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भारतीय संस्कृति का आधार… वेद, पुराण और उपनिषद्

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  • वेद वैदिक संस्कृति एवं भारतीय संस्कृति के मूलाधार है। वेद ज्ञान, विज्ञान और धर्म का अनूठा संगम है।
  • वेद प्राचीन भारत के पवितत्रतम साहित्य हैं, जो हिन्दुओं के प्राचीनतम और आधारभूत धर्मग्रन्थ भी हैं।
  • भारतीय संस्कृति में वेद सनातन धर्म के मूल आधार और सबसे प्राचीन धर्म ग्रन्थ हैं।
  • वेदों को दुनिया के प्रथम धर्मग्रंथ भी कहा जाता है, वेदों की रचना का काल अलग-अलग है।
  • अन्य धर्म वेदों के ज्ञान को अपने-अपने तरीके से भिन्न-भिन्न भाषा में प्रचारित करते रहे हैं।
  • वेदों की रचना के विषय में विद्वानों और इतिहासकारों द्वारा दो विचार रखे गए हैं।
  • पहला, वेद ईश्वर के द्वारा रचे गए ग्रंथ हैं। दूसरा वेद ऋषियों द्वारा रचे गए धर्म ग्रंथ हैं।
  • हिंदू धर्म के अनुसार वेद को अपौषेय एवं अनादि हैं माना गया है।
  • वेद ईश्वर द्वारा ऋषियों को सुनाए गए ज्ञान पर आधारित बताया गया है।
  • इसी कारण वेदों को ‘श्रुति’ भी कहा गया है। सामान्य भाषा में वेद का अर्थ होता है ज्ञान।
  • वेद पुरातन ज्ञान विज्ञान का अथाह भंडार है। वेदों में मानव की हर समस्या का समाधान है।

वेदों में ब्रह्म (ईश्वर), देवता, ब्रह्मांड, ज्योतिष, गणित, रसायन, औषधि, प्रकृति, खगोल, भूगोल, धार्मिक नियम, इतिहास, रीति-रिवाज आदि लगभग सभी विषयों से संबंधित ज्ञान भरा पड़ा है।

वेद किसी भी प्रकार के ऊँच-नीच, जात-पात, महिला-पुरुष आदि के भेद को नहीं मानते- ऋग्वेद की ऋचाओं में लगभग 414 ऋषियों के नाम मिलते हैं जिनमें से लगभग 30 नाम महिला ऋषियों के हैं।

श्रीमद्‍भगवत गीता के श्लोक में कहा गया है-

श्रुतिस्मृतिपुराणानां विरोधो यत्र दृश्यते।

तत्र श्रौतं प्रमाणन्तु तयोद्वैधे स्मृति‌र्त्वरा॥

अर्थात -जहाँ कहीं भी वेदों और दूसरे ग्रंथों में विरोध दिखता हो, वहाँ वेद की बात की मान्य होगी।

कृष्ण यजुर्वेद, तैत्तिरीय सहिंता (उपोद्घात)-

प्रत्यक्षेणानुमित्या वा यस्तूपायो न बुध्यते !

एनं विदंति वेदेन तस्माद वेदस्य वेदता !! 

अर्थात –प्रत्यक्ष अथवा अनुमाण प्रमाण से जिस तत्व (विषय) का ज्ञान प्राप्त नहीं हो रहा हो, उसका ज्ञान भी वेदों के द्वारा हो जाता है । यही वेदों का वेदत्व है ।

वेदों के बारे में भारतीय विद्वानों ने कहा-

  • महर्षि पाणिनि- ने वेद शब्द को दो प्रकार का माना है। 1) रूढ आधुदात 2) योगरूढ अन्तोदात। अच्छादि’ गण में वेद शब्द पाठ का प्रयोजन अन्तोदात और वृषादि गण में इसके पाठ का प्रयोजन आधुदात सिद्ध है।
  • महर्षि दयानन्द सरस्वती– ऋग्वेदादि भाष्य भूमिका में वेद शब्द की व्याख्या या व्युत्पत्ति इस प्रकार की है। जानते है, प्राप्त करते है, विचार करते है, सब मनुष्य सब सत्य विद्याओं को जिनसेअथवा जिनमें, और वैसे विद्वान होते है, उनका नाम वेद है।
  • महर्षि पतञ्जलि- ने कहा ब्राह्मणेन निष्कारणो धर्मः षडङ्गे वेदोडध्येयो जयश्च। अर्थात- ब्राह्मण का धर्म है कि वह बिना किसी प्रयोजन के छःअङ्गो सहित वेदों का अध्ययनकरे और उनका ज्ञान प्राप्त करे ।
  • महर्षि अरविंद- की दृष्टि में वेद का अर्थ योग तथा तपस्या के द्वारा विद्युत तथा पवित्रितहृदयमें स्फूरित होता है। वैदिक मन्त्रों के शब्द किसी आध्यात्मिक तत्त्व के प्रतीक है।

वेदों का सामान्य परिचय- वेद चार हैं ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद, अथर्ववेद। पहले तीन परस्पर लगभग एक समान हैं इनमे से ऋग्वेद प्रधान है। इसमें द्विव्य स्तुतियों का संग्रह किया गया है।

  • सामवेद विशुद्ध कर्मकाण्ड सम्बन्धी संग्रह है। इसका बहुत सा भाग ऋग्वेदमें पाया जाता है। यजुर्वेद की उपयोगिता भी कर्मकाण्ड के लिए है।
  • वेद शब्द ज्ञानार्थक विद् धातु (विद ज्ञाने) से घञ् प्रत्यय करने परबनता हैं इसका आशय है-ज्ञान। अतः वेद शब्द का अर्थ होता है-ज्ञान कीराशि या ज्ञान का संग्रह-ग्रन्थ।
  • प्राचीन ऋषियों ने जो ज्ञान अपनी आर्ष दृष्टि से प्राप्त किया था, उसका संग्रह वेदों में है। वेद परम-प्रमाण अर्थात् आगम या शब्द-प्रमाण में उत्कृष्ट हैं।
  • मीमांसकों ने कहा है कि प्रत्यक्ष और अनुमान से हमजिस उपाय या ज्ञान को नहीं पा सकते उसे वेद बता सकते हैं अर्थात् वेद ज्ञान के समस्त उपायों में श्रेष्ठ हैं।

वेदों की उत्पत्ति- वेद अपौरूषेय हैं, वेदों का रचयिता कोई व्यक्ति विशेष या ऋषि नहीं है। सृष्टि के आदि में परमात्मा ने जिस प्रकार लोकानुग्रह के लिए सूर्य, चन्द्र, जल, वायु आदि दिए हैं। उसी प्रकार मानवमात्र के मार्गदर्शनार्थ वेदों का ज्ञानपरमसिद्ध ऋषियों को दिया। उन्होंने उस ज्ञान का प्रसार किया। ऋग्वेद,यजुर्वेद, शतपथ ब्राह्मण, बृहदारण्यक उपनिषद् आदि में वर्णन प्राप्त होता है कि चारों वेद उस परमात्मा से ही प्राप्त हुए हैं। अथर्ववेद का कथन है कि चारों वेद विश्व के आधारभूत ईश्वर से प्रार्दुभूत हुए।’ शतपथ ब्राह्मण और वृहदारण्यक उपनिषद् का कथन है कि ये चारों वेद उस ब्रह्म के श्वास-रूप हैं। श्वेताश्वेतर उपनिषद् का कथन है कि सृष्टि के प्रारम्भ में ब्रह्म उत्पन्न हुएऔर परमात्मा ने उनके लिए वेदों का ज्ञान प्रकट किया।

पहला विचार- वेद अनादि और अनन्त हैं- महर्षि दयानन्द जी ऋग्वेदादि भाष्य भूमिका में लिखते हैं –विदन्ति विचारयन्तिसर्वे मनुष्याः सर्वा: सत्यविद्याथैर्येषु वा विद्वांसश्च भविन्त ते वेदाः। वेद सृष्टि का प्रथम काव्य है। भारतीय परम्परा में न केवल प्रथम काव्य अपितु अनादि और अनन्त काव्य भी है। इस महान् काव्य का रचयिता होने के कारण परमात्मा को कवि भी कहा जाता है।’ वेदों के विषय में यहाँ पर ज्यादा लिखना उचित नहीं होगा क्योंकि वेद सर्वविदित है।v1.jpg

दूसरा विचार- वेद ऋषिमुनियों और ब्राह्मणपुरोहितों की रचना हैं-v2.jpg

वैदिक काल-

  • जर्मन विद्वान डॉ. जैकोबी- का वैदिक काल विषयक सिद्धान्त भी ज्योतिष केआधार पर आधारित है जो तिलक के सिद्धान्त से काफी मेल खाता है। डॉ० जैकोबी नेकृतिका तथा बसन्तसम्पात के आधार पर बताया है कि – बसन्त, ग्रीष्म, वर्षा, शरद्,हेमन्त, शिशिर कुल छः ऋतुएँ होती हैं। प्राचीन काल से लेकर आज तक जिस नक्षत्र केसाथ जिस ऋतु का उदय होता था, आज वही ऋतु, उस नक्षत्र के पूर्ववर्ती नक्षत्र के साथसमय आकर उपस्थित होता है। प्राचीनकाल में बसन्त से वर्ष का प्रारम्भ माना जाता था,जबकि आजकल वर्ष ‘वसन्तसम्पात’ मीन की संक्रान्ति से प्रारम्भ होता है और यह संक्रान्तिपूर्वाभाद्रपद नक्षत्र के चतुर्थ चरण से प्रारम्भ होती है। इसी आधार पर जैकोबी ने वेद मन्त्रोंका रचना काल 4590 ई० पू० तथा ब्राह्मण ग्रन्थों का रचनाकाल 2300 ई० पू० के बादमें स्वीकार किया है।
  • बाल गंगाधर तिलक ने इस विषय में जैसा परिश्रम किया है, वैसा सम्भवतया किसी विद्वान ने नहीं किया।उनका कथन है कि ब्राह्मण काल में नक्षत्र गणना “कृतिका नक्षत्र से होती थी। उन्हेंउसका ऐसा वर्णन मिलता है, जबकि कृति का नक्षत्र उदित था और वासन्त संक्रान्ति भीथी ग्रहों की गणना के आधार पर उन्होंने निष्कर्ष निकाला है कि उक्त वासन्त संक्रान्तिकृतिका नक्षत्र से 2500 ई० पू० हुई । अतः लगभग 2500 ई० पू० ही ब्राह्मणों का रचनाकाल सिद्ध होता है।
  • प्रो. मैक्समूलर ने सम्पूर्ण वैदिक साहित्य को चारभागों में विभक्त किया है उन भागों के नाम निम्न प्रकार से हैं- छन्दकाल, मन्त्रकाल, ब्राह्मणकाल और सूत्रकाल । उन्होंने प्रत्येक युग केविकास के लिए दो-दो सौ वर्ष का समय दिया है। बुद्ध से प्रथम होने के कारण सूत्रकाल600 विक्रम पूर्व, ब्राह्मणकाल 600 से 800 वि० पू०, मन्त्रकाल 800 से 1000 वि० पू०. तथाछन्दकाल 1000 से 1200 वि० पू० तक स्वीकार किया है।
  • तुर्की में 1400 ईसा पूर्व के मिले लेख- तुर्की के बोगज कोई नामक स्थान पर प्राप्त एक उत्कीर्ण लेख में इन्द्रमित्रावरुणो और नास्तयौ का उल्लेख है, जो वैदिक देवता है। इस लेख को 1400 ई. पूर्व का माना जाता है।
  • ज्योतिष की गणना के आधार पर भारतीय ज्योतिष-शंकर बालकृष्ण दीक्षित ने शतपथ ब्राह्मण का रचनाकाल 3000 ई. पूर्व के लगभग में प्रतिपादित किया है। इसके लिए उन्होंने शतपथ ब्राह्मण की ये कण्डिकाएँ प्रस्तुत की हैं-”एकं द्वे त्रीणि चत्वारीति वाड्अन्यानि नक्षत्राण्यभैता एव भूयिष्ठा यत्कृतिकास्तदभूयानमे वैतदुपैति तस्मात् कृत्तिकास्वादधीतः एता ह वै प्राच्यै दिशो न च्यवन्तें। सर्वाणि ह वाड्अन्यानि नक्षत्राणि प्राच्यै दिशश्यामेवास्यैः नद्दिश्याहितौ भवतस्तस्मात् कृत्तिका स्वादधीत।”
  • दूसरी ओर कुछ लोगों का यह मानना है कि कृष्ण के समय द्वापरयुग की समाप्ति के बाद महर्षि वेद व्यास ने वेद को चार प्रभागों संपादित करके व्यवस्थित किया। इन चारों प्रभागों की शिक्षा चार शिष्यों पैल, वैशम्पायन, जैमिनी और सुमन्तु को दी। उस क्रम में ऋग्वेद- पैल को, यजुर्वेद- वैशम्पायन को, सामवेद- जैमिनि को तथा अथर्ववेद- सुमन्तु को सौंपा गया। इस मान से लिखित रूप में आज से 6510 वर्ष पूर्व पुराने हैं वेद। श्रीराम का जन्म 5114 ईसा पूर्व हुआ था और श्रीकृष्ण का जन्म 3112 ईसा पूर्व हुआ था। आर्यभट्‍ट के अनुसार महाभारत युद्ध 3137 ई.पू. में हुआ था। इसका मतलब यह कि वैवस्वत मनु (6673 ईसापूर्व) काल में वेद लिखे गए।

वेद के विभाग चार है

  • ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद और अथर्ववेद। ऋग-स्थिति, यजु-रूपांतरण, साम-गति‍शील और अथर्व-जड़। ऋक को धर्म, यजुः को मोक्ष, साम को काम, अथर्व को अर्थ भी कहा जाता है। इन्ही के आधार पर धर्मशास्त्र, अर्थशास्त्र, कामशास्त्र और मोक्षशास्त्र की रचना हुई।

वेदों के उपवेद

  • ऋग्वेद का आयुर्वेद, यजुर्वेद का धनुर्वेद, सामवेद का गंधर्ववेद और अथर्ववेद का स्थापत्यवेद ये क्रमशः चारों वेदों के उपवेद बतलाए गए हैं।

आयुर्वेद – वैदिक ज्ञान पर आधारित स्वास्थ्य विज्ञान।

धनुर्वेद – युद्ध कला का विवरण। इसके ग्रंथ विलुप्त प्राय हैं।

गन्धर्वेद – गायन कला।

स्थापत्यवेद – स्थापत्यकला के विषय, जिसे वास्तु शास्त्र या वास्तुकला भी कहा जाता है, इसके अन्तर्गत आता है।

1- ऋग्वेद- ऋक अर्थात् स्थिति और ज्ञान। ऋग्वेद सबसे पहला वेद है जो पद्यात्मक है। इसके 10 मंडल (अध्याय) में 1028 सूक्त है जिसमें 10,552 मंत्र हैं। इस वेद की 5 शाखाएं हैं शाकल्प, वास्कल, अश्वलायन, शांखायन, माण्डूकायन… इसमें भौगोलिक स्थिति और देवताओं के आवाहन के मंत्रों के साथ बहुत कुछ है। ऋग्वेद की ऋचाओं में देवताओं की प्रार्थना, स्तुतियां और देवलोक में उनकी स्थिति का वर्णन है। इसमें जल चिकित्सा, वायु चिकित्सा, सौर चिकित्सा, मानस चिकित्सा और हवन द्वारा चिकित्सा आदि की भी जानकारी मिलती है। ऋग्वेद के दसवें मंडल में औषधि सूक्त यानी दवाओं का जिक्र मिलता है। इसमें औषधियों की संख्या 125 के लगभग बताई गई है, जो कि 107 स्थानों पर पाई जाती है। औषधि में सोम का विशेष वर्णन है। ऋग्वेद में च्यवनऋषि को पुनः युवा करने की कथा भी मिलती है।

2- यजुर्वेद : यजुर्वेद का अर्थ : यत् + जु = यजु। यत् का अर्थ होता है गतिशील तथा जु का अर्थ होता है आकाश। इसके अलावा कर्म। श्रेष्ठतम कर्म की प्रेरणा। यजुर्वेद में यज्ञ की विधियां और यज्ञों में प्रयोग किए जाने वाले मंत्र हैं। यज्ञ के अलावा तत्वज्ञान का वर्णन है। तत्व ज्ञान अर्थात रहस्यमयी ज्ञान। ब्रह्माण,आत्मा, ईश्वर और पदार्थ का ज्ञान। यह वेद गद्य मय है। इसमें यज्ञ की असल प्रक्रिया के लिए गद्य मंत्र हैं। यजुर्वेद कर्मकाण्ड का वेद है। इसमें यज्ञों की विभिन्न विधियां औरउनमें पाठ्य मंत्रों का संकलन है। यज्ञ करने वाले ऋत्विज् को अध्वर्यु कहते हैं।यजुर्वेद कर्मकाण्ड का प्रमुख ग्रन्थ है। चरणव्यूह’ में यजुर्वेद की 86 शाखाओं का उल्लेख है, जिसमें से शुक्ल यजुर्वेदकी 17 शाखाएँ हैं, शेष 69 कृष्ण यजुर्वेद की हैं।  इस वेद की दो शाखाएं हैं शुक्ल और कृष्ण-

  • कृष्ण: वैशम्पायन ऋषि का सम्बन्ध कृष्ण से है। कृष्ण यजुर्वेद की केवल 4शाखाएँ ही उपलब्ध हैं- ये हैं-(1) तैत्तिरीय (2) मैत्रायणी (3) काठक या कठ (4) कापिष्ठल, कठ शाखा।
  • शुक्ल: याज्ञवल्क्य ऋषि का सम्बन्ध शुक्ल से है। शुक्ल की दो शाखाएं हैं। 1. माध्यनिन्दन या वाजसनेयि संहिता- इसमें 40 अध्याय और 1975 मंत्र हैं। 2. काण्व संहिता – इसमें भी 40 अध्याय हैं और मंत्र संख्या 2086 हैं। यजुर्वेद के एक मंत्र में च्ब्रीहिधान्यों का वर्णन प्राप्त होता है। इसके अलावा, दिव्य वैद्य और कृषि विज्ञान का भी विषय इसमें मौजूद है।
शुक्ल यजुर्वेद कृष्ण यजुर्वेद
यह आदित्य सम्प्रदाय का प्रतिनिधि है। यह ब्रह्म सम्प्रदाय का प्रतिनिधि है।
शुक्लयजुर्वेद में केवल यज्ञ में प्रयोग किये जाने वाले मंत्रों का ही संकलन है। कृष्णयजुर्वेद में यज्ञ के मंत्रों के साथ यज्ञ के विधि विधान की व्याख्या करने वाले ब्राह्मण भाग का भी संकलन है।
इसमें मंत्र और ब्राह्मण का मिश्रण नहीं है विशुद्धता की दृष्टि से ही इसे शुक्ल कहा गया है। इसमें मन्त्र और ब्राह्मण भाग का मिश्रण है। मिश्रण के कारण इसे कृष्ण कहा गया है।

3- सामवेद: सामन् या साम का अर्थ : गीतियुक्त मंत्र है। सामके लिए गीतियुक्त होना अनिवार्य है। ऋग्वेद के मंत्र जब विशिष्ट गान-पद्धति से गाये जाते हैं, तब उनको सामन् (साम) कहते हैं। अतःएव पूर्वमीमांसा में गीतिया गान को साम कहा है। ‘गीतिषु सामाख्या’। इस वेद में ऋग्वेद की ऋचाओं का संगीतमय रूप है। सामवेद गीतात्मक यानी गीत के रूप में है। इस वेद को संगीत शास्त्र का मूल माना जाता है। 1824 मंत्रों के इस वेद में 75 मंत्रों को छोड़कर शेष सब मंत्र ऋग्वेद से ही लिए गए हैं।इसमें सविता, अग्नि और इंद्र देवताओं के बारे में जिक्र मिलता है। इसमें मुख्य रूप से 3 शाखाएं हैं, 75 ऋचाएं हैं। सामवेद के दो मुख्य भाग हैं –(1) पूर्वार्चिक (2) उत्तरार्चिक। आर्चिक का शाब्दिक अर्थ है- ऋचाओं का समूह या संकलन-

  • पूर्वार्चिक: इसमें चार कांड हैं (क) आग्नेय (ख) ऐन्ह (ग) पावमान (घ) आरण्य कांड और परिशिष्ट के रूप में महानाम्नी आर्चिक। पूर्वार्चिक में 6 अध्याय हैं।
  • उत्तरार्चिक: इसमें 21 अध्याय हैं। मंत्रों की संख्या 1225 है। उत्तरार्चिकमें कुल 400 सूक्त हैं। इसमें 287 सूक्तों में प्रत्येक में तीन-तीन मंत्रों का समूहहै। 66 में दो-दो मंत्र हैं और शेष 47 सूक्तों में 1 से 12 तक मंत्र-समूह हैं।

4- अथर्वदेव:  निरूक्त और गोपथ ब्राह्मण में अथर्वन् शब्द की दो प्रकार से व्याख्या की गई है। (1) अथर्वन् गतिहीन या स्थिरता से युक्त योग। निरूक्त के अनुसार ‘थर्वृ धातु का अर्थ गति या चेष्टा, अतः अथर्वन् का अर्थ है- गतिहीन या स्थिर। इसका अभिप्राय है कि जिस वेद में स्थिरता याचित्तवृत्तियों के निरोधरूपी योग का उपदेश है, वह अथर्वन् वेद है। अथर्ववेद में विभिन्न ऋषियों के दृष्ट मंत्र हैं तथा अनेक विषयों का प्रतिपादन है, अतःइसके अनेक नाम पड़े हैं। इस वेद में रहस्यमयी विद्याओं, जड़ी बूटियों, चमत्कार और आयुर्वेद आदि का जिक्र है। महर्षि पतंजलि ने महाभाष्य में अथर्ववेद की 9 शाखाओं का उल्लेख किया है- लेकिन इनमें से केवल दो शाखाएं ही संप्रति उपलब्ध हैं- शौनकीय शाखा और पैप्पलाद शाखा। शौनकीय शाखा में 20 काण्ड, 230 सूक्त और 5687 मंत्र है।

  • अथर्ववेद तथा अन्य ग्रंथों में अथर्ववेद के ये नाम प्राप्त होते हैं- अथर्ववेद, अंगीरस वेद, अथर्वाङ्गिरस वेद, ब्रह्मवेद, भृग्वंगिरोहवेद, क्षत्रवेद, भैषज्य वेद, छन्दोवेद और महीवेद।

वेदों की 28 हजार पांडुलिपियाँ- वेद मानव सभ्यता के लगभग सबसे पुराने लिखित दस्तावेज हैं। वेदों की 28 हजार पांडुलिपियाँ भारत में पुणे के ‘भंडारकर ओरिएंटल रिसर्च इंस्टीट्यूट’ में रखी हुई हैं। इनमें से ऋग्वेद की 30 पांडुलिपियाँ बहुत ही महत्वपूर्ण हैं जिन्हें यूनेस्को ने विरासत सूची में शामिल किया है। यूनेस्को ने ऋग्वेद की 1800 से 1500ई.पू. की 30 पांडुलिपियों को सांस्कृतिक धरोहरों की सूची में शामिल किया है। उल्लेखनीय है कि यूनेस्को की 158 सूची में भारत की महत्वपूर्ण पांडुलिपियों की सूची 38 है।

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पुराण शब्द ‘पुरा’ एवं ‘अण शब्दों की संधि से बना है। पुरा का अथ है- ‘पुराना’ अथवा ‘प्राचीन’ और अण का अर्थ होता है कहना या बतलाना। अर्थात् जो पुरातन अथवा अतीत के तथ्यों, सिद्धांतों, शिक्षाओं, नीतियों, नियमों और घटनाओं का विवरण प्रस्तुत करे वो पुराण है। भगवद्गीता में कहा है (अजो नित्यः शाश्वतोऽयंपुराण:) व (त्वमादिदेवः पुरुषः पुराणः) इनमें प्रयुक्त ‘पुराण’ शब्द प्राचीन अर्थ का वाचक है।

पुराणों की रचना- ‘पुराण’ शब्द का प्राचीनतम प्रयोग अथर्ववेद में मिलता है। सायण ने पुराण शब्द का अर्थपूर्वक्रमागतम् माना है। अथर्ववेद में पुराण का उदय ‘उच्छिष्ट’ संज्ञक ब्रह्म से बताया गया है और इसमें यजुर्वेद के साथ ऋक्, साम, छन्द और पुराण उत्पन्न माने हैं। वैदिकसाहित्य- वेद, ब्राह्मण, आरण्यक, उपनिषद्, वेदाङ्ग- में पुराणों का उल्लेख होना पुराणों कोवेद के समकालीन सिद्ध करता है। शतपथब्राह्मण में ‘पुराण’ को वेद कहा गया है।

  • मान्यता है कि सृष्टि के रचनाकर्ता ब्रह्माजी ने सर्वप्रथम जिस प्राचीनतम धर्मग्रंथ की रचना की, उसे पुराण के नाम से जाना जाता है। हिन्दू सनातन धर्म में, पुराण सृष्टि के प्रारम्भ से माने गये हैं। लेकिन पुराणों की रचना (लिखित रूप में) वैदिक काल के बाद की मानी जाती है, पहले है मनुष्य के स्मृति विभाग में रखे जाते हैं।
  • पुराणों में सृष्टि के आरम्भ से अन्त तक का विशद विवरण दिया गया है । पुराणों को मनुष्य के भूत, भविष्य, वर्तमान का दर्पण भी कहा जा सकता है। इस दर्पण में अपने अतीत को देखकर वह अपना वर्तमान संवार सकता है और भविष्य को उज्ज्वल बना सकता है ।
  • प्राचीनकाल से पुराण देवताओं, ऋषियों, मनुष्यों- सभी का मार्गदर्शन करते रहे हैं। पुराण वस्तुतः वेदों का विस्तार हैं। वेद बहुत ही जटिल तथा शुष्क भाषा- शैली में लिखे गए हैं। अत: पाठकों के एक विशिष्ट वर्ग तक ही इनका रूझान रहा।
  • संभवत: यही विचार करके वेदव्यास जी ने पुराणों की रचना और पुनर्रचना की होगी। अनेक बार कहा जाता है, “पूर्णात पुराण।” जिसका अर्थ है, जो वेदों का पूरक हो, अर्थात् पुराण वेदों की जटिल भाषा में कही गई बातों को पुराणों में सरल भाषा में समझाया गया हैं।

पुराणों में वर्णन- पुराणों में अलग-अलग देवी-देवताओं को केन्द्र में रखकर पाप-पुण्य, धर्म-अधर्म और कर्म-अकर्म की कहानियाँ हैं। प्रेम, भक्ति, त्याग, सेवा, सहनशीलता ऐसे मानवीय गुण हैं, जिनके अभाव में उन्नत समाज की कल्पना नहीं की जा सकती।

  • पुराणों में देवी-देवताओं के अनेक स्वरूपों को लेकर एक विस्तृत विवरण मिलता है। पुराणकारों ने देवताओं की दुष्प्रवृत्तियों का व्यापक विवरण किया है लेकिन मूल उद्देश्य सद्भावना का विकास और सत्य की प्रतिष्ठा ही है।

रघुवंश में पुराण शब्द का अर्थ है “पुराण पत्रापग मागन्नतरम्” एवं वैदिक वाङ्मय में “प्राचीन: वृत्तान्त:” दिया गया है।

शतपथ ब्राह्मण में तो पुराणवाग्ङमय को वेद ही कहा गया है।

छान्दोग्य उपनिषद् (इतिहास पुराणं पंचम वेदानांवेदम्) ने भी पुराण को वेद कहा है।

अथर्ववेद के अनुसार-

“ऋच: सामानि छन्दांसि पुराणं यजुषा सह”

अर्थात् पुराणों का आविर्भाव ऋक्, साम, यजुस् औद छन्द के साथ ही हुआ था।

बृहदारण्यकोपनिषद् तथा महाभारत में कहा गया है कि-

“इतिहास पुराणाभ्यां वेदार्थमुपबृंहयेत्”

अर्थात् वेद का अर्थविस्तार पुराण के द्वारा करना चाहिये। इनसे यह स्पष्ट है कि वैदिक काल में पुराण तथा इतिहास को समान स्तर पर रखा गया है।

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पुराणों की संख्या अठारह क्यों

  • अणिमा, लघिमा, प्राप्ति, प्राकाम्य, महिमा, सिद्धि, ईशित्व या वाशित्व, सर्वकामावसायिता, सर्वज्ञत्व, दूरश्रवण, सृष्टि, पराकायप्रवेश, वाकसिद्धि, कल्पवृक्षत्व, संहारकरणसामर्थ्य, भावना, अमरता, सर्वन्याय – ये अट्ठारह सिद्धियाँ मानी जाती हैं।
  • सांख्य दर्शन में पुरुष, प्रकृति, मन, पाँच महाभूत ( पृथ्वी, जल, वायु, अग्नि और आकाश ), पाँच ज्ञानेद्री ( कान, त्वचा, चक्षु, नासिका और जिह्वा) और पाँच कर्मेंद्री (वाक, पाणि, पाद, पायु और उपस्थ ) ये अठारह तत्त्व वर्णित हैं।
  • छः वेदांग, चार वेद, मीमांसा, न्यायशास्त्र, पुराण, धर्मशास्त्र, अर्थशास्त्र, आयुर्वेद, धनुर्वेद और गंधर्व वेद ये अठारह प्रकार की विद्याएँ मानी जाती हैं ।
  • एक संवत्सर, पाँच ऋतुएँ और बारह महीने – ये सब मिलकर काल के अठारह भेदों को बताते हैं ।
  • श्रीमद् भागवत गीता के अध्यायों की संख्या भी अठारह है ।
  • श्रीमद् भागवत में कुल श्लोकों की संख्या अठारह हज़ार है ।
  • श्रीराधा, कात्यायनी, काली, तारा, कूष्मांडा, लक्ष्मी, सरस्वती, गायत्री, छिन्नमस्ता, षोडशी, त्रिपुरभैरवी, धूमावती, बगलामुखी, मातंगी, पार्वती, सिद्धिदात्री, भगवती, जगदम्बा के ये अठारह स्वरूप माने जाते हैं ।
  • श्रीविष्णु, शिव, ब्रह्मा, इन्द्र आदि देवताओं के अंश से प्रकट हुई भगवती दुर्गा अठारह भुजाओं से सुशोभित हैं ।

पुराणों की व्याख्या-

  • अथर्ववेद में पुराणसन्दर्भ में कहा है कि ऋक्, साम, छन्द, पुराण व यजुष् ये समस्तसाहित्य यज्ञीय भोजन के शेष अंश से उदित हुए हैं।
  • छान्दोग्योपनिषद् में पुराणों की परिगणनापञ्चम वेद के रूप में की गई है।
  • याज्ञवल्क्य आदि महर्षियों ने चतुर्दश विद्याओं की गणना में पुराणविद्या को प्रथम स्थान दिया है।
  • स्कन्दपुराण में पुराण महत्ता इस प्रकार प्रतिपादित की है”पुराण वेदों की आत्मा है, छ: वेदाङ्ग उनसे भिन्न हैं, जो कुछ वेदों में देखा जाता है
  • वहीं स्मृतियों में भी कहा गया है और वेद एवं स्मृति दोनों में जो कुछ देखा गया, वह सब पुराणों में देखा जाता है तथा पुराणों को ब्रह्मा ने सभी शास्त्रों से पूर्व कहा” नारदपुराणान्तर्गत पुराण विद्या को सभी वेदों के अर्थों का सार बताया है।
  • श्रीमद्भागवतपुराण ने भी पुराणों का वैशिष्ट्य मानते हुए इसे पञ्चम वेद की संज्ञा से अभिहित किया है।

पुराणों की संख्या एवं वर्गीकरण-

पुराण शब्द के साथ अष्टादश संख्या जोड़ी जाती है। जिसके आधार पर इनकी संख्या अठारह मानी जाती है। पुराणों की प्रारम्भिक संख्या के सन्दर्भ में मत्स्यपुराण में उल्लेख आता है कि सृष्टि के आदि में देवों के पितामह ब्रह्मा ने उग्र तप किया, जिसके परिणामस्वरूप षङ्ङ्ग पद तथा क्रमशः वेदों का भी आविर्भाव सम्पन्न हुआ तथा उस कल्प में पुराण भी सम्पन्न हुआ जो कि नित्य शब्दमय पुण्यदायक व त्रिवर्ग साधन को प्रदान करने वाला था।

अष्टादश पुराणों की गणना विष्णुपुराण व भागवतपुराण में एक विशिष्ट क्रम के अनुसार दी है। उनके अनुसार इनका क्रम इस प्रकार है- (1) ब्रह्म (2) पद्म (3) विष्णु(4) शिव (5) भागवत (6) नारद (7) ब्रह्मवैवर्त (8) अग्नि (9) भविष्य (10) मार्कण्डेय (11) लिङ्ग (12) वाराह (13) स्कन्द (14) वामन (15) कूर्म (16) मत्स्य (17) गरुड़(18) ब्रह्माण्ड। अन्यत्र मत्स्य, मार्कण्डेय, भविष्यत आदि पुराणों के अन्तर्गत भी अठारहपुराणों का परिगणन किया गया है।

वायुपुराणान्तर्गत अठारह पुराणों का उल्लेख करते हुए सोलह पुराणों की श्लोक संख्याइस प्रकार वर्णित है- 1. मत्स्य- 14,000 2. भविष्यत- 14,500 3. मार्कण्डेय-9,000 4. ब्रह्मवैवर्त-18,000 5. ब्रह्माण्ड- 12,100 6. भागवत- 18,000 7. ब्रह्म- 10,000 8. वामन- 10,0009. आदि- 10,600 10. वायु- 23,000 11. नारद- 23,000 12. गरुड़- 19,00013. पद्म-55,000 14. कूर्म- 17,000 15. वाराह- 24,000 16. स्कन्द-81,000

अठारह पुराण

ब्रह्मापुराण- इसे “आदिपुराण” भी का जाता है. प्राचीन माने गए सभी पुराणों में इसका उल्लेख है. इसमें श्लोकों की संख्या अलग- अलग प्रमाणों से भिन्न-भिन्न है. इसमें सृष्टि, मनु की उत्पत्ति, उनके वंश का वर्णन, देवों और प्राणियों की उत्पत्ति का वर्णन है. इस पुराण में विभिन्न तीर्थों का विस्तार से वर्णन है

  • इसमें श्लोकों की संख्या अलग-अलग प्रमाणों से भिन्न-भिन्न है। 13,789 ये विभिन्न संख्याएँ मिलती है। इसका प्रवचन नैमिषारण्य में लोमहर्षण ऋषि ने किया था। इसमें सृष्टि, मनु की उत्पत्ति, उनके वंश का वर्णन, देवों और प्राणियों की उत्पत्ति का वर्णन है। इस पुराण में विभिन्न तीर्थों का विस्तार से वर्णन है। इसमें कुल 245 अध्याय हैं। इसका एक परिशिष्ट सौर उपपुराण भी है, जिसमें उडिसा के कोणार्क मन्दिर का वर्णन है।

पद्मपुराण- इस पुराण में अनेक विषयों के साथ विष्णुभक्ति के अनेक पक्षों पर प्रकाश डाला गया है. इसका विकास 5वीं शताब्दी में माना जाता है

  • इसमें कुल 641 अध्याय और 48,000 श्लोक हैं। मत्स्यपुराण के अनुसार इसमें 55,000 और ब्रह्मपुराण के अनुसार इसमें 49,000 श्लोक थे। इसमें कुल खण़्ड हैं—(क) सृष्टिखण्डः—५ पर्व, (ख) भूमिखण्ड, (ग) स्वर्गखण्ड, (घ) पातालखण्ड और (ङ) उत्तरखण्ड। इसका प्रवचन नैमिषारण्य में सूत उग्रश्रवा ने किया था। ये लोमहर्षण के पुत्र थे। इस पुराण में अनेक विषयों के साथ विष्णुभक्ति के अनेक पक्षों पर प्रकाश डाला गया है। इसका विकास ५ वीं शताब्दी माना जाता है।

विष्णुपुराण- पुराण के पाँचों लक्षण इसमें घटते हैं. इसमें विष्णु को परम देवता के रूप में निरूपित किया गया है

  • पुराण के पाँचों लक्षण इसमें घटते हैं। इसमें विष्णु को परम देवता के रूप में निरूपित किया गया है। इसमें कुल छः खण्ड हैं, 126 अध्याय, श्लोक 23,000 या 24,000 या 6,000 हैं। इस पुराण के प्रवक्ता पराशर ऋषि और श्रोता मैत्रेय हैं।

वायुपुराण- इसमें विशेषकर शिव का वर्णन किया गया है, अतः इस कारण इसे “शिवपुराण” भी कहा जाता है. एक शिवपुराण पृथक भी है

  • वायुपुराण में शिव का वर्णन किया गया है, अतः इस कारण इसे “शिवपुराण” भी कहा जाता है। एक शिवपुराण पृथक् भी है। इसमें 112 अध्याय, 11,000 श्लोक हैं। इस पुराण का प्रचलन मगध-क्षेत्र में बहुत था। इसमें गया-माहात्म्य है। इसमें कुल चार भाग हैः—(क) प्रक्रियापादः– (अध्याय—1-6), (ख) उपोद्घातः— (अध्याय-7 –64 ), (ग) अनुषङ्गपादः–(अध्याय—65–99), (घ) उपसंहारपादः–(अध्याय—100-112)। इसमें सृष्टिक्रम, भूगो, खगोल, युगों, ऋषियों तथा तीर्थों का वर्णन एवं राजवंशों, ऋषिवंशों,, वेद की शाखाओं, संगीतशास्त्र और शिवभक्ति का विस्तृत निरूपण है। इसमें भी पुराण के पञ्चलक्षण मिलते हैं।

भागवतपुराण- यह सर्वाधिक प्रचलित पुराण है. इस पुराण का सप्ताह-वाचन-पारायण भी होता है. इसे सभी दर्शनों का सार “निगमकल्पतरोर्गलितम्” और विद्वानों का परीक्षास्थल “विद्यावतां भागवते परीक्षा” माना जाता है. इसमें श्रीकृष्ण की भक्ति के बारे में बताया गया है.

  • यह सर्वाधिक प्रचलित पुराण है। इस पुराण का सप्ताह-वाचन-पारायण भी होता है। इसे सभी दर्शनों का सार “निगमकल्पतरोर्गलितम्” और विद्वानों का परीक्षास्थल “विद्यावतां भागवते परीक्षा” माना जाता है। इसमें श्रीकृष्ण की भक्ति के बारे में बताया गया है। इसमें कुल 12 स्कन्ध, 335 अध्याय और 18,000 श्लोक हैं। कुछ विद्वान् इसे “देवीभागवतपुराण” भी कहते हैं, क्योंकि इसमें देवी (शक्ति) का विस्तृत वर्णन हैं। इसका रचनाकाल ६ वी शताब्दी माना जाता है।

नारद (बृहन्नारदीय) पुराण- इसे महापुराण भी कहा जाता है. इसमें पुराण के 5 लक्षण घटित नहीं होते हैं. इसमें वैष्णवों के उत्सवों और व्रतों का वर्णन है

  • इसे महापुराण भी कहा जाता है। इसमें पुराण के 5 लक्षण घटित नहीं होते हैं। इसमें वैष्णवों के उत्सवों और व्रतों का वर्णन है। इसमें 2 खण्ड हैः—(क) पूर्व खणअ्ड में 125 अध्याय और (ख) उत्तर-खण्ड में 82 अध्याय हैं। इसमें 18,000 श्लोक हैं। इसके विषय मोक्ष, धर्म, नक्षत्र, एवं कल्प का निरूपण, व्याकरण, निरुक्त, ज्योतिष, गृहविचार, मन्त्रसिद्धि,, वर्णाश्रम-धर्म, श्राद्ध, प्रायश्चित्त आदि का वर्णन है।

मार्कण्डयपुराण- इसे प्राचीनतम पुराण माना जाता है. इसमें इन्द्र, अग्नि, सूर्य आदि वैदिक देवताओं का वर्णन किया गया है

  • इसे प्राचीनतम पुराण माना जाता है। इसमें इन्द्र, अग्नि, सूर्य आदि वैदिक देवताओं का वर्णन किया गया है। इसके प्रवक्ता मार्कण्डय ऋषि और श्रोता क्रौष्टुकि शिष्य हैं। इसमें 138 अध्याय और 7,000 श्लोक हैं। इसमें गृहस्थ-धर्म, श्राद्ध, दिनचर्या, नित्यकर्म, व्रत, उत्सव, अनुसूया की पतिव्रता-कथा, योग, दुर्गा-माहात्म्य आदि विषयों का वर्णन है।

अग्निपुराण- इसे भारतीय संस्कृति और विद्याओं का महाकोष माना जाता है इसमें विष्णु के अवतारों का वर्णन है. इसके अतिरिक्त शिवलिंग, दुर्गा, गणेश, सूर्य, प्राण-प्रतिष्ठा आदि के अतिरिक्त भूगोल, गणित, फलित-ज्योतिष, विवाह, मृत्यु, शकुन विद्या, वास्तु विद्या,आयुर्वेद, छन्द, काव्य, व्याकरण, कोष निर्माण आदि नाना विषयों का वर्णन है

  • इसके प्रवक्ता अग्नि और श्रोता वसिष्ठ हैं। इसी कारण इसे अग्निपुराण कहा जाता है। इसे भारतीय संस्कृति और विद्याओं का महाकोश माना जाता है। इसमें इस समय 383 अध्याय 11,500 श्लोक हैं। इसमें विष्णु के अवतारों का वर्णन है। इसके अतिरिक्त शिवलिंग, दुर्गा, गणेश, सूर्य, प्राणप्रतिष्ठा आदि के अतिरिक्त भूगोल, गणित, फलित-ज्योतिष, विवाह, मृत्यु, शकुनविद्या, वास्तुविद्या, दिनचर्या, नीतिशास्त्र, युद्धविद्या, धर्मशास्त्र, आयुर्वेद, छन्द, काव्य, व्याकरण, कोशनिर्माण आदि नाना विषयों का वर्णन है।

भविष्यपुराण- इसमें भविष्य की घटनाओं का वर्णन है. इसमें मुख्यतः ब्राह्मण-धर्म, आचार, वर्णाश्रम-धर्म आदि विषयों का वर्णन है

  • इसमें भविष्य की घटनाओं का वर्णन है। इसमें दो खण्ड हैः–(क) पूर्वार्धः–(अध्याय—41) तथा (ख) उत्तरार्ध–(अध्याय—171) । इसमें कुल 15,000 श्लोक हैं । इसमें कुल 5 पर्व हैः–(क) ब्राह्मपर्व, (ख) विष्णुपर्व, (ग) शिवपर्व, (घ) सूर्यपर्व तथा (ङ) प्रतिसर्गपर्व। इसमें मुख्यतः ब्राह्मण-धर्म, आचार, वर्णाश्रम-धर्म आदि विषयों का वर्णन है। इसका रचनाकाल 500 ई. से 1200 ई. माना जाता है।

ब्रह्मवैवर्तपुराण- यह वैष्णव पुराण है. इसमें श्रीकृष्ण के चरित्र का वर्णन किया गया है

  • यह वैष्णव पुराण है। इसमें श्रीकृष्ण के चरित्र का वर्णन किया गया है। इसमें कुल 18,000 श्लोक है और चार खण्ड हैः—(क) ब्रह्म, (ख) प्रकृति, (ग) गणेश तथा (घ) श्रीकृष्ण-जन्म।

लिङ्गपुराण- इसमें शिव की उपासना का वर्णन है. इसमें शिव के 28 अवतारों की कथाएँ दी गईं हैं

  • इसमें शिव की उपासना का वर्णन है। इसमें शिव के 28 अवतारों की कथाएँ दी गईं हैं। इसमें 11,000 श्लोक और 163 अध्याय हैं। इसे पूर्व और उत्तर नाम से दो भागों में विभाजित किया गया है। इसका रचनाकाल आठवीं-नवीं शताब्दी माना जाता है। यह पुराण भी पुराण के लक्षणों पर खरा नहीं उतरता है।

वराहपुराण- इसमें विष्णु के वराह-अवतार का वर्णन है. पाताललोक से पृथ्वी का उद्धार करके वराह ने इस पुराण का प्रवचन किया था

  • इसमें विष्णु के वराह-अवतार का वर्णन है। पाताललोक से पृथिवी का उद्धार करके वराह ने इस पुराण का प्रवचन किया था। इसमें 24,000 श्लोक सम्प्रति केवल 11,000 और 217 अध्याय हैं।

स्कन्दपुराण- यह पुराण शिव के पुत्र स्कन्द (कार्तिकेय, सुब्रह्मण्य) के नाम पर है. यह सबसे बड़ा पुराण है

  • यह पुराण शिव के पुत्र स्कन्द (कार्तिकेय, सुब्रह्मण्य) के नाम पर है। यह सबसे बडा पुराण है। इसमें कुल 81,000 श्लोक हैं। इसमें दो खण्ड हैं। इसमें छः संहिताएँ हैं—सनत्कुमार, सूत, शंकर, वैष्णव, ब्राह्म तथा सौर। सूतसंहिता पर माधवाचार्य ने “तात्पर्य-दीपिका” नामक विस्तृत टीका लिखी है। इस संहिता के अन्त में दो गीताएँ भी हैं—-ब्रह्मगीता (अध्याय—12) और सूतगीताः–(अध्याय-8)।
  • इस पुराण में सात खण्ड हैं—(क) माहेश्वर, (ख) वैष्णव, (ग) ब्रह्म, (घ) काशी, (ङ) अवन्ती, (रेवा), (च) नागर (ताप्ती) तथा (छ) प्रभास-खण्ड। काशीखण्ड में “गंगासहस्रनाम” स्तोत्र भी है। इसका रचनाकाल 7वीं शताब्दी है। इसमें भी पुराण के 5 लक्षण का निर्देश नहीं मिलता है।

वामनपुराण- इसमें विष्णु के वामन-अवतार का वर्णन है. इसमें चार संहिताएँ हैं—-(क) माहेश्वरी, (ख) भागवती, (ग) सौरी तथा (घ) गाणेश्वरी

  • इसमें विष्णु के वामन-अवतार का वर्णन है। इसमें 95 अध्याय और 10,000 श्लोक हैं। इसमें चार संहिताएँ हैं-(क) माहेश्वरी, (ख) भागवती, (ग) सौरी तथा (घ) गाणेश्वरी । इसका रचनाकाल 9वीं से 10वीं शताब्दी माना जाता है।

कूर्मपुराण- इसमें विष्णु के कूर्म-अवतार का वर्णन किया गया है. इसमें चार संहिताएँ हैं—(क) ब्राह्मी, (ख) भागवती, (ग) सौरा तथा (घ) वैष्णवी

  • इसमें विष्णु के कूर्म-अवतार का वर्णन किया गया है। इसमें चार संहिताएँ हैं—(क) ब्राह्मी, (ख) भागवती, (ग) सौरा तथा (घ) वैष्णवी । सम्प्रति केवल ब्राह्मी-संहिता ही मिलती है। इसमें 6,000 श्लोक हैं। इसके दो भाग हैं, जिसमें 41 और 44 अध्याय हैं। इसमें पुराण के पाँचों लक्षण मिलते हैं। इस पुराण में ईश्वरगीता और व्यासगीता भी है। इसका रचनाकाल छठी शताब्दी माना गया है।

मत्स्यपुराण- इसमें कलियुग के राजाओं की सूची दी गई है. इसका रचनाकाल तीसरी शताब्दी माना जाता है

  • इसमें पुराण के पाँचों लक्षण घटित होते हैं। इसमें 291 अध्याय और 14,000 श्लोक हैं। प्राचीन संस्करणों में 19,000 श्लोक मिलते हैं। इसमें जलप्रलय का वर्णन हैं। इसमें कलियुग के राजाओं की सूची दी गई है। इसका रचनाकाल तीसरी शताब्दी माना जाता है।

गरुडपुराण- यह वैष्णवपुराण है. इसमें विष्णुपूजा का वर्णन है. इसका पूर्वखण्ड विश्वकोषात्मक माना जाता है

  • यह वैष्णवपुराण है। इसके प्रवक्ता विष्णु और श्रोता गरुड हैं, गरुड ने कश्यप को सुनाया था। इसमें विष्णुपूजा का वर्णन है। इसके दो खण्ड हैं, जिसमें पूर्वखण्ड में 229 और उत्तरखण्ड में 35 अध्याय और 18,000 श्लोक हैं। इसका पूर्वखण्ड विश्वकोशात्मक माना जाता है।

ब्रह्माण्ड पुराण- इसमें चार पाद हैं—(क) प्रक्रिया, (ख) अनुषङ्ग, (ग) उपोद्घात तथा (घ) उपसंहार

  • इसमें 109 अध्याय तथा 12,000 श्लोक है। इसमें चार पाद हैं—(क) प्रक्रिया, (ख) अनुषङ्ग, (ग) उपोद्घात तथा (घ) उपसंहार । इसकी रचना 400 ई.- 600 ई. मानी जाती है।

उप-पुराण- अष्टादश पुराणों से पृथक् उपपुराणों का वर्णन भी पुराणों व अन्य शास्त्रों में प्राप्त होता है। देवीभागवत पुराण के अनुसार इनके नाम इस प्रकार हैं- सनत्कुमार 2. नरसिंह 3. नारदीय 4. शिव 5. दुर्वासा 6. कपिल 7. मनु 8. शुक 9. वरूण 10. कालिका 11. साम्ब 12. नन्दी 13. सूर्य 14. पराशर 15. आदित्य 16. माहेश्वर 17. श्रीमद्भागवत 18. वासिष्ठ

उपनिषद्upanishads.jpg

  • उपनिषद् हिन्दू धर्म के महत्त्वपूर्ण श्रुति धर्मग्रन्थ हैं। ये वैदिक वाङ्मय के अभिन्न भाग हैं। वैदिक वाङ्मय का अंतिम भाग होने से उपनिषदों को ‘वेदान्त’ भी कहते हैं। इनमें परमेश्वर, परमात्मा-ब्रह्म और आत्मा के स्वभाव और सम्बन्ध का बहुत ही दार्शनिक और ज्ञानपूर्वक वर्णन दिया गया है।
  • संस्कृत-साहित्य में उपनिषद् ग्रन्थों का स्थान बहुत ऊँचा है। यहाँ तक कि वेदों के शिरोभाग के नाम से उपनिषदों का परिचय दिया जाता है और अध्यात्मज्ञान के लिए उपनिषद्ग्रन्थ ही एकमात्र साधन है। वेदान्तसूत्र और श्रीमद्भगवद्गीता आदि समस्त गीताएँ उपनिषदों के ही ज्ञानरत्नों से परिपूर्ण हैं।
  • उपनिषद शब्द की निष्पत्ति ‘उप’ और ‘नि’ उपसर्ग के साथ ‘सद’ धातु से हुर्इ है, इसलिए इसका शाब्दिक अर्थ है-तत्वज्ञान के लिए गुरु के समीप सविनय बैठना।
  • सद धातु के अन्य तीन अर्थ हैं-विशरण (विनाश), गति (प्राप्त करना) और अवसादन (शिथिल होना)। अत: ‘उपनिषद उस विधा का नाम है, जिसके अनुशीलन से मुमुक्षुओं की अविधा का विनाश होता है, ब्रह्म की प्राप्ति होती है और दु:ख शिथिल हो जाते हैं।
  • उपनिषद् शब्द का एक अन्य अर्थ “उपासना” भी है। ब्रह्म के निराकार स्वरूप की उपासनाही उपनिषद् है। एक अन्य अर्थ के अनुसार उप-समीप, निषत-निषीदति बैठनेवाला। अर्थात् जो उस परब्रह्म के समीप पहुँचकर ब्रह्म तेज से प्रकाशित होकरशान्त भाव से बैठ जाता है, वही उपनिषद् है।

उपनिषदों की संख्या

  • ‘मुक्तिकोपनिषद’- (श्लोक संख्या 30 से 39 तक) 108 उपनिषदों की सूची दी गयी है।

वेदानुसार वर्गीकरण- प्रत्येक उपनिषद का किसी न किसी वेद से सम्बन्ध है। अत: 108 उपनिषदों को इस प्रकार बांटा जा सकता है-

  1. ऋग्वेदीय उपनिषद – ऐतरेय, कौषीतकि आदि 10 उपनिषद।
  2. शुक्लयजुर्वेदीय उपनिषद – र्इश, बृहदारण्यक आदि 19 उपनिषद।
  3. कृष्णयजुर्वेदीय उपनिषद – कठ, तैत्तिरीय, श्वेताश्वतर आदि 32 उपनिषद।
  4. सामवेदीय उपनिषद – केन, छान्दोग्य आदि 16 उपनिषद।
  5. अथर्ववेदीय उपनिषद – प्रश्न, मुण्डक, माण्डूक्य आदि 31 उपनिषद।

विषयानुसार वर्गीकरण- 108 उपनिषदों को विषयानुसार छह भागों में बांटा जा सकता है-

  1. वेदान्त के सिदान्तों पर निर्भर 24 उपनिषद
  2. योग के सिदान्तों पर निर्भर 20 उपनिषद
  3. सांख्य के सिदान्तों पर निर्भर 17 उपनिषद    
  4. वैष्णव सिदान्तों पर निर्भर 14 उपनिषद
  5. शैव सिदान्तों पर निर्भर 15 उपनिषद
  6. शाक्त और अन्य सिदान्तों पर निर्भर 18 उपनिषद।
  • महावाक्य कोश के अनुसार 223 उपनिषद् कही गई है। वहीं शंकराचार्य ने उपनिषदों की संख्या 10 मानी है- ईश-केन-कठ-प्रश्न-मुण्ड-माण्डूक्य-तित्तिरिः। ऐतरेयं च छान्दोग्यं बृहदारण्यक दश।।
  • शंकराचार्य ने जिन उपनिषदों की टीका लिखी वे ही सबसे प्रमुख हैं। उनके नाम हैं- 1. ईश, 2. केन, 3. कठ, 4. प्रश्न, 5. माण्डूक्य, 6. तैत्तिरीय, 7. ऐतरेय, 8. छान्दोग्य, 9. वृहदारण्यक, 10. नृसिंह पर्व तापनी।
  • ‘संस्कृति के चार अध्याय’ में श्रीरामधारी सिंह ‘दिनकर’ लिखते हैं कि ‘मुक्तिक उपनिषद के अनुसार सभी उपनिषदों की संख्या 108 है परंतु पंडितजन इनमें से सबको समान महत्व नहीं देते। ऐतिहासिक दृष्टि से वे ही उपनिषद महत्वपूर्ण माने जाते हैं जिनकी रचना बुद्धदेव के आविर्भाव के पहले हो चुकी थी।
  • श्रीरामानुजाचार्य ने सभी उपनिषदों की टीका तो नहीं लिखी किंतु उन्होंने भी प्राय: इन्हीं उपनिषदों का हवाला दिया है।’ उपनिषदों की संख्या में निरंतर वृद्धि हुई है एवं अब यह संख्या 250 तक पहुँच गई है।

उपनिषदों की रचना शैली- उपनिषदों की रचना शैली गुरु-शिष्य संवाद, विद्वान ऋषियों से चिंतनशील जिज्ञासुओं के प्रश्नोत्तर, विद्वानों की पारस्परिक चर्चाओं या वरिष्ठों के उपदेशों के रूप में हैं। कहीं-कहीं रूपकों या संक्षिप्त आख्यानों द्वारा भी गंभीर विचारों को समझाने की युक्ति अपनाई गई है। उपनिषदों के कथ्य में अनेक विदुषी महिलाओं की भी प्रभावशील भागीदारी है।     

उपनिषदों का रचनाकाल- डॉ. राधाकृष्णन ने अपने ग्रंथ ‘भारतीय दर्शन’ (भाग-1) में उपनिषदों के रचनाकाल के विषय में यह मत व्यक्त किया है –  जिन उपनिषदों पर शंकराचार्य ने भाष्य किया है वे ही सबसे प्राचीन तथा अत्यंत प्रामाणिक हैं। उनके निर्माण की कोई ठीक तिथि हम निश्चित नहीं कर सकते। इनमें से जो एकदम प्रारंभ के हैं वे तो निश्चित रूप से बौद्धकाल के पहले के हैं और उनमें से कुछ बुद्ध के पीछे के हैं। यह संभव है कि उनका निर्माण वैदिक सूक्तों की समाप्ति और बौद्धधर्म के आविर्भाव अर्थात ईसा के पूर्व छठी शताब्दी के मध्यवर्ती काल में हुआ हो।

  • प्रारंभिक उपनिषदों का रचनाकाल 1000 ईस्वी पूर्व से लेकर 300 ईस्वी 3पूर्व तक माना गया है। कुछ परवर्ती उपनिषद्, जिन पर शंकर ने भाष्य किया, बौद्धकाल के पीछे के हैं और उनका रचनाकाल 400 या 300 ई.पू. का है। सबसे पुराने उपनिषद वे हैं जो गद्य में हैं। वे सम्प्रदायवाद से रहित हैं।
  • ऐतरेय, कौषीतकीं, तैत्तिरीय, छान्दोग्य, वृहदारण्यक के अलावा केन उपनिषद के कुछ भाग पुराने हैं जबकि केनोपनिषद एवं वृहदराण्यक के कुछ अंश बाद में जोड़े गए प्रतीत होते हैं। प्रक्षिप्त अंशों के अध्ययन में पर्याप्त सावधानी की अपेक्षा है जिससे अर्थ का अनर्थ न हो जाए। सही-गलत जाँचने-परखने की कसौटी है- उपनिषदों में जो वेदानुकूल है वह ग्राह्य है, जो वेद ‍विरुद्ध है वह त्याज्य है।
  • कठोपनिषद और भी बाद का है। इसमें हमें सांख्य और योगदर्शन के तत्व मिलते हैं। श्वेताश्वतर का निर्माण ऐसे काल में हुआ जबकि बहुत प्रकार के दार्शनिक ग्रंथों के पारिभाषिक शब्द इसमें मिलते हैं और उनके मुख्य सिद्धांतो का समावेश भी इसमें किया गया है।
  • ऐसा प्रतीत होता है कि इस उपनिषद का आशय वेदान्त, सांख्य और योग इन तीनों दर्शनों का आस्तिकवादपरक समन्वय करना है। प्रारंभिक गद्यात्मक उपनिषदों में अधिकतर विशुद्ध कल्पना पाई जाती है। जबकि परवर्ती उपनिषदों में अधिकांशत: धार्मिक पूजा और भक्ति का समावेश है।’

भारतीय विद्वानों की दृष्टि में उपनिषद्

स्वामी विवेकानन्द—’मैं उपनिषदों को पढ़ता हूँ, तो मेरे आंसू बहने लगते है। यह कितना महान ज्ञान है? हमारे लिए यह आवश्यक है कि उपनिषदों में सन्निहित तेजस्विता को अपने जीवन में विशेष रूप से धारण करें। हमें शक्ति चाहिए। शक्ति के बिना काम नहीं चलेगा। यह शक्ति कहां से प्राप्त हो? उपनिषदें ही शक्ति की खानें हैं।

रविन्द्रनाथ टैगोर–’चक्षु-सम्पन्न व्यक्ति देखेगें कि भारत का ब्रह्मज्ञान समस्त पृथिवी का धर्म बनने लगा है। प्रातः कालीन सूर्य की अरुणिम किरणों से पूर्व दिशा आलोकित होने लगी है। परन्तु जब वह सूर्य मध्याह्र गगन मं  प्रकाशित होगा, तब उस समय उसकी दीप्ति से समग्र भू-मण्डल दीप्तिमय हो उठेगा।’

डा॰ सर्वपल्ली राधाकृष्णन–’उपनिषदों को जो भी मूल संस्कृत में पढ़ता है, वह मानव आत्मा और परम सत्य के गुह्य और पवित्र सम्बन्धों को उजागर करने वाले उनके बहुत से उद्गारों के उत्कर्ष, काव्य और प्रबल सम्मोहन से मुग्ध हो जाता है और उसमें बहने लगता है।’

सन्त विनोवा भावे— ‘उपनिषदों की महिमा अनेकों ने गायी है। हिमालय जैसा पर्वत और उपनिषदों- जैसी कोई पुस्तक नहीं है, परन्तु उपनिषद कोई साधारण पुस्तक नहीं है, वह एक दर्शन है।

पश्चिम के विद्वानों की दृष्टि में उपनिषद्

मैक्समूलर— ‘मृत्यु के भय से बचने, मृत्यु के लिए पूरी तैयारी करने और सत्य को जानने के इच्छुक जिज्ञासुओं के लिए, उपनिषदों के अतिरिक्त कोई अन्य-मार्ग मेरी दृष्टि में नहीं है। उपनिषदों के ज्ञान से मुझे अपने जीवन के उत्कर्ष में भारी सहायता मिली है। मै उनका ॠणी हूं। ये उपनिषदें, आत्मिक उन्नति के लिए विश्व के समस्त धार्मिक साहित्य में अत्यन्त सम्मानीय रहे हैं और आगे भी सदा रहेंगे। यह ज्ञान, महान, मनीषियों की महान प्रज्ञा का परिणाम है। एक-न-एक दिन भारत का यह श्रेष्ठ ज्ञान यूरोप में प्रकाशित होगा और तब हमारे ज्ञान एवं विचारों में महान परिवर्तन उपस्थित होगा।’

प्रो॰ ह्यूम— ‘सुकरात, अरस्तु, अफ़लातून आदि कितने ही दार्शनिक के ग्रन्थ मैंने ध्यानपूर्वक पढ़े है, परन्तु जैसी शान्तिमयी आत्मविद्या मैंने उपनिषदों में पायी, वैसी और कहीं देखने को नहीं मिली।*’

प्रो॰ जी॰ आर्क— ‘मनुष्य की आत्मिक, मानसिक और सामाजिक गुत्थियां किस प्रकार सुलझ सकती है, इसका ज्ञान उपनिषदों से ही मिल सकता है। यह शिक्षा इतनी सत्य, शिव और सुन्दर है कि अन्तरात्मा की गहराई तक उसका प्रवेश हो जाता है। जब मनुष्य सांसरिक दुःखो और चिन्ताओं से घिरा हो, तो उसे शान्ति और सहारा देने के अमोघ

बेबर— ‘भारतीय उपनिषद ईश्वरीय ज्ञान के महानतम ग्रन्थ हैं। इनसे सच्ची आत्मिक शान्ति प्राप्त होती है। विश्व-साहित्य की ये अमूल्य धरोहर है।

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ब्राह्मण ग्रन्थ धर्मग्रन्थ वेदों का गद्य में व्याख्या वाला खण्ड है। ब्राह्मणग्रन्थ वैदिक वाङ्मय का वरीयता के क्रम में दूसरा हिस्सा है। अर्थात् वेदों के बाद ब्राह्मण ग्रन्थों का स्थान आता है। ब्राह्मण ग्रन्थों में गद्य रूप में देवताओं की तथा यज्ञ की रहस्यमय व्याख्या की गयी है और मन्त्रों पर भाष्य भी दिया गया है। इनकी भाषा वैदिक संस्कृत है। हर वेद का एक या एक से अधिक ब्राह्मणग्रन्थ है (हर वेद की अपनी अलग-अलग शाखा है)। ब्राह्मण ग्रन्थों की भाषा गद्य का प्राचीनतम रूप है। कुछ विद्वान ब्राह्मण ग्रन्थों को वेदों का अतिप्राचीन भाष्य मानते हैं।

ब्राह्मण ग्रन्थों का विवेच्य विषय- ब्राह्मण ग्रन्थों का मुख्य विषय यज्ञकर्म का विधान है। अग्निहोत्र, दर्शपूर्णमास, चातुर्मास्य, सोमयज्ञ इत्यादि यज्ञों के निरूपण के साथ-साथ सत्रा आदि और काम्य-यज्ञों का वर्णन भी ब्राह्मण ग्रन्थों में प्राप्त होता है। यज्ञ का विधान कब हो? कैसे हो? किन किन साधनों से हो? इस प्रकार अनेक यज्ञकर्म विषयक प्रश्नों का समाधान इन ग्रन्थों में है। इन विभागों को ही ‘विधि कहते हैं।

वेद और संबंधित ब्राह्मण

ऋग्वेद के दो ब्राह्मण ग्रन्थ है- 1. कौषीतकि 2. ऐतरेय। इन दोनों में ग्रन्थों का सम्बन्ध अत्यन्त घनिष्ठ है।

  • कौषीतकि ब्राह्मण ग्रन्थ- कौषीतकि ब्राह्मण में तीस अध्याय हैं। प्रत्येक अध्याय में पाँच से लेकर सत्तरह खण्ड हैं। कौषीतकि ब्राह्मण में रुद्र की महिमा का विशेष वर्णन प्राप्त होता है। यह शांखायन शाखा का ब्राह्मणहै, अतः इसे शांखायन ब्राह्मण भी कहते हैं।
  • ऐतरेय ब्राह्मण ग्रन्थ- ऐतरेय ब्राह्मण के रचियता महिदास हैं, इस ब्राह्मण में 40 अध्याय हैं, 8 पंजिकाएँ तथा 285कण्डिकाएँ हैं। इसका मुख्य विषय सोमयज्ञ है तथा होता नामक ऋत्विज के क्रिया कलापों का भीविस्तृत विवेचन उपलब्ध होता है। शुनः शेपः का आख्यान इसी ब्राह्मण में उपलब्ध होता है। चरैवेति चरैवेति” की सुन्दर शिक्षा ऐतरेय ब्राह्मण की विशेषता है। इस ब्राह्मण में सोमहरण आख्यान भी है।

यजुर्वेद के ब्राह्मण ग्रन्थ यजुर्वेद के दो भाग हैं- 1. कृष्ण यजुर्वेद 2. शुक्ल यजुर्वेद।

  • कृष्ण यजुर्वेद के ब्राह्मण-  कृष्ण यजुर्वेद की वर्तमान काल में चार शाखाएँ हैं- तैत्तिरीय, मैत्रायणी, कठ, कपिष्ठल।इन चारों शाखाओं में से केवल तैत्तिरीय शाखा का ब्राह्मण उपलब्ध है। तैत्तिरीय ब्राह्मण तैत्तिरीय ब्राह्मण कृष्ण यजुर्वेद की तैत्तिरीय शाखा से सम्बद्ध है यह ब्राह्मण तीन भागों मेंविभक्त हैं जिन्हें काण्ड कहते हैं। इसके रचयिता वैशम्पायन के शिष्य आचार्य तित्तिर हैं। तैत्तिरीयब्राह्मण में अश्वमेध, राजसूय, सोमयाग आदि यज्ञों का वर्णन विस्तार से प्राप्त होता है।
  • शुक्ल यजुर्वेद- की दो शाखाएँ हैं,काण्व शाखा तथा माध्यन्दिन शाखा। इन दोनों ही शाखाओं के ब्राह्मण का नाम शतपथ है। शुक्ल यजुर्वेद का एकमात्र ब्राह्मण शतपथ ब्राह्मण है। शतपथ ब्राह्मण सबसे प्रसिद्ध ब्राह्मण ग्रन्थ है। यह सब प्रकार से पूर्ण और सुबद्ध ब्राह्मण ग्रन्थ है। ”वेद कालीन धार्मिक समाज का उज्जवल चित्र शतपथ ब्राह्मण ग्रन्थ में ही मिलता है। सबसे अधिक आदर ब्राह्मण समूह में शतपथ ब्राह्मण को ही प्राप्त है।’

सामवेद संहिता के सबसे अधिक ब्राह्मण उपलब्ध होते हैं- सामवेद से सम्बन्धित आठ ब्राह्मण हैं। सायणाचार्य ने सामवेद के ब्राह्मणों के नाम उल्लेख किये हैं-

  1. प्रौढ़ या ताण्ड्य ब्राह्मण- सामवेद के ब्राह्मणों में सबसे अधिक विस्तृत होने के कारण इसे प्रौढ़ या महाब्राह्मण कहाजाता है। इसके रचयिता सामवेद के आचार्य तडि हैं। अतः इसका ताण्ड्य ब्राह्मण भी नाम है।ताण्ड्य ब्राह्मण में 25 अध्याय हैं,इस कारण यह पंचविश नाम से अभिहित हुआ है। पंचविंश ब्राह्मणका प्रतिपाद्य विषय सोमयाग है।
  2. षड्विंश ब्राह्मण- इस ब्राह्मण में 26 अध्याय हैं। अतः इसे षड्विंश ब्राह्मण कहते हैं। षड्वंश ब्राह्मण सामवेद की कौथुम शाखा से सम्बद्ध है। आचार्य सायण ने अपने भाष्य में इसे ताण्डवैकशेष ब्राह्मण अर्थात्ताण्ड्य का एक भाग या परिशिष्ट कहा है। इसमें इन्द्र तथा अहल्या का आख्यान अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है।
  3. सामविधान ब्राह्मण- सामविधान ब्राह्मण में तीन प्रपाठक और 25 अनुवाक हैं। इसमें श्रौत यागों के साथ-साथकाम्य याग और अभिचार कर्मों का भी विस्तृत विवेचन है।
  4. आर्षेयब्राह्मण- सामवेद की कौथुमी शाखा के अनुयायियों का ही यह ब्राह्मण है। इसमें मुख्यतः सामगानके नामों का वर्णन है। आर्षेय ब्राह्मण में तीन प्रपाठक हैं जो 72 खण्डों में विभक्त हैं। इस ब्राह्मणमें सामवेद के उद्भावक ऋषियों के नाम का संकेत है। अतः यह ब्राह्मण सामवेद के लिएअर्षानुक्रमणी का काम करता है।
  5. देवताध्याय ब्राह्मण- यह ब्राह्मण अत्यन्त छोटा ब्राह्मण है, इसमें केवल तीन खण्ड हैं। देवताध्याय ब्राह्मण मेंदेवताओं की प्रशंसा, छन्दों की निरुक्तियाँ आदि का वर्णन प्राप्त होता है।
  6. उपनिषद् ब्राह्मण इस ब्राह्मण में दो ग्रन्थ सम्मिलित हैं- मन्त्र ब्राह्मण तथा छान्दोग्य उपनिषद् । मन्त्र ब्राह्मण| इस ब्राह्मण को छान्दोग्य ब्राह्मण कहते हैं, इसमें दो प्रपाठक हैं, प्रत्येक प्रपाठक में आठ-आठकाण्ड हैं। छान्दोग्य ब्राह्मण के शेष 8 प्रपाठक छान्दोग्य उपनिषद् हैं। शंकराचार्य ने इसे ‘तण्डिनामउपनिषद्की संज्ञा दी है। यह ब्राह्मण कौथुम शाखा से सम्बद्ध है।
  7. संहितोपनिषद् ब्राह्मण- संहितोपनिषद् का अर्थ है, संहिता के उपनिषद् । इसमें साम गायन के विशेष नियमों कावर्णन प्राप्त होता है। इसमें पाँच खण्ड हैं। इस ब्राह्मण में सामवेद के प्रातिशाख्यसूत्र, सामतंत्र औरफुल्लुसूत्रादि उपलब्ध होते हैं।
  8. वंश ब्राह्मण- सामवेद का यह ब्राह्मण अत्यन्त छोटा है। इसमें तीन खण्ड हैं। इसमें सामगान के प्रवर्तकऋषियों और आचार्यों की वंश परम्परा का विस्तृत विवेचन है।

अथर्ववेद के ब्राह्मण

  • गोपथ ब्राह्मण- अथर्ववेद से सम्बद्ध केवल एक ही ब्राह्मण उपलब्ध है, जिसका नाम गोपथ ब्राह्मण है।गोपथ ब्राह्मण गोपथ ब्राह्मण के दो भाग हैं, पूर्व गोपथ तथा उत्तर गोपथ। पूर्व गोपथ में पाँच प्रपाठक हैं, उत्तर गोपथ में छः प्रपाठक हैं। प्रपाठकों का विभाजन कण्डिकाओं में हुआ है जो कुल मिलाकर258 हैं। इसके रचयिता गोपथ ऋषि हैं। यह अथर्ववेद की पिप्पलाद शाखा से सम्बद्ध है।

ब्राह्मण ग्रन्थ जो अनुपलब्ध हैं- इस प्रकार स्पष्ट होता है कि प्राचीन समय में अनेक ब्राह्मण ग्रन्थ विद्यमान थे। जो वर्तमानकाल में उपलब्ध नहीं हैं, परन्तु इनके नाम उपलब्ध ब्राह्मण ग्रन्थों में एवं विविध भाष्यकारोंद्वारा उनके भाष्यों में उल्लेख किये गये हैं। उन अनुपलब्ध ब्राह्मण ग्रन्थों का उल्लेख निम्नवत् है-

ऋग्वेद के अनुपलब्ध ब्राह्मण

  1. पैङ्गि ब्राह्मण- पैङ्गि ब्राह्मण ऋग्वेद का ब्राह्मण है, क्योंकि पैङ्गय शाखा ऋग्वेद की है। इस ब्राह्मण के विषयमें प्रपञ्चहृदय की एक कारिका में प्रमाण उपलब्ध होता है। आयुर्वेद के ग्रन्थ चरकसंहिता में भीपैङ्गि ऋषि का वर्णन है।
  2. बहुवृच ब्राह्मण- शतपथ ब्राह्मण में बवृच शब्द का उल्लेख प्राप्त होता है। पाणिनि ने बवृच से सम्बद्धएक सूत्र भी दिया है। श्रीमद्भागवत् गीता का एक श्लोक भी बवृच का संकेत करता है, किनैमिषारण्यवासी शौनक ऋषि बघृच थे।
  3. आश्वलायन ब्राह्मण- ऋग्वेद की 21 शाखाओं का उल्लेख पतंजलि महाभाष्य में हुआ है। प्रपञ्चहृदय की कारिकाएकविंशतिधा वावृच्यम्’ शब्द से ऋग्वेद की शाखाओं का उल्लेख है।

यजुर्वेद के अनुपलब्ध ब्राह्मण

  1. चरक ब्राह्मण- कृष्णयजुर्वेदी की प्रधान शाखा चरक से सम्बन्धित है। ऋग्वेद के सायणभाष्य में इस ब्राह्मणका उल्लेख प्राप्त होता है। काठक संहिता में भी इस ब्राह्मण के विषय में वर्णन प्राप्त होता है।
  2. काठक ब्राह्मण- यजुर्वेद की चार शाखाएँ कठ, कपिष्ठल, तैत्तिरीय तथा मैत्रायणी हैं। अतः काठक ब्राह्मणयजुर्वेद से सम्बद्ध है, तैत्तिरीय ब्राह्मण का कुछ अन्तिम भाग अर्थात् अष्टक को कठ एवं काठकब्राह्मण कहते हैं।
  3. मैत्रायणी ब्राह्मण- मैत्रायणी ब्राह्मण मैत्रायणी संहिता से सम्बद्ध है। बौद्यायन श्रौतसूत्र में मैत्रायणी ब्राह्मण काउल्लेख प्राप्त होता है।

यजुर्वेद के अनेक ब्राह्मण हैं जिनका केवल नामोल्लेख उपलब्ध होता है-1. औरवेय ब्राह्मण’ 2. जाबाल ब्राह्मण 3. कंकति ब्राह्मण4. छागलेय ब्राह्मण 5. खाण्डिकेय ब्राह्मण

सामवेद के अनुपलब्ध ब्राह्मण

  • भाल्लवि ब्राह्मण भाल्लवि शाखा का ब्राह्मण प्राचीन काल में विद्यमान था।’ ताण्ड्य ब्राह्मण में भी भाल्लवियों का वर्णन है। इन ग्रन्थों में इस ब्राह्मण के विषय में उल्लेख है, अतः इसके होने का संकेत मिलता है।
  • रौरुकि ब्राह्मण गोभिल गृह्यसूत्र में इस ब्राह्मण से सम्बद्ध पाठ है। ताण्ड्य ब्राह्मण के भाष्य में सायण ने रौरुकि ब्राह्मण का प्रमाण दिया है।
  • शाट्यायन ब्राह्मण शाट्यायन ब्राह्मण के अनेक उद्धरण प्राप्त होते हैं। ऋग्वेद के सायण भाष्य में इस ब्राह्मणके विषय में उल्लेख है। आश्वलायन श्रौतसूत्र में शाट्यायन ब्राह्मण की चर्चा है।

ऐसे भी ब्राह्मण ग्रन्थ हैं जिनका सम्बन्ध किसी शाखा से निश्चित करना सम्भव नहीं है। उन ब्राह्मणों के नाम इस प्रकार हैं-

  1. आरुणेय ब्राह्मण
  2. सौलभ ब्राह्मण  
  3. शैलाली ब्राह्मण
  4. पराशर ब्राह्मण
  5. माषशरावि ब्राह्मण
  6. कापेय ब्राह्मण

इस प्रकार ब्राह्मण ग्रन्थ अनेक हैं, परन्तु कालान्तर में विलुप्त हो गये और वर्तमान में कुछ ही ब्राह्मण ग्रन्थ उपलब्ध हैं।

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तमाम लोगों को अपनी-अपनी मंजीलें मिली.. कमबख्त दिल हमारा ही हैं जो अब भी सफ़र में हैं… पत्रकार बनने की कोशिश, कभी लगा सफ़ल हुआ तो कभी लगा …..??? अठारह साल हो गए पत्रकार बनने की कोशिश करते। देश के सर्वोतम संस्थान (आईआईएमसी) से 2003 में पत्रकारिता की। इस क्षेत्र में कूदने से पहले शिक्षा के क्षेत्र से जुड़ा था, अंतरराष्ट्रीय राजनीति में रिसर्च कर रहा था। साथ ही भारतीय सिविल सेवा परिक्षा की तैयारी में रात-दिन जुटा रहता था। लगा एक दिन सफ़ल हो जाऊंगा। तभी भारतीय जनसंचार संस्थान की प्रारंभिक परिक्षा में उर्तीण हो गया। बस यहीं से सब कुछ बदल गया। दिल्ली में रहता हूं। यहीं पला बड़ा, यहीं घर बसा। और यहां के बड़े मीडिया संस्थान में पत्रकारिता जैसा कुछ करने की कोशिश कर रहा हूं। इतने सालों से इस क्षेत्र में टिके रहने का एक बड़ा और अहम कारण है कि पहले ही साल मुझे मेरे वरिष्ठों ने समझा दिया गया था कि हलवाई बनो। जैसा मालिक कहे वैसा पकवान बनाओ। सो वैसा ही बना रहा हूं, कभी मीठा तो कभी खट्टा तो कभी नमकीन, इसमें कभी-कभी कड़वापन भी आ जाता है। सफ़र ज्यादा लम्बा नहीं, इन चौदह सालों के दरम्यां कई न्यूज़ चैनलों (जी न्यूज़, इंडिया टीवी, एनडीटीवी, आजतक, इंडिया न्यूज़, न्यूज़ एक्सप्रेस, न्यूज़24) से गुजरना हुआ। सभी को गहराई से देखने और परखने का मौका मिला। कई अनुभव अच्छे रहे तो कई कड़वे। पत्रकारों को ‘क़लम का सिपाही’ कहा जाता है, क़लम का पत्रकार तो नहीं बन पाया, हां ‘कीबोर्ड का पत्रकार’ जरूर बन गया। अब इस कंप्यूटर युग में कीबोर्ड का पत्रकार कहलाने से गुरेज़ नही। ख़बरों की लत ऐसी कि छोड़ना मुश्किल। अब मुश्किल भी क्यों न हो? सारा दिन तो ख़बरों में ही निकलता है। इसके अलावा अगर कुछ पसंद है तो अच्छे दोस्त बनना उनके साथ खाना, पीना, और मुंह की खुजली दूर करना (बुद्धिजीवियों की भाषा में विचार-विमर्श)। पर समस्या यह है कि हिन्दुस्तान में मुंह की खुजली दूर करने वाले (ज्यादा खुजली हो जाती है तो लिखना शुरू कर देते हैं… साथ-साथ उंगली भी करते हैं) तो प्रचुर मात्रा में मिल जाएंगे लेकिन दोस्त बहुत मुश्किल से मिलते हैं। ब्लॉगिंग का शौक कोई नया नहीं है बीच-बीच में भूत चढ़ जाता है। वैसे भी ब्लॉगिंग कम और दोस्तों को रिसर्च उपलब्ध कराने में मजा आता है। रिसर्च अलग-अलग अखबारों, विभिन्न वेवसाइटों और ब्लॉग से लिया होता है। किसी भी मित्र को जरूरत हो किसी तरह की रिसर्च की… तो जरूर संपर्क कर सकते हैं।

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