर पृथ्वी पर सुशोभित होता है।

कथा- इस समावर्तन-संस्कार के संबध में कथा प्रचलित है- एक बार देवता, मनुष्य और असुर तीनों ही ब्रह्माजी के पास ब्रह्मचर्यपूर्वक विद्याध्ययन करने लगे। कुछ काल बीत जाने पर उन्होंने ब्रह्माजी से उपदेश (समावर्तन) ग्रहण करने की इच्छा व्यक्त की। सबसे पहले देवताओं ने कहा-प्रभों! हमें उपदेश दीजिए। प्रजापति ने एक ही अक्षर कह दिया द। इस पर देवताओं ने कहा-हम समझ गए। हमारे स्वर्गादि लोकों में भोंगो की ही भरमार है। उनमें लिप्त होकर हम अंत में स्वर्ग से गिर जाते हैं, अतएव आप हमें द से दमन अर्थात इंद्रियसयंम का उपदेश कर रहे है। तब प्रजापति ब्रह्मा ने कहा-ठीक है, तुम समझ गए। फिर मनुष्यों को भी द अक्षर दिया गय, तो उन्होंने कहा-हमें द से दान करने का उपदेश दिया है, क्योंकि हम लोग जीवन भर संग्रह करने की ही लिप्सा में लगे रहते हैं। अतएव हमारा दान में ही कल्याण है। प्रजापति इस जवाब से संतुष्ट हुए। असुरों को भी ब्रह्मा ने उपदेश में अक्षर ही दिया। असुरों ने सोचा-हमारा स्वभाव हिंसक है और क्रोध व हिंसा हमारे दैनिक जीवन में व्याप्त है, तो निश्च्य ही हमारे कल्याण के लिए दया ही एकमात्र मार्ग होगा। दया से ही हम इन दुष्कर्मों को छोड़कर पाप से मुक्त हो सकते हैं। इस प्रकार हमें द से दया अर्थात प्राणि-मात्र पर दया करने का उपदेश दिया है। ब्रह्मा ने कहा-ठीक है, तुम समझ गए। निश्च्य ही दमन, दान और दया जैसे उपदेश को प्रत्येक मनुष्य को सीखकर अपनान उन्नति का मार्ग होगा।

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15- विवाह संस्कार

विवाह संस्कार हिन्दू धर्म संस्कारों में ‘पंचदश संस्कार’ है। स्नातकोत्तर जीवन विवाह का समय होता है, अर्थात् विद्याध्ययन के पश्चात् विवाह करके गृहस्थाश्रम में प्रवेश करना होता है। यह संस्कार पितृ ऋण से उऋण होने के लिए किया जाता है। मनुष्य जन्म से ही तीन ऋणों से बंधकर जन्म लेता है- ‘देव ऋण’, ‘ऋषि ऋण’ और ‘पितृ ऋण’। इनमें से अग्रिहोत्र अर्थात यज्ञादिक कार्यों से देव ऋण, वेदादिक शास्त्रों के अध्ययन से ऋषि ऋण और विवाहित पत्नी से पुत्रोत्पत्ति आदि के द्वारा पितृ ऋण से उऋण हुआ जाता है।

हिन्दू धर्म में विवाह को सोलह संस्कारों में से एक संस्कार माना गया है। विवाह दो शब्दों से मिलकर बना है- वि + वाह। अत: इसका शाब्दिक अर्थ है- “विशेष रूप से (उत्तरदायित्व का) वहन करना”। ‘पाणिग्रहण संस्कार’ को सामान्य रूप से ‘हिन्दू विवाह’ के नाम से जाना जाता है। अन्य धर्मों में विवाह पति और पत्नी के बीच एक प्रकार का करार होता है, जिसे विशेष परिस्थितियों में तोड़ा भी जा सकता है। परंतु हिन्दू विवाह पति और पत्नी के बीच जन्म-जन्मांतरों का सम्बंध होता है, जिसे किसी भी परिस्थिति में नहीं तोड़ा जा सकता। अग्नि के सात फेरे लेकर और ध्रुव तारे को साक्षी मान कर दो तन, मन तथा आत्मा एक पवित्र बंधन में बंध जाते हैं। हिन्दू विवाह में पति और पत्नी के बीच शारीरिक सम्बन्ध से अधिक आत्मिक सम्बन्ध होता है और इस सम्बन्ध को अत्यंत पवित्र माना गया है।

सृष्टि के आरंभ में विवाह जैसी कोई प्रथा नहीं थी। कोई भी पुरुष किसी भी स्त्री से यौन-संबध बनाकर संतान उत्पन्न कर सकता था। पिता का ज्ञान न होने से मातृपक्ष को ही प्रधानता थी तथा संतान का परिचय माता से ही दिया जाता था। यह व्यवस्था वैदिक काल तक चलती रही। इस व्यवस्था को परवर्ती[2] काल में ऋषियों ने चुनौती दी तथा इसे पाशाविक संबध मानते हुए नये वैवाहिक नियम बनाए। ऋषि श्वेतकेतु का एक संदर्भ वैदिक साहित्य में आया है कि उन्होंने मर्यादा की रक्षा के लिए विवाह प्रणाली की स्थापना की और तभी से कुटुंब-व्यवस्था का श्री गणेश हुआ। आजकल बहुप्रचलित और वेदमंत्रों द्वारा संपन्न होने वाले विवाहों को ‘ब्राह्मविवाह’ कहते हैं।

विवाह कि धार्मिक महत्ता पर मनु ने लिखा है –

दश पूर्वांन् परान्वंश्यान् आत्मनं चैकविंशकम्।

ब्राह्मीपुत्रः सुकृतकृन् मोचये देनसः पितृन्।

अर्थात ‘ब्राह्मविवाह’ से उत्पन्न पुत्र अपने कुल की 21 पीढ़ियों को पाप मुक्त करता है- 10 अपने आगे की, 10 अपने से पीछे और एक स्वयं अपनी। भविष्यपुराण में लिखा है कि जो लडकी को अलंकृत कर ब्राह्मविधि से विवाह करते हैं, वे निश्चय ही अपने सात पूर्वजों और सात वंशजों को नरकभोग से बचा लेते हैं।

आश्वलायन ने तो यहाँ तक लिखा है की इस विवाह विधि से उत्पन्न पुत्र बारह पूर्वजों और बारह अवरणों को पवित्र करता है –

तस्यां जातो द्धादशावरन् द्धादश पूर्वान् पुनाति।

भारतीय-संस्कृति में अनेक प्रकार के विवाह प्रचलित रहे है। मनुस्मृति के अनुसार विवाह-ब्राह्म, देव, आर्ष, प्राजापत्य, असुर, गंधर्व, राक्षस और पैशाच 8 प्रकार के होते हैं। उनमें से प्रथम 4 श्रेष्ठ और अंतिम 4 क्रमशः निकृष्ट माने जाते हैं। विवाह के लाभों में यौनतृप्ति, वंशवृद्धि, मैत्रीलाभ, साहचर्य सुख, मानसिक रुप से परिपक्वता, दीर्घायु, शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य की प्राप्ति प्रमुख है। इसके अलावा समस्याओं से जूझने की शक्ति और प्रगाढ प्रेम संबध से परिवार में सुख-शांति मिलती है। इस प्रकार विवाह-संस्कार सारे समाज के एक सुव्यवस्थित तंत्र का स्तम्भ है।

विवाह संस्कार के निम्नलिखित चरणों का उल्लेख ‘गृह्यसूत्रों’ में मिलता है :-

  1. पहले वर पक्ष के लोग कन्या के घर जाते थे।
  2. जब कन्या का पिता अपनी स्वीकृति दे देता था, तो वर यज्ञ करता था।
  3. विवाह के दिन प्रातः वधू को स्नान कराया जाता था।
  4. वधू के परिवार का पुरोहित यज्ञ करता था और चार या आठ विवाहित स्रियाँ नृत्य करती थीं।
  5. वर कन्या के घर जाकर उसे वस्र, दपंण और उबटन देता था।
  6. कन्या औपचारिक रुप से वर को दी जाती थी। ( कन्यादान )
  7. वर अपने दाहिने हाथ से वधू का दाहिना हाथ पकड़ता था। ( पाणिग्रहण )
  8. पाषाण शिला पर पैर रखना।
  9. वर का वधू को अग्नि के चारों ओर प्रदक्षिणा कराना। ( अग्नि परिणयन )
  10. खीलों का होम। ( लाजा- होम )
  11. वर- वधू का साथ- साथ सात कदम चलना ( सप्त- पदी ), जिसका अभिप्राय था कि वे जीवन- भर मिलकर कार्य करेंगे। अंत में वर, वधू को अपने घर ले जाता था।

विवाह संस्कार के सात वचन… विवाह के बाद कन्या वर से वचन लेती है कि –

पहला वचन-

तीर्थव्रतोद्यापनयज्ञ दानं मया सह त्वं यदि कान्तकुर्या:।

वामांगमायामि तदा त्वदीयं जगाद वाक्यं प्रथमं कुमारी।।

इस श्लोक के अनुसार कन्या कहती है कि स्वामि तीर्थ, व्रत, उद्यापन, यज्ञ, दान आदि सभी शुभ कर्म तुम मेरे साथ ही करोगे तभी मैं तुम्हारे वाम अंग में आ सकती हैं अर्थात् तुम्हारी पत्नी बन सकती हूं। वाम अंग पत्नी का स्थान होता है।

दूसरा वचन-

हव्यप्रदानैरमरान् पितृश्चं कव्यं प्रदानैर्यदि पूजयेथा:।

वामांगमायामि तदा त्वदीयं जगाद कन्या वचनं द्वितीयकम्।।

इस श्लोक के अनुसार कन्या वर से कहती है कि यदि तुम हव्य देकर देवताओं को और कव्य देकर पितरों की पूजा करोगे तब ही मैं तुम्हारे वाम अंग में आ सकती हूं यानी पत्नी बन सकती हूं।

तीसरा वचन-

कुटुम्बरक्षाभरंणं यदि त्वं कुर्या: पशूनां परिपालनं च।

वामांगमायामि तदा त्वदीयं जगाद कन्या वचनं तृतीयम्।

इस श्लोक के अनुसार कन्या वर से कहती है कि यदि तुम मेरी तथा परिवार की रक्षा करो तथा घर के पालतू पशुओं का पालन करो तो मैं तुम्हारे वाम अंग में आ सकती हूं यानी पत्नी बन सकती हूं।

चौथा वचन-

आयं व्ययं धान्यधनादिकानां पृष्टवा निवेशं प्रगृहं निदध्या:।।

वामांगमायामि तदा त्वदीयं जगाद कन्या वचनं चतुर्थकम्।।

चौथे वचन में कन्या वर से कहती है कि यदि तुम धन-धान्य आदि का आय-व्यय मेरी सहमति से करो तो मैं तुम्हारे वाग अंग में आ सकती हैं अर्थात् पत्नी बन सकती हूं।

पांचवां वचन-

देवालयारामतडागकूपं वापी विदध्या:यदि पूजयेथा:।

वामांगमायामि तदा त्वदीयं जगाद कन्या वचनं पंचमम्।।

पांचवे वचन में कन्या वर से कहती है कि यदि तुम यथा शक्ति देवालय, बाग, कूआं, तालाब, बावड़ी बनवाकर पूजा करोगे तो मैं तुम्हारे वाग अंग में आ सकती हूं अर्थात् पत्नी बन सकती हूं।

छठा वचन-

देशान्तरे वा स्वपुरान्तरे वा यदा विदध्या:क्रयविक्रये त्वम्।

वामांगमायामि तदा त्वदीयं जगाद कन्या वचनं षष्ठम्।।

इस श्लोक के अनुसार कन्या वर से कहती है कि यदि तुम अपने नगर में या विदेश में या कहीं भी जाकर व्यापार या नौकरी करोगे और घर-परिवार का पालन-पोषण करोगे तो मैं तुम्हारे वाग अंग में आ सकती हूं यानी पत्नी बन सकती हूं।

सातवां और अंतिम वचन-

न सेवनीया परिकी यजाया त्वया भवेभाविनि कामनीश्च।

वामांगमायामि तदा त्वदीयं जगाद कन्या वचनं सप्तम्।।

इस श्लोक के अनुसार सातवां और अंतिम वचन यह है कि कन्या वर से कहती है यदि तुम जीवन में कभी पराई स्त्री को स्पर्श नहीं करोगे तो मैं तुम्हारे वाम अंग में आ सकती हूं यानी पत्नी बन सकती हूं। शास्त्रों के अनुसार पत्नी का स्थान पति के वाम अंग की ओर यानी बाएं हाथ की ओर रहता है। विवाह से पूर्व कन्या को पति के सीधे हाथ यानी दाएं हाथ की ओर बिठाया जाता है और विवाह के बाद जब कन्या वर की पत्नी बन जाती है जब वह बाएं हाथ की ओर बिठाया जाता है।

विवाह के प्रकार- मनु आदि पुरातन स्मृतिकारों के द्वारा पुरातन काल में विभिन्न जातियों में प्रचलित अनेक वैवाहिक प्रथाओं में से, जिन आठ को मान्यता प्रदान की थी, वे थीं ब्राह्म, दैव, आर्ष, प्रजापत्य, आसुर, गांधर्व, राक्षस और पैशाच तथा च सामाजिक स्तर पर इनकी वरीयता का क्रम भी यही स्वीकार किया गया था। विवाह की इन सभी विधाओं को मनु जैसे कट्टरपंथी स्मृतिकार के द्वारा मान्यता दिया जाना। इस तथ्य का द्योतक है कि उस समय भारतीय समाज के विभिन्न वर्गों में यह सभी विधाएँ न्यूनाधिक मात्रा में प्रचलित थीं तथा इन आठ प्रकारों में से प्रथम चार को ब्राह्मण वर्ग के लिए, इनके अतिरिक्त राक्षस को ( तथा गांधर्व को ) क्षत्रिय के लिए एवं आसुर को वैश्य तथा क्षुद्र वर्गों के लिए भी मान्यता दी गयी थी, किंतु साथ ही पैशाच तथा आसुर को आर्यों के किसी भी वर्ग के लिए उचित नहीं माना गया है। संभवतः इसलिए कि ये दोनों ही विधाएँ अनार्य वर्गीय समाज से संबंधित थी। विभिन्न धर्मशास्रीय ग्रंथों में इनके रुपों तथा वरीयता क्रम में अंतर पाया जाता है। आश्व. ( 1/6 ) में पैशाच को राक्षस से पूर्व रखा है। मानव गृ. सू. में केवल ब्राह्म और शौल्क आसुर के ही नाम लिए हैं। आप. ध. सू. ( 2 / 5 / 11 – 20 ) में केवल छः प्रकार ही बताए हैं, प्रजापत्य और पैशाच को छोड़ दिया है। मनु. (3/27- 34 ) ने इनके रुपों- विधाओं को जिन रुपों में व्याख्यायित किया है, वे कुछ इस प्रकार हैं :-

  1. ब्राह्म : इसमें कन्या का पिता किसी विद्वान् तथा सदाचारी वर को स्वयं आमंत्रित करके उसे वस्रालंकारों से सुसज्जित कन्या, विधि- विधान सहित प्रदान करता था।
  2. दैव : इस प्रकार के विवाह में कन्या का पिता उसे वस्रालंकारों से सुसज्जित कर किसी ऐसे व्यक्ति को विधि- विधान सहित प्रदान करता था, जो कि याज्ञिक अर्थात् यज्ञादि कर्मों में निरत करता था।
  3. आर्ष : इस प्रकार के विवाह में कन्या का पिता यज्ञादि कार्यों के संपादन के निमित्त ( शुल्क के रुप में नहीं ) वर से एक या दो जोड़े गायों को देकर विधि- विधान सहित कन्या को उसे समर्पित करता था।
  4. प्राजापत्य : इस प्रकार के विवाह में कन्या का पिता योग्य वर को आमंत्रित कर “तुम दोनों मिलकर अपने गृहस्थधर्म का पालन करो’ ऐसा निर्देश देकर विधि- विधान के साथ कन्यादान किया करता था।
  5. आसुर : कन्या के बांधवों को धन या प्रलोभन देकर स्वेच्छा से कन्या प्राप्त करने की प्रक्रिया को “आसुर’ विवाह कहा जाता था।
  6. गांधर्व : इसमें कोई युवक- युवती स्वेच्छा से प्रणयबंधन में बंध जाते थे। अथवा यदि कोई सकाम पुरुष किसी सकामा युवती से मिलकर एकांत में वैवाहिक संबंध में प्रतिबद्ध होने का निर्णय कर लेता था, तो इसे भी गांधर्व विवाह कहा जाता था।
  7. राक्षस : इस प्रकार के विवाह में विवाह करने वाला व्यक्ति कन्या के अभिभावकों की स्वीकृति न होने पर भी, उन लोगों के साथ मार- पीट करके रोती- बिलखती कन्या का बलपूर्वक हरण करके उसको अपनी पत्नी बनने के लिए विवश करता था।
  8. पैशाच : सोई हुई या अर्धचेतना अवस्था में पड़ी अविवाहिता कन्या को एकांत में पाकर उसके साथ बलात्कार करके उसे अपनी पत्नी बनने के लिए विवश करने का नाम “पैशाच’ विवाह कहलाता था।

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16- अन्त्येष्टि संस्कार

हिन्दू जीवन के प्रसिद्ध सोलह संस्कारों में से यह अन्तिम संस्कार है, जिसमें जाति व धार्मिक मत के अनुसार भिन्नता होते हुए भी सामान्यत: मृत व्यक्ति की दाहक्रिया आदि की जाती है। अंत्येष्टि का अर्थ है, अन्तिम यज्ञ। दूसरे शब्दों में जीवन यज्ञ की यह अन्तिम प्रक्रिया है। आदर्श रूप से संस्कार गर्भधारण के क्षण से ही शुरू हो जाते हैं और व्यक्ति के जीवन में प्रत्येक महत्त्वपूर्ण चरण पर संपन्न किए जाते हैं। मृत्यु निकट आने पर रिश्तेदारों और पुरोहित को बुलाया जाता है, मंत्री व पवित्र ग्रंथों का पाठ होता है और आनुष्ठानिक भेंटें तैयार की जाती हैं। मृत्यु के उपरांत शव को जल्द से जल्द श्मशान घाट पर ले जाते हैं, जो आमतौर पर नदी तट पर स्थित होता है। मृतक का सबसे बड़ा पुत्र और आनुष्ठानिक पुरोहित दाह संस्कार करते हैं। प्रथम पन्द्रह संस्कार ऐहिक जीवन को पवित्र और सुखी बनाने के लिए है। बौधायन पितृमेधसूत्र (3.1.4) में कहा गया है-

जातसंस्कारैणेमं लोकमभिजयति मृतसंस्कारैणामुं लोकम्।

अर्थात- जातकर्म आदि संस्कारों से मनुष्य इस लोक को जीतता है; मृत-संस्कार, “अंत्येष्टि” से परलोक को

इसके बाद परिवार के सदस्यों को अपवित्र समझा जाता है। और उन पर कुछ वर्जनाएं लागू रहती हैं। इस अवधि में वे अनुष्ठान करते है। ताकि आत्मा अगले जीवन में प्रवेश कर ले। इन अनुष्ठानों में दूध और जल तथा अधपके चावल के पिंडों का अर्पण शामिल है। निश्चित तिथि को श्मशान से एकत्रित अस्थि अवशेष या तो दफ़न कर दिया जाता है या फिर नदी में प्रवाहित कर दिया जाता है। मृतकों के सम्मान में निश्चित तिथियों पर संबंधियों द्वारा श्राद्ध किए जाते हैं।

यह अनिवार्य संस्कार है। रोगी को मृत्यु से बचाने के लिए अथक प्रयास करने पर भी समय अथवा असमय में उसकी मृत्यु होती ही है। इस स्थिति को स्वीकार करते हुए बौधायन ने पुन: कहा है-

जातस्य वै मनुष्यस्य ध्रुवं मरणमिति विजानीयात्।

तस्माज्जाते न प्रहृष्येन्मृते च न विषीदेत्।

अकस्मादागतं भूतमकस्मादेव गच्छति।

तस्माज्जातं मृञ्चैव सम्पश्यन्ति सुचेतस:।

अर्थात- उत्पन्न हुए मनुष्य का मरण ध्रुव है, ऐसा जानना चाहिए। इसीलिए किसी के जन्म लेने पर न तो प्रसन्नता से फूल जाना चाहिए और न किसी के मरने पर अत्यन्त विषाद करना चाहिए। यह जीवधारी अकस्मात् कहीं से आता है और अकस्मात् ही कहीं चला जाता है। इसीलिए बुद्धिमान को जन्म और मरण को समान रूप से देखना चाहिए।

तस्यान्मातरं पितरमाचार्य पत्नीं पुत्रं शि यमन्तेवासिनं पितृव्यं

मातुलं सगोत्रमसगोत्रं वा दायमुपयच्छेद्दहनं संस्कारेण संस्कृर्वन्ति।।

अर्थात- इसीलिए यदि मृत्यु हो ही जाए तो, माता, पिता, आचार्य, पत्नी, पुत्र, शिष्य (अन्तेवासी), पितृव्य (चाचा), मातुल (मामा), सगोत्र, असगोत्र का दाय (दायित्व) ग्रहण करना चाहिए और संस्कारपूर्ण उसका दाह करना चाहिए।

हिंदू धर्म शास्त्रों की मान्यता के अनुसार अंत्येष्टि क्रिया के बिना मृतक की आत्मा को शांति नहीं मिलती। हालांकि कई जगह अंत्येष्टि को संस्कार नहीं माना जाता लेकिन अधिकतर धार्मिक ग्रंथों में इसे संस्कार के रूप में मान्यता दी है। यह एक प्रकार का यज्ञ होता है जिसमें मृतक स्वयं होम हो जाता है। संस्कार के रूप में इसकी मान्यता का एक कारण यह दिया जाता है कि इससे मृत शरीर नष्ट हो जाता है जिससे पर्यावरण की रक्षा होती है। यह द्विजों द्वारा किये जाने वाले सोलह संस्कारों में आखिरी संस्कार माना जाता है। प्रत्येक मनुष्य के लिये जन्म और मृत्यु का संस्कार ऋण स्वरूप माना गया है। हिंदूओं में भी स्त्रियों, बच्चों, सन्यासियों, सुदूरवर्ती क्षेत्र या फिर अकाल मृत्यु का शिकार होने वालों, आत्महत्या करने वालों या फिर दुर्घटनावश मृत्यु को प्राप्त होने वालों के लिये अंत्येष्टि की क्रिया भिन्न भिन्न होती है। धार्मिक दृष्टि से अंतिम संस्कार का बहुत अधिक महत्व होता है।

अंतिम संस्कार की विधि- भले ही यह अशुभ जान पड़े, दर्दनाक लगे लेकिन इस प्रक्रिया से गुजरना सबको पड़ता है अपने जीवन में हम अपनों से बिछुड़ जाते हैं। मृत्यु के पश्चात मृतक का क्या होता है यह कोई नहीं जानता शास्त्रों में स्वर्ग-नरक की अवधारणाएं हैं। पुनर्जन्म की कल्पनाएं भी हैं। लेकिन सबसे अहम भावना होती है मृतक की आत्मा की संतुष्टि, मृतक की मुक्ति इसी के लिये विधिनुसार अंतिम संस्कार की क्रिया की जाती है। स्मृति ग्रंथों के अनुसार वैदिक मंत्रों के साथ अंतिम संस्कार किया जाना चाहिये। हालांकि स्त्रियों व शूद्रों का संस्कार बिना वैदिक मंत्रों के किये जाने का विधान रहा है। मृतक को गंगाजल से स्नान करवा कर उसकी अर्थी बनाई जाती है। परिजनों द्वारा कंधा देते हुए उसे शमशान तक ले जाया जाता है जहां शव को चिता पर रखकर उसे मुखाग्नि दी जाती है। चिता की राख ठंडी होने के पश्चात मृतक की अस्थियां इकट्ठी की जाती हैं जिन्हें पवित्र तीर्थस्थल पर बहते जल में प्रवाहित किया जाता है। उत्तर भारत में गंगा नदी में अस्थियां प्रवाहित करने की परंपरा है। अस्थि विसर्जन भी विधि-विधान से योग्य ब्राह्मण द्वारा मृतक की आत्मा की शांति के लिये पूजा पाठ करवाकर किया जाता है। हालांकि कुछ क्षेत्र (महाभारत की युद्ध भूमि, गंगा आदि पवित्र नदियों के समीप के क्षेत्र आदि) पवित्र माने जाते हैं जहां अस्थि विसर्जन करने का विधान नहीं है। जिन जातकों की अकाल मृत्यु होती है उनके लिये तेरह दिन तक शोक मनाते हुए श्रादकर्म किया जाता है तो किसी बुजूर्ग या कहें आयु पूरी होने पर सुखपूर्वक जिनकी मृत्यु होती है उनकी सतरहवीं की जाती है और सतरहवीं के दिन यज्ञ हवन करवाकर ब्राह्मण भोज के साथ-साथ सामूहिक भोज भी करवाया जाता है।

अन्त्येष्टि संस्कार के समय शोक का वातावरण होता है। अधिकांश व्यक्ति ठीक प्रकार सोचने- करने की स्थिति में नहीं होते, इसलिए व्यवस्था पर विशेष ध्यान देना पड़ता है। सन्तुलित बुद्धि के अनुभवी व्यक्तियों को इसके लिए सहयोगी के रूप में नियुक्त कर लेना चाहिए। व्यवस्था के सूत्र इस प्रकार हैं-

*  मृतक के लिए नये वस्त्र, मृतक शय्या (ठठरी), उस पर बिछाने- उढ़ाने के लिए कुश एवं वस्त्र (मोटक)तैयार रखें।

*  मृतक शय्या की सज्जा के लिए पुष्प आदि उपलब्ध कर लें।

*  पिण्डदान के लिए जौ का आटा न मिले, तो गेहूँ के आटे में जौ मिलाकर गूँथ लिया जाता है।

*  कई स्थानों पर संस्कार के लिए अग्नि घर से ले जाने का प्रचलन होता है। यदि ऐसा है, तो उसकी व्यवस्था कर ली जाए, अन्यथा श्मशान घाट पर अग्नि देने अथवा मन्त्रों के साथ माचिस से अग्नि तैयार करने का क्रम बनाया जा सकता है।

*  पूजन की थाली, रोली, अक्षत, पुष्प, अगरबत्ती, माचिस आदि उपलब्ध कर लें।

*   सुगन्धित हवन सामग्री, घी, सुगन्धित समिधाएँ, चन्दन, अगर- तगर, सूखी तुलसी आदि समयानुकूल उचित मात्रा में एकत्रित कर लें।

*  यदि वर्षा का मौसम हो, तो अग्नि प्रज्वलित करने के लिए सूखा फूस, पिसी हुई राल, बूरा आदि पर्याप्त मात्रा में रख लेने चाहिए।

*  पूर्णाहुति (कपाल- क्रिया) के लिए नारियल का गोला छेद करके घी डालकर तैयार रखें।

*  वसोर्धारा आदि घृत की आहुति के लिए एक लम्बे बाँस आदि में लोटा या अन्य कोई ऐसा पात्र बाँधकर तैयार कर लिया जाए, जिससे घी की आहुति दी जा सके।

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संस्कृत- विश्व की प्राचीनतम भाषा को जानिए…

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भाषाओं की दुनिया- दुनिया भर में लगभग 7,111 भाषाएं बोली जाती हैं (Ethnologue, Directory of languages)। सबसे ज्यादा 2303 भाषाएं एशिया में बोली जाती हैं। उसके बाद 2140 अफ्रीका, 1058 अमेरिका, 288 यूरोप बाकि 1322 दुनिया के अलग-अलग हिस्सों में बोली जाती हैं। इनमें बहुत सी भाषाएं पारिवारिक रूप में परस्पर सम्बद्ध हैं। ध्वनि, व्याकरण तथा शब्द समूह के तुलनात्मक अध्ययन-विश्लेषण के आधार पर एवं भौगोलिक निकटता के आधार पर भाषाओं के पारिवारिक संबन्धों का निर्णय किया गया है।

भारतीय भाषा में संस्कृति ही सर्वस्व है। आर्य भाषाओं में यही सबसे प्राचीनतम है। आर्यभाषा के मूल रूप को जानने के लिए जितना साधन यहा है, उतना कहीं नहीं है। आजकल भारत से निकली समस्त प्रान्तीय भाषाएं द्राविड़ी भाषाओं को छोड़कर) संस्कृत भाषा से ही निकली है। भारत का प्राचीन साहित्य अत्यन्त विशाल, संस्कृत भाषा में लिपिबद्ध है। इसके सम्बन्ध में महामना मदनमोहन मालवीय जी कहते हैं- “हमारी पैतृक संपत्तियों में से सबसे बहुमूल्य रत्न में से सबसे बहुमूल्य रत्न हमारी संस्कृत भाषा है।

भाषा विज्ञान की दृष्टि से संसार की भाषाओं में दो ही भाषायें ऐसी है जिनके बोलने वालों ने संस्कृति तथा सभ्यता का निर्माण किया है- पहली है आर्यभाषा और दूसरी है सामी या समेंटिक भाषा। आर्य भाषा के अन्तर्गत दो विशिष्ट शाखाएं है- पश्चिमी एवं पूर्वी। पश्चिमी शाखा के अन्तर्गत सभी प्राचीन तथा आधुनिक योरोपीय भाषाएं सम्मिलित हैं जबकि पूर्वी शाखा के अन्तर्गत ईरानी और भारतीय भाषाएं हैं-

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भारत में भाषा का प्राचीनतम रूप हमें वैदिक साहित्य में उपलब्ध होता है वैदिक साहित्य को जनभाषा का रूप भी कहा जाता है। ऐतिहासिक विकास क्रमकी दृष्टि से भारतीय आर्यभाषा परिवार को तीन कालों में बांटकर अध्ययन किया जाता है-

  • प्राचीन आर्यभाषा- वैदिक संस्कृत, संस्कृत
  • मध्यकालीन आर्य भाषा- पाली, प्राकृत, अपभ्रंश
  • आधुनिक आर्य भाषा- हिन्दी, गुजराती, मराठी, बांग्ला आदि

ऐतिहासिक कालक्रम की दृष्टि से निम्नलिखित समय में इन्हें वर्गीकृत किया जा सकता है –

  • प्राचीन आर्य भाषा (1500 ई. पू. से 500 ई0 पू. तक)
  • मध्यकालीन आर्य भाषा काल (500 ई. पूव. से 1000 ई. तक)
  • आधुनिक आर्यभाषा काल (1000 ई. से अब तक)

वैदिक साहित्य में वेद एवं वेदों में ऋग्वेद प्राचीनतम साहित्य सर्जन है। वेद भारतीय धर्म, दर्शन एवं प्राचीन कवित्व की अपार निधि है। वेद शब्द के व्युत्पत्ति मूलक अर्थ के सम्बन्ध में विचार करते हुए ‘ऋग्वेदभाष्यभूमिका’ में स्वामी दयानन्द सरस्वती ने लिखा है-

‘विदन्ति, जानन्ति, विद्यन्ते भवन्ति, विदन्ति अथवा विदन्ते, लभन्ते, विन्दन्ति, विचारयन्तिसर्वे मनुष्याः सत्यविद्यां यैर्येषुवा तथा विद्वांसश्च भवन्ति ते वेदाः

अर्थात्- वेद मानव मात्र कीसत्य विद्या के साधन एवं स्रोत है। वस्तुतः अद्भुत प्रतिभासम्पन्न ऋषियों द्वारा साक्षात्कृतज्ञानराशि का नाम ही वेद है।

वैदिक साहित्य के अन्तर्गत संहिता साहित्य एवं वेदासाहित्य सम्मिलित है। लौकिक संस्कृत साहित्य में आदिकवि वाल्मीकि रचित रामायण एवं महर्षि वेदव्यास रचित महाभारत ऐसे विशालकलेवर ग्रन्थ है जिनसे अद्यपर्यन्त साहित्य की समस्त विधाएं अनुप्राणित होती रही हैं। इसीलिए उन्हे उपजीव्य काव्य के नाम से पुकारा जाता है। इन दोनों ग्रन्थों मे सर्वाधिक काव्यों का स्रोत निहित है। पुराण संस्कृत वाङ्मय के गरिमामय ग्रन्थ हैं। इन्हें वेदों का पूरक माना जाता है। भविष्य,भागवत्, ब्रह्माण्ड, ब्रह्मवैवर्त, ब्रह्म, वामन, वराह, विष्णु, वायु, अग्नि, नारद, पद्म, लि ,गुरूड़, कूर्म तथा स्कन्दपुराण

वैदिक कालखण्ड

  • जर्मन विद्वान डॉ. जैकोबी नेकृतिका- जैकोबी ने वेद मन्त्रों का रचना काल 4590 ई० पू० तथा ब्राह्मण ग्रन्थों का रचनाकाल 2300 ई० पू० के बादमें स्वीकार किया है।
  • प्रो. मैक्समूलर- वैदिक साहित्य को चारभागों में विभक्त किया है बुद्ध से प्रथम होने के कारण सूत्रकाल 600 विक्रम पूर्व, ब्राह्मणकाल 600 से 800 वि० पू०, मन्त्रकाल 800 से 1000 वि० पू०. तथा छन्दकाल 1000 से 1200 वि० पू० तक स्वीकार किया है।
  • कृष्ण के समय द्वापरयुग की समाप्ति के बाद महर्षि वेद व्यास ने वेद को चार प्रभागों संपादित करके व्यवस्थित किया। श्रीराम का जन्म 5114 ईसा पूर्व हुआ था और श्रीकृष्ण का जन्म 3112 ईसा पूर्व हुआ था। इस मान से लिखित रूप में आज से 6510 वर्ष पूर्व पुराने हैं वेद।
  • आर्यभट्ट के अनुसार महाभारत युद्ध 3137 ई.पू. में हुआ था। इसका मतलब यह कि वैवस्वत मनु (6673 ईसापूर्व) काल में वेद लिखे गए।

वेद, पुराण और उपनिषदों को जानने के लिए पढ़ें – drsandeepkr.wordpress.com/2019/08/22/भारतीय-संस्कृति-का-आधार-व/

ऋग्वैदिक कालीन ग्रंथ मुख्य रूप से संस्कृत भाषा में लिखे गए हैं– इसी कारण माना गया है कि इस सम्पूर्ण संसार की समस्त परिष्कृत भाषाओं में संस्कृत प्राचीन है और संस्कृत का वैदिक रूप प्राचीनतम है। संस्कृत की मूलध्वनियों का विकास भारत में हुआ और धीरे धीरे भारत की यह भाषा दूर-दूर तक फैल गई। यह भी माना जाता है कि इसके परिणामस्वरूप ईरान और यूरोप की भाषाओं का विकास हुआ। परन्तु प्रमाणों के अभाव में निर्णायक रूप में कुछ भी कहना संभव नहीं है। संस्कृत की भाषाओं के सम्बन्ध में इतना कहना ही निश्चित है कि वैदिककालीन भाषा पूर्ण रूप से विकसित थी। जो रूप वैदिक भाषा का आज उपलब्ध है उससे पूर्व के रूप का हमें कोई प्रमाण नहीं मिलता।

संस्कृत शब्द का शाब्दिक अर्थ- संस्कृत शब्द सम् पूर्वक ‘कृ’ धातु से बना है। जिसका मौलिक अर्थ है। संस्कार सम्पन्न भाषा। संस्कार शब्द के अनेक अर्थ हैं, किन्तु यहां संस्कार पदों में विद्यमान प्रकृति और प्रत्यय आदि को कहते हैं।

संस्कृत है देववाणी- विश्व की विविध भाषाओं में यही एक भाषा है जो वस्तुतः स्वर्गावतीर्ण हुई हैं क्योंकि विश्व वाङ्गमय का सबसे पुराना अनादिग्रन्थ वेद का सृजन भगवान् ने इसी भाषा में किया है—

अनादि निधना नित्या वागुत्सृष्टा स्वयम्भुवा ।।

आदौ वेदमयी दिव्या यतः सर्वाः प्रवृत्तयः ।।

तत्पश्चात् आर्ययुग के साक्षात्कृतधर्मा महर्षियों के अपरोक्ष अनुभव से लेकर आधुनिक काल के बड़े-बड़े भारतीय मनीषियों के सद्विचारों से ओत प्रोत होने के कारण संस्कृत वाङ्गमय का महत्व लोकोत्तर हो गया है। इस देश की समूची संस्कृति, सारा इतिहास और समस्त ज्ञान-विज्ञान संस्कृत में ही भरे पड़े हैं।

शुक्ल यजुर्वेद प्रातिशाख्य का सूत्र है- प्रकृति प्रत्ययादिः संस्कारः इस प्रकार कहा गया है कि देववाणी अर्थात् प्रकृति प्रत्यय आदि के विभागों से रहित थी (प्रत्यय वे शब्द हैं जो दूसरे शब्दों के अन्त में जुड़कर, अपनी प्रकृति के अनुसार, शब्द के अर्थ में परिवर्तन कर देते हैं) इसका परिणाम यह होता है कि जिज्ञासु को कठिन परिश्रम व समय लगाना होता था। इस हेतु देवों ने देवराज इन्द्र के पास जाकर वैज्ञानिक परिपाटी सुझाएं जाने की प्रार्थना की, तब इन्द्र ने देवभाषा में प्रकृति प्रत्यय विभाग द्वारा, प्रत्येक शब्द के मध्य से विलग कर शब्दोपदेश एवं अध्ययन की सरल, सुगम प्रक्रिया का निर्माण किया। इसी प्रकृति प्रत्यादि विभाग के पुनः संस्कार द्वारा संस्कृति होने से देववाणी का नाम संस्कार पड़ा। जिस भाषा के शब्दों में प्रकृति और प्रत्यय का विभाग परिलक्षित होता है तथा वर्ण का आगम वर्ण लोथ और वर्ण विकार भी ज्ञात हो ऐसे शब्दों से युक्त भाषा ही संस्कृत भाषा है। संस्कृत भाषा में शब्द दो प्रकार के होते हैं- व्युत्पन्न तथा अव्युत्पन्न। जिन नामों के साथ प्रकृति प्रत्यय की कल्पना संभव है उन्हें व्युत्पन्न कहते हैं। संस्कृत भाषा में अधिकांश नामपद प्रकृति (धातु) तथा प्रत्यय के योग से बनते हैं। धातु मूलप्रकृति है तथा उससे लगने वाले प्रत्ययों को (तिभिन्न) कृत् प्रत्यय कहा जाता है।

संस्कृत भाषा के दो रूप- प्राचीन भारतीय आर्यभाषाओं में वैदिक संस्कृत और लौकिक संस्कृत का समावेश होता है। इस प्रकार हम देखें तो संस्कृत भाषा के दो रूप मिलते हैं-

1. वैदिक संस्कृत

2. लौकिक संस्कृत

वैदिक संस्कृत- चार वैदिक संहिताओं- ऋग्वेद, यजुर्वेद, आयुर्वेदव और अथर्ववेद के अतिरिक्त इनमें ब्राह्मणों-ग्रन्थों, आरण्यकों, उपनिषदों और वेदागों की रचना हुई।

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लौकिक संस्कृत- कालिदास,वाल्मीकि, भास, वेद व्यास, आदि की रचनाएँ मिलती हैं। मगर ऐसे देखा जाये तो लौकिक संस्कृत का उद्भव स्थान भी वैदिक संस्कृत है। इस संस्कृत काल में आर्यभाषा क्षेत्र में तीन स्थानीय बोलियाँ प्रचलित थीं- पश्चिमोत्तरी, मध्यवर्ती पूर्वी। इस प्रकार प्राचीन भारतीय आर्यभाषा में वैदिक संस्कृत और लौकिक संस्कृत का समावेश होता है। वैदिक संस्कृत के कई रूप मिलते हैं, जबकि संस्कृतव्याकरणबद्ध भाषा है।

veda7.jpgसोत्र- हिंदी भाषा का स्वरूप विकास

संस्कृत भारतीय भाषाओं की जननी- भारत में आज समस्त प्रान्त अपनी-अपनी प्रान्तीय भाषा को राजभाषा बनाने में जो व्यस्त हो रहे हैं उसका एकमात्र निदान हिन्दी का राष्ट्र भाषा होना ही है। निष्पक्ष भाव से विचार किया जाए तो उत्तरप्रदेश या पश्चिम बिहार के कुछ अंश छोड़कर बंगाल, मिथिला, गुजरात, महाराष्ट्र आदि प्रदेशों को राष्ट्रभाषा हिन्दी से जितनी कठिनाई की सम्भावना है उतनी संस्कृत से नहीं। क्योंकि बंगला, मैथिली, मराठी, गुजराती आदि भाषा में संस्कृत के नब्बे प्रतिशत शब्दों का प्रयोग होता है तथा हिन्दी को भी धन-धाम और सौन्दर्य संस्कृत से ही मिल रहा है। ऐसी स्थिति में भारत की राष्ट्रभाषा यदि संस्कृत होती सम्पूर्ण भारत उस राष्ट्रभाषा का अभिनन्दन करने लगता।

भारतीयों के लिए संस्कृत केवल विचारों के आदान प्रदान का माध्यम बनने वाली भाषा ही नहीं अपितु उनकी सभ्यता, संस्कृति एवं इतिहास की एक अभिन्न अंग है; क्योंकि भारतीय इतिहास के आदिकाल से ही संस्कृत का यहां के जन-जीवन के विचार-चिन्तन एवं सभ्यता-संस्कृति में अभिन्न एवं महत्वपूर्ण स्थान रहा है। वस्तुतः भारतीय जीवन और प्रज्ञा का ऐसा कोई भी क्षेत्र नहीं जो कि इसके आवरण से अछूता हो। इसलिए पिछले दस हजार वर्षों में इस देश के द्वारा बहुत कुछ खो दिए जाने पर भी जिस चीज को एक अमूल्य धरोहर के रूप में अविच्छिन्न रूप से संजोये रखा गया है, वह है संस्कृत भाषा।

विश्व संस्कृत दिवस- भारत में प्रतिवर्ष ‘श्रावणी पूर्णिमा’ के दिन मनाया जाता है। श्रावणी पूर्णिमा अर्थात् रक्षा बन्धन ऋषियों के स्मरण तथा पूजा और समर्पण का पर्व माना जाता है। ऋषि ही संस्कृत साहित्य के आदि स्रोत हैं, इसलिए श्रावणी पूर्णिमा को “ऋषि पर्व” और “संस्कृत दिवस” के रूप में मनाया जाता है। राज्य तथा ज़िला स्तरों पर संस्कृत दिवस आयोजित किए जाते हैं। इस अवसर पर संस्कृत कवि सम्मेलन, लेखक गोष्ठी, छात्रों की भाषण तथा श्लोकोच्चारण प्रतियोगिता आदि का आयोजन किया जाता है, जिसके माध्यम से संस्कृत के विद्यार्थियों, कवियों तथा लेखकों को उचित मंच प्राप्त होता है।

1969 से हुई थी संस्कृत दिवस की शुरूआत- संस्कृत भाषा के संरक्षण और इसे बढ़ावा देने के लिए भारत सरकार के शिक्षा मंत्रालय ने 1969 से इसकी शुरूआत की थी। संस्कृति दिवस का आयोजन केंद्रीय तथा राज्य स्तर पर किया जाता था। तभी से पूरे देश में संस्कृत दिवस मनाने की परंपरा शुरू हुई थी। ये भी मान्यता है कि इसी दिन से प्राचीन भारत में नया शिक्षण सत्र शुरू होता था। गुरुकुल में छात्र इसी दिन से वेदों का अध्ययन शुरू करते थे, जो पौष माह की पूर्णिमा तक चलता था। पौष माह की पूर्णिमा से सावन की पूर्णिमा तक अध्ययन बंद रहता था। आज भी देश में जो गुरुकुल हैं, वहां सावन माह की पूर्णिमा से ही वेदों का अध्ययन शुरू होता है।

संविधान में 22 भाषाओं को मिली है मान्यता- भारत के अलग-अलग हिस्सों में तकरीबन 1600 बोलियां या भाषाएं बोली जाती हैं। इनमें से 22 भाषाओं को संविधान में मान्यता मिली हुई है। वर्ष 2003 में चार नई भाषाओं को संविधान संशोधन कर मान्यता दी गई। इससे पहले संविधान में केवल 18 भाषाओं को ही मान्यता प्राप्त थी। जिन्हें संविधान में जगह नहीं मिला है, उन्हें बोली कहा जाता है। 2011 की जनणना में देश में लगभग 122 भाषाएं दर्ज की गईं थीं। संविधान में जिन 22 भाषाओं को मान्यता दी गई है, उसमें हिन्दी, अंग्रेजी, असमी, बंगाली, बोडो, डोगरी, गुजराती, कन्नड़, कश्मीरी, कोंकणी, मैथिली, मलयालम, मणिपुरी, मराठी, नेपाली, ओड़िया, संस्कृत, संथाली, सिंधी, तमिल, तेलगु और उर्दू शामिल है।

संस्कृत कहा तक बोलचाल की भाषा थी इस प्रश्न का उत्तर देते हुए professor Edward James Rapson (professor of Sanskrit at the University of Cambridge) कहते हैं-“संस्कृत भी वैसी ही बोलचाल की भाषा है जैसी साहित्यिक अंग्रेजी है, जिसे कि हम बोलते हैं।

भाषा के अर्थरूप में ‘संस्कृत’ का प्रयोग सर्वप्रथम वाल्मीकि रामायण में मिलता है- जब वानरराज सुग्रीव प्रिय करने हेतु ऋष्यमूक पर्तत से उतर करहनूमान् श्रीराम और उनके अनुज लक्ष्मण का परिचय प्राप्त करने हेतु उनके पासआते हैं तो उन्होंने उनसे प्रसन्नता होती है और लक्ष्मण जी से कहते हैं-

नानृग्वेदविनीतस्य नायजुर्वेदधारिणाः ।

ना सामवेदविदुषः शक्यमेवं विभाषितुम।।

अर्थात् जिसे ऋग्वेद का ज्ञान प्राप्त नहीं हुआ हो जिसने यजुर्वेद का अभ्यास नहीं किया हो तथा जो सामवेद का निष्णात् विद्वान नहीं हो वह इस प्रकारकी उत्कृष्ट भाषा में संभाषण नहीं कर सकता।

हनूमान् जी ने ब्राह्मण भिक्षु रूप धारण करके श्री राम जी से वार्तालाप किया था, उनकी वाणी संस्कार और क्रम से सम्पन्न थी, यही कारण है कि श्री राम जी ने उनके द्वारा व्यवहृत भाषा के लिए “संस्कार क्रम सम्पन्न’ तथा आविलम्बित विशेषणों का प्रयोग किया है। अतः श्री राम जी कहते हैं कि –

नूनं व्याकरणं कृत्स्नमनेन बहुधा श्रुतम् ।

बहु व्याहरतानेन न किंचिदपशाब्दिम् ।

अर्थात् “निःसंदेह इन्होंने सम्पूर्ण व्याकरण का एक बार नहीं अध्ययन किया है। क्योंकि इनके मुख से एक भी अशुद्ध शब्द नहीं निकला।।

इसकी स्पष्ट सिद्धि हमें सुन्दर काण्ड में मिलती है-

यदि वाचं प्रदास्यामि द्विजातिरिव संस्कृताम् ।

रावणं मत्यमाना मां सीता भीता भविष्यति।।

अर्थात् हनूमान् जी अशोकवाटिका में सीता जी से किस भाषा में वार्तालाप किया जाय? इसका विचार करते हुए सोचते हैं कि, यदि मैं द्विज समान संस्कृत वाणी में बोलूँगा तो सीता जी मुझे रावण समझ कर डर जायेंगी।

महर्षि पाणिनि संस्कृत भाषा के प्रसिद्ध और श्रेष्ठ व्याकरणाचार्य हैं- पाणिनि (समय- विक्रम पूर्व षष्ठशती) ने संस्कृत भाषा को विशुद्ध तथा व्यवस्थित बनाये रखने के लिये प्रसिद्ध व्याकरण बनाया है, जो आठ अध्यायों में विभक्त होने के कारण ‘अष्टयाध्यायी’ कहलाता है। संस्कृत वैयाकरणों में पाणिनि व्याकरण ही सर्वाधिक प्रसिद्ध है। महर्षि पाणिनि ने विषय के सम्यक् विवेचन के लिए पंचांगों का निर्देश किया है- सूत्रपाठ, धातुपाठ, गणपाठ, उणादिपाठ, लिङ्गानुशासन। इन पंचांगों द्वारा महर्षि पाणिनि ने संस्कृत को एक सुसंस्कृत स्वरूप प्रदान किया। संस्कृत भाषा में जो एकरूपता और व्यवस्था दीख पड़ती है, यह सब पाणिनि के ही नियमन का फल है। कुछ लोग पाणिनि पर यह दोष लगाते हैं कि उन्होंने भाषा को जकड़ कर अस्वाभाविक बना दिया, परन्तु बात ऐसी नहीं है। यदि पाणिनि का व्याकरण ने रहता तो संस्कृत भाषा में देश-काल की भिन्नता से इतना रूपान्तर होता कि उसे हम पहचान भी नहीं सकते।  अष्टाध्यायी से ऊपर ‘कात्यायन’ ने वार्तिक लिखा, जिसमें उन्होंने नये प्रयुक्त शब्दों की व्याख्या दिखलाई। विक्रम-पूर्व द्वितीय शतक में पतंजलि ने ‘अष्टाध्यायी’ के ऊपर ‘भाष्य’ लिखा, जो इतना सुन्दर, उपादेय तथा प्रामाणिक है कि उसे ‘महाभाष्य’ के नाम से पुकारते हैं। लौकिक संस्कृत के कर्ता-धर्ता ये ही तीन मुनि हैं, जिनके कारण व्याकरण ‘त्रिमुनि’ के नाम से विख्यात है। पिछले युग में संस्कृत व्याकरण के ऊपर जो कुछ लिखा गया वह केवल इस ‘मुनित्रय’ के ग्रन्थों का व्याख्यानमात्र है। कुछ लोगों का कथन है कि इस ‘मुनि-त्रय’ के द्वारा व्याख्यात तथा विवृत होने के कारण से ही यह देववाणी ‘संस्कृत’ नाम के अभिहित की जाती है।

वैदिक संस्कृत से भिन्न साधारण जनता की जो बोली थी उसको यास्क ने स्थान-स्थान पर ‘भाषा’ कहा है। उन्होंने वैदिक कृदंत शब्दों की व्युत्पत्ति उन धातुओं से बतलाई है जो लोक-व्यवहार में आते थे। उस समय भिन्न-भिन्न प्रान्तों में संस्कृत शब्दों के जो रूपान्तर तथा विशिष्ट प्रयोग काम में लाये जाते थे उन सबका उल्लेख यास्क ने किया है। उदाहरणार्थ ‘शवति’ क्रियापद का प्रयोग कम्बोज देश (वर्तमान पश्चिमोत्तर–प्रान्त) में ‘जाने’ के अर्थ में किया जाता था, परन्तु इसका संज्ञापद ‘शव’ (मुर्दा) का प्रयोग आर्य लोग भिन्न अर्थ में करते थे। पूर्वी प्रान्तों (प्राच्य) में ‘दाति’ क्रियापद का प्रयोग ‘काटने’ के अर्थ में होता था, परन्तु उत्तर के लोगों में इसी से बने हुए ‘दात्र’ संज्ञा-शब्द का प्रयोग हँसिया के अर्थ में होता था। इससे स्पष्ट है कि यास्क के समय में (विक्रम पूर्व सात सौ वर्ष) संस्कृत बोलचाल की भाषा थी। संस्कृत व्याकरण की भाषा में सार्थक शब्द को ‘पद’ कहते हैं। ऐसे समस्त पदों के दो भेद किए जाते हैं-(क) सुबन्त एवं (ख) तिङन्त । ‘सुप्’ और ‘तिङ्’ दोनों प्रत्यय हैं। ये प्रत्यय जब प्रकृति (मूलशब्द या धातु) से मिलते हैं तब सार्थक शब्दों का निर्माण होता है।

पाणिनि के समय में (विक्रम-पूर्व षष्ठशती) संस्कृत का यह रूप बना ही रहा। पाणिनि भी इस बोली को ‘भाषा’ ही के नाम से पुकारते हैं। दूर से पुकारने के समयतथा प्रत्यभिवादन के अवसर पर पाणिनि ने प्लुत स्वर का विधान बतलाया है। यदि दूरसे कृष्ण को पुकारना होगा तो संस्कृत में ‘आगच्छ कृष्ण’ कहना पड़ेगा। यहाँ पाणिनिके अनुसार कृष्ण का अकार प्लुत होगा। उसी प्रकार अभिवादन करने के अनन्तर जोआशीर्वाद दिया जायगा वहाँ पर भी प्लुत करना पड़ेगा। जैसे देवदत्त नामक कोई छात्रगुरु को इस प्रकार प्रणाम करे ‘आचार्य! देवदत्तोऽहं त्वमभिवादये’ (जे गुरु जी! मैंदेवदत्त आपको प्रणाम करता हूँ, तो गुरु यह कह कर आशीर्वाद देगा-‘आयुष्मान् एधिदेवदत्त’ (आयुष्मान् बनो, हे देवदत्त) इस आशीर्वाद-वाक्य में देवदत्त के अन्त का अकारप्लुत हो जायगा, यह पाणिनि की व्यवस्था है। इन नियमों का प्रयोग तभी होगा जबभाषा वस्तुतः बोली जाती होगी।

महर्षि पतञ्जलि ने ईसा पूर्व द्वितीय शताब्दी में संस्कृत को लोक व्यवहृत एवं लोक प्रचलित कहा है। महाभाष्य के प्रारम्भ में ही ‘अथ शब्दानुशासनम्’ पर लिखते हुए उन्होंने केषां शब्दानां? लौकिकानां वैदिकानां च।’ कहकर दोनों को स्पष्ट रूप से पृथक-पृथक निर्देश किया है।

संस्कृत भगवान बुद्ध के समय में बोलचाल की भाषा थी- कई कहानियों में सुना जाता है कि भिक्षुओं ने भगवान बुद्ध के सामने विचार रखा कि आप अपनी बोल चालकी भाषा संस्कृत को बना लें। इससे भी यही परिणाम निकलता है कि संस्कृत भगवान बुद्ध के समय में बोलचाल की भाषा थी। प्रसिद्ध बौद्ध कवि अश्वघोष (ई. द्वितीय शताब्दी) ने अपने सिद्धान्तों का प्रचार करने के लिए अपनेग्रन्थ संस्कृत में लिखे। इससे यह अनुमान करना सुगम है कि संस्कृत प्राकृत की अपेक्षा साधारणजनता को अपनी ओर अधिक खींचती थी, तथा संस्कृत ने कुछ समय के लिए खोए हुए अपने पदको पुनः प्राप्त कर लिया था।

संस्कृत में शिलालेख-  दूसरी शताब्दी ईं के बाद में मिलने वाले शिलालेख क्रमशः संस्कृत में अधिक मिल रहे हैं और छठीं शताब्दी से लेकर केवल जैन शिलालेखों को छोड़कर सारे के सारे शिलालेख संस्कृत में ही मिलते हैं। यह बात सर्वमान्य है कि शिलालेख प्रायः उसी भाषा में लिखे जाते हैं जिसे सर्वसाधारण पढ़ और समझ सकते हैं ।

हेनसांग ने स्पष्ट शब्दों में कहा है कि ई. सातवीं शताब्दी में बौद्ध लोग धर्मशास्त्रीय मौखिक वादक्विकमें संस्कृत का ही व्यवहार करते थे । जैनों ने प्राकृत को बिल्कुल छोड़ तो नहीं दिया था पर वेभी संस्कृत का व्यवहार करने लगे थे ।

हिमालय और विन्ध्य तक संस्कृत बोलचाल की भाषा थी- साहित्य में ऐसे भी उल्लेख पाये जाते हैं जिनसे ज्ञात होता है कि रामायण और महाभारत जनता के सामने मूलमात्र पढ़कर सुनाये जाते थे। तब तो जनता वस्तुतः संस्कृत के श्लोकों का अर्थ समझ लेती होगी। इस प्रकार स्पष्ट है कि हिमालय और विन्ध्य के बीच फैले हुए सम्पूर्ण आर्यावर्त में संस्कृत बोल चाल की भाषा थी। इसका व्यवहार ब्राहमण ही नहीं, अन्य लोग भी करते थे।

संस्कृत का उत्थान, पतन और फिर उत्थान…

संस्कृत उत्तर-पश्चिमी भारत की बोल चाल की भाषा थी, जिसके विकास का पता सम्पूर्ण साहित्य दे रहा है और sanskrit1जिसकी ध्वन्यात्मक विशेषतायें उत्तर-पश्चिमी भारत के शिलालेखों में बहुत सीमा तक सुरक्षित है। मूलरूप में यह ब्राहमण धर्म की भाषा थी, जो उसी उत्तर पश्चिमी भाग से प्रचालितहुआ था। ब्राहमण धर्म के प्रसार के साथ इसका भी प्रसार हुआ और जब भारत के अन्य दो बड़े धर्म-जैन और बौद्ध धर्म फैलने लगे, तब कुछ समय के लिए इसका प्रसार रुक गया। जब भारत में दोनों धर्मों का अपकर्ष प्रारंभ हुआ तब इसने निर्विघ्न उन्नति करना प्रारम्भ किया धीरे-धीरे यह सारे भारत वर्ष में फैलने लगी। गुप्त काल को सांस्कृतिक विकास में भारत के स्वर्ण युग तथा सर्वोच्च और सबसे उत्कृष्ट समय के रूप में भी माना जाता है। गुप्त वंश के शासकों ने संस्कृत साहित्य को संरक्षित किया और उन्होंने उदारता से संस्कृत विद्वानों और कवियों की मदद की। अंततः संस्कृत भाषा सुसंस्कृत और शिक्षित लोगों की भाषा बन गई। इस दौर में कालिदास संस्कृत भाषा के सबसे महान कवि और नाटककार थे। कालिदास ने भारत की पौराणिक कथाओं और दर्शन को आधार बनाकर रचनाएं की। इसमें अभिज्ञानशाकुन्तलम्, रघुवंशम्, कुमारसंभवम्; मेघदूतम् और ऋतुसंहार प्रमुख हैं। समय पाकर तो यह एक विशाल राष्ट्रीय भाषा बन गयी और केवल तभी यह पदच्युत हुई जब मुस्लिम शासकों का भारत में आगमन हुआ।

काल विभाजन

संस्कृत साहित्य का इतिहास, काल विभाजन के आधार पर करना अबतक के विद्वानों के लिए टेढ़ी खीर रहा है। ऐतिहासिक दृष्टि से भारतीय आर्य भाषाओं के कालक्रम को गैरोला (संस्कृत साहित्य का संक्षिप्त इतिहास (वाचस्पति गैरोला), पृ0 18) तीन युगों में विभाजित करते हैं

  1. आर्य भाषा युग- वैदिक काल से 900 ई0 पूर्व तक
  2. मध्यकालीन आर्य भाषा युग- 500 ई0 पू0 से 1100 ई०
  3. आधुनिक आर्यभाषा युग- 1100 ई0 से अब तक

इसके आधार पर हम संस्कृत साहित्य के कालक्रम को आदिकाल,मध्यकाल और आधुनिक में विभक्त कर अध्ययन कर सकते हैं। क्योंकि वैदिककालीन(आदि काल) से ही साहित्य सृजन का रूप हमें वेदों एवं उनकी संहिताओं तथाब्राह्मण आदि ग्रन्थों में मिलता है।

पद्मविभूषण आचार्य बलदेव उपाध्याय ने संस्कृत साहित्य का इतिहास, में निम्न प्रकार से विभाजित किया है-

  1. श्रुति काल : जिसमें वैदिक साहित्य ब्राह्मण, आरण्यक, उपनिषद, का निर्माणहुआ। इस काल में वाक्य रचना सरल संक्षिप्त और क्रिया बहुलता हुआ करती थी।
  2. स्मृति काल : जिसमें रामायण, महाभारत पुराण तथा वेदांगों की रचना हुई।
  3. लौकिक संस्कृत का काल : इसमें काव्य तथा नाटकों की रचना, पाणिनि केनियमों के द्वारा संयत तथा सुव्यवस्थित की गयी भाषा से होने लगी।

उपर्युक्त विद्वानों के अवलोकन के पश्चात् सबसे मान्य उपाध्याय जी केकालक्रम विभाजन को मानते हुए श्रुतिकाल को, आदि काल तथा स्मृति काल कोमध्य काल तथा लौकिक संस्कृति साहित्य के काल को आधुनिक काल मानकरसंस्कृत साहित्य के इतिहास पर दृष्टिपात करना तर्क संगत होगा। इसके आधारपर हम संस्कृत साहित्य के कालक्रम का निर्धारण निम्न प्रकार से कर सकते हैं-

आदि काल(श्रुति काल)

  1. संहिता काल (वैदिक संहिताएँ)
  2. ब्राह्मण काल (ब्राह्मण ग्रन्थ)
  3. सूत्रकाल (वेदांग)

मध्यकाल (स्मृति काल)

  1. महाकाव्य(उपजीव्य काव्य) काल
  2. पुराण काल
  3. इसके अतिरिक्त स्मृति काल में जैन एवं बौद्ध कालीन संस्कृत साहित्य का काव्य भी दृष्टिगोचर होता है।

लौकिक साहित्य काल (आधुनिक काल)

  1. श्रव्य काव्य काल
  2. दृश्य काव्य काल

वैदिक और लौकिक साहित्य में मूलभूत भिन्नता

  1. प्रथम तो दोनों साहित्यों में विषय भेद है। वैदिक साहित्य धर्म प्रधान था,उसमें केवल दर्शन, धार्मिक व्यवस्थाएं तथा जीवन के आचार-विचार पर ही प्रकाशपड़ता था किन्तु आगे चलकर समाज विज्ञान और राजनीति आदि का समावेश होनेलगा है। रामायण की रचना से साहित्य में लौकिकता को महत्व मिला। रामायण मेंशृङ्गार, वीर, करुण, अद्भुत, वीभत्स आदि रसों का पूर्ण परिपाक हुआ है, जिसमेंउसकी लौकिकता सिद्ध होती है।
  2. लौकिक संस्कृत के विकास के साथ साहित्य में पद्यात्मकता की प्रधानता होजाती है। सभी ग्रन्थ पद्य में रचने की प्रथा चल पड़ी है। व्याकरण, दर्शन आदिशास्त्रों को छोड़कर अन्यत्र गद्य का प्रयोग किया जाने लगा। अभिप्राय यह है किसाहित्य लिखने का माध्यम पद्य ही रह गया किन्तु इसमें पूर्व वैदिक साहित्य गद्यका पर्याप्त स्थान मिला हुआ पाते है। यजुर्वेद, उपनिषद आदि में सर्वत्र गद्य के दर्शन होते हैं। इसलिए वैदिक तथा लौकिक संस्कृत के गुण हम इस आधार पर भीबाँट सकते हैं कि. जहाँ वैदिक साहित्य में गद्य को प्रश्रय प्राप्त था वहीं लौकिकसाहित्य में पद्य को प्रश्रय प्राप्त हुआ है।
  3. भाषा की दृष्टि से भी दोनों साहित्य में अन्तर है। वैदिक भाषा स्वरूप कीदृष्टि इतनी व्यवस्थित और निश्चित नहीं जितनी लौकिक संस्कृत की। लौकिकसंस्कृत को स्थिर रूप देने का श्रेय पाणिनि को है तथापि रामायण, महाभारत तथापुराणों आदि में भी कहीं-कहीं पुरानी भाषा के प्रयोग मिल जाते हैं। उन्हें आर्षप्रयोग कहकर स्वीकृत कर लिया गया है।
  4. दोनों प्रकार के साहित्य में वर्णन शैली का भी भेद दृष्टिगोचर होता है।कविताओं में जैसी उपमाएँ तथा अतिशयोक्तिपूर्ण वर्णन की प्रधानता लौकिकसंस्कृत से ही आरम्भ होती है। इससे पूर्व काव्य का लालित्य वैदिक साहित्य मेंदृष्टिगोचर नहीं होता। उसमें रूपकों की प्रमुखता है। अमूर्त को मूर्त रूप देनावैदिक साहित्य की विशेषता है।

पाश्चात्य मत- पाश्चात्य मत के अनुसार संस्कृत भाषा भारोपीय परिवार की एकभाषा है। संस्कृत तथा अन्य युरोपीय भाषाएँ किसी प्राचीन भाषासे विकसित हुई जो आज उपलब्ध नहीं हैं। संस्कृत , ईरानी और यूरोप की भाषाओं के तुलनात्मक अध्ययन के आधार पर पाश्चात्यभाषा वैज्ञानिकों ने यह निष्कर्ष निकाला कि भारत और यूरोप कीभाषाओं की एक जननी थी जिसका उन्होंने भारोपीय भाषा नामदिया है।

संस्कृत- व्याकरण

दुनिया की प्रत्येक भाषा का विकास ध्वनि संकेतों के आधार पर हुआ लेकिन संस्कृत किसी देश या धर्म की भाषा नहीं यह ब्रह्मांड की भाषा है। संस्कृत की उत्पत्ति और विकास ब्रह्मांड की ध्वनियों के माध्यम से हुआ है। यह आम लोगों screen-0.jpgद्वारा बोली गई ध्वनियां नहीं हैं। धरती और ब्रह्मांड में गति सर्वत्र है। चाहे वस्तु स्थिर हो या गतिमान। गति होगी तो ध्वनि निकलेगी। ध्वनि होगी तो शब्द निकलेगा। देवों और ऋषियों ने उक्त ध्वनियों और शब्दों को पकड़कर उसे लिपि में बांधा और उसके महत्व और प्रभाव को समझा।

देव भाषा संस्कृत की वर्ण माला का उद्गम सूर्य की रश्मियां हैं। इसमें कुल 36 स्वर और 72 व्यंजन वर्ण हैं। यह ब्रह्माण्ड से निकली हुई मूल ध्वनिया है। संस्कृत को अपौरुष भाषा इसलिए कहा जाता है कि इसकी रचना ब्रह्माण्ड की ध्वनियों से हुई है। सौर परिवार के प्रमुख सूर्य के एक ओर से 9 रश्मियां निकलती हैं और ये चारों ओर से अलग अलग निकलती हैं। इस तरह कुल 36 रश्मियां हो गई। इन 36 रश्मियों के ध्वनियों पर संस्कृत के 36 स्वर बने। इस प्रकार सूर्य की जब 9 रश्मियां पृथ्वी पर आती हैं तो उनका पृथ्वी के 8 बसुओं से टक्कर होती है। सूर्य की 9 रश्मियां और पृथ्वी के 8 बसुओं की आपस में टकराने से जो 72 प्रकार की ध्वनियां उत्पन्न हुईं वे संस्कृत के 72 व्यंजन बन गई। इस प्रकार ब्रह्माण्ड में निकलने वाली कुल 108 ध्वनियां पर संस्कृत की वर्णमाला आधारित है।

ब्रह्माण्ड की ध्वनियों के रहस्य के विषय में वेदों से ही जानकारी मिलती है। इन ध्वनियों को नासा ने भी माना है। अत: यह सर्वसिद्ध है कि वैदिक काल में बृह्मांड में होने वाली ध्वनियों का ज्ञान ऋषियों को था।

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मा ना जाता है कि अरबी भाषा को कंठ से और अंग्रेजी को केवल होंठों से ही बोला जाता है किंतु संस्कृत में वर्णमाला को स्वरों की आवाज के आधार पर कवर्ग, चवर्ग, टवर्ग, तवर्ग, पवर्ग (हिन्दी में पञ्चमाक्षर) अंत:स्थ और ऊष्म वर्गों में बांटा गया है-

  • कवर्ग- कवर्ग में ङ् का प्रयोग क, ख, ग, घ के पूर्व होता है। हालांकि ‘पराङ्मुख’ और ‘वाङ्मय’ आदि कुछ शब्दों में अपवाद स्वरूप ‘ङ्’ का ही प्रयोग मिलता है। यहाँ (ं) का प्रयोग नहीं किया जा सकता। ङ व्यंजन शब्द के आदि तथा अंत में नहीं आता। इसके अनुसार विशिष्ट ध्वन्यात्मक प्रयोगों को छोड़कर इस वर्ग के लिए अनुस्वार का प्रयोग किया जा सकता है।
  • चवर्ग- चवर्ग में ञ् का प्रयोग च, छ, ज, झ के पूर्व होता है। जैसे- अञ्चल, पञ्छी, अञ्जन एवं झञ्झट आदि। हालांकि ञ का प्रयोग हिंदी लेखन में प्रायः नहीं हो रहा है। इनके स्थान पर अब अनुस्वार का ही प्रयोग हो रहा है। ञ् भी शब्द के आदि या अंत में नहीं आता।
  • टवर्ग- टवर्ग में ण् का प्रयोग ट, ठ, ड, ढ के पूर्व होता है। जैसे- घण्टा, कण्ठ, अण्डा आदि। अब इनके स्थान पर प्रायः अनुस्वार (ं) का प्रयोग होता है। स्वतंत्र रूप से ण का प्रयोग केवल संस्कृत के शब्दों में होता है। वह भी मध्य (प्रणाम) और अंत (प्रण) में। टवर्ग के अतिरिक्त य,व एवं ण के पूर्व भी ण आता है, किन्तु ऐसी स्थिति में इसके स्थान पर अनुस्वार नहीं आता। जैसे- पुण्य, कण्व एवं विषण्ण।
  • तवर्ग- तवर्ग में न् का प्रयोग त, थ, द, ध के पूर्व होता है। जैसे- जन्तर, मन्थर, तन्दूर, गन्ध आदि। अब इनके स्थान पर भी अनुस्वार (ं) के प्रयोग की अनुशंसा की जाती है। जैसे- अंत, पंथ, आनंद एवं गंधक।
  • पवर्ग- पवर्ग में म् का प्रयोग प, फ, ब, भ के पूर्व होता है। जैसे- सम्पर्क, गुम्फित, अम्बर, गम्भीर आदि। अब इनके स्थान पर भी ङ्, ञ्, ण् एवं न् की तरह ही प्रायः अनुस्वार (ं) का प्रयोग होता है। जैसे- संपर्क, गुंफित, अंबर एवं गंभीर।

संस्कृत साहित्य 

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आदि देव ने सृष्टि के आदि में ही मनुष्य को भाषा और धर्म साथ-साथप्रदान किये जिससे संस्कृति एवं साहित्य का विकास हुआ। संस्मरणीय है किसंस्कृति “शारीरिक या मानसिक शक्तियों का दृढ़ीकरण या विकास अथवा उससेउत्पन्न अवस्था” के रूप में जानी जाती है। वहीं साहित्य शब्द और अर्थ के मञ्जुलसामञ्जस्य का सूचक है। इसकी व्युत्पत्ति है “सहितयोः शब्दार्थयोः भावः साहित्यम्अर्थात् साहित्य शब्द अर्थ का भाव है। महाकवि भर्तिहरि ने संगीत और साहित्य सेविहीन पुरुष को जब पशु कहा है, तब उसका अभिप्राय ‘साहित्य’ के उन कोमलकाव्यों से है जिसमें शब्द और अर्थ का अनुरूप सन्निवेश है। शास्त्र व साहित्य काअन्तर यही है कि शास्त्र में अर्थ प्रतीति के लिए ही शब्द का प्रयोग किया गया है,परन्तु काव्य में शब्द और अर्थ दोनों एक ही कोटि के होते है। कोई न घटकर रहताहै न बढ़कर। इसी अर्थ को ध्यान में रखकर राजशेखर ने साहित्य विद्या कोपञ्चमी विद्या कहा है, जो प्रमुख विद्याओं में पुराण, न्याय दर्शन, मीमांशा औरधर्मशास्त्र का सारभूत है। विल्हण ने अपने विक्रमांकदेवचरितम् में काव्य रूपीअमृत को साहित्य समुद्र के मन्थन से उत्पन्न होने वाला बतलाया है। 4 साहित्यशब्द का प्रयोग संकुचित अर्थ में काव्य, नाटक आदि के लिए होता है। परन्तुसाहित्य शब्द का अर्थ व्यापक रूप में भी प्रयुक्त है। साहित्य से अभिप्राय उन ग्रन्थों से है जो किसी भाषा विशेष में निबद्ध किये गये हों। इस अर्थ में वाड्.मय का प्रयोग उचित माना गया है।

साहित्य ही संस्कृति के उचित प्रसार तथा प्रचार का सर्वश्रेष्ठ साधन है।जहाँ साहित्य सामाजिक भावना एवं सामाजिक विचार की विशुद्ध अभिव्यक्ति होनेके नाते समाज का मुकुट है, वहीं सांस्कृतिक आचार तथा विचार के विपुल प्रचारकतथा प्रसारक होने के कारण संस्कृति के सन्देश को जनता तक पहुँचाने के कारणसंस्कृति का वाहक भी है। जहाँ तक भारतीय संस्कृति के प्रधान वाहक का सवालहै तो वह है संस्कृत साहित्य है और यह संस्कृति साहित्य जिस भाषा में निबद्धकिया गया है वह भाषा या देववाणी या ‘सुरभारती’ है जिससे लोक व्यवहार चलताहै तथा मुख्य धर्म सनातन धर्म है जिसमें विश्वकर्मा इस संस्था को चलाने हेतु आचार-विचार एवं नियम उपनियम दिये थे। इसकी पुष्टि प्रसिद्धि पाश्चात्य ऐतिहासिकएवं दार्शनिक विलड्यूरा के शब्दों से होती है- भारत हमारा मातृदेश है। संस्कृत समस्त यूरोपीय भाषाओं की जननी । भारतभूमि हमारे दर्शन शास्त्र की जननी थी, अरबों के माध्यम से गणित शास्त्र की भी जननीरही है। बुद्धदेव के माध्यम से इसाई धर्म में व्याप्त शासन एवं प्रजातंत्र की जननी थी।अतः कहा जा सकता है भारत माता अनेक प्रकार से हम भारतीयों की माँ हैं।

संस्कृत गद्य की परम्परा

संस्कृत गद्य का दर्शन सर्वप्रथम वैदिक साहित्य में उपलब्ध होने से संस्कृत साहित्य में गद्य भाषा की परम्परा को वैदिक संहिताओं जितना प्राचीन कहा जा सकता है। वैदिक काल से आरम्भ कर मध्यकाल तक गद्य के विकसित होने का इतिहास बड़ा ही मनोरम है। संस्कृत गद्य साहित्य का विकास मुख्यतया दो भागों में विभक्त दृष्टिगोचर होता है-

(1) वैदिक साहित्य का गद्य।

वैदिक साहित्य का गद्य- वैदिक साहित्य में चार वैदिक संहिताओं- ऋग्वेद, यजुर्वेद, आयुर्वेदव और अथर्ववेद के अतिरिक्त इनमें ब्राह्मणों-ग्रन्थों, आरण्यकों, उपनिषदों और वेदागों को सम्मिलित किया जाता है। वेदांग छः है- शिक्षा, कल्प,व्यायकरण, निरूक्त, छन्द, ज्योतिष। इन सभ्ज्ञी से सम्बन्धित साहित्य वैदिकसाहित्य की सीमा में आ जाता है। ऐतिहासिक गवेषणाओं से प्रतीत होताहै कि वैदिक संहिताओं में ही गद्य का प्रथम विवेचन किया गया है। गद्य से मिश्रित होने के कारण ही कृष्णयजुर्वेद का कृष्णत्त्व है। प्राचीनतम गद्यका उदाहरण इसी कृष्ण यजुर्वेद की तैत्तिरीय संहिता में उपलब्ध होता है।इस संहिता में गद्य भाग पद्य की अपेक्षा मात्रा में कथमपि न्यून नही है। इस वेद की अन्य संहिताओं जैसे-काठक संहिता, मैत्रायणी संहितादि में भीगद्य की सत्ता उस मात्रा में है। शुक्ल यजुर्वेद में भी कुछ गद्यात्मक मंत्रहै जिन्हें ‘यंजूषि’ कहा गया है। कालक्रम में कुछ आगे चलकर अथर्ववेद का गद्य है जिसमें गद्यांश प्रचुर मात्रा में है। यहाँ गद्य सम्पूर्ण अथर्ववेदका लगभग छठा भाग है। अथर्ववेद के 15वें तथा 16वें काण्ड में गद्यांशपाये जाते है। संहिताओं के बाद गद्य का प्रचुर प्रयोग ब्राह्मण, आरण्यकतथा उपनिषद् ग्रन्थों में मिलता है। जिनका क्रमशः वर्णन अधोलिखित है।

(क) संहिता कालीन गद्य-वैदिक संहिताओं में गद्य का प्रयोग हुआ है। यह गद्य सहज, सरलएवं सरस है। इसमें प्रौढ़ता एवं समास बहुलता नहीं है।

(ख) ब्राह्मणकालीन गद्य- ब्राह्मण ग्रन्थों में रोचक, मनोरम एवं सरस गद्य का प्रयोग हुआ है। ब्राह्मण ग्रन्थों के अनुशीलन से तत्कालीन साहित्यिक एवं व्यावहारिक गद्य का अनुमान किया जा सकता है।

(ग) उपनिषद्कालीन गद्य-उपनिषद् ग्रन्थों का गद्य पूर्णतः सजीव एवं व्यावहारिक है। इसकीभाषा सरल, सरस एवं सुबोध है। लम्बे-लम्बे समस्त पदों का प्रयोग नहींहुआ है। यत्र-तत्र विषय को हृदयंगम कराने के लिए पुनरूक्ति के दर्शनहोते है। उपनिषद् कालीन गद्य व्यावहारिक गद्य के अधिक समीप है।

(घ) उपनिषद् उत्तरकालीन गद्य- इस काल में वैदिक और लौकिक संस्कृत के गद्य का सामञ्जस्यरहता है। यह दोनों गद्यों की सन्धि का काल है। उपनिषद् साहित्य केपश्चात् वेदांग साहित्य में जो गद्य प्राप्त होता है, उसमें समास शैली केदर्शन होने लगते है। यही से गद्य साहित्य में संक्षेपीकरण की प्रवृत्तिदिखाई देने लगती है। इस शैली का चरम विकास महर्षि पाणिनि प्रणीतअष्टाध्यायी के सूत्रों में प्राप्त होता है। महर्षि पाणिनि ने सूत्र शैली कोअपनाकर गागर में सागर भरने की उक्ति को चरितार्थ कर दिया है।यास्क का निरूक्त भारतीय दर्शन और सम्पूर्ण वेदांग साहित्य में इस शैलीके दर्शन होते है। इस शैली ने शनैः शनैः जिस संस्कृत गद्य का प्रवर्तनकिया, उसे परिष्कृत और अलंकृत गद्य कहा जा सकता है। इस काल केगद्य को अध्ययन की सुविधा के लिए हम तीन भागों में विभक्त करसकते हैं-1. पौराणिक गद्य 2. शास्त्रीय गद्य 3. साहित्यिक गद्य

(2) लौकिक साहित्य का गद्य।

कौटिल्य का अर्थशास्त्र, वात्स्यायन का कामसूत्र, भरत का नाट्यशास्त्र आदि संस्कृत के कुछ ऐसे अमूल्य ग्रंथरत्न हैं – जिनका समस्त संसार के प्राचीन वाङ्मय में स्थान है। वैदिक वाङ्मय के अनंतर सांस्कृतिक दृष्टि से वाल्मीकि के रामायण और व्यास के महाभारत की भारत में सर्वोच्च प्रतिष्ठा मानी गई है। महाभारत का आज उपलब्ध स्वरूप एक लाख पद्यों का है। प्राचीन भारत की पौराणिक गाथाओं, समाजशास्त्रीय मान्यताओं, दार्शनिक आध्यात्मिक दृष्टियों, मिथकों, भारतीय ऐतिहासिक जीवनचित्रों आदि के साथ-साथ पौराणिक इतिहास, भूगोल और परंपरा का महाभारत महाकोश है। वाल्मीकि रामायण आद्य लौकिक महाकाव्य है। उसकी गणना आज भी विश्व के उच्चतम काव्यों में की जाती है। इनके अतिरिक्त अष्टादश पुराणों और उपपुराणादिकों का महाविशाल वाङ्मय है जिनमें पौराणिक या मिथकीय पद्धति से केवल आर्यों का ही नहीं, भारत की समस्त जनता और जातियों का सांस्कृति इतिहास अनुबद्ध है। इन पुराणकार मनीषियों ने भारत और भारत के बाहर से आयात सांस्कृति एवं आध्यात्मिक ऐक्य की प्रतिष्ठा का सहस्राब्दियों तक सफल प्रयास करते हुए भारतीय सांस्कृति को एकसूत्रता में आबद्ध किया है।

संस्कृत के लोकसाहित्य के आदिकवि वाल्मीकि के बाद गद्य-पद्य के लाखों श्रव्यकाव्यों और दृश्यकाव्यरूप नाटकों की रचना होती चली जिनमें अधिकांश लुप्त या नष्ट हो गए। पर जो स्वल्पांश आज उपलब्ध है, सारा विश्व उसका महत्व स्वीकार करता है। कवि कालिदास के अभिज्ञानशाकुन्तलम् नाटक को विश्व के सर्वश्रेष्ठ नाटकों में स्थान प्राप्त है। अश्वघोष, भास, भवभूति, बाणभट्ट, भारवि, माघ, श्रीहर्ष, शूद्रक, विशाखदत्त आदि कवि और नाटककारों को अपने अपने क्षेत्रों में अत्यंत उच्च स्थान प्राप्त है। सर्जनात्मक नाटकों के विचार से भी भारत का नाटक साहित्य अत्यंत संपन्न और महत्वशाली है। साहित्यशास्त्रीय समालोचन पद्धति के विचार से नाट्यशास्त्र और साहित्यशास्त्र के अत्यंत प्रौढ़, विवेचनपूर्ण और मौलिक प्रचुरसख्यक कृतियों का संस्कृत में निर्माण हुआ है। सिद्धांत की दृष्टि से रसवाद और ध्वनिवाद के विचारों को मौलिक और अत्यंत व्यापक चिंतन माना जाता है। स्तोत्र, नीति और सुभाषित के भी अनेक उच्च कोटि के ग्रंथ हैं। इनके अतिरिक्त शिल्प, कला, संगीत, नृत्य आदि उन सभी विषयों के प्रौढ़ ग्रंथ संस्कृत भाषा के माध्यम से निर्मित हुए हैं जिनका किसी भी प्रकार से आदिमध्यकालीन भारतीय जीवन में किसी पक्ष के साथ संबंध रहा है। ऐसा समझा जाता है कि द्यूतविद्या, चौर विद्या आदि जैसे विषयों पर ग्रंथ बनाना भी संस्कृत पंडितों ने नहीं छोड़ा था। एक बात और थी। भारतीय लोकजीवन में संस्कृत की ऐसी शास्त्रीय प्रतिष्ठा रही है कि ग्रंथों की मान्यता के लिए संस्कृत में रचना को आवश्यक माना जाता था। इसी कारण बौद्धों और जैनों, के दर्शन, धर्मसिद्धान्त, पुराणगाथा आदि नाना पक्षों के हजारों ग्रंथों को पालि या प्राकृत में ही नहीं संस्कृत में सप्रयास रचना हुई है। संस्कृत विद्या की न जाने कितनी महत्वपूर्ण शाखाओं का यहाँ उल्लख भी अल्पस्थानता के कारण नहीं किया जा सकता है। परंतु निष्कर्ष रूप से पूर्ण विश्वास के साथ कहा जा सकता है कि भारत की प्राचीन संस्कृत भाषा-अत्यंत समर्थ, संपन्न और ऐतिहासिक महत्व की भाषा है। इस प्राचीन वाणी का वाङ्मय भी अत्यंत व्यापक, सर्वतोमुखी, मानवतावादी तथा परमसंपन्न रहा है। विश्व की भाषा और साहित्य में संस्कृत भाषा और साहित्य का स्थान अत्यंत महत्वशाली है। समस्त विश्व के प्रच्यविद्याप्रेमियों ने संस्कृत को जो प्रतिष्ठा और उच्चासन दिया है, उसके लिए भारत के संस्कृतप्रेमी सदा कृतज्ञ बने रहेंगे।

संस्कृत साहित्य में नाटकों की परम्परा

भारत में संस्कृत नाटक की उत्पत्ति कब और कैसे हुई यहअत्यन्त जटिल एवं विवादास्पद प्रश्न है। नाटक उत्पत्ति के विषय में भारत मेंकुछ कथाएं परम्परा से चली आई हैं। इस विषय में सर्वाधिक प्राचीन कथा हमें भरतमुनि के नाट्यशास्त्र के प्रथम अध्याय में उपलब्ध होती है। इस अध्याय कानाम ही “नाट्योत्पत्ति” है। भारतीय परम्परा अनुसार ब्रह्मा जी ने नाट्येवद कीरचना की तथा भरतमुनि ने पृथ्वी मण्डल में उसका प्रचार किया।

नाटक के प्रधान अङ्ग संवाद, संगीत, नृत्य एवंअभिनय है। वैदिक साहित्य का अनुशीलन करने से ज्ञात होता है कि वैदिक कालमें इन सभी अङ्गों का किसी न किसी रूप में अस्तित्व था तथा इस अर्थ में यहकहा जा सकता है कि संस्कृत नाटक की उत्पत्ति वैदिक काल में हुई। परवास्तविक नाटक के विकसित रूप का आभास वेद में कहीं लक्षित नहीं होता है। जबकि रामायण-महाभारत में इसे अग्रसर होता हुआ देखा जा सकता है। अधिकतर पुराणों में भी नाटकों का उल्लेख है। बौद्ध साहित्य में भी नाटक कीप्राचीनता सिद्ध होती है। जातक साहित्य में भी नटों के अभिनय का उल्लेख प्राप्तहोता है।’ इस प्रकार परम्परा अनुसार नाट्यवेद की सृष्टि ब्रह्म ने की थी।

प्राचीन संस्कृत नाटकों में हमारे देश की दार्शनिकता एवं भाव गाम्भीर्य की अलौकिक झलक दृष्टिगोचर होती है। हमारा धार्मिक जीवन इस कथन का ज्वलन्त व प्रत्यक्ष प्रमाण है। हमारे समस्त धार्मिक कृत्य इसी भाषा में सम्पन्न होते हैं। संस्कृत के इस लोकायायी प्रचार का एक महान कारण इसके साहित्य में नाटकों की सुमनोहरता एवं रोचकता है।

प्राचीनकालीन नाटक

  • संस्कृत रूपक के साहित्यिक विन्यास का समारम्भ प्रथम शती ईस्वी से वर्तमान काल तक निरन्तर होता आ रहा है। इस रूप में साहित्य शब्द से अश्वघोष, कालिदास, भवभूति आदि रचनाकारों की ऐसी कृतियाँ, जो रसानन्द के साथ-साथ मानव को उचित-अनुचित का विवेक कराकर प्रेय एवं श्रेय मार्ग की ओर प्रेरित करें, उन्हें साहित्य कहा जा सकता है।
  • संस्कृत साहित्य के प्राचीन नाटकों में “शारीपुत्र प्रकरण” संस्कृत का प्रथम प्राप्य रूपक है किन्तु इसके पूर्व अनेक अनगिनत रूपकों की परम्परा विराजमान थी।
  • धार्मिक नाट्य दृश्यों से सबद्ध रूपक सर्वप्रथम पुस्तक रूप में प्रथम शताब्दी ई.पू. में अश्वघोष के लिखे हुये मिलते हैं। अश्वघोष प्रथम संस्कृत नाटककार माने जाते हैं। “शारिपुत्र प्रकरण” उन्हीं द्वारा रचित रूपक है। इसके अतिरिक्त उनके द्वारा लिखे दो अन्य नाटकों केखण्डित अंश भी मिले हैं।
  • दो खण्डित नाटकों में से एक “प्रबोधचन्द्रोदय” के समान रूपात्मक है। जिसमें बुद्धि, घृति, कीर्ति एवं बुद्ध पात्रों के रूप में चित्रित किये गये हैं तथा द्वितीय ‘मृच्छकटिक’ की भान्ति वैश्यानायिकात्मक नाटक है। “शारिपुत्र प्रकरण” नौ अंकों में समाप्त हुआ है।
  • महाकवि भास प्रथम शती ईस्वी के अश्वघोष के पश्चात् हैं। उनके द्वारा रचित अभी तक तेरह रूपक मिले हैं, इनके नाम इस प्रकार हैं – दूतवाक्य, कर्णभार, दूतघटोत्कच, ऊरुभङ्ग, मध्यमव्यायोग, पंचरात्र, अभिषेक, बालचरित, अविमारक, प्रतिमा, प्रतिज्ञायौगन्धरायण, स्वप्नवासदतम् तथा चारुदत्त।

संस्कृत साहित्य का सर्वोत्कृष्ट नाटक “अभिज्ञानशाकुन्तलम”

  • भास के पश्चात कालिदास का अवतरण हुआ। महाकवि कालिदास संस्कृत के सर्वोत्कृष्ट नाटककार माने जाते हैं उनका स्थितिकाल प्रथम शताब्दी ई. पू. माना गया है। उनके लिखे तीन नाटक कहे गये हैं – “मालिविकाग्निममित्र”, “विक्रमोर्वशीयम्” तथा “अभिज्ञानशाकुन्तलम”।
  • भारतीय नाट्यसाहित्य का पूर्ण परिपाक हमें सर्वप्रथम कालिदास की कृतियों में ही मिलता है। रचनाक्रम के अनुसार “मालविकाग्निमित्र” कालिदास का प्रथम नाटक है। प्रथम नाटक होते हुये भी यह कालिदास की नाट्यकला के विकासशील स्वरूप को प्रस्तुत करता है। कालिदास का द्वितीय नाटक ‘विक्रमोर्वशीयम्” है तथा तृतीय नाटक “अभिज्ञानशाकुन्तलम्” है जो कालिदास का ही नहीं वरन् समग्र संस्कृत साहित्य का सर्वोत्कृष्ट नाटक है।

संस्कृत के मुस्लिम विद्वान

अलबरूनी- भारत आने वाले प्रमुख अरब यात्रियों में अलबरूनी उर्फ अबूरेहान भी था। यह महमूद गजनबी के साथ भारत आया था। यहाँ रहते हुए इसने खगोल विद्या, संस्कृत तथा रसायन शास्र आदि विषयों का विस्तृत विवरण किया।

  • अलबरूनी प्रथम मुसलमान था जिसने संस्कृत पढ़ा। अलबरूनी ने पुराणों का अध्ययन किया और लाभ उठाया। गहन अध्ययन करके उसने पुराणों की विवेचना भी की थी, उसने मत्स्य, आदित्य, विष्णु और वायु पुराण का अध्ययन किया। चूंकि उसका भारतीय ज्ञान सर्वोत्कृष्ट प्रकार का था और वह भारतीय विद्याओं में पारंगत हो चुका था, इसलिए वह अपने पूर्ववर्ती और परवर्ती मुसलमान लेखकों की तुलना में सुदृढ़ साहित्य उपलब्ध करवाता है।
  • अलबरूनी ने ज्योतिष के अनेक संस्कृत ग्रन्थों का अरबी अनुवाद किया।‘किताब-उल-हिन्द’ (तहकीक-ए-हिन्द) उसकी प्रसिद्ध रचना है। उसने संस्कृत रचनाओं का उपयोग किया जिसमें ब्रह्मगुप्त, बलभद्र तथा वाराहमिहिर की रचनाए विशेष रुप से उल्लेखनीय हैं। उसने जगह-जगह भगवद्गीता, विष्णु पुराण तथा वायु पुराण को उद्धत किया है।

गेसू दराज- सूफी सन्त गेसू दराज का जन्म 1321ई. को दिल्ली में हुआ था। गेसू दराज़ दिल्ली के प्रसिद्ध सूफ़ी संत हजरत नसीरुद्दीन चिराग़ देहलवी के एक मुरीद या शिष्य थे। इनको अरबी, फ़ारसी तथा संस्कृत का अच्छा ज्ञान था। वैसे वे उर्दू भाषा के प्रारंभिक कवियों और लेखकों में से एक थे। लेकिन इनके मूल में संस्कृत वाक्य विन्यास तथा उनके स्त्रोतों से लिए गए शब्द थे।

अकबरशाह- आंध्र प्रदेश के सूफी सन्त (संस्कृत विद्वान) गेसूदराज के वंशज थे | इन्होंने संस्कृत में नायिका भेद पर ‘श्रृंगारमञ्जरी’ नामक ग्रन्थ लिखा | इन्हें बड़े साहब के नाम से भी जाना जाता है |

अब्दुलर्रहीम खानखाना- रहीम का पूरा नाम अब्दुल रहीम (अब्दुर्रहीम) ख़ानख़ाना था। ‘खानखाना’ रहीम की उपाधि थी जिसे अकबर ने प्रदान किया था। रहीम अकबर के नवरत्नों में से एक थे। वे एक बहुभाषाविद्‌ थे और हिन्दी, तुर्की, फ़ारसी, संस्कृत, अवधी, ब्रजभाषा, खड़ी बोली इत्यादि पर उन्हें दक्षता प्राप्त थी।  अब्दुर्रहीम खानखाना ने अरबी, फ़ारसी के साथ ब्रज तथा संस्कृत में रचना की।

जैनुल अबादीन कश्मीर में सुल्तान जैनुल आबदीन (१४वीं सदी) जैसे अनेक संस्कृत प्रेमी शासक हुए हैं। सकी प्रेरणा से महाभारत एवं राजतरंगिणी का संस्कृत से फारसी में तथा कई अरबी और फारसी पुस्तकों का हिन्दी भाषा में अनुवाद हुआ। इस प्रकार, इन सभी गुणों के लिए, यथार्थ ही उसका कश्मीर के अकबर के रूप में वर्णन किया गया है, यद्यपि वह उससे (अकबर से) व्यक्तिगत चरित्र के कुछ लक्षणों में भिन्न था।

इब्राहिम आदिलशाह- बीजापुर के सुल्तान इब्राहिम आदिलशाह द्वितीय (1500 -1627 ई.) ने फारसी भाषा में ‘किताब-ए-नवरस’ नामक ग्रन्थ लिखा जिसमें संस्कृत के शब्दों का प्रयोग है।  यह संगीत और कला पर लिखित ग्रन्थ है।  

हाजी इब्राहिम सरहिन्दी अ अकबर के ही शासनकाल में हाजी इब्राहिम ने शेख़भवन की सहायता सेअथर्व वेद. का फ़ारसी में अनुवाद ‘अथरबन’ नामक शीर्षक से किया।

फैजी (शेख अबु अल-फ़ैज़)- मध्यकालीन भारत का फारसी कवि थे। फैजी ने भगवतगीता का फ़ारसी भाषा में अनुवाद — राजे-ए-मगफिरत ‘ नाम से किया ।’ अकबर के आदेशनुसार फैजी ने बीजगणित के संस्कृतग्रंथ लीलावती का फ़ारसी अनुवाद किया ।

बदायूँनी- अब्दुल कादिर बदायूँनी ने सन् 1590 ई0 में रामायण का फ़ारसीभाषा में अनुवादकिया। नाकिब ख़ान और थानेश्वर के शेखसुलतान ने भी रामायण का फ़ारसी अनुवाद किया। महाभारतका भी फ़ारसी अनुवाद बदायूँनी और शेखसुलतान ने फ़ज़ी की सहायता से किया। इसकी प्रति इण्डियाआफिस लाइब्रेरी में सुरक्षित है।

मिर्ज़ा फरीकुल्लाह सैफ़ खान  औरंगजेब के ही शासनकाल में मिर्ज़ा फरीकुल्लाह सैफ़ खान ने ‘रागदर्पण’ और ‘रागसागर’ नामक संगीत ग्रन्थ का फ़ारसी में अनुवाद किया।

दाराशिकोह  दाराशिकोह मुगल बादशाहों में सबसे काबिल और विद्वान शहजादा था। वह शहंशाह शाहजहां का सबसे बड़ा बेटा था।  दाराशिकोह एक विशुद्ध साहित्यकार था। वह संस्कृत, फारसी, लातीनी, सुरियानी, अरबी भाषाओं का ज्ञाता और लेखक था। दाराशिकोह ने रामायण, महाभारत, उपनिषदों का संस्कृत से फारसी में अनुवाद किया था।  दाराशिकोह ने काशी के विद्वान पंडितराज जगन्नाथ से उसने संस्कृत सीखी। शाहजहाँ ने अपने पुत्र दाराशिकोह को संस्कृत की शिक्षा देने के लिये अपने दरबार में उन्हें सम्मानित स्थान दिया था। पंडितराज जगन्नाथ दाराशिकोह के गुरु भी थे, उन्होंने दारा को संस्कृत की शिक्षा के साथ-साथ उनका मार्गदर्शन भी किया था। 1657 में जब दाराशिकोह ने 52 उपनिषदों का फ़ारसी में अनुवाद किया था, तब पंडितराज उसके मार्गदर्शक थे। दारा शिकोह ने उपनिषदों का अध्ययन किया और उनका फारसी भाषा में‘सिर्र-ए-अकबर’ नाम से अनुवाद कराया जिसका अर्थ होता है ईश्वरीय शब्द।  दाराशिकोह ने 1654 ई. में फ़ारसी में एक किताब लिखी थी-‘मज्म-उल-बहरैन’। उसी किताब का 1655 में‘समुद्र संगम’ नाम से संस्कृत में दाराशिकोह ने अनुवाद किया था। इस पुस्तक में भारतीय दर्शन और इस्लाम के दर्शन को समुद्र मानते हुए दोनों के बीच एकता की खोज और व्याख्या है।

आधुनिक युग के संस्कृत विद्वान- मुस्लिम

वाराणसी की नाहिद आबिदी- संस्कृत की विद्वान नाहिद आबिदी मूल रूप से उत्तर प्रदेश के मिर्जापुर जिले की रहने वाली हैं और भाषा के लिए उनके काम के मद्देनजर उन्हें पद्मश्री पुरस्कार से भी सम्मानित किया गया है. मिर्जापुर के केवी डिग्री कॉलेज से संस्कृत में पोस्ट ग्रेजुएशन करने के बाद नाहिद आबिदी ने महात्मा गांधी काशी विद्यापीठ से पीएचडी की डिग्री हासिल की. 2005 में बनारस हिंदू विश्वविद्यालय में शिक्षक के रूप में पढ़ाया. नाहिद की पहली किताब 2008 में आई थी और इस किताब का नाम था’संस्कृत साहित्य में रहीम’. इसके बाद देवालयस्य दीपा नाम की किताब आई जो गालिब की किताब चिराग-ए-दयार का ट्रांसलेशन थी. साल 2014 में पद्मश्री से सम्मानित किया गया था. इसके अलावा उन्हें डीलिट की उपाधि भी मिली है. 2016 में उत्तर प्रदेश सरकार ने उन्हें यश भारती पुरस्कार से सम्मानित किया था.

प्रयागराज के हयात उल्ला- इलाहाबाद, जो अब प्रयागराज के नाम से जाना जाता हैके पेशे से अध्यापक हयात उल्ला को संस्कृत भाषा का संपूर्ण ज्ञान है. साल 1967 में उन्हें संस्कृत भाषा पर पकड़ की वजह से चतुर्वेदी की उपाधि मिली थी. हयात उल्ला इलाहाबाद के शेरवानी इंटर कॉलेज में पढ़ाते थे और वहां से रिटायर होने के बाद भी बच्चों को संस्कृत की शिक्षा पूरे मनोयोग से देते रहे हैं. 2003 में जब वह स्कूल से रिटायर हो गए। रिटायर होने के बाद अब हयात उल्ला मेहगांव इंटर कॉलेज में नि:शुल्क हिंदी और संस्कृत पढ़ा रहे हैं। 1967 में आयोजित एक राष्ट्रीय सम्मेलन में संस्कृत के देश भर के विद्वान इलाहाबाद में जमा हुए थे। हयात उल्ला के संस्कृत ज्ञान और वेदों की प्रति प्रेम से प्रभावित होकर उन्हें उस सम्मेलन में चतुर्वेदी की उपाधि दी गई थी। हयात उल्ला के बारे में मशहूर है कि वो उनके अध्यापन का तरीका दूसरे शिक्षकों से अलग है. वो संस्कृत समझाने के लिए अन्य भाषाओं को प्रयोग करते हैं.

मेरठ के मौलाना चतुर्वेदी- उत्तर प्रदेश के ही मेरठ जिले के एक और मौलाना हैं, जिन्हें’चतुर्वेदी’ के नाम से जाना जाता है. इनका नाम है शाहीन जमाली. जमाली के मुताबिक उन्होंने संस्कृत का अध्य्यन अपनी इच्छा के कारण किया. बाद में उन्होंने कई हिंदू धार्मिक पुस्तकें पढ़ीं. उनके बारे में कहा जाता है कि उनकी चारों वेदों पर समान रूप से पकड़ है.

मुंबई के पंडित गुलाम दस्तगीर- संस्कृत भाषा से कुछ ऐसा ही प्रेम मुंबई के पंडित गुलाम दस्तगीर को भी है. मुंबई के वरली इलाके में घूमते हुए अगर कभी आपको’अस्सलामु-अलेकुम गुरुजी’ सुनने को मिल जाए तो आश्चर्य न कीजिएगा. पंडित दस्तगीर बीते कई दशक से संस्कृत भाषा की सेवा में लगे हुए हैं. महाराष्ट्र के सोलापुर जिले में पैदा हुए पंडित दस्तगीर ने लंबे समय तक मुंबई के वरली हाई स्कूल में संस्कृत की शिक्षा दी.

मोहम्मद हनीफ़ ख़ान शास्त्री- एक भारतीय संस्कृत विद्वान हैं। साल 2009 में इन्हें व्यक्तिगत श्रेणी में राष्ट्रीय सांप्रदायिक सद्भावना पुरस्कार से सम्मानित किया गया था। वे राष्ट्रीय संस्कृत संस्थान के प्रोफ़ेसर रहे थे। भारत सरकार ने उन्हें 2019 में चौथे सर्वोच्च नागरिक पुरस्कार पद्म श्री (साहित्य और शिक्षा) से सम्मानित किया।

प्रोफेसर असहाब अली- गोरखपुर के पंडित दीन दयाल उपाध्याय विश्वविद्यालय, गोरखपुर में 32 सालों से अधिक समय तक संस्कृत पढ़ाने वाले और संस्कृत विभाग के एचओडी रह चुके प्रोफेसर असहाब अली

इंसान के मस्तिष्क पर संस्कृत का प्रभाव

इंसान के मस्तिष्क पर संस्कृत के प्रभाव को लेकर न्यूरोसाइंटिस्ट व्याख्या करते हैं- एमआरआई स्कैन बताता है कि प्राचीन मंत्रों को याद करने से संज्ञानात्मक कार्य से जुड़े मस्तिष्क के कुछ हिस्सों का आकार बढ़ जाता है-

https://blogs.scientificamerican.com/observations/a-neuroscientist-explores-the-sanskrit-effect/

यूनाइटेड नेशन्स से भी पहचाना है संस्कृत के वैज्ञानिक आधार कोसंस्कृत के महत्व और उसके वैज्ञानिक आधार को देखते हुए यूनेस्को ने इंटैजिबल कल्चरल हैरिटेज ऑफ ह्यूमैनिटी की लिस्ट में संस्कृत में वैदिक चैंटिंग (जाप) को शामिल करने का निर्णय लिया है.

UNESCO ने यह माना है कि संस्कृत भाषा में वेदिक चैंटिंग का मनुष्य के मन-मस्तिष्क, शरीर और आत्मा पर गहन प्रभाव होता हैhttps://ich.unesco.org/en/RL/tradition-of-vedic-chanting-00062

जब आप संस्कृत में मंत्रोच्चार करते हैं, तो उसका आपके स्वास्थ्य पर काफ़ी गहरा प्रभाव पड़ता है, क्योंकि उन अक्षरों के वायब्रेशन यानी कंपन से आपके चक्र जागृत होते हैं और आप ऊर्जावान महसूस करते हैं।

संस्कृत वैदिक काल में महान चिंतकों और संन्यासियों व ऋषि-मुनियों द्वारा इस्तेमाल की जाती थी. संस्कृत में ऐसे बहुत-से शब्द हैं, जो आपकी मानसिक चेतना को दर्शाते हैं।

हमें जो सबसे महत्वपूर्ण शब्द मिला है वो है ॐ, जो अस्तित्व की आवाज़ है, आंतरिक चेतना है और यह दरअसल ब्रह्मांड की आवाज है।

हर मनुष्य के मूल में जो चेतना है, वह है आत्मा. यह आत्मा ब्रह्मांड से अलग नहीं है. इस तरह से संस्कृत के जरिए आप ख़ुद को, अपने ब्रह्मांड को पहचान सकते हैं।

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भारतीय संस्कृति का आधार… वेद, पुराण और उपनिषद्

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  • वेद वैदिक संस्कृति एवं भारतीय संस्कृति के मूलाधार है। वेद ज्ञान, विज्ञान और धर्म का अनूठा संगम है।
  • वेद प्राचीन भारत के पवितत्रतम साहित्य हैं, जो हिन्दुओं के प्राचीनतम और आधारभूत धर्मग्रन्थ भी हैं।
  • भारतीय संस्कृति में वेद सनातन धर्म के मूल आधार और सबसे प्राचीन धर्म ग्रन्थ हैं।
  • वेदों को दुनिया के प्रथम धर्मग्रंथ भी कहा जाता है, वेदों की रचना का काल अलग-अलग है।
  • अन्य धर्म वेदों के ज्ञान को अपने-अपने तरीके से भिन्न-भिन्न भाषा में प्रचारित करते रहे हैं।
  • वेदों की रचना के विषय में विद्वानों और इतिहासकारों द्वारा दो विचार रखे गए हैं।
  • पहला, वेद ईश्वर के द्वारा रचे गए ग्रंथ हैं। दूसरा वेद ऋषियों द्वारा रचे गए धर्म ग्रंथ हैं।
  • हिंदू धर्म के अनुसार वेद को अपौषेय एवं अनादि हैं माना गया है।
  • वेद ईश्वर द्वारा ऋषियों को सुनाए गए ज्ञान पर आधारित बताया गया है।
  • इसी कारण वेदों को ‘श्रुति’ भी कहा गया है। सामान्य भाषा में वेद का अर्थ होता है ज्ञान।
  • वेद पुरातन ज्ञान विज्ञान का अथाह भंडार है। वेदों में मानव की हर समस्या का समाधान है।

वेदों में ब्रह्म (ईश्वर), देवता, ब्रह्मांड, ज्योतिष, गणित, रसायन, औषधि, प्रकृति, खगोल, भूगोल, धार्मिक नियम, इतिहास, रीति-रिवाज आदि लगभग सभी विषयों से संबंधित ज्ञान भरा पड़ा है।

वेद किसी भी प्रकार के ऊँच-नीच, जात-पात, महिला-पुरुष आदि के भेद को नहीं मानते- ऋग्वेद की ऋचाओं में लगभग 414 ऋषियों के नाम मिलते हैं जिनमें से लगभग 30 नाम महिला ऋषियों के हैं।

श्रीमद्‍भगवत गीता के श्लोक में कहा गया है-

श्रुतिस्मृतिपुराणानां विरोधो यत्र दृश्यते।

तत्र श्रौतं प्रमाणन्तु तयोद्वैधे स्मृति‌र्त्वरा॥

अर्थात -जहाँ कहीं भी वेदों और दूसरे ग्रंथों में विरोध दिखता हो, वहाँ वेद की बात की मान्य होगी।

कृष्ण यजुर्वेद, तैत्तिरीय सहिंता (उपोद्घात)-

प्रत्यक्षेणानुमित्या वा यस्तूपायो न बुध्यते !

एनं विदंति वेदेन तस्माद वेदस्य वेदता !! 

अर्थात –प्रत्यक्ष अथवा अनुमाण प्रमाण से जिस तत्व (विषय) का ज्ञान प्राप्त नहीं हो रहा हो, उसका ज्ञान भी वेदों के द्वारा हो जाता है । यही वेदों का वेदत्व है ।

वेदों के बारे में भारतीय विद्वानों ने कहा-

  • महर्षि पाणिनि- ने वेद शब्द को दो प्रकार का माना है। 1) रूढ आधुदात 2) योगरूढ अन्तोदात। अच्छादि’ गण में वेद शब्द पाठ का प्रयोजन अन्तोदात और वृषादि गण में इसके पाठ का प्रयोजन आधुदात सिद्ध है।
  • महर्षि दयानन्द सरस्वती– ऋग्वेदादि भाष्य भूमिका में वेद शब्द की व्याख्या या व्युत्पत्ति इस प्रकार की है। जानते है, प्राप्त करते है, विचार करते है, सब मनुष्य सब सत्य विद्याओं को जिनसेअथवा जिनमें, और वैसे विद्वान होते है, उनका नाम वेद है।
  • महर्षि पतञ्जलि- ने कहा ब्राह्मणेन निष्कारणो धर्मः षडङ्गे वेदोडध्येयो जयश्च। अर्थात- ब्राह्मण का धर्म है कि वह बिना किसी प्रयोजन के छःअङ्गो सहित वेदों का अध्ययनकरे और उनका ज्ञान प्राप्त करे ।
  • महर्षि अरविंद- की दृष्टि में वेद का अर्थ योग तथा तपस्या के द्वारा विद्युत तथा पवित्रितहृदयमें स्फूरित होता है। वैदिक मन्त्रों के शब्द किसी आध्यात्मिक तत्त्व के प्रतीक है।

वेदों का सामान्य परिचय- वेद चार हैं ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद, अथर्ववेद। पहले तीन परस्पर लगभग एक समान हैं इनमे से ऋग्वेद प्रधान है। इसमें द्विव्य स्तुतियों का संग्रह किया गया है।

  • सामवेद विशुद्ध कर्मकाण्ड सम्बन्धी संग्रह है। इसका बहुत सा भाग ऋग्वेदमें पाया जाता है। यजुर्वेद की उपयोगिता भी कर्मकाण्ड के लिए है।
  • वेद शब्द ज्ञानार्थक विद् धातु (विद ज्ञाने) से घञ् प्रत्यय करने परबनता हैं इसका आशय है-ज्ञान। अतः वेद शब्द का अर्थ होता है-ज्ञान कीराशि या ज्ञान का संग्रह-ग्रन्थ।
  • प्राचीन ऋषियों ने जो ज्ञान अपनी आर्ष दृष्टि से प्राप्त किया था, उसका संग्रह वेदों में है। वेद परम-प्रमाण अर्थात् आगम या शब्द-प्रमाण में उत्कृष्ट हैं।
  • मीमांसकों ने कहा है कि प्रत्यक्ष और अनुमान से हमजिस उपाय या ज्ञान को नहीं पा सकते उसे वेद बता सकते हैं अर्थात् वेद ज्ञान के समस्त उपायों में श्रेष्ठ हैं।

वेदों की उत्पत्ति- वेद अपौरूषेय हैं, वेदों का रचयिता कोई व्यक्ति विशेष या ऋषि नहीं है। सृष्टि के आदि में परमात्मा ने जिस प्रकार लोकानुग्रह के लिए सूर्य, चन्द्र, जल, वायु आदि दिए हैं। उसी प्रकार मानवमात्र के मार्गदर्शनार्थ वेदों का ज्ञानपरमसिद्ध ऋषियों को दिया। उन्होंने उस ज्ञान का प्रसार किया। ऋग्वेद,यजुर्वेद, शतपथ ब्राह्मण, बृहदारण्यक उपनिषद् आदि में वर्णन प्राप्त होता है कि चारों वेद उस परमात्मा से ही प्राप्त हुए हैं। अथर्ववेद का कथन है कि चारों वेद विश्व के आधारभूत ईश्वर से प्रार्दुभूत हुए।’ शतपथ ब्राह्मण और वृहदारण्यक उपनिषद् का कथन है कि ये चारों वेद उस ब्रह्म के श्वास-रूप हैं। श्वेताश्वेतर उपनिषद् का कथन है कि सृष्टि के प्रारम्भ में ब्रह्म उत्पन्न हुएऔर परमात्मा ने उनके लिए वेदों का ज्ञान प्रकट किया।

पहला विचार- वेद अनादि और अनन्त हैं- महर्षि दयानन्द जी ऋग्वेदादि भाष्य भूमिका में लिखते हैं –विदन्ति विचारयन्तिसर्वे मनुष्याः सर्वा: सत्यविद्याथैर्येषु वा विद्वांसश्च भविन्त ते वेदाः। वेद सृष्टि का प्रथम काव्य है। भारतीय परम्परा में न केवल प्रथम काव्य अपितु अनादि और अनन्त काव्य भी है। इस महान् काव्य का रचयिता होने के कारण परमात्मा को कवि भी कहा जाता है।’ वेदों के विषय में यहाँ पर ज्यादा लिखना उचित नहीं होगा क्योंकि वेद सर्वविदित है।v1.jpg

दूसरा विचार- वेद ऋषिमुनियों और ब्राह्मणपुरोहितों की रचना हैं-v2.jpg

वैदिक काल-

  • जर्मन विद्वान डॉ. जैकोबी- का वैदिक काल विषयक सिद्धान्त भी ज्योतिष केआधार पर आधारित है जो तिलक के सिद्धान्त से काफी मेल खाता है। डॉ० जैकोबी नेकृतिका तथा बसन्तसम्पात के आधार पर बताया है कि – बसन्त, ग्रीष्म, वर्षा, शरद्,हेमन्त, शिशिर कुल छः ऋतुएँ होती हैं। प्राचीन काल से लेकर आज तक जिस नक्षत्र केसाथ जिस ऋतु का उदय होता था, आज वही ऋतु, उस नक्षत्र के पूर्ववर्ती नक्षत्र के साथसमय आकर उपस्थित होता है। प्राचीनकाल में बसन्त से वर्ष का प्रारम्भ माना जाता था,जबकि आजकल वर्ष ‘वसन्तसम्पात’ मीन की संक्रान्ति से प्रारम्भ होता है और यह संक्रान्तिपूर्वाभाद्रपद नक्षत्र के चतुर्थ चरण से प्रारम्भ होती है। इसी आधार पर जैकोबी ने वेद मन्त्रोंका रचना काल 4590 ई० पू० तथा ब्राह्मण ग्रन्थों का रचनाकाल 2300 ई० पू० के बादमें स्वीकार किया है।
  • बाल गंगाधर तिलक ने इस विषय में जैसा परिश्रम किया है, वैसा सम्भवतया किसी विद्वान ने नहीं किया।उनका कथन है कि ब्राह्मण काल में नक्षत्र गणना “कृतिका नक्षत्र से होती थी। उन्हेंउसका ऐसा वर्णन मिलता है, जबकि कृति का नक्षत्र उदित था और वासन्त संक्रान्ति भीथी ग्रहों की गणना के आधार पर उन्होंने निष्कर्ष निकाला है कि उक्त वासन्त संक्रान्तिकृतिका नक्षत्र से 2500 ई० पू० हुई । अतः लगभग 2500 ई० पू० ही ब्राह्मणों का रचनाकाल सिद्ध होता है।
  • प्रो. मैक्समूलर ने सम्पूर्ण वैदिक साहित्य को चारभागों में विभक्त किया है उन भागों के नाम निम्न प्रकार से हैं- छन्दकाल, मन्त्रकाल, ब्राह्मणकाल और सूत्रकाल । उन्होंने प्रत्येक युग केविकास के लिए दो-दो सौ वर्ष का समय दिया है। बुद्ध से प्रथम होने के कारण सूत्रकाल600 विक्रम पूर्व, ब्राह्मणकाल 600 से 800 वि० पू०, मन्त्रकाल 800 से 1000 वि० पू०. तथाछन्दकाल 1000 से 1200 वि० पू० तक स्वीकार किया है।
  • तुर्की में 1400 ईसा पूर्व के मिले लेख- तुर्की के बोगज कोई नामक स्थान पर प्राप्त एक उत्कीर्ण लेख में इन्द्रमित्रावरुणो और नास्तयौ का उल्लेख है, जो वैदिक देवता है। इस लेख को 1400 ई. पूर्व का माना जाता है।
  • ज्योतिष की गणना के आधार पर भारतीय ज्योतिष-शंकर बालकृष्ण दीक्षित ने शतपथ ब्राह्मण का रचनाकाल 3000 ई. पूर्व के लगभग में प्रतिपादित किया है। इसके लिए उन्होंने शतपथ ब्राह्मण की ये कण्डिकाएँ प्रस्तुत की हैं-”एकं द्वे त्रीणि चत्वारीति वाड्अन्यानि नक्षत्राण्यभैता एव भूयिष्ठा यत्कृतिकास्तदभूयानमे वैतदुपैति तस्मात् कृत्तिकास्वादधीतः एता ह वै प्राच्यै दिशो न च्यवन्तें। सर्वाणि ह वाड्अन्यानि नक्षत्राणि प्राच्यै दिशश्यामेवास्यैः नद्दिश्याहितौ भवतस्तस्मात् कृत्तिका स्वादधीत।”
  • दूसरी ओर कुछ लोगों का यह मानना है कि कृष्ण के समय द्वापरयुग की समाप्ति के बाद महर्षि वेद व्यास ने वेद को चार प्रभागों संपादित करके व्यवस्थित किया। इन चारों प्रभागों की शिक्षा चार शिष्यों पैल, वैशम्पायन, जैमिनी और सुमन्तु को दी। उस क्रम में ऋग्वेद- पैल को, यजुर्वेद- वैशम्पायन को, सामवेद- जैमिनि को तथा अथर्ववेद- सुमन्तु को सौंपा गया। इस मान से लिखित रूप में आज से 6510 वर्ष पूर्व पुराने हैं वेद। श्रीराम का जन्म 5114 ईसा पूर्व हुआ था और श्रीकृष्ण का जन्म 3112 ईसा पूर्व हुआ था। आर्यभट्‍ट के अनुसार महाभारत युद्ध 3137 ई.पू. में हुआ था। इसका मतलब यह कि वैवस्वत मनु (6673 ईसापूर्व) काल में वेद लिखे गए।

वेद के विभाग चार है

  • ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद और अथर्ववेद। ऋग-स्थिति, यजु-रूपांतरण, साम-गति‍शील और अथर्व-जड़। ऋक को धर्म, यजुः को मोक्ष, साम को काम, अथर्व को अर्थ भी कहा जाता है। इन्ही के आधार पर धर्मशास्त्र, अर्थशास्त्र, कामशास्त्र और मोक्षशास्त्र की रचना हुई।

वेदों के उपवेद

  • ऋग्वेद का आयुर्वेद, यजुर्वेद का धनुर्वेद, सामवेद का गंधर्ववेद और अथर्ववेद का स्थापत्यवेद ये क्रमशः चारों वेदों के उपवेद बतलाए गए हैं।

आयुर्वेद – वैदिक ज्ञान पर आधारित स्वास्थ्य विज्ञान।

धनुर्वेद – युद्ध कला का विवरण। इसके ग्रंथ विलुप्त प्राय हैं।

गन्धर्वेद – गायन कला।

स्थापत्यवेद – स्थापत्यकला के विषय, जिसे वास्तु शास्त्र या वास्तुकला भी कहा जाता है, इसके अन्तर्गत आता है।

1- ऋग्वेद- ऋक अर्थात् स्थिति और ज्ञान। ऋग्वेद सबसे पहला वेद है जो पद्यात्मक है। इसके 10 मंडल (अध्याय) में 1028 सूक्त है जिसमें 10,552 मंत्र हैं। इस वेद की 5 शाखाएं हैं शाकल्प, वास्कल, अश्वलायन, शांखायन, माण्डूकायन… इसमें भौगोलिक स्थिति और देवताओं के आवाहन के मंत्रों के साथ बहुत कुछ है। ऋग्वेद की ऋचाओं में देवताओं की प्रार्थना, स्तुतियां और देवलोक में उनकी स्थिति का वर्णन है। इसमें जल चिकित्सा, वायु चिकित्सा, सौर चिकित्सा, मानस चिकित्सा और हवन द्वारा चिकित्सा आदि की भी जानकारी मिलती है। ऋग्वेद के दसवें मंडल में औषधि सूक्त यानी दवाओं का जिक्र मिलता है। इसमें औषधियों की संख्या 125 के लगभग बताई गई है, जो कि 107 स्थानों पर पाई जाती है। औषधि में सोम का विशेष वर्णन है। ऋग्वेद में च्यवनऋषि को पुनः युवा करने की कथा भी मिलती है।

2- यजुर्वेद : यजुर्वेद का अर्थ : यत् + जु = यजु। यत् का अर्थ होता है गतिशील तथा जु का अर्थ होता है आकाश। इसके अलावा कर्म। श्रेष्ठतम कर्म की प्रेरणा। यजुर्वेद में यज्ञ की विधियां और यज्ञों में प्रयोग किए जाने वाले मंत्र हैं। यज्ञ के अलावा तत्वज्ञान का वर्णन है। तत्व ज्ञान अर्थात रहस्यमयी ज्ञान। ब्रह्माण,आत्मा, ईश्वर और पदार्थ का ज्ञान। यह वेद गद्य मय है। इसमें यज्ञ की असल प्रक्रिया के लिए गद्य मंत्र हैं। यजुर्वेद कर्मकाण्ड का वेद है। इसमें यज्ञों की विभिन्न विधियां औरउनमें पाठ्य मंत्रों का संकलन है। यज्ञ करने वाले ऋत्विज् को अध्वर्यु कहते हैं।यजुर्वेद कर्मकाण्ड का प्रमुख ग्रन्थ है। चरणव्यूह’ में यजुर्वेद की 86 शाखाओं का उल्लेख है, जिसमें से शुक्ल यजुर्वेदकी 17 शाखाएँ हैं, शेष 69 कृष्ण यजुर्वेद की हैं।  इस वेद की दो शाखाएं हैं शुक्ल और कृष्ण-

  • कृष्ण: वैशम्पायन ऋषि का सम्बन्ध कृष्ण से है। कृष्ण यजुर्वेद की केवल 4शाखाएँ ही उपलब्ध हैं- ये हैं-(1) तैत्तिरीय (2) मैत्रायणी (3) काठक या कठ (4) कापिष्ठल, कठ शाखा।
  • शुक्ल: याज्ञवल्क्य ऋषि का सम्बन्ध शुक्ल से है। शुक्ल की दो शाखाएं हैं। 1. माध्यनिन्दन या वाजसनेयि संहिता- इसमें 40 अध्याय और 1975 मंत्र हैं। 2. काण्व संहिता – इसमें भी 40 अध्याय हैं और मंत्र संख्या 2086 हैं। यजुर्वेद के एक मंत्र में च्ब्रीहिधान्यों का वर्णन प्राप्त होता है। इसके अलावा, दिव्य वैद्य और कृषि विज्ञान का भी विषय इसमें मौजूद है।
शुक्ल यजुर्वेद कृष्ण यजुर्वेद
यह आदित्य सम्प्रदाय का प्रतिनिधि है। यह ब्रह्म सम्प्रदाय का प्रतिनिधि है।
शुक्लयजुर्वेद में केवल यज्ञ में प्रयोग किये जाने वाले मंत्रों का ही संकलन है। कृष्णयजुर्वेद में यज्ञ के मंत्रों के साथ यज्ञ के विधि विधान की व्याख्या करने वाले ब्राह्मण भाग का भी संकलन है।
इसमें मंत्र और ब्राह्मण का मिश्रण नहीं है विशुद्धता की दृष्टि से ही इसे शुक्ल कहा गया है। इसमें मन्त्र और ब्राह्मण भाग का मिश्रण है। मिश्रण के कारण इसे कृष्ण कहा गया है।

3- सामवेद: सामन् या साम का अर्थ : गीतियुक्त मंत्र है। सामके लिए गीतियुक्त होना अनिवार्य है। ऋग्वेद के मंत्र जब विशिष्ट गान-पद्धति से गाये जाते हैं, तब उनको सामन् (साम) कहते हैं। अतःएव पूर्वमीमांसा में गीतिया गान को साम कहा है। ‘गीतिषु सामाख्या’। इस वेद में ऋग्वेद की ऋचाओं का संगीतमय रूप है। सामवेद गीतात्मक यानी गीत के रूप में है। इस वेद को संगीत शास्त्र का मूल माना जाता है। 1824 मंत्रों के इस वेद में 75 मंत्रों को छोड़कर शेष सब मंत्र ऋग्वेद से ही लिए गए हैं।इसमें सविता, अग्नि और इंद्र देवताओं के बारे में जिक्र मिलता है। इसमें मुख्य रूप से 3 शाखाएं हैं, 75 ऋचाएं हैं। सामवेद के दो मुख्य भाग हैं –(1) पूर्वार्चिक (2) उत्तरार्चिक। आर्चिक का शाब्दिक अर्थ है- ऋचाओं का समूह या संकलन-

  • पूर्वार्चिक: इसमें चार कांड हैं (क) आग्नेय (ख) ऐन्ह (ग) पावमान (घ) आरण्य कांड और परिशिष्ट के रूप में महानाम्नी आर्चिक। पूर्वार्चिक में 6 अध्याय हैं।
  • उत्तरार्चिक: इसमें 21 अध्याय हैं। मंत्रों की संख्या 1225 है। उत्तरार्चिकमें कुल 400 सूक्त हैं। इसमें 287 सूक्तों में प्रत्येक में तीन-तीन मंत्रों का समूहहै। 66 में दो-दो मंत्र हैं और शेष 47 सूक्तों में 1 से 12 तक मंत्र-समूह हैं।

4- अथर्वदेव:  निरूक्त और गोपथ ब्राह्मण में अथर्वन् शब्द की दो प्रकार से व्याख्या की गई है। (1) अथर्वन् गतिहीन या स्थिरता से युक्त योग। निरूक्त के अनुसार ‘थर्वृ धातु का अर्थ गति या चेष्टा, अतः अथर्वन् का अर्थ है- गतिहीन या स्थिर। इसका अभिप्राय है कि जिस वेद में स्थिरता याचित्तवृत्तियों के निरोधरूपी योग का उपदेश है, वह अथर्वन् वेद है। अथर्ववेद में विभिन्न ऋषियों के दृष्ट मंत्र हैं तथा अनेक विषयों का प्रतिपादन है, अतःइसके अनेक नाम पड़े हैं। इस वेद में रहस्यमयी विद्याओं, जड़ी बूटियों, चमत्कार और आयुर्वेद आदि का जिक्र है। महर्षि पतंजलि ने महाभाष्य में अथर्ववेद की 9 शाखाओं का उल्लेख किया है- लेकिन इनमें से केवल दो शाखाएं ही संप्रति उपलब्ध हैं- शौनकीय शाखा और पैप्पलाद शाखा। शौनकीय शाखा में 20 काण्ड, 230 सूक्त और 5687 मंत्र है।

  • अथर्ववेद तथा अन्य ग्रंथों में अथर्ववेद के ये नाम प्राप्त होते हैं- अथर्ववेद, अंगीरस वेद, अथर्वाङ्गिरस वेद, ब्रह्मवेद, भृग्वंगिरोहवेद, क्षत्रवेद, भैषज्य वेद, छन्दोवेद और महीवेद।

वेदों की 28 हजार पांडुलिपियाँ- वेद मानव सभ्यता के लगभग सबसे पुराने लिखित दस्तावेज हैं। वेदों की 28 हजार पांडुलिपियाँ भारत में पुणे के ‘भंडारकर ओरिएंटल रिसर्च इंस्टीट्यूट’ में रखी हुई हैं। इनमें से ऋग्वेद की 30 पांडुलिपियाँ बहुत ही महत्वपूर्ण हैं जिन्हें यूनेस्को ने विरासत सूची में शामिल किया है। यूनेस्को ने ऋग्वेद की 1800 से 1500ई.पू. की 30 पांडुलिपियों को सांस्कृतिक धरोहरों की सूची में शामिल किया है। उल्लेखनीय है कि यूनेस्को की 158 सूची में भारत की महत्वपूर्ण पांडुलिपियों की सूची 38 है।

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पुराण शब्द ‘पुरा’ एवं ‘अण शब्दों की संधि से बना है। पुरा का अथ है- ‘पुराना’ अथवा ‘प्राचीन’ और अण का अर्थ होता है कहना या बतलाना। अर्थात् जो पुरातन अथवा अतीत के तथ्यों, सिद्धांतों, शिक्षाओं, नीतियों, नियमों और घटनाओं का विवरण प्रस्तुत करे वो पुराण है। भगवद्गीता में कहा है (अजो नित्यः शाश्वतोऽयंपुराण:) व (त्वमादिदेवः पुरुषः पुराणः) इनमें प्रयुक्त ‘पुराण’ शब्द प्राचीन अर्थ का वाचक है।

पुराणों की रचना- ‘पुराण’ शब्द का प्राचीनतम प्रयोग अथर्ववेद में मिलता है। सायण ने पुराण शब्द का अर्थपूर्वक्रमागतम् माना है। अथर्ववेद में पुराण का उदय ‘उच्छिष्ट’ संज्ञक ब्रह्म से बताया गया है और इसमें यजुर्वेद के साथ ऋक्, साम, छन्द और पुराण उत्पन्न माने हैं। वैदिकसाहित्य- वेद, ब्राह्मण, आरण्यक, उपनिषद्, वेदाङ्ग- में पुराणों का उल्लेख होना पुराणों कोवेद के समकालीन सिद्ध करता है। शतपथब्राह्मण में ‘पुराण’ को वेद कहा गया है।

  • मान्यता है कि सृष्टि के रचनाकर्ता ब्रह्माजी ने सर्वप्रथम जिस प्राचीनतम धर्मग्रंथ की रचना की, उसे पुराण के नाम से जाना जाता है। हिन्दू सनातन धर्म में, पुराण सृष्टि के प्रारम्भ से माने गये हैं। लेकिन पुराणों की रचना (लिखित रूप में) वैदिक काल के बाद की मानी जाती है, पहले है मनुष्य के स्मृति विभाग में रखे जाते हैं।
  • पुराणों में सृष्टि के आरम्भ से अन्त तक का विशद विवरण दिया गया है । पुराणों को मनुष्य के भूत, भविष्य, वर्तमान का दर्पण भी कहा जा सकता है। इस दर्पण में अपने अतीत को देखकर वह अपना वर्तमान संवार सकता है और भविष्य को उज्ज्वल बना सकता है ।
  • प्राचीनकाल से पुराण देवताओं, ऋषियों, मनुष्यों- सभी का मार्गदर्शन करते रहे हैं। पुराण वस्तुतः वेदों का विस्तार हैं। वेद बहुत ही जटिल तथा शुष्क भाषा- शैली में लिखे गए हैं। अत: पाठकों के एक विशिष्ट वर्ग तक ही इनका रूझान रहा।
  • संभवत: यही विचार करके वेदव्यास जी ने पुराणों की रचना और पुनर्रचना की होगी। अनेक बार कहा जाता है, “पूर्णात पुराण।” जिसका अर्थ है, जो वेदों का पूरक हो, अर्थात् पुराण वेदों की जटिल भाषा में कही गई बातों को पुराणों में सरल भाषा में समझाया गया हैं।

पुराणों में वर्णन- पुराणों में अलग-अलग देवी-देवताओं को केन्द्र में रखकर पाप-पुण्य, धर्म-अधर्म और कर्म-अकर्म की कहानियाँ हैं। प्रेम, भक्ति, त्याग, सेवा, सहनशीलता ऐसे मानवीय गुण हैं, जिनके अभाव में उन्नत समाज की कल्पना नहीं की जा सकती।

  • पुराणों में देवी-देवताओं के अनेक स्वरूपों को लेकर एक विस्तृत विवरण मिलता है। पुराणकारों ने देवताओं की दुष्प्रवृत्तियों का व्यापक विवरण किया है लेकिन मूल उद्देश्य सद्भावना का विकास और सत्य की प्रतिष्ठा ही है।

रघुवंश में पुराण शब्द का अर्थ है “पुराण पत्रापग मागन्नतरम्” एवं वैदिक वाङ्मय में “प्राचीन: वृत्तान्त:” दिया गया है।

शतपथ ब्राह्मण में तो पुराणवाग्ङमय को वेद ही कहा गया है।

छान्दोग्य उपनिषद् (इतिहास पुराणं पंचम वेदानांवेदम्) ने भी पुराण को वेद कहा है।

अथर्ववेद के अनुसार-

“ऋच: सामानि छन्दांसि पुराणं यजुषा सह”

अर्थात् पुराणों का आविर्भाव ऋक्, साम, यजुस् औद छन्द के साथ ही हुआ था।

बृहदारण्यकोपनिषद् तथा महाभारत में कहा गया है कि-

“इतिहास पुराणाभ्यां वेदार्थमुपबृंहयेत्”

अर्थात् वेद का अर्थविस्तार पुराण के द्वारा करना चाहिये। इनसे यह स्पष्ट है कि वैदिक काल में पुराण तथा इतिहास को समान स्तर पर रखा गया है।

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पुराणों की संख्या अठारह क्यों

  • अणिमा, लघिमा, प्राप्ति, प्राकाम्य, महिमा, सिद्धि, ईशित्व या वाशित्व, सर्वकामावसायिता, सर्वज्ञत्व, दूरश्रवण, सृष्टि, पराकायप्रवेश, वाकसिद्धि, कल्पवृक्षत्व, संहारकरणसामर्थ्य, भावना, अमरता, सर्वन्याय – ये अट्ठारह सिद्धियाँ मानी जाती हैं।
  • सांख्य दर्शन में पुरुष, प्रकृति, मन, पाँच महाभूत ( पृथ्वी, जल, वायु, अग्नि और आकाश ), पाँच ज्ञानेद्री ( कान, त्वचा, चक्षु, नासिका और जिह्वा) और पाँच कर्मेंद्री (वाक, पाणि, पाद, पायु और उपस्थ ) ये अठारह तत्त्व वर्णित हैं।
  • छः वेदांग, चार वेद, मीमांसा, न्यायशास्त्र, पुराण, धर्मशास्त्र, अर्थशास्त्र, आयुर्वेद, धनुर्वेद और गंधर्व वेद ये अठारह प्रकार की विद्याएँ मानी जाती हैं ।
  • एक संवत्सर, पाँच ऋतुएँ और बारह महीने – ये सब मिलकर काल के अठारह भेदों को बताते हैं ।
  • श्रीमद् भागवत गीता के अध्यायों की संख्या भी अठारह है ।
  • श्रीमद् भागवत में कुल श्लोकों की संख्या अठारह हज़ार है ।
  • श्रीराधा, कात्यायनी, काली, तारा, कूष्मांडा, लक्ष्मी, सरस्वती, गायत्री, छिन्नमस्ता, षोडशी, त्रिपुरभैरवी, धूमावती, बगलामुखी, मातंगी, पार्वती, सिद्धिदात्री, भगवती, जगदम्बा के ये अठारह स्वरूप माने जाते हैं ।
  • श्रीविष्णु, शिव, ब्रह्मा, इन्द्र आदि देवताओं के अंश से प्रकट हुई भगवती दुर्गा अठारह भुजाओं से सुशोभित हैं ।

पुराणों की व्याख्या-

  • अथर्ववेद में पुराणसन्दर्भ में कहा है कि ऋक्, साम, छन्द, पुराण व यजुष् ये समस्तसाहित्य यज्ञीय भोजन के शेष अंश से उदित हुए हैं।
  • छान्दोग्योपनिषद् में पुराणों की परिगणनापञ्चम वेद के रूप में की गई है।
  • याज्ञवल्क्य आदि महर्षियों ने चतुर्दश विद्याओं की गणना में पुराणविद्या को प्रथम स्थान दिया है।
  • स्कन्दपुराण में पुराण महत्ता इस प्रकार प्रतिपादित की है”पुराण वेदों की आत्मा है, छ: वेदाङ्ग उनसे भिन्न हैं, जो कुछ वेदों में देखा जाता है
  • वहीं स्मृतियों में भी कहा गया है और वेद एवं स्मृति दोनों में जो कुछ देखा गया, वह सब पुराणों में देखा जाता है तथा पुराणों को ब्रह्मा ने सभी शास्त्रों से पूर्व कहा” नारदपुराणान्तर्गत पुराण विद्या को सभी वेदों के अर्थों का सार बताया है।
  • श्रीमद्भागवतपुराण ने भी पुराणों का वैशिष्ट्य मानते हुए इसे पञ्चम वेद की संज्ञा से अभिहित किया है।

पुराणों की संख्या एवं वर्गीकरण-

पुराण शब्द के साथ अष्टादश संख्या जोड़ी जाती है। जिसके आधार पर इनकी संख्या अठारह मानी जाती है। पुराणों की प्रारम्भिक संख्या के सन्दर्भ में मत्स्यपुराण में उल्लेख आता है कि सृष्टि के आदि में देवों के पितामह ब्रह्मा ने उग्र तप किया, जिसके परिणामस्वरूप षङ्ङ्ग पद तथा क्रमशः वेदों का भी आविर्भाव सम्पन्न हुआ तथा उस कल्प में पुराण भी सम्पन्न हुआ जो कि नित्य शब्दमय पुण्यदायक व त्रिवर्ग साधन को प्रदान करने वाला था।

अष्टादश पुराणों की गणना विष्णुपुराण व भागवतपुराण में एक विशिष्ट क्रम के अनुसार दी है। उनके अनुसार इनका क्रम इस प्रकार है- (1) ब्रह्म (2) पद्म (3) विष्णु(4) शिव (5) भागवत (6) नारद (7) ब्रह्मवैवर्त (8) अग्नि (9) भविष्य (10) मार्कण्डेय (11) लिङ्ग (12) वाराह (13) स्कन्द (14) वामन (15) कूर्म (16) मत्स्य (17) गरुड़(18) ब्रह्माण्ड। अन्यत्र मत्स्य, मार्कण्डेय, भविष्यत आदि पुराणों के अन्तर्गत भी अठारहपुराणों का परिगणन किया गया है।

वायुपुराणान्तर्गत अठारह पुराणों का उल्लेख करते हुए सोलह पुराणों की श्लोक संख्याइस प्रकार वर्णित है- 1. मत्स्य- 14,000 2. भविष्यत- 14,500 3. मार्कण्डेय-9,000 4. ब्रह्मवैवर्त-18,000 5. ब्रह्माण्ड- 12,100 6. भागवत- 18,000 7. ब्रह्म- 10,000 8. वामन- 10,0009. आदि- 10,600 10. वायु- 23,000 11. नारद- 23,000 12. गरुड़- 19,00013. पद्म-55,000 14. कूर्म- 17,000 15. वाराह- 24,000 16. स्कन्द-81,000

अठारह पुराण

ब्रह्मापुराण- इसे “आदिपुराण” भी का जाता है. प्राचीन माने गए सभी पुराणों में इसका उल्लेख है. इसमें श्लोकों की संख्या अलग- अलग प्रमाणों से भिन्न-भिन्न है. इसमें सृष्टि, मनु की उत्पत्ति, उनके वंश का वर्णन, देवों और प्राणियों की उत्पत्ति का वर्णन है. इस पुराण में विभिन्न तीर्थों का विस्तार से वर्णन है

  • इसमें श्लोकों की संख्या अलग-अलग प्रमाणों से भिन्न-भिन्न है। 13,789 ये विभिन्न संख्याएँ मिलती है। इसका प्रवचन नैमिषारण्य में लोमहर्षण ऋषि ने किया था। इसमें सृष्टि, मनु की उत्पत्ति, उनके वंश का वर्णन, देवों और प्राणियों की उत्पत्ति का वर्णन है। इस पुराण में विभिन्न तीर्थों का विस्तार से वर्णन है। इसमें कुल 245 अध्याय हैं। इसका एक परिशिष्ट सौर उपपुराण भी है, जिसमें उडिसा के कोणार्क मन्दिर का वर्णन है।

पद्मपुराण- इस पुराण में अनेक विषयों के साथ विष्णुभक्ति के अनेक पक्षों पर प्रकाश डाला गया है. इसका विकास 5वीं शताब्दी में माना जाता है

  • इसमें कुल 641 अध्याय और 48,000 श्लोक हैं। मत्स्यपुराण के अनुसार इसमें 55,000 और ब्रह्मपुराण के अनुसार इसमें 49,000 श्लोक थे। इसमें कुल खण़्ड हैं—(क) सृष्टिखण्डः—५ पर्व, (ख) भूमिखण्ड, (ग) स्वर्गखण्ड, (घ) पातालखण्ड और (ङ) उत्तरखण्ड। इसका प्रवचन नैमिषारण्य में सूत उग्रश्रवा ने किया था। ये लोमहर्षण के पुत्र थे। इस पुराण में अनेक विषयों के साथ विष्णुभक्ति के अनेक पक्षों पर प्रकाश डाला गया है। इसका विकास ५ वीं शताब्दी माना जाता है।

विष्णुपुराण- पुराण के पाँचों लक्षण इसमें घटते हैं. इसमें विष्णु को परम देवता के रूप में निरूपित किया गया है

  • पुराण के पाँचों लक्षण इसमें घटते हैं। इसमें विष्णु को परम देवता के रूप में निरूपित किया गया है। इसमें कुल छः खण्ड हैं, 126 अध्याय, श्लोक 23,000 या 24,000 या 6,000 हैं। इस पुराण के प्रवक्ता पराशर ऋषि और श्रोता मैत्रेय हैं।

वायुपुराण- इसमें विशेषकर शिव का वर्णन किया गया है, अतः इस कारण इसे “शिवपुराण” भी कहा जाता है. एक शिवपुराण पृथक भी है

  • वायुपुराण में शिव का वर्णन किया गया है, अतः इस कारण इसे “शिवपुराण” भी कहा जाता है। एक शिवपुराण पृथक् भी है। इसमें 112 अध्याय, 11,000 श्लोक हैं। इस पुराण का प्रचलन मगध-क्षेत्र में बहुत था। इसमें गया-माहात्म्य है। इसमें कुल चार भाग हैः—(क) प्रक्रियापादः– (अध्याय—1-6), (ख) उपोद्घातः— (अध्याय-7 –64 ), (ग) अनुषङ्गपादः–(अध्याय—65–99), (घ) उपसंहारपादः–(अध्याय—100-112)। इसमें सृष्टिक्रम, भूगो, खगोल, युगों, ऋषियों तथा तीर्थों का वर्णन एवं राजवंशों, ऋषिवंशों,, वेद की शाखाओं, संगीतशास्त्र और शिवभक्ति का विस्तृत निरूपण है। इसमें भी पुराण के पञ्चलक्षण मिलते हैं।

भागवतपुराण- यह सर्वाधिक प्रचलित पुराण है. इस पुराण का सप्ताह-वाचन-पारायण भी होता है. इसे सभी दर्शनों का सार “निगमकल्पतरोर्गलितम्” और विद्वानों का परीक्षास्थल “विद्यावतां भागवते परीक्षा” माना जाता है. इसमें श्रीकृष्ण की भक्ति के बारे में बताया गया है.

  • यह सर्वाधिक प्रचलित पुराण है। इस पुराण का सप्ताह-वाचन-पारायण भी होता है। इसे सभी दर्शनों का सार “निगमकल्पतरोर्गलितम्” और विद्वानों का परीक्षास्थल “विद्यावतां भागवते परीक्षा” माना जाता है। इसमें श्रीकृष्ण की भक्ति के बारे में बताया गया है। इसमें कुल 12 स्कन्ध, 335 अध्याय और 18,000 श्लोक हैं। कुछ विद्वान् इसे “देवीभागवतपुराण” भी कहते हैं, क्योंकि इसमें देवी (शक्ति) का विस्तृत वर्णन हैं। इसका रचनाकाल ६ वी शताब्दी माना जाता है।

नारद (बृहन्नारदीय) पुराण- इसे महापुराण भी कहा जाता है. इसमें पुराण के 5 लक्षण घटित नहीं होते हैं. इसमें वैष्णवों के उत्सवों और व्रतों का वर्णन है

  • इसे महापुराण भी कहा जाता है। इसमें पुराण के 5 लक्षण घटित नहीं होते हैं। इसमें वैष्णवों के उत्सवों और व्रतों का वर्णन है। इसमें 2 खण्ड हैः—(क) पूर्व खणअ्ड में 125 अध्याय और (ख) उत्तर-खण्ड में 82 अध्याय हैं। इसमें 18,000 श्लोक हैं। इसके विषय मोक्ष, धर्म, नक्षत्र, एवं कल्प का निरूपण, व्याकरण, निरुक्त, ज्योतिष, गृहविचार, मन्त्रसिद्धि,, वर्णाश्रम-धर्म, श्राद्ध, प्रायश्चित्त आदि का वर्णन है।

मार्कण्डयपुराण- इसे प्राचीनतम पुराण माना जाता है. इसमें इन्द्र, अग्नि, सूर्य आदि वैदिक देवताओं का वर्णन किया गया है

  • इसे प्राचीनतम पुराण माना जाता है। इसमें इन्द्र, अग्नि, सूर्य आदि वैदिक देवताओं का वर्णन किया गया है। इसके प्रवक्ता मार्कण्डय ऋषि और श्रोता क्रौष्टुकि शिष्य हैं। इसमें 138 अध्याय और 7,000 श्लोक हैं। इसमें गृहस्थ-धर्म, श्राद्ध, दिनचर्या, नित्यकर्म, व्रत, उत्सव, अनुसूया की पतिव्रता-कथा, योग, दुर्गा-माहात्म्य आदि विषयों का वर्णन है।

अग्निपुराण- इसे भारतीय संस्कृति और विद्याओं का महाकोष माना जाता है इसमें विष्णु के अवतारों का वर्णन है. इसके अतिरिक्त शिवलिंग, दुर्गा, गणेश, सूर्य, प्राण-प्रतिष्ठा आदि के अतिरिक्त भूगोल, गणित, फलित-ज्योतिष, विवाह, मृत्यु, शकुन विद्या, वास्तु विद्या,आयुर्वेद, छन्द, काव्य, व्याकरण, कोष निर्माण आदि नाना विषयों का वर्णन है

  • इसके प्रवक्ता अग्नि और श्रोता वसिष्ठ हैं। इसी कारण इसे अग्निपुराण कहा जाता है। इसे भारतीय संस्कृति और विद्याओं का महाकोश माना जाता है। इसमें इस समय 383 अध्याय 11,500 श्लोक हैं। इसमें विष्णु के अवतारों का वर्णन है। इसके अतिरिक्त शिवलिंग, दुर्गा, गणेश, सूर्य, प्राणप्रतिष्ठा आदि के अतिरिक्त भूगोल, गणित, फलित-ज्योतिष, विवाह, मृत्यु, शकुनविद्या, वास्तुविद्या, दिनचर्या, नीतिशास्त्र, युद्धविद्या, धर्मशास्त्र, आयुर्वेद, छन्द, काव्य, व्याकरण, कोशनिर्माण आदि नाना विषयों का वर्णन है।

भविष्यपुराण- इसमें भविष्य की घटनाओं का वर्णन है. इसमें मुख्यतः ब्राह्मण-धर्म, आचार, वर्णाश्रम-धर्म आदि विषयों का वर्णन है

  • इसमें भविष्य की घटनाओं का वर्णन है। इसमें दो खण्ड हैः–(क) पूर्वार्धः–(अध्याय—41) तथा (ख) उत्तरार्ध–(अध्याय—171) । इसमें कुल 15,000 श्लोक हैं । इसमें कुल 5 पर्व हैः–(क) ब्राह्मपर्व, (ख) विष्णुपर्व, (ग) शिवपर्व, (घ) सूर्यपर्व तथा (ङ) प्रतिसर्गपर्व। इसमें मुख्यतः ब्राह्मण-धर्म, आचार, वर्णाश्रम-धर्म आदि विषयों का वर्णन है। इसका रचनाकाल 500 ई. से 1200 ई. माना जाता है।

ब्रह्मवैवर्तपुराण- यह वैष्णव पुराण है. इसमें श्रीकृष्ण के चरित्र का वर्णन किया गया है

  • यह वैष्णव पुराण है। इसमें श्रीकृष्ण के चरित्र का वर्णन किया गया है। इसमें कुल 18,000 श्लोक है और चार खण्ड हैः—(क) ब्रह्म, (ख) प्रकृति, (ग) गणेश तथा (घ) श्रीकृष्ण-जन्म।

लिङ्गपुराण- इसमें शिव की उपासना का वर्णन है. इसमें शिव के 28 अवतारों की कथाएँ दी गईं हैं

  • इसमें शिव की उपासना का वर्णन है। इसमें शिव के 28 अवतारों की कथाएँ दी गईं हैं। इसमें 11,000 श्लोक और 163 अध्याय हैं। इसे पूर्व और उत्तर नाम से दो भागों में विभाजित किया गया है। इसका रचनाकाल आठवीं-नवीं शताब्दी माना जाता है। यह पुराण भी पुराण के लक्षणों पर खरा नहीं उतरता है।

वराहपुराण- इसमें विष्णु के वराह-अवतार का वर्णन है. पाताललोक से पृथ्वी का उद्धार करके वराह ने इस पुराण का प्रवचन किया था

  • इसमें विष्णु के वराह-अवतार का वर्णन है। पाताललोक से पृथिवी का उद्धार करके वराह ने इस पुराण का प्रवचन किया था। इसमें 24,000 श्लोक सम्प्रति केवल 11,000 और 217 अध्याय हैं।

स्कन्दपुराण- यह पुराण शिव के पुत्र स्कन्द (कार्तिकेय, सुब्रह्मण्य) के नाम पर है. यह सबसे बड़ा पुराण है

  • यह पुराण शिव के पुत्र स्कन्द (कार्तिकेय, सुब्रह्मण्य) के नाम पर है। यह सबसे बडा पुराण है। इसमें कुल 81,000 श्लोक हैं। इसमें दो खण्ड हैं। इसमें छः संहिताएँ हैं—सनत्कुमार, सूत, शंकर, वैष्णव, ब्राह्म तथा सौर। सूतसंहिता पर माधवाचार्य ने “तात्पर्य-दीपिका” नामक विस्तृत टीका लिखी है। इस संहिता के अन्त में दो गीताएँ भी हैं—-ब्रह्मगीता (अध्याय—12) और सूतगीताः–(अध्याय-8)।
  • इस पुराण में सात खण्ड हैं—(क) माहेश्वर, (ख) वैष्णव, (ग) ब्रह्म, (घ) काशी, (ङ) अवन्ती, (रेवा), (च) नागर (ताप्ती) तथा (छ) प्रभास-खण्ड। काशीखण्ड में “गंगासहस्रनाम” स्तोत्र भी है। इसका रचनाकाल 7वीं शताब्दी है। इसमें भी पुराण के 5 लक्षण का निर्देश नहीं मिलता है।

वामनपुराण- इसमें विष्णु के वामन-अवतार का वर्णन है. इसमें चार संहिताएँ हैं—-(क) माहेश्वरी, (ख) भागवती, (ग) सौरी तथा (घ) गाणेश्वरी

  • इसमें विष्णु के वामन-अवतार का वर्णन है। इसमें 95 अध्याय और 10,000 श्लोक हैं। इसमें चार संहिताएँ हैं-(क) माहेश्वरी, (ख) भागवती, (ग) सौरी तथा (घ) गाणेश्वरी । इसका रचनाकाल 9वीं से 10वीं शताब्दी माना जाता है।

कूर्मपुराण- इसमें विष्णु के कूर्म-अवतार का वर्णन किया गया है. इसमें चार संहिताएँ हैं—(क) ब्राह्मी, (ख) भागवती, (ग) सौरा तथा (घ) वैष्णवी

  • इसमें विष्णु के कूर्म-अवतार का वर्णन किया गया है। इसमें चार संहिताएँ हैं—(क) ब्राह्मी, (ख) भागवती, (ग) सौरा तथा (घ) वैष्णवी । सम्प्रति केवल ब्राह्मी-संहिता ही मिलती है। इसमें 6,000 श्लोक हैं। इसके दो भाग हैं, जिसमें 41 और 44 अध्याय हैं। इसमें पुराण के पाँचों लक्षण मिलते हैं। इस पुराण में ईश्वरगीता और व्यासगीता भी है। इसका रचनाकाल छठी शताब्दी माना गया है।

मत्स्यपुराण- इसमें कलियुग के राजाओं की सूची दी गई है. इसका रचनाकाल तीसरी शताब्दी माना जाता है

  • इसमें पुराण के पाँचों लक्षण घटित होते हैं। इसमें 291 अध्याय और 14,000 श्लोक हैं। प्राचीन संस्करणों में 19,000 श्लोक मिलते हैं। इसमें जलप्रलय का वर्णन हैं। इसमें कलियुग के राजाओं की सूची दी गई है। इसका रचनाकाल तीसरी शताब्दी माना जाता है।

गरुडपुराण- यह वैष्णवपुराण है. इसमें विष्णुपूजा का वर्णन है. इसका पूर्वखण्ड विश्वकोषात्मक माना जाता है

  • यह वैष्णवपुराण है। इसके प्रवक्ता विष्णु और श्रोता गरुड हैं, गरुड ने कश्यप को सुनाया था। इसमें विष्णुपूजा का वर्णन है। इसके दो खण्ड हैं, जिसमें पूर्वखण्ड में 229 और उत्तरखण्ड में 35 अध्याय और 18,000 श्लोक हैं। इसका पूर्वखण्ड विश्वकोशात्मक माना जाता है।

ब्रह्माण्ड पुराण- इसमें चार पाद हैं—(क) प्रक्रिया, (ख) अनुषङ्ग, (ग) उपोद्घात तथा (घ) उपसंहार

  • इसमें 109 अध्याय तथा 12,000 श्लोक है। इसमें चार पाद हैं—(क) प्रक्रिया, (ख) अनुषङ्ग, (ग) उपोद्घात तथा (घ) उपसंहार । इसकी रचना 400 ई.- 600 ई. मानी जाती है।

उप-पुराण- अष्टादश पुराणों से पृथक् उपपुराणों का वर्णन भी पुराणों व अन्य शास्त्रों में प्राप्त होता है। देवीभागवत पुराण के अनुसार इनके नाम इस प्रकार हैं- सनत्कुमार 2. नरसिंह 3. नारदीय 4. शिव 5. दुर्वासा 6. कपिल 7. मनु 8. शुक 9. वरूण 10. कालिका 11. साम्ब 12. नन्दी 13. सूर्य 14. पराशर 15. आदित्य 16. माहेश्वर 17. श्रीमद्भागवत 18. वासिष्ठ

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  • उपनिषद् हिन्दू धर्म के महत्त्वपूर्ण श्रुति धर्मग्रन्थ हैं। ये वैदिक वाङ्मय के अभिन्न भाग हैं। वैदिक वाङ्मय का अंतिम भाग होने से उपनिषदों को ‘वेदान्त’ भी कहते हैं। इनमें परमेश्वर, परमात्मा-ब्रह्म और आत्मा के स्वभाव और सम्बन्ध का बहुत ही दार्शनिक और ज्ञानपूर्वक वर्णन दिया गया है।
  • संस्कृत-साहित्य में उपनिषद् ग्रन्थों का स्थान बहुत ऊँचा है। यहाँ तक कि वेदों के शिरोभाग के नाम से उपनिषदों का परिचय दिया जाता है और अध्यात्मज्ञान के लिए उपनिषद्ग्रन्थ ही एकमात्र साधन है। वेदान्तसूत्र और श्रीमद्भगवद्गीता आदि समस्त गीताएँ उपनिषदों के ही ज्ञानरत्नों से परिपूर्ण हैं।
  • उपनिषद शब्द की निष्पत्ति ‘उप’ और ‘नि’ उपसर्ग के साथ ‘सद’ धातु से हुर्इ है, इसलिए इसका शाब्दिक अर्थ है-तत्वज्ञान के लिए गुरु के समीप सविनय बैठना।
  • सद धातु के अन्य तीन अर्थ हैं-विशरण (विनाश), गति (प्राप्त करना) और अवसादन (शिथिल होना)। अत: ‘उपनिषद उस विधा का नाम है, जिसके अनुशीलन से मुमुक्षुओं की अविधा का विनाश होता है, ब्रह्म की प्राप्ति होती है और दु:ख शिथिल हो जाते हैं।
  • उपनिषद् शब्द का एक अन्य अर्थ “उपासना” भी है। ब्रह्म के निराकार स्वरूप की उपासनाही उपनिषद् है। एक अन्य अर्थ के अनुसार उप-समीप, निषत-निषीदति बैठनेवाला। अर्थात् जो उस परब्रह्म के समीप पहुँचकर ब्रह्म तेज से प्रकाशित होकरशान्त भाव से बैठ जाता है, वही उपनिषद् है।

उपनिषदों की संख्या

  • ‘मुक्तिकोपनिषद’- (श्लोक संख्या 30 से 39 तक) 108 उपनिषदों की सूची दी गयी है।

वेदानुसार वर्गीकरण- प्रत्येक उपनिषद का किसी न किसी वेद से सम्बन्ध है। अत: 108 उपनिषदों को इस प्रकार बांटा जा सकता है-

  1. ऋग्वेदीय उपनिषद – ऐतरेय, कौषीतकि आदि 10 उपनिषद।
  2. शुक्लयजुर्वेदीय उपनिषद – र्इश, बृहदारण्यक आदि 19 उपनिषद।
  3. कृष्णयजुर्वेदीय उपनिषद – कठ, तैत्तिरीय, श्वेताश्वतर आदि 32 उपनिषद।
  4. सामवेदीय उपनिषद – केन, छान्दोग्य आदि 16 उपनिषद।
  5. अथर्ववेदीय उपनिषद – प्रश्न, मुण्डक, माण्डूक्य आदि 31 उपनिषद।

विषयानुसार वर्गीकरण- 108 उपनिषदों को विषयानुसार छह भागों में बांटा जा सकता है-

  1. वेदान्त के सिदान्तों पर निर्भर 24 उपनिषद
  2. योग के सिदान्तों पर निर्भर 20 उपनिषद
  3. सांख्य के सिदान्तों पर निर्भर 17 उपनिषद    
  4. वैष्णव सिदान्तों पर निर्भर 14 उपनिषद
  5. शैव सिदान्तों पर निर्भर 15 उपनिषद
  6. शाक्त और अन्य सिदान्तों पर निर्भर 18 उपनिषद।
  • महावाक्य कोश के अनुसार 223 उपनिषद् कही गई है। वहीं शंकराचार्य ने उपनिषदों की संख्या 10 मानी है- ईश-केन-कठ-प्रश्न-मुण्ड-माण्डूक्य-तित्तिरिः। ऐतरेयं च छान्दोग्यं बृहदारण्यक दश।।
  • शंकराचार्य ने जिन उपनिषदों की टीका लिखी वे ही सबसे प्रमुख हैं। उनके नाम हैं- 1. ईश, 2. केन, 3. कठ, 4. प्रश्न, 5. माण्डूक्य, 6. तैत्तिरीय, 7. ऐतरेय, 8. छान्दोग्य, 9. वृहदारण्यक, 10. नृसिंह पर्व तापनी।
  • ‘संस्कृति के चार अध्याय’ में श्रीरामधारी सिंह ‘दिनकर’ लिखते हैं कि ‘मुक्तिक उपनिषद के अनुसार सभी उपनिषदों की संख्या 108 है परंतु पंडितजन इनमें से सबको समान महत्व नहीं देते। ऐतिहासिक दृष्टि से वे ही उपनिषद महत्वपूर्ण माने जाते हैं जिनकी रचना बुद्धदेव के आविर्भाव के पहले हो चुकी थी।
  • श्रीरामानुजाचार्य ने सभी उपनिषदों की टीका तो नहीं लिखी किंतु उन्होंने भी प्राय: इन्हीं उपनिषदों का हवाला दिया है।’ उपनिषदों की संख्या में निरंतर वृद्धि हुई है एवं अब यह संख्या 250 तक पहुँच गई है।

उपनिषदों की रचना शैली- उपनिषदों की रचना शैली गुरु-शिष्य संवाद, विद्वान ऋषियों से चिंतनशील जिज्ञासुओं के प्रश्नोत्तर, विद्वानों की पारस्परिक चर्चाओं या वरिष्ठों के उपदेशों के रूप में हैं। कहीं-कहीं रूपकों या संक्षिप्त आख्यानों द्वारा भी गंभीर विचारों को समझाने की युक्ति अपनाई गई है। उपनिषदों के कथ्य में अनेक विदुषी महिलाओं की भी प्रभावशील भागीदारी है।     

उपनिषदों का रचनाकाल- डॉ. राधाकृष्णन ने अपने ग्रंथ ‘भारतीय दर्शन’ (भाग-1) में उपनिषदों के रचनाकाल के विषय में यह मत व्यक्त किया है –  जिन उपनिषदों पर शंकराचार्य ने भाष्य किया है वे ही सबसे प्राचीन तथा अत्यंत प्रामाणिक हैं। उनके निर्माण की कोई ठीक तिथि हम निश्चित नहीं कर सकते। इनमें से जो एकदम प्रारंभ के हैं वे तो निश्चित रूप से बौद्धकाल के पहले के हैं और उनमें से कुछ बुद्ध के पीछे के हैं। यह संभव है कि उनका निर्माण वैदिक सूक्तों की समाप्ति और बौद्धधर्म के आविर्भाव अर्थात ईसा के पूर्व छठी शताब्दी के मध्यवर्ती काल में हुआ हो।

  • प्रारंभिक उपनिषदों का रचनाकाल 1000 ईस्वी पूर्व से लेकर 300 ईस्वी 3पूर्व तक माना गया है। कुछ परवर्ती उपनिषद्, जिन पर शंकर ने भाष्य किया, बौद्धकाल के पीछे के हैं और उनका रचनाकाल 400 या 300 ई.पू. का है। सबसे पुराने उपनिषद वे हैं जो गद्य में हैं। वे सम्प्रदायवाद से रहित हैं।
  • ऐतरेय, कौषीतकीं, तैत्तिरीय, छान्दोग्य, वृहदारण्यक के अलावा केन उपनिषद के कुछ भाग पुराने हैं जबकि केनोपनिषद एवं वृहदराण्यक के कुछ अंश बाद में जोड़े गए प्रतीत होते हैं। प्रक्षिप्त अंशों के अध्ययन में पर्याप्त सावधानी की अपेक्षा है जिससे अर्थ का अनर्थ न हो जाए। सही-गलत जाँचने-परखने की कसौटी है- उपनिषदों में जो वेदानुकूल है वह ग्राह्य है, जो वेद ‍विरुद्ध है वह त्याज्य है।
  • कठोपनिषद और भी बाद का है। इसमें हमें सांख्य और योगदर्शन के तत्व मिलते हैं। श्वेताश्वतर का निर्माण ऐसे काल में हुआ जबकि बहुत प्रकार के दार्शनिक ग्रंथों के पारिभाषिक शब्द इसमें मिलते हैं और उनके मुख्य सिद्धांतो का समावेश भी इसमें किया गया है।
  • ऐसा प्रतीत होता है कि इस उपनिषद का आशय वेदान्त, सांख्य और योग इन तीनों दर्शनों का आस्तिकवादपरक समन्वय करना है। प्रारंभिक गद्यात्मक उपनिषदों में अधिकतर विशुद्ध कल्पना पाई जाती है। जबकि परवर्ती उपनिषदों में अधिकांशत: धार्मिक पूजा और भक्ति का समावेश है।’

भारतीय विद्वानों की दृष्टि में उपनिषद्

स्वामी विवेकानन्द—’मैं उपनिषदों को पढ़ता हूँ, तो मेरे आंसू बहने लगते है। यह कितना महान ज्ञान है? हमारे लिए यह आवश्यक है कि उपनिषदों में सन्निहित तेजस्विता को अपने जीवन में विशेष रूप से धारण करें। हमें शक्ति चाहिए। शक्ति के बिना काम नहीं चलेगा। यह शक्ति कहां से प्राप्त हो? उपनिषदें ही शक्ति की खानें हैं।

रविन्द्रनाथ टैगोर–’चक्षु-सम्पन्न व्यक्ति देखेगें कि भारत का ब्रह्मज्ञान समस्त पृथिवी का धर्म बनने लगा है। प्रातः कालीन सूर्य की अरुणिम किरणों से पूर्व दिशा आलोकित होने लगी है। परन्तु जब वह सूर्य मध्याह्र गगन मं  प्रकाशित होगा, तब उस समय उसकी दीप्ति से समग्र भू-मण्डल दीप्तिमय हो उठेगा।’

डा॰ सर्वपल्ली राधाकृष्णन–’उपनिषदों को जो भी मूल संस्कृत में पढ़ता है, वह मानव आत्मा और परम सत्य के गुह्य और पवित्र सम्बन्धों को उजागर करने वाले उनके बहुत से उद्गारों के उत्कर्ष, काव्य और प्रबल सम्मोहन से मुग्ध हो जाता है और उसमें बहने लगता है।’

सन्त विनोवा भावे— ‘उपनिषदों की महिमा अनेकों ने गायी है। हिमालय जैसा पर्वत और उपनिषदों- जैसी कोई पुस्तक नहीं है, परन्तु उपनिषद कोई साधारण पुस्तक नहीं है, वह एक दर्शन है।

पश्चिम के विद्वानों की दृष्टि में उपनिषद्

मैक्समूलर— ‘मृत्यु के भय से बचने, मृत्यु के लिए पूरी तैयारी करने और सत्य को जानने के इच्छुक जिज्ञासुओं के लिए, उपनिषदों के अतिरिक्त कोई अन्य-मार्ग मेरी दृष्टि में नहीं है। उपनिषदों के ज्ञान से मुझे अपने जीवन के उत्कर्ष में भारी सहायता मिली है। मै उनका ॠणी हूं। ये उपनिषदें, आत्मिक उन्नति के लिए विश्व के समस्त धार्मिक साहित्य में अत्यन्त सम्मानीय रहे हैं और आगे भी सदा रहेंगे। यह ज्ञान, महान, मनीषियों की महान प्रज्ञा का परिणाम है। एक-न-एक दिन भारत का यह श्रेष्ठ ज्ञान यूरोप में प्रकाशित होगा और तब हमारे ज्ञान एवं विचारों में महान परिवर्तन उपस्थित होगा।’

प्रो॰ ह्यूम— ‘सुकरात, अरस्तु, अफ़लातून आदि कितने ही दार्शनिक के ग्रन्थ मैंने ध्यानपूर्वक पढ़े है, परन्तु जैसी शान्तिमयी आत्मविद्या मैंने उपनिषदों में पायी, वैसी और कहीं देखने को नहीं मिली।*’

प्रो॰ जी॰ आर्क— ‘मनुष्य की आत्मिक, मानसिक और सामाजिक गुत्थियां किस प्रकार सुलझ सकती है, इसका ज्ञान उपनिषदों से ही मिल सकता है। यह शिक्षा इतनी सत्य, शिव और सुन्दर है कि अन्तरात्मा की गहराई तक उसका प्रवेश हो जाता है। जब मनुष्य सांसरिक दुःखो और चिन्ताओं से घिरा हो, तो उसे शान्ति और सहारा देने के अमोघ

बेबर— ‘भारतीय उपनिषद ईश्वरीय ज्ञान के महानतम ग्रन्थ हैं। इनसे सच्ची आत्मिक शान्ति प्राप्त होती है। विश्व-साहित्य की ये अमूल्य धरोहर है।

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ब्राह्मण ग्रन्थ धर्मग्रन्थ वेदों का गद्य में व्याख्या वाला खण्ड है। ब्राह्मणग्रन्थ वैदिक वाङ्मय का वरीयता के क्रम में दूसरा हिस्सा है। अर्थात् वेदों के बाद ब्राह्मण ग्रन्थों का स्थान आता है। ब्राह्मण ग्रन्थों में गद्य रूप में देवताओं की तथा यज्ञ की रहस्यमय व्याख्या की गयी है और मन्त्रों पर भाष्य भी दिया गया है। इनकी भाषा वैदिक संस्कृत है। हर वेद का एक या एक से अधिक ब्राह्मणग्रन्थ है (हर वेद की अपनी अलग-अलग शाखा है)। ब्राह्मण ग्रन्थों की भाषा गद्य का प्राचीनतम रूप है। कुछ विद्वान ब्राह्मण ग्रन्थों को वेदों का अतिप्राचीन भाष्य मानते हैं।

ब्राह्मण ग्रन्थों का विवेच्य विषय- ब्राह्मण ग्रन्थों का मुख्य विषय यज्ञकर्म का विधान है। अग्निहोत्र, दर्शपूर्णमास, चातुर्मास्य, सोमयज्ञ इत्यादि यज्ञों के निरूपण के साथ-साथ सत्रा आदि और काम्य-यज्ञों का वर्णन भी ब्राह्मण ग्रन्थों में प्राप्त होता है। यज्ञ का विधान कब हो? कैसे हो? किन किन साधनों से हो? इस प्रकार अनेक यज्ञकर्म विषयक प्रश्नों का समाधान इन ग्रन्थों में है। इन विभागों को ही ‘विधि कहते हैं।

वेद और संबंधित ब्राह्मण

ऋग्वेद के दो ब्राह्मण ग्रन्थ है- 1. कौषीतकि 2. ऐतरेय। इन दोनों में ग्रन्थों का सम्बन्ध अत्यन्त घनिष्ठ है।

  • कौषीतकि ब्राह्मण ग्रन्थ- कौषीतकि ब्राह्मण में तीस अध्याय हैं। प्रत्येक अध्याय में पाँच से लेकर सत्तरह खण्ड हैं। कौषीतकि ब्राह्मण में रुद्र की महिमा का विशेष वर्णन प्राप्त होता है। यह शांखायन शाखा का ब्राह्मणहै, अतः इसे शांखायन ब्राह्मण भी कहते हैं।
  • ऐतरेय ब्राह्मण ग्रन्थ- ऐतरेय ब्राह्मण के रचियता महिदास हैं, इस ब्राह्मण में 40 अध्याय हैं, 8 पंजिकाएँ तथा 285कण्डिकाएँ हैं। इसका मुख्य विषय सोमयज्ञ है तथा होता नामक ऋत्विज के क्रिया कलापों का भीविस्तृत विवेचन उपलब्ध होता है। शुनः शेपः का आख्यान इसी ब्राह्मण में उपलब्ध होता है। चरैवेति चरैवेति” की सुन्दर शिक्षा ऐतरेय ब्राह्मण की विशेषता है। इस ब्राह्मण में सोमहरण आख्यान भी है।

यजुर्वेद के ब्राह्मण ग्रन्थ यजुर्वेद के दो भाग हैं- 1. कृष्ण यजुर्वेद 2. शुक्ल यजुर्वेद।

  • कृष्ण यजुर्वेद के ब्राह्मण-  कृष्ण यजुर्वेद की वर्तमान काल में चार शाखाएँ हैं- तैत्तिरीय, मैत्रायणी, कठ, कपिष्ठल।इन चारों शाखाओं में से केवल तैत्तिरीय शाखा का ब्राह्मण उपलब्ध है। तैत्तिरीय ब्राह्मण तैत्तिरीय ब्राह्मण कृष्ण यजुर्वेद की तैत्तिरीय शाखा से सम्बद्ध है यह ब्राह्मण तीन भागों मेंविभक्त हैं जिन्हें काण्ड कहते हैं। इसके रचयिता वैशम्पायन के शिष्य आचार्य तित्तिर हैं। तैत्तिरीयब्राह्मण में अश्वमेध, राजसूय, सोमयाग आदि यज्ञों का वर्णन विस्तार से प्राप्त होता है।
  • शुक्ल यजुर्वेद- की दो शाखाएँ हैं,काण्व शाखा तथा माध्यन्दिन शाखा। इन दोनों ही शाखाओं के ब्राह्मण का नाम शतपथ है। शुक्ल यजुर्वेद का एकमात्र ब्राह्मण शतपथ ब्राह्मण है। शतपथ ब्राह्मण सबसे प्रसिद्ध ब्राह्मण ग्रन्थ है। यह सब प्रकार से पूर्ण और सुबद्ध ब्राह्मण ग्रन्थ है। ”वेद कालीन धार्मिक समाज का उज्जवल चित्र शतपथ ब्राह्मण ग्रन्थ में ही मिलता है। सबसे अधिक आदर ब्राह्मण समूह में शतपथ ब्राह्मण को ही प्राप्त है।’

सामवेद संहिता के सबसे अधिक ब्राह्मण उपलब्ध होते हैं- सामवेद से सम्बन्धित आठ ब्राह्मण हैं। सायणाचार्य ने सामवेद के ब्राह्मणों के नाम उल्लेख किये हैं-

  1. प्रौढ़ या ताण्ड्य ब्राह्मण- सामवेद के ब्राह्मणों में सबसे अधिक विस्तृत होने के कारण इसे प्रौढ़ या महाब्राह्मण कहाजाता है। इसके रचयिता सामवेद के आचार्य तडि हैं। अतः इसका ताण्ड्य ब्राह्मण भी नाम है।ताण्ड्य ब्राह्मण में 25 अध्याय हैं,इस कारण यह पंचविश नाम से अभिहित हुआ है। पंचविंश ब्राह्मणका प्रतिपाद्य विषय सोमयाग है।
  2. षड्विंश ब्राह्मण- इस ब्राह्मण में 26 अध्याय हैं। अतः इसे षड्विंश ब्राह्मण कहते हैं। षड्वंश ब्राह्मण सामवेद की कौथुम शाखा से सम्बद्ध है। आचार्य सायण ने अपने भाष्य में इसे ताण्डवैकशेष ब्राह्मण अर्थात्ताण्ड्य का एक भाग या परिशिष्ट कहा है। इसमें इन्द्र तथा अहल्या का आख्यान अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है।
  3. सामविधान ब्राह्मण- सामविधान ब्राह्मण में तीन प्रपाठक और 25 अनुवाक हैं। इसमें श्रौत यागों के साथ-साथकाम्य याग और अभिचार कर्मों का भी विस्तृत विवेचन है।
  4. आर्षेयब्राह्मण- सामवेद की कौथुमी शाखा के अनुयायियों का ही यह ब्राह्मण है। इसमें मुख्यतः सामगानके नामों का वर्णन है। आर्षेय ब्राह्मण में तीन प्रपाठक हैं जो 72 खण्डों में विभक्त हैं। इस ब्राह्मणमें सामवेद के उद्भावक ऋषियों के नाम का संकेत है। अतः यह ब्राह्मण सामवेद के लिएअर्षानुक्रमणी का काम करता है।
  5. देवताध्याय ब्राह्मण- यह ब्राह्मण अत्यन्त छोटा ब्राह्मण है, इसमें केवल तीन खण्ड हैं। देवताध्याय ब्राह्मण मेंदेवताओं की प्रशंसा, छन्दों की निरुक्तियाँ आदि का वर्णन प्राप्त होता है।
  6. उपनिषद् ब्राह्मण इस ब्राह्मण में दो ग्रन्थ सम्मिलित हैं- मन्त्र ब्राह्मण तथा छान्दोग्य उपनिषद् । मन्त्र ब्राह्मण| इस ब्राह्मण को छान्दोग्य ब्राह्मण कहते हैं, इसमें दो प्रपाठक हैं, प्रत्येक प्रपाठक में आठ-आठकाण्ड हैं। छान्दोग्य ब्राह्मण के शेष 8 प्रपाठक छान्दोग्य उपनिषद् हैं। शंकराचार्य ने इसे ‘तण्डिनामउपनिषद्की संज्ञा दी है। यह ब्राह्मण कौथुम शाखा से सम्बद्ध है।
  7. संहितोपनिषद् ब्राह्मण- संहितोपनिषद् का अर्थ है, संहिता के उपनिषद् । इसमें साम गायन के विशेष नियमों कावर्णन प्राप्त होता है। इसमें पाँच खण्ड हैं। इस ब्राह्मण में सामवेद के प्रातिशाख्यसूत्र, सामतंत्र औरफुल्लुसूत्रादि उपलब्ध होते हैं।
  8. वंश ब्राह्मण- सामवेद का यह ब्राह्मण अत्यन्त छोटा है। इसमें तीन खण्ड हैं। इसमें सामगान के प्रवर्तकऋषियों और आचार्यों की वंश परम्परा का विस्तृत विवेचन है।

अथर्ववेद के ब्राह्मण

  • गोपथ ब्राह्मण- अथर्ववेद से सम्बद्ध केवल एक ही ब्राह्मण उपलब्ध है, जिसका नाम गोपथ ब्राह्मण है।गोपथ ब्राह्मण गोपथ ब्राह्मण के दो भाग हैं, पूर्व गोपथ तथा उत्तर गोपथ। पूर्व गोपथ में पाँच प्रपाठक हैं, उत्तर गोपथ में छः प्रपाठक हैं। प्रपाठकों का विभाजन कण्डिकाओं में हुआ है जो कुल मिलाकर258 हैं। इसके रचयिता गोपथ ऋषि हैं। यह अथर्ववेद की पिप्पलाद शाखा से सम्बद्ध है।

ब्राह्मण ग्रन्थ जो अनुपलब्ध हैं- इस प्रकार स्पष्ट होता है कि प्राचीन समय में अनेक ब्राह्मण ग्रन्थ विद्यमान थे। जो वर्तमानकाल में उपलब्ध नहीं हैं, परन्तु इनके नाम उपलब्ध ब्राह्मण ग्रन्थों में एवं विविध भाष्यकारोंद्वारा उनके भाष्यों में उल्लेख किये गये हैं। उन अनुपलब्ध ब्राह्मण ग्रन्थों का उल्लेख निम्नवत् है-

ऋग्वेद के अनुपलब्ध ब्राह्मण

  1. पैङ्गि ब्राह्मण- पैङ्गि ब्राह्मण ऋग्वेद का ब्राह्मण है, क्योंकि पैङ्गय शाखा ऋग्वेद की है। इस ब्राह्मण के विषयमें प्रपञ्चहृदय की एक कारिका में प्रमाण उपलब्ध होता है। आयुर्वेद के ग्रन्थ चरकसंहिता में भीपैङ्गि ऋषि का वर्णन है।
  2. बहुवृच ब्राह्मण- शतपथ ब्राह्मण में बवृच शब्द का उल्लेख प्राप्त होता है। पाणिनि ने बवृच से सम्बद्धएक सूत्र भी दिया है। श्रीमद्भागवत् गीता का एक श्लोक भी बवृच का संकेत करता है, किनैमिषारण्यवासी शौनक ऋषि बघृच थे।
  3. आश्वलायन ब्राह्मण- ऋग्वेद की 21 शाखाओं का उल्लेख पतंजलि महाभाष्य में हुआ है। प्रपञ्चहृदय की कारिकाएकविंशतिधा वावृच्यम्’ शब्द से ऋग्वेद की शाखाओं का उल्लेख है।

यजुर्वेद के अनुपलब्ध ब्राह्मण

  1. चरक ब्राह्मण- कृष्णयजुर्वेदी की प्रधान शाखा चरक से सम्बन्धित है। ऋग्वेद के सायणभाष्य में इस ब्राह्मणका उल्लेख प्राप्त होता है। काठक संहिता में भी इस ब्राह्मण के विषय में वर्णन प्राप्त होता है।
  2. काठक ब्राह्मण- यजुर्वेद की चार शाखाएँ कठ, कपिष्ठल, तैत्तिरीय तथा मैत्रायणी हैं। अतः काठक ब्राह्मणयजुर्वेद से सम्बद्ध है, तैत्तिरीय ब्राह्मण का कुछ अन्तिम भाग अर्थात् अष्टक को कठ एवं काठकब्राह्मण कहते हैं।
  3. मैत्रायणी ब्राह्मण- मैत्रायणी ब्राह्मण मैत्रायणी संहिता से सम्बद्ध है। बौद्यायन श्रौतसूत्र में मैत्रायणी ब्राह्मण काउल्लेख प्राप्त होता है।

यजुर्वेद के अनेक ब्राह्मण हैं जिनका केवल नामोल्लेख उपलब्ध होता है-1. औरवेय ब्राह्मण’ 2. जाबाल ब्राह्मण 3. कंकति ब्राह्मण4. छागलेय ब्राह्मण 5. खाण्डिकेय ब्राह्मण

सामवेद के अनुपलब्ध ब्राह्मण

  • भाल्लवि ब्राह्मण भाल्लवि शाखा का ब्राह्मण प्राचीन काल में विद्यमान था।’ ताण्ड्य ब्राह्मण में भी भाल्लवियों का वर्णन है। इन ग्रन्थों में इस ब्राह्मण के विषय में उल्लेख है, अतः इसके होने का संकेत मिलता है।
  • रौरुकि ब्राह्मण गोभिल गृह्यसूत्र में इस ब्राह्मण से सम्बद्ध पाठ है। ताण्ड्य ब्राह्मण के भाष्य में सायण ने रौरुकि ब्राह्मण का प्रमाण दिया है।
  • शाट्यायन ब्राह्मण शाट्यायन ब्राह्मण के अनेक उद्धरण प्राप्त होते हैं। ऋग्वेद के सायण भाष्य में इस ब्राह्मणके विषय में उल्लेख है। आश्वलायन श्रौतसूत्र में शाट्यायन ब्राह्मण की चर्चा है।

ऐसे भी ब्राह्मण ग्रन्थ हैं जिनका सम्बन्ध किसी शाखा से निश्चित करना सम्भव नहीं है। उन ब्राह्मणों के नाम इस प्रकार हैं-

  1. आरुणेय ब्राह्मण
  2. सौलभ ब्राह्मण  
  3. शैलाली ब्राह्मण
  4. पराशर ब्राह्मण
  5. माषशरावि ब्राह्मण
  6. कापेय ब्राह्मण

इस प्रकार ब्राह्मण ग्रन्थ अनेक हैं, परन्तु कालान्तर में विलुप्त हो गये और वर्तमान में कुछ ही ब्राह्मण ग्रन्थ उपलब्ध हैं।

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